झाबुआ का "कड़कनाथ" मुर्गा

Written by गुरुवार, 02 अगस्त 2007 16:26

"कड़कनाथ मुर्गा"...नाम भले ही अजीब सा हो, लेकिन मध्यप्रदेश के झाबुआ और धार जिले में पाई जाने वाली मुर्गे की यह प्रजाति यहाँ के आदिवासियों और जनजातियों में बहुत लोकप्रिय है । इसका नाम "कड़कनाथ" कैसे पडा़, यह तो शोध का विषय है, लेकिन यह मुर्गा ऊँचा पूरा, काले रंग, काले पंखों और काली टांगों वाला होता है । झाबुआ जिला कोई पर्यटन के लिये विख्यात नहीं है, लेकिन जो भी बाहरी लोग और सरकारी अफ़सर यहाँ आते हैं, उनके लिये "कड़कनाथ" एक आकर्षण जरूर होता है ।

इसे झाबुआ का "गर्व" और "काला सोना" भी कहा जाता है । जनजातीय लोगों में इस मुर्गे को ज्यादातर "बलि" के लिये पाला जाता है, दीपावली के बाद, त्योहार आदि पर देवी को बलि चढाने के लिये इसका उपयोग किया जाता है । इसकी खासियत यह है कि इसका खून और माँस काले रंग का होता है । लेकिन यह मुर्गा दरअसल अपने स्वाद और औषधीय गुणों के लिये अधिक मशहूर है । खतरे की बात यह है कि इस प्रजाति के मुर्गों की संख्या सन २००१ में अस्सी हजार थी जो अब घटकर सन २००५ में मात्र बीस हजार रह गई है । सरकार भी यह मानती है कि यह प्रजाति खतरे में है और इसे विलुप्त होने से बचाने के उपाय तत्काल किया जाना जरूरी है, ताकि इस बेजोड़ मुर्गे को बचाया जा सके । कड़कनाथ भारत का एकमात्र काले माँस वाला चिकन है ।

झाबुआ में इसका प्रचलित नाम है "कालामासी" । आदिवासियों, भील, भिलालों में इसके लोकप्रिय होने का मुख्य कारण है इसका स्थानीय परिस्थितियों से घुल-मिल जाना, उसकी "मीट" क्वालिटी और वजन । शोध के अनुसार इसके मीट में सफ़ेद चिकन के मुकाबले "कोलेस्ट्रॊल" का स्तर कम होता है, "अमीनो एसिड" का स्तर ज्यादा होता है । यह कामोत्तेजक होता है और औषधि के रूप में "नर्वस डिसऑर्डर" को ठीक करने में काम आता है । कड़कनाथ के रक्त में कई बीमारियों को ठीक करने के गुण पाये गये हैं, लेकिन आमतौर पर यह पुरुष हारमोन को बढावा देने वाला और उत्तेजक माना जाता है । इस प्रजाति के घटने का एक कारण यह भी है कि आदिवासी लोग इसे व्यावसायिक तौर पर नहीं पालते, बल्कि अपने स्वतः के उपयोग हेतु पाँच से तीस की संख्या के बीच घर के पिछवाडे़ में पाल लेते हैं । सरकारी तौर पर इसके पोल्ट्री फ़ॉर्म तैयार करने के लिये कोई विशेष सुविधा नहीं दी जा रही है, इसलिये इनके संरक्षण की समस्या आ रही है ।

जरा इसके गुणों पर नजर डालें...प्रोटीन और लौह तत्व की मात्रा - 25.7%, मुर्गे का बीस हफ़्ते की उम्र में वजन - 920 ग्राम, मुर्गे की "सेक्सुअल मेच्युरिटी" - 180 दिन की उम्र में मुर्गी का वार्षिक अंडा उत्पादन - 105 से 110 (मतलब हर तीन दिन में एक अंडा) । इतनी गुणवान नस्ल तेजी से कम होती जा रही है, इसके लिये आदिवासियों और जनजातीय लोगों में जागृति लाने के साथ-साथ सरकार को भी इनके पालन पर ऋण ब्याज दर में छूट आदि योजनायें चलाना चाहिये.. तभी यह उम्दा मुर्गा बच सकेगा ।

नोट : आज से लगभग अठारह वर्ष पूर्व जब कुछ मित्रों के साथ हम लोग अपनी-अपनी स्कूटरों से इन्दौर से मांडव गये थे, तब रास्ते में तेज बारिश के बीच एक ढाबे पर इस मुर्गे का स्वाद लिया था, वह बारिश का सुहावना मौसम और कड़कनाथ आज तक याद है । फ़िर वह मौका दोबारा कभी नहीं आया ।

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