Hawaizaada and Vaimaniki Shastra - Ancient Indian Knowledge (Part 1)
Written by Super User शुक्रवार, 16 जनवरी 2015 12:33
“हवाईज़ादा” एवं वैमानिक
शास्त्र – कथित बुद्धिजीवियों में इतनी बेचैनी क्यों है?
(भाग - १)
जैसे ही यह निश्चित हुआ, कि मुम्बई में सम्पन्न होने वाली 102 वीं विज्ञान कांग्रेस में भूतपूर्व
फ्लाईट इंजीनियर एवं पायलट प्रशिक्षक श्री आनंद बोडस द्वारा भारतीय प्राचीन
विमानों पर एक शोधपत्र पढ़ा जाएगा, तभी यह तय हो गया था कि भारत में वर्षों से
विभिन्न अकादमिक संस्थाओं पर काबिज, एक “निहित स्वार्थी बौद्धिक समूह” अपने पूरे दमखम
एवं सम्पूर्ण गिरोहबाजी के साथ बोडस के इस विचार पर ही हमला करेगा, और ठीक वैसा ही
हुआ भी. एक तो वैसे ही पिछले बारह वर्ष से नरेंद्र मोदी इस “गिरोह” की आँखों में कांटे की तरह
चुभते आए हैं, ऐसे में यदि विज्ञान काँग्रेस का उदघाटन मोदी करने वाले हों, इस
महत्त्वपूर्ण आयोजन में “प्राचीन वैमानिकी
शास्त्र” पर आधारित कोई
रिसर्च पेपर पढ़ा जाने वाला हो तो स्वाभाविक है कि इस बौद्धिक गिरोह में बेचैनी
होनी ही थी. ऊपर से डॉक्टर हर्षवर्धन ने यह कहकर माहौल को और भी गर्मा दिया कि
पायथागोरस प्रमेय के असली रचयिता भारत के प्राचीन ऋषि थे, लेकिन उसका “क्रेडिट” पश्चिमी देश ले
उड़े हैं.
सेकुलरिज़्म, प्रगतिशीलता एवं वामपंथ के नाम पर चलाई जा रही यह “बेईमानी” कोई आज की बात
नहीं है, बल्कि भारत के स्वतन्त्र होने के तुरंत बाद से ही नेहरूवादी समाजवाद एवं
विदेशी सेकुलरिज़्म के विचार से बाधित वामपंथी इतिहासकारों, साहित्यकारों, लेखकों,
अकादमिक विशेषज्ञों ने खुद को न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ के रूप में पेश किया, बल्कि
भारतीय इतिहास, आध्यात्म, संस्कृति एवं वेद-आधारित ग्रंथों को सदैव हीन दृष्टि से
देखा. चूँकि अधिकाँश पुस्तक लेखक एवं पाठ्यक्रम रचयिता इसी “गिरोह” से थे, इसलिए उन्होंने बड़े
ही मंजे हुए तरीके से षडयंत्र बनाकर, व्यवस्थित रूप से पूरी की पूरी तीन पीढ़ियों
का “ब्रेनवॉश” किया. “आधुनिक वैज्ञानिक
सोच”(?) के नाम पर प्राचीन
भारतीय ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, पुराण आदि को पिछड़ा हुआ, अनगढ़, “कोरी गप्प” अथवा “किस्से-कहानी” साबित करने की
पुरज़ोर कोशिश चलती रही, जिसमें वे सफल भी रहे, क्योंकि समूची शिक्षा व्यवस्था तो
इसी गिरोह के हाथ में थी. बहरहाल, इस विकट एवं कठिन पृष्ठभूमि तथा हो-हल्ले एवं
दबाव के बावजूद यदि वैज्ञानिक बोडस जी विज्ञान काँग्रेस में प्राचीन वैमानिक
शास्त्र विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत कर पाए, तो निश्चित ही इसका श्रेय “बदली हुई सरकार” को देना चाहिए.
यहाँ पर सबसे पहला सवाल उठता है, कि क्या विरोधी पक्ष के इन “तथाकथित
बुद्धिजीवियों” द्वारा उस ग्रन्थ
में शामिल सभी बातों को, बिना किसी विचार के, अथवा बिना किसी शोध के सीधे खारिज
किया जाना उचित है? दूसरा पक्ष सुने बिना, अथवा उसके तथ्यों एवं तर्कों की
प्रामाणिक जाँच किए बिना, सीधे उसे नाकारा या अज्ञानी साबित करने की कोशिश में जुट
जाना “बौद्धिक
भ्रष्टाचार” नहीं है? निश्चित
है. यदि इन वामपंथी एवं प्रगतिशील लेखकों को ऐसा लगता है कि महर्षि भारद्वाज
द्वारा रचित “वैमानिकी शास्त्र” निहायत झूठ एवं
गल्प का उदाहरण है, तो भी कम से कम उन्हें इसकी जाँच तो करनी ही चाहिए थी. बोडस
द्वारा रखे गए विभिन्न तथ्यों एवं वैमानिकी शास्त्र में शामिल कई प्रमुख बातों को
विज्ञान की कसौटी पर तो कसना चाहिए था? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. किसी दूसरे
व्यक्ति की बात को बिना कोई तर्क दिए सिरे से खारिज करने की “तानाशाही” प्रवृत्ति पिछले
साठ वर्षों से यह देश देखता आया है. “वैचारिक छुआछूत” का यह दौर बहुत लंबा चला है,
लेकिन अंततः चूँकि सच को दबाया नहीं जा सकता, आज भी सच धीरे-धीरे विभिन्न माध्यमों
से सामने आ रहा है... इसलिए इस “प्रगतिशील गिरोह” के दिल में असल बेचैनी इसी
बात की है कि जो “प्राचीन ज्ञान” हमने बड़े जतन से
दबाकर रखा था, जिस ज्ञान को हमने “पोंगापंथ” कहकर बदनाम किया था, जिन
विद्वानों के शोध को हमने खिल्ली उड़ाकर खारिज कर दिया था, जिस ज्ञान की भनक हमने
षडयंत्रपूर्वक नहीं लगने दी, कहीं वह ज्ञान सच्चाई भरे नए स्वरूप में दुनिया के
सामने न आ जाए. परन्तु इस वैचारिक गिरोह को न तो कोई शोध
मंजूर है, ना ही वेदों-ग्रंथों-शास्त्रों पर कोई चर्चा मंजूर है और संस्कृत भाषा
के ज़िक्र करने भर से इन्हें गुस्सा आने लगता है. यह गिरोह चाहता है कि “हमने जो कहा, वही सही है... जो हमने लिख दिया, या पुस्तकों में लिखकर बता
दिया, वही अंतिम सत्य है.. शास्त्रों या संस्कृत द्वारा इसे कोई चुनौती दी ही नहीं
जा सकती”. इतनी लंबी प्रस्तावना इसलिए
दी गई, ताकि पाठकगण समस्या के मूल को समझें, विरोधियों की बदनीयत को जानें और
समझें. बच्चों को पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी... क्यों?
क्या उससे पहले यहाँ भारत नहीं था? यह भूमि नहीं थी? यहाँ लोग नहीं रहते थे?
वास्कोडिगामा के आने से पहले क्या यहाँ कोई संस्कृति, भाषा नहीं थी? फिर
वास्कोडिगामा ने क्या खोजा?? वही ना, जो पहले से मौजूद था.
खैर... बात हो रही थी वैमानिकी शास्त्र की... सभी विद्वानों में कम से कम
इस बात को लेकर दो राय नहीं हैं कि महर्षि भारद्वाज द्वारा वैमानिकी शास्त्र लिखा
गया था. इस शास्त्र की रचना के कालखंड को लेकर विवाद किया जा सकता है, लेकिन इतना
तो निश्चित है कि जब भी यह लिखा गया होगा, उस समय तक हवाई जहाज़ का आविष्कार करने
का दम भरने वाले “राईट ब्रदर्स” की पिछली दस-बीस
पीढियाँ पैदा भी नहीं हुई होंगी. ज़ाहिर है कि प्राचीन काल में विमान भी था, दूरदर्शन भी था (महाभारत-संजय
प्रकरण), अणु बम (अश्वत्थामा प्रकरण) भी था, प्लास्टिक सर्जरी (सुश्रुत
संहिता) भी थी। यानी वह सब कुछ था, जो आज है, लेकिन सवाल तो यह
है कि वह सब कहां चला गया? ऐसा कैसे हुआ कि हजारों साल पहले जिन बातों की “कल्पना”(?) की गई थी, ठीक उसी प्रकार एक के बाद एक वैज्ञानिक आविष्कार हुए? अर्थात उस प्राचीन काल में उन्नत टेक्नोलॉजी तो मौजूद थी, वह किसी कारणवश लुप्त हो गई. जब तक इस बारे में पक्के प्रमाण सामने नहीं आते, उसे शेष विश्व द्वारा
मान्यता नहीं दी जाएगी. “प्रगतिशील एवं सेकुलर-वामपंथी गिरोह” द्वारा इसे वैज्ञानिक सोच
नहीं माना जाएगा, “कोरी गप्प” माना जाएगा... फिर सच्चाई जानने का तरीका क्या है? इन शास्त्रों का अध्ययन
हो, उस संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार किया जाए, जिसमें ये शास्त्र या ग्रन्थ लिखे
गए हैं. चरक, सुश्रुत वगैरह की बातें किसी दूसरे लेख में करेंगे, तो आईये
संक्षिप्त में देखें कि महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिकी शास्त्र” पर कम से कम विचार किया जाना आवश्यक क्यों है... इसको सिरे से खारिज क्यों
नहीं किया जा सकता.
जब भी कोई नया शोध या खोज होती है, तो उस आविष्कार का श्रेय
सबसे पहले उस “विचार” को दिया जाना
चाहिए, उसके बाद उस विचार से उत्पन्न हुई आविष्कार के सबसे पहले “प्रोटोटाइप” को महत्त्व दिया
जाना चाहिए. लेकिन राईट बंधुओं के मामले में ऐसा नहीं किया गया. शिवकर बापूजी
तलपदे ने इसी वैमानिकी शास्त्र का अध्ययन करके सबसे पहला विमान बनाया था, जिसे वे
सफलतापूर्वक 1500 फुट की ऊँचाई तक
भी ले गए थे, फिर जिस “आधुनिक विज्ञान” की बात की जाती है,
उसमें महर्षि भारद्वाज न सही शिवकर तलपदे को सम्मानजनक स्थान हासिल क्यों नहीं है?
क्या सबसे पहले विमान की अवधारणा सोचना और उस पर काम करना अदभुत उपलब्धि नहीं है?
क्या इस पर गर्व नहीं होना चाहिए? क्या इसके श्रेय हेतु दावा नहीं करना चाहिए? फिर
यह सेक्यूलर गैंग बारम्बार भारत की प्राचीन उपलब्धियों को लेकर शेष भारतीयों के मन
में हीनभावना क्यों रखना चाहती है?
अंग्रेज शोधकर्ता डेविड हैचर चिल्द्रेस ने अपने लेख Technology of the Gods – The Incredible Sciences of the
Ancients (Page 147-209) में लिखते हैं कि हिन्दू एवं बौद्ध
सभ्यताओं में हजारों वर्ष से लोगों ने प्राचीन विमानों के बारे सुना और पढ़ा है.
महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित “यन्त्र-सर्वस्व” में इसे बनाने की विधियों के
बारे में विस्तार से लिखा गया है. इस ग्रन्थ को चालीस उप-भागों में बाँटा गया है,
जिसमें से एक है “वैमानिक प्रकरण,
जिसमें आठ अध्याय एवं पाँच सौ सूत्र वाक्य हैं. महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिक शास्त्र” की मूल प्रतियाँ
मिलना तो अब लगभग असंभव है, परन्तु सन 1952 में महर्षि
दयानंद के शिष्य स्वामी ब्रह्ममुनी परिव्राजक द्वारा इस मूल ग्रन्थ के लगभग पाँच
सौ पृष्ठों को संकलित एवं अनुवादित किया गया था, जिसकी पहली आवृत्ति फरवरी 1959 में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित हुई थी.
इस आधी-अधूरी पुस्तक में भी कई ऐसी जानकारियाँ दी गई हैं, जो आश्चर्यचकित करने
वाली हैं.
इसी लेख में डेविड हैचर लिखते हैं कि प्राचीन भारतीय विद्वानों
ने विभिन्न विमानों के प्रकार, उन्हें उड़ाने संबंधी “मैनुअल”, विमान प्रवास की
प्रत्येक संभावित बात एवं देखभाल आदि के बारे में विस्तार से “समर सूत्रधार” नामक ग्रन्थ में
लिखी हैं. इस ग्रन्थ में लगभग 230 सूत्रों एवं
पैराग्राफ की महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हैं. डेविड आगे कहते हैं कि यदि यह सारी
बातें उस कालखंड में लिखित एवं विस्तृत स्वरूप में मौजूद थीं तो क्या ये कोरी गल्प
थीं? क्या किसी ऐसी “विशालकाय वस्तु” की भौतिक मौजूदगी
के बिना यह सिर्फ कपोल कल्पना हो सकती है? परन्तु भारत के परम्परागत इतिहासकारों
तथा पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस “कल्पना”(?) को भी सिरे से
खारिज करने में कोई कसर बाकी न रखी. एक और अंग्रेज लेखक एंड्रयू टॉमस लिखते हैं कि
यदि “समर सूत्रधार” जैसे वृहद एवं
विस्तारित ग्रन्थ को सिर्फ कल्पना भी मान लिया जाए, तो यह निश्चित रूप से अब तक की
सर्वोत्तम कल्पना या “फिक्शन उपन्यास” माना जा सकता है.
टॉमस सवाल उठाते हैं कि रामायण एवं महाभारत में भी कई बार “विमानों” से आवागमन एवं विमानों के
बीच पीछा अथवा उनके आपसी युद्ध का वर्णन आता है. इसके आगे मोहन जोदड़ो एवं हडप्पा
के अवशेषों में भी विमानों के भित्तिचित्र उपलब्ध हैं. इसे सिर्फ काल्पनिक कहकर
खारिज नहीं किया जाना चाहिए था. पिछले चार सौ वर्ष की गुलामी के दौर ने कथित
बौद्धिकों के दिलो-दिमाग में हिंदुत्व, संस्कृत एवं प्राचीन ग्रंथों के नाम पर ऐसी
हीन ग्रंथि पैदा कर दी है, उन्हें सिर्फ अंग्रेजों, जर्मनों अथवा लैटिनों का लिखा
हुआ ही परम सत्य लगता है. इन बुद्धिजीवियों को यह लगता है कि दुनिया में सिर्फ
ऑक्सफोर्ड और हारवर्ड दो ही विश्वविद्यालय हैं, जबकि वास्तव में हुआ यह था कि
प्राचीन तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय जहाँ आक्रान्ताओं द्वारा भीषण
अग्निकांड रचे गए अथवा सैकड़ों घोड़ों पर संस्कृत ग्रन्थ लादकर अरब, चीन अथवा यूरोप
ले जाए गए. हाल-फिलहाल इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा बिना किसी शोध अथवा सबूत के
संस्कृत ग्रंथों एवं लुप्त हो चुकी पुस्तकों/विद्याओं पर जो हाय-तौबा मचाई जा रही
है, वह इसी गुलाम मानसिकता का परिचायक है.
इन लुप्त हो चुके शास्त्रों, ग्रंथों एवं अभिलेखों की पुष्टि
विभिन्न शोधों द्वारा की जानी चाहिए थी कि आखिर यह तमाम ग्रन्थ और संस्कृत की
विशाल बौद्धिक सामग्री कहाँ गायब हो गई? ऐसा क्या हुआ था कि एक बड़े कालखण्ड के कई
प्रमुख सबूत गायब हैं? क्या इनके बारे में शोध करना, तथा तत्कालीन ऋषि-मुनियों एवं
प्रकाण्ड विद्वानों ने यह “कथित कल्पनाएँ” क्यों की होंगी? कैसे की
होंगी? उन कल्पनाओं में विभिन्न धातुओं के मिश्रण अथवा अंतरिक्ष यात्रियों के
खान-पान सम्बन्धी जो नियम बनाए हैं वह किस आधार पर बनाए होंगे, यह सब जानना जरूरी
नहीं था? लेकिन पश्चिम प्रेरित इन इतिहासकारों ने सिर्फ खिल्ली उड़ाने में ही अपना
वक्त खराब किया है और भारतीय ज्ञान को बर्बाद करने की सफल कोशिश की है.
ऑक्सफोर्ड विवि के ही एक संस्कृत प्रोफ़ेसर वीआर रामचंद्रन दीक्षितार
अपनी पुस्तक “वार इन द
एन्शियेंट इण्डिया इन 1944” में लिखते हैं कि
आधुनिक वैमानिकी विज्ञान में भारतीय ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने
बताया कि सैकड़ों गूढ़ चित्रों द्वारा प्राचीन भारतीय ऋषियों ने पौराणिक विमानों के
बारे में लिखा हुआ है. दीक्षितार आगे लिखते हैं कि राम-रावण के युद्ध में जिस “सम्मोहनास्त्र” के बारे में लिखा
हुआ है, पहले उसे भी सिर्फ कल्पना ही माना गया, लेकिन आज की तारीख में जहरीली गैस
छोड़ने वाले विशाल बम हकीकत बन चुके हैं. पश्चिम के कई वैज्ञानिकों ने प्राचीन
संस्कृत एवं मोड़ी लिपि के ग्रंथों का अनुवाद एवं गहन अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष
निकाला है कि निश्चित रूप से भारतीय मनीषियों/ऋषियों को वैमानिकी का वृहद ज्ञान
था. यदि आज के भारतीय बुद्धिजीवी पश्चिम के वैज्ञानिकों की ही बात सुनते हैं तो
उनके लिए चार्ल्स बर्लित्ज़ का नाम नया नहीं होगा. प्रसिद्ध पुस्तक “द बरमूडा ट्राएंगल” सहित अनेक
वैज्ञानिक पुस्तकें लिखने वाले चार्ल्स बर्लित्ज़ लिखते हैं कि, “यदि आधुनिक परमाणु
युद्ध सिर्फ कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है, तो निश्चित ही भारत के प्राचीन
ग्रंथों में ऐसा बहुत कुछ है जो हमारे समय से कहीं आगे है”. 400 ईसा पूर्व लिखित “ज्योतिष” ग्रन्थ में ब्रह्माण्ड में
धरती की स्थिति, गुरुत्वाकर्षण नियम, ऊर्जा के गतिकीय नियम, कॉस्मिक किरणों की
थ्योरी आदि के बारे में बताया जा चुका है. “वैशेषिका ग्रन्थ” में भारतीय विचारकों ने
परमाणु विकिरण, इससे फैलने वाली विराट ऊष्मा तथा विकिरण के बारे में अनुमान लगाया
है. (स्रोत :- Doomsday 1999 – By Charles Berlitz, पृष्ठ 123-124).
इसी प्रकार कलकत्ता संस्कृत कॉलेज के संस्कृत प्रोफ़ेसर दिलीप
कुमार कांजीलाल ने 1979 में Ancient Astronaut Society की म्यूनिख
(जर्मनी) में सम्पन्न छठवीं काँग्रेस के दौरान उड़ सकने वाले प्राचीन भारतीय
विमानों के बारे में एक उदबोधन दिया एवं पर्चा प्रस्तुत किया था (सौभाग्य से उस
समय वहाँ सतत खिल्ली उड़ाने वाले, आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी नहीं थे). प्रोफ़ेसर
कांजीलाल के अनुसार ईसा पूर्व 500 में “कौसितकी” एवं “शतपथ ब्रह्मण” नामक कम से कम दो
और ग्रन्थ थे, जिसमें अंतरिक्ष से धरती पर देवताओं के उतरने का उल्लेख है.
यजुर्वेद में उड़ने वाले यंत्रों को “विमान” नाम दिया गया, जो “अश्विन” उपयोग किया करते
थे. इसके अलावा भागवत पुराण में भी “विमान” शब्द का कई बार उल्लेख हुआ
है. ऋग्वेद में “अश्विन देवताओं” के विमान संबंधी
विवरण बीस अध्यायों (1028 श्लोकों) में
समाया हुआ है, जिसके अनुसार अश्विन जिस विमान से आते थे, वह तीन मंजिला, त्रिकोणीय
एवं तीन पहियों वाला था एवं यह तीन यात्रियों को अंतरिक्ष में ले जाने में सक्षम
था. कांजीलाल के अनुसार, आधे-अधूरे स्वरूप में हासिल हुए वैमानिकी संबंधी इन
संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित धातुओं एवं मिश्रणों का सही एवं सटीक अनुमान तथा
अनुवाद करना बेहद कठिन है, इसलिए इन पर कोई विशेष शोध भी नहीं हुआ. “अमरांगण-सूत्रधार” ग्रन्थ के अनुसार
ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर एवं इंद्र के अलग-अलग पाँच विमान थे. आगे चलकर अन्य
ग्रंथों में इन विमानों के चार प्रकार रुक्म, सुंदरा, त्रिपुर एवं शकुन के बारे
में भी वर्णन किया गया है, जैसे कि “रुक्म” शंक्वाकार विमान था जो
स्वर्ण जड़ित था, जबकि “त्रिपुर विमान” तीन मंजिला था.
महर्षि भारद्वाज रचित “वैमानिकी शास्त्र” में यात्रियों के
लिए “अभ्रक युक्त” (माएका) कपड़ों के
बारे में बताया गया है, और जैसा कि हम जानते हैं आज भी अग्निरोधक सूट में माईका
अथवा सीसे का उपयोग होता है, क्योंकि यह ऊष्मारोधी है.
भारत के मौजूदा मानस पर पश्चिम का रंग कुछ इस कदर चढ़ा है कि हममें से
अधिकांश अपनी खोज या किसी रचनात्मक उपलब्धि पर विदेशी ठप्पा लगते देखना चाहते हैं.
इसके बाद हम एक विशेष गर्व अनुभव करते हैं. ऐसे लोगों के लिए मैं प्राचीन भारतीय
विमान के सन्दर्भ में एरिक वॉन डेनिकेन की खोज के बारे में बता रहा हूँ उससे पहले
एरिक वॉन डेनिकेन का परिचय जरुरी है. 79 वर्षीय डेनिकेन एक
खोजी और बहुत प्रसिद्ध लेखक हैं. उनकी लिखी किताब 'चेरिएट्स ऑफ़ द गॉड्स' बेस्ट सेलर रही
है. डेनिकेन की खूबी हैं कि उन्होंने प्राचीन इमारतों और स्थापत्य कलाओं का गहन अध्ययन
किया और अपनी थ्योरी से साबित किया है कि पूरे विश्व में प्राचीन काल में एलियंस
(परग्रही) पृथ्वी पर आते-जाते रहे हैं. एरिक वॉन डेनिकेन 1971 में भारत में कोलकाता गए थे. वे अपनी 'एंशिएंट एलियंस थ्योरी' के लिए वैदिक संस्कृत में कुछ तलाशना चाहते
थे. डेनिकेन यहाँ के एक संस्कृत कालेज में गए. यहाँ उनकी मुलाकात इन्हीं प्रोफ़ेसर
दिलीप कंजीलाल से हुई थी. प्रोफ़ेसर ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का आधुनिकीकरण किया
है. देवताओं के विमान यात्रा वृतांत ने वोन को खासा आकर्षित किया. वोन ने माना कि
ये वैदिक विमान वाकई में नटबोल्ट से बने असली एयर क्राफ्ट थे. उन्हें हमारे
मंदिरों के आकार में भी विमान दिखाई दिए. उन्होंने जानने के लिए लम्बे समय तक शोध
किया कि भारत में मंदिरों का आकार विमान से क्यों मेल खाता है? उनके मुताबिक भारत
के पूर्व में कई ऐसे मंदिर हैं जिनमे आकाश में घटी खगोलीय घटनाओ का प्रभाव साफ़
दिखाई देता है. वॉन के मुताबिक ये खोज का विषय है कि आख़िरकार मंदिर के आकार की
कल्पना आई कहाँ से? इसके लिए विश्व के पहले मंदिर की खोज जरुरी हो जाती है और उसके
बाद ही पता चल पायेगा कि विमान के आकार की तरह मंदिरों के स्तूप या शिखर क्यों
बनाये गए थे? हम आज उसी उन्नत तकनीक की तलाश में जुटे हैं जो कभी भारत के पास हुआ
करती थी.
चूँकि यह लेख एक विस्तृत विषय पर है, इसलिए इसे दो भागों में पेश करने जा रहा हूँ... शेष दूसरे भाग में... जल्दी ही... नमस्कार.
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