क्या गुजरात तीव्र औद्योगिकीकरण की सजा भुगतेगा?

Written by शुक्रवार, 21 सितम्बर 2007 18:47

Gujrat, Narmada, Pollution

मध्यप्रदेश के तीन विश्वविद्यालयों की एक संयुक्त शोध टीम ने अपने पिछले दो वर्षों के शोध में पाया है कि मध्यप्रदेश में बहने वाली नर्मदा नदी देश की सबसे साफ़ (या कहें कि सबसे कम प्रदूषित) नदी है। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए मोटे तौर पर बताना चाहूँगा कि, जल में प्रदूषण नापने की सबसे प्रमुख इकाई है बीओडी (BOD – Biological Oxygen Demand), जिसके कम या ज्यादा होने के स्तर द्वारा यह पता लगता है कि पानी किस हाल तक पहुँच चुका है, जितना कम बीओडी होगा जल उतना ही कम प्रदूषित होगा, और ठीक इसके विपरीत जितना अधिक बीओडी होगा, बैक्टीरिया, मछलियों, केकडों, कछुओं एवं अन्य जलजीवों का जीवन समाप्त होता जायेगा (जो कि नदी या किसी भी जलस्रोत को साफ़ रखने में महत्वपूर्ण होते हैं)और नदी प्रदूषित होगी।

इन विश्वविद्यालयों द्वारा जारी ताजा आँकडों के अनुसार नर्मदा जब तक मध्यप्रदेश में बहती है उसका बीओडी स्तर 2 से 5 मिलीग्राम प्रतिलीटर रहता है (जबकि बीओडी का मानक सुरक्षित स्तर केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड द्वारा 3 mg/l तय किया गया है)। अब नजर डालें देश की बाकी प्रमुख नदियों के बीओडी स्तर पर – गंगा (कानपुर में) 16 mg/l, यमुना (दिल्ली में) 35 mg/l, ताप्ती (अजनाल महाराष्ट्र में) 36 mg/l, खान (इन्दौर में) 60 mg/l, सतलज (लुधियाना में) 64 mg/l, अंत में सबसे महत्वपूर्ण और चिंताजनक आँकड़े, साबरमती (अहमदाबाद में) 380 mg/l, अमलवाड़ी (अंकलेश्वर में) 946 mg/l.... अब सोचिये जरा... कहाँ नर्मदा का बीओडी 5 mg/l और कहाँ साबरमती का 380 mg/l. क्या साबरमती में कोई जलचर जीवित रह सकता है, और अमलवाड़ी नदी की बात करना तो बेकार ही है, क्योंकि जब हम उज्जैनवासी इन्दौर से आने वाली “खान” नदी (?) को ही नाला कहते हैं, तो फ़िर गुजरात की इन नदियों की क्या हालत होगी।

शोध करने वाले वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि नर्मदा के तुलनात्मक रूप से साफ़ रह पाने के दो मुख्य कारण हैं, पहला मध्यप्रदेश में अभी भी नर्मदा किनारे वनक्षेत्र काफ़ी मात्रा में है, और दूसरा कि नर्मदा के किनारे बड़ी संख्या में उद्योग नहीं लगे हैं, जिनका अपशिष्ट नदी में मिलता है। इसी प्रकार मध्यप्रदेश में नर्मदा के किनारे जबलपुर को छोड़कर कोई बड़ा शहर नहीं है, जो गंदगी, कचरे और मल-मूत्र से नदी को गंदा करे, लेकिन जैसे ही यह नदी गुजरात में प्रवेश करती है, अंधाधुंध स्थापित किये गये उद्योगों द्वारा छोड़े गये केमिकल, सीवेज और विभिन्न “ट्रीटमेंट युक्त” पानी नदी में छोड़ने के कारण भरूच पहुँचते-पहुँचते यह नदी भयानक रूप से प्रदूषित हो जाती है। महानगर बनने की होड़ में लगे अहमदाबाद और औद्योगिक नगर अंकलेश्वर के आँकड़े भी बेहद चिंताजनक हैं। जिस तीव्र गति से गुजरात का औद्योगिकीकरण किया गया है, उस गति से प्रदूषण नियंत्रण के उपाय नहीं किये गये हैं। राज्यों और केन्द्र के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड मात्रा खानापूर्ति और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये हैं, और उद्योगपति कभी भी अपनी मर्जी से “ट्रीटमेंट प्लांट” नहीं लगाता है। लगाते भी हैं तो कागजी, और मौका मिलते ही फ़ैक्ट्री का गंदा पानी नदी में छोड़ने से बाज नहीं आते। सवाल यह है कि सरदार सरोवर और नर्मदा पर गाहे-बगाहे बाँहें चढ़ाने वाले गुजरात के भूजल प्रदूषण का क्या होगा? कई जल आधारित प्रजातियाँ समाप्ति की ओर अग्रसर हैं, कोई चिंता कर रहा है? गुजरात की नदियों का भविष्य क्या है?

मध्यप्रदेश में भी बेतवा नदी के किनारे लगे हुए “अल्कोहल प्लांट” और शराब के कारखाने आये दिन लाल-लाल पानी नदी में छोड़ते रहते हैं, और अखबारों में खबर छपती रहती है कि “प्रदूषण फ़ैल रहा है”, “मछलियाँ मर रही हैं”, “ग्रामीणों के यहाँ कुँए का पानी लाल हुआ” आदि-आदि, लेकिन “चांदी के जूते” के चलते होता-जाता कुछ नहीं। यदि छोटे स्तर पर देखें तो, इन्दौर से उज्जैन आने वाली खान नदी इन्दौर शहर के सीवेज और बीच के छोटे-बड़े कारखानों की गन्दगी को समेटे हुए उज्जैन में क्षिप्रा में आकर “त्रिवेणी” नामक धार्मिक (?) स्थान पर मिलती है, जहाँ सोमवती/शनीचरी अमावस्या, विभिन्न त्योहारों और मेलों के दौरान ग्रामीण/शहरी जनता “पुण्य” कमाने के लिये स्नान करती है। इसी को यदि बड़े स्तर पर देखा जाये तो यमुना को सबसे ज्यादा गन्दा करने वाले दिल्ली और आगरा से चलकर यह इलाहाबाद में “त्रिवेणी” पर गंगा को पवित्र (?) करती है। अब मुझे यह नहीं समझ रहा कि मध्यप्रदेश में उद्योगों की कमी के कारण स्वच्छ नर्मदा पर खुश होऊँ, या बेरोजगारी और विकास की दौड़ में पीछे रह जाने पर मध्यप्रदेश की दुर्दशा पर आँसू बहाऊँ?

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