स्वरों के उच्चारण स्थल कुछ व्यंजनों के उच्चारण स्थानों के इतने निकट होते हैं कि इन स्वरों का उच्चारण उन स्थानों से होने का भान होता है, लेकिन होते अलग हैं, इन्हें उप-उच्चारण स्थान कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर ‘ई’ का उप-उच्चारण वहाँ है, जहाँ से ‘क’ का उच्चार होता है, जबकि जहाँ से ‘ख’ उच्चारित होता है उसके पास ही ‘उ’ का स्थान निहित है। इसी प्रकार ‘घ’ वाले स्थान के पास ‘ए’ और ‘ङ’ के पास ‘ओ’ का उप उच्चारण स्थान होता है। ऋ के लिये मूर्धा का अंतिम हिस्सा तथा लृ के लिये दन्तमूल उप-उच्चारण स्थान माने गये हैं। अनुस्वार तथा ङ, ञ, ण, न और म के लिये नाक का भीतरी हिस्सा उप-उच्चारण स्थान माना गया है और इसीलिये इन्हें ‘अनुनासिक’ कहा जाता है। इस तरह स्वर और व्यंजन अपने-अपने निर्धारित स्थान से प्रकट होते हैं।
अधिकांश व्यंजन अकार और विसर्ग के द्वन्द्व से बने हैं। अकार (अ) कंठमूल के ध्रुव बिन्दु पर और उसका विरोधी विसर्ग (ह) नाभि के ध्रुव पर बैठा है। मतलब नाभि से होने वाले वायु के फ़ैलाव से सभी व्यंजनों का प्रारम्भ होता है और कंठ में अकार के उच्चारण के साथ वर्णाकार लेकर उनका समापन हो जाता है। हर व्यंजन का पहला और तीसरा वर्ण केवल ‘अ’ के योग से बना है, जबकि दूसरा और चौथा वर्ण विसर्ग या हकार से बनता है। ‘क’ बनता है क+अ से जबकि ‘ख’ बनता है क्+ ह् से, इसी प्रकार ग= ग+अ लेकिन घ=ग्+ह् और प्रत्येक ग्रुप का अन्तिम अक्षर अनुनासिक। अब हम देखते हैं प्रत्येक वर्ग के पाँचवें वर्ण के बारे में – असल में ङ ही नहीं बल्कि ञ, ण, न, म को भी समझना जरूरी है। सभी व्यंजन कंठ से होंठ तक फ़ैले हुए ग्राफ़ पर बैठे हैं, लेकिन ये पाँचों अनुनासिक वर्ण ग्राफ़ से हटकर नाक में अनुस्वार के आधार पर स्थित हैं। ग्राफ़ से अलग होने के कारण ये ग्राफ़ के सभी वर्णों को नकारते हैं, इसलिये इन सभी का अर्थ ‘नकार’ यानी ‘नहीं’ को स्वाभाविक रूप से प्रकट करता है। यह सिद्धांत संवर्ग के पाँचों सदस्यों पर लागू होता है।
आमतौर पर सबने देखा होगा कि सर्दी-जुकाम के दौरान नाक बन्द होने पर हमारे उच्चारण में दोष पैदा हो जाता है, ‘अम्बे’ को ‘अब्बे’ या कभी ‘झण्डा’ को ‘झड्डा’ स्वर निकलता है (क्योंकि अनुनासिक बन्द हो जाता है) यही बात कोई दाँत टूट जाने अथवा चाय-दूध से जीभ जल जाने के बाद त, थ, द, ध के उच्चारण में विकार आ जाता है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि शुद्ध उच्चारण के लिये वाणी तन्त्र के सभी अवयव ठीक-ठाक अवस्था में भी होना चाहिये।
अब और आगे चलें तो बचे हुए निम्नलिखित वर्ण इस प्रकार हैं -
य्- तालव्य
र्, ळ्- मूर्धन्य
ल्- दन्त्य
व्- दन्तोष्ठ्य
ह्- कण्ठ्य (संस्कृत के अनुसार)
अब तक हम काफ़ी परिभाषायें देख चुके हैं जैसे उच्चारक्रिया (Articulation), उच्चारक स्थान (Articulator), कण्ठ्य (Velar), तालव्य (Palatal), दन्त्य (Dental), ओष्ठ्य (Bilabial) आदि, यह सभी प्राचीन भारतीय उच्चार पद्धति के ही स्वरूप हैं, इससे हमें यह भी पता चलता है कि उस जमाने में भी उच्चारशास्त्र बेहद विकसित था और उसी के अनुरूप वर्णमाला की रचना की गई थी। पाटकों को याद होगा कि पिछले भाग में मैने व्यंजनों की एक तालिका समान बनाई थी, जिसमें तीन दल बनाये थे। तीन अलग गुट बनाने का कारण यह था कि इन तीनों गुटों के उच्चारण के वक्त तंत्र का प्रयत्न अलग-अलग होता है। पहला गुट था ‘क से म’ इन २५ वर्णों का, इन्के लिये वाणी तंत्र “स्पर्श” प्रयत्न का उपयोग करता है। मतलब दो उच्चारकों का आपस में पूर्ण स्पर्श होता है और वायु दोनों उच्चारकों द्वारा तैयार की गई दीवार के बीच होती है। दोनों उच्चारकों के दूर जाने पर हवा जोर से बाहर निकलती है, इन वर्णों को “स्पृष्ट” या Plosive कहते हैं।
दूसरा गुट था ‘य्, र्, ल्, व्’ का, इनके लिये जो विधि अपनाई जाती है उसे “ईषत्स्पर्श” कहते हैं, मतलब इनमें दो उच्चारक एक दूसरे को हल्का सा स्पर्श करते हैं, इसलिये हवा बीच में न दबकर स्पर्श होते हुए भी बाहर निकलती है। ऐसे वर्णों को ‘अन्तस्थ’ कहते हैं, अन्तस्थ यानी व्यंजन और स्वर के बीचोंबीच रहने वाले या कहें “अर्धस्वर”। हालांकि अंग्रेजी में य् और व् को ही Semivowels की संज्ञा दी गई है, और र् तथा ल् को Consonant माना गया है।
तीसरा गुट है श्, ष्, स् और ह् का। इन्हें ‘ईषद्विवृत्त” कहते हैं, मतलब इनमें दो उच्चारक एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते हैं, लेकिन हवा निकलने के लिये थोड़ा सा ही स्थान बाकी रहता है, इसलिये हवा बगैर किसी speed breaker के लेकिन कम जगह होने से तेजी से बाहर निकलती है। इन वर्णों को ‘नेमस्पृष्ट’ या Fricatives कहते हैं।
एक और वर्ण होता है ‘ळ’। इस वर्ण के बारे में विद्वानों में थोड़ा भ्रम सा है, क्योंकि ‘ळ्’ वर्ण आभिजात्य संस्कृत में नहीं है, और संस्कृत की प्राचीन पुस्तकों में इसका उल्लेख नहीं मिलता। वर्णमाला में ३३ व्यंजन हैं ऐसा ही कहा जाता है, लेकिन मराठी में ळ् मिलाकर ३४ व्यंजन माने जाते हैं। वैदिक संस्कृत में ळ् पाया जाता है लेकिन लगभग ड् के रूप में, अर्थात दो स्वरों के बीच में ड् का उच्चार आया तभी ळ् होता है, अन्यथा ळ् का अस्तित्व थोड़ा धूमिल सा है। संस्कृत से अधिक सम्बन्ध ना होने से इसे वर्णमाला में अंतिम स्थान दिया गया है और विद्वानों ने इसके बारे में अधिक विचार शायद नहीं किया है (यदि किसी पाठक को इस वर्ण ‘ळ्’ के बारे में अधिक जानकारी या साहित्य मिले तो वह अवश्य उल्लेख करें)। इस प्रकार हमने देखा कि तीनों दलों या टीमों में वर्णों के स्थान कहाँ-कहाँ और कैसे निहित हैं, प्रयास यह था कि इनके बीच का जो फ़र्क है वह स्पष्ट उभरकर सामने आये।
अब आगे हम देखेंगे कि स्पृष्ट वर्णों की रचना जैसी की गई है, वैसी ही क्यों की गई है, उसका वैज्ञानिक आधार क्या है? पाठकगण कृपया एक बार फ़िर से दोहरा लें इसलिये निम्नांकित तालिका दे रहा हूँ -
क् ख् ग् घ् ङ् - कण्ठ्य
च् छ् ज् झ् ञ् - तालव्य
ट् ठ् ड् ढ् ण् - मूर्धन्य
त् थ् द् ध् न् - दन्त्य
प् फ् ब् भ् म् - ओष्ठ्य
हम शुरुआत करते हैं तालिका के पाँचवे कॉलम से, जिसमें हैं ङ्, ञ्, ण्, न् और म्। प्रश्न उठता है कि लगभग एक जैसे पाँच-पाँच अनुनासिक वर्णों की क्या जरूरत है? दरअसल इनमें हवा मुँह के द्वारा न जाकर नाक के द्वारा बाहर निकलती है। बचपन में व्याकरण सीखते समय का मूल सिद्धांत भी यही है कि अनुस्वार के बाद जो अगला व्यंजन आता है उसी वर्ग का अनुनासिक शब्द में उपयोग किया जाना चाहिये, जैसे ‘अंक’ में अनुस्वार के सामने चूँकि ‘क’ आया है, इसलिये इसे “अङ्क्’ लिखना चाहिये। इसी प्रकार काञ्चन, कण्टक, अन्त, अम्बर के मामले में होगा। इसका कारण यह है कि शब्द उच्चारण करते समय अनुस्वार के बाद कौन सा व्यंजन आने वाला है यह हमें ज्ञात होता है, इसलिये जीभ उसी दिशा में वाणी तन्त्र में टकराती है और उतनी मात्रा में हवा नाक के द्वारा छोड़ी जाती है। इसीलिये जैसा कि मैंने पहले कहा, जुकाम हो जाने पर हम अनुनासिक शब्दों का उच्चार ठीक से नहीं कर पाते।
अब बात चौथे और तीसरे कॉलम की (ग, घ, ज, झ, ड, ढ आदि) – इन वर्णों का उच्चार करते समय स्वरयंत्र के बीच से हवा थोड़ी रुकावट के साथ आती है, इसलिये हल्का सा कम्पन होता है और इसीलिये इन्हें ‘घोष’ या ‘मृदु’ व्यंजन (Voiced) कहा जाता है। फ़िर बारी आती है दूसरे और पहले कॉलम की – इनमें स्वरयंत्र की हलचल ज्यादा नहीं होती, इसलिये हवा बगैर किसी रुकावट के निकलती है और किसी प्रकार का कम्पन आदि नहीं होता, इसलिये इन व्यंजनों को ‘अघोष’ अथवा ‘कठोर’ (Unvoiced) कहा जाता है। ‘क्’ के उच्चारण के समय थोड़ी अधिक हवा मुँह से बाहर निकालें तो ‘ख्’ तैयार होता है। कम हवा का उपयोग करेंगे तो ‘क्’ का उच्चार होगा। कम हवा के उपयोग वाले व्यंजनों को ‘अल्पप्राण’ और ज्यादा हवा के उपयोग वाले व्यंजनों को ‘महाप्राण’ कहा जाता है।
‘श्’ और ‘ष्’ के उच्चारण के दौरान हमें इनके बीच का अन्तर साफ़ पता चल जाता है। हालांकि इनके उपयोग के बारे में विस्तार से जानकारी तो नहीं मिल पाई, लेकिन फ़िर भी कुछ प्राप्त करने की कोशिश की है, उसके अनुसार मुझे ऐसा लगता है कि ऋ, र, ट, ठ, ड, ढ और ण के पहले ‘ष’ का उपयोग होता है, क्योंकि ये वर्ण ‘ष्’ के मूर्धन्य “बन्धु” कहे जाते हैं। जैसे – ‘शटकोण’ गलत है, और “षटकोण” सही वैसे ही ‘ज्योतिश’ गलत है, ‘ज्योतिष’ सही। ‘ष’ से शुरु होने वाले शब्द बहुत ज्यादा नहीं हैं, लेकिन षट्कोण, षड्यंत्र, षण्मुखानन्द (यहाँ अनुस्वार आने से ‘ण’ आधा हो गया है), षोडशी (शोडशी नहीं)। लगभग यही नियम तब भी लागू होता है जब ‘ष’ बीच में आता है, जैसे- आकृष्ट, निकृष्ट, राष्ट्र, देहयष्टि, चेष्टा, कोष्ठक, अंत्येष्टि, घनिष्ठ, बलिष्ठ, श्रेष्ठ, कुष्ठ, आषाढ़, निषेध, पार्षद, अभिषेक, प्रदूषण, सामिष/निरामिष, भाषा, मनीषा, पोषण, शोषण, आदि, इनमें से किसी में भी ‘श’ का उपयोग नहीं होता है, प्रत्येक जगह ‘ष्’ ही उपयोग किया गया है। कई जगह ‘ष्’ को ‘क’ वर्ग के साथ भी रखा गया है, जैसे- आविष्कार, पुष्कर, चतुष्कोण आदि, और कहीं पुष्य, ऋष्यमूक आदि, लेकिन जैसा कि मैने पहले ही कहा कि इसका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार और परिभाषा मुझे ढूँढने के बावजूद नहीं मिल सका, यदि किसी पाठक को जानकारी हो तो स-सन्दर्भ भेजें।
अभी तक पाठक यह तो जान ही गये होंगे कि व्यंजनों की उच्चारक्रिया जितनी आसान लगती है, हकीकत में वह कई प्रयत्नों और वाणी तंत्रों का मिश्रण होती है। हमें पता भी नहीं चलता और हमारा अद्भुत वाणी तंत्र कई प्रकार की क्रिया करके शब्दों का उच्चार कर देता है।
अब स्वरों के बारे में कुछ विस्तार से अगले अंक में.....
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‘अ’ की तरह ‘ह’ को भी सभी वर्णों का प्रकाशक कहा जाता है। कोई भी वर्ण बिना विसर्ग और अकार के बिना उच्चारित नहीं हो सकता। अ ही नाभि की गहराई से उच्चरित होने पर विसर्ग बन जाता है। इस प्रकार अ स्वयं अपने में से अपना विरोधी स्वर उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह कि अ से ह तक की वर्णमाला में विसर्ग और अकार किसी ना किसी रूप में मौजूद रहते हैं।
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