"त्याग", "बलिदान" और "संस्कृति" की दुहाई देने वाली एक औरत दिल्ली में सत्ता की केन्द्र है, एक और औरत उसकी रबर स्टाम्प है, एक गैर-लोकसभाई (गैर-जनाधारी)उसका "बबुआ" बना हुआ है तथा एक और महिला (शीला दीक्षित) की नाक के नीचे ये सारा खेल खेला जा रहा है, इससे बडी़ शर्म की बात इस देश के लिये नहीं हो सकती । शायद किरण बेदी का अपराध यह रहा कि वे सिर्फ़ "ईमानदारी" से काम करने में यकीन रखती हैं, उन्हें अपने अफ़सरों और मातहतों को दारू-पार्टियाँ देकर "खुश" करना नहीं आता । वे पुस्तकें लिखती हैं, कैदियों को सुधारती हैं, अनुशासन बनाती हैं, लेकिन वे यह साफ़-साफ़ भूल जाती हैं कि हमारे "कीचड़ से सने" नेताओं के लिये यह बात मायने नहीं रखती, उन्हें तो चाहिये "जी-हुजूर" करने वाले "नपुंसक और बिना रीढ़ वाले" अधिकारी, जो "खाओ और खाने दो" में यकीन रखते हैं । एक तरफ़ कलाम साहब कल ही 2020 तक देश को महाशक्ति बनाने के लिये सपने देखने की बात फ़रमा कर, सिर्फ़ दो सूटकेस लेकर राष्ट्रपति भवन से निकल गये, वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली के बंगलों पर काबिज नेताओं और उनके लगुए-भगुओं को निकाल बाहर करने में पसीना आ रहा है, और ये भी मत भूलिये कि "महिला सशक्तिकरण" तो हुआ है, क्योंकि मोनिका बेदी छूट गई ना ! किरण बेदी की नाक भले ही रगड़ दी गई हो । क्या देश है और क्या घटिया व्यवस्था है ?
आईये हम सब मिलकर जोर से कहें - "इस व्यवस्था की तो %&^$*&&%**$% (इन स्टार युक्त चिन्हों के स्थान पर अपने-अपने गुस्से, अपनी-अपनी बेबसी और अपने-अपने संस्कारों के मुताबिक शब्द भर लें) और स्वतंत्रता दिवस नजदीक आ रहा है... झूठा ही सही "मेरा भारत महान" कहने में किसी का क्या जाता है ?