क्या राष्ट्रीय मीडिया में "देशद्रोही" भरे पड़े हैं? सन्दर्भ - कश्मीर की स्वायत्तता… Kashmir Autonomy Proposal, Indian Media and Secularism
Written by Super User सोमवार, 16 अगस्त 2010 13:02
प्रधानमंत्री जी ने कश्मीर मुद्दे पर सभी दलों की जो बैठक बुलाई थी, उसमें उन्होंने एक बड़ी गम्भीर और व्यापक बहस छेड़ने वाली बात कह दी कि "यदि सभी दल चाहें तो कश्मीर को स्वायत्तता दी जा सकती है…", लेकिन आश्चर्य की बात है कि भाजपा को छोड़कर किसी भी दल ने इस बयान पर आपत्ति दर्ज करना तो दूर स्पष्टीकरण माँगना भी उचित नहीं समझा। प्रधानमंत्री द्वारा ऑफ़र की गई "स्वायत्तता" का क्या मतलब है? क्या प्रधानमंत्री या कांग्रेस खुद भी इस बारे में स्पष्ट है? या ऐसे ही हवा में कुछ बयान उछाल दिया? कांग्रेस वाले स्वायत्तता किसे देंगे? उन लोगों को जो बरसों से भारतीय टुकड़ों पर पल रहे हैं फ़िर भी अमरनाथ में यात्रियों की सुविधा के लिये अस्थाई रुप से ज़मीन का एक टुकड़ा देने में उन्हें खतरा नज़र आने लगता है और विरोध में सड़कों पर आ जाते हैं… या स्वायत्तता उन्हें देंगे जो सरेआम भारत का तिरंगा जला रहे हैं, 15 अगस्त को "काला दिवस" मना रहे हैं? किस स्वायत्तता की बात हो रही है मनमोहन जी, थोड़ा हमें भी तो बतायें।
इतने गम्भीर मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया, अखबारों और चैनलों की ठण्डी प्रतिक्रिया और शून्य कवरेज भी आश्चर्य पैदा करने वाला है। प्रधानमंत्री के इस बयान के बावजूद, मीडिया क्या दिखा रहा है? 1) शाहरुख खान ने KKR के लिये पाकिस्तानी खिलाड़ी को खरीदा और पाकिस्तान के खिलाड़ियों का समर्थन किया… 2) राहुल गाँधी की लोकप्रियता में भारी उछाल…, 3) पीपली लाइव की लॉंचिंग… आदि-आदि-आदि। आप कहेंगे कि मीडिया तो बार-बार कश्मीर की हिंसा की खबरें दिखा रहा है… जी हाँ ज़रूर दिखा रहा है, लेकिन हेडलाइन, बाइलाइन, टिकर और स्क्रीन में नीचे चलने वाले स्क्रोल में अधिकतर आपको "कश्मीर में गुस्सा…", "कश्मीर का युवा आक्रोशित…", "कश्मीर में सुरक्षा बलों पर आक्रोशित युवाओं की पत्थरबाजी…" जैसी खबरें दिखाई देंगी। सवाल उठता है कि क्या मीडिया और चैनलों में राष्ट्रबोध नाम की चीज़ एकदम खत्म हो गई है? या ये किसी के इशारे पर इस प्रकार की हेडलाइनें दिखाते हैं?
कश्मीर में गुस्सा, आक्रोश? किस बात पर आक्रोश? और किस पर गुस्सा? भारत की सरकार पर? लेकिन भारत सरकार (यानी प्रकारान्तर से करोड़ों टैक्स भरने वाले) तो इन कश्मीरियों को 60 साल से पाल-पोस रहे हैं, फ़िर किस बात का आक्रोश? भारत की सरकार के कई कानून वहाँ चलते नहीं, कुछ को वे मानते नहीं, उनका झण्डा अलग है, उनका संविधान अलग है, भारत का नागरिक वहाँ ज़मीन खरीद नहीं सकता, धारा 370 के तहत विशेषाधिकार मिला हुआ है, हिन्दुओं (कश्मीरी पण्डितों) को बाकायदा "धार्मिक सफ़ाये" के तहत कश्मीर से बाहर किया जा चुका है… फ़िर किस बात का गुस्सा है भई? कहीं यह हरामखोरी की चर्बी तो नहीं? लगता तो यही है। वरना क्या कारण है कि 14-15 साल के लड़के से लेकर यासीन मलिक, गिलानी और अब्दुल गनी लोन जैसे बुज़ुर्ग भी भारत सरकार से, जब देखो तब खफ़ा रहते हैं।
जबकि दूसरी तरफ़ देखें तो भारत के नागरिक, हिन्दू संगठन, तमाम टैक्स देने वाले और भारत को अखण्ड देखने की चाह रखने वाले देशप्रेमी… जिनको असल में गुस्सा आना चाहिये, आक्रोशित होना चाहिये, नाराज़ी जताना चाहिये… वे नपुंसक की तरह चुपचाप बैठे हैं और "स्वायत्तता" का राग सुन रहे हैं? कोई भी उठकर ये सवाल नहीं करता कि कश्मीर के पत्थरबाजों को पालने, यासीन मलिक जैसे देशद्रोहियों को दिल्ली लाकर पाँच सितारा होटलों में रुकवाने और भाषण करवाने के लिये हम टैक्स क्यों दें? किसी राजदीप या बुरका दत्त ने कभी किसी कश्मीरी पण्डित का इंटरव्यू लिया कि उसमें कितना आक्रोश है? लाखों हिन्दू लूटे गये, बलात्कार किये गये, उनके मन्दिर तोड़े गये, क्योंकि गिलानी के पाकिस्तानी आका ऐसा चाहते थे, तो जिन्हें गुस्सा आया होगा कभी उन्हें किसी चैनल पर दिखाया? नहीं दिखाया, क्यों? क्या आक्रोशित होने और गुस्सा होने का हक सिर्फ़ कश्मीर के हुल्लड़बाजों को ही है, राष्ट्रवादियों को नहीं?
लेकिन जैसे ही "राष्ट्रवाद" की बात की जाती है, मीडिया को हुड़हुड़ी का बुखार आ जाता है, राष्ट्रवाद की बात करना, हिन्दू हितों की बात करना तो मानो वर्जित ही है… किसी टीवी एंकर की औकात नहीं है कि वह कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति और नारकीय परिस्थितियों पर कोई कार्यक्रम बनाये और उसे हेडलाइन बनाकर जोर-शोर से प्रचारित कर सके, कोई चैनल देश को यह नहीं बताता कि आज तक कश्मीर के लिये भारत सरकार ने कितना-कुछ किया है, क्योंकि उनके मालिकों को "पोलिटिकली करेक्ट" रहना है, उन्हें कांग्रेस को नाराज़ नहीं करना है… स्वाभाविक सी बात है कि तब जनता पूछेगी कि इतना पैसा खर्च करने के बावजूद कश्मीर में बेरोज़गारी क्यों है? पिछले 60 साल से कश्मीर में किसकी हुकूमत चल रही थी? दिल्ली में बैठे सूरमा, खरबों रुपये खर्च करने बावजूद कश्मीर में शान्ति क्यों नहीं ला सके? ऐसे असुविधाजनक सवालों से "सेकुलरिज़्म" बचना चाहता है, इसलिये हमें समझाया जा रहा है कि "कश्मीरी युवाओं में आक्रोश और गुस्सा" है।
इधर अपने देश में गद्दार किस्म का मीडिया है, प्रस्तुत चित्र में देखिये "नवभारत टाइम्स अखबार" फ़ोटो के कैप्शन में लिखता है "कश्मीरी मुसलमान महिला" और "भारतीय पुलिसवाला", क्या मतलब है इसका? क्या नवभारत टाइम्स इशारा करना चाहता है कि कश्मीर भारत से अलग हो चुका है और भारतीय पुलिस(?) कश्मीरी मुस्लिमों पर अत्याचार कर रही है? यही तो पाकिस्तानी और अलगाववादी कश्मीरी भी कहते हैं… मजे की बात तो यह कि यही मीडिया संस्थान "अमन की आशा" टाइप के आलतू-फ़ालतू कार्यक्रम भी आयोजित कर लेते हैं। जबकि उधर पाकिस्तान में उच्च स्तर पर सभी के सभी लोग कश्मीर को भारत से अलग करने में जी-जान से जुटे हैं, इसका सबूत यह है कि हाल ही में जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान किं मून ने कश्मीर के सन्दर्भ में अपना विवादास्पद बयान पढ़ा था (बाद में उन्होंने कहा कि यह उनका मूल बयान नहीं है)... असल में बान के बयान का मजमून बदलने वाला व्यक्ति संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रवक्ता फ़रहान हक है, जिसने मूल बयान में हेराफ़ेरी करके उसमें "कश्मीर" जोड़ दिया। फ़रहान हक ने तो अपने देश के प्रति देशभक्ति दिखाई, लेकिन भारत के तथाकथित सेकुलरिज़्म के पैरोकार क्यों अपना मुँह सिले बैठे रहते हैं? जमाने भर में दाऊद इब्राहीम का पता लेकर घूमते रहते हैं… दाऊद यहाँ है, दाऊद वहाँ है, दाऊद ने आज खाना खाया, दाऊद ने आज पानी पिया… अरे भाई, देश की जनता को इससे क्या मतलब? देश की जनता तो तब खुश होगी, जब सरकार "रॉ" जैसी संस्था के आदमियों की मदद से दाऊद को पाकिस्तान में घुसकर निपटा दें… और फ़िर मीडिया भारत की सरकार का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणगान करे… यह तो मीडिया और सरकार से बनेगा नहीं… इसलिये "अमन की आशा" का राग अलापते हैं…।
दिल्ली और विभिन्न राज्यों में एक "अल्पसंख्यक आयोग" और "मानवाधिकार आयोग" नाम के दो "बिजूके" बैठे हैं, लेकिन इनकी निगाह में कश्मीरी हिन्दुओं का कोई मानवाधिकार नहीं है, गलियों से आकर पत्थर मारने वाले, गोलियाँ चलाने वालों से सहानुभूति है, लेकिन अपने घर-परिवार से दूर रहकर 24 घण्टे अपनी ड्यूटी निभाने वाले सैनिक के लिये कोई मानवाधिकार नहीं? मार-मारकर भगाये गये कश्मीरी पण्डित इनकी निगाह में "अल्पसंख्यक" नहीं हैं, क्योंकि "अल्पसंख्यक" की परिभाषा भी तो इन्हीं कांग्रेसियों द्वारा गढ़ी गई है। मनमोहन सिंह जी को यह कहना तो याद रहता है कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", लेकिन कश्मीरी पंडितों के दर्द और लाखों अमरनाथ यात्रियों के वाजिब हक के मुद्दे पर उनके मुँह में दही जम जाता है। वाकई में गाँधीवादियों, सेकुलरों और मीडिया ने मिलकर एकदम "बधियाकरण" ही कर डाला है देश का… देशहित से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई सार्थक बहस नहीं, भारत के हितों से जुड़े मुद्दों पर देश का पक्ष लेने की बजाय, या तो विदेशी ताकतों का गुणगान या फ़िर देशविरोधी ताकतों के प्रति सहानुभूति पैदा करना… आखिर कितना गिरेगा हमारा मीडिया?
अब जबकि खरबों रुपये खर्च करने के बावजूद कश्मीर की स्थिति 20 साल पहले जैसी ही है, तो समय आ गया है कि हमें गिलानी-यासीन जैसों से दो-टूक बात करनी चाहिये कि आखिर किस प्रकार की आज़ादी चाहते हैं वे? कैसी स्वायत्तता चाहिये उन्हें? क्या स्वायत्तता का मतलब यही है कि भारत उन लोगों को अपने आर्थिक संसाधनों से पाले-पोसे, वहाँ बिजली परियोजनाएं लगाये, बाँध बनाये… यहाँ तक कि डल झील की सफ़ाई भी केन्द्र सरकार करवाये? उनसे पूछना चाहिये कि 60 साल में भारत सरकार ने जो खरबों रुपया दिया, उसका क्या हुआ? उसके बदले में पत्थरबाजों और उनके आकाओं ने भारत को एक पैसा भी लौटाया? क्या वे सिर्फ़ फ़ोकट का खाना ही जानते हैं, चुकाना नहीं?
गलती पूरी तरह से उनकी भी नहीं है, नेहरु ने अपनी गलतियों से जिस कश्मीर को हमारी छाती पर बोझ बना दिया था, उसे ढोने में सभी सरकारें लगी हुई हैं… जो वर्ग विशेष को खुश करने के चक्कर में कश्मीरियों की परवाह करती रहती हैं। ये जो बार-बार मीडियाई भाण्ड, कश्मीरियों का गुस्सा, युवाओं का आक्रोश जैसी बात कर रहे हैं, यह आक्रोश और गुस्सा सिर्फ़ "पाकिस्तानी" भावना रखने वालों के दिल में ही है, बाकियों के दिल में नहीं, और यह लोग मशीनगनों से गोलियों की बौछार खाने की औकात ही रखते हैं जो कि उन्हें दिखाई भी जानी चाहिये…, उलटे यहाँ तो सेना पूरी तरह से हटाने की बात हो रही है। अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाला देशभक्त हो ही नहीं सकता, उन्हें जो भी सहानुभूति मिलेगी वह विदेश से…। चीन ने जैसे थ्येन-आनमन चौक में विद्रोह को कुचलकर रख दिया था… अब तो वैसा ही करना पड़ेगा। कश्मीर को 5 साल के लिये पूरी तरह सेना के हवाले करो, अलगाववादी नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में सड़ाओ या उड़ाओ, धारा 370 खत्म करके जम्मू से हिन्दुओं को कश्मीर में बसाना शुरु करो और उधर का जनसंख्या सन्तुलन बदलो…विभिन्न प्रचार माध्यमों से मूर्ख कश्मीरी उग्रवादी नेताओं और "भटके हुए नौजवानों"(?) को समझाओ कि भारत के बिना उनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है… क्योंकि यदि वे पाकिस्तान में जा मिले तो नर्क मिलेगा और उनकी बदकिस्मती से "आज़ाद कश्मीर"(?) बन भी गया तो अमेरिका वहाँ किसी न किसी बहाने कदम जमायेगा…, अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी की परवाह मत करो… पाकिस्तान जब भी कश्मीर राग अलापे, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का मुद्दा जोरशोर से उठाओ…ऐसे कई-कई कदम हैं, जो तभी उठ पायेंगे, जब मीडिया सरकार का साथ दे और "अमन की आशा" जैसी नॉस्टैल्जिक उलटबाँसियां न करे…।
लेकिन अमेरिका क्या कहेगा, पाकिस्तान क्या सोचेगा, संयुक्त राष्ट्र क्या करेगा, चीन से सम्बन्ध खराब तो नहीं होंगे जैसी "मूर्खतापूर्ण और डरपोक सोचों" की वजह से ही हमने इस देश और कश्मीर का ये हाल कर रखा है… कांग्रेस आज कश्मीर को स्वायत्तता देगी, कल असम को, परसों पश्चिम बंगाल को, फ़िर मणिपुर और केरल को…? इज़राइल तो बहुत दूर है… हमारे पड़ोस में श्रीलंका जैसे छोटे से देश ने तमिल आंदोलन को कुचलकर दिखा दिया कि यदि नेताओं में "रीढ़ की हड्डी" मजबूत हो, जनता में देशभक्ति का जज़्बा हो और मीडिया सकारात्मक रुप से देशहित में सोचे तो बहुत कुछ किया जा सकता है…
क्लिक करके कश्मीर से सम्बन्धित लेखक निम्न लेख अवश्य पढ़ें…
http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/03/umar-abdullah-kashmir-stone-pelters.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/09/compensation-to-criminal-and-pension-to.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-drastic-liability-on-india.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-issue-india-pakistan-secularism.html
Kashmir Autonomy Proposal, Manmohan Singh and Kashmir Issue, Jammu Kashmir and Pakistan Politics, Aman ki Aasha and Indian Media, Subsidy to Jammu and Kashmir, Indian Government Projects in Kashmir, Dal Lake and Srinagar, Stone Pelting in Kashmir, Freedom Agitation in Kashmir, कश्मीर को स्वायत्तता, कश्मीर की आज़ादी और भारतीय मीडिया, कश्मीर को सब्सिडी और सहायता, कश्मीर में पत्थरबाजी, कश्मीर का आंदोलन, अमरनाथ यात्रा, अमन की आशा और भारतीय मीडिया, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
इतने गम्भीर मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया, अखबारों और चैनलों की ठण्डी प्रतिक्रिया और शून्य कवरेज भी आश्चर्य पैदा करने वाला है। प्रधानमंत्री के इस बयान के बावजूद, मीडिया क्या दिखा रहा है? 1) शाहरुख खान ने KKR के लिये पाकिस्तानी खिलाड़ी को खरीदा और पाकिस्तान के खिलाड़ियों का समर्थन किया… 2) राहुल गाँधी की लोकप्रियता में भारी उछाल…, 3) पीपली लाइव की लॉंचिंग… आदि-आदि-आदि। आप कहेंगे कि मीडिया तो बार-बार कश्मीर की हिंसा की खबरें दिखा रहा है… जी हाँ ज़रूर दिखा रहा है, लेकिन हेडलाइन, बाइलाइन, टिकर और स्क्रीन में नीचे चलने वाले स्क्रोल में अधिकतर आपको "कश्मीर में गुस्सा…", "कश्मीर का युवा आक्रोशित…", "कश्मीर में सुरक्षा बलों पर आक्रोशित युवाओं की पत्थरबाजी…" जैसी खबरें दिखाई देंगी। सवाल उठता है कि क्या मीडिया और चैनलों में राष्ट्रबोध नाम की चीज़ एकदम खत्म हो गई है? या ये किसी के इशारे पर इस प्रकार की हेडलाइनें दिखाते हैं?
कश्मीर में गुस्सा, आक्रोश? किस बात पर आक्रोश? और किस पर गुस्सा? भारत की सरकार पर? लेकिन भारत सरकार (यानी प्रकारान्तर से करोड़ों टैक्स भरने वाले) तो इन कश्मीरियों को 60 साल से पाल-पोस रहे हैं, फ़िर किस बात का आक्रोश? भारत की सरकार के कई कानून वहाँ चलते नहीं, कुछ को वे मानते नहीं, उनका झण्डा अलग है, उनका संविधान अलग है, भारत का नागरिक वहाँ ज़मीन खरीद नहीं सकता, धारा 370 के तहत विशेषाधिकार मिला हुआ है, हिन्दुओं (कश्मीरी पण्डितों) को बाकायदा "धार्मिक सफ़ाये" के तहत कश्मीर से बाहर किया जा चुका है… फ़िर किस बात का गुस्सा है भई? कहीं यह हरामखोरी की चर्बी तो नहीं? लगता तो यही है। वरना क्या कारण है कि 14-15 साल के लड़के से लेकर यासीन मलिक, गिलानी और अब्दुल गनी लोन जैसे बुज़ुर्ग भी भारत सरकार से, जब देखो तब खफ़ा रहते हैं।
जबकि दूसरी तरफ़ देखें तो भारत के नागरिक, हिन्दू संगठन, तमाम टैक्स देने वाले और भारत को अखण्ड देखने की चाह रखने वाले देशप्रेमी… जिनको असल में गुस्सा आना चाहिये, आक्रोशित होना चाहिये, नाराज़ी जताना चाहिये… वे नपुंसक की तरह चुपचाप बैठे हैं और "स्वायत्तता" का राग सुन रहे हैं? कोई भी उठकर ये सवाल नहीं करता कि कश्मीर के पत्थरबाजों को पालने, यासीन मलिक जैसे देशद्रोहियों को दिल्ली लाकर पाँच सितारा होटलों में रुकवाने और भाषण करवाने के लिये हम टैक्स क्यों दें? किसी राजदीप या बुरका दत्त ने कभी किसी कश्मीरी पण्डित का इंटरव्यू लिया कि उसमें कितना आक्रोश है? लाखों हिन्दू लूटे गये, बलात्कार किये गये, उनके मन्दिर तोड़े गये, क्योंकि गिलानी के पाकिस्तानी आका ऐसा चाहते थे, तो जिन्हें गुस्सा आया होगा कभी उन्हें किसी चैनल पर दिखाया? नहीं दिखाया, क्यों? क्या आक्रोशित होने और गुस्सा होने का हक सिर्फ़ कश्मीर के हुल्लड़बाजों को ही है, राष्ट्रवादियों को नहीं?
लेकिन जैसे ही "राष्ट्रवाद" की बात की जाती है, मीडिया को हुड़हुड़ी का बुखार आ जाता है, राष्ट्रवाद की बात करना, हिन्दू हितों की बात करना तो मानो वर्जित ही है… किसी टीवी एंकर की औकात नहीं है कि वह कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति और नारकीय परिस्थितियों पर कोई कार्यक्रम बनाये और उसे हेडलाइन बनाकर जोर-शोर से प्रचारित कर सके, कोई चैनल देश को यह नहीं बताता कि आज तक कश्मीर के लिये भारत सरकार ने कितना-कुछ किया है, क्योंकि उनके मालिकों को "पोलिटिकली करेक्ट" रहना है, उन्हें कांग्रेस को नाराज़ नहीं करना है… स्वाभाविक सी बात है कि तब जनता पूछेगी कि इतना पैसा खर्च करने के बावजूद कश्मीर में बेरोज़गारी क्यों है? पिछले 60 साल से कश्मीर में किसकी हुकूमत चल रही थी? दिल्ली में बैठे सूरमा, खरबों रुपये खर्च करने बावजूद कश्मीर में शान्ति क्यों नहीं ला सके? ऐसे असुविधाजनक सवालों से "सेकुलरिज़्म" बचना चाहता है, इसलिये हमें समझाया जा रहा है कि "कश्मीरी युवाओं में आक्रोश और गुस्सा" है।
इधर अपने देश में गद्दार किस्म का मीडिया है, प्रस्तुत चित्र में देखिये "नवभारत टाइम्स अखबार" फ़ोटो के कैप्शन में लिखता है "कश्मीरी मुसलमान महिला" और "भारतीय पुलिसवाला", क्या मतलब है इसका? क्या नवभारत टाइम्स इशारा करना चाहता है कि कश्मीर भारत से अलग हो चुका है और भारतीय पुलिस(?) कश्मीरी मुस्लिमों पर अत्याचार कर रही है? यही तो पाकिस्तानी और अलगाववादी कश्मीरी भी कहते हैं… मजे की बात तो यह कि यही मीडिया संस्थान "अमन की आशा" टाइप के आलतू-फ़ालतू कार्यक्रम भी आयोजित कर लेते हैं। जबकि उधर पाकिस्तान में उच्च स्तर पर सभी के सभी लोग कश्मीर को भारत से अलग करने में जी-जान से जुटे हैं, इसका सबूत यह है कि हाल ही में जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान किं मून ने कश्मीर के सन्दर्भ में अपना विवादास्पद बयान पढ़ा था (बाद में उन्होंने कहा कि यह उनका मूल बयान नहीं है)... असल में बान के बयान का मजमून बदलने वाला व्यक्ति संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रवक्ता फ़रहान हक है, जिसने मूल बयान में हेराफ़ेरी करके उसमें "कश्मीर" जोड़ दिया। फ़रहान हक ने तो अपने देश के प्रति देशभक्ति दिखाई, लेकिन भारत के तथाकथित सेकुलरिज़्म के पैरोकार क्यों अपना मुँह सिले बैठे रहते हैं? जमाने भर में दाऊद इब्राहीम का पता लेकर घूमते रहते हैं… दाऊद यहाँ है, दाऊद वहाँ है, दाऊद ने आज खाना खाया, दाऊद ने आज पानी पिया… अरे भाई, देश की जनता को इससे क्या मतलब? देश की जनता तो तब खुश होगी, जब सरकार "रॉ" जैसी संस्था के आदमियों की मदद से दाऊद को पाकिस्तान में घुसकर निपटा दें… और फ़िर मीडिया भारत की सरकार का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणगान करे… यह तो मीडिया और सरकार से बनेगा नहीं… इसलिये "अमन की आशा" का राग अलापते हैं…।
दिल्ली और विभिन्न राज्यों में एक "अल्पसंख्यक आयोग" और "मानवाधिकार आयोग" नाम के दो "बिजूके" बैठे हैं, लेकिन इनकी निगाह में कश्मीरी हिन्दुओं का कोई मानवाधिकार नहीं है, गलियों से आकर पत्थर मारने वाले, गोलियाँ चलाने वालों से सहानुभूति है, लेकिन अपने घर-परिवार से दूर रहकर 24 घण्टे अपनी ड्यूटी निभाने वाले सैनिक के लिये कोई मानवाधिकार नहीं? मार-मारकर भगाये गये कश्मीरी पण्डित इनकी निगाह में "अल्पसंख्यक" नहीं हैं, क्योंकि "अल्पसंख्यक" की परिभाषा भी तो इन्हीं कांग्रेसियों द्वारा गढ़ी गई है। मनमोहन सिंह जी को यह कहना तो याद रहता है कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", लेकिन कश्मीरी पंडितों के दर्द और लाखों अमरनाथ यात्रियों के वाजिब हक के मुद्दे पर उनके मुँह में दही जम जाता है। वाकई में गाँधीवादियों, सेकुलरों और मीडिया ने मिलकर एकदम "बधियाकरण" ही कर डाला है देश का… देशहित से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई सार्थक बहस नहीं, भारत के हितों से जुड़े मुद्दों पर देश का पक्ष लेने की बजाय, या तो विदेशी ताकतों का गुणगान या फ़िर देशविरोधी ताकतों के प्रति सहानुभूति पैदा करना… आखिर कितना गिरेगा हमारा मीडिया?
अब जबकि खरबों रुपये खर्च करने के बावजूद कश्मीर की स्थिति 20 साल पहले जैसी ही है, तो समय आ गया है कि हमें गिलानी-यासीन जैसों से दो-टूक बात करनी चाहिये कि आखिर किस प्रकार की आज़ादी चाहते हैं वे? कैसी स्वायत्तता चाहिये उन्हें? क्या स्वायत्तता का मतलब यही है कि भारत उन लोगों को अपने आर्थिक संसाधनों से पाले-पोसे, वहाँ बिजली परियोजनाएं लगाये, बाँध बनाये… यहाँ तक कि डल झील की सफ़ाई भी केन्द्र सरकार करवाये? उनसे पूछना चाहिये कि 60 साल में भारत सरकार ने जो खरबों रुपया दिया, उसका क्या हुआ? उसके बदले में पत्थरबाजों और उनके आकाओं ने भारत को एक पैसा भी लौटाया? क्या वे सिर्फ़ फ़ोकट का खाना ही जानते हैं, चुकाना नहीं?
गलती पूरी तरह से उनकी भी नहीं है, नेहरु ने अपनी गलतियों से जिस कश्मीर को हमारी छाती पर बोझ बना दिया था, उसे ढोने में सभी सरकारें लगी हुई हैं… जो वर्ग विशेष को खुश करने के चक्कर में कश्मीरियों की परवाह करती रहती हैं। ये जो बार-बार मीडियाई भाण्ड, कश्मीरियों का गुस्सा, युवाओं का आक्रोश जैसी बात कर रहे हैं, यह आक्रोश और गुस्सा सिर्फ़ "पाकिस्तानी" भावना रखने वालों के दिल में ही है, बाकियों के दिल में नहीं, और यह लोग मशीनगनों से गोलियों की बौछार खाने की औकात ही रखते हैं जो कि उन्हें दिखाई भी जानी चाहिये…, उलटे यहाँ तो सेना पूरी तरह से हटाने की बात हो रही है। अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाला देशभक्त हो ही नहीं सकता, उन्हें जो भी सहानुभूति मिलेगी वह विदेश से…। चीन ने जैसे थ्येन-आनमन चौक में विद्रोह को कुचलकर रख दिया था… अब तो वैसा ही करना पड़ेगा। कश्मीर को 5 साल के लिये पूरी तरह सेना के हवाले करो, अलगाववादी नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में सड़ाओ या उड़ाओ, धारा 370 खत्म करके जम्मू से हिन्दुओं को कश्मीर में बसाना शुरु करो और उधर का जनसंख्या सन्तुलन बदलो…विभिन्न प्रचार माध्यमों से मूर्ख कश्मीरी उग्रवादी नेताओं और "भटके हुए नौजवानों"(?) को समझाओ कि भारत के बिना उनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है… क्योंकि यदि वे पाकिस्तान में जा मिले तो नर्क मिलेगा और उनकी बदकिस्मती से "आज़ाद कश्मीर"(?) बन भी गया तो अमेरिका वहाँ किसी न किसी बहाने कदम जमायेगा…, अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी की परवाह मत करो… पाकिस्तान जब भी कश्मीर राग अलापे, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का मुद्दा जोरशोर से उठाओ…ऐसे कई-कई कदम हैं, जो तभी उठ पायेंगे, जब मीडिया सरकार का साथ दे और "अमन की आशा" जैसी नॉस्टैल्जिक उलटबाँसियां न करे…।
लेकिन अमेरिका क्या कहेगा, पाकिस्तान क्या सोचेगा, संयुक्त राष्ट्र क्या करेगा, चीन से सम्बन्ध खराब तो नहीं होंगे जैसी "मूर्खतापूर्ण और डरपोक सोचों" की वजह से ही हमने इस देश और कश्मीर का ये हाल कर रखा है… कांग्रेस आज कश्मीर को स्वायत्तता देगी, कल असम को, परसों पश्चिम बंगाल को, फ़िर मणिपुर और केरल को…? इज़राइल तो बहुत दूर है… हमारे पड़ोस में श्रीलंका जैसे छोटे से देश ने तमिल आंदोलन को कुचलकर दिखा दिया कि यदि नेताओं में "रीढ़ की हड्डी" मजबूत हो, जनता में देशभक्ति का जज़्बा हो और मीडिया सकारात्मक रुप से देशहित में सोचे तो बहुत कुछ किया जा सकता है…
क्लिक करके कश्मीर से सम्बन्धित लेखक निम्न लेख अवश्य पढ़ें…
http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/03/umar-abdullah-kashmir-stone-pelters.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/09/compensation-to-criminal-and-pension-to.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-drastic-liability-on-india.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-issue-india-pakistan-secularism.html
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