"दक्षिण का मोदी" पीठ में छुरा खायेगा… Karnataka, Yeddiyurappa, Reddy Brothers Political Cricis
Written by Super User सोमवार, 02 नवम्बर 2009 18:56
दक्षिण में पहली बार भाजपा-हिन्दुत्व का खिला हुआ कमल, दो भाईयों के लालच, और सत्ता की प्यास की वजह से खतरे में पड़ गया है। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक में चल रही राजनैतिक उठापटक में "दक्षिण के मोदी" कहे जा रहे बीएस येद्दियुरप्पा की कुर्सी डांवाडोल हो रही है। इस कुर्सी को हिलाने के पीछे हैं "बेल्लारी के बेताज बादशाह" कहे जाने वाले रेड्डी बन्धु। करुणाकरण रेड्डी सरकार में राजस्व मंत्री हैं, उनके छोटे भाई जनार्दन रेड्डी पर्यटन मंत्री हैं जबकि तीसरे भाई सोमशेखर रेड्डी भी विधायक हैं। कर्नाटक में चल रहे राजनैतिक घटनाक्रम में फ़िलहाल केन्द्रीय नेतृत्व ने भले ही मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा को अपना समर्थन दे दिया हो, लेकिन दोनों रेड्डी बन्धु कभी भी "येद्दि" की पीठ में छुरा घोंप सकते हैं…।
रेड्डी बन्धुओं की तरक्की का ग्राफ़ भी बेहद आश्चर्यचकित करने वाला है। 1999 तक उनकी कोई बड़ी औकात नहीं थी, तीनों भाई बेल्लारी में स्थानीय स्तर की राजनीति करते थे। उनकी किस्मत में पलटा खाया और सोनिया गाँधी ने इस सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया, सोनिया के विरोध में भाजपा ने सुषमा स्वराज को खड़ा किया और तभी से ये तीनो भाई सुषमा स्वराज के अनुकम्पा प्राप्त खासुलखास हो गये। उस लोकसभा चुनाव में इन्होंने सुषमा की तन-मन-धन सभी तरह से सेवा की, हालांकि सुषमा चुनाव हार गईं, लेकिन कांग्रेस की परम्परागत बेल्लारी सीट पर उन्होंने सोनिया को पसीना ला दिया था। रेड्डी बन्धुओं की पहुँच भाजपा के दिल्ली दरबार में हो गई, इन्होंने बेल्लारी में लौह अयस्क की खदान खरीदना और लीज़ पर लेना शुरु किया, एक बार फ़िर किस्मत ने इनका साथ दिया और चीन में ओलम्पिक की वजह से इस्पात और लौह अयस्क की माँग चीन में बढ़ गई और सन 2002-03 में लौह अयस्क के भाव 100 रुपये से 2000 रुपये पहुँच गये, रेड्डी बन्धुओं ने जमकर पैसा कूटा, तमाम वैध-अवैध उत्खनन करवाये और बेल्लारी में अपनी राजनैतिक पैठ बना ली। चूंकि सोनिया ने यह सीट छोड़कर अमेठी की सीट रख ली तो स्थानीय मतदाता नाराज़ हो गया, साथ ही इन्होंने सुषमा स्वराज को लगातार क्षेत्र में विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाये रखा, पूजाएं करवाईं और उदघाटन करवाये, जनता को यह पसन्द आया। 2004 के लोकसभा चुनाव में सुषमा को तो इधर से लड़ना ही नहीं था, इसलिये स्वाभाविक रूप से बड़े रेड्डी को यहाँ से टिकट मिला और 1952 के बाद पहली बार कांग्रेस यहाँ से हारी। आंध्रप्रदेश की सीमा से लगे बेल्लारी में इन बन्धुओं ने जमकर लूटना शुरु किया। 2002 में ही बेल्लारी नगरनिगम के चुनाव में भी कांग्रेस हारी और इनके चचेरे भाई वहाँ से मेयर बने… उसी समय लग गया था कि कर्नाटक में कांग्रेस का पराभव निश्चित हो गया है।
उधर राज्य के शक्तिशाली लिंगायत समुदाय के नेता येद्दियुरप्पा अपनी साफ़ छवि, कठोर निर्णय क्षमता और संघ के समर्थन के सहारे अपनी राजनैतिक ज़मीन पकड़ते जा रहे थे, अन्ततः कांग्रेस को हराकर भाजपा का कमल पहली बार राज्य में खिला। लेकिन सत्ता के मद में चूर खुद को किंगमेकर समझने का मुगालता पाले रेड्डी बन्धुओं की नज़र मुख्यमंत्री पद पर शुरु से रही। हालांकि येदियुरप्पा ने इन्हें महत्वपूर्ण विभाग सौंपे हैं, लेकिन लालच कभी खत्म हुआ है क्या? सो अब इन्होंने अपने पैसों के बल पर 67 विधायकों को खरीदकर भाजपा नेतृत्व को आँखे दिखाना शुरु कर दिया है। यह बात भी सही है कि जद-यू, कुमारस्वामी और देवगौड़ा जैसों से पार पाने के लिये रेड्डी बन्धुओं की आर्थिक ताकत ही काम आई थी और इन्हीं के पैसों से 17 विधायक खरीदे गये थे, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर दावा, साफ़ छवि और राज्य के सबसे शक्तिशाली लिंगायत समुदाय का होने की वजह से येदियुरप्पा का ही बनता था। यह कांटा इन भाईयों के दिल में हमेशा चुभा रहा, भले ही इन्होंने बीते एक साल में महत्वपूर्ण मंत्रालयों से भरपूर मलाई काटी है। कहने का मतलब ये कि येदियुरप्पा द्वारा सारी सुविधायें, अच्छे मंत्रालय और माल कमाने का अवसर दिये जाने के बावजूद ये सरकार गिराने पर तुले हुए हैं, इन्हें जगदीश शेट्टर को मुख्यमंत्री बनवाना है ताकि वह उनकी मुठ्ठी में रहे।
बताया जाता है कि रेड्डी बन्धुओं की नाराज़गी के बढ़ने की वजह येदियुरप्पा का वह निर्णय भी रहा जिसमें लौह अयस्क से भरे प्रत्येक ट्रक पर 1000 रुपये की टोल टैक्स लगाने की योजना को उनके विरोध के बावजूद कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। यह निर्णय हाल की बाढ़ से निपटने और राहत कार्यों के लिये धन एकत्रित करने के लिये किया गया था, जबकि रेड्डी बन्धु अपनी खदानों के लिये और अधिक कर छूट और रियायतें चाहते थे। साथ ही येदियुरप्पा ने बेल्लारी के कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक का तबादला इन बन्धुओं से पूछे बगैर कर दिया, जिस कारण इलाके में इनकी "साख" को धक्का पहुँचा। येदियुरप्पा ने बाढ़ पीड़ितों की सहायतार्थ धन एकत्रित करने के लिये पदयात्रा का ऐलान किया तो ये बन्धु उसमें भी टाँग अड़ाने पहुँच गये और घोषणा कर दी कि वे अपने खर्चे पर गरीबों को 500 करोड़ के मकान बनवाकर देंगे। सुषमा स्वराज को इनके पक्ष में खड़ा होना ही पड़ेगा क्योंकि वे इनके "अहसानों" तले दबी हैं, उधर अनंतकुमार भी अपनी गोटियाँ फ़िट करने की जुगाड़ में लग गये हैं।
ये दोनों रेड्डी बन्धु आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वायएस राजशेखर रेड्डी के गहरे मित्र हैं, इसलिये नहीं कि दोनों रेड्डी हैं, बल्कि इसलिये कि दोनों ही खदान माफ़िया हैं। राजशेखर रेड्डी ने इन दोनों भाईयों को 17,000 एकड़ की ज़मीन लगभग मुफ़्त में दी है ताकि वे इस पर इस्पात का कारखाना लगा सकें जिसमें उनका बेटा जगनमोहन भी भागीदार है।
पहली बार दक्षिण में भाजपा का कमल खिला है, इसलिये लाखों कार्यकर्ताओं ने भारी मेहनत की है, लेकिन लगता है कि पद, पैसे और प्रतिष्ठा की खातिर अनाप-शनाप धन रखने वाले कुछ "विभीषण" हिन्दुत्व को चोट पहुँचा कर ही रहेंगे। पहले ही राज ठाकरे नामक जयचन्द ने महाराष्ट्र में हिन्दुत्व को अच्छा-खासा नुकसान पहुँचाया है और छठ-पूजा जैसे विशुद्ध भारतीय और हिन्दू त्योहार का विरोध किया, अब कर्नाटक में ये तीनों भाई बनी-बनाई सरकार के नीचे से कुर्सी हिलाने की फ़िराक में हैं। हिन्दुओं की यही शोकांतिका रही है कि इसमें जयचन्दों की भरमार रही है, जो कभी शंकरसिंह वाघेला का रूप लेकर आते हैं, कभी राज ठाकरे का, कभी रेड्डी बन्धुओं का और कभी "सेकुलरों" का।
फ़िलहाल दिल्ली में रस्साकशी चल रही है, अधिकतर कार्यकर्ता येदियुरप्पा को बनाये रखने के पक्ष में हैं, क्योंकि उनकी छवि साफ़ है, काम करने की ललक है, और ज़मीनी राजनीति की पकड़ है, लेकिन भाजपा में कार्यकर्ताओं की सुनने की परम्परा धीरे-धीरे खत्म हो रही है, इसलिये कुछ कहा नहीं जा सकता कि "दक्षिण का यह मोदी" कब और किसके हाथों पीठ में छुरा खा जाये…
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रेड्डी बन्धुओं की तरक्की का ग्राफ़ भी बेहद आश्चर्यचकित करने वाला है। 1999 तक उनकी कोई बड़ी औकात नहीं थी, तीनों भाई बेल्लारी में स्थानीय स्तर की राजनीति करते थे। उनकी किस्मत में पलटा खाया और सोनिया गाँधी ने इस सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया, सोनिया के विरोध में भाजपा ने सुषमा स्वराज को खड़ा किया और तभी से ये तीनो भाई सुषमा स्वराज के अनुकम्पा प्राप्त खासुलखास हो गये। उस लोकसभा चुनाव में इन्होंने सुषमा की तन-मन-धन सभी तरह से सेवा की, हालांकि सुषमा चुनाव हार गईं, लेकिन कांग्रेस की परम्परागत बेल्लारी सीट पर उन्होंने सोनिया को पसीना ला दिया था। रेड्डी बन्धुओं की पहुँच भाजपा के दिल्ली दरबार में हो गई, इन्होंने बेल्लारी में लौह अयस्क की खदान खरीदना और लीज़ पर लेना शुरु किया, एक बार फ़िर किस्मत ने इनका साथ दिया और चीन में ओलम्पिक की वजह से इस्पात और लौह अयस्क की माँग चीन में बढ़ गई और सन 2002-03 में लौह अयस्क के भाव 100 रुपये से 2000 रुपये पहुँच गये, रेड्डी बन्धुओं ने जमकर पैसा कूटा, तमाम वैध-अवैध उत्खनन करवाये और बेल्लारी में अपनी राजनैतिक पैठ बना ली। चूंकि सोनिया ने यह सीट छोड़कर अमेठी की सीट रख ली तो स्थानीय मतदाता नाराज़ हो गया, साथ ही इन्होंने सुषमा स्वराज को लगातार क्षेत्र में विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाये रखा, पूजाएं करवाईं और उदघाटन करवाये, जनता को यह पसन्द आया। 2004 के लोकसभा चुनाव में सुषमा को तो इधर से लड़ना ही नहीं था, इसलिये स्वाभाविक रूप से बड़े रेड्डी को यहाँ से टिकट मिला और 1952 के बाद पहली बार कांग्रेस यहाँ से हारी। आंध्रप्रदेश की सीमा से लगे बेल्लारी में इन बन्धुओं ने जमकर लूटना शुरु किया। 2002 में ही बेल्लारी नगरनिगम के चुनाव में भी कांग्रेस हारी और इनके चचेरे भाई वहाँ से मेयर बने… उसी समय लग गया था कि कर्नाटक में कांग्रेस का पराभव निश्चित हो गया है।
उधर राज्य के शक्तिशाली लिंगायत समुदाय के नेता येद्दियुरप्पा अपनी साफ़ छवि, कठोर निर्णय क्षमता और संघ के समर्थन के सहारे अपनी राजनैतिक ज़मीन पकड़ते जा रहे थे, अन्ततः कांग्रेस को हराकर भाजपा का कमल पहली बार राज्य में खिला। लेकिन सत्ता के मद में चूर खुद को किंगमेकर समझने का मुगालता पाले रेड्डी बन्धुओं की नज़र मुख्यमंत्री पद पर शुरु से रही। हालांकि येदियुरप्पा ने इन्हें महत्वपूर्ण विभाग सौंपे हैं, लेकिन लालच कभी खत्म हुआ है क्या? सो अब इन्होंने अपने पैसों के बल पर 67 विधायकों को खरीदकर भाजपा नेतृत्व को आँखे दिखाना शुरु कर दिया है। यह बात भी सही है कि जद-यू, कुमारस्वामी और देवगौड़ा जैसों से पार पाने के लिये रेड्डी बन्धुओं की आर्थिक ताकत ही काम आई थी और इन्हीं के पैसों से 17 विधायक खरीदे गये थे, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर दावा, साफ़ छवि और राज्य के सबसे शक्तिशाली लिंगायत समुदाय का होने की वजह से येदियुरप्पा का ही बनता था। यह कांटा इन भाईयों के दिल में हमेशा चुभा रहा, भले ही इन्होंने बीते एक साल में महत्वपूर्ण मंत्रालयों से भरपूर मलाई काटी है। कहने का मतलब ये कि येदियुरप्पा द्वारा सारी सुविधायें, अच्छे मंत्रालय और माल कमाने का अवसर दिये जाने के बावजूद ये सरकार गिराने पर तुले हुए हैं, इन्हें जगदीश शेट्टर को मुख्यमंत्री बनवाना है ताकि वह उनकी मुठ्ठी में रहे।
बताया जाता है कि रेड्डी बन्धुओं की नाराज़गी के बढ़ने की वजह येदियुरप्पा का वह निर्णय भी रहा जिसमें लौह अयस्क से भरे प्रत्येक ट्रक पर 1000 रुपये की टोल टैक्स लगाने की योजना को उनके विरोध के बावजूद कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। यह निर्णय हाल की बाढ़ से निपटने और राहत कार्यों के लिये धन एकत्रित करने के लिये किया गया था, जबकि रेड्डी बन्धु अपनी खदानों के लिये और अधिक कर छूट और रियायतें चाहते थे। साथ ही येदियुरप्पा ने बेल्लारी के कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक का तबादला इन बन्धुओं से पूछे बगैर कर दिया, जिस कारण इलाके में इनकी "साख" को धक्का पहुँचा। येदियुरप्पा ने बाढ़ पीड़ितों की सहायतार्थ धन एकत्रित करने के लिये पदयात्रा का ऐलान किया तो ये बन्धु उसमें भी टाँग अड़ाने पहुँच गये और घोषणा कर दी कि वे अपने खर्चे पर गरीबों को 500 करोड़ के मकान बनवाकर देंगे। सुषमा स्वराज को इनके पक्ष में खड़ा होना ही पड़ेगा क्योंकि वे इनके "अहसानों" तले दबी हैं, उधर अनंतकुमार भी अपनी गोटियाँ फ़िट करने की जुगाड़ में लग गये हैं।
ये दोनों रेड्डी बन्धु आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वायएस राजशेखर रेड्डी के गहरे मित्र हैं, इसलिये नहीं कि दोनों रेड्डी हैं, बल्कि इसलिये कि दोनों ही खदान माफ़िया हैं। राजशेखर रेड्डी ने इन दोनों भाईयों को 17,000 एकड़ की ज़मीन लगभग मुफ़्त में दी है ताकि वे इस पर इस्पात का कारखाना लगा सकें जिसमें उनका बेटा जगनमोहन भी भागीदार है।
पहली बार दक्षिण में भाजपा का कमल खिला है, इसलिये लाखों कार्यकर्ताओं ने भारी मेहनत की है, लेकिन लगता है कि पद, पैसे और प्रतिष्ठा की खातिर अनाप-शनाप धन रखने वाले कुछ "विभीषण" हिन्दुत्व को चोट पहुँचा कर ही रहेंगे। पहले ही राज ठाकरे नामक जयचन्द ने महाराष्ट्र में हिन्दुत्व को अच्छा-खासा नुकसान पहुँचाया है और छठ-पूजा जैसे विशुद्ध भारतीय और हिन्दू त्योहार का विरोध किया, अब कर्नाटक में ये तीनों भाई बनी-बनाई सरकार के नीचे से कुर्सी हिलाने की फ़िराक में हैं। हिन्दुओं की यही शोकांतिका रही है कि इसमें जयचन्दों की भरमार रही है, जो कभी शंकरसिंह वाघेला का रूप लेकर आते हैं, कभी राज ठाकरे का, कभी रेड्डी बन्धुओं का और कभी "सेकुलरों" का।
फ़िलहाल दिल्ली में रस्साकशी चल रही है, अधिकतर कार्यकर्ता येदियुरप्पा को बनाये रखने के पक्ष में हैं, क्योंकि उनकी छवि साफ़ है, काम करने की ललक है, और ज़मीनी राजनीति की पकड़ है, लेकिन भाजपा में कार्यकर्ताओं की सुनने की परम्परा धीरे-धीरे खत्म हो रही है, इसलिये कुछ कहा नहीं जा सकता कि "दक्षिण का यह मोदी" कब और किसके हाथों पीठ में छुरा खा जाये…
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