Narendra Modi Magic :Mandal, Mandir and Marketing Combination

Written by रविवार, 25 मई 2014 12:06
मोदी का मैजिक – भगवा क्रान्ति, जो सिर चढ़कर बोले...

सत्तर के दशक में भारतीय फिल्मों के दर्शक राजेश खन्ना के आँखें मटकाने वाले रोमांस, देव आनंद के झटके खाते संवादों से लगभग ऊब चले थे. उसी दौरान भारत में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में जो काँग्रेस सरकार चल रही थी, उसके कारनामों से भी आम जनता बेहद परेशान, त्रस्त, बदहाल और हताश हो चुकी थी. ठीक उसी समय रुपहले परदे पर अमिताभ बच्चन नामक एंग्री-यंगमैन का प्रादुर्भाव हुआ जो युवा वर्ग के गुस्से, निराशा और आक्रोश का प्रतीक बना. थाने में रखी कुर्सी को अपनी बपौती समझने वाले शेर खान के सामने ही गरजकर उस कुर्सी को लात मारकर गिराने वाले इस महानायक का भारत की जनता ने जैसा स्वागत किया, वह आज तक न सिर्फ अभूतपूर्व है, बल्कि आज भी जारी है. जी हाँ, आप बिलकुल सही समझे... सभी पाठकों के समक्ष अमिताभ बच्चन का यह उदाहरण रखने का तात्पर्य लोकसभा चुनाव 2014 के हालात और नरेंद्र मोदी की जीत से तुलना करना ही है.


विगत दस वर्ष में यूपीए-१ एवं यूपीए-२ के कार्यकाल में देश का बेरोजगार युवा, व्यापारी वर्ग, ईमानदार नौकरशाह, मजदूर तथा किसान जिस तीव्रता से निराशा और उदासीनता के गर्त में जा रहे थे, उसकी मिसाल विगत शताब्दी के राजनैतिक इतिहास में मिलना मुश्किल है. लूट, भ्रष्टाचार, कुशासन, मंत्रियों की अनुशासनहीनता, काँग्रेस की मनमानी इत्यादि बातों ने इस देश के भीतर गुस्से की एक अनाम, अबूझ लहर पैदा कर दी थी. फिर इस परिदृश्य पर आगमन हुआ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्रभाई दामोदरदास मोदी का... और इस व्यक्ति ने अपने ओजस्वी भाषणों, अपनी योजनाओं, अपने सपनों, अपने नारों, अपनी मुद्राओं से जनमानस में जो लहर पैदा की, उसकी तुलना अमिताभ बच्चन के प्रति निराश-हताश युवाओं दीवानगी से की जा सकती है. काँग्रेस से बुरी तरह क्रोधित और निराश भारत की जनता ने नरेंद्र मोदी में उसी अमिताभ बच्चन की छवि देखी और नरेंद्र मोदी ने भी इस गुस्से को भाँपने में कतई गलती नहीं की.

भारत के इतिहास में इस आम चुनाव से पहले कोई चुनाव ऐसा नहीं था, जिसके परिणामों को लेकर जनमानस में इतनी अधिक उत्सुकता रही हो. क्योंकि इन चुनावों में जहाँ एक तरफ काँग्रेसी कुशासन एवं यूपीए घटक दलों की महालूट के खिलाफ खड़ा युवा एवं मध्यमवर्ग था... वहीं दूसरी तरफ पिछले दस वर्ष में मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार जैसे कानूनों द्वारा अल्प लाभान्वित लेकिन अधिकाँशतः बरगलाया हुआ निम्न वर्ग था. परिणामों वाले दिन अर्थात 16 मई की सुबह से ही वातावरण में सनसनी थी. चौराहों-गाँवों-शॉपिंग मॉल्स-चाय की दुकानों पर चहुँओर सिर्फ इसी बात की उत्सुकता थी कि भाजपा को कितनी सीटें मिलती हैं? काँग्रेस की विदाई का विश्वास तो सभी को था, परन्तु साथ ही मन में एक आशंका भी थी कि कहीं देश पुनः 1996-1998 वाली “खिचड़ी” और “भानुमती के कुनबे” जैसी तीसरा मोर्चा सरकारों के युग में न जा धँसे. कहीं नरेंद्र मोदी को 272 से कम सीटें मिलीं तो क्या वे खुले हाथ से काम कर सकेंगे या जयललिता-माया और ममता वाजपेयी सरकार की तरह ही नरेंद्र मोदी को ब्लैकमेल करने में कामयाब हो जाएँगी? तमाम आशंकाएँ, कुशंकाएँ, भय निर्मूल सिद्ध हुए और NDA को 334 सीटें मिलीं जिसमें भाजपा को अकेले ही 284 सीटें मिल गईं.


16 मई 2014 की सुबह नौ बजे के आसपास टीवी स्क्रीन पर जो पहला चुनाव परिणाम झलका, वह था कि पश्चिमी उप्र की बागपत सीट से चौधरी अजित सिंह को मुम्बई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने पराजित कर दिया है. जाट बहुल बेल्ट में, एक पूर्व प्रधानमंत्री के बेटे और केन्द्रीय मंत्री अजित सिंह अपने-आप में एक बड़ी हस्ती हैं. नौकरी छोड़कर राजनीति में कदम रख रहे मुम्बई पुलिस कमिश्नर, जिन्हें चुनावी छक्के-पंजे मालूम नहीं, पहली बार चुनाव लड़ रहे हों, अजित सिंह की परम्परागत सीट पर चुनौती दे रहे हों... इसके बावजूद वे जीत जाएँ, यह टीवी देख रहे राजनैतिक पंडितों और विश्लेषकों के लिए बेहद चौंकाने वाला था. उसी समय लग गया था, कि यूपी में कुछ ऐतिहासिक होने जा रहा है.

और वैसा ही हुआ... दोपहर के तीन बजते-बजते यूपी के चुनाव परिणामों ने दिल्ली में काँग्रेस और गाँधी परिवार को झकझोरना आरम्भ कर दिया. भाजपा की बम्पर 71 सीटें, जबकि मुलायम सिंह सिर्फ अपने परिवार की पाँच सीटें तथा सोनिया-राहुल अपनी-अपनी सीटें बचाने में ही कामयाब रहे. सबसे अधिक भूकम्पकारी परिणाम रहा बहुजन समाज पार्टी का. जाति से बुरी तरह ग्रस्त यूपी में मायावती की बसपा अपना खाता भी न खोल सके, यह बात पचाने में बहुत लोगों को काफी समय लगा. इसी प्रकार जैसे-जैसे यूपी के परिणाम आते गए यह स्पष्ट होता गया, कि इस बार यूपी में एक भी मुस्लिम प्रतिनिधि चुनकर नहीं आने वाला. हालांकि भाजपा के कट्टर से कट्टर समर्थक ने भी यूपी में 71 सीटों का अनुमान या आकलन नहीं किया था. लेकिन यह जादू हुआ और “नमो” के इस जादू की झलक पूर्वांचल तथा बिहार की उन सीटों पर भी दिखाई दी, जो बनारस के आसपास थीं.



आखिर यूपी-बिहार में ऐसी कौन सी लहर चली कि 120 सीटों में से NDA को 100 से अधिक सीटें मिल गईं. बड़े-बड़े दिग्गज धूल चाटते नज़र आए. न ही जाति चली और ना ही “सेकुलर धर्म” चला, न कोई चालबाजी चली और ना ही EVM मशीनों की हेराफेरी या बूथ लूटना काम आया. यह “नमो” लहर थी या “नमो” सुनामी थी? गहराई से विश्लेषण करने पर दिखाई देता है कि जहाँ एक तरफ मुज़फ्फरनगर के दंगों में सपा की विफलता, मीडिया तथा काँग्रेस द्वारा जानबूझकर हिन्दू-मुस्लिम के बीच खाई पैदा करने की कोशिश, भाजपा के विधायकों पर मुक़दमे तथा बसपा और सपा के विधायकों को वरदहस्त प्रदान करने से पश्चिमी उप्र में जमकर ध्रुवीकरण हुआ. संगठन में जान फूंकने में माहिर तथा कुशल रणनीतिकार अमित शाह की उपस्थिति ने इसमें घी डाला, तथा बनारस सीट से नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी ने यूपी में जमकर ध्रुवीकरण कर दिया. रही-सही कसर बोटी काटने वाले इमरान मसूद, बेनीप्रसाद वर्मा, नरेश अग्रवाल, राशिद अल्वी जैसे कई नेताओं ने खुलेआम नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपशब्द कहे, जिस तरह उनकी खिल्ली उड़ाई... उससे महँगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी जनता और भी नाराज हो गई. जनता ने देखा-सोचा और समझा कि आखिर अकेले नरेंद्र मोदी के खिलाफ पिछले बारह साल से केन्द्र सरकार तथा अन्य सभी पार्टियों के नेता किस कारण आलोचना से भरे हुए हैं. “कसाई”, “रावण”, “मौत का सौदागर”, “भस्मासुर” जैसी निम्न श्रेणी की उपमाओं के साथ-साथ “मोदी को गुजरात से बाहर जानता कौन है?”, “भारत की जनता कभी साम्प्रदायिक व्यक्ति को स्वीकार नहीं करेगी”, “अडानी-अंबानी का आदमी है”, “अगर ये आदमी किसी तरह 200 सीटें ले भी आया, तो सुषमा-राजनाथ इसे कभी प्रधानमंत्री बनने नहीं देंगे”, “दूसरे दलों का समर्थन कहाँ से लाएगा?” जैसी ऊलजलूल बयानबाजियां तो जारी थी हीं, लेकिन इससे भी पहले नरेंद्र मोदी के पीछे लगातार कभी CBI , कभी इशरत जहाँ, कभी सोहराबुद्दीन मुठभेड़, कभी बाबू बजरंगी- माया कोडनानी, अशोक भट्ट, डीडी वंजारा, बाबूभाई बोखीरिया, महिला जासूसी कांड जैसे अनगिनत झूठे मामले लगातार चलाए गए… मीडिया तो शुरू से काँग्रेस के शिकंजे में था ही. इनके अलावा ढेर सारे NGOs की गैंग, जिनमें तीस्ता जावेद सीतलवाड़, शबनम हाशमी सहित तहलका के आशीष खेतान और तरुण तेजपाल जैसे लोग शामिल थे.. सबके सब दिन-रात चौबीस घंटे नरेंद्र मोदी के पीछे पड़े रहे, जनता चुपचाप सब देख रही थी. लेकिन नरेंद्र मोदी जिस मिट्टी के बने हैं और जैसी राजनीति वे करते आए हैं, उनका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं पाया, और यही काँग्रेस की ईर्ष्या और जलन की सबसे बड़ी वजह भी रही.

दूसरी तरफ यूपी-बिहार की अपनी तमाम जनसभाओं में नरेंद्र मोदी ने अक्सर विकास को लेकर बातें कीं. बिजली कितने घंटे आती है? गाँव में सड़क कब से नहीं बनी है? ग्रामीण युवा रोजगार तलाशने के लिए मुम्बई, पंजाब और गुजरात क्यों जाते हैं? जैसी कई बातों से नरेंद्र मोदी ने जातिवाद से ग्रस्त इस राज्य की ग्रामीण और शहरी जनता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया. इसी कारण मोदी की तूफानी सभाओं के बाद सपा-बसपा-काँग्रेस-जदयू के प्रत्याशियों को अपने इलाके में इस बात की सफाई देना मुश्किल हो रहा था, कि आखिर पिछले बीस-पच्चीस साल के शासन और उससे पहले काँग्रेस के शासन के बावजूद गन्ना उत्पादक, चूड़ी कारीगर, पीतल कारीगर, बनारस के जुलाहे सभी आर्थिक रूप से विपन्न और परेशान क्यों हैं? बचा-खुचा काम दिल्ली-गुजरात-मप्र से गए भाजपा कार्यकर्ताओं ने पूरा कर दिया, गाँव-गाँव घूम-घूमकर उन्होंने लोगों के मन में यह सवाल गहरे रोप दिया कि जब गुजरात में चौबीस घंटे बिजली आती है तो यूपी-बिहार में क्यों नहीं आती? आखिर इस राज्य में क्या कमी है? धीरे-धीरे लगातार दो-तीन माह के सघन प्रचार अभियान, तगड़ी मार्केटिंग और अमित शाह, संघ-विहिप कार्यकर्ताओं तथा सोशल मीडिया के हवाई हमलों के कारण यूपी-बिहार की जनता को समझ में आ गया कि देश को एक मजबूर और कमज़ोर नहीं बल्कि मजबूत और निर्णायक प्रधानमंत्री चाहिए. हालांकि ऐसा भी नहीं कि नरेंद्र मोदी ने काँग्रेस और विपक्षी दलों की चालबाजी का समुचित जवाब नहीं दिया हो. “शठे शाठ्यं समाचरेत” की नीति अपनाते हुए मोदी ने भी फैजाबाद की आमसभा में मंच के पीछे प्रस्तावित राम मंदिर का फोटो लगाकर उन्होंने कईयों की नींद हराम की. जबकि “अमेठी-रायबरेली” में बैठकर मीडियाई हवाई हमले करने वाली प्रियंका गाँधी ने जैसे ही “नीच राजनीति” शब्द का उच्चारण किया, नरेंद्र मोदी ने तत्काल इस शब्द को पकड़ लिया और “नीच” शब्द को लेकर जैसे शाब्दिक हमले किए, खुद को “नीच जाति” का प्रोजेक्ट करते हुए चुनाव के अंतिम दौर में यूपी में सहानुभूति बटोरी वह काँग्रेसी शैली में मुंहतोड़ जवाब देने का अदभुत उदाहरण था. असम और पश्चिम बंगाल में अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा जोरशोर से उठाकर उन्होंने तरुण गोगोई और ममता बनर्जी को ख़ासा परेशान किया. इस मुहिम का फायदा भी उन्हें मिला और असम में भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली. जबकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी समझ गईं कि अगले विधानसभा चुनावों में वाम दलों की बजाय भाजपा भी उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनने जा रही है, और इसीलिए ममता ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगातार अपने मुँह का मोर्चा खोले रखा. हालांकि इसके बावजूद वे आसनसोल से बाबुल सुप्रियो को जीतने से रोक न सकीं.


तमिलनाडु, सीमान्ध्र, तेलंगाना, उड़ीसा, अरुणाचल एवं कश्मीर-लद्दाख जैसे नए-नए क्षेत्रों में भाजपा को पैर पसारने में नरेंद्र मोदी के तूफानी दौरों ने काफी मदद की. मात्र दस माह में लाईव और 3-D की मिलाकर 3800 से अधिक रैलियाँ करते हुए नरेंद्र मोदी ने समूचे भारत को मथ डाला. असाधारण ऊर्जा और परिश्रम का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने नौजवानों को मात दी और एक तरह से अकेले ही भाजपा का पूरा चुनावी अभियान कारपोरेट स्टाईल में चलाया. नतीजा भाजपा का अब तक का सर्वोच्च बिंदु, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ दिल्ली के तख़्त पर काबिज हुआ. पहले स्वयंसेवक अटल जी थे, लेकिन उन्हें ममता-माया-जयललिता-नायडू ने इतना ब्लैकमेल किया, इतना दबाया कि उनके घुटने खराब हो गए थे. परन्तु इस बार इनकी दाल नहीं गलने पाई. नरेंद्र मोदी जिस “कार्यशैली” के लिए जाने-माने जाते हैं, वह आखिरकार उन्हें दिल्ली में भी जनता ने सौंप दी है.

यूपी-बिहार के बाद भाजपा को सबसे बड़ी सफलता हाथ लगी महाराष्ट्र में. यहाँ भी नरेंद्र मोदी की रणनीति काम आई, उन्होंने चुनाव से पहले ही भाँप लिया था कि दलित वोटों का नुक्सान कम से कम करने के लिए आरपीआई के रामदास आठवले से गठबंधन फायदे का सौदा रहेगा. इसी प्रकार राज ठाकरे से ‘दो हाथ की दूरी’ बनाए रखना भी लाभकारी ही सिद्ध हुआ, क्योंकि यूपी-बिहार में राज ठाकरे के खिलाफ गुस्से की एक लहर मौजूद है. इसके अलावा महाराष्ट्र की जनता कांग्रेस-राकांपा के पंद्रह साल के कुशासन, बांधों में मूतने की बात करने वाले उनके घमंडी मंत्रियों से बेहद परेशान थी. नतीजा, कांग्रेस सिर्फ चार सांसदों पर सिमट गई, जो कि आपातकाल के बाद हुए चुनावों से भी कम है. यह नरेंद्र मोदी की सुनामी नहीं तो और क्या है, कि जिस राज्य में शकर लॉबी की सहकारी संस्थाओं और शकर मिलों के जरिये कांग्रेस ने वोटों का महीन जाल बुन रखा है उसी राज्य में ऐसी दुर्गति कि जनता ने कांग्रेस की अर्थी उठाने के लिए सिर्फ चार सांसद भेजे? और वो भी तब जबकि विधानसभा के चुनाव सर पर आन खड़े हैं. नरेंद्र मोदी ने विदर्भ-मराठवाड़ा और मुम्बई क्षेत्र में स्थानीय समस्याओं को सही तरीके से भुनाया.

गुजरात की २६ में से २६ सीटें मिलना अधिक आश्चर्यजनक नहीं था, लेकिन राजस्थान की २५ में से २५ सीटें जरूर कई विश्लेषकों को हैरान कर गईं. जाट-ठाकुर-मीणा जैसे जातिगत समीकरणों तथा जसवंत सिंह जैसे कद्दावर नेता द्वारा सार्वजनिक रूप से ख़म ठोकने के कारण खुद भाजपा के नेता भी बीस सीटों का ही अनुमान लगा रहे थे. जबकि उधर मध्यप्रदेश में सिर्फ सिंधिया और कमलनाथ ही अपनी इज्जत बचाने में कामयाब हो सके.

तमाम चुनाव विश्लेषकों ने इस आम चुनाव से पहले सोशल मीडिया की ताकत को बहुत अंडर-एस्टीमेट किया था. अधिकाँश विश्लेषकों का मानना था कि सोशल मीडिया सिर्फ शहरी और पढ़े=लिखे मतदाताओं को आंशिक रूप से प्रभावित कर सकता है. उनका आकलन था कि सोशल मीडिया, लोकसभा की अधिक से अधिक सौ सीटों पर कुछ असर डाल सकता है. जबकि नरेंद्र मोदी ने आज से तीन वर्ष पहले ही समझ लिया था कि मुख्यधारा के मीडिया द्वारा फैलाए जा रहे दुष्प्रचार एवं संघ-द्वेष से निपटने में सोशल मीडिया बेहद कारगर सिद्ध हो सकता है. जिस समय कई पार्टियों के नेता ठीक से जागे भी नहीं थे, उसी समय अर्थात आज से दो वर्ष पहले ही नरेंद्र मोदी ने अपनी सोशल मीडिया टीम को चुस्त-दुरुस्त कर लिया था. कई बैठकें हो चुकी थीं, रणनीति और प्लान ले-आऊट तैयार किया जा चूका था. ऐसी ही एक बैठक में नरेंद्र मोदी ने इस लेखक को भी आमंत्रित किया था. जहाँ IIT और IIM से पास-आऊट युवाओं की टीम के साथ, ठेठ ग्रामीण इलाकों में मोबाईल के सहारे कार्य करने वाले कम पढ़े-लिखे कार्यकर्ता भी मौजूद थे. नरेंद्र मोदी ने प्रत्येक कार्यकर्ता के विचार ध्यान से सुने. जिस बैठक में मैं मौजूद था, वह तीन घंटे चली थी. उस पूरी बैठक के दौरान नरेंद्र मोदी जी ने प्रत्येक बिंदु पर विचार किया, विस्तार से चर्चा की और अन्य सभी प्रमुख कार्य सचिवों पर छोड़ दिए. जिस समय अन्य मुख्यमंत्री गरीबों-मजदूरों को बेवकूफ बनाकर अथवा झूठे वादे या मुफ्त के लैपटॉप-मंगलसूत्र बाँटने की राजनीति पर मंथन कर रहे थे, उससे काफी पहले ही नरेंद्र मोदी ने ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्स एप्प, हैंग-आऊट, स्काईप को न सिर्फ आत्मसात कर लिया था, बल्कि ई-कार्यकर्ताओं की एक ऐसी सेवाभावी सशक्त फ़ौज खड़ी कर चुके थे जो नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी, बल्कि तमाम बुद्धिजीवियों को ताबड़तोड़ और त्वरित गति से तथ्यों के साथ जवाब देने में सक्षम भी थी. ऐसे ही हजारों सोशल मीडिया कार्यकर्ताओं ने दिन-रात मेहनत करके नरेंद्र मोदी की काफी मदद की. हालांकि सोशल मीडिया ने वास्तविक रूप से कांग्रेस को कितनी सीटों का नुक्सान पहुँचाया, यह पता लगाना अथवा इसका अध्ययन करना लगभग असंभव ही है, परन्तु जानकार इस बात पर सहमत हैं कि इस माध्यम का उपयोग सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी ने ही प्रभावशाली रूप से किया. कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे 3D  हो या फेसबुक.. आधुनिक तकनीक के सही इस्तेमाल और युवाओं से सटीक तादात्म्य स्थापित करने तथा समय से पहले ही उचित कदम उठाने और विरोधियों की चालें भांपने में माहिर नरेंद्र मोदी की जीत सिर्फ वक्त की बात थी. मजे की बात ऐसी कि यह पूरी मुहीम अकेले नरेंद्र मोदी के दिमाग की देन थी, आरएसएस तो अभी भी अपनी परम्परागत जमीनी तकनीक और “मैन-टू-मैन मार्किंग” पर ही निर्भर था.

विगत दस वर्ष में भारत की राजनीति एवं समाज पर 3M अर्थात ““मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी”” का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. नक्सलियों के लगातार बढ़ते जा रहे लाल गलियारे हों, सिमी और इन्डियन मुजाहिदीन के स्लीपर सेल हों अथवा स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या सहित ईसाई धर्मांतरण के बढ़ते मामले हों... इन तीनों “M” ने भारत को काफी नुक्सान पहुँचाया है इसमें कोई शक नहीं है. 3M के इस घातक विदेशी कॉम्बिनेशन का मुकाबला संघ-भाजपा ने अपनी स्टाईल के 3M से किया, अर्थात “”मंदिर-मंडल-मार्केटिंग”. संक्षेप में कहा जाए तो इसका अर्थ है पहला M = मंदिर अर्थात संघ के परम्परागत कैडर और भाजपा के स्थायी वोटरों को हिंदुत्व और राम मंदिर के नाम पर गोलबंद किया... फिर उसमें मिलाया दूसरा M= मंडल, अर्थात नरेंद्र मोदी की पिछड़ी जाति को प्रोजेक्ट किया और अंतिम दो दौर में तो सीधे “नीच जाति का हूँ” कहकर मायावती-मुलायम के वोट बैंक पर चोट कर दी... और सबसे महत्त्वपूर्ण रहा तीसरा M= मार्केटिंग. नरेंद्र मोदी को “हिंदुत्व-मंडल और विकास के मार्केट मॉडल” की पन्नी में लपेटकर ऐसा शानदार तरीके से पेश किया गया, कि लुटी-पिटी जनता ने थोक में भाजपा को वोट दिए. “जनता माफ नहीं करेगी”, “अबकी बार”, “अच्छे दिन आने वाले हैं”, “चाय पर चर्चा” जैसे सामान्य व्यक्ति के दिल को छूने वाले स्लोगन एवं जनसंपर्क अभियानों के जरिये नरेंद्र मोदी की छवि को “लार्जर देन लाईफ” बनाया गया. बहरहाल, यह सब करना जरूरी था, वर्ना विदेशी 3M (मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी) का घातक मिश्रण अगले पाँच वर्ष में भारत के हिंदुओं को अँधेरे की गर्त में धकेलने का पूरा प्लान बना चुका था.

कुल मिलाकर कहा जाए तो लोकसभा का यह चुनाव जहाँ एक तरफ काँग्रेसी कुशासन, भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और घमण्ड के खिलाफ जनमत था, परन्तु ये भी सच है कि नरेंद्र मोदी की यह विजय भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं, अमित शाह की योजनाओं एवं संगठन, “भारतीय” कारपोरेट जगत द्वारा उपलब्ध करवाए गए संसाधनों, नारों-भाषणों-आक्रामक मुद्राओं के बिना संभव नहीं थी. यह संघ-मोदी की शिल्पकारी में बुनी गई एक “खामोश क्रान्ति” थी, जिसमें 18 से 30 वर्ष के करोड़ों मतदाताओं ने अपना योगदान दिया. जिस पुरोधा को देश की जनता ने अपना बहुमत दिया, वह बिना रुके, बिना थके शपथ लेने से पहले ही काम पर लग गया. देश ने पहली बार एक चुने हुए प्रधानमंत्री को गंगा आरती करते देखा, वर्ना अभी तक तो मजारों पर चादर चढाते हुए ही देखा था. देश ने पहली बार किसी नेता को लोकतंत्र के मंदिर अर्थात संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेकते भी देखा. नरेंद्र मोदी ने 19 मई को ही गृह सचिव से मुलाक़ात कर ली, तथा 21 मई को कैबिनेट सचिव के माध्यम से सभी प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों को निर्देश प्राप्त हो गए हैं कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी” पहले सप्ताह में ही उनके द्वारा पिछले पाँच वर्ष में किए गए कार्यों, उनके सुझाव, कमियों एवं योजनाओं के बारे में पावर पाईंट प्रेजेंटेशन देखेंगे. सुस्त पड़ी नौकरशाही में मोदी के इस कदम के कारण जोश भी है और घबराहट भी. देखना यही है कि उनके द्वारा जनता से माँगे गए 60 महीने में वे उम्मीदों के इस “महाबोझ” पर कितना खरे उतर पाते हैं? यूपीए-१ और २ की सरकारों ने बहुत कचरा फैलाया है, कई समस्याओं को जन्म दिया और कुछ पुरानी समस्याओं को उलझाया-पकाया है. इसे समझने में ही नरेंद्र मोदी का शुरुआती समय काफी सारा निकल ही जाएगा. अलबत्ता उनके समक्ष उपस्थित प्रमुख चुनौतियाँ महँगाई, भ्रष्टाचार पर नकेल, बेरोजगारी, आंतरिक सुरक्षा और षडयंत्रकारियों इत्यादि से निपटना है.

1967 में तमिलनाडु में बुरी तरह हारने के बाद काँग्रेस आज तक वहाँ कभी उबर नहीं सकी है, बल्कि आज तो उसे वहाँ चुनाव लड़ने के लिए सहयोगी खोजने पड़ते हैं. उड़ीसा में नवीन पटनायक भी काँग्रेस का लगभग समूल नाश कर चुके हैं. यूपी-बिहार में पिछले बीस वर्ष में काँग्रेस लगभग नदारद ही रहती है. पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की खाली की गई जगह पर ममता ने कब्ज़ा किया है वहाँ भी काँग्रेस कहीं नहीं है. तेलंगाना-सीमान्ध्र में काँग्रेस को दोनों हाथों में लड्डू रखने की चाहत भारी पड़ी है, फिलहाल अगले पाँच वर्ष तो काँग्रेस वहाँ भी साफ ही है. भाजपा शासित राज्यों जैसे गुजरात-मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में काँग्रेस का संगठन चरमरा चुका है और ये तीनों राज्य भी लगभग “काँग्रेस-मुक्त” हो चुके हैं. अर्थात नरेंद्र मोदी द्वारा आव्हान किए गए “काँग्रेस-मुक्त” भारत की दिशा में भारत की लगभग 250 सीटों ने तो मजबूती से कदम बढ़ा दिया है. अब यदि नरेंद्र मोदी अगले पाँच वर्ष में केन्द्र की सत्ता के दौरान कोई चमत्कार कर जाते हैं, कोई उल्लेखनीय कार्य कर दिखाते हैं, तो उन्हें अगला मौका भी मिल सकता है और यदि ऐसा हुआ तो निश्चित जानिये 2024 आते-आते काँग्रेस के बुरे दिन और डरावनी रातें शुरू हो जाएँगी.

सबसे बड़ा सवाल यही है कि इतने दबावों, इतनी अपेक्षाओं, भयानक उम्मीदों, आसमान छूती आशाओं के बीच नरेंद्र मोदी भारत की तकदीर बदलने के लिए क्या-कितना और कैसा कर पाते हैं यह ऐसा यक्ष-प्रश्न है जिसके जवाब का करोड़ों लोग दम साधे इंतज़ार कर रहे हैं...


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I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai. 


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