हर ओर आपको यह शब्द सुनाई दे जायेगा । लेकिन अब यह शब्द बुद्धिमान और चतुर व्यक्ति के लिये नहीं बल्कि "परले दर्जे के कंजूस और बिना कारण के अत्यधिक मोलभाव करने वाले" व्यक्ति के लिये उपयोग किया जाने लगा है । मुम्बई के अंडरवर्ल्ड (Underworld of Mumbai) में इसका और अपभ्रंश हुआ और यह "श्याने" में परिवर्तित हो गया, जहाँ "भाई" लोग - "ए श्याने ज्यास्ती बात करने का नईं, दूँ क्या कान के नीचे खर्चा-पानी" आदि बोलते रहते हैं, हालांकि यहाँ भी भाई लोग का मतलब लगभग वही होता है... मतलब कंजूस और जरूरत से ज्यादा समझदार, परन्तु यह लेख "शाणों" की पहली प्रजाति के बारे में है, अर्थात अव्वल दर्जे के कृपण व्यक्तियों के लिये.... जरा गौर फ़रमायें...
यूँ तो "शाणपती" के विभिन्न प्रकार होते हैं... मेरे आधुनिक बाजार-शोध से ज्ञात हुआ है कि "शाणपती" गुण या अवगुण से परे एक "हेरिडिटी" (अनुवांशिक गुण) है, अर्थात यदि पिता शाणा है तो उसका बेटा उससे भी शाणा निकलेगा और यह तय है कि दादाजी तो जाहिर है कि शाणपती के "अर्क" होंगे । यह गुण सिखाया नही जाता, अपने आप आ जाता है । कहा जा सकता है कि यह "जीन्स" में शामिल हो जाता है । परन्तु शाणपती कहाँ, कैसे और किससे दिखाई जानी चाहिये यह तमीज शाणों में नहीं होती, और यदि होती.. तो वे शाणे कहलाते ही क्यों, और यह लेख लिखने की नौबत आती ही क्यों ? जब शाणे लोग किसी दुकानदार या गुमटी वाले से हुज्जत करते हैं तो अपनी हँसी ही उड़वाते हैं । यह बात और है कि बेचारा दुकानदार अपना मन मसोसकर मन-ही-मन हजारों गालियाँ देकर भी शाणे के प्रति अपना अनुराग प्रदर्शित करता है, क्योंकि यह उसका व्यावसायिक फ़र्ज होता है । लेकिन शाणों का जोर, या कहें हरकतें या करतब कहें...सभी कुछ छोटे दुकानदारों, कम पूँजी वाले व्यवसायियों, ठेलेवालों, रेहडी़वालों, फ़ुटपाथ पर धन्धा करने वालों, मजदूरों, नौकरों.... गरज यह कि कमजोरों पर ही चलती है... जबकि बडी़ दुकानों, संस्थानों, चमक-दमक से भरपूर शो-रूमों, सुपर बाजारों, मॉल्स आदि में इन शाणों की दाल नहीं गलती । अब जरा गौर करें इनकी विसंगतिपूर्ण हरकतों पर । शाणा जब किराने का सामान उधारी में खरीदने जाता है तो आवश्यकता न होने पर भी शैम्पू की पूरी बोतल खरीद लेता है, लेकिन वही शाणा जब बडे जनरल स्टोर में जाता है और वहाँ नकद में शैम्पू का एक पाऊच ही खरीदता है । शाणा जब फ़ोटोकॉपी करवाता है तो पचास पैसे की फ़ोटोकॉपी (जो कि कई वर्षों से पचास पैसे ही है) के बिल में भी दो-चार रुपये कम देने की कोशिश करता है, जबकि यही शाणा कोर्ट केस में लाखों रुपये फ़ूँक देता है, तब वह कुछ नहीं सोचता । शाणा बेटा, पिता के पदचिन्हों पर चलकर मास्टर की फ़ीस तो उसे लटका-लटकाकर देता है, जबकि डॉक्टर की फ़ीस से सौ-दोसौ रुपये में चूँ भी नहीं करता । ठेले पर सब्जी बेचने वाले से शाणा ऐसी घिस-घिस करता है कि सब्जी वाला पनाह माँग जाता है और मजबूर होकर दो-चार रुपये कम कर देता है लेकिन उस शाणे को मेडिकल स्टोर्स पर दवाई के दो-चार सौ रुपये ज्यादा नहीं लगते । कोई गढ्ढा खोदने वाला मजदूर जब शाम को शाणे से पैसे माँगता है तो वह उसे एक घंटा खडा रखकर और अहसान जताते हुए पैसे देता है, जबकि सीमेंट की बोरी या इस्पात के भाव रातोंरात बढ़ जायें तो हजारों का "फ़टका" वह हँसते-हँसते सह लेता है । किसी छोटे से गैरेज में गाडी़ ठीक करवाने पर यदि उसे "छोटू" मेकैनिक ने दस रुपये माँग लिये तो शाणा आगबबूला हो जाता है, लेकिन वही शाणा पेट्रोल के भाव को न सिर्फ़ निरपेक्ष भाव से लेता है, बल्कि गाडी में भरवाते समय पंप वाले ने क्या "कलाकारी" की है, उससे भी अन्जान रहता है । शहर के बाहरी हिस्से में स्थित किसी छोटे से ढाबे में खाना खाते वक्त शाणे को दाल-मखानी बहुत महँगी लगती है, लेकिन जब वह किसी बडी होटल मे जाता है तो वहाँ न सिर्फ़ वह सर्विस टैक्स चुकाता है, बल्कि वेटर को टिप भी देता है, बगैर किसी चूँ-चपड़ के... ऐसे सैकडों उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
इतने सारे उदाहरणों का तात्पर्य यही है कि शाणे लोग, जो या तो अपने-आप को भावताव करने में उस्ताद मानते हैं, या तथाकथित रूप से "अति-जागरूक उपभोक्ता" का नकली चोला ओढे़ रहते हैं । उन्हें यह समझना चाहिये कि वे अपनी "शाणपती" कहाँ कर रहे हैं, किससे कर रहे हैं, और सबसे बडी़ बात कि कितने रुपये के लिये कर रहे हैं ? कहीं उनकी शाणपती मानवीयता की हद तो नही पार कर रही (जैसा कि मजदूर के उदाहरण में), या कहीं यह शाणपती उनकी हँसी तो नहीं उड़वा रही (जैसे मास्टर की ट्यूशन फ़ीस या फ़ोटोकॉपी के उदाहरण में) । इस पर जरा विचार करने की आवश्यकता है । "शाणा" होना कोई बुरी बात नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति को अपना पैसा सोच-समझ कर खर्च करने का हक है, लेकिन इस समझ का सही जगह पर उपयोग होना चाहिये, ना कि किसी कमजोर या गरीब पर जोर चलाने में । शाणा होने, मितव्ययी होने और जागरूक उपभोक्ता होने.. तीनों में फ़र्क है । शाणे को हमेशा यह लगता है कि फ़लाँ व्यक्ति उसे लूट रहा है, जबकि तथ्य यह है कि बडी-बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमे लूट रही हैं, और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं... दो रुपये की लागत वाला कोल्ड्रिन्क जब शाणा दस रुपये में आसानी से पी लेता है तो उसे जूते पॉलिश करवाने के तीन रुपये ज्यादा क्यों लगते हैं ? पानी के पाऊच या बोतल खरीदते समय शाणा पूरे बीस रुपये देता है, लेकिन मटर, गाजर या मूँगफ़ली खरीदते समय तौल के अलावा उसके बाद और पहले ठेले से उठा-उठाकर खाता रहता है, क्यों ? शाणे व्यक्ति खुद से सवाल करें कि क्या कभी उन्होंने किसी सुपर बाजार में भाव कम करने को कहा ? क्या कभी किसी बडे अस्पताल के बिल को देखकर वहाँ से मुख्य सर्जन से हुज्जत की ? किसी "स्टार" युक्त होटल में मैनेजर से पूछा कि यह पालक पनीर इतना महँगा क्यों है, जबकि पालक तीन रुपये किलो मिल रहा है ? यही मुख्य अन्तर है जिसे समझना होगा और अमल में लाना होगा, तभी शाणे "शाणे" ना कहलाकर समझदार ग्राहक की पात्रता हासिल करेंगे । कोई ठेले वाला, मजदूर, सब्जीवाला, छोटा मेकैनिक किसी व्यक्ति से अधिक से अधिक कितना ले सकता है... लगभग नगण्य, बिल्डर, भू-माफ़िया, पेट्रोल माफ़िया, भ्रष्ट अफ़सर आदि हमें-आपको जितना लूटते हैं उसकी तुलना में.... फ़िर क्यों किसी गरीब और छोटे दुकानदार पर अपनी "शाणपती" झाडना ? शाणे बनो... मगर सही जगह पर...