देवभाषा संस्कृत के पतन का
कारण और नौकरशाही का रवैया...
संस्कृत को देवभाषा कहा जाता है. और इसे यह दर्जा यूँ
ही किसी के कहने भर से नहीं मिल गया है, बल्कि
भारतीय संस्कृति,
आध्यात्म, वास्तुकला
से लेकर तमाम धार्मिक आख्यान संस्कृत में रचे-लिखे और गत कई शताब्दियों से पढ़े गए
हैं,
मनन किए गए हैं. आज़ादी के समय से ही संस्कृत को पीछे
धकेलकर अंग्रेजी को बढ़ाने की साज़िश “प्रगतिशीलता” और “सेकुलरिज़्म” के नाम पर
होती आई है. कुतर्कियों का तर्क है कि यह भाषा ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है तथा
यह सिर्फ आर्यों की भाषा है. ये बात और है कि संस्कृत भाषा में उपलब्ध ज्ञान को
चीन से आए हुए विद्वानों ने भी पहचाना और जर्मनी के मैक्समुलर ने भी. इसीलिए
तत्कालीन नालन्दा और तक्षशिला के विराट पुस्तकालयों से संस्कृत भाषा के कई
महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ चीनी यात्री घोड़ों पर लादकर चीन ले गए और उनका मंदारिन भाषा
में अनुवाद किया. अधिक दूर जाने जरूरत नहीं है, 1940 तक जर्मनी
सहित कई यूरोपीय देशों के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में एक संस्कृत विभाग अवश्य
होता था,
आज भी कई विश्वविद्यालयों में है. कथित प्रगतिशीलों
के कुतर्क को भोथरा करने के लिए एक तथ्य ही पर्याप्त है कि जब भारत के संविधान की
रचना हो रही थे,
उस समय सिर्फ दो लोगों ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा के
रूप में मान्यता देने का प्रस्ताव रखा था, और वे थे
डॉ भीमराव अम्बेडकर तथा ताजुद्दीन अहमद, हालाँकि
बाद में इस प्रस्ताव को नेहरू जी ने “अज्ञात
कारणों” से खारिज
करवा दिया था.
संक्षेप में की गई इस प्रस्तावना का अर्थ सिर्फ इतना
है कि जिस भाषा का लोहा समूचा विश्व आज भी मानता है, उसी
देवभाषा संस्कृत को बर्बाद करने और उसकी शिक्षा को उच्च स्थान दिलाने के लिए हमारी
सरकारें कितनी गंभीर हैं यह इसी बात से स्पष्ट है कि भारत देश में संस्कृत भाषा के
उत्थान एवं शिक्षण हेतु स्थापित केन्द्रीय अभिकरण एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत
सरकार से सीधे सम्बद्ध, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान
(वेबसाईट–www.sanskrit.nic.in) की स्थिति आज अत्यन्त दयनीय
एवं करुणापूर्ण है.
हिन्दी की एक लोकोक्ति "आगे नाथ न पीछे
पगहा" यहाँ पूर्णतः चरितार्थ हो रही है | विश्व
के सबसे बडे संस्कृत विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित, इस विश्वविद्यालय में न ही
कोई स्थायी कुलपति है, और
न ही समग्र रूप से स्थायी प्राध्यापक हैं|
इसके बावजूद इस संस्थान के
छात्र छात्रायें बडी ही विनम्रता, सरलता, धीरता, के
साथ कोई आपत्ति उठाये बिना यहाँ अध्ययन कर रहे हैं| क्या भारत में संस्कृत भाषा
का एक भी योग्य विद्वान नहीं है, जिसे इस
राष्ट्रीय स्तर के संस्कृत संस्थान का कुलपति बनाया जा सके? जब
संस्कृत की ऐसी प्रमुख संस्था का ये हाल है, तो सोचिये संस्कृत की अन्य
छोटी छोटी संस्थाओं की क्या हालत होगी?
इस सन्दर्भ में मुझे एक बात यह समझ नहीं आती, कि
संस्कृत के बडे बडे प्रकाण्ड पण्डित इस विषय में मौन क्यों हैं ? क्या राष्ट्रपति पुरस्कार, बादरायण
पुरस्कार, कालिदास
पुरस्कार, व्यास
पुरस्कार, ज्ञानपीठ
पुरस्कार, इत्यादि
पुरस्कारों को प्राप्त करने के बाद इन प्रकाण्ड पण्डितों का संस्कृत के प्रति कोई
कर्तव्य शेष नहीं रह जाता? ये विद्वान अपनी आवाज़ बुलंद
क्यों नहीं करते?
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा हिन्दी को बढ़ावा देने तथा भारतीय
संस्कृति के प्रति उनके रुझान को देखते हुए आशा बंधी थी, कि शायद इस मामले में कुछ
विशिष्ट प्रगति हो,
लेकिन वर्तमान सरकार भी आडम्बर में व्यस्त है| संस्कृत
भाषा के विकास का दिखावा करने के लिए वह लाखों रुपयों के भव्य आयोजन कर सकती है, संस्कृत
सप्ताह तो मना सकती है, नालन्दा और तक्षशिला को
पुनर्जीवित करने के नाम पर करोड़ों रूपए अनुदान तत्काल दिया जा सकता है, परन्तु संस्कृत के अध्यापकों
को देने के लिए इस सरकार के पास रुपयों का नितान्त अभाव है?
ऐसा
कैसे?
क्या नौकरशाही अभी भी इतनी मजबूत है कि वह अपनी
मनमर्जी चला सके?
राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के अलावा अन्य संस्कृत विश्वविद्यालयों की भी लगभग यही स्थिति है. इस सूची में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय आदि. संस्कृत के अधिकांश संस्थानों में ऐसे-ऐसे लोग काबिज हैं, जिनका संस्कृत से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. जिस समय श्री राधावल्लभ त्रिपाठी यहाँ कुलपति थे तब यह संस्थान नई ऊँचाई को छू रहा था, किन्तु अब धीरे-धीरे दुरावस्था की तरफ बढ़ रहा है. संस्कृत जगत के सभी दिग्गज मूक होकर संस्कृत के पतन का तमाशा देख रहे है। नाम न छापने की शर्त पर एक “तदर्थ” शिक्षक कहते हैं, “राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में विगत सात वर्षो से अपनी सेवाएँ देने के बाद भी यदि हमे अपने भविष्य को लेकर चिंतित होना पड़ेगा तो में यही कहूँगा कि संस्कृत पढने और संस्कृत संस्थानों में पढ़ाने का कोई लाभ नहीं है... अपील करता हूँ सभी संस्कृत के विद्यार्थियों से की वे संस्कृत पढना छोड कर कोई और विषय पढ़ें..” ऐसे तमाम शिक्षकों का कोई रखवाला नही है। कई शिक्षक दस-दस साल से संस्थान में कार्यरत हैं और सेवा दे रहे हैं, परन्तु 3 महीने का तदर्थ टेम्पररी कॉन्ट्रेक्ट देकर व मनमाने इंटरव्यू ले लेकर नियुक्तियाँ होती है. सत्र प्रारंभ होने के दो-दो माह तक शिक्षक की नियुक्तियां नहीं, कर्मचारियों का भविष्य अधर में है। इसके अलावा एक नया “तुगलकी फरमान” जारी किया है की केवल सेवानिवृत्त रिटायर्ड लोगों की नियुक्ति ही की जाए, क्योंकि शायद सेवानिवृत्त शिक्षक अपनी पुनर्नियुक्ति को “बोनस” ही मानता है और प्रबंधन अथवा प्रशासन के खिलाफ कोई शिकायत नहीं करता. लेकिन उन युवा शिक्षकों अथवा अधेड़ आयु के कर्मचारियों का क्या, जिनके सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है?
एक और मजेदार बात... सारी दुनिया कंप्यूटर युग में
है. कई शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि संस्कृत भाषा कंप्यूटर प्रोग्रामिंग तथा
एप्लीकेशंस के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. लेकिन यहाँ आलम यह
है कि संस्कृत विषयों के साथ हमेशा से ही पढाये जा
रहे कंप्यूटर विषय जिसकी आधुनिक तकनीकी युग में सभी छात्रों के लिए नितांत
आवश्यकता है, संस्कृत
संरक्षण व सह-शैक्षणिक गतिविधियों में कंप्यूटर शिक्षकों तथा कर्मचारियों का बहुत
महत्वपूर्ण योगदान है, NAAC तथा UGC की निरीक्षण
समिति ने भी जहाँ आधुनिक विषयों में कंप्यूटर को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया था
वहीं विद्वान रजिस्ट्रार महोदय द्वारा कंप्यूटर विषय को पूर्णतः समाप्त करके
संस्कृत क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने का अदभुत षडयंत्र किया है।
एक विडंबना देखिये कि जहाँ एक तरफ हम संस्कृत को
बचाने और बढ़ाने के लिए झगड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ
ईरान के दिल्ली स्थित सांस्कृतिक केन्द्र के बाहर ईरान की तरफ से संस्कृत में बैनर
लगाया जाता है...
मानव संसाधन विकास मन्त्रालय, भारत सरकार के
अधीन राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) जिसकी कुलाध्यक्ष
(प्रेसिडेंट) मानव संसाधन विकास मंत्री माननीय श्रीमती स्मृति जुबिन ईरानी हैं
विश्व में संस्कृत शिक्षण का सर्वाधिक बड़ा विश्वविद्यालय है | भारत में इसके 10 परिसर हैं तथा
अनेकों आदर्श संस्कृत महाविद्यालय इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत चलते हैं| वर्तमान में यह सरकार की अनदेखी व दुर्नीतियों के
कारण अनेकों परेशानियों से जूझ रहा है.
इस विश्वविद्यालय की चंद प्रमुख समस्याएँ संक्षेप में
निम्नलिखित हैं -
1. विश्व के सबसे बड़े संस्कृत
विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जो कि NAAC एवं UGC से ‘A’ श्रेणी
प्राप्त है में समग्र रूप से स्थाई प्राध्यापकों की भारी कमी है, और तो और लगभग एक वर्ष से स्थाई कुलपति की नियुक्ति
भी नहीं हुई है|
2. कुलपति की अनुपस्थिति में
संस्थान के फैसले रजिस्ट्रार के द्वारा लिए जा रहे हैं जबकि वर्तमान रजिस्ट्रार (कुलसचिव) का संस्कृत जगत से दूर दूर तक
कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है, यह इसी तरह है
की कोई पराया आदमी आकर किसी के घर के फैसले करने लगे|
3. संस्कृत के संरक्षण एवं
प्रचार हेतु पहले से ही चल रहे कई प्रोजेक्ट तथा अनुसन्धान कार्य बिना किसी कारण
के अचानक ही बंद करा दिए गये हैं जिससे संस्कृत संरक्षण कार्यों की क्षति हुई है व
इनसे जुड़े कितने ही कर्मचारियों की नौकरियां ख़त्म हो गयी हैं |
4. प्रबल व प्रामाणिक
साक्षात्कारों में एक से अधिक बार उत्तीर्ण हो कर एवं यू.जी.सी. की सम्पूर्ण
योग्यताओं के साथ आठ से बारह वर्षों से संस्थान को अपनी उत्कृष्ट सेवाएँ दे रहे
विभिन्न विषयों के संविदागत व अतिथि अध्यापकों की इस बार मात्र तीन महीने की ही
नियुक्ति दी गई जो पूर्व में 11 महीने की दी जाती थी| इसके साथ ही
विगत कई वर्षों से ये शिक्षक अपने-अपने विषयों का अध्यापन एवं स्वकार्यों, उत्तरदायित्वों का समुचित ढंग से निर्वहन कर रहे हैं
। जिसकी पुष्टि प्रत्येक परिसर के उत्कृष्ट परीक्षा परिणामों से की जा सकती है।
5. 8 से 12 वर्षों का
अनुभव रखने वाले इन अध्यापको का सत्र के मध्य में पुनः साक्षात्कार लिया जाएगा
जिससे उनका भविष्य इतने वर्षों की उत्कृष्ट सेवा देने के बाद भी आशंकित है व घोर
मानसिक तनाव झेल रहे हैं|
6. सत्र प्रारंभ होने के 2-2 महीनो बाद तक
शिक्षकों की नियुक्ति न होने के कारण पढ़ाई का नुकसान झेल चुके छात्रों को फिर से
पढ़ाई का नुकसान झेलना पड़ेगा क्योंकि शिक्षकों का 3 महीनों का अनुबंध सत्र के बीच ही ख़त्म हो जाएगा|
7. रजिस्ट्रार (कुलसचिव) का यह
आदेश अत्यंत हास्यास्पद और गंभीर था की संविदागत शिक्षक पदों पर सेवानिवृत्त लोगों
की ही नियुक्ति की जाए, ज़ाहिर है कि यह बेरोजगारी को बढ़ावा देने
वाला कदम है|
8. अनुबंध पर लगे शिक्षको में
वेतन को लेकर भी भारी विसंगतियाँ हैं| समान योग्यता, कार्य एवं समय होते हुए भी व पूर्व में जो सभी
कर्मचारी समान वेतन पा रहे थे अब उनमें से कुछ को बहुत कम व कुछ को अधिक वेतन दिया
जा रहा है| जहाँ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी हर क्षेत्र
में तकनीकी शिक्षा के प्रबल हिमायती हैं वहीँ यहाँ तकनीकी कर्मचारियों के साथ
पूर्णतः सौतेला व्यवहार किया जा रहा है|
देश के लाखों संस्कृत प्रेमियों तथा इस क्षेत्र से
जुड़े विद्वानों की यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि अब स्वयं माननीय मंत्री श्रीमती
स्मृति ईरानी इस तरफ विशेष ध्यान देंगी, ताकि
संस्कृत भाषा के साथ जैसा बर्ताव और जैसी उसकी अवस्था की जा रही है, उस पर न सिर्फ रोक लगे, बल्कि संस्कृत शिक्षण का
प्राचीन वैभव पुनः स्थापित किया जा सके.
नोट
:- सबसे अंत में सबसे विशेष –
इस विश्वविद्यालय के कुलसचिव के बारे में खास बात
डॉ. बिनोद कुमार सिंह कुलसचिव राष्ट्रिय
संस्कृत संस्थान नई दिल्ली - ये साहब 1992 से 1998 तक बंगलौर में सरकारी सेवा में रहे... इसी
बीच 1995 में
इन्होंने भोपाल के रवीन्द्र महाविद्यालय से नियमित छात्र के रूप में एलएलबी की परीक्षा
पास की, तथा 1995 में
ही राजस्थान के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय से पीएच.डी. (सामाजिक विज्ञान) की
उपाधि प्राप्त की. स्थायी कुलपति के अभाव में संस्कृत से जुड़े मामलों पर सारे
अधिकार गैर-संस्कृत वाले सज्जन के पास... आखिर क्यों?
दूसरी बात यह कि ऐसा पता चला है कि सिंह साहब की डिग्रीयों के फर्जी होने
का मामला भी अदालत में लम्बित है... बताया जाता है कि विश्वविद्यालय का लगभग समूचा
स्टाफ इनकी कार्यशैली से नाराज चल रहा है. बहरहाल, यदि “व्यक्तिवाद”
को थोड़ी देर दरकिनार भी कर दें, तब भी संस्कृत भाषा के साथ जैसा सौतेला व्यवहार
फिलहाल चल रहा है, उसमें तत्काल प्रभाव से सुधार की आवश्यकता है...
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