व्यवसाय की गलाकाट प्रतियोगिता ने विज्ञापनों का होना आवश्यक कर दिया है, और कम्पनियाँ, गैर-सरकारी संगठन और यहाँ तक कि सरकारें भी बगैर विज्ञापन के नहीं चल सकते । लेकिन इस आपाधापी में तमाम पक्ष एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं, वह है विज्ञापनों में नैतिकता का लोप, अश्लीलता, छिछोरेपन और उद्दण्डता का बढता स्तर । एक मामूली सा उदाहरण - दस वर्षीय एक बालक ने अपने साथ क्रिकेट देख रहे माता-पिता से पूछा - पापा कंडोम क्या होता है ? मम्मी-पापा एक दूसरे का मुँह देखने के अलावा क्या कर सकते थे... बच्चे ने यह सवाल क्यों पूछा, क्योंकि मैच के दौरान राहुल द्रविड और वीरेन्द्र सहवाग जनता को हेल्मेट और पैड पहनकर यह सन्देश देते हैं कि "एड्स से बचाव ही सर्वोत्तम उपाय है", सन्देश सही है लेकिन उसका सम्प्रेषण गलत समय और गलत तरीके से होता है, बच्चे को तो यही लगता है कि राहुल द्रविड या सहवाग जरूर किसी क्रिकेट की वस्तु का विज्ञापन कर रहे होंगे, और हेलमेट और पैड पहनने के बाद कंडोम भी पहनना जरूरी है, और वह सहजता से अपना सवाल पूछता है, इसमें गलती किस की है, जाहिर है विज्ञापन बनाने वाले और उसे प्रसारित करने वाले दोनों की । जब कंडोम के विज्ञापन मैच के बीच में आयेंगे, तो यही समझा जायेगा कि यह सभी आयु वर्ग के लोगों के उपयोग की वस्तु है, जैसे कि चॉकलेट, साबुन या कोक । सारा परिवार साथ बैठकर एक सीरियल देख रहा है, अचानक एक "सेनेटरी नैपकिन" का विज्ञापन आता है, जिसमें एक आकर्षक युवती उसके गुणों के बारे में "विस्तार" से बताती है, अब नर्सरी अथवा प्रायमरी में पढने वाले बच्चे को उसके बारे में आप क्या समझायेंगे ? उस बच्चे को तो एक ही नैपकिन मालूम है, जिससे नाक पोंछी जाती है, यदि उसने टीवी वाला नैपकिन लाने की जिद पकड ली तो आप क्या करेंगे ? तात्पर्य यह कि न तो विज्ञापन कंपनियों, न ही टीवी चैनलों और ना ही सरकार को इस बात की समझ है कि जिस विज्ञापन को वे दिखा रहे हैं, उस विज्ञापन का "टारगेट ऑडियन्स" क्या है ? कहीं विज्ञापन फ़ूहड तो नहीं (फ़ूहड और अश्लील तो कोई विज्ञापन होता ही नहीं ऐसा सभी कम्पनियाँ मानती हैं) ? उस विज्ञापन का समाज और दर्शक वर्ग पर क्या और कैसा असर हो रहा है, इस बात की चिन्ता भी किसी को नहीं होती । तथाकथित ऎड-गुरु और मैनेजमेंट के दिग्गज हमें यदाकदा ज्ञान बाँटते रहते हैं कि विज्ञापन तभी अधिक प्रभावी और शक्तिशाली होता है, जब वह सही समय और सही दर्शक या श्रोता तक पहुँचे । जैसे गाँव में मर्सिडीज का विज्ञापन करना बेकार है और एयरपोर्ट पर खाद-बीज का... फ़िर कंडोम, सेनेटरी नैपकिन, महिलाओं-पुरुषों के अन्तर्वस्त्रों के विज्ञापन के लिये क्रिकेट मैच क्यों ? क्या इसलिये कि दर्शक संख्या ज्यादा है, लेकिन इसके दुष्प्रभावों के बारे में क्या ? सरकार अपनी ओर से यदि कोई कदम उठाये तो महेश भट्ट नुमा "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्षधर" लोगों की आजादी खतरे में पड़ जाती है, या प्रीतीश नन्दी टाईप कोई बुद्धिजीवी पानी पी-पीकर सरकार को कोसने लगता है, फ़िर इसका इलाज कैसे हो ? क्या विज्ञापन एजेंसियों और मीडिया को स्व-अनुशासन नहीं रखना चाहिये ? इसका सर्वमान्य और लोकतांत्रिक हल यही हो सकता है कि मीडिया, विज्ञापन जगत की हस्तियाँ और प्रेस काऊंसिल के लोग साथ बैठें और तय करें कि "एडल्ट" विज्ञापन क्या हैं, और उनके प्रसारण का समय और कार्यक्रम क्या-क्या होने चाहिये, ताकि परिवार के साथ बैठकर टीवी देखने वालों को असुविधा का सामना ना करना पडे़, क्योंकि बच्चों का कोई ठिकाना नहीं, पता नहीं कब, क्या पूछ बैठें ? और हर व्यक्ति महेश भट्ट भी नहीं बन सकता । एक मजेदार उदाहरण याद आ रहा है - एक डिटर्जेण्ट बनाने वाली कम्पनी का विज्ञापन सऊदी अरब में करने का ठेका एक विज्ञापन एजेन्सी को दिया गया, लेकिन दस दिनों में ही वहाँ कम्पनी की सेल में भारी गिरावट दर्ज की गई, कारणों का पता करने पर यह बात सामने आई कि भारत की तरह ही विज्ञापन एजेन्सी ने सऊदी अरब में भी तीन पोस्टरों वाला "ऐड-केम्पेन" किया था, जिसमें पहले पोस्टर में एक चमकती हुई महिला मुस्कराते हुए एक गन्दा शर्ट दिखाती है, दूसरे पोस्टर में वह उसे डिटर्जेण्ट की बालटी में डालते हुए दिखती है, और तीसरे पोस्टर में वह सफ़ेद शर्ट निकालती है...दिक्कत यह थी कि सऊदी अरब में जैसा कि उर्दू पढते हैं (दाँये से बाँई ओर) वैसा जनता ने पढा और मतलब निकाला कि सफ़ेद शर्ट को इसमें डालने पर यह गन्दा हो जाता है..मतलब यह कि विज्ञापन कहाँ, कैसा और किसके बीच किया जा रहा है, इसका ध्यान रखना बहुत जरूरी है...तो उम्मीद करता हूँ कि विज्ञापन जगत के कुछ लोग मेरे इस ब्लोग को पढेंगे और "ऊ...प्पर" तक मेरी बात पहुँचायेंगे, ताकि भौण्डे विज्ञापनों पर अंकुश लग सके । कहीं यह ब्लोग ज्यादा भारी ना हो जाये इसलिये अब कुछ मजेदार (?) विज्ञापन भी देख लें ...
एक विज्ञापन में "कोक" हमसे कह रहा है कि जमीन का सारा पानी तो हमने ले लिया, अब आप लोग कोक पियो और मजे में जियो....
दूसरे विज्ञापन में नीम की दातून की जगह "कोलगेट" उपयोग करो तो ऐसे दिखोगे....
"नाईकी" के आदेश को मानते हुए बच्चा वही कर रहा है, जो उसे कहा गया है... यानी "जस्ट डू इट"...
इन पर कोई लगाम है या नहीं??
विज्ञापनों पर सेंसर / आचार संहिता क्यों नहीं ?
Written by Suresh Chiplunkar गुरुवार, 10 मई 2007 12:56आजकल जमाना मीडिया और विज्ञापन का है, चाहे वह प्रिंट मीडिया हो अथवा इलेक्ट्रानिक मीडिया, चहुँओर विज्ञापनों की धूम है (TV Commercials in India)। इन विज्ञापनों ने सभी आय वर्गों के जीवन में अच्छा हो या बुरा, आमूलचूल परिवर्तन जरूर किया है । कई विज्ञापन ऐसे हैं जो बच्चों के अलावा बडों कि जुबान पा भी आ जाते हैं । शोध से यह ज्ञात हुआ है कि विज्ञापनों से बच्चे ही सर्वाधिक प्रभावित होते हैं, उसके बाद टीनएजर्स और फ़िर युवा ।
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