लखनऊ सीट से नरेंद्र मोदी :- भारत और उत्तरप्रदेश के राजनीतिक गणित को बदल डालेगा...
यूपीए-२
द्वारा धीरे-धीरे खाद्य सुरक्षा बिल, कैश सब्सिडी जैसी लोकलुभावन योजनाओं की तरफ
बढ़ने से अब २०१४ के लोकसभा चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है. जैसा कि सभी को
मालूम है कि आमतौर पर दिल्ली की सत्ता की चाभी उसी के पास होती है, जो पार्टी
उत्तरप्रदेश व बिहार में उम्दा प्रदर्शन करे. हालांकि यूपीए-२ की सरकार बगैर
उत्तरप्रदेश और बिहार के भी धक्के खाती हुई चल ही रही है, फिर भी जिस तरह आए दिन
कांग्रेस को मुलायम अथवा मायावती में से एक या दोनों की चिरौरी करनी पड़ती है, उनका
समर्थन हासिल करने के लिए कभी लालच, तो
कभी सीबीआई का सहारा लेना पड़ता है, उससे इन दोनों प्रदेशों (विशेषकर उप्र) की
महत्ता समझ में आ ही जाती है. संक्षेप में तात्पर्य यह है कि २०१४ के घमासान के
लिए उप्र-बिहार की १३० से अधिक सीटें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली हैं.
गुजरात
में नरेंद्र मोदी ने शानदार पद्धति से लगातार तीसरा चुनाव जीतकर सभी राजनैतिक
पार्टियों को सोचने पर मजबूर कर दिया है, क्योंकि अब सभी राजनैतिक पार्टियों को यह
पक्का पता है कि २०१४ के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी “एक प्रमुख भूमिका” निभाने जा
रहे हैं. हालांकि खुद भाजपा में ही इस बात को लेकर हिचकिचाहट है कि नरेंद्र मोदी
को पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे या ना करे? यदि करे,
तो उसका टाइमिंग क्या हो? मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मेदवार घोषित करने से NDA के ढाँचे पर क्या फर्क पड़ेगा? इत्यादि...
हालांकि इन सवालों पर निरंतर मंथन चल रहा है, लेकिन यह तो निश्चित है कि अब
नरेंद्र मोदी के “दिल्ली-कूच” को रोकना लगभग असंभव है.
२०१४
के आम चुनावों में उप्र की सीटों की महत्ता को देखते हुए मेरा सुझाव यह है कि सबसे
पहले तो भाजपा अपनी “सेकुलर-साम्प्रदायिक” मानसिक दुविधा से मुक्ति पाकर, सबसे
पहले जल्दी से जल्दी नरेंद्र मोदी को “आधिकारिक” रूप से प्रधानमंत्री पद का
उम्मीदवार घोषित करे. चूंकि प्रत्येक पार्टी अपना उम्मीदवार चुनने के लिए
स्वतन्त्र है, इसीलिए भाजपा को NDA का
मुंह ताकने की जरूरत नहीं है. एक बार भाजपा की तरफ से यह आधिकारिक घोषणा होने के
बाद NDA में जो भी और जैसा भी आतंरिक
घमासान मचना है, उसे पूरी तरह से मचने देना चाहिए. इस काम में मीडिया भी भाजपा की
मदद ही करेगा, क्योंकि मोदी की उम्मीदवारी घोषित होते ही “तथाकथित सेकुलर मीडिया”
को हिस्टीरिया का दौरा पड़ना निश्चित है. गुजरात और नरेंद्र मोदी की छवि को देखते
हुए मीडिया मोदी के खिलाफ जितना दुष्प्रचार करेगा, वह भाजपा के लिए लाभकारी ही
सिद्ध होगा.
जब
भाजपा एक बार यह “पहला महत्वपूर्ण कदम” उठा लेगी, तो उसके लिए आगे का रास्ता और
रणनीति बनाना आसान सिद्ध होगा. मोदी को “प्रमं” पद का उम्मीदवार घोषित करते ही
स्वाभाविक रूप से बिहार में नीतीश कुमार अपना झोला-झंडा लेकर अलग घर बसाने निकल
पड़ेंगे, तो बिहार के मुसलमान वोटों के लिए नीतीश कुमार, लालूप्रसाद यादव और
कांग्रेस के बीच आपसी खींचतान मचेगी और भाजपा को अपने परम्परागत वोटरों पर ध्यान
देने का मौका मिलेगा. फिलहाल सुशील कुमार मोदी की वजह से बिहार में भाजपा, नीतीश की “चपरासी” लगती है, वह नीतीश के
अलग होने पर “अपनी दूकान-स्वयं मालिक” की स्थिति में आ जाएगी. मोदी की खुलेआम
उम्मीदवारी का यह तो हुआ सबसे पहला फायदा... अब आगे बढ़ते हैं और उत्तरप्रदेश चलते
हैं, जहाँ नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी से भाजपा को २०१४ के चुनावों में कैसे और
कितना फायदा होगा, यह समझते हैं.
१) नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद
का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा उन्हें दो सीटों से चुनाव लडवाए... पहली गांधीनगर
और दूसरी लखनऊ. गांधीनगर में तो मोदी का जीतना तय है ही, परन्तु लखनऊ में नरेंद्र
मोदी के लोकसभा चुनाव में उतारते ही, उत्तरप्रदेश की राजनीति का माहौल ही बदल
जाएगा. लखनऊ और इसके आसपास रायबरेली, फैजाबाद, अमेठी, कानपुर सहित लगभग २० सीटों पर मोदी सीधा प्रभाव डालेंगे. चूंकि
नरेंद्र मोदी को प्रचार के लिए गांधीनगर में अधिक समय नहीं देना पड़ेगा, इसलिए
स्वाभाविक रूप से मोदी लखनऊ और बाकी उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार में अधिक समय दे
सकेंगे. भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में बाकी का काम खुद “सेकुलर मीडिया” कर
देगा. क्योंकि मोदी की उम्मीदवारी घोषित होते ही उत्तरप्रदेश में
सपा-बसपा-कांग्रेस के बीच मुस्लिम वोटों को रिझाने की ऐसी घमासान मचेगी, कि भाजपा
की कोशिश के बिना भी अपने-आप वोटों का ध्रुवीकरण शुरू हो जाएगा. चूंकि कल्याण सिंह
भाजपा में वापस आ ही चुके हैं, योगी आदित्यनाथ भी खुलकर नरेंद्र मोदी का साथ देने
की घोषणा पहले ही कर चुके हैं, तो इस स्थिति में यदि भाजपा “हिन्दुत्व” शब्द का
उच्चारण भी न करे, तब भी मीडिया और “सेकुलर”(?) पार्टियां जैसा “छातीकूट अभियान” चलाएंगी, वह भाजपा के पक्ष में
ही जाएगा.
२) मोदी को लखनऊ सीट से उतारने तथा
उत्तरप्रदेश में गहन प्रचार करवाने का दूसरा फायदा यह होगा कि इस कदम से उत्तप्रदेश
के जातिवादी नेताओं तथा जातिगत वोटों की राजनीति पर भी इसका असर पड़ेगा. जैसा कि
सभी जानते हैं नरेंद्र मोदी “घांची” समुदाय से आते हैं, जो कि “अति-पिछड़ी जाति”
वर्ग में आता है, तो स्वाभाविक है कि मोदी की उम्मीदवारी से एक तरफ भाजपा के खिलाफ
जारी “ब्राह्मणवाद” का नारा भी भोथरा हो जाएगा, दूसरी तरफ मुलायम से नाराज़ पिछड़े
वोटरों में सेंध लगाने में भी मदद मिलेगी.
३) मोदी की उत्तरप्रदेश से
उम्मीदवारी का तीसरा लाभ यह होगा कि “झगडालू बीबी” टाइप के उत्तरप्रदेश के जितने
भी भाजपा नेता हैं, उन पर एक अदृश्य नकेल कस जाएगी. इन नेताओं में से अधिकाँश
नेता(?) ऐसे हैं जो खुद को मुख्यमंत्री से कम समझते ही नहीं हैं, ये बात और है कि
इनमें से किसी ने भी उत्तरप्रदेश में भाजपा को उंचाई पर ले जाने के लिए कोई विशेष
योगदान नहीं दिया है. नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता के उप्र के परिदृश्य पर आने
तथा मोदी को मिलने वाले अपार जनसमर्थन को देखते हुए, इन स्थानीय नेताओं को ज्यादा
कुछ बताने-समझाने की जरूरत नहीं रहेगी. इस सारी कवायद में सबसे अहम् रोल डॉक्टर
मुरलीमनोहर जोशी का होना चाहिए, जिन्हें अपना कुशल निर्देशन देना
होगा.
इस प्रकार हमने देखा
कि, नरेंद्र मोदी को उत्तरप्रदेश से चुनाव लड़वाने के तीन सीधे फायदे, और एक
अप्रत्यक्ष फायदा (नीतीश की अफसरी से छुटकारा) मिलेंगे. जयललिता, और बादल पहले ही मोदी के नेतृत्व
को स्वीकार कर चुके हैं, बालासाहेब ठाकरे अब रहे नहीं, इसलिए उद्धव ठाकरे को भी नरेंद्र मोदी सहज स्वीकार्य हो जाएंगे,
उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी हो ही चुकी है, उमा भारती को भी उप्र में ही
सक्रिय रहते हुए मप्र से दूर रहने की
हिदायत दी जा चुकी है, नीतीश कुमार की परवाह करने की कोई जरूरत
नहीं है, यह बात भी अंदरखाने तो मान ही ली गयी है. यानी अब रह जाते
हैं ममता, पटनायक, और शरद पवार, तो ये लोग उसी पार्टी की तरफ हो लेंगे जिसके पास
२०० सीटों का जादुई आँकड़ा हो जाएगा. ऐसे में यदि नरेंद्र मोदी भाजपा को
उत्तरप्रदेश में लगभग ४० सीटें और बिहार में २५ सीटें भी दिलवाने में कामयाब हो
जाते हैं, और मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ को
मिलाकर भाजपा २०० सीटों के आसपास भी पहुँच जाती है तो “थाली के बैंगनों”” को भाजपा की तरफ
लुढकते देर नहीं लगेगी, तय जानिये कि इन “बैंगनों” और “बिना पेंदी के लोटों”
द्वारा इस स्थिति में “सेकुलरिज्म” की परिभाषा भी रातोंरात बदल दी जाएगी. वैसे भी जब मायावती खुल्लमखुल्ला दलित-कार्ड खेल सकती हैं, मुलायम भी खुल्लमखुल्ला "यादव-मुल्ला" कार्ड खेल सकते हैं, जब कांग्रेस मनरेगा-कैश सब्सिडी जैसी "मुफ्तखोरी" वाली वोट बैंक राजनीति खेल सकती है, तो भाजपा को "हिंदुत्व" का कार्ड खेलने मे कैसी शर्म?
अब लगे हाथों “बुरी
से बुरी स्थिति” पर भी विचार कर लिया जाए. यदि भाजपा की २०० सीटें आ भी जाएं तब भी
भाजपा को १९९८ वाली गलती नहीं दोहरानी चाहिए, जब वाजपेयी जी ने “२५ बैंगनों और
लोटों”” को मिलाकर
सरकार बनाने की जल्दबाजी कर ली, फिर उनकी नाजायज़ शर्तों और बेहिसाब मांगों के बोझ
तले दबकर उनके घुटने तक खराब हो गए थे. अबकी बार भाजपा को “अपनी शर्तों” व “अपने
घोषणापत्र” पर बिना शर्त समर्थन देने वाले दलों को ही साथ लेना चाहिए. यदि नरेंद्र
मोदी को उप्र में आगे करते हुए भाजपा किसी तरह २०० (या १८०) सीटें लाने में कामयाब
हो जाती है, और फिर भी पिछले २० साल से “सेकुलरिज्म” के नाम पर चलने वाला “गन्दा
खेल” इन क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस के पाले में धकेल देता है, तो सबसे बेहतर उपाय
यही होगा कि भाजपा नरेंद्र मोदी को नेता प्रतिपक्ष बनाकर २०१४ में विपक्ष में
बैठे, क्योंकि जो भी सरकार बनेगी, वह अधिक चलेगी नहीं. इसी बहाने नरेंद्र मोदी का नेता
प्रतिपक्ष के रूप में “एसिड टेस्ट” भी हो जाएगा, जो उससे अगले लोकसभा चुनाव में
काम आएगा, तथा जब एक बार भाजपा “अपनी शर्तों” पर अड़कर बात करेगी तो अन्य दल और आम
जनता भी पहले से अपनी “मानसिक तैयारी” बनाकर चलेंगे. गाँधी नगर में चुनाव जीतने में मोदी को विशेष दिक्कत नहीं होगी, लेकिन यदि नरेंद्र मोदी लखनऊ सीट से भी जीत जाते हैं, तो यह संकेत भी जाएगा कि अब "नरेंद्र मोदी का पाँव आडवाणी-वाजपेयी जी के जूते में बराबर फिट बैठने लगा है" जो कि बहुत गूढ़ और महत्वपूर्ण सन्देश और संकेत होगा.
संक्षेप
में कहें तो आम जनता अब कांग्रेस के घोटालों, नाकामियों और लूट से बुरी तरह परेशान
हो चुकी है, वह किसी “दबंग” किस्म के प्रधानमंत्री की राह तक रही है. गुजरात के
विकास को मॉडल बनाकर, नरेंद्र मोदी को उत्तरप्रदेश के लखनऊ से चुनाव में उतारने की
चाल तुरुप का इक्का साबित होगी. इस मुहिम में हमारा तथाकथित “राष्ट्रीय और सेकुलर
मीडिया”(?) ही भाजपा को सबसे अधिक लाभ पहुंचाएगा, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले कहा,
मोदी की प्रधानमंत्री पद पर उम्मीदवारी की घोषणा मात्र से कई चैनलों व स्वयंभू
सेकुलरों को “हिस्टीरिया”, “मिर्गी”, “पेटदर्द” और “दस्त” की शिकायत हो
जाएगी, यह बात तय जानिये कि नरेंद्र मोदी
का “जितना और जैसा” विरोध किया जाएगा, वह भाजपा को फायदा ही पहुंचाएगा. अब यह
संघ-भाजपा नेतृत्व पर है कि वह कितनी जल्दी नरेंद्र मोदी को अपना “घोषित”
उम्मीदवार बनाते हैं, क्योंकि अब अधिक समय नहीं बचा है.
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अंत
में एक मास्टर स्ट्रोक – स्वयं नरेंद्र मोदी को उचित समय देखकर एक घोषणा करनी
चाहिए, कि वे “निजी यात्रा” (जी हाँ, निजी यात्रा... जिसमे न कोई इन्टरव्यू होगा,
न कोई प्रेस विज्ञप्ति होगी), हेतु अयोध्या में राम मंदिर के दर्शनों के लिए जा रहे
हैं, बस!!! बाकी का काम तो मीडिया कर ही देगा... जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, राजनीति में "संकेत द्वारा दिया गया सन्देश" बहुत महत्वपूर्ण होता है, इसलिए मोदी की अयोध्या के राम मंदिर की "निजी धर्म यात्रा" के संकेत जहाँ पहुँचने चाहिए, वहाँ पहुँच ही जाएंगे, और नरेंद्र मोदी के "अंध-विरोध" से ग्रसित मीडिया की रुदालियों का फायदा भी भाजपा को ही मिलेगा...
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सुरेश चिपलूनकर
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