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ट्रंप की जीत : राष्ट्रवाद की “वैश्विक धमक”


दुनिया भर में खुद को स्वघोषित बुद्धिजीवी, तथाकथित रूप से प्रगतिशील और उदारवादी समझने वाले और वैसा कहलाने का शौक रखने वाले तमाम इंटेलेक्चुअल्स तथा मीडिया में बैठे धुरंधरों को लगातार एक के बाद एक झटके लगते जा रहे हैं, परन्तु उनकी बेशर्मी कहें या नादानी कहें वे लोग अभी भी अपनी स्वरचित आभासी मधुर दुनिया में न सिर्फ खोए हुए हैं, बल्कि उसी को पूरी दुनिया का प्रतिबिंब मानकर दूसरों को लगातार खारिज किए जा रहे हैं. वास्तव में हुआ यह है कि जिस प्रकार अफीम के नशे में व्यक्ति सारी दुनिया को पागल लेकिन स्वयं को खुदा समझता है, उसी प्रकार भारत सहित दुनिया भर में पसरा हुआ यह “बुद्धिजीवी और मीडियाई वर्ग” भी खुद को जमीन से चार इंच ऊपर समझता रहा है. इन कथित बुद्धिमानों को पता ही नहीं चल रहा है की दुनिया किस तरफ मुड़ चुकी है और ये लोग बिना स्टीयरिंग की गाडी लिए गर्त की दिशा में चले जा रहे हैं.

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भारत के इतिहास में केवल दो ही प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं, जिन्होंने बड़े नोटों को बंद करने की हिम्मत दिखाई है. पहले थे एक गुजराती मोरारजी देसाई और अब एक दुसरे गुजराती हैं नरेंद्र मोदी. आठ नवम्बर की रात को आठ बजे जब देश के टीवी चैनलों पर यह फ्लैश चमका कि देश के प्रधानमंत्री देश के नाम विशेष सन्देश देंगे, उस समय 99% लोगों के मन में सबसे पहले पाकिस्तान से युद्ध की घोषणा का संशय आया.

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