बहरहाल, हम आते हैं मूल मुद्दे पर अर्थात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय उर्फ JNU छाप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सहिष्णुता और लोकतांत्रिक अधिकारों के पाखण्ड पर. इन तमाम फैशनेबल मुद्दों पर सीधे “ग्राउंड रिपोर्ट” लेते हैं. आप पूछेंगे कि JNU ही क्यों?? इसका जवाब है कि ऊपर के पैराग्राफ में जिन महानुभावों का ज़िक्र किया गया है, उनमें से अधिकाँश अपनी “वैचारिक खुराक” यहीं से पाते हैं. अर्थात JNU ही वह नर्सरी है, जहाँ से सेकुलर-वामपंथी विषवृक्ष तैयार होते हैं और ये “साहित्यिक विषवृक्ष” भारत के तमाम हिंदुओं को अपने गढे हुए पाठ्यक्रमों और पुस्तकों द्वारा यह बताते हैं कि “तुम कुछ भी नहीं हो... तुम्हारी संस्कृति कुछ नहीं है... तुम्हारी परम्पराएं बेकार है... तुम्हारे ग्रन्थ बकवास हैं....” आदि-आदि. यही “वामपंथी अकादमिक विषवृक्ष” पिछले साठ साल से भारत की जनता को सहिष्णुता, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी महान बातें बताते-पढ़ाते आए हैं, परन्तु यह तमाम उपदेश सिर्फ दूसरों के लिए ही होते हैं यह उन पर लागू नहीं होते. तो क्यों ना एक निगाह सहिष्णुता, अभिव्यक्ति स्वतंत्रता वगैरा का ज्ञान पेलने वाली नर्सरी(??) उर्फ JNU पर डाल ली जाए, इन उपदेशकों का थोड़ा पिछला हिसाब-किताब भी देख लिया जाए...
असल में जब कोई वामपंथी यह कहता है कि वह “वाद-संवाद संस्कृति” में यकीन रखता है, तो उसका मतलब यह होता है कि वह अकेला और एकपक्षीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करेगा, अर्थात वामपंथ में “अभिव्यक्ति स्वतंत्रता” और “सहिष्णुता” सिर्फ वन-वे-ट्रैफिक के रूप में होती है. इसके उदाहरण स्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का उदाहरण सर्वश्रेष्ठ होगा, क्योंकि काँग्रेस की छत्रछाया और “वित्तपोषण” के बल पर ही JNU में यह विषवृक्ष पला-बढ़ा और पल्लवित हुआ है. नवंबर 2005 में (यानी आज से दस साल पहले) मनमोहन सिंह JNU के एक कार्यक्रम में व्याख्यान देने आए थे. उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों ने डॉक्टर सिंह के भाषण में लगातार व्यवधान उत्पन्न किए, नारेबाजी की, पर्चे फेंके गए. मनमोहन सिंह को नव-उदारवाद का चेहरा बताते हुए पोस्टर छपवाए गए कि JNU के छात्र उनका भाषण सुनने न जाएँ. “सहिष्णुता” की टेर लगाने वालों ने इतना हंगामा मचाया कि अंततः पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को उस स्थान से खदेड़ दिया, तभी वह भाषण पूरा हुआ. ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता...
अगस्त 2008 में विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ विभाग ने अमेरिका के अतिरिक्त सचिव रिचर्ड बाउचर को भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के सम्बन्ध में चर्चा सत्र एवं विमर्श हेतु आमंत्रित किया था. लेकिन “आम आदमी पार्टी” के संस्थापकों में से एक, वामपंथी प्रोफ़ेसर कमल मित्र चिनॉय ने अपनी “सहिष्णुता” दिखाते हुए छात्रों से आव्हान किया कि वे यह कार्यक्रम न होने दें... “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का लाल झण्डा उठाए लंगूरों को मौका ही चाहिए था, उन्होंने “अमेरिका हाय-हाय”, “परमाणु समझौता रद्द करो” जैसे नारे लगाते हुए बाउचर के उस कार्यक्रम हो नहीं होने दिया, ना तो रिचर्ड बाउचर को बोलने दिया गया और ना ही छात्रों को सुनने दिया गया... ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता...
2014 से पहले तक JNU के कैम्पस में इज़राईल के किसी व्यक्ति अथवा राजदूत तक का घुसना भी प्रतिबंधित हुआ करता था... अक्सर वामपंथी “सहिष्णु”(??) विश्वविद्यालय प्रशासन को हिंसा होने की संभावना की धमकी देकर इजरायल के राजदूत को JNU में घुसने तक नहीं देते थे. परन्तु अप्रैल 2014 में JNU के विदेश शिक्षा विभाग ने “पश्चिम एशिया” विषय पर छात्रों का मार्गदर्शन एवं चर्चा करने हेतु इज़राईल के राजदूत को आमंत्रित कर लिया और “वैचारिक स्वतंत्रता” के उपदेशकों को उनके आगमन की पूर्व सूचना नहीं मिल पाई, इसलिए कार्यक्रम हो गया. परन्तु “लेखकों की आवाज़ दबाई जा रही है” छाप अरण्य-रुदन करने वाले वामपंथी नेताओं ने राजदूत के जाने के बाद सम्बन्धित विभाग के प्रोफ़ेसर के साथ गालीगलौज की और उनके इस कृत्य को “अनैतिक और अलोकतांत्रिक” भी घोषित कर दिया... साथ ही यह धमकी भी दे डाली कि यदि भविष्य में इज़राईल के राजदूत को विश्वविद्यालय में आमंत्रित किया तो गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे... ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता... (अब वैसे भी यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वामपंथ का फिलीस्तीन प्रेम और कश्मीरी पंडितों से नफरत का कारण क्या है).
2001 में JNU प्रशासन ने विश्वविद्यालय में एक संस्कृत केन्द्र खोलने का निर्णय किया. लेकिन “लाल गुण्डों और उनके झाड़ू छाप भगुओं” ने इस निर्णय का कड़ा विरोध किया. शुरुआती दिनों में इन “सहिष्णु वामपंथियों” ने रात को संस्कृत केन्द्र की निर्माणाधीन दीवार को भी गिरा दिया था. संस्कृत विभाग खोलने का विरोध करने का कोई वैध कारण तो “लाल लंगूरों” के पास था ही नहीं, इसलिए पर्चे छपवाकर यह खिल्ली उड़ाई गई कि क्या JNU से संस्कृत पढ़कर या यहाँ पर संस्कृत पढ़ाकर हमें पण्डे-पुजारियों की नियुक्ति करनी है?? हालाँकि इस बात का इन वामपंथी उत्पातियों के पास कोई जवाब नहीं था कि यदि उनका विरोध संस्कृत से है, तो फिर JNU में अरबी और फ़ारसी भाषा के विभाग क्यों चल रहे हैं? ऐसी होती है पाखण्डी वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ढकोसलेबाज सहिष्णुता...
2014 के आम चुनावों से पहले सभी वामपंथी पार्टियों ने निश्चय किया कि वे वाराणसी में अरविन्द केजरीवाल का प्रचार करने जाएँगे. ठीक है, यह कोई बड़ी बात नहीं है, सभी के अपने-अपने राजनैतिक विचार होते हैं. समस्या यह हुई कि इन पार्टियों ने JNU स्टूडेंट्स युनियन का “नाम और बैनर” उपयोग करने का भी निश्चय किया. जब इस बात का पता छात्रों को चला तो कम से कम दस छात्र प्रतिनिधियों ने लिखित में इस पर अपना विरोध जताया, परन्तु स्टूडेंट्स यूनियन की आम बैठक में ना तो इस पर कोई चर्चा हुई, और ना ही इस प्रस्ताव का विरोध करने वाले छात्र प्रतिनिधियों को वहाँ बोलने दिया गया. ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता...
गत वर्ष सितम्बर में JNUSU के नवनिर्वाचित प्रतिनिधिमंडल की पहली आम बैठक हुई थी, उसमें सीरिया में कार्यरत इस्लामिक स्टेट और अफ्रीकी इस्लामिक संगठन बोको हरम की निंदा करने का प्रस्ताव लाया जाना था. बारह प्रतिनिधियों ने यह लिखित प्रस्ताव पेश भी कर दिया था. परन्तु वामपंथी छात्र गिरोहों ने आपस में गोलबंदी करके वोटिंग से अनुपस्थित रहने का फैसला कर लिया ताकि प्रस्ताव पास ही न हो सके. फिलीस्तीन का समर्थन और ISIS के विरोध प्रस्ताव का विरोध करने वाले “सेकुलर गैंग” के क्रियाकलापों द्वारा हमें पता चलता है कि, ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता...
यह तो मात्र कुछ ही उदाहरण हैं, जिसमें यह पता चलता है कि पश्चिम बंगाल और केरल में किस तरह विपक्षी आवाजों को दबाने के लिए हिंसा-हत्या और धमकी का उपयोग किया जाता है. परन्तु जिन लोगों का घोषवाक्य ही यह हो कि “सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है”, उन के मुँह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता वगैरह की बातें सुनना बड़ा अजीब सा लगता है. इसीलिए अपने आरम्भ से अब तक लगातार JNU में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू परम्पराओं एवं हिन्दू देवी-देवताओं के खिलाफ जमकर ज़हर उगला जाता रहा है. हिन्दू छात्रों (विशेषकर SC-ST-OBC) को सदैव धमकाया और प्रताड़ित किया जाता है. इन्हें बताया जाता है कि तुम हिन्दू धर्म के नहीं हो, ताकि वे विभिन्न होस्टलों में जारी पूजा समारोहों में शामिल होने से पहले डरें. वामपंथी गिरोह हिन्दू संस्कृति की मान्यताओं की खूब खिल्ली उड़ाते हैं, और प्रशासन पर उनके दबाव के कारण दूरदराज इलाकों से आए गरीब छात्र माथे पर तिलक और कलाई में पवित्र कलावा बाँधने से भी घबराते हैं, कि पता नहीं कब, कौन सा पागल आकर उनका सार्वजनिक अपमान कर दे. आज से कुछ वर्ष पहले तक तो स्थिति इतनी बुरी थी, कि बेचारे बंगाली छात्रों को “काली पूजा” मनाने, धार्मिक क्रियाएँ करने के लिए कैम्पस से बाहर CR पार्क के सार्वजनिक दुर्गापूजा पाण्डाल तक जाना पड़ता था. रात को वापस आते समय ये छात्र इस बात का खास ख़याल रखते थे कि पूजा अथवा धार्मिक क्रिया के कोई चिन्ह-निशान उनके माथे-कपड़े पर दिखाई ना दें.
1998-99 से ABVP ने JNU में मजबूती से कदम रखना शुरू किया, और यह वही वर्ष था जब कैम्पस के पेरियार होस्टल के एक कमरे में पहली बार हंगामे, आलोचना और हिंसा के बीच दुर्गापूजा मनाई गई. वामपंथी स्टाईल की धार्मिक स्वतंत्रता 2001 में तब देखी गई थी, जब पहली बार JNU में सार्वजनिक स्थान पर दुर्गापूजा का आयोजन हुआ था... उस समय तत्कालीन डीन एमएच कुरैशी ने वामपंथियों और उनके “स्वाभाविक मित्रों” अर्थात इस्लामी गुण्डों से आव्हान किया कि दुर्गापूजा के हवन कुण्ड को तोड़ दें तथा देवी की मूर्ति को JNU से बाहर फेंक दे. हालाँकि यह प्रयास सफल नहीं हुआ, क्योंकि शायद उन्हें JNU में हिंदुओं की बढ़ती संख्या और ताकत का भान नहीं था. कुरैशी के इस आव्हान को सुनकर पांडाल में हिन्दू छात्र एकत्रित होने लगे. हिन्दू छात्रों में माँ दुर्गा के इस अपमान और अपनी धार्मिक आस्थाओं पर चोट को लेकर जबरदस्त क्रोध था. माहौल बिगड़ता देखकर, वामपंथी और उनके इस्लामी दोस्त वहाँ से चुपचाप निकल गए. छात्रों के क्रोध का गुबार डीन कुरैशी ने भी भाँप लिया और वह वहाँ से भागकर पास में ही स्थित कावेरी होस्टल के एक “हिन्दू” वार्डन के यहाँ जा छिपे.
हिन्दू संस्कृति, हिन्दू देवी-देवताओं एवं हिन्दू परम्पराओं के प्रति वामपंथ और इस्लाम की मिलीजुली घृणा, असहिष्णुता का यह नंगा प्रदर्शन JNU में गाहे-बगाहे होता ही रहता है. इस गिरोह द्वारा दूरदराज से आए गरीब और भोले SC/ST/OBC छात्रों को जानबूझकर मानसिक रूप से सताया जाता है. उन्हें बारम्बार यह बताया जाता है कि तुम हिन्दू नहीं हो, हिन्दू संस्कृति नाम की कोई बात होती ही नहीं है, देवी-देवताओं को पूजना एक बकवास और मूर्खतापूर्ण कार्य है आदि-आदि. जो तथाकथित बुद्धिजीवी आज मोदी सरकार के खिलाफ अपने पुरस्कार-सम्मान लौटा रहे हैं, उनकी वैचारिक नर्सरी JNU ही है. यहीं से उन्हें इस प्रकार के हिन्दू विरोधी विचार “पोलियो ड्रॉप” की तरह पिलाए जाते हैं. इसीलिए जब हिंदुओं की देवी माँ दुर्गा को JNU में सरेआम “रंडी” कहा जाता है, और महिषासुर का पूजन किया जाता है, तब इन बुद्धिजीवियों की ज़बान पर ताला लग जाता है, और यदि इस धार्मिक दुष्कृत्य के खिलाफ हिन्दू छात्र आवाज़ उठाएँ तो तत्काल उन्हें “भगवा गुण्डे” अथवा “असहिष्णु” कहकर उन पर संघी होने का लेबल चिपका दिया जाता है. वामपंथ की “असहिष्णुता” और कथित “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का आलम यह है कि JNU में ऐसा एक भी हिन्दू त्यौहार अथवा कोई भी हिन्दू धार्मिक गतिविधि तब तक संचालित नहीं होती, जब तक वामपंथियों-सेकुलरों और इस्लामिक तत्त्वों द्वारा हिंदुओं के प्रति घृणा फैलाने वाले, हिन्दू मान्यताओं/परम्पराओं की भद्दी और अश्लील खिल्ली उड़ाने वाले पोस्टर न लगाए जाएँ.
JNU स्टाईल का वामपंथ, वैचारिक रूप से कितना खोखला तथा सहिष्णुता, संवाद एवं स्वतंत्रता के प्रति इनका दृष्टिकोण कितना पाखण्ड भरा एवं हिंसक है इसके दो संक्षिप्त उदाहरण और भी हैं. इस वर्ष स्कूल ऑफ लैंग्वेज में ABVP के टिकट पर एक “शिया” छात्र चुनाव लड़ रहा था. उसे वामपंथियों एवं वहाबी छात्रों ने लगातार परेशान किया, भ्रमित करने की कोशिश की क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान उसने यह बयान दिया था कि जब कुरआन भी इस्लाम के प्रचार-प्रसार की इजाज़त देता है तो हिन्दू संगठनों के “घर-वापसी” कार्यक्रम में कुछ भी गलत नहीं है. परन्तु यह बात “सहिष्णुता के पैरोकार” वामपंथ को रास नहीं आई और कुछ दिनों बाद हुई अध्यक्षीय पद हेतु वाद-विवाद प्रतियोगिता में उस शिया छात्र की “इस्लाम-विरोधी” कहकर संयुक्त रूप से आलोचना की गई. इसी प्रकार 2014 में एक मुस्लिम लड़की छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद हेतु खड़ी हुई थी, AISA नामक संगठन ने मुस्लिम छात्रों के बीच, उस मुस्लिम लड़की और उसके हिन्दू मित्रों के चित्रों को वितरित किया, उसकी बदनामी करने की कोशिश की तथा यह प्रचारित किया कि अब वह लड़की मुस्लिम नहीं रही. ऐसी होती है वामपंथी “सहिष्णुता”, “महिला सम्मान” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता”...
हाल ही में JNU के एक होस्टल (जिसमें मुस्लिम छात्रों की बहुलता है) में नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने यह नोटिस चस्पा कर दिया कि आगामी दीपावली उत्सव पर आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों की वजह से प्रतिबन्ध रहेगा. यदि छात्र दीवाली मनाना चाहते हों तो उन्हें उच्चाधिकारियों से अनुमति लेनी होगी. जब हिन्दू छात्रों ने इस “तुगलकी फरमान” का कड़ा विरोध किया और यह धमकी दी कि यदि हमें दीवाली नहीं मनाने दी गई तो भविष्य में इस होस्टल में ईद और रमजान भी नहीं मनाने देंगे, तब जाकर नोटिस वापस लिया गया. लेकिन वामपंथ की “काली परंपरा” के अनुसार हिन्दू छात्रों के इस कृत्य को “असहिष्णुता” और “साम्प्रदायिकता” कहकर खूब रुदालीगान किया गया. 2001-02 से पहले की स्थिति अलग थी, लेकिन अब JNU में वामपंथियों द्वारा जब भी ऐसी कोई घटिया हरकत की जाती है तो स्वाभाविक रूप से हिन्दू छात्रों द्वारा विरोध किया जाता है तब वामपंथ द्वारा इसे “असहिष्णुता”, “फासीवाद”, “संघी गुण्डागर्दी” आदि कहा जाता है.
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि वामपंथी परिभाषा के अनुसार “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” सिर्फ उसी को है, जो वामपंथी-सेकुलर अथवा मुल्लावाद की बात करे, यदि हिंदुओं ने प्रतिकार किया तो उसे “असहिष्णुता” का नाम दिया जाएगा. इसी प्रकार वामपंथी परिभाषा के अनुसार “स्वस्थ संवाद” सिर्फ तभी हो सकता है, जब किसी सभागार अथवा सेमिनार में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू देवताओं एवं परम्पराओं को गाली देने वाले, कोसने वाले ही मौजूद हों... अरबी और फारसी भाषा की बात करना सेकुलरिज़्म है, लेकिन संस्कृत भाषा की पैरोकारी की तो JNU में साम्प्रदायिकता फैलती है... जब इस वर्ष इतिहास में पहली बार छात्रसंघ चुनावों में ABVP ने संयुक्त सचिव पद पर विजय प्राप्त की, तो “सहिष्णुता” और “अभिव्यक्ति” के नकली झंडाबरदार वामपंथियों की पहली प्रतिक्रिया थी, “हम तो उसे JNU स्टूडेंट्स युनियन का सदस्य भी नहीं मानते, वह किसी मीटिंग में शामिल होकर तो दिखाए, जो करना है कर लो”...
चूँकि लेख का विषय सिर्फ JNU है इसलिए “नकली वामपंथी सहिष्णुता” के तमाम चिथड़ों-पोतड़ों में मैं मंगलेश डबराल- राकेश सिन्हा प्रकरण तथा गोविन्दाचार्य-अरुंधती रॉय जैसे “वैचारिक छुआछूत” वाले प्रकरण को शामिल नहीं कर रहा हूँ, वर्ना वामपंथी “बौद्धिक पाखण्ड” और तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम नग्न किस्से, बंगाल से लेकर केरल तक बिखरे पड़े हैं... मैंने इस लेख में JNU में सम्पन्न किए जाने वाले "प्रगतिशील छिछोरेपन"... अर्थात "किस ऑफ लव", अथवा "समलैंगिकता के समर्थन" जैसी बातों को भी शामिल नहीं किया है... और मजे की बात यह कि फिर भी बड़ी बेशर्मी से ये लोग संघ-भाजपा और हिंदुओं को सहिष्णुता का ज्ञान बाँटते फिरते हैं... ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र और विमर्श...
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www.indiafacts.com पर JNU के शोधार्थी भाई अभिनव प्रकाश द्वारा दिए गए इनपुट्स पर आधारित...