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बुधवार, 29 मई 2013 12:48
BJP Needs Introspection and New Strategy
भाजपा को गहन आत्ममंथन और नई रणनीति की जरूरत...
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजे आ
गए, और परिणाम वही हुआ जिसका अंदेशा जताया जा रहा था. येद्दियुरप्पा भले ही खुद की
पार्टी का कोई फायदा ना कर पाए हों, लेकिन अपनी “ताकत” दिखाकर उन्होंने उस भाजपा
को राज्य में तीसरे स्थान पर धकेल दिया, जिस राज्य में भाजपा का कमल खिलाने में
उन्होंने अपने जीवन के चालीस साल लगाए थे.
इससे
कुछ महीने पहले भी भाजपा के हाथ से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जा चुके हैं. अब आज
की तारीख में भाजपा के पास कुल मिलाकर सिर्फ तीन राज्य बचे हैं – मध्यप्रदेश,
छत्तीसगढ़ और गुजरात. देश के अन्य राज्यों में भाजपा कहीं-कहीं टुकड़ों में इधर-उधर
बिखरी हुई दिखाई दे जाती है, लेकिन वास्तव में देखा जाए तो फिलहाल भाजपा के पास
सिर्फ तीन राज्य हैं, जहाँ लोकसभा की लगभग साठ सीटें ही हैं. भाजपा के केन्द्रीय
नेतृत्व के सामने असली सवाल यही है कि क्या सिर्फ ६० सीटों के बल पर केन्द्र में
सत्ता पाने का सपना देखना जायज़ है? “बिल्ली के भाग्य से छींका टूटेगा और सारा
मक्खन अपने-आप उसके मुँह में आ गिरेगा” जैसी मानसिकता के बल पर राजनीतिक घमासान
नहीं किए जाते हैं.
तीन
प्रदेशों की इस हार में मूलतः दो सवाल हैं – १) जब कोई टीम मैच हारती है तो
सामान्यतः चयनकर्ता-प्रबंधन अथवा टीम का कप्तान अपने पद से या तो इस्तीफ़ा देते हैं
या फिर समूची टीम में आमूलचूल परिवर्तन करके उसे ठीक किया जाता है. पहला सवाल इसी
से जुड़ा है – लगातार तीन हार (उत्तराखंड, हिमाचल और कर्नाटक) के बाद क्या भाजपा की
केन्द्रीय टीम या प्रबंधकों में से किसी ने हार की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए
अपना पद त्याग किया है? सिर्फ दिखावे के लिए चार घंटे की मंथन बैठक से कुछ नहीं
होता, सीधी बात यह है कि क्या इस हार की जिम्मेदारी सिर्फ राज्य स्तर के नेताओं की
है? क्या टीम में बदलाव का समय नहीं आ गया है?
दूसरा सवाल भी इसी से जुड़ा है – एक मिसाल के रूप में कहें तो रिक्शा को खींचने के लिए उसके टायरों में हवा भरी होनी चाहिए, बाहर चलने वाली हवा चाहे तूफ़ान ही क्यों ना हो वह उस रिक्शे को नहीं चला सकती. इसी प्रकार जब तक भाजपा के टायरों में सही ढंग से हवा नहीं भरी जाएगी, तब तक पार्टी की गाड़ी चलने वाली नहीं है. यहाँ पर टायरों में हवा का अर्थ है, कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार करना. वर्तमान में तो भाजपा की हालत यह है कि कई राज्यों में या तो इसके तीनों टायरों (केन्द्र-राज्य-कार्यकर्ता) में कहीं हवा ही नहीं है, जबकि कहीं-कहीं तो तीनों टायरों की दिशा भी एक-दूसरे से विपरीत है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण उत्तराखंड और कर्नाटक ही रहे. उत्तराखंड में निशंक-खंडूरी-कोश्यारी ने आपस में ऐसी घमासान मचाई कि काँग्रेस के रावत-बहुगुणा का घमासान भी शर्मा जाए... ऐसा ही कुछ कर्नाटक में भी किया गया, जहाँ पहले दिन से ही येद्दियुरप्पा, दिल्ली में बैठे अनंत कुमार की आँखों की किरकिरी बने रहे, रेड्डी बंधुओं को सुषमा स्वराज का आशीर्वाद मिलता रहा और वे कर्नाटक को बेदर्दी से लूटते रहे. जिसका ठीकरा फूटा येद्दियुरप्पा के माथे पर, जिन्हें संतोष हेगड़े ने बड़ी सफाई से दोषी साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. बाकी का काम दिल्ली में बैठे हवाई नेताओं ने कर दिया और एक जमीनी नेता येद्दियुरप्पा को तब तक लगातार अपमानित करते रहे, जब तक कि उन्होंने नई पार्टी का गठन नहीं कर लिया. “नैतिकता के ठेकेदार” बनने का तो सिर्फ दिखावा भर था, असली मकसद था येद्दियुरप्पा को ठिकाने लगाना. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने के बावजूद येद्दियुरप्पा को दोबारा सत्ता नहीं सौंपी गई.
कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड और कर्नाटक के मामले कोई नए नहीं हैं. दिल्ली में बैठे हवाई भाजपा नेताओं ने इसके पहले भी अक्सर जमीनी पकड़ वाले लोकप्रिय क्षेत्रीय भाजपा नेताओं को टंगड़ी मारकर गिराने में खासी दिलचस्पी दिखाई है. फिर चाहे वह कल्याण सिंह हों, चाहे उमा भारती हों या फिर मदनलाल खुराना हों. कल्याण सिंह को बाहर किया तो उत्तरप्रदेश गँवा दिया, खुराना के साथ साजिशें की तो दिल्ली अभी तक हाथ नहीं आया, बाबूलाल मरांडी के साथ सौतेला व्यवहार किया तो झारखंड भी हाथ से निकल ही गया... अब येद्दियुरप्पा का अपमान करके कर्नाटक भी अगले दस साल के लिए त्याग ही दिया है. इसके बावजूद भाजपा के किसी केन्द्रीय नेता ने आगे बढकर यह नहीं कहा कि, “हाँ यह हमारी जिम्मेदारी थी और अब हमें पार्टी और पार्टी की विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है...”. बस जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दिया जा रहा है, जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर आन खड़े हुए हैं...
जैसा कि मैंने अपने एक अन्य लेख में पहले भी लिखा था, कि जहाँ एक तरफ कई राजनैतिक दलों ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए ना सिर्फ अपना एजेंडा तय कर लिया है, उस पर काम भी शुरू कर दिया है. और तो और कुछ पार्टियों के उम्मीदवार भी छः माह पहले ही तय हो चुके हैं, ताकि उस उम्मीदवार को अपने इलाके में काम करने का पर्याप्त मौका मिले. और इधर भाजपा के क्या हाल हैं?? काँग्रेस बेहद शातिर पार्टी है, इसके बावजूद प्रमुख विपक्षी दल होने के बावजूद भाजपा में मुर्दनी छाई हुई है. उम्मीदवार तय करना तो बहुत दूर की बात है, अभी तो पार्टी यही तय नहीं कर पाई है कि वह २०१४ के आम चुनाव में किस प्रमुख एजेंडे पर फोकस करेगी? या तो भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व देश की जनता का मूड भाँपने में गलती कर रहा है, अथवा जानबूझकर इस बात टाले जा रहा है कि सामान्य लोग चाहते हैं कि भाजपा स्पष्ट रूप से यह कहे कि वह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करती है. लेकिन आपसी खींचतान, आलस्य और मोदी के व्यक्तित्व का खौफ(?) भाजपा-संघ के बड़े नेताओं को त्वरित निर्णय लेने से रोक रहा है. सिर्फ साठ सीटों के प्रभुत्व वाले तीन राज्यों में सत्ता होने के बावजूद भाजपा सोच रही है कि वह ऊलजलूल गठबंधन करके, काँग्रेस के भ्रष्टाचार को हराने में सक्षम हो जाएगी. जबकि कर्नाटक और हिमाचल में जनता ने बता दिया है कि उन्हें भ्रष्टाचार से कोई परहेज नहीं है. उन्हें “काम करने” वाला नेता चाहिए, पार्टी की स्पष्ट नीतियाँ चाहिए. भाजपा दोनों ही मोर्चों पर ढुलमुल रवैया और काहिली का शिकार पड़ी हुई है. ना तो भाजपा यह तय कर पा रही है कि – १) वह मोदी को आगे करेगी या नहीं... २) न ही वह ये तय कर पा रही है कि वह काँग्रेस के भ्रष्टाचार, कुशासन और लूट को प्रमुख मुद्दा बनाएगी या हिंदुत्व के रास्ते पर चलेगी, और ३) न ही पार्टी अभी तक यह निश्चित कर सकी है कि वह गठबंधन करके फायदे में रहेगी कि नुकसान में, इसलिए क्या उसे NDA भंग करके अकेले चुनाव लड़ना चाहिए या नीतीश-पटनायक-ममता-जयललिता के “सदाबहार ब्लैकमेल” सहते हुए कोढ़ी की तरह घिसटते रहना है.... कुल मिलाकर चहुँओर अनिर्णय और भ्रम की स्थिति बनी हुई है... ऐसी स्थिति में भाजपाई उम्मीदवार क्या तय करेंगे. इसीलिए जो लोग चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं, वे अपने-अपने क्षेत्रों में भीतरखाने जनसंपर्क तो कर रहे हैं, लेकिन भारी “कन्फ्यूजन” के शिकार हैं कि पता नहीं उन्हें टिकट मिलेगा या नहीं. उन्हें मोदी का चेहरा आगे रखकर प्रचार करना है या सुषमा का?
यह तो हमने “रोग” देखा, जो लगभग सभी को दिख रहा है (कोई इस बारे बात कर रहा है, कोई चुपचाप तमाशा देख रहा है), रोग की पहचान के बाद अब उसके निदान और निवारण के बारे में सोचना है. ऐसे में सवाल उठता है कि भाजपा को इस “नाकारा किस्म” की स्थिति से कैसे उबरा जाए?
स्वाभाविक है कि शुरुआत शीर्ष से होनी चाहिए. जिस तरह से आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव हेतु वसुंधरा राजे को पूरी तरह से “फ्री-हैंड” दिया गया है, भीतरघातियों पर समय रहते लगाम कसने की शुरुआत हो चुकी है तथा जिसे वसुंधरा पसंद नहीं हैं उन्हें बाहर का रास्ता नापने का अदृश्य सन्देश दिया जा चुका है, ठीक इसी प्रकार की स्थिति केन्द्रीय स्तर पर भी होनी चाहिए. एक बार मन पक्का करके ठोस निर्णय लिया जाना चाहिए कि “सिर्फ नरेंद्र मोदी ही भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे”, जिस गठबंधन सहयोगी को कोई आपत्ति हो, वे अपनी राह चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं. (देखना दिलचस्प होगा कि, कौन-कौन NDA छोड़कर जाता है और कहाँ जाता है). भाजपा की स्थिति मप्र-गुजरात और छत्तीसगढ़ में इसीलिए मजबूत है क्योंकि वहाँ शिवराज-मोदी और रमण सिंह के सामने पार्टी में अंदरूनी चुनौती या आपसी सिर-फुटव्वल बहुत कम है.
दूसरा कदम यह होना चाहिए कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को यह स्वीकार करना होगा कि उसने राज्यों के मजबूत क्षेत्रीय क्षत्रपों की टांग खींचकर सबसे बड़ी गलती की है. गलती स्वीकार करने से व्यक्ति का बड़प्पन ही प्रदर्शित होता है. सभी राज्यों के शक्तिशाली क्षेत्रीय नेताओं को मनाकर, समझा-बुझाकर पार्टी में वापस लाना होगा. उनकी जो भी माँगें हो उन्हें मानने में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि वे अपनी शक्ति और जनाधार का साफ़-साफ़ प्रदर्शन कर चुके हैं. ऐसे क्षेत्रीय नेताओं की ससम्मान पार्टी में वापसी होनी चाहिए.
तीसरा उपाय यह है कि – जब देश की पैंतालीस प्रतिशत से अधिक आबादी चालीस वर्ष से कम आयु की है, और २०१४ के चुनाव में १८ से २५ वर्ष के लाखों नए मतदाता जुड़ने वाले हैं, ऐसी स्थिति में पार्टी के अधिक से अधिक युवा और फ्रेश चेहरों वाले नेताओं को आगे लाना जरूरी है, बशर्ते वे “परिवारवाद” की बदौलत उच्च स्तर पर पहुंचें हुए ना हों. जिस प्रकार महाराष्ट्र में साफ़-सुथरी छवि वाले युवा नेता फडनवीस को भाजपा अध्यक्ष बनाया गया है, ऐसी ही ऊर्जा का संचार देश के अन्य राज्यों में भी होना चाहिए (खासकर उन राज्यों में जहाँ भाजपा लगभग जीरो है, जहाँ भाजपा को एकदम शून्य से शुरुआत करना है, ऐसे राज्यों में युवा नेतृत्व को फ्री-हैंड देने से जमीनी हालात बदल सकते हैं).
ज़रा याद कीजिए कि भाजपा ने किसी प्रमुख मुद्दे पर कोई तीव्र आंदोलन कब किया था? तीव्र आन्दोलन का मतलब है दिल्ली सहित सभी राज्यों के प्रमुख नगरों में रैलियां-धरने-पोस्टर और आक्रामक बयान. मुझे तो याद नहीं पड़ता कि भाजपा के बैनर तले किसी बड़े आंदोलन का संचालन पिछले ४-५ साल में कभी ठीक ढंग से किया गया हो. अन्ना आंदोलन या बाबा रामदेव के आंदोलन में संघ के कार्यकर्ता सक्रिय रूप से (लेकिन परदे के पीछे से) शामिल थे और दोनों ही आंदोलन परवान भी चढ़े, परन्तु “खालिस कमल छाप झण्डा” लिए हजारों-हजार कार्यकर्ता पिछली बार सड़कों पर कब उतरे थे?? सिर्फ दिल्ली के पाँच सितारा प्रेस क्लबों में बैठकर टीवी-अखबार रिपोर्टरों के सामने बयान पढ़ देने या वक्तव्य जारी करने से रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि राष्ट्रीय मीडिया में भाजपा से जुड़ी सकारात्मक ख़बरों या प्रदर्शनों का प्रभाव-दबाव और झुकाव नहीं के बराबर है. ऐसा लगता है कि “मीडिया बिकाऊ होता है” जैसे सर्वव्यापी और विश्वव्यापी तथ्य को भाजपा के नेता मानते ही नहीं हैं. इस बिंदु का तात्पर्य यह है कि जब मीडिया साफ़-साफ़ आपके विरोध में हों तथा काँग्रेस अथवा “खोखली धर्मनिरपेक्षता” जैसे फालतू मुद्दों के पक्ष में खुलेआम लिखता-बोलता हो, तो यह पहल भाजपा नेताओं को ही करनी पड़ेगी कि आखिर किस प्रकार मीडिया उनकी “सकारात्मक ख़बरों” को दिखाए. ऐसा कुछ होता तो दिखाई नहीं दे रहा है. टीवी चैनलों पर बहस के दौरान चार-चार लोग मिलकर भाजपा के अकेले प्रवक्ता को रगड़ते रहते हैं. अखबारों और टीवी समाचारों में ही देखिए कि यदि टीआरपी की खातिर नरेंद्र मोदी के कवरेज को छोड़ दिया जाए, तो रमन सिंह या शिवराज सिंह अथवा गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर से जुड़ी सकारात्मक और विकासात्मक खबरों को कितना स्थान दिया जाता है? लगभग नहीं के बराबर. बात साफ़ है कि भाजपा के “विचार-समूहों” को मीडिया और प्रेस के बयानों, बहस और कवरेज प्राप्त करने संबंधी नीतियों में बड़े बदलाव की आवश्यकता है, भाजपा का “लचर किस्म का मीडिया प्रबंधन” वाकई गहरी चिंता का विषय है.
ध्यान देने वाली बात है कि हाल ही में केन्द्र सरकार ने मीडिया पर “भारत निर्माण” के विज्ञापनों की खैरात जमकर बाँटना शुरू कर दिया है. आगामी कुछ माह में पाँच राज्यों के चुनाव होने वाले हैं, जिसमें से तीन (राजस्थान, दिल्ली और महाराष्ट्र) कांग्रेस के पास हैं और दो (मप्र और छग) भाजपा के पास. पहले वाले तीन राज्यों में देखें तो दिल्ली में केजरीवाल काँग्रेस की मदद करेंगे और शीला की वापसी होगी... महाराष्ट्र में जब तक सेना-भाजपा-मनसे का “महागठबंधन” नहीं होता, तब तक पवार-चव्हाण को हटाना असंभव है, यहाँ राज ठाकरे अपनी ताकत दिखाने पर आमादा हैं इसलिए यह महागठबंधन आकार लेगा कि नहीं इसमें शंका ही है... अब बचा राजस्थान जहाँ पर मामला डाँवाडोल है, कुछ भी हो सकता है. जबकि बाकी के दोनों भाजपा शासित राज्यों में छत्तीसगढ़ को अकेले रमन सिंह की साफ़ छवि और अजीत जोगी जैसे हरल्ले काँग्रेसी नेताओं के कारण भाजपा की जीत की संभावना काफी अधिक है. ठीक इसी प्रकार मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह की छवि, काम और आपसी गुटबाजी नहीं होना ही जीत का कारण बन सकता है, हालांकि यहाँ भी मंत्रियों के भ्रष्टाचार और ज्योतिरादित्य सिंधिया की साफ़ छवि, भाजपा की गाड़ी को पंचर कर सकती है. अतः भारत-निर्माण के विज्ञापनों की “टाईमिंग” देखते हुए संभव है कि, यदि इन विधानसभा चुनावों में काँग्रेस खुद के शासन वाले तीनों राज्यों में सत्ता में वापस आ जाती है, तो उसकी लहर पर सवार होकर जनवरी-फरवरी में ही लोकसभा चुनाव में उतर जाए.
अब सोचिये कि अपना घर ठीक करने के लिए भाजपा के पास कितना वक्त बचा है, और आलम यह है कि प्रत्येक राज्य में भाजपा के नेता आपसी गुटबाजी, सिर-फुटव्वल और टांग-खिंचाई में लगे हुए हैं. उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में संगठन निष्प्राण पड़ा हुआ है. बिहार में कार्यकर्ता “कन्फ्यूज” हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे या नहीं, पार्टी नीतीश के सामने कितने कोण तक झुकेगी? दक्षिण के चारों राज्यों तथा पूर्व में बंगाल-उड़ीसा में पार्टी की क्या दुर्गति है, यह सभी जानते हैं. ऐसे में जयललिता-ममता-नवीन पटनायक-अकाली-नीतीश जैसे क्षेत्रीय दल मजबूत होकर उभरेंगे और जमकर अपनी कीमत वसूलेंगे. इसलिए भाजपा को अवास्तविक सपने देखना बंद करना चाहिए, २०० सीटें (अधिकतम) का लक्ष्य निर्धारित करते हुए सीट-दर-सीट चुनावी प्रबंधन में जुट जाना चाहिए.
अंत में संक्षेप में कहा जाए तो भाजपा के पास अब अधिक विकल्प बचे ही नहीं हैं. पार्टी को युद्ध स्तर पर चुनावी रणनीति में भिड़ना होगा. केन्द्र में सत्ता पाने के लिए तत्काल कुछ कदम उठाने जरूरी हो गए हैं – जैसे नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी पर स्पष्ट रूख (चाहे नतीजा जो भी हो), राज्यों में आपसी खींचतान कर रहे नेताओं में से वास्तविक जमीनी नेता की पहचान कर उसका पूरा साथ देना और असंतुष्टों को समय रहते लात मारकर बाहर करना, जिन राज्यों में भाजपा जीरो है वहाँ बिना कोई गठबंधन किए अपना संगठन खड़ा करना... देवेन्द्र फडनवीस, मीनाक्षी लेखी, स्मृति ईरानी, जैसे युवाओं को मीडिया में अधिकाधिक एक्सपोजर देना तथा अंतिम लेकिन सबसे जरूरी, By Hook or Crook (यानी येन-केन-प्रकारेण) मीडिया में भाजपा-मोदी-संघ की सकारात्मक ख़बरों को ही अधिक स्थान मिले, इस दिशा में प्रयास करना.
अभी भी
समय है, यदि भाजपा इन बिंदुओं पर सक्रियता से काम करे, गुटबाजी खत्म करे और स्पष्ट
“विचारधारा” के लिए काम करे, तो २०० सीटों का जादुई आँकड़ा प्राप्त किया जा सकता
है. यह आँकड़ा प्राप्त कर लेने के बाद ना “साम्प्रदायिकता” कोई मुद्दा रह जाएगा और
ना ही नरेंद्र मोदी राजनैतिक अछूत रह जाएंगे. तमाम क्षेत्रीय दल घुटनों-घुटनों तक
लार टपकाते हुए अपने-आप भाजपा के पीछे आएँगे. परन्तु सवाल यही है कि रोग तो दिखाई
दे रहा है, उसका निदान भी समझ में आ रहा है, परन्तु रोगी पर दवाओं की आजमाईश करने
वाले चिकित्सक सुस्त पड़े हों और अनिर्णय के भी शिकार हों, तो भला रोगी ठीक कैसे
होगा??? यही भाजपा के साथ हो रहा है..
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