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शुक्रवार, 29 नवम्बर 2013 20:26

Shahzade Rahul Baba and Chaiwala Narendra Modi...



शहज़ादे की नींद हराम करता चायवाला...

“हत्यारा”, “रावण”, “हिटलर”, “मौत का सौदागर”, “चाण्डाल”, “नरपिशाच”... आप सोच रहे होंगे कि लेख की शुरुआत ऐसे शब्दों से??? लेकिन माफ कीजिए, उक्त शब्द मेरे नहीं हैं, बल्कि कांग्रेस और अन्य सभी “तथाकथित सेकुलर, अनुशासित, लोकतांत्रिक”(???) पार्टियों के विभिन्न नेताओं द्वारा समय-समय पर कहे गए हैं, और स्वाभाविक है कि ये सभी शब्द सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए कहे जा रहे हैं, जिस व्यक्ति ने अकेले लड़ते हुए, सभी बाधाओं को पार करते हुए इन “सेकुलर ढकोसलेबाज” नेताओं की रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी पैदा कर दी है... यानी “वन एंड ओनली नरेंद्र मोदी”. क्या नरेंद्र मोदी ने कभी अपने भाषणों में ऐसे शब्दों का उपयोग किया है? मुझे तो याद नहीं पड़ता. पिछले छह माह से नरेंद्र मोदी लगातार कांग्रेस पोषित मीडिया और “चैनलीय कैमरेबाज नेताओं” के लिए हर हफ्ते एक नया अध्याय लेकर आते हैं. सप्ताह, दो सप्ताह तक उस शब्द अथवा विषय पर बहस होती है... उसके बाद अगला अध्याय दिया जाता है ताकि ड्रामेबाज सेकुलर अपनी-अपनी खोल में बहस करते रहें, टाईम पास करते रहें...

नरेंद्र मोदी द्वारा काँग्रेसी और सेकुलरों की इस “ट्यूशन” की शुरुआत हुई थी “गाड़ी के नीचे आने वाले कुत्ते के पिल्ले” से, उसके बाद “सेकुलरिज्म का बुरका” इत्यादि से होते-होते नेहरू-पटेल, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, खूनी पंजा, “माँ बीमार है” और “शहजादे” तक यह अनवरत चली आ रही है. नरेंद्र मोदी द्वारा किये गए शब्दों के चयन का मुकाबला न कर पाने की वजह से ही हताशा में ये “बुद्धिमान”(?) नेता नरेंद्र मोदी को उपरोक्त घटिया शब्दावली से नवाजते हैं, उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मोदी का मुकाबला कैसे करें?? जिस तेजी से मोदी की लोकप्रियता बढ़ रही है, कांग्रेस के खिलाफ और मोदी के पक्ष में जनता के बीच “अंडर-करंट” फैलता जा रहा है उसने कांग्रेस सहित अन्य सभी क्षेत्रीय दलों के नेताओं के माथे पर शिकन पैदा कर दी है. आखिर इन नेताओं में नरेंद्र मोदी को लेकर इतनी बेचैनी क्यों है? जवाब सीधा सा है... सत्ता और कुर्सी हाथ से खिसकने का डर; मुस्लिम वोटों का रुझान किस तरफ होगा इस आशंका का डर; गुजरात से बराबरी न कर पाने की वजह से उनके राज्य के युवाओं में फैलने वाली हताशा का डर; उनके राज्यों से गुजरात जाकर पैसा कमाने वाले “मोदी के असली ब्राण्ड एम्बेसडरों” का डर; सोशल मीडिया से धीरे-धीरे रिसते हुए जमीन तक पहुँचने वाली मोदी की मार्केटिंग का डर...

एक तरफ खुद काँग्रेस के भीतर राहुल गाँधी को लेकर बेचैनी है. राहुल गाँधी के भाषणों में घटती भीड़ ने कांग्रेसियों की नींद उड़ा दी है. राहुल गाँधी की भाषण शैली, उनमें मुद्दों की समझ का अभाव और महत्त्वपूर्ण राजनैतिक घटनाक्रम के समय उनकी गुमशुदगी.. सभी कुछ कांग्रेसियों को अस्थिर करने के लिए काफी है. यह एक तथ्य है कि काँग्रेसी उसी के साथ रहते हैं, जो उन्हें सत्ता दिलवा सकता हो, या उसमें वैसी क्षमता हो. राहुल गाँधी के साथ काँग्रेसी उसी समय तक बने रहेंगे जब तक उन्हें विश्वास होगा कि नरेंद्र मोदी को हराने में यह नेता सक्षम है, और यही विश्वास अब शनैः-शनैः दरकने लगा है. दिल्ली की एक सभा में तो शीला दीक्षित को खुलेआम मंच से गुहार लगानी पड़ी कि “बहनों, ठहर जाओ, दस मिनट रुक जाओ, राहुल जी को सुनते जाओ...” उसके बाद राहुल गाँधी सिर्फ सात मिनट बोलकर चलते बने. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी को सुनने के लिए बैंगलोर में दस-दस रूपए देकर साढ़े तीन लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवाया जिससे पैंतीस लाख रूपए मिले, जो नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की मूर्ति हेतु अर्पण कर दिए. पैसा देकर भाषण सुनने का यह अमेरिकी प्रयोग भारत में सबसे पहले नरेंद्र मोदी ने आरम्भ किया है, शुरुआत हैदराबाद से हुई थी, जहाँ पांच-पांच रूपए लिए गए थे. उस समय कांग्रेसियों ने इस विचार की जमकर खिल्ली उडाई थी, लेकिन अब राहुल बाबा की सभाओं में घटती भीड़ ने उनके माथे पर बल डाल दिए हैं. इसी तरह पिछले गुजरात चुनावों में भी नरेंद्र मोदी थ्री-डी सभाओं द्वारा भाषण देते हुए मतदाताओं तक पहुँचने की जो नई अवधारणा लेकर आए थे, उसका तोड़ भी काँग्रेस के पास नहीं था. नरेंद्र मोदी में हमेशा नई तकनीक और नई सोच को लेकर जो आकर्षण रहा है उसी ने उन्हें सोशल मीडिया में अग्रणी बना दिया है. जब तक विपक्षी नेता सोशल मीडिया की ताकत को पहचान पाते या उसे भाँप सकते, उससे बहुत  पहले ही नरेंद्र मोदी उस क्षेत्र में दौड़ लगा चुके थे और अब वे बाकी लोगों से मीलों आगे निकल चुके हैं.

गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल की विशाल प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा और उसका भूमिपूजन करके तो मानो नरेंद्र मोदी ने काँग्रेस के ज़ख्मों पर नमक छिडकने का काम ही कर दिया है. देश की सभी प्रमुख योजनाओं, प्रमुख संस्थानों के अलावा बड़ी-बड़ी मूर्तियों-पार्कों-हवाई अड्डों इत्यादि पर अभी तक सिर्फ एक ही “विशिष्ट और पवित्र परिवार” का एकाधिकार होता था. नरेंद्र मोदी ने पिछले दस साल के दौरान गुजरात में जितनी भी योजनाएँ चलाई हैं उनका नाम विवेकानंद, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोगों के नाम पर रखा है. बची-खुची कसर सरदार पटेल की इस विशालतम मूर्ति की घोषणा ने पूरी कर दी. काँग्रेस को यह कतई सहन नहीं हो रहा है कि पटेल की विरासत को नरेंद्र मोदी हथिया ले जाएँ, इसीलिए जो काँग्रेस अभी तक सरदार पटेल को लगभग भुला चुकी थी अचानक उसका पटेल प्रेम जागृत हो गया. साथ-साथ आडवानी ने भी नरेंद्र मोदी के साथ कदमताल करते हुए अपने ब्लॉग पर लगातार पटेल-नेहरू के संबंधों के बारे में लेख लिखते रहे और काँग्रेस को अंततः चुप ही बैठना पड़ा.

जब से नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, तब से विपक्षियों में डर और बेचैनी और भी बढ़ गई है. हालांकि ऊपर-ऊपर वे बहादुरी जताते हैं, दंभपूर्ण बयान देते हैं, मोदी की खिल्ली उड़ाते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर वे बुरी तरह से हिले हुए हैं. एक सामान्य सी समझ है कि अच्छा राजनीतिज्ञ वही होता है, जो बदलती हुई राजनैतिक हवा को भाँपने का गुर जान जाता है. इसीलिए जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, दिनोंदिन काँग्रेस का पतन होता जा रहा है और वह गिने-चुने राज्यों में सिमटती जा रही है, वैसे-वैसे क्षेत्रीय दलों के सुर बदलने लगे हैं. उन्हें पता है कि मई २०१४ में ऐसी स्थिति बन सकती है जब उन्हें नरेंद्र मोदी के साथ सत्ता शेयर करनी पड़ सकती है. इसीलिए जयललिता, ममता बनर्जी और पटनायक जैसे पुराने खिलाड़ी फूँक-फूँक कर बयान दे रहे हैं.

जबकि काँग्रेस अपनी उसी सामन्तवादी सोच से बाहर नहीं आ रही कि ईश्वर ने सिर्फ गाँधी परिवार को ही भारत पर शासन करने के लिए भेजा है. ग्यारह साल पहले गुजरात में हुए एक दंगे को लेकर नरेंद्र मोदी को घेरने की लगातार कोशिशें हुईं. तमाम षडयंत्र रचे गए, मोहरे खड़े किये गए, NGOs के माध्यम से नकली शपथ-पत्र दायर हुए... लेकिन न तो कानूनी रूप से और न ही राजनैतिक रूप से काँग्रेस मोदी को कोई नुक्सान पहुंचा पाई. इसके बावजूद इस प्रकार की  घटिया चालबाजियाँ अब भी जारी हैं. अपने सदाबहार ओछे हथकंडे जारी रखते हुए काँग्रेस इस बार किसी पुराने जासूसी कांड को लेकर सामने आई है. दिल्ली में महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं यह पूरा देश जानता है, लेकिन काँग्रेस को गुजरात में एक महिला की जासूसी को लेकर अचानक घनघोर चिंता हो गई. इस बार भी अमित शाह को निशाना बनाकर नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिशें जारी हैं. मान लो राजकोट में पानी की समस्या है, तो “...मोदी प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं हैं...”, यदि सूरत में कोई सड़क खराब है, “...नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दो...”, मुज़फ्फरनगर में भीषण दंगे हुए तो इसके लिए केन्द्र की काँग्रेस सरकार अथवा राज्य की सपा सरकार जिम्मेदार नहीं है, बल्कि “नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने मुज़फ्फरनगर में ये दंगे भड़काए हैं...” इस प्रकार की ऊटपटांग बयानबाजी से काँग्रेस और अन्य दल खुद की ही हँसी उडवा रहे हैं. ऐसा लगता है कि वे देश के युवाओं को मूर्ख समझते हैं. कभी-कभी तो मुझे शक होता है कि यदि किसी नेता के किचन में रखा हुआ दूध बिल्ली आकर पी जाए, तब भी वे यही कहेंगे कि “इसके पीछे नरेंद्र मोदी का हाथ है...”.

आज से दो वर्ष पहले तक मोदी विरोधी कहते थे, “भाजपा कभी भी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी...” यह तो हो गया. फिर कहते थे कि “सोशल मीडिया पर काबिज हिंदुत्ववादी युवाओं की टीम से कोई फर्क नहीं पड़ता..” अब खुद उन्हें फर्क साफ़ दिखाई दे रहा है. यह भी कहते थे कि नरेंद्र मोदी कोई चुनौती नहीं हैं... अब खुद इनके मंत्री स्वीकार करने लगे हैं कि हाँ मोदी एक गंभीर और तगड़ी चुनौती हैं...| अर्थात पहले विरोधियों द्वारा उपेक्षा, फिर उनके द्वारा खिल्ली उड़ाना... आगे चलकर विरोधियों के दिमाग में चिंता और अब रातों की नींद में भयानक दुस्वप्न... वाकई में नरेंद्र मोदी ने बड़ा लंबा सफर तय कर लिया है.

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तरुण तेजपाल, सेक्यूलरिज्म, प्रगतिशील "गैंग" और नारीवादी "गिरोह"... 

मेरे फेसबुक पर कुछ छितरे-बिखरे विचार... 

सेक्यूलर गैंग की सदस्या, और "आज की तारीख में सबसे बड़े नैतिक अखबार" तहलका, की पत्रकार निशा सूसन का "पिंक चड्डी अभियान" तो आपको याद ही होगा ना...??.. मंगलोर के एक पब में दारू पीती और छिछोरी हरकतें करती लडकियों पर हमला करने के जुर्म में वामपंथी-प्रगतिशील गिरोह ने, श्रीराम सेना के बहाने समूचे हिन्दू समाज को बदनाम करने तथा श्रीराम सेना और ABVP को "हिन्दू तालिबान" के नाम से पुकारने का काम किया था...

लेकिन आज यही "गिरोह" (त)हलके तरुण तेजपाल को बचाने के लिए तर्क गढ़ रहा है, उसके जुर्म को हल्का साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है... उसे गिरफ्तारी से बचाने के लिए बड़े महँगे वकील लाईन लगाए खड़े हैं..

स्टिंग ऑपरेशन में अपनी इज्जत गँवा चुकी AAP पार्टी की शाजिया भी इसके पक्ष में बोल चुकी हैं... केजरीवाल का तो खैर इतिहास ही नक्सलियों और कश्मीरी अतिवादियों के समर्थन का रहा है... इन "तथाकथित ईमानदारों" ने कभी भी यह मांग नहीं की थी कि स्वामी नित्यानंद की फर्जी सीडी का Raw फुटेज जाँचा जाए... नारीवादी होने का ढोंग रचने वाली "पिंक चड्डी सूसन" ने कभी यह मांग नहीं की थी कि अभिनेत्री रंजीता की निजता और स्वाभिमान का ख्याल रखा जाना चाहिए...

तात्पर्य यह है कि यदि आप सेक्यूलर हैं, वामपंथी हैं, यदि आपने संघ-भाजपा-हिंदुत्व के खिलाफ कुछ काम किया है, तो न सिर्फ आपके बलात्कार-डकैती के जुर्म माफ होंगे, बल्कि आपको बचाने के लिए पूरा गिरोह अपनी ताकत झोंक देगा...

क्या आप अब भी हिंदुत्व के पक्ष में खड़ा होना चाहेंगे??? 
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आपने सिर्फ लड़की का पक्ष सुना है... तरुण तेजपाल को भी उसका पक्ष रखने का मौका देना चाहिए... - शोमा चौधरी
- (लेकिन यह नियम किसी भी हिन्दू संत पर लागू नहीं होगा)

एक से बढ़कर एक "सेकुलर", इस छिछोरे तेजपाल के बचाव में फूहड़ और बचकाने तर्क लेकर आ रहे हैं... वाकई... यदि किसी "पत्रकार"(??) या "पुलिस अधिकारी"(??) ने भाजपा और मोदी के खिलाफ बहुत काम किया हो, तो उसे बलात्कार और डकैती की छूट मिल जाती है... उसके बचाव में पूरी "गैंग" जाती है....

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खैर... देखते हैं कि आखिर इसकी गिरफ्तारी कब होती है, और कब इसे मच्छरों से भरी हवालात की कोठरी में दस-बारह दिन जमीन पर सुलाया जाता है... 

क्या जूदेव की आत्मा को शान्ति मिली होगी आज?? मित्रों को याद होगा कि मिशनरियों के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन चलाने वाले "असली जमीनी योद्धा" को भाजपा ने आजीवन राजनैतिक वनवास दिया था...

और ये "छिछोरा" माफी(??) मांगकर, छः महीने की पिकनिक मनाकर वापस लौटना चाहता है... लानत तो ये कि इसका "सेकुलर समर्थन" करने वाले भी बुद्धिजीवी भी दिखाई दे रहे हैं... शायद इन लोगों की निगाह में "बेटी की सहेली के साथ यौन शोषण" बड़ा मुद्दा नहीं है...

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"तहलका" और "कोबरा पोस्ट" में इस समय कितनी महिला पत्रकार काम करती हैं?? यदि वे अब भी तेजपाल के खिलाफ अपना मुँह नहीं खोलतीं, तो मुझे उनके साथ सहानुभूति है...

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"उच्च आदर्शों" और "नैतिकता" का ढोल पीट-पीटकर मामले की लीपा-पोती करने का आरम्भ तो हो चुका है... देखना बाकी है कि महिला आयोग कब अपना मुँह खोलता है और तेजपाल की गिरफ्तारी कब होती है... 

"परिस्थितियों का गलत आकलन" तो दिल्ली की उस बस में चार दरिंदों ने भी किया था... उन्हें लगा था कि निर्भया और उसका ब्वाय फ्रेंड मर जाएंगे... तेजपाल ने भी "गलत आकलन" किया कि शायद "इतने महान पत्रकार" (हा हा हा हा) के खिलाफ लड़की अपना मुँह नहीं खोलेगी...

उन चारों को फाँसी की सजा (sorry... उनमें से एक "शांतिदूत" था, इसलिए नाबालिग निकल आया) हो गई और ये महाशय "अपने आंतरिक लोकपाल" के जरिये छः महीने की पिकनिक पर... लानत है.

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गोवा पुलिस कहाँ हो तुम??? आओ ना... एक "सफेदपोश" तड़प रहा है तुम्हारी हवालात में आने को...

कोबरा पोस्ट और तहलका के मालिक तरुण तेजपाल तो एके सर से भी महान निकले... एके सर तो अपनी जाँच खुद के बनाए हुए आंतरिक लोकपाल से करवाते हैं, लेकिन तेजपाल ने खुद को छह माह का इस्तीफ़ा देकर "इतनी बड़ी" सजा भी दे डाली... वाह भाई नैतिकता हो तो ऐसी...

देखना तो यह है कि एक लड़की की कथित जासूसी पर, कथित "चिंता"(???) जताने वाले "कथित बुद्धिजीवी" और कथित नारीवादी संगठन(?) अपनी बेटी की उम्र की कन्या के साथ ऐसी हरकत करने वाले तेजपाल के साथ कैसा सलूक करते हैं...
#Tejpal
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जिनके घर शीशे के होते हैं, उन्हें दूसरे घरों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए और ना ही लाईट जलाकर कपड़े बदलने चाहिए...    
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शुक्रवार, 22 नवम्बर 2013 11:54

MP Assembly Elections 2013 - An Overview and Assessment



विधानसभा चुनाव २०१३ – मध्यप्रदेश का राजनैतिक परिदृश्य और विश्लेषण...

अन्य चार राज्यों के साथ ही मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है, और सेनाएँ अपने-अपने “अश्वों-हाथियों और प्यादों” के साथ इलाके में कूच कर चुकी हैं. अमूमन राज्यों के चुनाव देश के लिए अधिक मायने नहीं रखते, परन्तु यह विधानसभा चुनाव इसलिए महत्त्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि सिर्फ छह माह बाद ही देश के इतिहास में सबसे अधिक संघर्षपूर्ण लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं, तथा भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद यह पहले विधानसभा चुनाव हैं... ज़ाहिर है कि सिर्फ भाजपा ही नहीं नरेंद्र मोदी का भी बहुत कुछ इन विधानसभा चुनावों में दाँव पर लगा है. यदि भाजपा इन पांच में से तीन राज्यों में भी अपनी सरकार बना लेती है, तो पार्टी के अंदर नरेंद्र मोदी का विरोध लगभग खत्म हो जाएगा, और यदि भाजपा सिर्फ मप्र-छग में ही दुबारा सत्ता में वापस आती है तो यह माना जाएगा कि मतदाताओं के मन में मोदी का जादू अभी शुरू नहीं हो सका है. बहरहाल, राष्ट्रीय परिदृश्य को हम बाद में देखेंगे, फिलहाल नज़र डालते हैं मध्यप्रदेश पर.

मप्र में वर्तमान विधानसभा चुनाव इस बार बिना किसी लहर अथवा बिना किसी बड़े मुद्दे के होने जा रहे हैं. २००३ के चुनावों में जनता के अंदर “दिग्विजय सिंह के कुशासन विरोधी” लहर चल रही थी, जबकि २००८ के चुनावों में भाजपा ने उमा भारती विवाद, बाबूलाल गौर के असफल और बेढब प्रयोग के बाद शिवराज सिंह चौहान जैसे “युवा और फ्रेश” चेहरे को मैदान में उतारा था. मप्र के लोगों के मन में दिग्गी राजा के अंधियारे शासनकाल का खौफ इतना था कि उन्होंने भाजपा को दूसरी बार मौका देना उचित समझा. देखते-देखते भाजपा शासन के दस वर्ष बीत गए और २०१३ आन खड़ा हुआ है. पिछले दस वर्ष से मप्र-छग-गुजरात में लगातार चुनाव हार रही कांग्रेस के सामने इस बार बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि जिन राज्यों में कांग्रेस तीन-तीन चुनाव लगातार हार जाती है, वहाँ से वह एकदम साफ़ हो जाती है – तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, गुजरात और बिहार जैसे जीवंत उदाहरण मौजूद हैं, जहां अब कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं बचा है. स्वाभाविक है कि मप्र-छग में कांग्रेस अधिक चिंतित है, खासकर छत्तीसगढ़ में, जहां कांग्रेस का समूचा नेतृत्व ही नक्सली हमले में मारा गया.


मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने शुरुआत में हालांकि “एकता रैली” के नाम से प्रदेश के सारे क्षत्रपों को एक मंच पर इकठ्ठा करके, सबके हाथ में हाथ मिलाकर ऊँचा करने की नौटंकी करवाई, लेकिन जैसे-जैसे टिकट वितरण की घड़ी पास आती गई मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेताओं का पुराना “अनेकता” राग शुरू हो गया. सबसे पहली तकलीफ हुई कांतिलाल भूरिया को (जिन्हें दिग्विजय सिंह का डमी माना जाता है), क्योंकि राहुल गांधी चाहते थे कि शिवराज के मुकाबले प्रदेश में युवा नेतृत्व पेश किया जाए, स्वाभाविक ही राहुल की पहली पसंद बने ज्योतिरादित्य सिंधिया. जब चुनाव से एक साल पहले ही कांग्रेस ने सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया था, तब लोगों को लगने लगा था कि शायद अब भाजपा को चुनावों में कड़ी टक्कर मिलेगी. लेकिन राहुल के आदेशों को धता बताते हुए धीरे-धीरे पुराने घिसे हुए कांग्रेसियों जैसे कमलनाथ, कांतिलाल भूरिया, सुरेश पचौरी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, अजय सिंह इत्यादि ने अपने राग-रंग दिखाना शुरू कर दिए, और “आग में घी” कहिये या “करेला वो भी नीम चढा” कहिये, रही-सही कसर दिग्विजय सिंह ने पूरी कर दी. कहने को तो वे राहुल गांधी के गुरु कहे जाते हैं, लेकिन उन्हें भी यह कतई सहन नहीं है कि पिछले पांच साल तक लगातार “फील्डिंग” करने वाला उनका स्थानापन्न खिलाड़ी अर्थात कांतिलाल भूरिया अंतिम समय पर बारहवाँ खिलाड़ी बन जाए. इसलिए सिंधिया का नाम घोषित होते ही “आदिवासी” का राग छेड़ा गया. उधर अपने-अपने इलाके में मजबूत पकड़ रखने वाले नेता जैसे कमलनाथ (छिंदवाडा), अरुण यादव (खरगोन), चतुर्वेदी (बुंदेलखंड), अजय सिंह (रीवा) इत्यादि किसी कीमत पर अपना मैदान छोड़ने को तैयार नहीं थे. सो जमकर रार मचनी थी और वह मची भी. कई स्थापित नेताओं ने पैसा लेकर टिकट बेचने के आरोप खुल्लमखुल्ला लगाए, सुरेश पचौरी को विधानसभा का टिकट थमाकर उन्हें दिल्ली से चलता करने की सफल चालबाजी भी हुई. उज्जैन के सांसद प्रेमचंद गुड्डू ने तो कहर ही बरपा दिया, अपने बेटे को टिकिट दिलवाने के लिए जिस तरह की चालबाजी और षडयंत्र पूर्ण राजनीति दिखाई गई उसने राहुल गाँधी की “तथाकथित गाईडलाईन” की धज्जियाँ उड़ा दीं और कांग्रेस में एक नया इतिहास रच दिया. ज्योतिरादित्य सिंधिया की व्यक्तिगत छवि साफ़-सुथरी और ईमानदार की है, लेकिन उनके साथ दिक्कत यह है कि उनका राजसी व्यक्तित्व और व्यवहार उन्हें ग्वालियर क्षेत्र के बाहर आम जनता से जुड़ने में दिक्कत देता है. कांग्रेस में इलाकाई क्षत्रपों की संख्या बहुत ज्यादा है, जैसे कि सिंधिया को महाकौशल में कोई नहीं जानता, तो कमलनाथ को शिवपुरी-चम्बल क्षेत्र में कोई नहीं जानता. इसी प्रकार कांतिलाल भूरिया झाबुआ क्षेत्र के बाहर कभी अपनी पकड़ नहीं बना पाए, तो अजय सिंह को अभी भी अपने पिता अर्जुनसिंह की “छाया” से बाहर आने में वक्त लगेगा. कहने को तो सभी नेता मंचों और रैलियों में एकता का प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें शंका सताए जा रही है कि मानो “बिल्ली के भाग से छींका टूटा” और कांग्रेस सत्ता के करीब पहुँच गई तो निश्चित रूप से ज्योतिरादित्य का पलड़ा भारी रहेगा, क्योंकि कांग्रेस में मुख्यमंत्री दिल्ली से ही तय होता है और वहाँ सिर्फ सिंधिया और दिग्गी राजा के बीच रस्साकशी होगी, बाकी सब दरकिनार कर दिए जाएंगे, सो जमकर भितरघात जारी है.


अब आते हैं भाजपा की स्थिति पर... बीते पांच-सात वर्षों में शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में वाकई काफी काम किए हैं, खासकर सड़कों, स्वास्थ्य, लोकसेवा गारंटी और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में. बिजली के क्षेत्र में शिवराज उतना विस्तार नहीं कर पाए, लेकिन किसानों को विभिन्न प्रकार के बोनस के लालीपाप पकड़ाते हुए उन्होंने धीरे-धीरे पंचायत स्तर तक अपनी पकड़ मजबूत की हुई है. स्वयं शिवराज की छवि भी “तुलनात्मक रूप से” साफ़-सुथरी मानी जाती है. कांग्रेस के पास ले-देकर शिवराज के खिलाफ डम्पर घोटाले, जमीन हथियाना और खनन माफिया के साथ मिलीभगत के आरोपों के अलावा और कुछ है नहीं. इन मामलों में भी शिवराज ने “बहादुरी”(?) दिखाते हुए विपक्ष के आरोपों पर जमकर पलटवार किया है और मानहानि के दावे भी ठोंके हैं. लेकिन इस आपसी चिल्ला-चिल्ली के बीच जनता ने नगर निगम व पंचायत चुनावों में शिवराज को स्वीकार किया है. एक मोटा अनुमान है कि प्रदेश के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में अकेले शिवराज की छवि के नाम पर तीन से चार प्रतिशत वोट मिलेगा. जैसा कि हमने ऊपर देखा जहां कांग्रेस के सामने आपसी फूट और भीतरघात का खतरा है, कम से कम शिवराज के साथ वैसा कुछ नहीं है. प्रदेश में शिवराज का नेतृत्व, पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने पूरी तरह स्वीकार किया हुआ है. ना तो प्रभात झा और ना ही नरेंद्र सिंह तोमर, दोनों ही शिवराज की कुर्सी को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं. इसके अलावा शिवराज ने किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रप को उभरने ही नहीं दिया. इसके अलावा सुषमा स्वराज का वरदहस्त भी शिवराज के माथे है ही, क्योंकि सुषमा को विदिशा से लोकसभा में भिजवाना भी शिवराज की ही कारीगरी थी. अर्थात उनका एकछत्र साम्राज्य है. भाजपा ने भी चतुराई दिखाते हुए शिवराज के कामों का बखान करने की बजाय केन्द्र सरकार के मंत्रियों के बयानों और घोटालों पर अधिक फोकस किया है. कांग्रेस को इसका कोई तोड़ नहीं सूझ रहा. यही हाल कांग्रेस का भी है, उसे शिवराज के खिलाफ कुछ ठोस मुद्दा नहीं मिल रहा, इसलिए वह भाजपा के पुराने कर्म खोद-खोदकर निकालने में जुटी है.

लेकिन मध्यप्रदेश भाजपा के सामने चुनौती दुसरे किस्म की है, और वह है पिछले दस साल की सत्ता के कारण पनपे “भ्रष्ट गिरोह” और मंत्रियों-विधायकों से उनकी सांठगांठ. इस मामले में इंदौर के बाहुबली माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय की छवि सबसे संदिग्ध है. गत वर्षों में इंदौर का जैसा विकास(??) हुआ है, उसमें विजयवर्गीय ने सभी को दूर हटाकर एकतरफा दाँव खेले हैं. इनके अलावा नरोत्तम मिश्र सहित ११ अन्य मंत्रियों पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप लगते रहे हैं, लेकिन केन्द्र में सत्ता होने के बावजूद कांग्रेस उन्हें कभी भी ठीक से भुना नहीं पाई. अब चूंकि भाजपा ने मध्यप्रदेश में टिकट वितरण के समय शिवराज को फ्री-हैंड दिया था, इसी वजह से जनता की नाराजगी कम करने के लिए शिवराज ने वर्तमान विधायकों में से ४८ विधायकों के टिकिट काटकर उनके स्थान नए युवा चेहरों को मौका दिया है, हालांकि फिर भी किसी मंत्री का टिकट काटने की हिम्मत शिवराज नहीं जुटा पाए, लेकिन उन्होंने जनता में अपनी “पकड़” का सन्देश जरूर दे दिया. शिवराज के समक्ष दूसरी चुनौती हिंदूवादी संगठनों के आम कार्यकर्ताओं में फ़ैली नाराजगी भी है. धार स्थित भोजशाला के मामले को जिस तरह शिवराज प्रशासन ने हैंडल किया, वह बहुत से लोगों को नाराज़ करने वाला रहा. सरस्वती पूजा को लेकर जैसी राजनीति और कार्रवाई शिवराज प्रशासन ने की, उससे न तो मुसलमान खुश हुए और ना ही हिन्दू संगठन. इसके अलावा हालिया रतनगढ़ हादसा, इंदौर के दंगों में उचित कार्रवाई न करना, खंडवा की जेल से सिमी आतंकवादियों का फरार होना और भोपाल में रजा मुराद के साथ मंच शेयर करते समय मोदी पर की गई टिप्पणी जैसे मामले भी हैं, जो शिवराज पर “दाग” लगाते हैं. इसी प्रकार कई जिलों में संघ द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला, जिसकी वजह से जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं में नाराजगी बताई जाती है. शिवराज के पक्ष में सबसे बड़ी बात है शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में खुद शिवराज और फिर नरेंद्र मोदी की छवि के सहारे मिलने वाले वोट. ये बात और है कि मप्र में शिवराज ने अपनी पूरी संकल्प यात्रा के दौरान पोस्टरों में नरेंद्र मोदी का चित्र लगाने से परहेज किया है. यह भाजपा की अंदरूनी राजनीति भी हो सकती है, हालांकि शिवराज की खुद की छवि और पकड़ मप्र में इतनी मजबूत है कि उन्हें मोदी के सहारे की जरूरत, कम से कम विधानसभा चुनाव में तो नहीं है. हालांकि नरेंद्र मोदी की प्रदेश में २० चुनावी सभाएं होंगी.


कुल मिलाकर, यदि शिवराज अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार को स्वयं की छवि और योजनाओं के सहारे दबाने-ढंकने में कामयाब हो गए तो आसानी से ११६ सीटों का बहुमत बना ले जाएंगे, लेकिन यदि ग्रामीण स्तर पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत नहीं की, तो मुश्किल भी हो सकती है. जबकि दूसरा पक्ष अर्थात कांग्रेस भी यदि आपसी सिर-फुटव्वल कम कर ले, अपने-अपने इलाके बाँटकर चुनाव लड़े, भाजपा की कमियों को ठीक से भुनाए, तो वह भाजपा को चुनौती भी पेश कर सकती है. हालांकि जनता के बीच जाने और बातचीत करने पर यह चुनाव 60-40 का लगता है (अर्थात ६०% भाजपा, ४०% कांग्रेस). यदि कांग्रेस में आपस में जूतमपैजार नहीं हुई तो जोरदार टक्कर होगी. वहीं शिवराज यदि ठीक से “डैमेज कंट्रोल मैनेजमेंट” कर सके, तो आसानी से नैया पार लगा लेंगे. आम भाजपाई उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शिवराज के काँधे पर सवार होकर वे पार निकल जाएंगे, जबकि काँग्रेसी सोच रहे हैं कि शायद पिछले दस साल का “एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर” काम कर जाएगा.

आगामी ८ दिसंबर को पता चलेगा कि शिवराज सिंह को मप्र की जनता तीसरा मौका देती है या नहीं? और यदि जनता ने शिवराज को तीसरा मौका दे दिया तो समझिए कि कांग्रेस के लिए यह प्रदेश भी भविष्य में एक दुस्वप्न ही बन जाएगा. जबकि खुद शिवराज का कद पार्टी में बहुत ऊँचा हो जाएगा.
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शुक्रवार, 08 नवम्बर 2013 14:04

Hindu Saints on Target - Conspiracy of Church and Secularists



सिर्फ हिन्दू संत ही निशाने पर क्यों??...

प्राचीनकाल में राजघराने हुआ करते थे, ज़ाहिर है उन राजघरानों के कई काले कारनामे भी हुआ करते थे. उन राजघरानों की परम्परा के अनुसार “एक परिवार” ही जनता पर अनंतकाल तक शासन किया करता था. जब कभी इन राजघरानों अथवा उनके अत्याचारों के खिलाफ किसी ने आवाज़ उठाई या तो उसे दीवार में चुनवा दिया जाता था, अथवा हाथी के पैरों तले रौंद दिया जाता था.... आज चाहे ज़माना थोड़ा बदल क्यों न गया हो, लेकिन “राजघरानों” की मानसिकता अभी भी वही है, आधुनिक कालखंड में बदलाव सिर्फ इतना आया है कि अब विरोधियों को जान से मारने की आवश्यकता कम ही पड़ती है,  उन से निपटने और “निपटाने” के नए-नए तरीके ईजाद हो गए हैं.

सारी दुनिया में यह बात मशहूर है कि “चर्च” संस्था (या जिसे हम “मिशनरी” कहें, एक ही बात है), अपने विरोधियों को खत्म करने के लिए षडयंत्र और चालबाजियाँ करने में माहिर है. चर्च के “गुर्गे” (जो पूरी दुनिया में फैले हुए हैं) अपने “लक्ष्य” के रास्ते में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को येन-केन-प्रकारेण समाप्त करने में विश्वास रखते हैं. वेटिकन को अपना “धर्मांतरण मिशन” जारी रखने के लिए निर्बाध रास्ता चाहिए होता है, साथ ही चर्च “दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है” वाले सिद्धांत पर काम करते हुए उस प्रत्येक संस्था से गाहे-बगाहे हाथ मिलाता, सहयोग करता चलता है जो उसके उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होते हैं, फिर चाहे वे नक्सली हों या बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ...

जैसा कि सभी जानते हैं, शंकराचार्य को हिन्दू धर्म में एक उच्च स्थान प्राप्त होता है. शंकराचार्य की पदवी कोई साधारण पदवी नहीं होती, और हिंदुओं के मन में उनके प्रति आदर-सम्मान से अधिक श्रद्धाभाव होता है. लेकिन जब शंकराचार्य जैसे ज्ञानी और संत व्यक्ति को कोई सरकार सिर्फ आरोपों के आधार पर बिना किसी जाँच के, आधी रात को आश्रम से उठाकर जेल में ठूँस दे तो आम हिन्दू को कैसा महसूस होगा? तमिलनाडु में कांची कामकोटि के शंकराचार्य के साथ यही किया गया था. बगैर कोई मौका या सफाई दिए ही शंकराचार्य जैसी हस्ती को एक मामूली जेबकतरे की तरह उठाकर जेल में बंद कर दिया जाता है...


“कट” टू सीन २ – उड़ीसा के घने जंगलों में मिशनरी की संदिग्ध और धर्मांतरण की गतिविधियों के खिलाफ जोरदार अभियान चलाने वाले तथा आदिवासियों को चर्च के चंगुल में जाने से बचाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो जाती है. हालाँकि हत्या होने से पहले स्वामी जी लगातार कई बार उनको मिली हुई धमकियों के बारे में प्रशासन को बताते हैं, लेकिन सरकार कोई ध्यान नहीं देती... कुछ नकाबपोश आधी रात को आते हैं और एक ८२ वर्षीय वयोवृद्ध संन्यासी को गोली मारकर चलते बनते हैं...

“कट” टू सीन ३ – कर्नाटक में सनातन धर्म की अलख जगाए रखने तथा चर्च/मिशनरी के बढ़ते क़दमों को थामने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ओजस्वी युवा संत नित्यानंद सरस्वती को एक अभिनेत्री के साथ अंतरंग दृश्यों का वीडियो “लीक” किया जाता है. तत्काल भारत का सेकुलर मीडिया उछल-उछलकर नित्यानंद सरस्वती के खिलाफ एक सुनियोजित अभियान चलाने लगता है. TRP का भूखा, और सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा फेंकी हुई हड्डी चबाने में माहिर यह मीडिया अपना “काम”(???) बखूबी अंजाम देता है. नित्यानंद सरस्वती को जमकर बदनाम किया जाता है...


“कट” टू सीन ४ – दिल्ली का रामलीला मैदान, सैकड़ों स्त्री-पुरुष-वृद्ध-बच्चे आधी रात को थक-हारकर सोए हुए हैं. अचानक दिल्ली पुलिस उन पर लाठियाँ और आँसू गैस के साथ टूट पड़ती है. बाबा रामदेव को गिरफ्तार कर लिया जाता है. उनके विश्वस्त सहयोगी बालकृष्ण के खिलाफ ढेर सारे मामले दर्ज कर लिए जाते हैं. यहाँ भी मीडिया अपनी “दल्लात्मक” भूमिका बखूबी निभाता है. यह मीडिया खुद ही केस चलाता है, और स्वयं ही  ही फैसला भी सुना देता है. बालकृष्ण और बाबा रामदेव के खिलाफ एक भी ठोस मामला सामने नहीं आने, किसी भी थाने में मजबूत केस तक न होने और न्यायालय में कहीं भी न टिकने के बावजूद बाबा रामदेव को “ठग”, “चोर”, “मिलावटी”, “भगोड़ा” इत्यादि से विभूषित किया जाता है.

आसाराम का मामला हो चाहे साध्वी प्रज्ञा का मामला हो...ऐसे और भी कई मामले हैं, लेकिन एक “पैटर्न” दिखाने के लिए सिर्फ उपरोक्त चारों मामले ही पर्याप्त हैं... आईये देखते हैं कि आखिर यह पैटर्न क्या है???

जैसा कि मैंने पहले बताया, सनातन धर्म में दक्षिण स्थित कांची कामकोटि का पीठ सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है. कांची के शंकराचार्य हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार एवं अध्ययन-पठन हेतु कई केन्द्र चलाते हैं. तमिलनाडु में “ब्राह्मण विरोधी” या कहें कि द्रविड़ राजनीति की जड़ें बहुत गहरी हैं. इसी प्रकार दक्षिण में चर्च की गतिविधियाँ भी बेहद तेजी से बढ़ी हैं और लगातार अपने पैर पसार रही हैं. चाहे करूणानिधि द्वारा भगवान राम के अस्तित्त्व को नकारना हो अथवा अन्य तमिल पार्टियों द्वारा रामसेतु को तोड़ने में भारी दिलचस्पी दिखाना हो, सभी हिन्दू विरोधी मामलों में द्रविड़ पार्टियाँ खासी सक्रिय रहती हैं. ऐसे में कांची पीठ के सबसे सम्मानित शंकराचार्य को हत्या के मामले में फँसाना, (और न सिर्फ फँसाना, बल्कि ऐसी “व्यवस्था” करना कि उन्हें कम से कम एक रात तो जेल में काटनी ही पड़े) चर्च के लिए बहुत लाभकारी, लेकिन सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए बड़ा झटका ही था. उपरोक्त सभी घटनाओं का मकसद यह था कि किसी भी तरह से हिंदुओं की धार्मिक भावनाएँ आहत हों, उनका अपमान हो, उनमें न्यूनता का अहसास करवाया जाए, ताकि धर्मांतरण के आड़े आने वाले (या भविष्य में आ सकने वाले) लोगों को सबक मिले.

दूसरी घटना के बारे में भी तथ्य यह हैं कि - नक्सली कमाण्डर पांडा ने एक उड़िया टीवी चैनल को दी गई भेंटवार्ता में दावा किया कि स्वामी लक्ष्मणानन्द को उन्होंने ही मारा है। पांडा का कहना था कि चूंकि लक्ष्मणानन्द सामाजिक अशांति(???) फ़ैला रहे थे, इसलिये उन्हें खत्म करना आवश्यक था। जिस प्रकार त्रिपुरा में NFLT नाम का उग्रवादी संगठन बैप्टिस्ट चर्च से खुलेआम पैसा और हथियार पाता है, उसी प्रकार अब यह साफ़ हो गया है कि उड़ीसा और देश के दूरदराज में स्थित अन्य आदिवासी इलाकों में नक्सलियों और चर्च के बीच एक मजबूत गठबंधन बन गया है, वरना क्या कारण है कि इन इलाकों में काम करने वाली मिशनरी संस्थाओं को तो नक्सली कोई नुकसान नहीं पहुँचाते, लेकिन गरीब और मजबूर आदिवासियों को नक्सली अपना निशाना बनाते रहते हैंथोड़ा कुरेदने पर पांडा ने स्वीकार किया कि नक्सलियों के उड़ीसा स्थित कैडर में ईसाई युवकों की संख्या ज्यादा है, उन्होंने माना कि उनके संगठन में ईसाई लोग बहुमत में हैं, उड़ीसा के रायगड़ा, गजपति, और कंधमाल में काम कर रहे लगभग सभी नक्सली ईसाई हैं।

अब स्वामी नित्यानंद वाले मामले पर आते हैं – दक्षिण के एक चैनल ने सबसे पहले इस स्टोरी(??) को दिखाया था. नित्यानंद को जमकर बदनाम किया गया, तरह-तरह के आरोप लगाए गए, अभिनेत्री रंजीता को भी इसमें लपेटा गया. मीडिया ट्रायलकर-करके इस मामले में हिन्दू धर्म, भगवा वस्त्रों इत्यादि को भी जमकर कोसा गया. जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ा पता चला कि पुलिस और चैनलों को नित्यानंद की सीडी देकर आरोप लगाने वाला व्यक्ति कुरुप्पन लेनिन एक धर्म-परिवर्तित ईसाई है और यह व्यक्ति पहले एक फ़िल्म स्टूडियो में काम कर चुका है तथा "वीडियो मॉर्फ़िंग" में एक्सपर्ट है। जब अमेरिकी लैबोरेट्री में उस वीडियो की जाँच हुई तो यह सिद्ध हुआ कि वह वीडियो नकली था, गढा गया था. प्रणव जेम्सरॉय के चैनल NDTV ने सबसे पहले नित्यानन्द स्वामी के साथ नरेन्द्र मोदी की तस्वीरें दिखाईं और चिल्ला-चिल्लाकर नरेन्द्र मोदी को इस मामले में लपेटने की कोशिश की (गुजरात के दो-दो चुनावों में बुरी तरह से जूते खाने के बाद NDTV और उसके चमचों के पास अब यही एक रास्ता रह गया है मोदी को पछाड़ने के लिये)। लेकिन जैसे ही अगले दिन से “ट्विटर” पर स्वामी नित्यानन्द की तस्वीरें गाँधी परिवार के चहेते एसएम कृष्णा और एपीजे अब्दुल कलाम के साथ भी दिखाई दीं, तुरन्त NDTV का मोदी विरोधी सुर धीमा पड़ गया. यहाँ तक कि नित्यानन्द के स्टिंग ऑपरेशन मामले को सही ठहराने के लिये NDTV ने नारायणदत्त तिवारी वाले मामले का सहारा भी लिया तथा दोनों को एक ही पलड़े पर रखने की कोशिश की। जबकि वस्तुतः एनडी तिवारी एक संवैधानिक पद पर थे, उन्होंने राजभवन और अपने पद का दुरुपयोग किया और तो और होली के दिन भी वह लड़कियों से घिरे नृत्य कर रहे थे। जबकि नित्यानन्द तथाकथित रूप से जो भी कर रहे थे अपने आश्रम के बेडरूम में कर रहे थे, बगैर किसी प्रलोभन या दबाव के, इसलिये इन दोनों मामलों की तुलना तो हो ही नहीं सकती। परन्तु जब दो-दो “C” अर्थात चर्च और चैनल आपस में मिले हुए हों तो किसी को बदनाम करना इनके बाँए हाथ का खेल है.


5-M (अर्थात मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले और मार्केट) के हाथों बिके हुए भारतीय मीडिया ने स्वामी नित्यानन्द की सीडी सामने आते ही तड़ से उन्हें अपराधी घोषित कर दिया है, ठीक उसी तरह जिस तरह कभी संजय जोशी और संघ को किया था (हालांकि बाद में उनकी सीडी भी फ़र्जी पाई गई), या जिस तरह से  कांची के वयोवृद्ध शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती को तमिलनाडु की सरकार ने गिरफ़्तार करके सरेआम बेइज्जत किया था। अर्थात जब भी कोई हिन्दू आईकॉनकिसी भी सच्चे-झूठे मामले में फ़ँसे तो मीडिया उन्हें अपराधीघोषित करने में देर नहीं करता और इस समय किसी मानवाधिकारवादी के आगे-पीछे कहीं से भी “कानून अपना काम करेगा…” वाला सुर नहीं निकलता। यही हाल मीडिया का भी है, जब हिन्दू संतों को बदनाम करना होगा, खुद की टीआरपी बढानी होगी उस समय तो चीख-चीखकर उनके एंकर टीवी का पर्दा फाड़ देंगे, लेकिन जब वही संत अदालतों द्वारा बेदाग़ बरी कर दिए जाते हैं उस समय यही अखबार और चैनल अपने मुँह में दही जमाकर बैठ जाते हैं. माफीनामा भी पेश करते हैं तो चुपके-चुपके अथवा अखबार के आख़िरी पन्ने पर किसी कोने में.... नित्यानंद की सेक्स सीडी फर्जी पाए जाने पर कोर्ट ने मीडिया को जमकर लताड़ लगाई थी, उनसे माफीनामा भी दिलवाया गया, परन्तु ये “भेडिये” इतनी आसानी से सुधरने वाले नहीं हैं, क्योंकि इनके सिर पर “चर्च” और सरकार (शायद एक ही बात है) का हाथ है.

अब आते हैं बाबा रामदेव के मामले पर – जिस दिन तक बाबा रामदेव सिर्फ योग सिखाते थे, उस दिन तक तो बाबा रामदेव एकदम पवित्र थे, बाबा के आश्रम में सभी पार्टियों के नेता आते रहे, रामदेव बाबा से योग सीखने-सिखाने का दौर चलता रहा. दो साल पहले जैसे ही बाबा रामदेव ने इस देश के सबसे पवित्र परिवार (अर्थात गाँधी परिवार) और काँग्रेस पर उँगली उठाना शुरू किया उसी दिन से “सत्ता के गलियारे” में बैठे हुए अजगर अचानक जागृत हो गए. काले धन को वापस लाने की माँग इन अजगरों को इतनी नागवार गुज़री कि इन्होंने बाबा रामदेव के पीछे देश की सभी एजेंसियाँ लगा डालीं. बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तो बाबा रामदेव से पहले ही खार खाए बैठी थीं, क्योंकि बाबा रामदेव की वजह से कोक-पेप्सी सहित अन्य कई नकली पदार्थों की बिक्री भी प्रभावित हुई तथा उनकी “गढी हुई छवि” भी खराब हुई. सत्ता के अजगर और निहित स्वार्थों से भरी खून चूसक कंपनियों ने बाबा रामदेव के खिलाफ शिकंजा कसना आरम्भ कर दिया जो आज दिनांक तक जारी है.

धर्मांतरण करवाने वाले “चर्च” और मीडिया की सांठगांठ इतनी मजबूत है कि - जैसे ही मीडिया में आया कि मालेगाँव धमाके में पाई गई मोटरसाईकिल भगवाधारी हिन्दू साध्वी प्रज्ञा की थी (जो काफ़ी पहले उन्होंने बेच दी थी), कि तड़ से “हिन्दू आतंकवाद” नामक शब्द गढ़कर हिन्दुओं पर हमले शुरु…। भले ही जेल में टुंडा, मदनी और रियाज़ भटकल ऐश कर रहे हों, लेकिन साध्वी प्रज्ञा को अण्डे खिलाने की कोशिश या गन्दी-गन्दी गालियाँ देना होमहिला आयोग, सारे के सारे फर्जी नारीवादी संगठन सब कहीं दुबक कर बैठ जाते हैं, क्योंकि मीडिया ने तो पहले ही उन्हें अपराधी घोषित कर दिया है। इस नापाक गठबंधन की पोल इस बात से भी खुल जाती है कि आज तक भारत के कितने अखबारों और चैनलों ने वेटिकन और अन्य पश्चिमी देशों में चर्च की आड़ में चल रहे देह शोषण के मामलों को उजागर किया है? चलिये वेटिकन को छोड़िये, जैसा कि ऊपर आँकड़े दिए गए हैं, केरल में ही हत्या-बलात्कार-अपहरण के सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं यह कितने लोगों को पता है… और पश्चिम में चर्च तो इतनी तरक्की कर चुका है, कि उधर सिर्फ़ महिलाओं के ही साथ यौन शोषण नहीं होता बल्कि पुरुषों के साथ भी “गे-सेक्स” के मामले सामने आ रहे हैं… इस लिंक पर द गार्जियन की खबर पढ़िये… 

http://www.guardian.co.uk/world/2010/mar/04/vatican-gay-sex-scandal 

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में मिशनरी संस्थाओं का सबसे अधिक ज़मीन पर कब्जा है, लेकिन आसाराम की जमीन को लेकर “कोहर्रम” मचाने वाले मीडिया ने कभी हल्ला मचाया? माओवादियों और नक्सलवादियों के कैम्पों में महिला कैडर के साथ यौन शोषण और कण्डोम मिलने की खबरें कितने चैनल दिखाते हैं? लेकिन चूंकि हिन्दू धर्मगुरु के आश्रम में हादसा हुआ है तो मीडिया ऐसे सवालों को सुविधानुसार भुला देता है, और कोशिश की जाती है कि येन-केन-प्रकारेण नरेन्द्र मोदी या संघ या भाजपा का नाम इसमें जोड़ दिया जाये, अथवा कहीं कुछ नहीं मिले तो हिन्दू संस्कृति-परम्पराओं को ही गरिया दिया जाये।

सूचना के अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार केरल में 63 पादरियों पर मर्डर, बलात्कार, अवैध वसूली और हथियार रखने के मामले विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज हैं। केरल पुलिस द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पिछले सात वर्षों में दो पादरियों को हत्या के जुर्म में सजा मिल चुकी है, जबकि दस अन्य को “हत्या के प्रयास” की धाराओं में चार्जशीट किया गया है। कम्युनिस्टों का नक्सली कैडर और चर्च दोनों मिलकर एक घातक कॉम्बिनेशनबनाते हैं। हालाँकि इसके लिये काफ़ी हद तक हमारे आस्तीन में पल रहे नकली सेकुलरभी जिम्मेदार हैं।  इस देश में जो भी व्यक्ति “चर्च”, “चर्च के गुर्गों” अथवा “पवित्र परिवार” के खिलाफ कोई भी अभियान अथवा आंदोलन चलाएगा उसका यही हश्र होगा. स्वाभाविक है कि देश की दुर्दशा को देखते हुए हिन्दू संत अब धीरे-धीरे मुखर होने लगे हैं, इसलिए इन पर गाज गिरने लगी है. हिन्दू संतों के खिलाफ लगातार जारी इस दुष्प्रचार और दोगलेपन को समय-समय पर प्रकाशित और प्रचारित किया ही जाना चाहिये, हमें जनता को बताना होगा कि ये लोग किस तरह से पक्षपाती हैं, पक्के हिन्दू-विरोधी हैं। आए दिन “सिर्फ और सिर्फ” हिन्दू संतों के खिलाफ किये जाने वाले षडयंत्र और विभिन्न मामलों में उन्हें बदनाम करके फँसाने व उनसे बदले की कार्रवाईयाँ एक बड़े “खेल” की ओर इशारा करती हैं...  
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