desiCNN - Items filtered by date: दिसम्बर 2012
गुरुवार, 27 दिसम्बर 2012 17:34

Italian Mariners Shooting in Arabian Sea and Kerala High Court

इटली  के जहाजियों पर इतनी मेहरबानी क्यों???

इटली से आए हुए जहाज़ पर सवार, दम्भी और अकडू किस्म के कैप्टन जिन्होंने भारतीय जल सीमा में भारत के दो गरीब नाविकों को गोली से उड़ा दिया था, उनकी याद तो आपको होगी ही...

गत सप्ताह भारत सरकार ने भारी दयानतदारी दिखाते हुए "अपनी जमानत" पर उन्हें क्रिसमस मनाने के लिए इटली जाने हेतु केरल हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल की थी, जिसे हाईकोर्ट ने, इस शर्त पर कि ये दोनों कैप्टन १८ जनवरी से पहले वापस भारत आकर मुक़दमे और जेल का सामना करेंगे... स्वीकार कर लिया...





केरल  हाईकोर्ट ने कहा कि, जब भारत सरकार "मानवता के नाते"(?) इन नौसनिकों की गारंटी ले रही है, तो इन्हें ६ करोड रूपए की जमानत पर छोड़ा जा सकता है. सवाल उठता है कि क्या ये नौवहन कर्मचारी इटली के अलावा किसी और देश के होते, तब भी भारत की सरकार इतनी दयानतदारी दिखाती?? इस "खतरनाक परम्परा" से तो यह भी संभव है कि पाकिस्तान या बांग्लादेश का का कोई नागरिक "ईद" मनाने के लिए जमानत माँग ले... देखना यह है कि चोरी, अधिक समय तक देश में रुकने, या छोटे-मोटे अपराधों के जुर्म में कैद भारतीय नागरिक यदि दीपावली मनाने भारत आना चाहे, तो क्या "मानवता के नाते", भारत की सरकार उस नागरिक की मदद करेगी???

"गांधी के सिद्धांतों की सच्ची अनुयायी भारत सरकार" ने यह तथ्य जानते-बूझते हुए इटली के उन कैप्टंस को क्रिसमस मनाने के लिए अपने देश जाने की इजाज़त दी है कि, इटली की जेलों में कैद 109 भारतीयों के बारे में इटली सरकार दया दिखाना तो दूर, उनकी जानकारी तक देने को तैयार नहीं है... जबकि हमारे यहाँ कैद इटली के इन जहाजियों को पांच सितारा सुविधाओं के साथ एक गेस्ट हाउस में "कैद"(??) करके रखा गया था.

संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में स्वयं शशि थरूर ने लिखित में स्वीकार किया है कि बांग्लादेश में ३२७, चीन में १६९, इटली में १०९, कुवैत में २२८, मलेशिया में ४५८, नेपाल में ३६५, पाकिस्तान में ८४२, क़तर में ३६६, सौदे अरब में १२२६, सिंगापुर में २२५, संयुक्त अरब अमारात में १०९२, ब्रिटेन में ३३७, अमेरिका में १९३ भारतीय नागरिक सम्बंधित देशों की जेल में बंद हैं...

==================
भारत सरकार का विदेशों में ऐसा "जलवा" है कि इनमें से इटली, ब्रिटेन, सउदी अरब, जैसे कुछ देशों ने भारतीय कैदियों की पूरी जानकारी देने से मना कर दिया... और भारतीय विदेश राज्यमंत्री को उलटे पाँव भगा दिया...

लगता है भारत में सारी सुविधाएं और मानवता, पाकिस्तान से आने वाले कसाब-अफजल टाइप के "मेहमानों", इटली के नागरिकों और "पवित्र परिवार" के दामादों के लिए ही आरक्षित हैं...

स्रोत :- http://www.idsa.in/system/files/IndianslanguishinginForeignJails.pdf
Published in ब्लॉग
शुक्रवार, 14 दिसम्बर 2012 07:18

Conspiracy Against Hindi Language through Roman

तेज़ी से बढ़ता अंग्रेजी और रोमन लिपि का इस्तेमाल

नोट  :- (यह लेख मित्र श्री प्रवीण कुमार जैन, वर्त्तमान निवासी मुम्बई, मूल निवासी रायसेन मध्यप्रदेश द्वारा उनके ब्लॉग पर लिखा गया है, हिन्दी के पक्ष में जनजागरण के प्रयासों के तहत, उनकी अनुमति से इसका पुनः प्रकाशन मेरे ब्लॉग पर किया जा रहा है)
===========================

पिछले १-२ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है, हिंदी के कई खबरिया चैनलों और अख़बारों (परन्तु सभी समाचार चैनल या अखबार नहीं) में अंग्रेजी और रोमन लिपि का इतना अधिक प्रयोग शुरू हो चुका है कि उन्हें हिंदी चैनल/हिंदी अखबार कहने में भी शर्म आती है. मैंने  कई संपादकों को लिखा भी कि अपने हिंदी समाचार चैनल/ अख़बार को अर्द्ध-अंग्रेजी चैनल / अख़बार(सेमी-इंग्लिश) मत बनाइये पर इन चैनलों/ अख़बारों  के कर्ताधर्ताओं को ना तो अपने पाठकों से कोई सरोकार है और ना ही हिंदी भाषा से, इनके लिए हिंदी बस कमाई का एक जरिया है.
मुझे विश्वास है कि आने वाले समय में इनकी अक्ल ठिकाने जरूर आएगी क्योंकि आम दर्शक और पाठक के लिए हिंदी उनकी अपनी भाषा है, माँ भाषा है. 
मुट्ठीभर लोग हिंदी को बर्बाद करने में लगे हैं
आज दुनियाभर के लोग हिंदी के प्रति आकर्षित हो रहे हैं, विश्व की कई कम्पनियाँ/विवि/राजनेता हिंदी के प्रति रुचि दिखा रहे हैं पर भारत के मुट्ठीभर लोग हिंदी और भारत की संस्कृति का बलात्कार करने में लगे हैं क्योंकि इनकी सोच कुंद हो चुकी है इसलिए चैनलों/ अख़बारों के कर्ताधर्ता नाम और दौलत कमाते तो हिंदी के दम पर हैं पर गुणगान अंग्रेजी का करते हैं. 
हिंदी को बढ़ावा देने या प्रसार करने या  इस्तेमाल को बढ़ावा देने में इन्हें शर्म आती है इनके हिसाब से भारत की हाई सोसाइटी में हिंदी की कोई औकात नहीं है और ये सब हिंदी की कमाई के दम पर उसी हाई सोसाइटी का अभिन्न अंग बन चुके हैं. इसलिए बार-बार नया कुछ करने के चक्कर में हिंदी का बेड़ा गर्क करने में लगे हुए हैं. 
शुरू-२ में देवनागरी के अंकों (१२३४५६७८९०) को टीवी और मुद्रण से हकाला गया, दुर्भाग्य से ये अंक आज इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं और अब बारी है रोमन लिपि की घुसपैठ की, जो कि धीरे-२ शुरू हो चुकी है ताकि सुनियोजित ढंग से देवनागरी लिपि को भी धीरे-२ खत्म किया जाए. कई अखबार और चैनल आज ना तो हिंदी के अखबार/चैनल बचे हैं और न ही वे पूरी तरह से अंग्रेजी के चैनल बन पाए हैं. इन्हें आप हिंग्लिश या खिचड़ा कह सकते हैं.
ऐसा करने वाले अखबार और चैनल मन-ही-मन फूले नहीं समां रहे हैं, उन्होंने अपने-२ नये आदर्श वाक्य चुन लिए हैं जैसे- नये ज़माने का अखबार, यंग इण्डिया-यंग न्यूज़पेपर, नेक्स्ट-ज़ेन न्यूज़पेपर, इण्डिया का नया टेस्ट आदि-आदि. जैसे हिंदी का प्रयोग पुराने जमाने/ पिछड़ेपन की निशानी हो. यदि ये ऐसा मानते हैं तो अपने हिंदी अखबार/चैनल बंद क्यों नहीं कर देते? सारी हेकड़ी निकल जाएगी क्योंकि हम सभी जानते हैं हिंदी मीडिया समूहों द्वारा शुरू किये अंग्रेजी चैनलों/अख़बारों की कैसी हवा निकली हुई है. (हेडलाइंस टुडे/डीएनए/ डीएनए मनी /एचटी आदि).
क़ानूनी रूप से देखा जाए तो सरकारी नियामकों को इनके पंजीयन/लाइसेंस को रद्द कर देना चाहिए क्योंकि इन्होंने पंजीयन/लाइसेंस हिंदी भाषा के नाम पर ले रखा है. पर इसके लिए जरूरी है कि हम पाठक/दर्शक इनके विरोध में आवाज़ उठाएँ और अपनी शिकायत संबंधित सरकारी संस्था/मंत्रालय के पास जोरदार ढंग से दर्ज करवाएँ. कुछ लोग कह सकते हैं ‘अरे भाई इससे क्या फर्क पड़ता है? नये ज़माने के हिसाब से चलो, भाषा अब कोई मुद्दा नहीं है, जो इंग्लिश के साथ रहेगा वाही टिकेगा आदि.
हिंदी के कारण आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ताकत बढ़ रही है और भारत के  कई बड़े समाचार चैनल /पत्रिका/समाचार-पत्र ‘हिंदी’ के कारण ही करोड़ों-अरबों के मालिक बने हैं, नाम और ख्याति पाए हैं पर ये सब होने के बावजूद आधुनिकता/नयापन/कठिनता के नाम पर  हिंदी प्रचलित शब्दों और हिंदी लिपि को अखबार/वेबसाइट/पत्रिका/चैनल हकाल रहे हैं धडल्ले से बिना किसी की परवाह किये रोमन लिपि का इस्तेमाल  कर रहे हैं.
हिंदी के शब्दों को कुचला जा रहा है 
हिंदी में न्यूज़ और खबर के लिए एक बहुत सुन्दर शब्द है ‘समाचार’ जिसका प्रयोग  दूरदर्शन के अलावा किसी भी निजी चैनल पर वर्जित जान पड़ता है ऐसे ही सैकड़ों हिंदी शब्दों (समय, दर्शक, न्यायालय, उच्च शिक्षा, कारावास, असीमित, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, विराम, अधिनियम, ज्वार-भाटा, सड़क, विमानतल, हवाई-जहाज-विमान, मंत्री, विधायक, समिति, आयुक्त,पीठ, खंडपीठ, न्यायाधीश, न्यायमूर्ति, भारतीय, अर्थदंड, विभाग, स्थानीय, हथकरघा, ग्रामीण, परिवहन, महान्यायवादी, अधिवक्ता, डाकघर, पता, सन्देश, अधिसूचना, प्रकरण, लेखा-परीक्षा, लेखक, महानगर, सूचकांक, संवेदी सूचकांक, समाचार कक्ष, खेल-कूद/क्रीड़ा, डिब्बाबंद खाद्यपदार्थ, शीतलपेय, खनिज, परीक्षण, चिकित्सा, विश्वविद्यालय, प्रयोगशाला, प्राथमिक शाला, परीक्षा-परिणाम, कार्यालय, पृष्ठ, मूल्य आदि-आदि ना जाने कितने ऐसे शब्द  हैं जो अब टीवी/अखबार पर सुनाई/दिखाई ही नहीं देते हैं ) को डुबाया/कुचला जा रहा है, नये-नये अंग्रेजी के शब्द थोपे जा रहे हैं.
क्या हम अंगेजी चैनल पर हिंदी शब्दों और हिंदी लिपि के इस्तेमाल के बारे में सपने में भी सोच सकते हैं? कदापि नहीं.  फिर हिंदी समाचार चैनलों पर रोमन लिपि और अनावश्यक अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल क्यों ? क्या सचमुच हिंदी इतनी कमज़ोर और दरिद्र है? नहीं, बिल्कुल नहीं.
हमारी भाषा विश्व की सर्वश्रेष्ठ और अंग्रेजी के मुकाबले लाख गुना वैज्ञानिक भाषा है. जरूरत है हिंदी वाले इस बारे में सोचें.आज जो स्थिति है उसे देखकर लगता है कि भारत की हिंदी भी फिजी हिंदी की तरह कुछ वर्षों में मीडिया की बदौलत रोमन में ही लिखी जाएगी!!!
मुझे हिंदी से प्यार है इसलिए बड़ी खीझ उठती है, दुःख होता है. डर भी लगता है कि कहीं हिंदी के अंकों (१,२,३,४,५,६,७,८,०) की तरह धीरे-२ हमारी लिपि को भी हकाला जा रहा है. आज हिंदी अंक इतिहास बन चुके हैं, पर भला हो गूगल का जिसने इनको पुनर्जीवित कर दिया है.
हिंदी संक्षेपाक्षर क्या बला है इनको पता ही नहीं 

हिंदी संक्षेपाक्षर सदियों से इस्तेमाल होते आ रहे हैं, मराठी में तो आज भी संक्षेपाक्षर का प्रयोग भरपूर किया जाता है और नये-२ संक्षेपाक्षर बनाये जाते हैं पर आज का हिंदी मीडिया इससे परहेज़ कर रहा है, देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि का उपयोग कर रहा है. साथ ही मीडिया हिंदी लिपि एवं हिंदी संक्षेपाक्षरों के प्रयोग को हिंदी के प्रचार में बाधा मानता है, जो पूरी तरह से निराधार और गलत है. 
“मैं ये मानता हूँ कि बोलचाल की भाषा में हिंदी संक्षेपाक्षरों की सीमा है पर कम से कम लेखन की भाषा में इनके प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए और जब सरल हिंदी संक्षेपाक्षर उपलब्ध हो या बनाया जा सकता हो तो अंग्रेजी संक्षेपाक्षर का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए.”
मैं अनुरोध करूँगा कि नए-नए सरल हिंदी संक्षेपाक्षर बनाये जाएँ और उनका भरपूर इस्तेमाल किया जाये, मैं यहाँ कुछ हिंदी संक्षेपाक्षरों की सूची देना चाहता हूँ जो हैं तो पहले से प्रचलन में हैं अथवा इनको कुछ स्थानों पर इस्तेमाल किया जाता है पर उनका प्रचार किया जाना चाहिए, आपको कुछ अटपटे और अजीब भी लग सकते हैं, पर जब हम एक विदेशी भाषा अंग्रेजी के सैकड़ों अटपटे शब्दों/व्याकरण को स्वीकार कर चुके हैं तो अपनी भाषा के थोड़े-बहुत अटपटे संक्षेपाक्षरों को भी पचा सकते हैं बस सोच बदलने की ज़रूरत है.
हिंदी हमारी अपनी भाषा है, इसके विकास की जिम्मेदारी हम सब पर है और मीडिया की ज़िम्मेदारी सबसे ऊपर है.”
हमारी भाषा के पैरोकार की उसे दयनीय और हीन बना रहे हैं, वो भी बेतुके बाज़ारवाद के नाम पर. आप लोग क्यों नहीं समझ रहे कि हिंदी का चैनल अथवा अखबार हिंदी में समाचार देखने/सुननेपढ़ने  के लिए होता है ना कि अंग्रेजी के लिए? उसके लिए अंग्रेजी के ढेरों अखबार और चैनल हमारे पास उपलब्ध हैं.
मैं इस लेख के माध्यम से इन सारे हिंदी के खबरिया चैनलों और अखबारों से विनती करता हूँ कि हमारी माँ हिंदी को हीन और दयनीय बनाना बंद कर दीजिये, उसे आगे बढ़ने दीजिये.
हिन्दीभाषी साथियों की ओर से  मेरा विनम्र निवेदन:
१. हिंदी चैनल/अखबार/पत्रिका अथवा आधिकारिक वेबसाइट में अंग्रेजी के अनावश्यक शब्दों का प्रयोग बंद होना चाहिए.
२. जहाँ जरूरी हो अंग्रेजी के शब्दों को सिर्फ देवनागरी में लिखा जाए रोमन में नहीं.
३. हिंदी चैनल/अखबार/पत्रिका अथवा आधिकारिक वेबसाइट में हिंदी संक्षेपाक्षरों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.
आम जनता से एक ज्वलंत प्रश्न:
क्या ऐसे समाचार चैनलों/अखबारों का बहिष्कार कर देना चाहिए जो हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ने में लगे हैं ?
कुछ हिंदी संक्षेपाक्षरों की सूची
राजनीतिक दल/गठबंधन/संगठन :
राजग: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन [एनडीए]
संप्रग: संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन [यूपीए]
तेदेपा: तेलुगु देशम पार्टी [टीडीपी]
अन्ना द्रमुक: अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम[ अन्ना डीएमके]
द्रमुक: द्रविड़ मुनेत्र कषगम [डीएमके]
भाजपा: भारतीय जनता पार्टी [बीजेपी]
रालोद : राष्ट्रीय लोक दल [आरएलडी]
बसपा: बहुजन समाज पार्टी [बीएसपी]
मनसे: महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना [एमएनएस]
माकपा: मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी [सीपीएम]
भाकपा: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी [सीपीआई]
राजद: राष्ट्रीय जनता दल [आरजेडी]
बीजद: बीजू जनता दल [बीजेडी]
तेरास: तेलंगाना राष्ट्र समिति [टीआरएस]
नेका: नेशनल कॉन्फ्रेन्स
राकांपा : राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी [एनसीपी]
अस: अहिंसा संघ
असे: अहिंसा सेना
गोजमुमो:गोरखा जन मुक्ति मोर्चा
अभागोली:अखिल भारतीय गोरखा लीग
मगोपा:महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी)
पामक : पाटाली मक्कल कच्ची (पीएमके)  
गोलिआ:गोरखा लिबरेशन आर्गेनाइजेशन (जीएलओ 
)
संस्थाएँ
अंक्रिप = अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद [आईसीसी]
संसंस : संयुक्त संसदीय समिति [जेपीसी]
आस: आयोजन समिति [ओसी]
प्रेट्र:प्रेस ट्रस्ट [पीटीआई]
नेबुट्र:नेशनल बुक ट्रस्ट
अमुको : अंतर्राष्ट्रीय  मुद्रा कोष [आई एम एफ ]
भाक्रिनिम : भारतीय क्रिकेट नियंत्रण मंडल/ बोर्ड [बीसीसीआई]
केमाशिम : केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल/बोर्ड [सीबीएसई]
व्यापम: व्यावसायिक परीक्षा मंडल
माशिम: माध्यमिक शिक्षा मण्डल
राराविप्रा: राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण [एनएचएआई]
केअब्यू : केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो [सीबीआई]
मनपा: महानगर पालिका
दिननि : दिल्ली नगर निगम [एमसीडी]
बृमनपा: बृहन मुंबई महानगर पालिका [बीएमसी]
भाकृअप : भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद
भाखेम : भारतीय खेल महासंघ
भाओस : भारतीय ओलम्पिक संघ [आईओए]
मुमक्षेविप्रा: मुंबई महानगर क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण [एमएमआरडीए ]
भापुस : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण [एएसआई]
क्षेपका : क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय [आरटीओ]
क्षेपा: क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी [आरटीओ]
कर: कम्पनी रजिस्ट्रार [आरओसी]
जनवि: जवाहर नवोदय विद्यालय
नविस : नवोदय विद्यालय समिति
सरां: संयुक्त राष्ट्र
राताविनि:राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम [एनटीपीसी]
रासंनि:राष्ट्रीय संस्कृति निधि [एनसीएफ ]
सीसुब: सीमा सुरक्षा बल [बीएसएफ]
रारेपुब: राजकीय रेलवे पुलिस बल
इविप्रा : इन्दौर विकास प्राधिकरण [आईडीए]
देविप्रा: देवास विकास प्राधिकरण
दिविप्रा : दिल्ली विकास प्राधिकरण [डीडीए]
त्वकाब : त्वरित कार्य बल
राराक्षे : राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र [एनसीआर]
भाजीबीनि : भारतीय जीवन बीमा निगम [एलआईसी]
भारिबैं: भारतीय रिज़र्व बैंक [आरबीआई]
भास्टेबैं: भारतीय स्टेट बैंक [एसबीआई]
औसुब : औद्योगिक सुरक्षा बल
अभाआस:अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स]
नाविमनि: नागर विमानन महानिदेशालय [डीजीसीए]  
अंओस: अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी)
रासूविके: राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र [एनआईसी]
विजांद: विशेष जांच दल [एसआईटी]
भाप्रविबो:भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड [सेबी]
केरिपुब: केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल [सीआरपीएफ]
भाअअस: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन [इसरो]
भाबाकप: भारतीय बाल कल्याण परिषद
केप्रकबो: केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड [सीबीडीटी]
केसआ:केंद्रीय सतर्कता आयुक्त [सीवीसी]
भाप्रस: भारतीय प्रबंध संस्थान [आई आई एम]
भाप्रौस : भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान [आई आई टी ]
रारेपु:राजकीय रेलवे पुलिस (जीआरपी)
अन्य :
मंस : मंत्री समूह
जासके : जागरण सम्वाद केन्द्र
जाससे:जागरण समाचार सेवा
अनाप्र: अनापत्ति प्रमाणपत्र
इआप: इलेक्ट्रोनिक आरक्षण पर्ची
राग्रास्वामि : राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन [एनआरएचएम]
कृपृउ : कृपया पृष्ठ उलटिए
रासामि : राष्ट्रीय साक्षरता मिशन
रनाटै मार्ग  : रवीन्द्रनाथ टैगोर मार्ग
जलाने मार्ग: जवाहर लाल नेहरु मार्ग
अपिव: अन्य पिछड़ा वर्ग [ओबीसी]
अजा: अनुसूचित जाति [एससी]
अजजा: अनुसूचित जन जाति [एसटी]
टेटे : टेबल टेनिस
मिआसा- मिथाइल आइसो साइनाइट
इवोम- इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन [ईवीएम]
ऑटिवेम: ऑटोमैटिक टिकट वेण्डिंग मशीन
स्वगम: स्वचालित गणना मशीन  [एटीएम]
ऑटैम : ऑटोमेटिक टैलर मशीन [एटीएम]
यूका:यूनियन कार्बाइड
मुम: मुख्यमंत्री
प्रम : प्रधान मंत्री
विम: वित्तमंत्री/ विदेश मंत्री/मंत्रालय
रम : रक्षा मंत्री/ मंत्रालय
गृम : गृह मंत्री/ मंत्रालय
प्रमका: प्रधान मंत्री कार्यालय [पीएमओ]
शिगुप्रक:शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी [एसजीपीसी]  
रामखे:राष्ट्रमंडल खेल [सीडब्ल्यूजी]
पुमनि:पुलिस महानिदेशक [डीजीपी] 
जहिया:जनहित याचिका [पीआइएल]
गैनिस: गैर-निष्पादक सम्पतियाँ (एनपीए)
सभागप:समर्पित भाड़ा गलियारा परियोजना
सानियो: सामूहिक निवेश योजना [सीआईएस)  
अमलेप:अंकेक्षक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी)
सराअ :संयुक्त राज्य अमरीका  [यूएसए]
आक: आयकर
सेक : सेवाकर
वसेक : वस्तु एवं सेवा कर [जीएसटी]
केविक: केन्द्रीय विक्रय कर [सीएसटी]
मूवक: मूल्य वर्द्धित कर [वैट]
सघउ : सकल घरेलु उत्पाद [जीडीपी]
नआअ: नगद आरक्षी अनुपात [सीआरआर]
प्रमग्रासयो: प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना
विस: वित्त समिति, विधानसभा, वित्त सचिव
प्रस: प्रचार समिति
व्यस :व्यवस्था समिति
न्याम: न्यासी मण्डल
ननि : नगर निगम
नपा: नगर पालिका
नप: नगर पंचायत
मनपा : महा नगर पालिका
भाप्रा: भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग
भापाके : भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र
केंस: केंद्र सरकार
भास: भारत सरकार
रास: राज्य सरकार/राज्यसभा
मिटप्रव: मिट्रिक टन प्रति वर्ष (एमटीपीए) 

सानिभा: सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) 

निरह: निर्माण-रखरखाव-हस्तान्तरण (ओएमटी)

निपह: निर्माण-परिचालन-हस्तान्तरण  (बीओटी)

तीगग: तीव्र गति गलियारा  (हाई स्पीड कोरिडोर)

भाविकांस: भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ

फ़िल्में :
ज़िनामिदो : जिंदगी ना मिलेगी दोबारा [ज़ेएनएमडी]
दिदुलेजा: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे [डीडीएलजे]
पासिंतो :पान सिंह तोमर
धारावाहिक:
कुलोक : कुछ तो लोग कहेंगे,
जीइकाना: जीना इसी का नाम है,  
दीबाह: दीया और बाती हम

======================
लेखक : श्री प्रवीण कुमार जैन...
Published in ब्लॉग
रविवार, 09 दिसम्बर 2012 14:05

NGOs and Church Activities in India - Real kind of threat...

भारत में बढ़ती NGOs की गतिविधियां :- संदेह के बढते दायरे...



एक समय था, जब कहा जाता था कि “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो…” (अर्थात कलम की ताकत को सम्मान दिया जाता था), लेकिन लगता है कि इक्कीसवीं सदी में इस कहावत को थोड़ा बदलने का समय आ गया है… कि “जब तोप मुकाबिल हो, तो NGO खोलो”। जी हाँ, जिस तरह से पिछले डेढ़-दो दशकों में भारत के सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक सभी क्षेत्रों में NGO (अनुदान प्राप्त गैर-सरकारी संस्थाएं) ने अपना प्रभाव (बल्कि दुष्प्रभाव कहना उचित होगा) छोड़ा है, वह उल्लेखनीय तो है ही। उल्लेखनीय इसलिए, क्योंकि NGOs की बढ़ती ताकत का सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि, देश की सबसे शक्तिशाली नीति-नियंता समिति, अर्थात सोनिया गाँधी की किचन-कैबिनेट, अर्थात नेशनल एडवायज़री कमेटी (जिसे NAC के नाम से जाना जाता है) के अधिकांश सदस्य, या तो किसी न किसी प्रमुख NGOs के मालिक हैं, अथवा किसी न किसी NGO के सदस्य, मानद सदस्य, सलाहकार इत्यादि पदों पर शोभायमान हैं। फ़िर चाहे वह अरविन्द केजरीवाल की गुरु अरुणा रॉय हों, ज्यां द्रीज हों, हर्ष मंदर हों या तीस्ता जावेद सीतलवाड हों…।

इसलिए जब अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे लोग अपने-अपने NGOs के जरिए, फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन की मदद से पैसा लेकर बड़ा आंदोलन खड़े करने की राह पकड़ते हैं, तो स्वाभाविक ही मन में सवाल उठने लगते हैं कि आखिर इनकी मंशा क्या है? भारत के राजनैतिक और सामाजिक माहौल में NGOs की बढ़ती ताकत, कहाँ से शक्ति पा रही है? क्या सभी NGOs दूध के धुले हैं या इन में कई प्रकार की “काली-धूसर-मटमैली भेड़ें” घुसपैठ कर चुकी हैं और अपने-अपने गुप्त एजेण्डे पर काम कर रही हैं? जी हाँ, वास्तव में ऐसा ही है… क्योंकि सुनने में भले ही NGO शब्द बड़ा ही रोमांटिक किस्म का समाजसेवी जैसा लगता हो, परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इन NGOs की संदिग्ध गतिविधियों ने सुरक्षा एजेंसियों और सरकार के कान खड़े कर दिए हैं। इस बेहिसाब धन के प्रवाह की वजह से, इन संगठनों के मुखियाओं में भी आपसी मनमुटाव, आरोप-प्रत्यारोप और वैमनस्य बढ़ रहा है। खुद अरुंधती रॉय ने अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के NGO, “कबीर” पर फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के पैसों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया था। उल्लेखनीय है कि फ़ोर्ड की तरफ़ से “कबीर” नामक संस्था को 1 लाख 97 हजार डॉलर का चन्दा दिया गया है। केजरीवाल के साथ दिक्कत यह हो गई कि “सिर्फ़ मैं ईमानदार, बाकी सब चोर…” जैसा शीर्षासन करने के चक्कर में इन्होंने अण्णा हजारे को भी 2 करोड़ रुपए लौटाने की पेशकश की थी, जिसे अण्णा ने ठुकरा दिया था, लेकिन फ़िलहाल केजरीवाल “देश के एकमात्र राजा हरिश्चन्द्र” बनने की कोशिशों में सतत लगे हुए हैं, और मीडिया भी इनका पूरा साथ दे रहा है। बहरहाल… बात हो रही थी NGOs के “धंधे” के सफ़ेद-स्याह पहलुओं की… इसलिए आगे बढ़ते हैं…

सरकार द्वारा दिए गए आँकड़ों के मुताबिक देश के सर्वोच्च NGOs को लाखों रुपए दान करने वाले 15 दानदाताओं में से सात अमेरिका और यूरोप में स्थित हैं, जिन्होंने सिर्फ़ 2009-2010 में भारत के NGOs को कुल 10,000 करोड़ का चन्दा दिया है। अब यह तो कोई बच्चा भी बता सकता है कि जो संस्था या व्यक्ति अरबों रुपए का चन्दा दे रहा है वह सिर्फ़ समाजसेवा के लिए तो नहीं दे रहा होगा, ज़ाहिर है कि उसके भी कुछ खुले और गुप्त काम इन NGOs को करने ही पड़ेंगे। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या की जाँच में भी चर्च समर्थित और पोषित कई NGOs के नाम सामने आए थे, जो कि माओवादियों की छिपी हुई, नकाबधारी पनाहगाह हैं।



हाल ही में जब तमिलनाडु के कुडनकुलम और महाराष्ट्र के जैतापूर में परमाणु संयंत्र स्थापित करने के विरोध में जिस आंदोलनरत भीड़ ने प्रदर्शन और हिंसा की, जाँच में पाया गया कि उसे भड़काने के पीछे कई संदिग्ध NGOs काम कर रहे थे, और प्रधानमंत्री ने साफ़तौर पर अपने बयान में इसका उल्लेख भी किया। परमाणु संयंत्रों का विरोध करने वाले NGOs को मिलने वाले विदेशी धन और उनके निहित स्वार्थों के बारे में भी जाँच चल रही है, जिसमें कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। सरकार ने “बहुत देर के बाद” विदेशी अनुदान प्राप्त सभी NGOs की कड़ाई से जाँच करने का फ़ैसला किया है, परन्तु सरकार की यह मंशा खुद अपने-आप में ही संशय के घेरे में है, क्योंकि पहले तो ऐसे सभी NGOs को फ़लने-फ़ूलने और पैर जमाने का मौका दिया गया, लेकिन जब परमाणु संयंत्रों को लेकर अमेरिका और फ़्रांस की रिएक्टर कम्पनियों के हित प्रभावित होने लगे तो अचानक इन पर नकेल कसने की बातें की जाने लगीं, मानो सरकार कहना चाहती हो कि विदेश से पैसा लेकर तुम चाहे धर्मान्तरण करो, चाहे माओवादियों की मदद करो, चाहे शिक्षा और समाज में पश्चिमी विचारों का प्रचार-प्रसार करो, लेकिन अमेरिका और फ़्रांस के हितों पर चोट पहुँची तो तुम्हारी खैर नहीं…। क्योंकि कुडनकुलम की संदिग्ध NGOs गतिविधियों को लेकर सरकार “अचानक” इतनी नाराज़ हो गई कि जर्मनी के एक नागरिक को देश-निकाला तक सुना दिया।

प्रधानमंत्री की असल समस्या यह है कि सोनिया गाँधी की किचन-कैबिनेट (यानी NAC) ने तो नीति-निर्माण और उसके अनुपालन का जिम्मा देश भर में फ़ैले अपने “बगलबच्चों” यानी NGOs को “आउटसोर्स” कर दिया है। NAC में जमे बैठे इन्हीं तमाम NGO वीरों ने ही, अपने अफ़लातून दिमाग(?) से “मनरेगा” की योजना को जामा पहनाया है, जिसमें अकुशल मजदूर को साल में कम से कम 6 माह तक 100 रुपए रोज का काम मिलेगा। दिखने में तो यह योजना आकर्षक दिखती है, परन्तु जमीनी हालात भयावह हैं। “मनरेगा” में भ्रष्टाचार तो खैर अपनी जगह है ही, परन्तु इस योजना के कारण, जहाँ एक तरफ़ बड़े और मझोले खेत मालिकों को ऊँची दर देने के बावजूद मजदूर नहीं मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जो निम्नवर्ग के (BPL) खेत मालिक हैं, वे भी अपनी स्वयं की खेती छोड़कर सरकार की इन “निकम्मी कार्ययोजनाओं” में 100 रुपए रोज लेकर अधिक खुश हैं। क्योंकि “मनरेगा” के तहत इन मजदूरों को जो काम करना है, उसमें कहीं भी जवाबदेही निर्धारित नहीं है, अर्थात एक बार मजदूर इस योजना में रजिस्टर्ड होने के बाद वह किसी भी “क्वालिटी” का काम करे, उसे 100 रुपए रोज मिलना ही है।

मनरेगा की वजह से देश के खजाने पर पड़ने वाले भारी-भरकम “निकम्मे बोझ” की तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं है, वहीं अब NGO वादियों की यह “गैंग” खाद्य सुरक्षा बिल को भी लागू करवाने पर आमादा हो रही है, जबकि खाद्य सुरक्षा बिल के कारण बजट पर पड़ने वाले कुप्रभाव का विरोध प्रणब मुखर्जी और शरद पवार पहले ही खुले शब्दों में कर चुके हैं। इससे शक उत्पन्न होता है कि यह NGO वादी गैंग और इसके तथाकथित “सामाजिक कर्म” भारत के ग्रामवासियों को आत्मनिर्भर बनाने की बजाय “मजदूर” बनाने वहीं दूसरी ओर केन्द्र और राज्यों के बजट पर खतरनाक बोझ बढ़ाकर उसे चरमरा देने पर क्यों अड़ी हुई है? देश की अर्थव्यवस्था को ऐसा दो-तरफ़ा नुकसान पहुँचाने में इन NGO वालों का कौन सा छिपा हुआ एजेण्डा है? इन लोगों की ऐसी “बोझादायक” और गरीब जनता को “कामचोर” बनाने वाली “नीतियों” के पीछे कौन सी ताकत है?  

दुर्भाग्य से देश के प्रधानमंत्री दो पाटों के बीच फ़ँस चुके हैं, पहला पाटा है न्यूक्लियर रिएक्टर निर्माताओं की शक्तिशाली लॉबी, जबकि दूसरा पाट है देश के भीतर कार्यरत शक्तिशाली NGOs की लॉबी, जो कि दिल्ली के सत्ता गलियारों में मलाई चाटने के साथ-साथ आँखें दिखाने में भी व्यस्त है।

केन्द्र सरकार ने ऐसे 77 NGOs को जाँच और निगाहबीनी के दायरे में लिया है, जिन पर संदेह है कि ये भारत-विरोधी गतिविधियों में संलग्न हैं। भारत के गृह मंत्रालय ने पाया है कि इन NGOs की कुछ “सामाजिक आंदोलन” गतिविधियाँ भारत में अस्थिरता, वैमनस्य और अविश्वास फ़ैलाने वाली हैं। राजस्व निदेशालय के विभागीय जाँच ब्यूरो ने पाया है कि देश के हजारों NGOs को संदिग्ध स्रोतों से पैसा मिल रहा है, जिसे वे समाजसेवा के नाम पर धर्मान्तरण को बढ़ावा देने और माओवादी / आतंकवादी गतिविधियों में फ़ूँके जा रहे हैं। भारत में गत वर्ष तक 68,000 NGOs पंजीकृत थे। भारत के गृह सचिव भी चेता चुके हैं कि NGOs को जिस प्रकार से अरब देशों, यूरोप और स्कैण्डेनेवियाई देशों से भारी मात्रा में पैसा मिल रहा है, उसका हिसाब-किताब ठीक नहीं है, तथा जिस काम के लिए यह पैसा दिया गया है, या चन्दा पहुँचाया जा रहा है, वास्तव में जमीनी स्तर वह काम नहीं हो रहा। अर्थात यह पैसा किसी और काम की ओर मोड़ा जा रहा है।

जब 2008 में तमिलनाडु में कोडाईकनाल के जंगलों में माओवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी देखी गई थी, तब इसमें एक साल पहले तीन माओवादी गिरफ़्तार हुए थे, जिनका नाम था विवेक, एलांगो और मणिवासगम, जो कि एक गुमनाम से NGO के लिए काम करते थे। इसे देखते हुए चेन्नै पुलिस ने चेन्नई के सभी NGOs के बैंक खातों और विदेशों से उन्हें मिलने वाले धन के बारे में जाँच आरम्भ कर दी है। चेन्नई पुलिस इस बात की भी जाँच कर रही है कि तमिलनाडु में आई हुई सुनामी के समय जिन तटवर्ती इलाकों के गरीबों की मदद के नाम पर तमाम NGOs को भारी मात्रा में पैसा मिला था, उसका क्या उपयोग किया गया? क्योंकि कई अखबारों की ऐसी रिपोर्ट है कि सुनामी पीड़ितों की मदद के नाम पर उन्हें ईसाई धर्म में धर्मान्तरित करने का कुत्सित प्रयास किए गए हैं।


NGOs के नाम पर फ़र्जीवाड़े का यह ट्रेण्ड समूचे भारत में फ़ैला हुआ है, यदि बिहार की बात करें तो वहाँ पर गत वर्ष तक पंजीकृत 22,272 गैर-लाभकारी संस्थाओं (NPIs) में से 18578 NPI (अर्थात NGO) के डाक-पते या तो फ़र्जी पाए गए, अथवा इनमें से अधिकांश निष्क्रिय थीं। इनकी सक्रियता सिर्फ़ उसी समय दिखाई देती थी, जब सरकार से कोई अनुदान लेना हो, अथवा एड्स, सड़क दुर्घटना जैसे किसी सामाजिक कार्यों के लिए विदेशी संस्था से चन्दा लेना हो। बिहार सरकार की जाँच में पाया गया कि इन में से सिर्फ़ 3694 संस्थाओं के पास रोज़गार एवं आर्थिक लेन-देन के वैध कागज़ात मौजूद थे। अपने बयान में योजना विकास मंत्री नरेन्द्र नारायण यादव ने कहा कि इस जाँच से हमें बिहार में चल रही NGOs की गतिविधियों को गहराई से समझने का मौका मिला है।

गौरतलब है कि 2001 से 2010 के बीच सिर्फ़ 9 वर्षों में चर्च और चर्च से जुड़ी NGO संस्थाओं को 70,000 करोड़ रुपए की विदेशी मदद प्राप्त हुई है। सरकारी आँकड़ों के अनुसर सिर्फ़ 2009-10 में ही इन संस्थाओं को 10,338 करोड़ रुपए मिले हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत 42 पृष्ठ के एक विश्लेषण के अनुसार देश में सबसे अधिक 1815 करोड़ रुपए दिल्ली स्थित NGO संस्थाओं को प्राप्त हुए हैं (देश की राजधानी है तो समझा जा सकता है), लेकिन तमिलनाडु को 1663 करोड़, आंध्रप्रदेश को 1324 करोड़ भी मिले हैं, जहाँ चर्च बेहद शक्तिशाली है। यदि संस्था के हिसाब से देखें तो विदेशों से सबसे अधिक चन्दा “World Vision of India” के चैन्नई स्थित शाखा (वर्ल्ड विजन) नामक NGO को मिला है। उल्लेखनीय है कि World Vision समूचे विश्व की सबसे बड़ी “समाजसेवी”(?) संस्था कही जाती है, जबकि वास्तव में इसका उद्देश्य “धर्मान्तरण” करना और आपदाओं के समय अनाथ हो चुके बच्चों को मदद के नाम पर ईसाई बनाना ही है।

ज़रा देखिए World Vision संस्था की वेबसाईट पर परिचय में क्या लिखते हैं – “वर्ल्ड विजन एक अंतरर्राष्ट्रीय सहयोग से चलने वाले ईसाईयों की संस्था है, जिसका उद्देश्य हमारे ईश्वर और उद्धारकर्ता जीसस के द्वारा गरीबों और वंचितों की मदद करने उन्हें मानवता के धर्म की ओर ले जाना है”। श्रीलंका में वर्ल्ड विजन की संदिग्ध गतिविधियों का भण्डाफ़ोड़ करते हुए वहाँ के लेफ़्टिनेंट कर्नल एएस अमरशेखरा लिखते हैं – “जॉर्ज बुश के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अब अमेरिका किसी भी विकासशील देश को मदद के नाम पर सीधे पैसा नहीं देगा, बल्कि अब इन देशों को अमेरिकी मदद से चलने वाली ईसाई NGO संस्थाओं के द्वारा ही पैसा भेजा जाएगा, World Vision ऐसी ही एक भीमकाय NGO है, जो कई देशों की सरकारों पर “अप्रत्यक्ष दबाव” बनाने में समर्थ है”। कर्नल अमरसेखरा के इस बयान को लिट्टे के सफ़ाए से जोड़कर देखने की आवश्यकता है, क्योंकि लिट्टे के मुखिया वी प्रभाकरण का नाम भले ही तमिलों जैसा लगता हो, वास्तव में वह एक ईसाई था, और ईसाई NGOs तथा वेटिकन से लिट्टे के सम्बन्धों के बारे में अब कई सरकारें जान चुकी हैं। यहाँ तक कि नॉर्वे, जो कि अक्सर लिट्टे और श्रीलंका के बीच मध्यस्थता करता था वह भी ईसाई संस्थाओं का गढ़ है…। स्वाभाविक है कि अधिकांश विकासशील देशों की संप्रभु सरकारें NGOs की इस बढ़ती ताकत से खौफ़ज़दा हैं

एक और महाकाय NGO है, जिसका नाम है ASHA (आशा), जिससे जाने-माने समाजसेवी और मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पाण्डे जुड़े हुए हैं। यह संस्था ज़ाहिरा तौर पर कहती है कि यह अनाथ और गरीब बच्चों की शिक्षा, पोषण और उनकी कलात्मकता को बढ़ावा देने का काम करती है, लेकिन जब इसे मिलने वाले विदेशी चन्दे और सरकारी अनुदान के “सही उपयोग” के बारे में पूछताछ और जाँच की गई तो पता चला कि चन्दे में मिलने वाले लाखों रुपए के उपयोग का कोई संतोषजनक जवाब या बही-खाता उनके पास नहीं है। इस ASHA नामक NGO की वेबसाईट पर आर्थिक लाभ प्राप्त करने वालों में पाँच लोगों (संदीप, महेश, वल्लभाचार्य, आशा और सुधाकर) के नाम सामने आते हैं और “संयोग” से सभी का उपनाम “पाण्डे” है। बहरहाल… यहाँ सिर्फ़ एक उदाहरण पेश है - ASHA के बैनर तले काम करने वाली एक संस्था है “ईगाई सुनामी रिलीफ़ वर्क”। इस संस्था को सिर्फ़ दो गाँवों में बाँटने के लिए, सन् 2005 में सेंट लुईस अमेरिका, से लगभग 4000 डॉलर का अनुदान प्राप्त हुआ। जब इसके खर्च की जाँच निजी तौर पर कुछ पत्रकारों द्वारा की गई, तो शुरु में तो काफ़ी आनाकानी की गई, लेकिन जब पीछा नहीं छोड़ा गया तो संस्था द्वारा सुनामी पीड़ित बच्चों के लिए दी गई वस्तुओं की एक लिस्ट थमा दी गई, जिसमें – तीन साइकलें, पौष्टिक आटा, सत्तू, नारियल, ब्लाउज़ पीस, पेंसिल, पेंसिल बॉक्स, मोमबत्ती, कॉपियाँ, कुछ पुस्तकें, बल्ले और गेंद शामिल थे (इसमें साइकल, मोमबत्ती, कॉपियों, पेंसिल और पुस्तकों को छोड़कर, बाकी की वस्तुओं की संख्या लिखी हुई नहीं थी, और न ही इस बारे में कोई जवाब दिया गया)। 4000 डॉलर की रकम भारतीय रुपयों में लगभग दो लाख रुपए होते हैं, ऊपर दी गई लिस्ट का पूरा सामान यदि दो गाँवों के सभी बाशिंदों में भी बाँटा जाए तो भी यह अधिक से अधिक 50,000 या एक लाख रुपए में हो जाएगा, परन्तु बचे हुए तीन लाख रुपए कहाँ खर्च हुए, इसका कोई ब्यौरा नहीं दिया गया।

NGOs के इस रवैये की यह समस्या पूरे विश्व के सभी विकासशील देशों में व्याप्त है, जहाँ किसी भी विकासवादी गतिविधि (बाँध, परमाणु संयंत्र, बिजलीघर अथवा SEZ इत्यादि) के विरोध में NGOs को विरोध प्रदर्शनों तथा दुष्प्रचार के लिए भारी पैसा मिलता है, वहीं दूसरी ओर इन NGOs को भूकम्प, सुनामी, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय भी “मदद” और “मानवता” के नाम पर भारी अनुदान और चन्दा मिलता है… कुछ पैसा तो ये NGOs ईमानदारी से उसी काम के लिए खर्च करते है, लेकिन इसमें से काफ़ी सारा पैसा वे चुपके से धर्मान्तरण और अलगाववादी कृत्यों को बढ़ावा देने के कामों में भी लगा देते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में मेधा पाटकर, संदीप पाण्डे, नर्मदा बाँध, कुडनकुलम और केजरीवाल जैसे आंदोलनों को देखकर भारत में केन्द्र और राज्य सरकारें सतर्क भी हुई हैं और उन्होंने उन देशों को इनकी रिपोर्ट देना शुरु कर दिया है, जहाँ से इनके चन्दे का पैसा आ रहा है। चन्दे के लिए विदेशों से आने वाले पैसे और दानदाताओं पर सरकार की टेढ़ी निगाह पड़नी शुरु हो गई है।

इसलिए अब यह कोई रहस्य की बात नहीं रह गई है कि, आखिर लगातार जनलोकपाल-जनलोकपाल का भजन गाने वाली अरविन्द केजरीवाल जैसों की NGOs गैंग, इन संस्थाओं को (यानी NGO को) लोकपाल की जाँच के दायरे से बाहर रखने पर क्यों अड़ी हुई थी। चर्च और पश्चिमी दानदाताओं द्वारा पोषित यह NGO संस्थाएं खुद को प्रधानमंत्री से भी ऊपर समझती हैं, क्योंकि ये प्रधानमंत्री को तो लोकपाल के दायरे में लाना चाहती हैं लेकिन खुद उस जाँच से बाहर रहना चाहती हैं… ऐसा क्या गड़बड़झाला है? ज़रा सोचिए…   
Published in ब्लॉग