JNU के प्रोफ़ेसर आरक्षण नहीं चाहते, वामपंथियों के पाखण्ड का एक और उदाहरण… … Reservation in JNU, JNU and Communists, Caste system and Communist
Written by Super User बुधवार, 10 फरवरी 2010 14:36
JNU की एकेडेमिक काउंसिल के 30 प्रोफ़ेसरों ने कुलपति बीबी भट्टाचार्य से लिखित में शिकायत की है कि विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और असोसियेट प्रोफ़ेसरों के लिये 149 पदों के लिये आरक्षण नहीं होना चाहिये। यह सुनकर उन लोगों को झटका लग सकता है, जो वामपंथियों को प्रगतिशील मानते हों, जबकि हकीकत कुछ और ही है। अपने बयान में प्रोफ़ेसर बिपिनचन्द्र कहते हैं, “असिस्टेंट प्रोफ़ेसर से ऊपर के पद के लिये आरक्षण लागू करने से इस विश्वविद्यालय की शिक्षा का स्तर गिरेगा… और यह संस्थान थर्ड-क्लास संस्थान बन जायेगा…” (अर्थात प्रोफ़ेसर साहब कहना चाहते हैं कि आरक्षण की वजह से स्तर गिरता है, और जिन संस्थानों में आरक्षण लागू है वह तीसरे दर्जे के संस्थान बन चुके हैं)… एक और प्रोफ़ेसर साहब वायके अलघ फ़रमाते हैं, “जेएनयू का स्टैण्डर्ड बनाये रखने के लिये आरक्षण सम्बन्धी कुछ मानक तय करने ही होंगे, ताकि यह यूनिवर्सिटी विश्वस्तरीय बनी रह सके…” (हा हा हा हा, कृपया हँसिये नहीं, राजनीतिक अखाड़ा बनी हुई, भाई-भतीजावाद से ग्रस्त और भारतीय इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने वाली नकली थीसिसों की यूनिवर्सिटी पता नहीं कब से विश्वस्तरीय हो गई…)। अब दो मिनट के लिये कल्पना कीजिये, कि यदि यही बयान भाजपा-संघ के किसी नेता ने दिया होता तो मीडिया को कैसा “बवासीर” हो जाता। (खबर यहाँ पढ़ें… http://www.outlookindia.com/article.aspx?263782 )
जब भाजपा के नये अध्यक्ष गडकरी ने कार्यभार संभाला और नई टीम बनाई तो अखबारों, मीडिया और चैनलों पर इस बात को लेकर लम्बी-चौड़ी बहसें चलाई गईं कि भाजपा ब्राह्मणवादी पार्टी है और इसमें बड़े-बड़े पदों पर उच्च वर्ग के नेताओं का कब्जा है तथा अजा-जजा वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। आईये जरा एक निगाह डाल लेते हैं वामपंथी नेतृत्व के खासमखास त्रिमूर्ति पर – प्रकाश करात (नायर क्षत्रिय), सीताराम येचुरी (ब्राह्मण), बुद्धदेब भट्टाचार्य (ब्राह्मण), अब बतायें कि क्या यह जातिवादी-ब्राह्मणवादी मानसिकता नहीं है? वामपंथियों के ढोंग और पाखण्ड का सबसे अच्छा उदाहरण केरल में देखा जा सकता है, जहाँ OBC (एझावा जाति) हमेशा से वामपंथियों का पक्का वोट बैंक और पार्टी की रीढ़ रही है, लेकिन जब-जब भी वहाँ पार्टी को बहुमत मिला है, तब-तब इन्हें पीछे धकेलकर किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई है। केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रमुख नेत्री केआर गौरी (जो सबसे अधिक समय विधानसभा सदस्या रहीं) मुख्यमंत्री पद के लिये कई बार उपयुक्त पाये जाने के बावजूद न सिर्फ़ पीछे कर दी गईं बल्कि उन्हें “पार्टी विरोधी गतिविधियों” के नाम पर पार्टी से भी निकाला गया। इसी प्रकार वर्तमान मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन भी पिछड़ा वर्ग से (50 साल के कम्युनिस्ट शासन के पहले पिछड़ा वर्ग मुख्यमंत्री) हैं, लेकिन जिस दिन से उन्होंने पद संभाला है उस दिन से ही किसी बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि पार्टी के सदस्यों ने ही उनकी लगातार आलोचना और नाक में दम किया गया है और उन्हें अपमानजनक तरीके से पोलित ब्यूरो से भी निकाला गया है, लेकिन फ़िर भी अकेली भाजपा ही ब्राह्मणवादी पार्टी है? मजे की बात तो यह है कि "धर्म को अफ़ीम" कहने वाले नास्तिक ढोंगियों (अर्थात वामपंथियों) की पोल इस मुद्दे पर भी कई बार खुल चुकी है, जब इनकी पार्टी के दिग्गज कोलकाता के पूजा पाण्डालों या अय्यप्पा स्वामी के मन्दिर में देखे गये हैं, फ़िर भी आलोचना भाजपा की ही करेंगे।
इसी प्रकार बंगाल के तथाकथित “भद्रलोक” कम्युनिस्टों को ही देख लीजिये, वहाँ कितने पिछड़ा वर्ग के मुख्यमंत्री हुए हैं? उच्च वर्ग हो या अजा-जजा वर्ग के बंगाली हों, बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा कम से कम 9 जिलों में लगातार उत्पीड़ित किये जा रहे हैं, लेकिन दूसरों को जातिवादी बताने वाले पाखण्डी वामपंथियों की कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। सन् 2008 में कम्युनिस्ट कैडर द्वारा पत्नी और बच्चों के सामने एक दलित युवक के गले में टायर डालकर उसे जला दिया गया था जिसकी कोई खबर किसी न्यूज़ चैनल या अखबार में प्रमुखता से नहीं दिखाई दी।
पिछले कुछ दिनों से मोहल्ला सहित 2-4 ब्लॉग्स पर वर्धा के हिन्दी विवि के प्रोफ़ेसर अनिल चमड़िया (जो कि बेहतरीन लिखते हैं, विचारधारा कुछ भी हो) को निकाले जाने को लेकर बुद्धिजीवियों(?) में घमासान मचा हुआ है… जिनमें से कुछ "नेतानुमा प्रोफ़ेसर" हैं, कुछ "पत्रकारनुमा नेता" हैं और कुछ “परजीवीनुमा बुद्धिजीवी” हैं… और हाँ कुछ वामपंथी है तो कुछ दलितों के कथित मसीहा भी… कुल मिलाकर ये कि उधर जमकर "भचर-भचर" हो रही है…(अच्छा हुआ कि मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं), लेकिन जेएनयू (JNU) के प्रोफ़ेसर अपने संस्थान में आरक्षण नहीं चाहते… इस महत्वपूर्ण बात पर कोई बहस नहीं, कोई मीडिया चर्चा नहीं, किसी चैनल पर कोई इंटरव्यू नहीं… ऐसे होते हैं दोमुंहे और “कब्जाऊ-हथियाऊ” किस्म के वामपंथी…। सच बात तो यह है कि बरसों से जुगाड़, चमचागिरी और सेकुलरिज़्म के तलवे चाट-चाटकर जो प्रोफ़ेसर जेएनयू में कब्जा जमाये बैठे हैं उन्हीं को आरक्षण नहीं चाहिये। यदि यह बात किसी हिन्दू संगठन या भाजपा ने कही होती तो अब तक इन्ही सेकुलरों का पाला हुआ मीडिया "दलित विमर्श" को लेकर पता नहीं कितने सेमिनार करवा चुका होता… लेकिन मामला JNU का है जो कि झूठों का गढ़ है तो अब क्या करें…।
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एक अनुरोध - जब तक मीडिया का हिन्दुत्व विरोधी रवैया जारी रहेगा, जब तक मीडिया में हिन्दू हित की खबरों को पर्याप्त स्थान नहीं मिलता, ऐसी खबरों, कटिंग्स, ब्लॉग्स, लेखों आदि को अपने मित्रों को अधिकतम संख्या में फ़ेसबुक, ऑरकुट, ट्विटर आदि पर “सर्कुलेट” करके नकली सेकुलरिज़्म और वामपंथियों का “पोलखोल जनजागरण” अभियान सतत चलायें…
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जब भाजपा के नये अध्यक्ष गडकरी ने कार्यभार संभाला और नई टीम बनाई तो अखबारों, मीडिया और चैनलों पर इस बात को लेकर लम्बी-चौड़ी बहसें चलाई गईं कि भाजपा ब्राह्मणवादी पार्टी है और इसमें बड़े-बड़े पदों पर उच्च वर्ग के नेताओं का कब्जा है तथा अजा-जजा वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। आईये जरा एक निगाह डाल लेते हैं वामपंथी नेतृत्व के खासमखास त्रिमूर्ति पर – प्रकाश करात (नायर क्षत्रिय), सीताराम येचुरी (ब्राह्मण), बुद्धदेब भट्टाचार्य (ब्राह्मण), अब बतायें कि क्या यह जातिवादी-ब्राह्मणवादी मानसिकता नहीं है? वामपंथियों के ढोंग और पाखण्ड का सबसे अच्छा उदाहरण केरल में देखा जा सकता है, जहाँ OBC (एझावा जाति) हमेशा से वामपंथियों का पक्का वोट बैंक और पार्टी की रीढ़ रही है, लेकिन जब-जब भी वहाँ पार्टी को बहुमत मिला है, तब-तब इन्हें पीछे धकेलकर किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई है। केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रमुख नेत्री केआर गौरी (जो सबसे अधिक समय विधानसभा सदस्या रहीं) मुख्यमंत्री पद के लिये कई बार उपयुक्त पाये जाने के बावजूद न सिर्फ़ पीछे कर दी गईं बल्कि उन्हें “पार्टी विरोधी गतिविधियों” के नाम पर पार्टी से भी निकाला गया। इसी प्रकार वर्तमान मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन भी पिछड़ा वर्ग से (50 साल के कम्युनिस्ट शासन के पहले पिछड़ा वर्ग मुख्यमंत्री) हैं, लेकिन जिस दिन से उन्होंने पद संभाला है उस दिन से ही किसी बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि पार्टी के सदस्यों ने ही उनकी लगातार आलोचना और नाक में दम किया गया है और उन्हें अपमानजनक तरीके से पोलित ब्यूरो से भी निकाला गया है, लेकिन फ़िर भी अकेली भाजपा ही ब्राह्मणवादी पार्टी है? मजे की बात तो यह है कि "धर्म को अफ़ीम" कहने वाले नास्तिक ढोंगियों (अर्थात वामपंथियों) की पोल इस मुद्दे पर भी कई बार खुल चुकी है, जब इनकी पार्टी के दिग्गज कोलकाता के पूजा पाण्डालों या अय्यप्पा स्वामी के मन्दिर में देखे गये हैं, फ़िर भी आलोचना भाजपा की ही करेंगे।
इसी प्रकार बंगाल के तथाकथित “भद्रलोक” कम्युनिस्टों को ही देख लीजिये, वहाँ कितने पिछड़ा वर्ग के मुख्यमंत्री हुए हैं? उच्च वर्ग हो या अजा-जजा वर्ग के बंगाली हों, बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा कम से कम 9 जिलों में लगातार उत्पीड़ित किये जा रहे हैं, लेकिन दूसरों को जातिवादी बताने वाले पाखण्डी वामपंथियों की कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। सन् 2008 में कम्युनिस्ट कैडर द्वारा पत्नी और बच्चों के सामने एक दलित युवक के गले में टायर डालकर उसे जला दिया गया था जिसकी कोई खबर किसी न्यूज़ चैनल या अखबार में प्रमुखता से नहीं दिखाई दी।
पिछले कुछ दिनों से मोहल्ला सहित 2-4 ब्लॉग्स पर वर्धा के हिन्दी विवि के प्रोफ़ेसर अनिल चमड़िया (जो कि बेहतरीन लिखते हैं, विचारधारा कुछ भी हो) को निकाले जाने को लेकर बुद्धिजीवियों(?) में घमासान मचा हुआ है… जिनमें से कुछ "नेतानुमा प्रोफ़ेसर" हैं, कुछ "पत्रकारनुमा नेता" हैं और कुछ “परजीवीनुमा बुद्धिजीवी” हैं… और हाँ कुछ वामपंथी है तो कुछ दलितों के कथित मसीहा भी… कुल मिलाकर ये कि उधर जमकर "भचर-भचर" हो रही है…(अच्छा हुआ कि मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं), लेकिन जेएनयू (JNU) के प्रोफ़ेसर अपने संस्थान में आरक्षण नहीं चाहते… इस महत्वपूर्ण बात पर कोई बहस नहीं, कोई मीडिया चर्चा नहीं, किसी चैनल पर कोई इंटरव्यू नहीं… ऐसे होते हैं दोमुंहे और “कब्जाऊ-हथियाऊ” किस्म के वामपंथी…। सच बात तो यह है कि बरसों से जुगाड़, चमचागिरी और सेकुलरिज़्म के तलवे चाट-चाटकर जो प्रोफ़ेसर जेएनयू में कब्जा जमाये बैठे हैं उन्हीं को आरक्षण नहीं चाहिये। यदि यह बात किसी हिन्दू संगठन या भाजपा ने कही होती तो अब तक इन्ही सेकुलरों का पाला हुआ मीडिया "दलित विमर्श" को लेकर पता नहीं कितने सेमिनार करवा चुका होता… लेकिन मामला JNU का है जो कि झूठों का गढ़ है तो अब क्या करें…।
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