प्रकाश प्रदूषण : एक धीमा जहर ?

Written by मंगलवार, 26 जून 2007 10:33

पाठकगण शीर्षक देखकर चौंकेंगे, लेकिन यह एक हकीकत है कि धीरे-धीरे हम जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण के बाद अब प्रकाश प्रदूषण के भी शिकार हो रहे हैं । प्रकाश प्रदूषण क्या है ? आजकल बडे़ शहरों एवं महानगरों में सडकों, चौराहों एवं मुख्य सरकारी और व्यावसायिक इमारतों पर तेज रोशनी की जाती है, जिसका स्रोत या तो हेलोजन लैम्प, सोडियम वेपर लैम्प अथवा तेज नियोन लाईटें होती हैं ।

उपग्रह से पृथ्वी के जो चित्र लिये गये हैं उसमें टोकियो और जापान का कुछ हिस्सा, पश्चिमी यूरोप के लन्दन और फ़्रैंकफ़ुर्ट और अमेरिका के शिकागो और न्यूयार्क शहरों की तेज रोशनी के चित्र स्पष्ट तौर पर नजर आते हैं, इससे कल्पना की जा सकती है कि इन महानगरो में रात के समय कितनी तेज रोशनी होती है । रात्रि के समय इस प्रकार के तेज प्रकाश से नागरिक तो खुश होते हैं और उन्हें कोई असुविधा नहीं होती, लेकिन पर्यावरण एवं छोटे-छोटे जीव-जंतुओं पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है । सबसे पहले बात प्रकृतिप्रेमियों की, इन शहरों के लोग आसपास की तेज रोशनी के कारण आकाशगंगा को ही ठीक से नहीं देख पाते । मुम्बई के किसी मुख्य चौराहे पर खडे होकर हम अधिक से अधिक २५० तारे देख सकते हैं, लेकिन शहर के बाहर निकलने पर किसी अन्धेरे स्थान पर खडे होकर हमें नंगी आँखों से २५०० से अधिक नक्षत्र और तारे आसानी से दिख जाते हैं । यह कोई मुख्य समस्या नहीं है, बल्कि असल बात तो यह है कि रात्रिकालीन तेज प्रकाश के कारण अनेक पक्षी, कीट-पतंगे अपना रास्ता भूल जाते हैं और भटक कर रोशनी के स्रोतों से टकराते रहते हैं ।

एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग दस करोड़ पक्षी ऊँची इमारतों से टकराकर मर जाते हैं । वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रॉड क्राफ़ोर्ड के अनुसार "पहले आमतौर पर दिखाई दे जाने वाले कई कीट हमारी नजरों से दूर होते जा रहे हैं, कुछ छोटे पतंगे तो शहरों से लगभग लुप्तप्राय होने लगे हैं, क्योंकि रात की तेज रोशनी में वे अपना सफ़र नहीं कर पाते और उनके प्राकृतिक "मिलन" के लिये जो रात का कम समय मिल पाता है, उसमें भी कमी हो गई है । साथ ही तेज प्रकाश के कारण वे बडे पक्षियों के शिकार बन जाते हैं । इसी प्रकार एक जीव विज्ञानी डॉ. मारिआन मूर, जिन्होंने झीलों के सूक्ष्म जीवों (zooplanktons) पर गहन अनुसन्धान किया है, कहते हैं "तालाब या झील के ये सूक्ष्म जीव रात के समय पानी की सतह पर आकर जल शैवालों का भक्षण करते हैं, लेकिन नदी या झीलों के किनारे तेज प्रकाश के कारण वे सतह पर आने से कतराते हैं और उन्हें अधिक समय पानी के नीचे ही गुजारना पड़ता है, इसलिये सतह पर शैवालों (Algae) का बढना जारी रहता है जिसके कारण अन्य दूसरी जलीय वनस्पतियों को पनपने का मौका ही नहीं मिलता । चन्द्रमा के नैसर्गिक प्रकाश में इन विविध प्राणियों को सहवास का जो समय मिलता है वह अब तेज रोशनी के कारण होने वाले दिमागी भ्रम के कारण नहीं मिलता, इस कारण लाखों प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर आ गई हैं ।

हालांकि लोग कहते हैं कि मनुष्य की सुविधा और अपराधों पर नियन्त्रण के लिये रात में तेज प्रकाश आवश्यक है और उसके कारण पर्यावरण को होने वाले नुकसान की परवाह नहीं करना चाहिये, लेकिन इस तेज प्रकाश का मनुष्यों पर भी घातक प्रभाव पड़ रहा हो तब तो हमें सचेत हो ही जाना चाहिये । "नेशनल कैन्सर इंस्टिट्यूट" की एक शोध रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक प्रकाश की अपेक्षा रात्रिकालीन प्रकाश में अधिक देर तक रहने से कैंसर का खतरा बढ जाता है । रिपोर्ट के अध्ययन के अनुसार जो स्त्रियाँ नाईट शिफ़्ट में काम करती हैं, उनमें स्तन कैंसर की मात्रा अधिक पाई गई, इसी प्रकार बोस्टन के एक अस्पताल में किये गये शोध के अनुसार रात्रि पाली में काम करने वाली नर्सों में कैंसर की सम्भावना 36% तक बढ गई थी । दरअसल, तेज प्रकाश के कारण शरीर में मेलाटोनिन के निर्माण में कमी आती है, इस हार्मोन पर शरीर के "चक्र" का दारोमदार होता है, जिससे यह चक्र गडबडा़ जाता है । मेलेटोनिन में Antioxidant गुण होते हैं, इनमें कमी के कारण Astrogen का निर्माण भी बाधित होता है और अन्ततः यही कैंसर का कारण बनता है ।

नैसर्गिक प्रकाश मनुष्य या प्राणी के शरीर के लिये औषधि का काम करता है, लेकिन कृत्रिम प्रकाश का अधिकाधिक उपयोग बीमारियों को बढा़ता जा रहा है । यह एक सामान्य सा स्थापित तथ्य है कि जिन घरों में सूर्य का प्रकाश अधिक देर तक रहता है, वहाँ लोग अधिक स्वस्थ रहते हैं । नॉर्वे, स्वीडन आदि स्कैंडेनेवियाई देशों के नागरिक सूर्य देखने के लिये तरस जाते हैं, वहाँ कई बार चार-छः महीनों तक धूप ही नहीं निकलती । विदेशी पर्यटक यूँ ही नहीं गोवा और कोवलम के बीचों पर नंग-धडंग पडे़ रहते, बल्कि धूप से अधिक देर तक दूर रहने के कारण उनको त्वचा कैंसर का खतरा होता है, इसलिये डॉक्टर उन्हें "धूप-स्नान" की सलाह देते हैं । हम भारतवासी सौभाग्यशाली हैं कि हमें धूप, ठंड और बारिश लगभग समानुपात में मिलती है (ये और बात है कि हम उसकी कद्र नहीं करते) । सामान्यतः एक बडे़ बल्ब की प्रखरता 2900 ल्यूमेन्स होती है, जबकि फ़्लोरोसेंट ट्यूब की 7750, मरकरी लैम्प की 19100, कम प्रेशर के सोडियम लैम्प की 33000, अधिक दबाव वाले सोडियम लैम्प की 45000 और मेटल हेलाईड के प्रकाश की तीव्रता 71000 ल्यूमेन्स होती है । इसके कारण इनके आसपास के वातावरण के तापमान में भारी वृद्धि हो जाती है । स्टेडियमों में लगने वाले बल्बों से अल्ट्रावॉयलेट किरणें एवं अन्य उच्च दाब के प्रकाश से इन्फ़्रारेड किरणें निकलती हैं, और यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन किरणों का मनुष्य के शरीर पर क्या प्रभाव पडता है ।

यदि किसी बडे शहर की सभी सार्वजनिक लाईटों को दो सौ वॉट की बजाय सौ वॉट एवं ढाई सौ की बजाय डेढ सौ वॉट में बदल दिया जाये तो कितनी ऊर्जा और बिजली की बचत होगी । इमारतों और सडकों पर उतना ही प्रकाश होना चाहिये जितनी जरूरत है, खामख्वाह आँखें चौंधियाने वाले प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं है और ऐसा अभी सिद्ध नहीं हुआ है कि अंधेरी रातों में अधिक चोरियाँ होती हैं, बल्कि पुलिस के अनुसार सेंधमारी और लूट दिन के वक्त ज्यादा होती है, जब घरों में कोई नहीं होता । इसलिये समय आ गया है कि सभी नगरीय प्रशासनिक संस्थायें इस दिशा में विचार करें, वैसे ही हमारे देश में बिजली की कमी है, फ़िर क्यों उसका इस तरह से अपव्यय किया जाये ? साथ ही स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये तो यह हितैषी होगा ही, कि हम सब मिलकर कटौती करने की कोशिश करें । बडे़-बडे़ शोरूमों और कम्पनियों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने यहाँ गैरजरूरी लाईटों में कमी करें, साईन बोर्ड रात के दस बजे तक ही चालू रखें । नगरपालिकायें सडक की बत्तियाँ एक खंभा छोडकर एक पर जलायें । यही बात घरों पर भी लागू करने की कोशिश करें और ट्यूबलाईटों को निकालकर CFL का अधिकाधिक प्रयोग शुरु करें, साथ ही यह भी याद करने की कोशिश करें कि पिछली बार आपने "जुगनू" कब देखा था ?

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