फ़िल्म "मौसम" में लिखा हुआ उनका गीत "दिल ढूँढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन..." जितनी बार भी सुना, हमेशा मुझे एक नई दुनिया में ले गया है... यह गीत सुनकर लगता है कि फ़ुर्सत के पलों को यदि किसी ने मजे और शिद्दत से जिया है तो वे गुलजा़र ही हैं.... क्या गजब के बोल हैं और उतनी ही गजब की मदनमोहन साहब की धुन....। जब यूनुस खान साहब का रेडियोवाणी ब्लोग पढा, तो सोचा कि इस गीत के बारे में कुछ ना कुछ लिखना चाहिये...इस गीत की एक और खासियत भूपेन्द्र जी की आवाज है... तलत महमूद के बाद मुझे सबसे अधिक मखमली आवाज यही लगती है, आश्चर्य होता है कि कोई इतने मुलायम स्वरों में कैसे गा सकता है.... कहने का मतलब यही है कि गुलजार साहब की उम्दा शायरी, मदनमोहन का कर्णप्रिय संगीत, भूपेन्द्र की वादियों में गूँजती सी आवाज, परदे पर संजीवकुमार की गरिमामय उपस्थिति, सब के सब मिलकर इस गीत को बेहतरीन से बेहतरीन बनाते हैं...इस गीत में अखरने वाली बात सिर्फ़ यही है कि गुलजार साहब ने बारिश के दौरान फ़ुर्सत के पलों को कैसे जिया जाये यह उनके शब्दों में बयान नहीं किया है....शुरुआत होती है जाडो़ के मौसम से -
जाडों की नर्म धूप और
आँगन में लेटकर....
आँखों पे खींच कर तेरे आँचल के साये को
औन्धे पडे़ रहें कभी करवट लिये हुए...
क्या खूब कही है... यह अनुभव कोई भी आम आदमी कभी भी कर सकता है, किसी भी रविवार या छुट्टी के दिन जब वाकई जाडों की नर्म धूप हो... इस मंजर का मजा कुछ और ही है... साथ में चाय और पकौडे हों तो बात ही क्या, लेकिन पकौडे बनाने के लिये गई माशूका का आँचल फ़िर आँखों पर कैसे मिलेगा, इसलिये पकौडे कैन्सल...
फ़िर गुलजार साहब आते हैं गर्मियों की रातों पर और इस अनुभव को तो कई लोग आजमा चुके हैं...
या गर्मियों की रात जो
पुरवाईयाँ चलें....
ठंडी सफ़ेद चादरों पर
जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पडे हुए...
इस अनुभव में मात्र एक कमी है कि साथ में एक ट्रांजिस्टर हो जिसमें विविध भारती का छायागीत कार्यक्रम आ रहा हो, तो इस अनुभव में चार या छः चाँद और लग जायें....गौर करने वाली बात यह भी है कि इसमें गुलजार साहब ने "पुरवैया" हवाओं की बात कही है... जो नाम से ही शीतलता का अहसास दिलाती हैं....
अगला अंतरा आम आदमी के लिये नहीं है...(क्योंकि बर्फ़ीली सर्दियों में पहाड पर छुट्टी मनाने जाना यह किसी आम आदमी के बस की बात नहीं है) यह बात फ़िल्म में संजीव कुमार के लिये कही गई है....
बर्फ़ीली सर्दियों में
किसी भी पहाड पर...
वादी में गूँजती हुई
खामोशियाँ सुनें...
आँखों में भीगे-भीगे से लम्हे लिये हुए..
गुलजार साहब ने बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड पर जाने की बात कही है न कि किसी कमरे मे कम्बल के नीचे दुबक कर बैठ जाने की...क्या नवोन्मेषी विचार है... बर्फ़ीली सर्दियों में पहाडों की हसीन लेकिन गुमसुम वादियाँ क्या रोमाँटिक होंगी यह कल्पना ही की जा सकती है... यही तो है गुलजार साहब का "Orthodox" लेखन और चिन्तन जिसके हम जैसे लाखों मुरीद हैं..."मोरा गोरा अंग लई ले" से "बीडी जलई ले"... तक एक से बढकर एक तोहफ़े उन्होंने हमे दिये हैं.... और हम उनके आभारी हैं...
गुलजा़र : दिल ढूँढता है....
हिन्दी फ़िल्मों के गीतों और गीतकारों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और आगे भी लिखा जाता रहेगा । गुलजा़र एक ऐसे गीतकार हैं जिनके बारे में जितना भी लिखा जाये कम है ।
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