क्या वोटिंग मशीनों का “चावला-करण” किया जा सकता है? Electronic Voting Machines Fraud Rigging in Elections
Written by Super User मंगलवार, 26 मई 2009 12:13
अमेरिका के एक रिटायर्ड प्रोफ़ेसर साईंनाथ ने यह दावा किया है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों से छेड़छाड़ करके उनके द्वारा धोख़ाधड़ी की जा सकती है। श्री साईंनाथ ने सन् 2004 के चुनावों के दौरान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता को लेकर एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई थी, उन्हें शक था कि शायद NDA लोकसभा चुनावों में इन मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर धांधली कर सकता है। हालांकि कांग्रेस के चुनाव जीतने की दशा में उन्होंने अपना केस वापस ले लिया था। साईनाथ ने अमेरिका में सम्पन्न हुए चुनावों में भी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी कैसे की जा सकती है इसका प्रदर्शन किया था।
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों मे गड़बड़ी करना एक “बच्चों का खेल” है, यह बताते हुए प्रोफ़ेसर साईनाथ कहते हैं (रिपोर्ट यहाँ देखें http://www.indianexpress.com/oldStory/45296/) कि EVM (Electronic Voting Machines) को नियन्त्रित करने वाली कम्प्यूटर चिप को एक विशिष्ट तरीके से प्रोग्राम करके इस प्रकार से सेट किया जा सकता है कि उस मशीन में पड़ने वाले वोटों का एक निश्चित प्रतिशत एक पूर्व-निर्धारित उम्मीदवार के खाते में ही जाये, चाहे कोई भी बटन दबाया गया हो। इस प्रकार की और भी गड़बड़ियाँ मशीन में पैदा की जा सकती हैं। मशीनों में की गई इस प्रकार की छेड़छाड़ को पकड़ना आसान नहीं होता, पार्टियों के “लगभग अनपढ़” चुनाव एजेण्टों के लिये तो बिलकुल भी नहीं। उल्लेखनीय है कि EVM उम्मीदवारों के क्रमवार नम्बर के आधार पर वोटिंग की गणना करती है। नामांकन हो चुकने के बाद यह तय होता कि किस क्षेत्र की मशीन में किस पार्टी के किस उम्मीदवार का नाम कौन से क्रम पर रहेगा। प्रोफ़ेसर साईनाथ के अनुसार नाम वापसी के बाद दो सप्ताह का समय बीच में होता है, इस बीच में मशीनों में कम्प्यूटर चिप की जगह “Pre-Coded Malicious” चिप स्थापित की जा सकती हैं, अथवा सम्भव हुआ तो पूरी की पूरी मशीन भी नकली स्थापित की जा सकती है और यह निश्चित किया जा सकता है कि कौन सी मशीन किस इलाके में जायेगी।
(श्री साईनाथ 1964 की बैच के आईआईटी इंजीनियर हैं, फ़िलहाल अमेरिका में कम्प्यूटर साइंस के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं, और “Better Democracy Forum” नाम की संस्था के अध्यक्ष भी हैं)।
इस प्रक्रिया में चुनाव अधिकारी (जो कि अधिकतर सत्ताधारी पार्टी के इशारों पर ही नाचते हैं) की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे में एक गम्भीर सवाल उठता है कि क्या इन मशीनों का “चावलाईकरण” किया जा सकता है? “चावलाईकरण” की उपमा इसलिये, क्योंकि चुनावों में धांधली का कांग्रेस का इतिहास बहुत पुराना है। ऊपर से इस पार्टी को नवीन चावला जैसे “स्वामीभक्त” चुनाव आयुक्त भी प्राप्त होते रहे हैं (इसका एक और सबूत, मान्य संवैधानिक परम्पराओं के विपरीत, सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद पूर्व चुनाव आयुक्त एम एस गिल को मंत्रीपद की रेवड़ी दिया जाना भी है)।
शिवसेना ने चुनाव आयोग को इन वोटिंग मशीनों द्वारा धांधली किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए इनकी जाँच की माँग करते हुए लिखित में शिकायत की है, जिसमें बताया गया है कि दक्षिण मुम्बई से शिवसेना के लोकप्रिय उम्मीदवार मोहन रावले को कई वोटिंग मशीनों पर शक है, क्योंकि उन्हें शिवसेना के कुछ मजबूत माने जाने वाले इलाकों में से कई मशीनों में 5 या 7 वोट ही मिले (क्या मोहन रावले अचानक अपने ही गढ़ में इतने अलोकप्रिय हो गये?)। रावले ने आगे बताया कि अमेरिका और इंडोनेशिया में भी इन मशीनों के “ठीक से काम न करने” की वजह से इन्हें चुनाव प्रक्रिया से हटा लिया गया था।
अब नज़र डालते हैं हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों पर – पूरे देश में (जहाँ भाजपा का शासन था उन राज्यों को छोड़कर) लगभग सारे नतीजे कुछ इस प्रकार से आये हैं कि जो भी पार्टी कांग्रेस के लिये “सिरदर्द” साबित हो सकती थी या पिछली सरकार में सिरदर्द थी, उनका या तो सफ़ाया हो गया अथवा वे पार्टियाँ लगभग निष्क्रिय अवस्था में पहुँच गईं, उदाहरण के तौर पर – वामपंथियों की सीटें 50% कम हो गईं, मायावती भी लगभग 50% नीचे पहुँच गईं (जबकि सभी सर्वे, चैनल और विशेषज्ञ उनसे बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रहे थे), जयललिता भी कुछ खास नहीं कर पाईं और तमिल भावनाओं के उफ़ान और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद डीएमके को अच्छी खासी सीटें मिल गईं, लालू-पासवान का सफ़ाया हो गया, आंध्र में चिरंजीवी से खासी उम्मीद लगाये बैठे थे, वे भी कुछ खास न कर सके। जबकि दूसरी तरफ़ आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया, उत्तरप्रदेश में (कांग्रेस की) आशा के विपरीत भारी सफ़लता मिली, उड़ीसा में नवीन पटनायक को अकेले दम पर बहुमत मिल गया। जबकि कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस उतना अच्छा नहीं कर पाई, ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं कि खामख्वाह बाल की खाल निकाली जा रहा है, भारत और विश्व के अन्य हिस्सों में भी ताज़ा लोकसभा चुनाव नतीजों को लेकर संशय बना हुआ है, इसका सबूत गूगल की सर्च रिपोर्ट से देखा जा सकता है, जहाँ कि जनता ने ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की आशंका और इनकी विश्वसनीयता को लेकर विभिन्न सर्च किये हैं… यहाँ देखें
http://www.google.com/trends?q=electronic+voting+machine&ctab=398065024&geo=all&date=all
इसी प्रकार अमेरिका के कुछ कम्प्यूटर इंजीनियरों द्वारा फ़्लोरिडा के गवर्नर चुनावों के बाद ई-वोटिंग मशीनों की संदिग्धता के बारे में एक रिपोर्ट की पीडीएफ़ फ़ाइल भी यहाँ देखें…
http://www.computer.org/portal/cms_docs_computer/computer/homepage/May09/r5pra.pdf
तात्पर्य यह कि यदि भारत का मतदाता वाकई में इतना समझदार, परिपक्व और “स्थिरता”(?) के प्रति सम्मोहित हो गया है तब तो यह लोकतन्त्र के लिये अच्छी बात है, लेकिन यदि जैसा कि अभी भी कई लोगों को शक हो रहा है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी की गई है, तब तो स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण कही जायेगी। हालांकि अभी इस बात के कोई प्रमाण मौजूद नहीं हैं, लेकिन शक के आधार पर इन मशीनों की जाँच हेतु एक दल या आयोग बनाये जाने की आवश्यकता है, कि जब अमेरिका में भी इन मशीनों को “संदिग्ध” पाया गया है तो भारत में भी इसकी विश्वसनीयता की “फ़ुलप्रूफ़” जाँच होनी ही चाहिये। सोचिये, कि अभी तो यह सिर्फ़ शक ही है, कोई सबूत नहीं… लेकिन यदि कहीं कोई सबूत मिल गया तो 60 साल पुराने लोकतन्त्र का क्या होगा?
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शिवसेना ने चुनाव आयोग को इन वोटिंग मशीनों द्वारा धांधली किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए इनकी जाँच की माँग करते हुए लिखित में शिकायत की है, जिसमें बताया गया है कि दक्षिण मुम्बई से शिवसेना के लोकप्रिय उम्मीदवार मोहन रावले को कई वोटिंग मशीनों पर शक है, क्योंकि उन्हें शिवसेना के कुछ मजबूत माने जाने वाले इलाकों में से कई मशीनों में 5 या 7 वोट ही मिले (क्या मोहन रावले अचानक अपने ही गढ़ में इतने अलोकप्रिय हो गये?)। रावले ने आगे बताया कि अमेरिका और इंडोनेशिया में भी इन मशीनों के “ठीक से काम न करने” की वजह से इन्हें चुनाव प्रक्रिया से हटा लिया गया था।
अब नज़र डालते हैं हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों पर – पूरे देश में (जहाँ भाजपा का शासन था उन राज्यों को छोड़कर) लगभग सारे नतीजे कुछ इस प्रकार से आये हैं कि जो भी पार्टी कांग्रेस के लिये “सिरदर्द” साबित हो सकती थी या पिछली सरकार में सिरदर्द थी, उनका या तो सफ़ाया हो गया अथवा वे पार्टियाँ लगभग निष्क्रिय अवस्था में पहुँच गईं, उदाहरण के तौर पर – वामपंथियों की सीटें 50% कम हो गईं, मायावती भी लगभग 50% नीचे पहुँच गईं (जबकि सभी सर्वे, चैनल और विशेषज्ञ उनसे बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रहे थे), जयललिता भी कुछ खास नहीं कर पाईं और तमिल भावनाओं के उफ़ान और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद डीएमके को अच्छी खासी सीटें मिल गईं, लालू-पासवान का सफ़ाया हो गया, आंध्र में चिरंजीवी से खासी उम्मीद लगाये बैठे थे, वे भी कुछ खास न कर सके। जबकि दूसरी तरफ़ आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया, उत्तरप्रदेश में (कांग्रेस की) आशा के विपरीत भारी सफ़लता मिली, उड़ीसा में नवीन पटनायक को अकेले दम पर बहुमत मिल गया। जबकि कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस उतना अच्छा नहीं कर पाई, ऐसा क्यों?
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