हम कोई उच्चारण करते हैं, तो असल में क्या होता है? जब मन में बोलने की इच्छा होती है, तब मन शरीर की अग्नि में नाभि स्थान पर आघात करता है। अग्नि की प्रवृत्ति ऊपर उठना है, वह हृदय स्थान पर वायु को प्रेरित करती है। हमारे नाभि से फ़ेफ़ड़ों के द्वारा हवा ऊपर आती है, वह हवा फ़िर गले, तालू, जीभ और दाँतों के रास्ते मुँह या नाक से बाहर आकर एक स्वर उत्पन्न करती है, जिसे हम उच्चार कहते हैं। यही वायु कण्ठ स्थान में अक्षर के रूप में प्रकट होता है। इस तरह नाभि से उठने वाली ध्वनि प्राण के सहारे ऊपर उठती है और वाणी तंत्र के जिस हिस्से में टकराती है उसी पर वर्ण की पहचान टिकी हुई है। इस प्रक्रिया में इन सभी अंगों और अवयवों का विभिन्न तरह और तरीकों से खुलना-बन्द होना होता है, और एक उच्चारण तैयार होता है, यह ठीक कुम्हार द्वारा कच्ची मिट्टी के घड़े को आकार देने के समान होता है, कहाँ पर, कितना और कैसा दबाना है जिससे कि पतले गले वाली सुराही बने या मोटे पेट वाला घड़ा बने यह कुम्हार के हाथों का दबाव तय करता है, उसी प्रकार उच्चार क्रिया में दाँत, होंठ या जीभ के अलग-अलग सम्बन्ध होने पर विभिन्न उच्चार उत्पन्न होते हैं। इसे समझने के लिये चित्र देखें –
नाभि से उठने वाली ध्वनि विसर्ग के रूप में उठती है, वह कण्ठ मूल में आकर जब “अकार” से मिलती है तब वर्ण के रूप में प्रकट होती है। विसर्ग ही ध्वनि को कण्ठ तक लाता है और लौट जाता है। विसर्ग ही “ह” के रूप में प्रकट होता है। ‘अ’ और ‘ह’ एक दूसरे के विपरीत अर्थ दर्शाते हैं, इसीलिये ये दोनो विरोधाभासी अक्षर हैं। कृष्ण ने भी गीता में कहा है “अक्षराणाम्अकारोस्मि” अर्थात अक्षरों में मैं अकार हूँ। इसका अर्थ यही है कि ‘अ’कार के बिना शब्द सृष्टि आगे नहीं बढ़ सकती। हर अक्षर का निर्माण में अकार के मिलने से ही होता है, इसीलिये व्यंजनों को योनि रूप और स्वर को बीज रूप कहा गया है। दोनो के मिलने से ही शब्द की सृष्टि होती है।
अक्षरों में ‘अकार’ ही एक ऐसा वर्ण है, जिसका उच्चारण कंठमूल से होता है। ‘अ’ के उच्चारण में कंठ, जीभ, होंठ अथवा मुँह की कोई भूमिका नहीं होती, यानी मुँह के किसी हिस्से को न तो सिकोड़ना होता है, न फ़ैलाना होता है। ‘अ’ के उच्चारण के समय मुँह एक जैसा गोलाकार खुला रहता है। ‘अ’ के अलावा शेष सभी वर्णों के उच्चारण में कंठ, जीभ, होंठ और मुँह का संकुचन या विस्तार होता ही है। भाषा वैज्ञानिक महेन्द्रपाल सिंह ने वर्णों की उच्चारण प्रक्रिया की वैज्ञानिक विवेचना बहुत ही रोचक रूप में की है। इसे वर्णोच्चारण विज्ञान कहते हैं। उन्होंने वाणी तंत्र की पूरी प्रक्रिया बताई है। नाभि से लेकर होंठ तक वाणी तंत्र का विस्तार है। कंठमूल से थोड़ा नीचे ‘इ’ का स्थान है, इ के स्थान से थोड़ा नीचे ‘उ’ का उच्चारण स्थान है। उ के स्थान से थोड़ा नीचे ऋ और ॠ से थोड़ा नीचे ‘ए’ का उच्चारण होता है। ‘ए’ से जुड़ा हुआ ही ‘ऐ’ का स्थान है, इन दोनों में बहुत हल्का सा फ़र्क है। ‘ए’ के स्थान के नीचे ‘ओ’, ‘औ’ का उच्चारण किया जाता है। ‘औ’ के स्थान के पीछे से नाभि के निकट से अनुस्वार तथा नाभि के केन्द्र से विसर्ग का उच्चारण किया जाता है।
प्रस्तुत चित्र में हमें स्पष्ट तौर पर ध्वनि यंत्र (Vocal Tract) के सभी अवयव दिखाई देते हैं। कोई जरूरी नहीं कि बोलते समय इन सभी अवयवों का उपयोग हो ही, लेकिन जीभ का पिछला हिस्सा (Velum), तालू (Palate), नाक के छेद (Nasal Cavity), होंठ (Lips), दाँत (Teeth), जीभ का अगला भाग (Tip of the tongue), जीभ का मुख्य भाग (Body of the tongue), जीभ का निचला हिस्सा (Root of the tongue) इनका विभिन्न तरीकों से प्रयोग होता है। जीभ के निचले हिस्से का सबसे पीछे का भाग जिसे Uvula कहा जाता है (चित्र में नहीं है), वह भाग उर्दू के कुछ शब्दों जैसे – क़, ख़, ग़ आदि के लिये उपयोग होता है (जंग और ज़ंग बोल कर इसे समझा जा सकता है)। सुविधा के लिये इन तमाम अंगों और अवयवों को एक ही शब्द “उच्चारक” के रूप में हम लेते हैं। इनमें से दो के आपस में मिलने पर कैसे व्यंजन तय होते हैं उसी प्रकार उन्हें नाम दिये गये हैं- जैसे
१. कण्ठ्य – जीभ के निचले और पिछले हिस्से के संयोग से निर्माण होने वाले – क्, ख्, ग्, घ्, ङ्
२. तालव्य – तालू और जीभ के आपस में स्पर्श होने से निर्माण होने वाले – च्, छ्, ज्, झ्, ञ्, श्
३. मूर्धन्य – इसमें भी तालू और जीभ के स्पर्श होने से ही शब्द का निर्माण होता है लेकिन यह स्पर्श भिन्न तरीके से होता है, तालव्य में जीभ सीधी रहती है, जबकि मूर्धन्य में जीभ थोड़ी अंदर की दिशा में मुड़ जाती है, जैसे – ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्, ष्
४. दन्त्य – दाँतों और जीभ का स्पर्श होने से निर्माण होने वाले – त्, थ्, द्, ध्, न्, स्
५. ओष्ठ्य – दोनों होंठों के साथ आकर स्पर्श से निर्माण होने वाले – प्, फ़्, ब्, भ्, म्
भाषा में वर्णों का निर्धारण वैज्ञानिक तरीके से हुआ है, इसे समझने के लिये गणितीय संवर्ग के सिद्धांत और “द्वंद्वात्मक तर्क” की प्रक्रिया को समझना होगा। सबसे पहले एक विचार वाद के रूप में मन में आता है। यह विचार अपने अन्दर से एक विरोधी विचार को पैदा करता है, जिसे हम प्रतिवाद कहते हैं। वाद और प्रतिवाद एक-दूसरे के विरोधी होते हैं। वाद-प्रतिवाद के समन्वय से बनी हुई स्थिति को ‘संवाद’ कहते हैं। इसी संवाद-प्रतिवाद के सिलसिले को द्वंद्वात्मक तर्क का सिद्धांत कहा जाता है। इसी तर्क के आधार पर हमारी भाषा में व्यंजन वर्णों की रचना हुई है। व्यंजनों के स्पष्ट उच्चारण के लिये मुख, कंठ और होंठ तक फ़ैले उच्चारण स्थानों के पहले पाँच भाग किये गये हैं, फ़िर इन पाँच बड़े भागों में से प्रत्येक बड़े भाग के पाँच छोटे-छोटे हिस्से किये गये हैं। इस तरह व्यंजनों के पाँच वर्ग और प्रत्येक वर्ग के पाँच उप-उच्चारण स्थान माने गये हैं। पाँच से अधिक हिस्से करने पर वर्णसंकर दोष पैदा हो जाता, और ध्वनियाँ स्पष्ट उच्चारित नहीं होतीं।
जैसा कि पहले हम देख चुके हैं व्यंजनों के पाँच वर्ग होते हैं –
क वर्ग – क, ख, ग, घ, ङ
च वर्ग – च, छ, ज, झ, ञ
ट वर्ग – ट, ठ, ड, ढ, ण
त वर्ग – त, थ, द, ध, न
प वर्ग – प, फ़, ब, भ, म
बोले और लिखे जाने के क्रम में सबसे अन्त में ‘प’ वर्ग का स्थान है। दरअसल हमारा वाणी तंत्र एक ग्राफ़ की तरह से बनाया गया है। इसके अन्तिम छोर से यानी होंठ के नीचे के छोर से ‘प’ का उच्चारण होता है। ऊपरी होंठ के पाँच भाग करने पर निचले सिरे से ऊपरी सिरे तक बढने पर ‘प, फ़, ब, भ, म’ का उच्चार होता है। इससे कुछ पीछे हटने पर ऊपर दन्त स्थान का निचला छोर आता है। इस दन्त स्थान के भी पाँच विभाग किये गये हैं, नीचे से ऊपर की ओर जीभ के प्रत्येक हिस्से से टकराने पर त, थ, द, ध, न बोले जाते हैं। दन्त मूल से थोड़ा सा ऊपर मूर्धा के अन्तिम अथवा अगले हिस्से पर जीभ के लगने से ‘ट’ की ध्वनि निकलती है, ट के स्थान से थोड़ा सा पीछे हटने पर मूर्धा के चार स्थानों पर जीभ टकराती है, तो क्रमशः ठ, ड, ढ, ण का उच्चारण होता है। ‘ण’ का उच्चारण मूर्धा के सबसे ऊपरी हिस्से में होता है, ये मूर्धा का मूल भाग माना गया है। मूर्धा के बाद तालू का प्रारंभ होता है, तालू के अग्र भाग से जीभ के स्पर्श करने से ‘च’ का उच्चारण होता है। च के स्थान के पीछे तालू के भी चार हिस्से किये गये हैं जिस पर जीभ स्पर्श करने से छ, ज, झ, ञ का उच्चारण होता है। तालू के पीछे से कंठ की सीमा प्रारम्भ होती है। ञ के पिछले स्थान से कंठ के चार स्थानों पर ख, ग, घ और ङ उत्पन्न होते हैं। जिन लोगों को पहले यह दन्त्य, कण्ठ्य या तालव्य की अवधारणा मालूम नहीं थी, उन्हें अब यह पता चल गया होगा कि इन व्यंजनों को इस प्रकार ही क्यों तालिका में रखा गया है।
लेकिन फ़िर भी एक प्रश्न उठता है कि जब “स्”, ‘श्’ और ‘ष्’ जैसे शब्द इन्हीं व्यंजनों की श्रृंखला में आते हैं, तो फ़िर उन्हें इन पहले २५ व्यंजनों से अलग क्यों रखा गया है? ‘श्’ और ‘ष्’ में क्या अन्तर है, हालांकि इसका उत्तर पाठकों को स्वयं इन व्यंजनों के उच्चार करके देखने से स्पष्ट तौर पर समझ में आ जायेगा, फ़िर भी आने वाले लेखों में इसका विस्तार करने की कोशिश की जायेगी।
अगले भाग में हम देखेंगे व्यंजनों के बारे में और गहराई से विवेचन..... तब तक सुधी पाठक कृपया इनका गंभीरता से अध्ययन करके मेरी गलतियों से अवगत कराते रहें, ताकि उस पर चर्चा-प्रतिचर्चा का द्वार खुले।
Hindi Language, Vowels, Vocal, Phonetics, Alphabets, Learn Hindi, Vocabulary, Linguistic Science, Phonetic Science
Phonetics, Language, Alphabets in Hindi
(भाग-२ से जारी...)
कभी-कभी आश्चर्य होता है, अपने मुँह से हम इतने सारे शब्द, इतनी ध्वनियाँ कैसे निकालते हैं, यही तो हमारे वाणी तंत्र की विशेषता है। मानव का वाणी तंत्र नाभि से होंठ तक होता है, यह ध्वनि का एक अद्भुत उपकरण है। मनुष्य का वाणी तंत्र सर्वाधिक विकसित होता है। अन्य प्राणियों, पशु-पक्षियों में यह तंत्र इतना विकसित नहीं होता, इसीलिये उनकी ध्वनियाँ बहुत सीमित होती हैं। चिड़िया सिर्फ़ चीं-चीं करती सुनाई देती है, शेर-गाय-बकरी आदि की ध्वनियाँ भी सीमित हैं। लेकिन मनुष्य में हर वर्ण का एक अलग स्थान से उच्चारण होता है। इस तंत्र के ज्यादा से ज्यादा इतने हिस्से तय किये गये हैं कि प्रत्येक वर्ण के लिये एक-एक स्थान निर्धारित है।
Published in
ब्लॉग
Tagged under