जबकि वास्तविकता यह है कि उस समय की सभी घटनाएँ स्पष्ट रूप से सिद्ध करती हैं कि हैदराबाद का भारत में “विलय” नहीं हुआ था, बल्कि उसे घुटनों के बल पर झुकाकर उसे “कट्टर मज़हबी रजाकारों” के अत्याचारों से मुक्त करवाया गया था... आईये सिलसिलेवार उन घटनाओं को एक बार पुनः अपनी यादों में सँजोते हैं...
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लगभग 500 रियासतों ने भारत गणराज्य में विलय के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया था और 1948 आते-आते भारत एक स्पष्ट आकार ग्रहण कर चुका था. केवल जूनागढ़ और हैदराबाद के निजाम इस बात पर अड़े हुए थे कि वे “स्वतन्त्र” ही रहेंगे, भारत में विलय नहीं करेंगे. प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री सरदार पटेल लगातार इस बात की कोशिश में लगे हुए थे कि मामला सरलता से सुलझ जाए, बलप्रयोग न करना पड़े. पटेल का यह कहना था कि जब मैसूर, त्रावनकोर, बड़ौदा और इंदौर जैसी बड़ी-बड़ी रियासतों ने “भारत” के साथ एकाकार होने का फैसला कर लिया है तो देश के बीचोंबीच “हैदराबाद” नामक पाकिस्तानी नासूर कैसे बाकी रह सकता है? यही हाल जम्मू-कश्मीर रियासत का भी था, जब पाकिस्तान से आए हुए हमलावरों ने लगातार कश्मीर की जमीन हड़पना शुरू की, तब कहीं जाकर अंतिम समय पर कश्मीर के महाराजा ने भारत संघ के साथ विलय का प्रस्ताव स्वीकार किया और भारत ने वहाँ अपनी सेनाएँ भेजीं.
हैदराबाद के निजाम ने पहले दिन से ही स्पष्ट कर दिया था कि वह स्वतन्त्र रहना चाहते हैं. निजाम ने 11 जून 1947 को एक फरमान जारी करते हुए कहा कि वह 15 अगस्त 1947 के दिन हैदराबाद को एक स्वतन्त्र देश के रूप में देखेंगे. निजाम भारत के साथ एक संधि करना चाहता था, न कि विलय. इस्लामी रजाकारों और इस्लामी प्रधानमंत्री मीर लईक अली ने निजाम पर अपनी पकड़ मजबूत बना रखी थी. जिन्ना, जो कि पाकिस्तान का निर्माण कर चुके थे, उन्होंने भी निजाम की इस इच्छा को हवा देना जारी रखा. जिन्ना ने निजाम को सैन्य मदद का भी आश्वासन दे रखा था, क्योंकि निजाम ने नवनिर्मित पाकिस्तान को “ऋण” के रूप में बीस करोड़ रूपए पहले ही दे दिए थे.
1946-48 के बीच नालगोंडा, खम्मम और वारंगल जिलों के लगभग तीन हजार गाँवों को कम्युनिस्ट पार्टी के गुरिल्लाओं ने “मुक्त” करवा लिया. उस समय कम्युनिस्ट और रजाकारों के बीच लगातार संघर्ष चल रहे थे. चूंकि अंग्रेजों से आजादी के बारे में कोई पक्का निर्णय, समझौता और स्पष्ट आकलन नहीं हो पा रहा था, इसलिए पूरी तरह से निर्णय होने एवं संविधान निर्माण पूर्ण होने तक तत्कालीन भारत सरकार एवं निजाम के बीच 29 नवम्बर 1947 को एक “अस्थायी संधि” की गई. उस समय लॉर्ड माउंटबेटन भारत के गवर्न-जनरल थे. उनकी इच्छा थी कि भारत सरकार, निज़ाम को विशेष दर्जा देकर हैदराबाद का विलय अथवा अधिग्रहण करने की बजाय उनके साथ स्थायी संधि करे. जवाहरलाल नेहरू भी इसी पक्ष में थे की भारत की सेना और निजाम के बीच कोई खूनी संघर्ष न हो. तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल इस बात पर अड़े हुए थे की भारत के बीचोंबीच एक पाकिस्तान समर्थक इस्लामी देश वे नहीं बनने देंगे. लेकिन अंततः नेहरू एवं माउंटबेटन के निज़ाम प्रेम एवं दबाव में उन्हें झुकना पड़ा, जब तक कि जून 1948 में लॉर्ड माउंटबेटन वापस इंग्लैण्ड नहीं चले गए.
इसके बाद तस्वीर में आए श्री केएम् मुंशी, जिन्हें समझौते के तहत भारत सरकार के एजेंट-जनरल के रूप में निज़ाम के राज्य में देखरेख करने भेजा गया. सरदार पटेल और मुंशी के बीच आपसी समझ बहुत बेहतर थी. हैदराबाद में रहकर केएम मुंशी ने इस्लामिक जेहादियों, रज़ाकारों और निज़ाम के शासन तले चल रहे हथियारों के एकत्रीकरण एवं उनके द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को निकट से देखा और उसकी रिपोर्ट चुपके से सरदार पटेल को भेजते रहे. इस बीच निज़ाम ने अपनी तरफ से खामख्वाह ही संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में भारत की शिकायत कर दी कि भारत सरकार उनके खिलाफ हथियार एकत्रित कर रही है और आक्रामक रुख दिखा रही है. जबकि वास्तव में था इसका उलटा ही, क्योंकि निज़ाम स्वयं ही एक स्मगलर सिडनी कॉटन के माध्यम से अपने इस्लामी रज़ाकारों के लिए हथियार एकत्रित कर रहा था. निज़ाम की इच्छा यह भी थी की वह पुर्तगालियों से गोवा को खरीद ले, ताकि समुद्र के रास्ते हथियारों की आवक सुगम हो सके.
फरवरी 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया (CPI) ने नेहरू सरकार को एंग्लो-अमेरिकन पूंजीवाद का प्रतीक घोषित करते हुए उसे उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया. CPI की मंशा थी कि देश में एक पार्टी शासन बने जो चीन की तानाशाही वाली तर्ज पर स्थापित हो. CPI ने अपने मृदु नेता पीसी जोशी को बाहर का रास्ता दिखाते हुए, उनके स्थान पर बीटी रणदीवे को लाए, जिन्होंने स्टालिन को अपने आदर्श मानते हुए भारत सरकार को सशस्त्र संघर्ष के सहारे उखाड़ फेंकने का संकल्प दोहराया. CPI के नेताओं के अनुसार, निज़ाम राज्य के जिन 3000 गाँवों पर कम्युनिस्टों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया था, वहीं से पहले वे निजाम की सेना को हराएँगे और उसके बाद उस इलाके को “एक स्वतन्त्र वामपंथी गणतंत्र” घोषित करके नेहरू सरकार के खिलाफ अपने सशस्त्र संघर्ष जारी रखेंगे. जल्दी ही निज़ाम और कम्युनिस्टों को समझ में आ गया कि यह उनके बस की बात नहीं है, इसलिए दोनों ने मई 1948 में समझौता कर लिया. वामपंथियों ने निजाम को घुट्टी पिला दी कि वह नेहरूवादी पूंजीवाद को खारिज करते हुए निजाम राज्य को एक स्वतन्त्र देश घोषित करें. कम्युनिस्टों ने निजाम का पूरा साथ देने की कसमें खाते हुए अपने कैडर से कह दिया था कि अगर भारतीय सेना निजाम राज्य में प्रवेश करती है तो उसका पूरा विरोध किया जाए.
माउंटबेटन ने भारत और निजाम सरकार के बीच कई दौर की बातचीत में हिस्सा लिया. माउंटबेटन को लगा था कि यह मामला आसानी से सुलझ जाएगा, इसलिए अंततः उसने एक समझौता मसौदा तैयार किया, जिसमें निजाम राज्य का भारत में ना तो विलय था, और ना ही उसका अधिग्रहण किया जा सकता था. इस मसौदे के अनुसार निज़ाम को कई रियायतें दी गई थीं, और भारत के साथ युद्ध विराम हेतु मना लिया गया था. जून 1948 में यह समझौता मसौदा लेकर माउंटबेटन और नेहरू देहरादून में बीमार पड़े सरदार पटेल से मिलने पहुँचे ताकि उनकी भी सहमति ली जा सके. सरदार पटेल ने समझौता देखते ही उसे खारिज कर दिया. माउंटबेटन और नेहरू उस समय और भी निराश हो गए, जब इसकी खबर निजाम को लगी और उसने भी इस समझौते को रद्दी की टोकरी में डाल दिया. बस फिर क्या था, सरदार पटेल के लिए अब सारे रास्ते खुल चुके थे, कि वे अपनी पद्धति से निज़ाम और रजाकारों से निपटें. सरदार पटेल ने भारतीय सेना का बलप्रयोग करने का निश्चय किया, लेकिन नेहरू इसके लिए राजी नहीं थे. तत्कालीन गवर्नर जनरल सी.राजगोपालाचारी ने नेहरू और पटेल दोनों को एक साथ बैठक में बुलाया, ताकि दोनों आपस में बात करके किसी समझौते पर पहुँचें. बलप्रयोग संबंधी नेहरू का विरोध उस समय अचानक ठंडा पड़ गया, जब राजगोपालाचारी ने ब्रिटिश हाईकमिश्नर से आया हुआ एक टेलीग्राम नेहरू को दिखाया, जिसमें कहा गया था कि सिकंदराबाद में कई ब्रिटिश ननों का इस्लामी रजाकारों ने बलात्कार कर दिया है. इधर भारतीय सेना के ब्रिटिश कमाण्डर जनरल रॉय बुचर ने नेहरू से मदद माँगी तो नेहरू ने उसे सरदार पटेल से बात करने की सलाह दी. असल में रॉय बुचर का कहना था कि चूँकि अभी पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना की मौत का शोक चल रहा है, इसलिए हमें हैदराबाद पर हमला नहीं करना चाहिए. साथ ही साथ रॉय बुचर पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन अंग्रेज जनरल से भी मिलीभगत करने में लगा हुआ था. सरदार पटेल ने रॉय बुचर का फोन टेप करवाया और उसे रंगे हाथों पकड़ लिया. पकडे जाने पर बुचर ने इस्तीफ़ा दे दिया, ताकि गद्दारी के आरोपों से बर्खास्तगी से बच जाए. अब सरदार पटेल के लिए रास्ता पूरी तरह साफ़ था.
13 सितम्बर को भारतीय सेनाओं ने तीन तरफ से हैदराबाद को घेरना शुरू किया. निज़ाम और रज़ाकारों को बड़ी सरलता से परास्त कर दिया गया. केवल पांच दिनों में अर्थात 18 सितम्बर 1948 को निज़ाम के जनरल सैयद अहमद इदरूस ने भारत के जनरल जेएन चौधरी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. लेकिन इतिहास की पुस्तकों पर काबिज वामपंथी इतिहासकारों ने लगातार इस झूठ को बनाए रखा की हैदराबाद का “विलय” हुआ है, जबकि वास्तव में निज़ाम को मजा चखाकर सरदार पटेल और केएम मुंशी ने हैदराबाद को “मुक्त” करवाया था. तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के लोगों को सरदार पटेल का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनकी दूरदृष्टि के कारण भारत के बीचोंबीच एक पाकिस्तान बनने से बच गया. अन्यथा निज़ाम का प्रधानमंत्री कासिम रिज़वी तत्कालीन निज़ाम शासन में हिन्दुओं की ऐसी दुर्गति करता कि हम कश्मीर के साथ-साथ हैदराबाद को भी याद रखते... निज़ाम की नीयत शुरू से भारत के साथ मिलने की नहीं थी, वह इतनी सरलता से अपना इस्लामी राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. लगभग दो लाख हत्यारे और लुटेरे इस्लामी रज़ाकारों ने उसे समझा दिया था कि चाहे खून की नदियाँ बहानी पड़ें, लेकिन हम केवल पाकिस्तान में शामिल होंगे, भारत में नहीं... परन्तु अंततः भारतीय सेना के सामने यह विरोध केवल पांच दिन ही टिक पाया. कासिम रिज़वी जो कि मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (MIM) का संस्थापक था, वह इस पराजय को कभी नहीं पचा पाया.
आईये अब हम देखते हैं कि आखिर हैदराबाद के वर्तमान ओवैसी बन्धु हिन्दुओं के प्रति इतना ज़हर क्यों उगलते हैं? ओवैसियों के काले इतिहास को जानने-समझने के बाद आपके सामने तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जाएगी कि आखिर सरदार पटेल कितने दूरदृष्टि वाले नेता थे और नेहरू कितने कमज़ोर व अल्पदृष्टि वाले. अभी तक आपने भारत की आज़ादी और 1948 तक निज़ाम और रज़ाकारों की इस्लामी कट्टरता व पाकिस्तान प्रेम के बारे में जाना... अब आगे बढ़ते हैं... अंग्रेजों के जाने के बाद उस समय की अधिकाँश रियासतों, राजे-रजवाड़ों ने खुशी-खुशी भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार किया और आज जो भारत हम देखते हैं, वह इन्हीं विभिन्न रियासतों से मिलकर बना. उल्लेखनीय है कि उस समय कश्मीर को छोड़कर देश की बाकी रियासतों को भारत में मिलाने का काम सरदार पटेल को सौंपा गया था, जिसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया. नेहरू ने उस समय कहा था कि कश्मीर को मुझ पर छोड़ दो, मैं देख लूँगा. इस एकमात्र रियासत को भारत में मिलाने का काम अपने हाथ में लेने वाले नेहरू की बदौलत, पिछले साठ वर्ष में कश्मीर भारत की छाती पर नासूर ही बना हुआ है. ऐसा ही एक नासूर दक्षिण भारत में “निजाम राज्य” भी बनने जा रहा था. सरदार पटेल ने निजाम से आग्रह किया कि भारत में मिल जाईये, हम आपका पूरा ख़याल रखेंगे और आपका सम्मान बरकरार रहेगा. निजाम रियासत की बहुसंख्य जनता हिन्दू थी, जबकि शासन निजाम का ही होता था. लेकिन निजाम का दिल पाकिस्तान के लिए धड़क रहा था. वे ऊहापोह में थे कि क्या करें? चूँकि हैदराबाद की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी, कि वे पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के साथ को जमीनी तालमेल बना सकें, क्योंकि बाकी चारों तरफ तो भारत नाम का गणराज्य अस्तित्व में आ ही चुका था. फिर निजाम ने ना भारत, ना पाकिस्तान अर्थात “स्वतन्त्र” रहने का फैसला किया. निजाम की सेना में फूट पड़ गई, और दो धड़े बन गए. पहला धड़ा जिसके नेता थे शोएबुल्लाह खान और इनका मानना था कि पाकिस्तान से दूरी को देखते हुए यह संभव नहीं है कि हम पाकिस्तानी बनें, इसलिए हमें भारत में विलय स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन दूसरा गुट जो “रजाकार” के नाम से जाना जाता था वह कट्टर इस्लामी समूह था, और उसे यह गुमान था कि मुसलमान हिंदुओं पर शासन करने के लिए बने हैं और मुग़ल साम्राज्य फिर वापस आएगा. रजाकारों के बीच एक व्यक्ति बहुत लोकप्रिय था, जिसका नाम था कासिम रिज़वी.
कासिम रिज़वी का स्पष्ट मानना था कि निजाम को दिल्ली से संचालित “हिंदुओं की सरकार” के अधीन रहने की बजाय एक स्वतन्त्र राज्य बने रहना चाहिए. अपनी बात मनवाने के लिए रिज़वी ने सरदार पटेल के साथ कई बैठकें की, परन्तु सरदार पटेल इस बात पर अड़े हुए थे कि भारत के बीचोंबीच एक “पाकिस्तान परस्त स्वतंत्र राज्य” मैं नहीं बनने दूँगा. कासिम रिज़वी धार्मिक रूप से एक बेहद कट्टर मुस्लिम था. सरदार पटेल के दृढ़ रुख से क्रोधित होकर उसने रजाकारों के साथ मिलकर निजाम रियासत में उस्मानाबाद, लातूर आदि कई ठिकानों पर हिन्दुओं की संपत्ति लूटना, हत्याएँ करना और हिन्दुओं को मुस्लिम बनाने जैसे “पसंदीदा” कार्य शुरू कर दिए. हालाँकि कासिम के इस कृत्य से निजाम सहमत नहीं थे, लेकिन उस समय तक सेना पर उनका नियंत्रण ख़त्म हो गया था. इसी बीच कासिम रिज़वी ने भारत में विलय की पैरवी कर रहे शोएबुल्ला खान की हत्या करवा दी. मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन (MIM) का गठन नवाब बहादुर यारजंग और कासिम रिजवी ने सन 1927 में किया था, जब हैदराबाद में उन्होंने इसे एक सामाजिक संगठन के रूप में शुरू किया था. लेकिन जल्दी ही इस संगठन पर कट्टरपंथियों का कब्ज़ा हो गया और यह सामाजिक की जगह धार्मिक-राजनैतिक संगठन में बदल गया. 1944 में नवाब जंग की असमय अचानक मौत के बाद कासिम रिज़वी MIM का मुखिया बना और अपने भाषणों की बदौलत उसने “रजाकारों” की अपनी फ़ौज खड़ी कर ली (हालाँकि आज भी हैदराबाद के पुराने बाशिंदे बताते हैं कि नवाब जंग कासिम के मुकाबले काफी लोकप्रिय और मृदुभाषी था, और कासिम रिजवी ने ही जहर देकर उसकी हत्या कर दी). MIM के कट्टर रुख और रजाकारों के अत्याचारों के कारण 1944 से 1948 तक निजाम राजशाही में हिंदुओं की काफी दुर्गति हुई.
सरदार पटेल, MIM और कासिम की रग-रग से वाकिफ थे. October Coup – A Memoir of the Struggle for Hyderabad नामक पुस्तक के लेखक मोहम्मद हैदर ने कासिम रिजवी से इंटरव्यू लिया था उसमें रिजवी कहता है, “निजाम शासन में हम भले ही सिर्फ बीस प्रतिशत हों, लेकिन चूँकि निजाम ने 200 साल शासन किया है, इसका अर्थ है कि हम मुसलमान शासन करने के लिए ही बने हैं”, इसी पुस्तक में एक जगह कासिम कहता है, “फिर एक दिन आएगा, जब मुस्लिम इस देश पर और निजाम हैदराबाद पर राज करेंगे”. जब सरदार पटेल ने देखा कि ऐसे कट्टर व्यक्ति के कारण स्थिति हाथ से बाहर जा रही है, तब भारतीय फ़ौज ने “ऑपरेशन पोलो” के नाम से एक तगड़ी कार्रवाई की और रजाकारों को नेस्तनाबूद करके 18 सितम्बर 1948 को हैदराबाद जीतकर भारत द्वारा अधिगृहीत करवा दिया. सरदार पटेल ने MIM पर प्रतिबन्ध लगा दिया, और कासिम रिजवी को गिरफ्तार कर लिया गया. चूँकि उस पर कमज़ोर धाराएँ लगाई गईं थीं, और उसने भारत सरकार की यह शर्त मान ली थी कि रिहा किए जाने के 48 घंटे के भीतर वह भारत छोड़कर पाकिस्तान चला जाएगा, इसलिए सिर्फ सात वर्ष में अर्थात 1957 में ही वह जेल से बाहर आ गया. माफीनामे की शर्त के मुताबिक़ उसे 48 घंटे में भारत छोड़ना था. कासिम रिजवी ने ताबड़तोड़ अपने घर पर MIM की विशेष बैठक बुलाई.
डेक्कन क्रॉनिकल में इतिहासकार मोहम्मद नूरुद्दीन खान लिखते हैं कि भारतीय फ़ौज के डर से कासिम रिजवी के निवास पर हुई इस आपात बैठक में MIM के 120 में से सिर्फ 40 प्रमुख पदाधिकारी उपस्थित हुए. इस बैठक में कासिम ने यह राज़ खोला कि वह भारत छोड़कर पाकिस्तान जा रहा है, और अब सभी लोग बताएँ कि “मजलिस” की कमान संभालने में किसकी रूचि है? उस बैठक में मजलिस (MIM) में भर्ती हुआ एक युवा भी उत्सुकतावश पहुँचा हुआ था, जिसका नाम था अब्दुल वाहिद ओवैसी (अर्थात वर्तमान असदउद्दीन ओवैसी के दादा). बैठक में मौजूद वरिष्ठ नवाब मीर खादर अली खान ने ओवैसी का नाम प्रस्तावित किया और रिजवी ने इस पर अपनी सहमति की मुहर लगाई और पाकिस्तान चला गया. वह दिन है, और आज का दिन है... तब से MIM अर्थात कट्टर “मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन” पर सिर्फ ओवैसी परिवार का पूरा कब्ज़ा है.