Eclipse of Sun and Moon (World Water Day)

Written by बुधवार, 21 मार्च 2007 20:34
सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण और मान्यतायें (जल दिवस पर) 


अभी-अभी गत दिनों चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों आगे-पीछे ही पडे़ । उज्जैन में चूँकि धर्म का एक विशेष स्थान है और यह धार्मिक नगरी कहलाती है, इसलिये यहाँ के स्थानीय अखबारों और पंडे-पुजारियों से लेकर प्रशासन तक में एक बहस हुई, "शहर को जलप्रदाय किस समय किया जाये ?" भाई लोगों ने तमाम अखबार रंग डाले, हर ऐरे-गैरे का इंटरव्यू भी ले लिया...

उसके पीछे का मंतव्य था कि चूँकि लोगों में यह मान्यता है कि ग्रहण के समय पानी नहीं पीना चाहिये ना ही भरना चाहिये, अब ग्रहण सुबह ६.०० बजे से ८.४० तक था, तो क्या पानी का सप्लाय उसके बाद किया जाये, या ६.०० बजे के पहले ही जलप्रदाय कर दिया जाये ? खेद की बात तो यह है कि जिस बात की आज तक कोई वैज्ञानिकता सिद्ध नहीं हुई (हुई हो तो कृपया मुझे लिंक भेजें) कि क्या वाकई ग्रहण के समय पानी में कोई खराबी आ जाती है ? और यदि आ जाती है तो क्या और कैसी खराबी आती है ? क्या इस पर कोई शोध हुआ है ?

मैं अवश्य ही जानना चाहूँगा.... ग्रहण के समय रखे हुए पानी के pH, BOD, COD, bacteria आदि के आँकडे यदि किसी के पास हों तो जरूर भेजें, कुछ प्रश्न सदा ही अनुत्तरित रहे हैं - जैसे :

१. क्या घरों मे रखा हुआ पानी ही ग्रहण के समय अशुद्ध हो जाता है ?
२. क्या सिर्फ़ पीने का पानी ही अशुद्ध होता है, या आम उपयोग वाला भी ?
३. यदि ग्रहण के दौरान पानी अशुद्ध ही हो जाता है तो फ़िर जिस बाँध से पानी आ रहा है, उसका पानी साफ़ क्यों रह पाता है ? और जिस पाईप लाईन से पानी आ रहा है और उसमें जो पानी बचा हुआ है क्या वह अशुद्ध नहीं होता ?
४. दूध वाला, ग्रहण के दौरान ही दूध लेकर आया, फ़िर सभी ने उससे दूध क्यों लिया ? क्या दूधवाले ने उस दिन पानी नहीं मिलाया होगा ?
५. रात को होटलों में जो पानी जमा था, अगले दिन सुबह लाखों लोगों ने वही पानी पिया होगा, उसका क्या ?
६. करोडों कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलें जो ग्रहण के दौरान खुले में रखी होंगी, क्या वे भी अशुद्ध हो गईं ?
आप लोगों को यकीन करना होगा कि.... ग्रहण के बाद जब नल आये तो हजारों लोगों ने घरों में रखा फ़ेंक दिया, और फ़िर बरतन धोकर नया पानी भरा, मतलब लाखों लीटर पानी ग्रहण की भेंट चढ़ गया...

मैं जानता हूँ कि राजस्थान के कई लोगों के दिल पर यह पढकर क्या गुजरी होगी, क्योंकि पानी का मोल सबसे ज्यादा वे ही जानते हैं । मजे की बात तो यह है कि सन २००४ में उज्जैन में भी ऐसा भीषण जल संकट आया था कि लोग अभी भी सोचकर काँप उठते हैं, लेकिन फ़िर भी जल का ऐसा अपव्यय ? लोगों की सोच पर तरस आता है । आज जल दिवस पर हमें यह संकल्प लेना होगा कि इस प्रकार की परम्पराओं का डटकर विरोध करेंगे । कहने का मतलब है कि हमारे यहाँ परम्पराओं को आँखें मूँदकर पाला जाता है, ना कोई तर्क, ना कोई वैज्ञानिक विश्लेषण... यदि कोई मान्यता वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो जाये तो उसे मानने में और भी मजा आयेगा और यह भी पता चलेगा कि ऐसा क्यों हो रहा है जिससे नई पीढी को हम और अधिक अच्छे से समझा सकेंगे, जैसे कि गर्भवती माता के गर्भ में भ्रूण को आठवें महीने से साफ़-साफ़ सुनाई देने लगता है, यह अभिमन्यु वाले केस में हमें पहले से मालूम था, जिसका वैज्ञानिक विश्लेषण बाद में हुआ, और वह भी हमें बाहर के वैज्ञानिकों ने बताया । जयद्रथ वध के दौरान जब वह रात्रि के भ्रम में बाहर आ गया था और अर्जुन ने उसका वध किया, उस समय की कालगणना के अनुसार उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण था, इसलिये हो सकता है कि उस वक्त कुरुक्षेत्र में अंधेरा छा गया हो....ऐसे और भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं... लेकिन प्रशासन भी जागरूकता बढाने की बजाय, पंडे-पुजारियों-प्रवचनकारों को अनावश्यक रूप से बढावा देने में लगा रहता है । मैने पहले भी यहाँ लिखा था कि बगैर किसी तर्क-वितर्क के हमें कई बातें गले उतार दी जाती हैं, जो कि गलत है, हरेक परम्परा का, मिथक का, किंवदंती का पूर्ण वैज्ञानिक आधार होना चाहिये । लेकिन "धर्म-इंडस्ट्री" (जी हाँ, यह एक विशाल इंडस्ट्री है जिसके द्वारा कईयों के पेट पल रहे हैं, कईयों के पेट कट रहे हैं, कईयों के पेट फ़ूल रहे हैं) के आगे हमारे यहाँ सभी नतमस्तक हैं ।

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