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शुक्रवार, 29 मई 2009 13:56
भाजपा ने पश्चिम बंगाल में वामपंथी खेमे की इज्जत बचाई… Vote Share of BJP, Left Parties and Congress in Bengal
भाजपा को पानी पी-पीकर कोसने वालों में वामपंथी सबसे आगे रहते हैं, ये अलग बात है कि भाजपा को गरियाते-गरियाते कब वे खुद ही पूरे भारत में अप्रासंगिक हो गये उन्हें पता ही नहीं चला। लेकिन इस लेख में प्रस्तुत आँकड़े सिद्ध करते हैं कि यदि पश्चिम बंगाल में भाजपा एक “ताकत” के रूप में न उभरती तो वामपंथियों को मुँह छिपाना मुश्किल पड़ जाता। सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा के कारण पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबन्धन को कम से कम 7 सीटों का नुकसान हुआ, जो कि वामपंथी खाते में गई, वरना लाल बन्दरों का तो पूरा “सूपड़ा” ही साफ़ हो जाता। ज़रा एक नज़र डालिये इन पर–
1) बर्दवान सीट पर सीपीएम के उम्मीदवार की जीत का अन्तर है 59,419, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 71,632 वोट, सोचिये यदि वहाँ भाजपा का उम्मीदवार ही न होता तो?
2) जलपाईगुड़ी सीट पर भाजपा के उम्मीदवार सुखबिलदास बर्मा ने 94,000 वोट लेकर कांग्रेस को नहीं जीतने दिया, यहाँ से सीपीएम का उम्मीदवार 90,000 वोट से जीता।
3) अलीपुरद्वार में आरएसपी के मनोहर टिर्की जीते 1,12,822 वोट से जबकि भाजपा को आश्चर्यजनक रूप से 1,99,843 वोट मिले और कांग्रेस हार गई।
4) बेलूरघाट सीट पर आरएसपी का उम्मीदवार बड़ी मुश्किल से 5,105 वोट से जीत पाया, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 60,000 वोट।
5) फ़ॉरवर्ड ब्लॉक का उम्मीदवार कूच बिहार सीट से 33,632 वोट से जीता, यहाँ भाजपा की झोली में 64,917 वोट आये।
6) मिदनापुर में भाकपा के प्रबोध पाण्डा, भाजपा को मिले 52,000 वोटों की बदौलत हारने से बच गये।
माकपा के स्थानीय नेता भी मानते हैं कि भाजपा के कारण हम भारी शर्मिन्दगी भरी हार से बच गये वरना कांग्रेस-ममता को लगभग 31 सीटें मिलतीं। लगभग यही आरोप ममता बैनर्जी ने भी लगाया और कहा कि भाजपा के उम्मीदवार, वामपंथी खेमे को मदद पहुँचाने के लिये खड़े हैं (हा हा हा हा)।
इस सारे घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि जो बात भाजपा के मामूली कार्यकर्ता को भी मालूम है उससे पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कैसे अनजान है, कि भाजपा को अब अकेले चुनाव लड़ना चाहिये। NDA वगैरह बकवास है, यह भाजपा की बढ़त तो रोक ही रहा है, साथ ही साथ उसे वैचारिक रूप से भ्रष्ट भी कर रहा है। “सेकुलरों” की बातों और सेकुलर मीडिया के प्रभाव में आकर भाजपा ने अपनी छवि बदलने का जो प्रयास किया है, अब सिद्ध हो चुका है कि वह प्रयास पूरी तरह से असफ़ल रहा है। सेकुलर बनने के चक्कर में भाजपा “धोबी का कुत्ता” बन गई है। आँकड़ों से स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा अकेले चुनाव लड़कर राज्य स्तर पर “तीसरी ताकत” के रूप में उभरी है, ऐसा ही समूचे देश में आसानी से किया जा सकता है। जब किसी “मेंढक” से गठबन्धन ही नहीं होगा, तो उसके फ़ुदकने का कोई असर भी नहीं होगा, तब भाजपा अपनी वैचारिक बात जनता तक ठोस रूप में पहुँचाने में कामयाब होगी। इस रणनीति का फ़ायदा दूरगामी होगा, यह करने से लगभग प्रत्येक गैर-भाजपा शासित राज्य में भाजपा दूसरी या तीसरी शक्ति के रूप में “अकेले” उभरेगी। ऐसे में स्थानीय पार्टियाँ बगैर शर्त के और स्वाभाविक रूप से भाजपा के पाले में आयेंगी क्योंकि देर-सवेर कांग्रेस या तो उन्हें “खाने” वाली है या अपने दरवाजे पर अपमानित करके खड़ा करेगी, तब ऐसी स्थानीय पार्टियों से “लोकसभा में हम और विधानसभा में तुम” की तर्ज पर समझौता किया जा सकता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग सीट पर किया गया और जसवन्त सिंह तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विजेता बने, कृष्णनगर में भी भाजपा प्रत्याशी को 1,75,283 वोट मिले। भाजपा के प्रदेश महासचिव राहुल सिन्हा कहते हैं कि “यह सफ़लता बंगाल में हमारे संगठनात्मक ढाँचे की ताकत के कारण मिली है…”। क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या वामपंथी, ये लोग जब तक भाजपा को अपना प्रतिद्वन्द्वी नम्बर एक मानते रहेंगे, तब तक कांग्रेस मजे करती रहेगी, क्योंकि उसने बड़ी चतुराई से अपनी छवि “मध्यमार्गी” की बना रखी है और “धर्मनिरपेक्षता” नाम का ऐसा सिक्का चला दिया है कि बाकी सभी पार्टियों को मजबूरन कांग्रेस का साथ देना ही पड़ता है।
पश्चिम बंगाल में भाजपा सभी 42 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ी, एक सीट (दार्जीलिंग) जीती, लेकिन कम से कम दस सीटों पर उसने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। एक चुनाव हारने पर भाजपा को दिन-रात सलाह देने में लगे ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे भी “लाल-गढ़” में भाजपा प्रत्याशियों को मिले वोटों को देखकर हैरान होंगे, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है, जिस तरह उत्तरप्रदेश में कांग्रेस अकेले लड़ी और जीती, भाजपा भी अकेले ही लड़े। इस बार नहीं तो अगले चुनाव में, अगले नहीं तो उसके अगले चुनाव में, जीत निश्चित मिलेगी। आज लाखों-करोड़ों लोग कांग्रेस-वामपंथियों की नीतियों से त्रस्त हो चुके हैं, उनकी भावनाओं को आवाज़ देने वाली कोई पार्टी उन्हें दिखाई नहीं दे रही, इसलिये उन्होंने कांग्रेस को ही चुन लिया, जब उनके पास एक सशक्त विकल्प मौजूद रहेगा तब वे निश्चित ही उसे चुनेंगे। लेकिन लौहपुरुष का विशेषण और कंधार जैसा शर्मनाक समर्पण तथा राम मन्दिर आंदोलन और जिन्ना की मज़ार पर जाने जैसा वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व अब नहीं चलेगा। पश्चिम बंगाल जैसे राजनैतिक रूप से संवेदनशील, लगभग 23 सीटों पर 40% से अधिक मुस्लिम वोटरों तथा वामपंथियों द्वारा इतने वर्षों से शासित राज्य में भाजपाई उम्मीदवारों को कई जगह एक लाख से अधिक वोट मिल रहे हैं, इसका क्या अर्थ है यह मेरे जैसे छोटे से व्यक्ति को समझाने की जरूरत नहीं है।
रही बात वामपंथियों की तो उन्हें भाजपा का शुक्र मनाना चाहिये कि उनकी कम से कम 6-7 सीटें भाजपा के कारण ही बचीं, वरना इज्जत पूरी लुट ही गई थी, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं। रस्सी तो जल गई है, मगर……
(खबर का मूल स्रोत यहाँ है)
Election Results of West Bengal 2009, Congress and TMC win in Bengal Loksabha elections, Communist Parties, their Vote Bank and BJP, BJP third political force in Bengal, पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे, कांग्रेस और ममता बैनर्जी गठबन्धन, कम्युनिस्ट पार्टियाँ और मुस्लिम वोट बैंक, बंगाल में भाजपा तीसरी ताकत, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
1) बर्दवान सीट पर सीपीएम के उम्मीदवार की जीत का अन्तर है 59,419, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 71,632 वोट, सोचिये यदि वहाँ भाजपा का उम्मीदवार ही न होता तो?
2) जलपाईगुड़ी सीट पर भाजपा के उम्मीदवार सुखबिलदास बर्मा ने 94,000 वोट लेकर कांग्रेस को नहीं जीतने दिया, यहाँ से सीपीएम का उम्मीदवार 90,000 वोट से जीता।
3) अलीपुरद्वार में आरएसपी के मनोहर टिर्की जीते 1,12,822 वोट से जबकि भाजपा को आश्चर्यजनक रूप से 1,99,843 वोट मिले और कांग्रेस हार गई।
4) बेलूरघाट सीट पर आरएसपी का उम्मीदवार बड़ी मुश्किल से 5,105 वोट से जीत पाया, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 60,000 वोट।
5) फ़ॉरवर्ड ब्लॉक का उम्मीदवार कूच बिहार सीट से 33,632 वोट से जीता, यहाँ भाजपा की झोली में 64,917 वोट आये।
6) मिदनापुर में भाकपा के प्रबोध पाण्डा, भाजपा को मिले 52,000 वोटों की बदौलत हारने से बच गये।
माकपा के स्थानीय नेता भी मानते हैं कि भाजपा के कारण हम भारी शर्मिन्दगी भरी हार से बच गये वरना कांग्रेस-ममता को लगभग 31 सीटें मिलतीं। लगभग यही आरोप ममता बैनर्जी ने भी लगाया और कहा कि भाजपा के उम्मीदवार, वामपंथी खेमे को मदद पहुँचाने के लिये खड़े हैं (हा हा हा हा)।
इस सारे घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि जो बात भाजपा के मामूली कार्यकर्ता को भी मालूम है उससे पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कैसे अनजान है, कि भाजपा को अब अकेले चुनाव लड़ना चाहिये। NDA वगैरह बकवास है, यह भाजपा की बढ़त तो रोक ही रहा है, साथ ही साथ उसे वैचारिक रूप से भ्रष्ट भी कर रहा है। “सेकुलरों” की बातों और सेकुलर मीडिया के प्रभाव में आकर भाजपा ने अपनी छवि बदलने का जो प्रयास किया है, अब सिद्ध हो चुका है कि वह प्रयास पूरी तरह से असफ़ल रहा है। सेकुलर बनने के चक्कर में भाजपा “धोबी का कुत्ता” बन गई है। आँकड़ों से स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा अकेले चुनाव लड़कर राज्य स्तर पर “तीसरी ताकत” के रूप में उभरी है, ऐसा ही समूचे देश में आसानी से किया जा सकता है। जब किसी “मेंढक” से गठबन्धन ही नहीं होगा, तो उसके फ़ुदकने का कोई असर भी नहीं होगा, तब भाजपा अपनी वैचारिक बात जनता तक ठोस रूप में पहुँचाने में कामयाब होगी। इस रणनीति का फ़ायदा दूरगामी होगा, यह करने से लगभग प्रत्येक गैर-भाजपा शासित राज्य में भाजपा दूसरी या तीसरी शक्ति के रूप में “अकेले” उभरेगी। ऐसे में स्थानीय पार्टियाँ बगैर शर्त के और स्वाभाविक रूप से भाजपा के पाले में आयेंगी क्योंकि देर-सवेर कांग्रेस या तो उन्हें “खाने” वाली है या अपने दरवाजे पर अपमानित करके खड़ा करेगी, तब ऐसी स्थानीय पार्टियों से “लोकसभा में हम और विधानसभा में तुम” की तर्ज पर समझौता किया जा सकता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग सीट पर किया गया और जसवन्त सिंह तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विजेता बने, कृष्णनगर में भी भाजपा प्रत्याशी को 1,75,283 वोट मिले। भाजपा के प्रदेश महासचिव राहुल सिन्हा कहते हैं कि “यह सफ़लता बंगाल में हमारे संगठनात्मक ढाँचे की ताकत के कारण मिली है…”। क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या वामपंथी, ये लोग जब तक भाजपा को अपना प्रतिद्वन्द्वी नम्बर एक मानते रहेंगे, तब तक कांग्रेस मजे करती रहेगी, क्योंकि उसने बड़ी चतुराई से अपनी छवि “मध्यमार्गी” की बना रखी है और “धर्मनिरपेक्षता” नाम का ऐसा सिक्का चला दिया है कि बाकी सभी पार्टियों को मजबूरन कांग्रेस का साथ देना ही पड़ता है।
पश्चिम बंगाल में भाजपा सभी 42 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ी, एक सीट (दार्जीलिंग) जीती, लेकिन कम से कम दस सीटों पर उसने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। एक चुनाव हारने पर भाजपा को दिन-रात सलाह देने में लगे ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे भी “लाल-गढ़” में भाजपा प्रत्याशियों को मिले वोटों को देखकर हैरान होंगे, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है, जिस तरह उत्तरप्रदेश में कांग्रेस अकेले लड़ी और जीती, भाजपा भी अकेले ही लड़े। इस बार नहीं तो अगले चुनाव में, अगले नहीं तो उसके अगले चुनाव में, जीत निश्चित मिलेगी। आज लाखों-करोड़ों लोग कांग्रेस-वामपंथियों की नीतियों से त्रस्त हो चुके हैं, उनकी भावनाओं को आवाज़ देने वाली कोई पार्टी उन्हें दिखाई नहीं दे रही, इसलिये उन्होंने कांग्रेस को ही चुन लिया, जब उनके पास एक सशक्त विकल्प मौजूद रहेगा तब वे निश्चित ही उसे चुनेंगे। लेकिन लौहपुरुष का विशेषण और कंधार जैसा शर्मनाक समर्पण तथा राम मन्दिर आंदोलन और जिन्ना की मज़ार पर जाने जैसा वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व अब नहीं चलेगा। पश्चिम बंगाल जैसे राजनैतिक रूप से संवेदनशील, लगभग 23 सीटों पर 40% से अधिक मुस्लिम वोटरों तथा वामपंथियों द्वारा इतने वर्षों से शासित राज्य में भाजपाई उम्मीदवारों को कई जगह एक लाख से अधिक वोट मिल रहे हैं, इसका क्या अर्थ है यह मेरे जैसे छोटे से व्यक्ति को समझाने की जरूरत नहीं है।
रही बात वामपंथियों की तो उन्हें भाजपा का शुक्र मनाना चाहिये कि उनकी कम से कम 6-7 सीटें भाजपा के कारण ही बचीं, वरना इज्जत पूरी लुट ही गई थी, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं। रस्सी तो जल गई है, मगर……
(खबर का मूल स्रोत यहाँ है)
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बुधवार, 27 मई 2009 12:03
करकरे, विनायक सेन, साध्वी प्रज्ञा, शहीद जवान – एक माइक्रो पोस्ट…
नईदुनिया अखबार (27 मई) में प्रकाशित समाचार के अनुसार मुम्बई हमले के शहीद हेमन्त करकरे की पत्नी ने बताया है कि उन्हें रुपये 15,000/- का करकरे के “अन्तिम संस्कार का बिल”(???) दिया गया है। इसी प्रकार परिजनों को 25 लाख रुपये देने की घोषणा हुई थी जिसमें से अब तक सिर्फ़ 10 लाख रुपये ही मिले हैं। उधर कसाब को सुरक्षा प्रदान करने और अदालती कार्रवाई के लिये करोड़ों रुपये अब तक खर्च हो चुके हैं। अब चूंकि कसाब तो “देश का जमाई” है इसलिये उसे तो कोई “बिल” थमा नहीं सकता।
एक और महान क्रांतिकारी “विनायक सेन” भी रिहा हो गये हैं, उनके लिये कई बड़े-बड़े लोगों ने प्रार्थनायें कीं, मोमबत्तियाँ जलाई, गीत गाये, हस्ताक्षर अभियान चलाये… कहने का मतलब ये कि विनायक सेन बहुत-बहुत महान व्यक्ति हैं। साध्वी प्रज्ञा के लिये महिला आयोग सहित किसी ने भी ऐसा कुछ नहीं किया, क्योंकि वे कीड़ा-मकोड़ा हैं। विनायक सेन की रिहाई की खुशियाँ मनाई जा रही हैं, इसे “जीत” के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है… उधर नक्सली हमलों में रोज-ब-रोज हमारे आर्थिक रूप से गरीब जवान मारे जा रहे हैं, किसी-किसी के तो शव भी नहीं मिलते और जब अफ़सर ग्रेड वाले करकरे की पत्नी के यह हाल हैं तो बेचारे छोटे-मोटे जवानों के परिवारों के क्या हाल होते होंगे…
अरे… ये आप भी किन खयालों में खो गये भाई… मैं तो इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप जब-तब करता ही रहता हूँ… आप तो कांग्रेस की जय बोलिये, राहुल बाबा के नेतृत्व के गुण गाईये, प्रियंका की मुस्कान पर फ़िदा होईये, भाजपा को साम्प्रदायिक कहकर कोसिये, अफ़ज़ल की फ़ाँसी के बारे में चिदम्बरम के मासूम बयान सुनिये… आर्थिक तरक्की के सपने देखिये, सेंसेक्स के बूम की कल्पना करते रहिये, संघियों के “राष्ट्रवाद” को बकवास कहिये…।
कहाँ इन शहीदों और जवानों के परिवारों के चक्करों में पड़ते हैं… मेरा क्या है, मेरे जैसे “पागल” तो चिल्लाते ही रहते हैं…
एक और महान क्रांतिकारी “विनायक सेन” भी रिहा हो गये हैं, उनके लिये कई बड़े-बड़े लोगों ने प्रार्थनायें कीं, मोमबत्तियाँ जलाई, गीत गाये, हस्ताक्षर अभियान चलाये… कहने का मतलब ये कि विनायक सेन बहुत-बहुत महान व्यक्ति हैं। साध्वी प्रज्ञा के लिये महिला आयोग सहित किसी ने भी ऐसा कुछ नहीं किया, क्योंकि वे कीड़ा-मकोड़ा हैं। विनायक सेन की रिहाई की खुशियाँ मनाई जा रही हैं, इसे “जीत” के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है… उधर नक्सली हमलों में रोज-ब-रोज हमारे आर्थिक रूप से गरीब जवान मारे जा रहे हैं, किसी-किसी के तो शव भी नहीं मिलते और जब अफ़सर ग्रेड वाले करकरे की पत्नी के यह हाल हैं तो बेचारे छोटे-मोटे जवानों के परिवारों के क्या हाल होते होंगे…
अरे… ये आप भी किन खयालों में खो गये भाई… मैं तो इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप जब-तब करता ही रहता हूँ… आप तो कांग्रेस की जय बोलिये, राहुल बाबा के नेतृत्व के गुण गाईये, प्रियंका की मुस्कान पर फ़िदा होईये, भाजपा को साम्प्रदायिक कहकर कोसिये, अफ़ज़ल की फ़ाँसी के बारे में चिदम्बरम के मासूम बयान सुनिये… आर्थिक तरक्की के सपने देखिये, सेंसेक्स के बूम की कल्पना करते रहिये, संघियों के “राष्ट्रवाद” को बकवास कहिये…।
कहाँ इन शहीदों और जवानों के परिवारों के चक्करों में पड़ते हैं… मेरा क्या है, मेरे जैसे “पागल” तो चिल्लाते ही रहते हैं…
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मंगलवार, 26 मई 2009 12:13
क्या वोटिंग मशीनों का “चावला-करण” किया जा सकता है? Electronic Voting Machines Fraud Rigging in Elections
अमेरिका के एक रिटायर्ड प्रोफ़ेसर साईंनाथ ने यह दावा किया है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों से छेड़छाड़ करके उनके द्वारा धोख़ाधड़ी की जा सकती है। श्री साईंनाथ ने सन् 2004 के चुनावों के दौरान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता को लेकर एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई थी, उन्हें शक था कि शायद NDA लोकसभा चुनावों में इन मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर धांधली कर सकता है। हालांकि कांग्रेस के चुनाव जीतने की दशा में उन्होंने अपना केस वापस ले लिया था। साईनाथ ने अमेरिका में सम्पन्न हुए चुनावों में भी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी कैसे की जा सकती है इसका प्रदर्शन किया था।
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों मे गड़बड़ी करना एक “बच्चों का खेल” है, यह बताते हुए प्रोफ़ेसर साईनाथ कहते हैं (रिपोर्ट यहाँ देखें http://www.indianexpress.com/oldStory/45296/) कि EVM (Electronic Voting Machines) को नियन्त्रित करने वाली कम्प्यूटर चिप को एक विशिष्ट तरीके से प्रोग्राम करके इस प्रकार से सेट किया जा सकता है कि उस मशीन में पड़ने वाले वोटों का एक निश्चित प्रतिशत एक पूर्व-निर्धारित उम्मीदवार के खाते में ही जाये, चाहे कोई भी बटन दबाया गया हो। इस प्रकार की और भी गड़बड़ियाँ मशीन में पैदा की जा सकती हैं। मशीनों में की गई इस प्रकार की छेड़छाड़ को पकड़ना आसान नहीं होता, पार्टियों के “लगभग अनपढ़” चुनाव एजेण्टों के लिये तो बिलकुल भी नहीं। उल्लेखनीय है कि EVM उम्मीदवारों के क्रमवार नम्बर के आधार पर वोटिंग की गणना करती है। नामांकन हो चुकने के बाद यह तय होता कि किस क्षेत्र की मशीन में किस पार्टी के किस उम्मीदवार का नाम कौन से क्रम पर रहेगा। प्रोफ़ेसर साईनाथ के अनुसार नाम वापसी के बाद दो सप्ताह का समय बीच में होता है, इस बीच में मशीनों में कम्प्यूटर चिप की जगह “Pre-Coded Malicious” चिप स्थापित की जा सकती हैं, अथवा सम्भव हुआ तो पूरी की पूरी मशीन भी नकली स्थापित की जा सकती है और यह निश्चित किया जा सकता है कि कौन सी मशीन किस इलाके में जायेगी।
(श्री साईनाथ 1964 की बैच के आईआईटी इंजीनियर हैं, फ़िलहाल अमेरिका में कम्प्यूटर साइंस के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं, और “Better Democracy Forum” नाम की संस्था के अध्यक्ष भी हैं)।
इस प्रक्रिया में चुनाव अधिकारी (जो कि अधिकतर सत्ताधारी पार्टी के इशारों पर ही नाचते हैं) की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे में एक गम्भीर सवाल उठता है कि क्या इन मशीनों का “चावलाईकरण” किया जा सकता है? “चावलाईकरण” की उपमा इसलिये, क्योंकि चुनावों में धांधली का कांग्रेस का इतिहास बहुत पुराना है। ऊपर से इस पार्टी को नवीन चावला जैसे “स्वामीभक्त” चुनाव आयुक्त भी प्राप्त होते रहे हैं (इसका एक और सबूत, मान्य संवैधानिक परम्पराओं के विपरीत, सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद पूर्व चुनाव आयुक्त एम एस गिल को मंत्रीपद की रेवड़ी दिया जाना भी है)।
शिवसेना ने चुनाव आयोग को इन वोटिंग मशीनों द्वारा धांधली किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए इनकी जाँच की माँग करते हुए लिखित में शिकायत की है, जिसमें बताया गया है कि दक्षिण मुम्बई से शिवसेना के लोकप्रिय उम्मीदवार मोहन रावले को कई वोटिंग मशीनों पर शक है, क्योंकि उन्हें शिवसेना के कुछ मजबूत माने जाने वाले इलाकों में से कई मशीनों में 5 या 7 वोट ही मिले (क्या मोहन रावले अचानक अपने ही गढ़ में इतने अलोकप्रिय हो गये?)। रावले ने आगे बताया कि अमेरिका और इंडोनेशिया में भी इन मशीनों के “ठीक से काम न करने” की वजह से इन्हें चुनाव प्रक्रिया से हटा लिया गया था।
अब नज़र डालते हैं हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों पर – पूरे देश में (जहाँ भाजपा का शासन था उन राज्यों को छोड़कर) लगभग सारे नतीजे कुछ इस प्रकार से आये हैं कि जो भी पार्टी कांग्रेस के लिये “सिरदर्द” साबित हो सकती थी या पिछली सरकार में सिरदर्द थी, उनका या तो सफ़ाया हो गया अथवा वे पार्टियाँ लगभग निष्क्रिय अवस्था में पहुँच गईं, उदाहरण के तौर पर – वामपंथियों की सीटें 50% कम हो गईं, मायावती भी लगभग 50% नीचे पहुँच गईं (जबकि सभी सर्वे, चैनल और विशेषज्ञ उनसे बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रहे थे), जयललिता भी कुछ खास नहीं कर पाईं और तमिल भावनाओं के उफ़ान और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद डीएमके को अच्छी खासी सीटें मिल गईं, लालू-पासवान का सफ़ाया हो गया, आंध्र में चिरंजीवी से खासी उम्मीद लगाये बैठे थे, वे भी कुछ खास न कर सके। जबकि दूसरी तरफ़ आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया, उत्तरप्रदेश में (कांग्रेस की) आशा के विपरीत भारी सफ़लता मिली, उड़ीसा में नवीन पटनायक को अकेले दम पर बहुमत मिल गया। जबकि कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस उतना अच्छा नहीं कर पाई, ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं कि खामख्वाह बाल की खाल निकाली जा रहा है, भारत और विश्व के अन्य हिस्सों में भी ताज़ा लोकसभा चुनाव नतीजों को लेकर संशय बना हुआ है, इसका सबूत गूगल की सर्च रिपोर्ट से देखा जा सकता है, जहाँ कि जनता ने ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की आशंका और इनकी विश्वसनीयता को लेकर विभिन्न सर्च किये हैं… यहाँ देखें
http://www.google.com/trends?q=electronic+voting+machine&ctab=398065024&geo=all&date=all
इसी प्रकार अमेरिका के कुछ कम्प्यूटर इंजीनियरों द्वारा फ़्लोरिडा के गवर्नर चुनावों के बाद ई-वोटिंग मशीनों की संदिग्धता के बारे में एक रिपोर्ट की पीडीएफ़ फ़ाइल भी यहाँ देखें…
http://www.computer.org/portal/cms_docs_computer/computer/homepage/May09/r5pra.pdf
तात्पर्य यह कि यदि भारत का मतदाता वाकई में इतना समझदार, परिपक्व और “स्थिरता”(?) के प्रति सम्मोहित हो गया है तब तो यह लोकतन्त्र के लिये अच्छी बात है, लेकिन यदि जैसा कि अभी भी कई लोगों को शक हो रहा है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी की गई है, तब तो स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण कही जायेगी। हालांकि अभी इस बात के कोई प्रमाण मौजूद नहीं हैं, लेकिन शक के आधार पर इन मशीनों की जाँच हेतु एक दल या आयोग बनाये जाने की आवश्यकता है, कि जब अमेरिका में भी इन मशीनों को “संदिग्ध” पाया गया है तो भारत में भी इसकी विश्वसनीयता की “फ़ुलप्रूफ़” जाँच होनी ही चाहिये। सोचिये, कि अभी तो यह सिर्फ़ शक ही है, कोई सबूत नहीं… लेकिन यदि कहीं कोई सबूत मिल गया तो 60 साल पुराने लोकतन्त्र का क्या होगा?
EVM in India, Electronic Voting Machines and its Authenticity, EVM is not full proof, Fraud through EVMs, Election Process in India and Electronic Voting Machines, Professor Sainath on EVM, Navin Chawla, MS Gill, Election Commission of India, Loksabha Polls 2009 in India, ईवीएम, भारत के चुनावों में ईवीएम का उपयोग, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों द्वारा चुनावों में धांधली, ईवीएम मशीनें और भारत की चुनाव प्रक्रिया, नवीन चावला, एमएस गिल, भारत निर्वाचन आयोग, भारत में लोकसभा चुनाव 2009, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों मे गड़बड़ी करना एक “बच्चों का खेल” है, यह बताते हुए प्रोफ़ेसर साईनाथ कहते हैं (रिपोर्ट यहाँ देखें http://www.indianexpress.com/oldStory/45296/) कि EVM (Electronic Voting Machines) को नियन्त्रित करने वाली कम्प्यूटर चिप को एक विशिष्ट तरीके से प्रोग्राम करके इस प्रकार से सेट किया जा सकता है कि उस मशीन में पड़ने वाले वोटों का एक निश्चित प्रतिशत एक पूर्व-निर्धारित उम्मीदवार के खाते में ही जाये, चाहे कोई भी बटन दबाया गया हो। इस प्रकार की और भी गड़बड़ियाँ मशीन में पैदा की जा सकती हैं। मशीनों में की गई इस प्रकार की छेड़छाड़ को पकड़ना आसान नहीं होता, पार्टियों के “लगभग अनपढ़” चुनाव एजेण्टों के लिये तो बिलकुल भी नहीं। उल्लेखनीय है कि EVM उम्मीदवारों के क्रमवार नम्बर के आधार पर वोटिंग की गणना करती है। नामांकन हो चुकने के बाद यह तय होता कि किस क्षेत्र की मशीन में किस पार्टी के किस उम्मीदवार का नाम कौन से क्रम पर रहेगा। प्रोफ़ेसर साईनाथ के अनुसार नाम वापसी के बाद दो सप्ताह का समय बीच में होता है, इस बीच में मशीनों में कम्प्यूटर चिप की जगह “Pre-Coded Malicious” चिप स्थापित की जा सकती हैं, अथवा सम्भव हुआ तो पूरी की पूरी मशीन भी नकली स्थापित की जा सकती है और यह निश्चित किया जा सकता है कि कौन सी मशीन किस इलाके में जायेगी।
(श्री साईनाथ 1964 की बैच के आईआईटी इंजीनियर हैं, फ़िलहाल अमेरिका में कम्प्यूटर साइंस के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं, और “Better Democracy Forum” नाम की संस्था के अध्यक्ष भी हैं)।
इस प्रक्रिया में चुनाव अधिकारी (जो कि अधिकतर सत्ताधारी पार्टी के इशारों पर ही नाचते हैं) की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे में एक गम्भीर सवाल उठता है कि क्या इन मशीनों का “चावलाईकरण” किया जा सकता है? “चावलाईकरण” की उपमा इसलिये, क्योंकि चुनावों में धांधली का कांग्रेस का इतिहास बहुत पुराना है। ऊपर से इस पार्टी को नवीन चावला जैसे “स्वामीभक्त” चुनाव आयुक्त भी प्राप्त होते रहे हैं (इसका एक और सबूत, मान्य संवैधानिक परम्पराओं के विपरीत, सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद पूर्व चुनाव आयुक्त एम एस गिल को मंत्रीपद की रेवड़ी दिया जाना भी है)।
शिवसेना ने चुनाव आयोग को इन वोटिंग मशीनों द्वारा धांधली किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए इनकी जाँच की माँग करते हुए लिखित में शिकायत की है, जिसमें बताया गया है कि दक्षिण मुम्बई से शिवसेना के लोकप्रिय उम्मीदवार मोहन रावले को कई वोटिंग मशीनों पर शक है, क्योंकि उन्हें शिवसेना के कुछ मजबूत माने जाने वाले इलाकों में से कई मशीनों में 5 या 7 वोट ही मिले (क्या मोहन रावले अचानक अपने ही गढ़ में इतने अलोकप्रिय हो गये?)। रावले ने आगे बताया कि अमेरिका और इंडोनेशिया में भी इन मशीनों के “ठीक से काम न करने” की वजह से इन्हें चुनाव प्रक्रिया से हटा लिया गया था।
अब नज़र डालते हैं हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों पर – पूरे देश में (जहाँ भाजपा का शासन था उन राज्यों को छोड़कर) लगभग सारे नतीजे कुछ इस प्रकार से आये हैं कि जो भी पार्टी कांग्रेस के लिये “सिरदर्द” साबित हो सकती थी या पिछली सरकार में सिरदर्द थी, उनका या तो सफ़ाया हो गया अथवा वे पार्टियाँ लगभग निष्क्रिय अवस्था में पहुँच गईं, उदाहरण के तौर पर – वामपंथियों की सीटें 50% कम हो गईं, मायावती भी लगभग 50% नीचे पहुँच गईं (जबकि सभी सर्वे, चैनल और विशेषज्ञ उनसे बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रहे थे), जयललिता भी कुछ खास नहीं कर पाईं और तमिल भावनाओं के उफ़ान और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद डीएमके को अच्छी खासी सीटें मिल गईं, लालू-पासवान का सफ़ाया हो गया, आंध्र में चिरंजीवी से खासी उम्मीद लगाये बैठे थे, वे भी कुछ खास न कर सके। जबकि दूसरी तरफ़ आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया, उत्तरप्रदेश में (कांग्रेस की) आशा के विपरीत भारी सफ़लता मिली, उड़ीसा में नवीन पटनायक को अकेले दम पर बहुमत मिल गया। जबकि कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस उतना अच्छा नहीं कर पाई, ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं कि खामख्वाह बाल की खाल निकाली जा रहा है, भारत और विश्व के अन्य हिस्सों में भी ताज़ा लोकसभा चुनाव नतीजों को लेकर संशय बना हुआ है, इसका सबूत गूगल की सर्च रिपोर्ट से देखा जा सकता है, जहाँ कि जनता ने ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की आशंका और इनकी विश्वसनीयता को लेकर विभिन्न सर्च किये हैं… यहाँ देखें
http://www.google.com/trends?q=electronic+voting+machine&ctab=398065024&geo=all&date=all
इसी प्रकार अमेरिका के कुछ कम्प्यूटर इंजीनियरों द्वारा फ़्लोरिडा के गवर्नर चुनावों के बाद ई-वोटिंग मशीनों की संदिग्धता के बारे में एक रिपोर्ट की पीडीएफ़ फ़ाइल भी यहाँ देखें…
http://www.computer.org/portal/cms_docs_computer/computer/homepage/May09/r5pra.pdf
तात्पर्य यह कि यदि भारत का मतदाता वाकई में इतना समझदार, परिपक्व और “स्थिरता”(?) के प्रति सम्मोहित हो गया है तब तो यह लोकतन्त्र के लिये अच्छी बात है, लेकिन यदि जैसा कि अभी भी कई लोगों को शक हो रहा है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी की गई है, तब तो स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण कही जायेगी। हालांकि अभी इस बात के कोई प्रमाण मौजूद नहीं हैं, लेकिन शक के आधार पर इन मशीनों की जाँच हेतु एक दल या आयोग बनाये जाने की आवश्यकता है, कि जब अमेरिका में भी इन मशीनों को “संदिग्ध” पाया गया है तो भारत में भी इसकी विश्वसनीयता की “फ़ुलप्रूफ़” जाँच होनी ही चाहिये। सोचिये, कि अभी तो यह सिर्फ़ शक ही है, कोई सबूत नहीं… लेकिन यदि कहीं कोई सबूत मिल गया तो 60 साल पुराने लोकतन्त्र का क्या होगा?
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ब्लॉग
शुक्रवार, 22 मई 2009 12:49
“सोनिया सरकार” का पहला तोहफ़ा– विदेशी संस्था का हस्तक्षेप यानी राष्ट्रीय स्वाभिमान को ठोकर… USCIRF visit Religious Freedom and Human Rights in India
किसी भी देश की सार्वभौमिकता, एकता और अखण्डता के साथ-साथ उस देश का “राष्ट्रीय स्वाभिमान” या राष्ट्र-गौरव भी एक प्रमुख घटक होता है। भारत की अब तक यह नीति रही है कि “हमारे अन्दरूनी मामलों में कोई भी देश, संस्था या अन्तर्राष्ट्रीय संगठन हस्तक्षेप नहीं कर सकता…”, लेकिन सोनिया सरकार ने इस नीति को उलट दिया है। अमेरिका की एक संस्था है “USCIRF” अर्थात US Commission on International Religious Freedom, इस संस्था को जून 2009 में पहली बार भारत का दौरा करने की अनुमति “सोनिया गाँधी सरकार” द्वारा प्रदान कर दी गई है। यह संस्था (कमीशन) अमेरिकी कांग्रेस द्वारा बनाई गई है जिसे अमेरिकी सरकार द्वारा पैसा दिया जाता है। इस संस्था का गठन 1998 में अमेरिका के एक कानून International Religious Freedom Act 1998 के तहत किया गया है, और 1998 से लगातार यह संस्था भारत पर दौरा करने का दबाव बनाये हुए थी, लेकिन भारत की सरकार ने उसे अनुमति और इसके सदस्यों को वीज़ा नहीं दिया। भारत के अन्दरूनी मामलों में दखल-अंदाजी को बर्दाश्त न करने की इस नीति को NDA (1999-2004) और UPA (2004-2009) की सरकारों ने बनाये रखा, जो कि नरसिम्हाराव, देवेगौड़ा और गुजराल सरकार की भी नीति रही।
आईये देखें कि यह अमेरिकी संस्था आखिर करती क्या है? इस अमेरिकी संस्था का गठन अमेरिकी कानूनों के अन्तर्गत हुआ है, लेकिन जिस तरह “दुनिया का खून चूसकर खुद भी और दुनिया को भी आर्थिक मन्दी में फ़ँसाने वाला अमेरिका” अभी भी सोचता है कि वह “विश्व का चौधरी” है, ठीक वैसे ही यह संस्था USCIRF समूचे विश्व में “धार्मिक स्वतन्त्रता” और मानवाधिकारों का हनन कहाँ-कहाँ हो रहा है यह देखती है। भारत में “धार्मिक स्वतन्त्रता” और “मानवाधिकारों” का हनन किस सम्प्रदाय पर ज्यादा हो रहा है? जी हाँ, बिलकुल सही पहचाना आपने, सिर्फ़ और सिर्फ़ “ईसाईयों” पर। वैसे तो कहने के लिये “मुस्लिमों” पर भी भारत में “भारी अत्याचार”(??) हो रहे हैं, लेकिन उनकी फ़िक्र करने के लिये इधर पहले से ही बहुत सारे “सेकुलर” मौजूद हैं, और अमेरिका को वैसे भी मुस्लिमों से विशेष प्रेम नहीं है, सो वह इस संस्था के सदस्यों को पूरे विश्व में सिर्फ़ “ईसाईयों” पर होने वाले अत्याचारों की रिपोर्ट लेने भेजता है।
इस संस्था के भारत दौरे पर पहले विदेश मंत्रालय और गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी नाखुशी जता चुके हैं और दबे स्वरों में इसका विरोध भी कर चुके हैं, लेकिन चूंकि मामला “ईसाईयों” से जुड़ा है और जब “महारानी” की अनुमति है तो विदेश नीति और देश का स्वाभिमान जाये भाड़ में, किसे परवाह है?
इस वर्ष जून में इस संस्था का भारत दौरा प्रस्तावित हो चुका है। इसके सदस्य भारत में कहाँ का दौरा करेंगे? इस आसान सवाल पर कोई ईनाम नहीं मिलेगा, क्योंकि वे गुजरात में डांग, गोधरा तथा उड़ीसा में कंधमाल का दौरा करने वाले हैं। नवीन पटनायक तो शायद इसके सवाल-जवाबों से बच जायेंगे, क्योंकि भाजपा का साथ छोड़ते ही वे “शर्मनिरपेक्ष” बन गये हैं, लेकिन USCIRF के सदस्य डांग्स और गोधरा का दौरा करेंगे तथा नरेन्द्र मोदी और भाजपा से सवाल-जवाब करेंगे। ये अमेरिकी संस्था हमें बतायेगी कि “धार्मिक स्वतन्त्रता” और मानवाधिकार क्या होता है, तथा इसके “निष्पक्ष महानुभाव सदस्य”(?) भारत सरकार के अधिकृत आँकड़ों को दरकिनार करते हुए अपनी खुद की तैयार की हुई रिपोर्ट अमेरिकी कांग्रेस को पेश करेंगे।
इस समिति के सदस्यों के “असीमित ज्ञान” के बारे में यही कहा जा सकता है कि गत वर्ष पेश की गई अपनी आंतरिक रिपोर्ट में इन्होंने नरेन्द्र मोदी को “गुजरात राज्य का गवर्नर” (मुख्यमंत्री नहीं) बताया है, और नरेन्द्र मोदी की स्पेलिंग कई जगह “Nahendra” लिखी गई है, और यह स्थिति तब है जबकि इस संस्था के पास 17 सदस्यों का “दक्षिण एशिया विशेषज्ञों” का एक शोध दल है जो इलाके में धार्मिक स्वतन्त्रता हनन पर नज़र रखता है।
किसी मूर्ख को भी साफ़ दिखाई दे रहा है कि यह साफ़ तौर पर भारत में खुल्लमखुल्ला “अतिक्रमण” है, एक प्रकार का अनुचित हस्तक्षेप है। भारत के अन्दरूनी मसलों पर जाँच करने या दौरा करके अपनी रिपोर्ट अमेरिकी कांग्रेस को पेश करने का इस समिति को क्या हक है? क्या यह एक सार्वभौम राष्ट्र का अपमान नहीं है? यदि एक मिनट के लिये कांग्रेस-भाजपा या सेकुलर-साम्प्रदायिक के मतभेदों को अलग रख दिया जाये तो यह कृत्य प्रत्येक देशभक्त भारतीय को निश्चित ही यह अपमानजनक लगेगा, लेकिन बुद्धिजीवियों की एक कौम है “सेकुलर”… शायद उन्हें यह अपमानजनक या आपत्तिजनक न लगे, क्योंकि इस कौम को उस वक्त भी “बहुत खुशी” महसूस हुई थी, जब अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी को वीज़ा देने से इन्कार कर दिया था। उस वक्त इस सेकुलर कौम के लिये नरेन्द्र मोदी, भारत नामक सबसे बड़े लोकतन्त्र के लगातार तीसरी बार निर्वाचित मुख्यमंत्री नहीं थे, बल्कि एक “हिन्दू” थे। सेकुलरों का मानना है कि नरेन्द्र मोदी को वीज़ा न देना “भारत का अपमान” नहीं था, बल्कि एक “हिन्दू” का अपमान था, इससे ये लोग बहुत खुश हुए थे, ये नज़रिया है इन लोगों का देश और खासकर “हिन्दुओं” के प्रति। नरेन्द्र मोदी को वीज़ा न देने सम्बन्धी भारत गणराज्य के अपमान का ऊँची आवाज़ में विरोध करना तो दूर, सेकुलरिस्टों ने दबी आवाज़ में भी अमेरिका के प्रति नाराज़गी तक नहीं दिखाई, जबकि यही लोग देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरें बनाने वाले एमएफ़ हुसैन के भारत लौटने के लिये ऐसे बुक्का फ़ाड़ रहे हैं, जैसे इनका कोई “सगा-वाला” इनसे बिछुड़ गया हो, जबकि तसलीमा नसरीन के साथ सरेआम प्रेस कांफ़्रेंस में मारपीट करने वाले हैदराबाद के एक “सेकुलर नेता” की कोई आलोचना नहीं होती… इनके दोगलेपन की कोई हद नहीं है।
बहरहाल, बात हो रही थी अमेरिकी समिति USCIRF की, इस समिति की निगाहे-करम कुछ खास देशों पर हमेशा रही है, जैसे क्यूबा, रूस, चीन, वियतनाम, म्यांमार, उत्तर कोरिया आदि (और ये देश अमेरिका को कितने “प्रिय” हैं यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है)। ये और बात है कि इस समिति को क्यूबा सरकार ने देश में घुसने की अनुमति नहीं दी, चीन सरकार ने भी लगातार तीन साल तक लटकाने के बाद कड़ी शर्तों के बाद ही इन्हें सन् 2005 में देश में घुसने दिया था और इसकी रिपोर्ट आते ही चीन ने उसे “विद्वेषपूर्ण कार्यवाही” बता दिया था। वियतनाम ने 2002 में इसकी रिपोर्ट सिरे से ही खारिज कर दी थी। भारत के बारे में इस संस्था की रिपोर्ट इनकी वेबसाईट पर देखी जा सकती है। USCIRF धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाने वालों के खिलाफ़ खास “लॉबी” बनाती है, यह समिति विभिन्न देशों को अलग-अलग “कैटेगरी” में रखती है, जैसे – Countries of Particular Concern (CPC), Country Watch List (CWL) तथा Additional Countries Monitored (ACM)। भारत का दर्जा फ़िलहाल ACM में रखा गया है, जहाँ “धार्मिक स्वतन्त्रता” (यानी धर्मान्तरण की छूट) को खतरा उत्पन्न होने की आशंका है, श्रीलंका भी इसी श्रेणी में रखा गया है, जहाँ हाल ही में चीन की मदद से श्रीलंका ने “चर्च” की तमिल ईलम बनाने की योजना को ध्वस्त कर दिया है।
सवाल यह भी उठता है कि क्या यह अमेरिकी कमीशन केरल भी जायेगा, जहाँ ननों के साथ बलात्कार और हत्याएं हुई हैं? क्या यह कमीशन कश्मीर भी जायेगा जहाँ से हिन्दुओं को बेदखल कर दिया गया है? क्या यह कमीशन पाकिस्तान भी जायेगा जहाँ सिखों से जज़िया न मिलने की सूरत में उन पर अत्याचार हो रहे हैं? जब यह समिति कंधमाल जायेगी, तो स्वामी लक्षमणानन्द सरस्वती की हत्या क्यों हुई, इस पर भी कोई विचार करेगी? क्या यह समिति गुजरात के दंगों में 200 से अधिक हिन्दू “भी” क्यों मारे गये, इसकी जाँच करेगी? ज़ाहिर है कि यह ऐसा कुछ नहीं करेगी। असल में दोगले सेकुलर, इस समिति से अपनी “पसन्दीदा” रिपोर्ट चाहते हैं, इसका एक उदाहरण यह भी है कि गत मार्च में ऐसी ही एक और मानवाधिकार कार्यकर्ता पाकिस्तान की अस्मां जहाँगीर को भारत सरकार ने गुजरात का दौरा करने की अनुमति दी थी (अस्मां जहाँगीर यूएन मानवाधिकार आयोग की विशेष सदस्या भी हैं)। उम्मीदों के विपरीत नरेन्द्र मोदी ने असमां जहाँगीर का स्वागत किया था और उन्हें सभी सुविधायें मुहैया करवाई थीं, तब सभी “मानवाधिकारवादी” और “सेकुलरिस्ट” लोगों ने असमां जहाँगीर की इस बात के लिये आलोचना की कि उन्हें नरेन्द्र मोदी से नहीं मिलना चाहिये था। यानी कि जो भी रिपोर्ट उनकी पसन्द की होगी वही स्वीकार्य होगी, अन्यथा नहीं। इसलिये इस अमेरिकी समिति की “धर्मान्तरण” और “भारत में धार्मिक स्वतन्त्रता” सम्बन्धी रिपोर्ट क्या होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यह देखना रोचक होगा कि “हिन्दू हृदय सम्राट” नरेन्द्र मोदी भी आडवाणी की तरह “सेकुलरता” का ढोंग करके USCIRF के गोरे साहबों का स्वागत करते हैं या सच्चे हिन्दू देशभक्त की तरह उन्हें लतियाकर बेरंग लौटाते हैं, यह भी देखना मजेदार होगा कि ताजा-ताजा सेकुलर बने पटनायक उन्हें उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में चल रही “हरकतों” की असलियत बतायेंगे या नहीं।
देश पर हो रहे इस “अनैतिक अतिक्रमण” को केन्द्र सरकार का पूर्ण समर्थन हासिल है। क्या इस प्रकार की गतिविधि देश की अखण्डता के साथ खिलवाड़ नहीं है? काल्पनिक ही सही लेकिन भविष्य में अगले कदम के तौर पर हो सकता है कि अमेरिका कहे कि आपसे कश्मीर नहीं संभलता इसलिये हम अपनी सेना वहाँ रखना चाहते हैं। क्या यह हमें मंजूर होगा? लेकिन यहाँ मामला सिर्फ़ और सिर्फ़ येन-केन-प्रकारेण भाजपा-मोदी-संघ को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करके ओछी राजनीति करने का है, जबकि उसकी बहुत बड़ी कीमत यह देश चुकायेगा। इन्हें यह छोटी सी बात समझ नहीं आती कि देश की घरेलू राजनीति में भले ही कांग्रेस-भाजपा और सेकुलर-साम्प्रदायिक में घोर मतभेद हों, लेकिन उस मतभेद का पूरी दुनिया के सामने इस तरह से भौण्डा प्रदर्शन करने की कोई जरूरत नहीं है, सवाल है कि “सेकुलर” राजनीति बड़ी है या देश का स्वाभिमान? अल्पसंख्यकों को खुश करने और हिन्दुओं की नाक मोरी में रगड़ने के लिये सेकुलरिस्ट किस हद तक जा सकते हैं यह अगले 5 साल में हमें देखने मिलेगा, क्योंकि आखिर इस देश की जनता ने “स्थिर सरकार”, “रोजी-रोटी देने वाली सरकार”, “गरीबों का साथ देने वाली सरकार” को चुन लिया है…
(खबरों के स्रोत के लिये यहाँ तथा यहाँ चटका लगाया जा सकता है…)
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आईये देखें कि यह अमेरिकी संस्था आखिर करती क्या है? इस अमेरिकी संस्था का गठन अमेरिकी कानूनों के अन्तर्गत हुआ है, लेकिन जिस तरह “दुनिया का खून चूसकर खुद भी और दुनिया को भी आर्थिक मन्दी में फ़ँसाने वाला अमेरिका” अभी भी सोचता है कि वह “विश्व का चौधरी” है, ठीक वैसे ही यह संस्था USCIRF समूचे विश्व में “धार्मिक स्वतन्त्रता” और मानवाधिकारों का हनन कहाँ-कहाँ हो रहा है यह देखती है। भारत में “धार्मिक स्वतन्त्रता” और “मानवाधिकारों” का हनन किस सम्प्रदाय पर ज्यादा हो रहा है? जी हाँ, बिलकुल सही पहचाना आपने, सिर्फ़ और सिर्फ़ “ईसाईयों” पर। वैसे तो कहने के लिये “मुस्लिमों” पर भी भारत में “भारी अत्याचार”(??) हो रहे हैं, लेकिन उनकी फ़िक्र करने के लिये इधर पहले से ही बहुत सारे “सेकुलर” मौजूद हैं, और अमेरिका को वैसे भी मुस्लिमों से विशेष प्रेम नहीं है, सो वह इस संस्था के सदस्यों को पूरे विश्व में सिर्फ़ “ईसाईयों” पर होने वाले अत्याचारों की रिपोर्ट लेने भेजता है।
इस संस्था के भारत दौरे पर पहले विदेश मंत्रालय और गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी नाखुशी जता चुके हैं और दबे स्वरों में इसका विरोध भी कर चुके हैं, लेकिन चूंकि मामला “ईसाईयों” से जुड़ा है और जब “महारानी” की अनुमति है तो विदेश नीति और देश का स्वाभिमान जाये भाड़ में, किसे परवाह है?
इस वर्ष जून में इस संस्था का भारत दौरा प्रस्तावित हो चुका है। इसके सदस्य भारत में कहाँ का दौरा करेंगे? इस आसान सवाल पर कोई ईनाम नहीं मिलेगा, क्योंकि वे गुजरात में डांग, गोधरा तथा उड़ीसा में कंधमाल का दौरा करने वाले हैं। नवीन पटनायक तो शायद इसके सवाल-जवाबों से बच जायेंगे, क्योंकि भाजपा का साथ छोड़ते ही वे “शर्मनिरपेक्ष” बन गये हैं, लेकिन USCIRF के सदस्य डांग्स और गोधरा का दौरा करेंगे तथा नरेन्द्र मोदी और भाजपा से सवाल-जवाब करेंगे। ये अमेरिकी संस्था हमें बतायेगी कि “धार्मिक स्वतन्त्रता” और मानवाधिकार क्या होता है, तथा इसके “निष्पक्ष महानुभाव सदस्य”(?) भारत सरकार के अधिकृत आँकड़ों को दरकिनार करते हुए अपनी खुद की तैयार की हुई रिपोर्ट अमेरिकी कांग्रेस को पेश करेंगे।
इस समिति के सदस्यों के “असीमित ज्ञान” के बारे में यही कहा जा सकता है कि गत वर्ष पेश की गई अपनी आंतरिक रिपोर्ट में इन्होंने नरेन्द्र मोदी को “गुजरात राज्य का गवर्नर” (मुख्यमंत्री नहीं) बताया है, और नरेन्द्र मोदी की स्पेलिंग कई जगह “Nahendra” लिखी गई है, और यह स्थिति तब है जबकि इस संस्था के पास 17 सदस्यों का “दक्षिण एशिया विशेषज्ञों” का एक शोध दल है जो इलाके में धार्मिक स्वतन्त्रता हनन पर नज़र रखता है।
किसी मूर्ख को भी साफ़ दिखाई दे रहा है कि यह साफ़ तौर पर भारत में खुल्लमखुल्ला “अतिक्रमण” है, एक प्रकार का अनुचित हस्तक्षेप है। भारत के अन्दरूनी मसलों पर जाँच करने या दौरा करके अपनी रिपोर्ट अमेरिकी कांग्रेस को पेश करने का इस समिति को क्या हक है? क्या यह एक सार्वभौम राष्ट्र का अपमान नहीं है? यदि एक मिनट के लिये कांग्रेस-भाजपा या सेकुलर-साम्प्रदायिक के मतभेदों को अलग रख दिया जाये तो यह कृत्य प्रत्येक देशभक्त भारतीय को निश्चित ही यह अपमानजनक लगेगा, लेकिन बुद्धिजीवियों की एक कौम है “सेकुलर”… शायद उन्हें यह अपमानजनक या आपत्तिजनक न लगे, क्योंकि इस कौम को उस वक्त भी “बहुत खुशी” महसूस हुई थी, जब अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी को वीज़ा देने से इन्कार कर दिया था। उस वक्त इस सेकुलर कौम के लिये नरेन्द्र मोदी, भारत नामक सबसे बड़े लोकतन्त्र के लगातार तीसरी बार निर्वाचित मुख्यमंत्री नहीं थे, बल्कि एक “हिन्दू” थे। सेकुलरों का मानना है कि नरेन्द्र मोदी को वीज़ा न देना “भारत का अपमान” नहीं था, बल्कि एक “हिन्दू” का अपमान था, इससे ये लोग बहुत खुश हुए थे, ये नज़रिया है इन लोगों का देश और खासकर “हिन्दुओं” के प्रति। नरेन्द्र मोदी को वीज़ा न देने सम्बन्धी भारत गणराज्य के अपमान का ऊँची आवाज़ में विरोध करना तो दूर, सेकुलरिस्टों ने दबी आवाज़ में भी अमेरिका के प्रति नाराज़गी तक नहीं दिखाई, जबकि यही लोग देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरें बनाने वाले एमएफ़ हुसैन के भारत लौटने के लिये ऐसे बुक्का फ़ाड़ रहे हैं, जैसे इनका कोई “सगा-वाला” इनसे बिछुड़ गया हो, जबकि तसलीमा नसरीन के साथ सरेआम प्रेस कांफ़्रेंस में मारपीट करने वाले हैदराबाद के एक “सेकुलर नेता” की कोई आलोचना नहीं होती… इनके दोगलेपन की कोई हद नहीं है।
बहरहाल, बात हो रही थी अमेरिकी समिति USCIRF की, इस समिति की निगाहे-करम कुछ खास देशों पर हमेशा रही है, जैसे क्यूबा, रूस, चीन, वियतनाम, म्यांमार, उत्तर कोरिया आदि (और ये देश अमेरिका को कितने “प्रिय” हैं यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है)। ये और बात है कि इस समिति को क्यूबा सरकार ने देश में घुसने की अनुमति नहीं दी, चीन सरकार ने भी लगातार तीन साल तक लटकाने के बाद कड़ी शर्तों के बाद ही इन्हें सन् 2005 में देश में घुसने दिया था और इसकी रिपोर्ट आते ही चीन ने उसे “विद्वेषपूर्ण कार्यवाही” बता दिया था। वियतनाम ने 2002 में इसकी रिपोर्ट सिरे से ही खारिज कर दी थी। भारत के बारे में इस संस्था की रिपोर्ट इनकी वेबसाईट पर देखी जा सकती है। USCIRF धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाने वालों के खिलाफ़ खास “लॉबी” बनाती है, यह समिति विभिन्न देशों को अलग-अलग “कैटेगरी” में रखती है, जैसे – Countries of Particular Concern (CPC), Country Watch List (CWL) तथा Additional Countries Monitored (ACM)। भारत का दर्जा फ़िलहाल ACM में रखा गया है, जहाँ “धार्मिक स्वतन्त्रता” (यानी धर्मान्तरण की छूट) को खतरा उत्पन्न होने की आशंका है, श्रीलंका भी इसी श्रेणी में रखा गया है, जहाँ हाल ही में चीन की मदद से श्रीलंका ने “चर्च” की तमिल ईलम बनाने की योजना को ध्वस्त कर दिया है।
सवाल यह भी उठता है कि क्या यह अमेरिकी कमीशन केरल भी जायेगा, जहाँ ननों के साथ बलात्कार और हत्याएं हुई हैं? क्या यह कमीशन कश्मीर भी जायेगा जहाँ से हिन्दुओं को बेदखल कर दिया गया है? क्या यह कमीशन पाकिस्तान भी जायेगा जहाँ सिखों से जज़िया न मिलने की सूरत में उन पर अत्याचार हो रहे हैं? जब यह समिति कंधमाल जायेगी, तो स्वामी लक्षमणानन्द सरस्वती की हत्या क्यों हुई, इस पर भी कोई विचार करेगी? क्या यह समिति गुजरात के दंगों में 200 से अधिक हिन्दू “भी” क्यों मारे गये, इसकी जाँच करेगी? ज़ाहिर है कि यह ऐसा कुछ नहीं करेगी। असल में दोगले सेकुलर, इस समिति से अपनी “पसन्दीदा” रिपोर्ट चाहते हैं, इसका एक उदाहरण यह भी है कि गत मार्च में ऐसी ही एक और मानवाधिकार कार्यकर्ता पाकिस्तान की अस्मां जहाँगीर को भारत सरकार ने गुजरात का दौरा करने की अनुमति दी थी (अस्मां जहाँगीर यूएन मानवाधिकार आयोग की विशेष सदस्या भी हैं)। उम्मीदों के विपरीत नरेन्द्र मोदी ने असमां जहाँगीर का स्वागत किया था और उन्हें सभी सुविधायें मुहैया करवाई थीं, तब सभी “मानवाधिकारवादी” और “सेकुलरिस्ट” लोगों ने असमां जहाँगीर की इस बात के लिये आलोचना की कि उन्हें नरेन्द्र मोदी से नहीं मिलना चाहिये था। यानी कि जो भी रिपोर्ट उनकी पसन्द की होगी वही स्वीकार्य होगी, अन्यथा नहीं। इसलिये इस अमेरिकी समिति की “धर्मान्तरण” और “भारत में धार्मिक स्वतन्त्रता” सम्बन्धी रिपोर्ट क्या होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यह देखना रोचक होगा कि “हिन्दू हृदय सम्राट” नरेन्द्र मोदी भी आडवाणी की तरह “सेकुलरता” का ढोंग करके USCIRF के गोरे साहबों का स्वागत करते हैं या सच्चे हिन्दू देशभक्त की तरह उन्हें लतियाकर बेरंग लौटाते हैं, यह भी देखना मजेदार होगा कि ताजा-ताजा सेकुलर बने पटनायक उन्हें उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में चल रही “हरकतों” की असलियत बतायेंगे या नहीं।
देश पर हो रहे इस “अनैतिक अतिक्रमण” को केन्द्र सरकार का पूर्ण समर्थन हासिल है। क्या इस प्रकार की गतिविधि देश की अखण्डता के साथ खिलवाड़ नहीं है? काल्पनिक ही सही लेकिन भविष्य में अगले कदम के तौर पर हो सकता है कि अमेरिका कहे कि आपसे कश्मीर नहीं संभलता इसलिये हम अपनी सेना वहाँ रखना चाहते हैं। क्या यह हमें मंजूर होगा? लेकिन यहाँ मामला सिर्फ़ और सिर्फ़ येन-केन-प्रकारेण भाजपा-मोदी-संघ को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करके ओछी राजनीति करने का है, जबकि उसकी बहुत बड़ी कीमत यह देश चुकायेगा। इन्हें यह छोटी सी बात समझ नहीं आती कि देश की घरेलू राजनीति में भले ही कांग्रेस-भाजपा और सेकुलर-साम्प्रदायिक में घोर मतभेद हों, लेकिन उस मतभेद का पूरी दुनिया के सामने इस तरह से भौण्डा प्रदर्शन करने की कोई जरूरत नहीं है, सवाल है कि “सेकुलर” राजनीति बड़ी है या देश का स्वाभिमान? अल्पसंख्यकों को खुश करने और हिन्दुओं की नाक मोरी में रगड़ने के लिये सेकुलरिस्ट किस हद तक जा सकते हैं यह अगले 5 साल में हमें देखने मिलेगा, क्योंकि आखिर इस देश की जनता ने “स्थिर सरकार”, “रोजी-रोटी देने वाली सरकार”, “गरीबों का साथ देने वाली सरकार” को चुन लिया है…
(खबरों के स्रोत के लिये यहाँ तथा यहाँ चटका लगाया जा सकता है…)
USCIRF, American Congress and Evangelism, Religious Freedom and Human Rights in India, Secularism and National Pride, Narendra Modi Visa Application and USA, Conversion and role of Evangelical Church in India, Anti-Hindu Network and Media in India, USCIRF, अमेरिकी कांग्रेस कमीशन, भारत में धार्मिक स्वतन्त्रता और मानवाधिकार, सेकुलरिज़्म और राष्ट्रीय स्वाभिमान, नरेन्द्र मोदी वीजा प्रकरण और अमेरिका, भारत में धर्मान्तरण और एवेंजेलिकल चर्च की भूमिका, हिन्दू-विरोधी मीडिया और सेकुलर कांग्रेस , Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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शनिवार, 16 मई 2009 13:27
हारना वाकई दुखद है, लेकिन सच्चाई स्वीकार करो और पुनः काम में जुट जाओ… BJP Defeat, UPA wins, Election Assessment
आखिर लोकसभा के बहुप्रतीक्षित नतीजे आ ही गये, और अनपेक्षित रूप से कांग्रेसनीत यूपीए लगभग बहुमत में आ चुका है और भाजपानीत एनडीए को जनता ने नकार दिया है। यह पोस्ट लिखते समय (सुबह 11.30 बजे) हालांकि नतीजे पूरे नहीं आये, लेकिन तात्कालिक विश्लेषण करने के लिये रुझान ही पर्याप्त हैं।
कांग्रेस का मानना है नतीजे आश्चर्यजनक रहे हैं, यही हाल भाजपा का भी है। किसी ने भी नहीं सोचा था कि इतनी महंगाई (आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन को छूने वाला एक मुद्दा) तथा भयानक आतंकवाद (“एलीट क्लास” का मुद्दा) जैसे मुद्दों के बावजूद जनता कांग्रेस-यूपीए को जितायेगी, लेकिन यह हुआ। क्यों हुआ, कैसे हुआ इसको लेकर माथापच्ची तो अगले 5 साल तक चलती ही रहेगी।
यदि सरसरी तौर पर विश्लेषण किया जाये तो भाजपा की हार के कुछ कारण दिखाई देते हैं, वे इस प्रकार हैं –
1) लालकृष्ण आडवाणी की स्वीकार्यता जनता में नहीं होना,
2) कम वोटिंग प्रतिशत, तथा
3) मीडिया का एकतरफ़ा सतत चलने वाला भाजपा-विरोधी अभियान।
1) आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना शायद एक गलत कदम था, उनकी बजाय नरेन्द्र मोदी या सुषमा स्वराज को यदि ठीक से “मार्केटिंग” करके मैदान में उतारा जाता तो युवा वोटर का रुझान भाजपा को अधिक मिलता। सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से महिलाओं के वोट लेने में भी आसानी हो सकती थी, क्योंकि उनकी “इमेज” साफ़-सुथरी और एक परम्परागत भारतीय स्त्री वाली है, इसी प्रकार नरेन्द्र मोदी को गुजरात के विकास का चित्र सामने रखकर उन पर दाँव खेला जा सकता था।
2) कम वोटिंग प्रतिशत – जो वर्ग सबसे अधिक सरकार की आलोचना करता है, अखबारों में, टीवी पर, ड्राइंग रूम में उसी वर्ग ने भीषण गर्मी के चलते मतदान में सबसे कम हिस्सा लिया। सारे देश का प्रतिशत देखा जाये तो कुल 41% प्रतिशत मतदान हुआ, इसका अर्थ यह है कि बाकी के 49% लोग “पप्पू” बने (जानबूझकर बने)। एक आम मतदाता ने तो अपना वोट बराबर डाला, लेकिन मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा पप्पू बना, इसके चलते भाजपा का परम्परागत वोटबैंक घर में (एसी की ठण्डी हवा में) ही बैठा रहा, नतीजा सबसे सामने है। इस 41% वोटिंग का एक मतलब यह भी है कि देश पर ऐसी पार्टी शासन करेगी जिसे असल में देश के सिर्फ़ 22% लोग चाहते हैं।
3) मीडिया की भूमिका – जैसा कि पहले भी कई बार कहा गया है देश में मीडिया पूरी तरह से भाजपा-विरोधी मानसिकता लिये हुए है और भाजपा के विरोध में जहर उगलने के लिये तैयार बैठा रहता है। मीडिया ने हर समय, प्रतिदिन चौबीसों घण्टे भाजपा की नकारात्मक छवि पेश की। भले ही पढ़े-लिखे वर्ग पर मीडिया का असर कम होता है, लेकिन रोज-ब-रोज़ टीवी पर सोनिया-राहुल-कांग्रेस का गुणगान देख-देखकर जनता के मन में कहीं न कहीं तो “सॉफ़्ट कॉर्नर” बन ही जाता है, लेकिन आश्चर्य यह है कि इतनी भीषण महंगाई के बावजूद देश की जनता ने कांग्रेस को कैसे चुना? आखिर क्या सोच रही होगी मतदाता के मन में?
बहरहाल, पोस्ट खत्म होते-होते (दोपहर 1 बजे) लगभग स्थिति साफ़ हो चुकी है कि यूपीए ही सरकार बनायेगा। इस सारे झमेले में सिर्फ़ एक बात ही सकारात्मक हुई है वह ये कि अब आगामी सरकार पर “वामपंथी” नामक ढोंग का काला साया नहीं रहेगा और शायद मनमोहन सिंह और खुलकर काम कर पायेंगे। भाजपा में भी अब आत्ममंथन का दौर चलेगा और यदि आडवाणी अपने शब्दों पर खरे उतरते हैं तो उन्हें सन्यास ले लेना चाहिये। लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि भाजपा-संघ-हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ताओं को हतबल होकर बैठ जाना चाहिये। निराशा है, उदासी है लेकिन ऐसा तो लोकतन्त्र में होता ही रहता है।
माना कि “हिन्दुओं” को एकत्र करने, उनमें “राष्ट्रवाद” जगाने, देश को इस्लामीकरण के खतरे समझाने, अफ़ज़ल-कसाब को पार्टी मनाने देने, “मिशनरी” के बढ़ते वर्चस्व को समझाने में हम नाकाम रहे। क्या कांग्रेस को सत्ता मिल जाने से देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं का समाधान हो गया है? क्या हिन्दुओं और हिन्दुत्व के चारो ओर मंडरा रहे संकेत मद्धिम हो गये, हरगिज़ नहीं। आज जनता इस बात को समझने में नाकाम रही है, तो हमारा यह कर्तव्य है कि उसे समझाने का प्रयास लगातार करते रहें…
“रुके न तू… थके न तू…” की तर्ज पर हमें फ़िर से उठ खड़े होना है, निराश-हताश होने से काम नहीं चलेगा… अभी बहुत काम बाकी है, यह तो सिर्फ़ एक पड़ाव है और ऐसी ठोकरें तो लगती ही रहती हैं… आखिर 1984 में 400 से अधिक सीटों पर जीतने वाली कांग्रेस को 140 तक ले ही आये थे, और 1984 में हम 2 थे और फ़िर 189 तक पहुँचे भी थे, तो फ़िर घबराना कैसा? यह उतार-चढ़ाव तो आते ही रहेंगे… लक्ष्य पर निगाह रखो और पुनः उठ खड़े हो, चलो…
कांग्रेस का मानना है नतीजे आश्चर्यजनक रहे हैं, यही हाल भाजपा का भी है। किसी ने भी नहीं सोचा था कि इतनी महंगाई (आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन को छूने वाला एक मुद्दा) तथा भयानक आतंकवाद (“एलीट क्लास” का मुद्दा) जैसे मुद्दों के बावजूद जनता कांग्रेस-यूपीए को जितायेगी, लेकिन यह हुआ। क्यों हुआ, कैसे हुआ इसको लेकर माथापच्ची तो अगले 5 साल तक चलती ही रहेगी।
यदि सरसरी तौर पर विश्लेषण किया जाये तो भाजपा की हार के कुछ कारण दिखाई देते हैं, वे इस प्रकार हैं –
1) लालकृष्ण आडवाणी की स्वीकार्यता जनता में नहीं होना,
2) कम वोटिंग प्रतिशत, तथा
3) मीडिया का एकतरफ़ा सतत चलने वाला भाजपा-विरोधी अभियान।
1) आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना शायद एक गलत कदम था, उनकी बजाय नरेन्द्र मोदी या सुषमा स्वराज को यदि ठीक से “मार्केटिंग” करके मैदान में उतारा जाता तो युवा वोटर का रुझान भाजपा को अधिक मिलता। सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से महिलाओं के वोट लेने में भी आसानी हो सकती थी, क्योंकि उनकी “इमेज” साफ़-सुथरी और एक परम्परागत भारतीय स्त्री वाली है, इसी प्रकार नरेन्द्र मोदी को गुजरात के विकास का चित्र सामने रखकर उन पर दाँव खेला जा सकता था।
2) कम वोटिंग प्रतिशत – जो वर्ग सबसे अधिक सरकार की आलोचना करता है, अखबारों में, टीवी पर, ड्राइंग रूम में उसी वर्ग ने भीषण गर्मी के चलते मतदान में सबसे कम हिस्सा लिया। सारे देश का प्रतिशत देखा जाये तो कुल 41% प्रतिशत मतदान हुआ, इसका अर्थ यह है कि बाकी के 49% लोग “पप्पू” बने (जानबूझकर बने)। एक आम मतदाता ने तो अपना वोट बराबर डाला, लेकिन मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा पप्पू बना, इसके चलते भाजपा का परम्परागत वोटबैंक घर में (एसी की ठण्डी हवा में) ही बैठा रहा, नतीजा सबसे सामने है। इस 41% वोटिंग का एक मतलब यह भी है कि देश पर ऐसी पार्टी शासन करेगी जिसे असल में देश के सिर्फ़ 22% लोग चाहते हैं।
3) मीडिया की भूमिका – जैसा कि पहले भी कई बार कहा गया है देश में मीडिया पूरी तरह से भाजपा-विरोधी मानसिकता लिये हुए है और भाजपा के विरोध में जहर उगलने के लिये तैयार बैठा रहता है। मीडिया ने हर समय, प्रतिदिन चौबीसों घण्टे भाजपा की नकारात्मक छवि पेश की। भले ही पढ़े-लिखे वर्ग पर मीडिया का असर कम होता है, लेकिन रोज-ब-रोज़ टीवी पर सोनिया-राहुल-कांग्रेस का गुणगान देख-देखकर जनता के मन में कहीं न कहीं तो “सॉफ़्ट कॉर्नर” बन ही जाता है, लेकिन आश्चर्य यह है कि इतनी भीषण महंगाई के बावजूद देश की जनता ने कांग्रेस को कैसे चुना? आखिर क्या सोच रही होगी मतदाता के मन में?
बहरहाल, पोस्ट खत्म होते-होते (दोपहर 1 बजे) लगभग स्थिति साफ़ हो चुकी है कि यूपीए ही सरकार बनायेगा। इस सारे झमेले में सिर्फ़ एक बात ही सकारात्मक हुई है वह ये कि अब आगामी सरकार पर “वामपंथी” नामक ढोंग का काला साया नहीं रहेगा और शायद मनमोहन सिंह और खुलकर काम कर पायेंगे। भाजपा में भी अब आत्ममंथन का दौर चलेगा और यदि आडवाणी अपने शब्दों पर खरे उतरते हैं तो उन्हें सन्यास ले लेना चाहिये। लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि भाजपा-संघ-हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ताओं को हतबल होकर बैठ जाना चाहिये। निराशा है, उदासी है लेकिन ऐसा तो लोकतन्त्र में होता ही रहता है।
माना कि “हिन्दुओं” को एकत्र करने, उनमें “राष्ट्रवाद” जगाने, देश को इस्लामीकरण के खतरे समझाने, अफ़ज़ल-कसाब को पार्टी मनाने देने, “मिशनरी” के बढ़ते वर्चस्व को समझाने में हम नाकाम रहे। क्या कांग्रेस को सत्ता मिल जाने से देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं का समाधान हो गया है? क्या हिन्दुओं और हिन्दुत्व के चारो ओर मंडरा रहे संकेत मद्धिम हो गये, हरगिज़ नहीं। आज जनता इस बात को समझने में नाकाम रही है, तो हमारा यह कर्तव्य है कि उसे समझाने का प्रयास लगातार करते रहें…
“रुके न तू… थके न तू…” की तर्ज पर हमें फ़िर से उठ खड़े होना है, निराश-हताश होने से काम नहीं चलेगा… अभी बहुत काम बाकी है, यह तो सिर्फ़ एक पड़ाव है और ऐसी ठोकरें तो लगती ही रहती हैं… आखिर 1984 में 400 से अधिक सीटों पर जीतने वाली कांग्रेस को 140 तक ले ही आये थे, और 1984 में हम 2 थे और फ़िर 189 तक पहुँचे भी थे, तो फ़िर घबराना कैसा? यह उतार-चढ़ाव तो आते ही रहेंगे… लक्ष्य पर निगाह रखो और पुनः उठ खड़े हो, चलो…
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मंगलवार, 12 मई 2009 13:43
दस रुपये के सिक्के पर “क्रूसेडर क्रॉस” – ईसाईयत की ओर बढ़ते कदम… New 10 Rs. coin and Evangelical Crusader’s Cross
केन्द्र सरकार द्वारा 10 रुपये का नया सिक्का जारी किया गया है, जो दो धातुओं से मिलकर बना है तथा जिस पर एक तरफ़ “ईसाई क्रूसेडर क्रॉस” का निशान बना हुआ है। हालांकि इस सिक्के पर सन् 2006 खुदा हुआ है, लेकिन हमें बताया गया है कि यह हाल ही में जारी किया गया है। इससे पहले भी सन् 2006 में ही 2 रुपये का जो सिक्का जारी किया गया था, उसमें भी यही “क्रॉस” का निशान बना हुआ था। “सेकुलरों के प्रातः स्मरणीय” नरेन्द्र मोदी ने उस समय गुजरात के चुनावों के दौरान इस सिक्के की खूब खिल्ली उड़ाई थी और बाकायदा लिखित में रिजर्व बैंक और केन्द्र सरकार का विरोध किया, तब वह सिक्का वापस लेने की घोषणा की गई। लेकिन सन् 2009 आते-आते फ़िर से नौकरशाही को फ़िर से वही बेशर्मी भरे “सेकुलर दस्त” लगे और दस रुपये का नया सिक्का जारी कर दिया गया, जिसमें वही क्रूसेडर क्रॉस खुदा हुआ है।
इसके बाद जो एक और दो रुपये के सिक्के जारी किये गये उसमें एक रुपये के सिक्के पर “अंगूठा दिखाते हुए” (Thumbs up) तथा दो रुपये के सिक्के पर “दो उंगलियों वाली विजयी मुद्रा” (Victory Sign) के चित्र खुदे हुए हैं। (इन सिक्कों पर ये “ठेंगा” किसे दिखाया जा रहा है, और “विक्ट्री साइन” किसे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है)।
अब आते हैं मूल बात पर – सन् 2005 वाले एक रुपये के सिक्के में जो क्रॉस दिखाया गया था वह साफ़-साफ़ क्रिश्चियन क्रॉस था, लेकिन जब हल्ला मचा तो सिक्का वापस ले लिया गया, लेकिन फ़िर से 2006 में जारी दो रुपये के सिक्के पर वही क्रॉस “थोड़े से अन्तर” के साथ आ गया। इस बार क्रॉस को दोहरी लाइनों वाला कर दिया गया, फ़िर से विरोध हुआ तो सिक्का वापस लिया गया, अब पुनः दस रुपये के सिक्के पर वही क्रॉस दिया गया है…। देश में इस्लामीकरण को बढ़ावा देना हो या धर्म परिवर्तन को, यह एक आजमाया हुआ सेकुलर तरीका है, पहले चुपके से कोई हरकत कर दी जाती है, एकाध-दो बार विरोध होता है, लेकिन कुछ समय बाद वही हरकत दोहरा दी जाती है, और फ़िर धीरे से वह परम्परा बन जाती है। हिन्दू संगठन कोई विरोध करें तो उन्हें “साम्प्रदायिक” घोषित कर दिया जाता है, बिके हुए मीडिया के सहारे “वर्ग विशेष” के एजेण्डे को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सिक्कों पर क्रूसेडर क्रॉस रचने के पीछे किस चापलूस मंत्री या सरकारी अधिकारी का हाथ है यह भी एक जाँच का विषय है। क्या सोनिया गाँधी का कोई ऐसा “सुपर-चमचा” अधिकारी है जो किसी “पद्म पुरस्कार” या अपनी पत्नी द्वारा चलाये जा रहे NGO को मिलने वाली भारी आर्थिक मदद के बदले में “ईसाईकरण” को बढ़ावा देने में लगा है? क्योंकि इस प्रक्रिया को सन् 2004 के बाद ही तेजी मिली है, अर्थात जबसे “माइनो सरकार” स्थापित हुई। जो भी हो, यह अपने देश की संस्कृति और परम्परा पर अभिमान करने वालों के लिये एक अपमानजनक बात तो है ही।
दो और दस रुपये के सिक्के पर जो क्रूसेडर क्रॉस खुदा हुआ है वह असल में फ़्रांस के शासक लुई द पायस (सन् 778 से सन् 840) द्वारा जारी किये गये सोने के सिक्के में भी है। लुई का शासनकाल फ़्रांस में सन् 814 से 840 तक रहा, और उसी ने इस क्रूसेडर क्रॉस वाले सिक्के को जारी किया था। (लुई द पायस के सिक्के का चित्र देखें) अब चित्र में विभिन्न प्रकार के “क्रॉस” देखिये जिसमें सबसे अन्तिम आठवें नम्बर वाला क्रूसेडर क्रॉस है जिसे दस रुपये के नये सिक्के पर जारी किया है, जिसे सन् 2006 में ही ढाला गया है, लेकिन जारी अभी किया।
जैसा कि चित्र में दिखाया गया है इस क्रूसेडर क्रॉस में चारों तरफ़ आड़ी और खड़ी लाइनों के बीच में चार बिन्दु हैं। RBI अधिकारियों का एक हास्यापद तर्क है कि यह चिन्ह असल में देश की चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें चारों बिन्दु एकता को प्रदर्शित करते हैं, तथा “अंगूठे” और “विक्ट्री साइन” का उपयोग नेत्रहीनों की सुविधा के लिये किया गया है… अर्थात सूर्य, कमल, गेहूँ की बालियाँ, अशोक चक्र, सिंह आदि देश की एकता और संस्कृति को नहीं दर्शाते? तथा इसके पहले जो भी सिक्के थे उन्हें नेत्रहीन नहीं पहचान पाते थे? किसे मूर्ख बना रहे हैं ये?
जबकि इस क्रूसेडर क्रॉस के चारों बिन्दुओं का मतलब कुछ और है – जैसा कि सभी जानते हैं, “क्रूसेड (Crusade)” का मतलब होता है “धर्मयुद्ध”। नवीं शताब्दी के उन दिनों में “बाइज़ेन्टाइन शासनकाल” में क्रॉस के चारों तरफ़ स्थित इन चारों बिन्दुओं को को “बेसेण्ट” (Besants) कहते थे, Besant का ही दूसरा नाम था “सोलिडस” (Solidus), और यही चार बिन्दुओं वाले सोने के सिक्के नवीं शताब्दी में लुई तृतीय ने जारी किये थे। रोमन साम्राज्य द्वारा यूरोप में भी 15वीं शताब्दी में इन चिन्हों वाले सिक्के चलन में लाये गये थे, यह क्रॉस कालान्तर में “जेरुसलेम क्रॉस” के नाम से जाना गया। यह चारों बिन्दु आगे चलकर चार छोटे से क्रॉस में तब्दील हुए, जो कि यरूशलम से प्रारम्भ होकर धरती के चार कोनों में स्थित चार “एवेंजेलिस्ट गोस्पेल” (सिद्धान्त) के रूप में भी माने गये, जो कि क्रमशः “Gospel of Matthew”, “Gospel of Mark”, “Gospel of Luke” तथा “Gospel of John” हैं, जबकि बड़ा वाला क्रॉस स्वयं यीशु का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में रिज़र्व बैंक के अधिकारियों के “एकता” वाला तर्क बेहद थोथा और बोदा है, यह बात हमारे सदाबहार “सेकुलर” नहीं समझेंगे और हिन्दू समझना नहीं चाहते।
माइनो सरकार जबसे सत्ता में आई है, भारतीय संस्कृति के प्रतीक चिन्हों पर एक के बाद आघात करती जा रही है। सिक्कों से भारत माता, भारत के नक्शे और अन्य राष्ट्रीय महत्व के चिन्ह गायब करके “क्रॉस”, “अंगूठा” और “विक्ट्री साइन” के मूर्खतापूर्ण प्रयोग किये गये हैं, केन्द्रीय विद्यालय के प्रतीक चिन्ह “उगते सूर्य के साथ कमल पर रखी पुस्तक” को भी बदल दिया गया है, सरकारी कागज़ों, दस्तावेजों और वेबसाईटों से धीरे-धीरे “सत्यमेव जयते” हटाया जा रहा है, दूरदर्शन के “स्लोगन” “सत्यं शिवम् सुन्दरम्” में भी बदलाव किया गया है, बच्चों को “ग” से “गणेश” की बजाय “गधा” पढ़ाया जा रहा है, तात्पर्य यह कि भारतीय संस्कृति के प्रतीक चिन्हों को समाप्त करने के लिये धीरे-धीरे अन्दर से उसे कुतरा जा रहा है, और “हिन्दू” जैसा कि वे हमेशा से रहे हैं, अब भी गहरी नींद में गाफ़िल हैं। बहरहाल, यह तो खैर हिन्दुओं की शोकान्तिका है ही कि 60 में 50 साल तक एक “मुस्लिम-ईसाई परिवार” का शासन इस देश पर रहा।
किसी कौम को पहले मानसिक रूप से खत्म करने के लिये उसके सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों पर हमला बोला जाता है, उसे सांस्कृतिक रूप से खोखला कर दिया जाता है, पहले अपने “सिद्धान्त” ठेल दिये जाते हैं, दूसरों की संस्कृति की आलोचना करके, उसे नीचा दिखाकर एक अभियान चलाया जाता है, इससे धर्म परिवर्तन का काम आसान हो जाता है और वह कौम बिना लड़े ही आत्मसमर्पण कर देती है, क्योंकि उसकी पूरी एक पीढ़ी पहले ही मानसिक रूप से उनकी गुलाम हो चुकी होती है। वेलेंटाइन-डे, गुलाबी चड्डी, पब संस्कृति, अंग्रेजियत, कम कपड़ों और नंगई को बढ़ावा देना, आदि इसी “विशाल अभियान” का एक छोटा सा हिस्सा भर हैं।
किसी भी देश के सिक्के एक ऐतिहासिक धरोहर तो होते ही हैं, उस देश की संस्कृति और वैभव को भी प्रदर्शित करते हैं। पहले एक, दो और पाँच के सिक्कों पर कहीं गेहूँ की बालियों के, भारत के नक्शे के, अशोक चिन्ह के, किसी पर महर्षि अरविन्द, वल्लभभाई पटेल आदि महापुरुषों के चेहरे की प्रतिकृति, किसी सिक्के पर उगते सूर्य, कमल के फ़ूल अथवा खेतों का चिन्ह होता था, लेकिन ये “ईसाई क्रूसेडर क्रॉस”, “अंगूठा” और “विक्ट्री साइन” दिखाने वाले सिक्के ढाल कर सरकार क्या साबित करना चाहती है, यह अब स्पष्ट दिखाई देने लगा है। इस देश में “हिन्दू-विरोधियों” का एक मजबूत नेटवर्क तैयार हो चुका है, जिसमें मीडिया, NGO, पत्रकार, राजनेता, अफ़सरशाही सभी तबकों के लोग मौजूद हैं, तथा उनकी सहायता के लिये कुछ प्रत्यक्ष और कुछ अप्रत्यक्ष लोग “सेकुलर” अथवा “कांग्रेसी-वामपंथी” के नाम से मौजूद हैं।
इन सिक्कों के जरिये आने वाली पीढ़ियों के लिये यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि, सन् 2006 के काल में भारत पर “इटली की एक ईसाई महारानी” राज्य करती थी… तथा भारत की जनता में ही कुछ “जयचन्द” ऐसे भी थे जो इस महारानी की चरणवन्दना करते थे और कुछ “चारण-भाट” उसके गीत गाते थे, जिन्हें “सेकुलर” कहा जाता था।
New ten rupees coin, one rupee, two rupee coins and Reserve Bank of India, Evangelization in India, Church Conversion agenda and Congress, Crusader’s Cross on Coins, Valentine Day, NGO and anti-Hindu network in India, Sonia Gandhi and Italy, दस रुपये का नया सिक्का, एक रुपये और दो रुपये के नये सिक्के, भारतीय रिज़र्व बैंक, भारत में इवेंजेलिकल चर्च तथा धर्मान्तरण, सिक्कों पर क्रूसेडर क्रॉस, वेलेन्टाइन डे, NGO तथा हिन्दू विरोधी नेटवर्क, सेकुलरिज़्म, कांग्रेस और सोनिया गाँधी, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
दूसरा फ़ोटो – एक रुपये के सिक्के में एक लकीर वाला क्रॉस तथा पुराने दो रुपये के सिक्के का जिसमें दोनाली क्रॉस दर्शाया गया है (जो मोदी द्वारा विरोध के बाद बन्द किया गया)
इसके बाद जो एक और दो रुपये के सिक्के जारी किये गये उसमें एक रुपये के सिक्के पर “अंगूठा दिखाते हुए” (Thumbs up) तथा दो रुपये के सिक्के पर “दो उंगलियों वाली विजयी मुद्रा” (Victory Sign) के चित्र खुदे हुए हैं। (इन सिक्कों पर ये “ठेंगा” किसे दिखाया जा रहा है, और “विक्ट्री साइन” किसे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है)।
एक रुपये का नया सिक्का जिसमें “अंगूठा” दिखाया जा रहा है।
अब आते हैं मूल बात पर – सन् 2005 वाले एक रुपये के सिक्के में जो क्रॉस दिखाया गया था वह साफ़-साफ़ क्रिश्चियन क्रॉस था, लेकिन जब हल्ला मचा तो सिक्का वापस ले लिया गया, लेकिन फ़िर से 2006 में जारी दो रुपये के सिक्के पर वही क्रॉस “थोड़े से अन्तर” के साथ आ गया। इस बार क्रॉस को दोहरी लाइनों वाला कर दिया गया, फ़िर से विरोध हुआ तो सिक्का वापस लिया गया, अब पुनः दस रुपये के सिक्के पर वही क्रॉस दिया गया है…। देश में इस्लामीकरण को बढ़ावा देना हो या धर्म परिवर्तन को, यह एक आजमाया हुआ सेकुलर तरीका है, पहले चुपके से कोई हरकत कर दी जाती है, एकाध-दो बार विरोध होता है, लेकिन कुछ समय बाद वही हरकत दोहरा दी जाती है, और फ़िर धीरे से वह परम्परा बन जाती है। हिन्दू संगठन कोई विरोध करें तो उन्हें “साम्प्रदायिक” घोषित कर दिया जाता है, बिके हुए मीडिया के सहारे “वर्ग विशेष” के एजेण्डे को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सिक्कों पर क्रूसेडर क्रॉस रचने के पीछे किस चापलूस मंत्री या सरकारी अधिकारी का हाथ है यह भी एक जाँच का विषय है। क्या सोनिया गाँधी का कोई ऐसा “सुपर-चमचा” अधिकारी है जो किसी “पद्म पुरस्कार” या अपनी पत्नी द्वारा चलाये जा रहे NGO को मिलने वाली भारी आर्थिक मदद के बदले में “ईसाईकरण” को बढ़ावा देने में लगा है? क्योंकि इस प्रक्रिया को सन् 2004 के बाद ही तेजी मिली है, अर्थात जबसे “माइनो सरकार” स्थापित हुई। जो भी हो, यह अपने देश की संस्कृति और परम्परा पर अभिमान करने वालों के लिये एक अपमानजनक बात तो है ही।
दो और दस रुपये के सिक्के पर जो क्रूसेडर क्रॉस खुदा हुआ है वह असल में फ़्रांस के शासक लुई द पायस (सन् 778 से सन् 840) द्वारा जारी किये गये सोने के सिक्के में भी है। लुई का शासनकाल फ़्रांस में सन् 814 से 840 तक रहा, और उसी ने इस क्रूसेडर क्रॉस वाले सिक्के को जारी किया था। (लुई द पायस के सिक्के का चित्र देखें) अब चित्र में विभिन्न प्रकार के “क्रॉस” देखिये जिसमें सबसे अन्तिम आठवें नम्बर वाला क्रूसेडर क्रॉस है जिसे दस रुपये के नये सिक्के पर जारी किया है, जिसे सन् 2006 में ही ढाला गया है, लेकिन जारी अभी किया।
विभिन्न तरह के क्रॉस
जैसा कि चित्र में दिखाया गया है इस क्रूसेडर क्रॉस में चारों तरफ़ आड़ी और खड़ी लाइनों के बीच में चार बिन्दु हैं। RBI अधिकारियों का एक हास्यापद तर्क है कि यह चिन्ह असल में देश की चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें चारों बिन्दु एकता को प्रदर्शित करते हैं, तथा “अंगूठे” और “विक्ट्री साइन” का उपयोग नेत्रहीनों की सुविधा के लिये किया गया है… अर्थात सूर्य, कमल, गेहूँ की बालियाँ, अशोक चक्र, सिंह आदि देश की एकता और संस्कृति को नहीं दर्शाते? तथा इसके पहले जो भी सिक्के थे उन्हें नेत्रहीन नहीं पहचान पाते थे? किसे मूर्ख बना रहे हैं ये?
जबकि इस क्रूसेडर क्रॉस के चारों बिन्दुओं का मतलब कुछ और है – जैसा कि सभी जानते हैं, “क्रूसेड (Crusade)” का मतलब होता है “धर्मयुद्ध”। नवीं शताब्दी के उन दिनों में “बाइज़ेन्टाइन शासनकाल” में क्रॉस के चारों तरफ़ स्थित इन चारों बिन्दुओं को को “बेसेण्ट” (Besants) कहते थे, Besant का ही दूसरा नाम था “सोलिडस” (Solidus), और यही चार बिन्दुओं वाले सोने के सिक्के नवीं शताब्दी में लुई तृतीय ने जारी किये थे। रोमन साम्राज्य द्वारा यूरोप में भी 15वीं शताब्दी में इन चिन्हों वाले सिक्के चलन में लाये गये थे, यह क्रॉस कालान्तर में “जेरुसलेम क्रॉस” के नाम से जाना गया। यह चारों बिन्दु आगे चलकर चार छोटे से क्रॉस में तब्दील हुए, जो कि यरूशलम से प्रारम्भ होकर धरती के चार कोनों में स्थित चार “एवेंजेलिस्ट गोस्पेल” (सिद्धान्त) के रूप में भी माने गये, जो कि क्रमशः “Gospel of Matthew”, “Gospel of Mark”, “Gospel of Luke” तथा “Gospel of John” हैं, जबकि बड़ा वाला क्रॉस स्वयं यीशु का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में रिज़र्व बैंक के अधिकारियों के “एकता” वाला तर्क बेहद थोथा और बोदा है, यह बात हमारे सदाबहार “सेकुलर” नहीं समझेंगे और हिन्दू समझना नहीं चाहते।
माइनो सरकार जबसे सत्ता में आई है, भारतीय संस्कृति के प्रतीक चिन्हों पर एक के बाद आघात करती जा रही है। सिक्कों से भारत माता, भारत के नक्शे और अन्य राष्ट्रीय महत्व के चिन्ह गायब करके “क्रॉस”, “अंगूठा” और “विक्ट्री साइन” के मूर्खतापूर्ण प्रयोग किये गये हैं, केन्द्रीय विद्यालय के प्रतीक चिन्ह “उगते सूर्य के साथ कमल पर रखी पुस्तक” को भी बदल दिया गया है, सरकारी कागज़ों, दस्तावेजों और वेबसाईटों से धीरे-धीरे “सत्यमेव जयते” हटाया जा रहा है, दूरदर्शन के “स्लोगन” “सत्यं शिवम् सुन्दरम्” में भी बदलाव किया गया है, बच्चों को “ग” से “गणेश” की बजाय “गधा” पढ़ाया जा रहा है, तात्पर्य यह कि भारतीय संस्कृति के प्रतीक चिन्हों को समाप्त करने के लिये धीरे-धीरे अन्दर से उसे कुतरा जा रहा है, और “हिन्दू” जैसा कि वे हमेशा से रहे हैं, अब भी गहरी नींद में गाफ़िल हैं। बहरहाल, यह तो खैर हिन्दुओं की शोकान्तिका है ही कि 60 में 50 साल तक एक “मुस्लिम-ईसाई परिवार” का शासन इस देश पर रहा।
किसी कौम को पहले मानसिक रूप से खत्म करने के लिये उसके सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों पर हमला बोला जाता है, उसे सांस्कृतिक रूप से खोखला कर दिया जाता है, पहले अपने “सिद्धान्त” ठेल दिये जाते हैं, दूसरों की संस्कृति की आलोचना करके, उसे नीचा दिखाकर एक अभियान चलाया जाता है, इससे धर्म परिवर्तन का काम आसान हो जाता है और वह कौम बिना लड़े ही आत्मसमर्पण कर देती है, क्योंकि उसकी पूरी एक पीढ़ी पहले ही मानसिक रूप से उनकी गुलाम हो चुकी होती है। वेलेंटाइन-डे, गुलाबी चड्डी, पब संस्कृति, अंग्रेजियत, कम कपड़ों और नंगई को बढ़ावा देना, आदि इसी “विशाल अभियान” का एक छोटा सा हिस्सा भर हैं।
किसी भी देश के सिक्के एक ऐतिहासिक धरोहर तो होते ही हैं, उस देश की संस्कृति और वैभव को भी प्रदर्शित करते हैं। पहले एक, दो और पाँच के सिक्कों पर कहीं गेहूँ की बालियों के, भारत के नक्शे के, अशोक चिन्ह के, किसी पर महर्षि अरविन्द, वल्लभभाई पटेल आदि महापुरुषों के चेहरे की प्रतिकृति, किसी सिक्के पर उगते सूर्य, कमल के फ़ूल अथवा खेतों का चिन्ह होता था, लेकिन ये “ईसाई क्रूसेडर क्रॉस”, “अंगूठा” और “विक्ट्री साइन” दिखाने वाले सिक्के ढाल कर सरकार क्या साबित करना चाहती है, यह अब स्पष्ट दिखाई देने लगा है। इस देश में “हिन्दू-विरोधियों” का एक मजबूत नेटवर्क तैयार हो चुका है, जिसमें मीडिया, NGO, पत्रकार, राजनेता, अफ़सरशाही सभी तबकों के लोग मौजूद हैं, तथा उनकी सहायता के लिये कुछ प्रत्यक्ष और कुछ अप्रत्यक्ष लोग “सेकुलर” अथवा “कांग्रेसी-वामपंथी” के नाम से मौजूद हैं।
इन सिक्कों के जरिये आने वाली पीढ़ियों के लिये यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि, सन् 2006 के काल में भारत पर “इटली की एक ईसाई महारानी” राज्य करती थी… तथा भारत की जनता में ही कुछ “जयचन्द” ऐसे भी थे जो इस महारानी की चरणवन्दना करते थे और कुछ “चारण-भाट” उसके गीत गाते थे, जिन्हें “सेकुलर” कहा जाता था।
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शुक्रवार, 08 मई 2009 16:20
तमिल चीतों के सफ़ाये में चीन की भूमिका और भारत मूक दर्शक China’s role in Tamil Tiger Eradication
जब श्रीलंका ने तमिल चीतों पर निर्णायक हमला बोलने का निर्णय लिया तब कई लोगों को आश्चर्य हुआ था, कि आखिर श्रीलंका कैसे यह कर सकेगा। लेकिन इलाके पर बारीक नज़र रखने वाले विशेषज्ञ जानते थे कि चीन का हाथ अब पूरी तरह से श्रीलंका की पीठ पर है और प्रभाकरन सिर्फ़ कुछ ही दिनों का मेहमान है। चीन की मदद से न सिर्फ़ श्रीलंका ने जफ़ना और त्रिंकोमाली पर पकड़ मजबूत कर ली बल्कि “अन्तर्राष्ट्रीय आवाजों” और “पश्चिम की चिंताओं” की परवाह भी नहीं की।
श्रीलंका के दक्षिणी तट पर, विश्व के सबसे व्यस्ततम जलमार्ग से सिर्फ़ 10 समुद्री मील दूर एक विशालकाय निर्माण कार्य चल रहा है। “हम्बनतोटा” नामक इस मछलीमार गाँव की शान्ति भारी मशीनों ने भंग की हुई है… यहाँ चीन की आर्थिक और तकनीकी मदद से एक बहुत बड़ा बन्दरगाह बनाया जा रहा है, जिसे चीन अपने हितों के लिये उपयोग करेगा।
मार्च 2007 में जब श्रीलंका और चीन की सरकारों के बीच इस बन्दरगाह को बनाने का समझौता हुआ तभी से (यानी पिछले दो साल से) चीन ने श्रीलंका को इसके बदले में हथियार, अन्य साजो-सामान की सहायता और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनोवैज्ञानिक मदद सब कुछ दिया। असल में लगभग 1 अरब डॉलर की भारी-भरकम लागत से बनने वाले इस सैनिक-असैनिक बन्दरगाह से चीन अपने सभी जहाजों और तेल टैंकरों की मरम्मत और ईंधन की देखभाल तो करेगा ही, इस सामरिक रूप से महत्वपूर्ण समुद्री इलाके से सऊदी अरब द्वारा आने वाले उसके तेल पर भी नज़र रखेगा। भले ही चीन कहे कि यह एक व्यावसायिक बन्दरगाह है और श्रीलंका का इस पर पूरा नियन्त्रण होगा, लेकिन जो लोग चीन को जानते हैं वे यह जानते हैं कि चीन इस बन्दरगाह का उपयोग निश्चित रूप से क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज करने के लिये करेगा, और दक्षिण प्रशान्त और हिन्द महासागर में उसकी एक मजबूत उपस्थिति हो जायेगी।
इस जलमार्ग की विशिष्टता और उपयोगिता कितनी है यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि 1957 तक ब्रिटेन ने भी त्रिंकोमाली में अपना नौसेनिक अड्डा बनाया हुआ था और आज भी दिएगो गार्सिया में वह अमेरिका के साथ साझेदारी में एक महत्वपूर्ण द्वीप पर काबिज है। चीन की नज़र श्रीलंका पर 1990 से ही थी, लेकिन अब तमिल चीतों के सफ़ाये में मदद के बहाने से चीन ने श्रीलंका में पूरी तरह से घुसपैठ कर ली है, जब पश्चिमी देशों और भारत ने श्रीलंका को मदद देने से इंकार कर दिया तब चीन ने सभी को ठेंगे पर रखते हुए “लंका लॉजिस्टिक्स एण्ड टेक्नोलॉजीस” (जिसके मालिक श्रीलंकाई राष्ट्रपति के भाई गोतभाया राजपक्षे हैं) से श्रीलंका को खुलकर भारी हथियार दिये। अप्रैल 2007 में 40 करोड़ डॉलर के हथियारों के बाद छः F-7 विमान भी लगभग मुफ़्त में उसने श्रीलंका को दिये ताकि वह लिट्टे के हवाई हमलों से निपट सके। क्या इतना सब चीन मानवता के नाते कर रहा है? कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है। खासकर तब, जबकि चीन ने पिछले दस साल में पाकिस्तान में ग्वादर बन्दरगाह, बांग्लादेश में चटगाँव बन्दरगाह और बर्मा में सिटवे बन्दरगाह को आधुनिक बनाने में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया है। (खबर यहाँ देखें)
क्या अब किसी के कानों में खतरे की घंटी बजी? जरूर बजी, हरेक समझदार व्यक्ति इस खतरे को भाँप रहा है, सिवाय भारत की कांग्रेसी सरकार के, जिसकी विदेश नीति की विफ़लता का आलम यह है कि तिब्बत के बाद अब नेपाल के रास्ते चीन पूर्वी सीमा पर आन खड़ा हुआ है तथा देश के चारों ओर महत्वपूर्ण ठिकानों पर अपने बन्दरगाह बना चुका है। सिर्फ़ अमेरिका की चमचागिरी करना ही “विदेश नीति” नहीं होती, यह बात कौन हमारे नेताओं को समझायेगा? आखिर कब भारत एक तनकर खड़ा होने वाला देश बनेगा। तथाकथित मानवाधिकारों की परवाह किये बिना कब भारत “अपने फ़ायदे” के बारे में सोचेगा? जो कुछ चीन ने श्रीलंका में किया क्या हम नहीं कर सकते थे? बांग्लादेश और पाकिस्तान को छोड़ भी दें (क्योंकि वे इस्लामिक देश हैं) तब भी कम से कम श्रीलंका और बर्मा में भारत अपने “पैर” जमा सकता था, लेकिन हमारी सरकारों को कभी करुणानिधि का डर सताता है, कभी “मानवाधिकारवादियों” का, तो कभी “लाल झण्डे वालों” का…, देश का फ़ायदा (दूरगामी फ़ायदा) कैसे हो यह सोचने की फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है। उधर महिन्द्रा राजपक्षे की चारों तरफ़ से मौज है, सन् 2005 से लेकर अब तक चीन उसे 1 अरब डॉलर की अतिरिक्त मदद दे चुका है, जबकि इसी अवधि में अमेरिका ने सिर्फ़ 7 करोड़ डॉलर और ब्रिटेन ने सिर्फ़ 2 करोड़ पौंड की मदद दी है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर राजपक्षे विश्व की सहानुभूति तो बटोर ही रहे हैं, माल भी बटोर रहे हैं। चीन ने उसे संयुक्त राष्ट्र में उठने वाली किसी भी आपत्ति पर कान न देने को कहा है, और श्रीलंका जानता है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन का वरदहस्त होने के क्या मायने हैं, इसलिये वह भारत को भी “भाव” देने को तैयार नहीं हैं, जबकि इधर भारतीय नेता खामखा मुगालते में बैठे हैं कि श्रीलंका हमारी कोई भी बात सुनेगा।
इस सारे झमेले में एक “मिशनरी/चर्च” का कोण भी है, जिसकी तरफ़ अभी बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया है। श्रीलंका में बरसों से जारी सिंहली-तमिल संघर्ष के दौरान जिस लिट्टे का जन्म हुआ, अब वह लिट्टे पुराना लिट्टे नहीं रहा। उसके प्रमुख प्रभाकरण भी ईसाई बन चुके और कई प्रमुख ओहदेदार भी। लिट्टे अपने सदस्यों का अन्तिम संस्कार भी नहीं करने देता बल्कि उन्हें कब्र में दफ़नाया जाता है। लिट्टे की सबसे बड़ी आर्थिक और शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति करने वाली संस्था रही “पश्चिम का एवेंजेलिकल चर्च”। चर्च (खासकर नॉर्वे, जर्मनी, स्पेन) और पश्चिम के अन्य देशों के पैसों के बल पर तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका को मिलाकर एक “तमिल ईलम” बनाने की योजना थी, फ़िलहाल जिस पर चीन की मेहरबानी से पानी फ़िर गया है। गत 5 साल में चर्च का सर्वाधिक पैसा भारत में जिस राज्य में आया है वह “तमिलनाडु” है। करुणानिधि भले ही अपने-आप को नास्तिक बताते रहे हों, लेकिन गले में पीला दुपट्टा ओढ़कर भी वे सदा चर्च की मदद को तत्पर रहे हैं। शंकराचार्य की गिरफ़्तारी हो या चेन्नै हाईकोर्ट में वकीलों द्वारा किया गया उपद्रव हो, हरेक घटना के पीछे द्रमुक का हिन्दू और ब्राह्मणविरोधी रुख स्पष्ट दिखा है। जबकि चीन के लिये अपना फ़ायदा अधिक महत्वपूर्ण है, “चर्च” वगैरह की शक्ति को वह जूते की नोक पर रखता है, इसलिये उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि श्रीलंका में चल रहा संघर्ष असल में “बौद्ध” और “चर्च” का संघर्ष था। पश्चिमी देशों की श्रीलंका में मानवाधिकार आदि की “चिल्लपों” इसी कारण है कि चर्च का काफ़ी पैसा पानी में चला गया, जबकि श्रीलंका सरकार का रुख “कान पर बैठी मक्खी उड़ाने” जैसा इसलिये है, क्योंकि वह जानता है कि चीन उसके साथ है।
फ़िलहाल तो भारत सरकार एक मूक दर्शक की भूमिका में है (जैसा कि वह अधिकतर मामलों में होती है), चाहे करुणानिधि खुलेआम तमिलनाडु में “तमिल ईलम” की स्थापना की घोषणा कर रहे हों, वाइको सरेआम “खून की नदियाँ” बहाने की बात कर रहे हों। छोटी-मोटी पार्टियाँ जनता को उकसाकर भारतीय सेना के ट्रकों को लूट रही हैं, जला रही हैं… लेकिन शायद केन्द्र की कांग्रेस सरकार करुणानिधि या जयललिता से भविष्य में होने वाले राजनैतिक समीकरण पर ध्यान टिकाये हुए है, जयललिता को पटाने में लगी है, फ़िर चाहे “देशहित” जाये भाड़ में।
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श्रीलंका के दक्षिणी तट पर, विश्व के सबसे व्यस्ततम जलमार्ग से सिर्फ़ 10 समुद्री मील दूर एक विशालकाय निर्माण कार्य चल रहा है। “हम्बनतोटा” नामक इस मछलीमार गाँव की शान्ति भारी मशीनों ने भंग की हुई है… यहाँ चीन की आर्थिक और तकनीकी मदद से एक बहुत बड़ा बन्दरगाह बनाया जा रहा है, जिसे चीन अपने हितों के लिये उपयोग करेगा।
मार्च 2007 में जब श्रीलंका और चीन की सरकारों के बीच इस बन्दरगाह को बनाने का समझौता हुआ तभी से (यानी पिछले दो साल से) चीन ने श्रीलंका को इसके बदले में हथियार, अन्य साजो-सामान की सहायता और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनोवैज्ञानिक मदद सब कुछ दिया। असल में लगभग 1 अरब डॉलर की भारी-भरकम लागत से बनने वाले इस सैनिक-असैनिक बन्दरगाह से चीन अपने सभी जहाजों और तेल टैंकरों की मरम्मत और ईंधन की देखभाल तो करेगा ही, इस सामरिक रूप से महत्वपूर्ण समुद्री इलाके से सऊदी अरब द्वारा आने वाले उसके तेल पर भी नज़र रखेगा। भले ही चीन कहे कि यह एक व्यावसायिक बन्दरगाह है और श्रीलंका का इस पर पूरा नियन्त्रण होगा, लेकिन जो लोग चीन को जानते हैं वे यह जानते हैं कि चीन इस बन्दरगाह का उपयोग निश्चित रूप से क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज करने के लिये करेगा, और दक्षिण प्रशान्त और हिन्द महासागर में उसकी एक मजबूत उपस्थिति हो जायेगी।
इस जलमार्ग की विशिष्टता और उपयोगिता कितनी है यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि 1957 तक ब्रिटेन ने भी त्रिंकोमाली में अपना नौसेनिक अड्डा बनाया हुआ था और आज भी दिएगो गार्सिया में वह अमेरिका के साथ साझेदारी में एक महत्वपूर्ण द्वीप पर काबिज है। चीन की नज़र श्रीलंका पर 1990 से ही थी, लेकिन अब तमिल चीतों के सफ़ाये में मदद के बहाने से चीन ने श्रीलंका में पूरी तरह से घुसपैठ कर ली है, जब पश्चिमी देशों और भारत ने श्रीलंका को मदद देने से इंकार कर दिया तब चीन ने सभी को ठेंगे पर रखते हुए “लंका लॉजिस्टिक्स एण्ड टेक्नोलॉजीस” (जिसके मालिक श्रीलंकाई राष्ट्रपति के भाई गोतभाया राजपक्षे हैं) से श्रीलंका को खुलकर भारी हथियार दिये। अप्रैल 2007 में 40 करोड़ डॉलर के हथियारों के बाद छः F-7 विमान भी लगभग मुफ़्त में उसने श्रीलंका को दिये ताकि वह लिट्टे के हवाई हमलों से निपट सके। क्या इतना सब चीन मानवता के नाते कर रहा है? कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है। खासकर तब, जबकि चीन ने पिछले दस साल में पाकिस्तान में ग्वादर बन्दरगाह, बांग्लादेश में चटगाँव बन्दरगाह और बर्मा में सिटवे बन्दरगाह को आधुनिक बनाने में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया है। (खबर यहाँ देखें)
क्या अब किसी के कानों में खतरे की घंटी बजी? जरूर बजी, हरेक समझदार व्यक्ति इस खतरे को भाँप रहा है, सिवाय भारत की कांग्रेसी सरकार के, जिसकी विदेश नीति की विफ़लता का आलम यह है कि तिब्बत के बाद अब नेपाल के रास्ते चीन पूर्वी सीमा पर आन खड़ा हुआ है तथा देश के चारों ओर महत्वपूर्ण ठिकानों पर अपने बन्दरगाह बना चुका है। सिर्फ़ अमेरिका की चमचागिरी करना ही “विदेश नीति” नहीं होती, यह बात कौन हमारे नेताओं को समझायेगा? आखिर कब भारत एक तनकर खड़ा होने वाला देश बनेगा। तथाकथित मानवाधिकारों की परवाह किये बिना कब भारत “अपने फ़ायदे” के बारे में सोचेगा? जो कुछ चीन ने श्रीलंका में किया क्या हम नहीं कर सकते थे? बांग्लादेश और पाकिस्तान को छोड़ भी दें (क्योंकि वे इस्लामिक देश हैं) तब भी कम से कम श्रीलंका और बर्मा में भारत अपने “पैर” जमा सकता था, लेकिन हमारी सरकारों को कभी करुणानिधि का डर सताता है, कभी “मानवाधिकारवादियों” का, तो कभी “लाल झण्डे वालों” का…, देश का फ़ायदा (दूरगामी फ़ायदा) कैसे हो यह सोचने की फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है। उधर महिन्द्रा राजपक्षे की चारों तरफ़ से मौज है, सन् 2005 से लेकर अब तक चीन उसे 1 अरब डॉलर की अतिरिक्त मदद दे चुका है, जबकि इसी अवधि में अमेरिका ने सिर्फ़ 7 करोड़ डॉलर और ब्रिटेन ने सिर्फ़ 2 करोड़ पौंड की मदद दी है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर राजपक्षे विश्व की सहानुभूति तो बटोर ही रहे हैं, माल भी बटोर रहे हैं। चीन ने उसे संयुक्त राष्ट्र में उठने वाली किसी भी आपत्ति पर कान न देने को कहा है, और श्रीलंका जानता है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन का वरदहस्त होने के क्या मायने हैं, इसलिये वह भारत को भी “भाव” देने को तैयार नहीं हैं, जबकि इधर भारतीय नेता खामखा मुगालते में बैठे हैं कि श्रीलंका हमारी कोई भी बात सुनेगा।
इस सारे झमेले में एक “मिशनरी/चर्च” का कोण भी है, जिसकी तरफ़ अभी बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया है। श्रीलंका में बरसों से जारी सिंहली-तमिल संघर्ष के दौरान जिस लिट्टे का जन्म हुआ, अब वह लिट्टे पुराना लिट्टे नहीं रहा। उसके प्रमुख प्रभाकरण भी ईसाई बन चुके और कई प्रमुख ओहदेदार भी। लिट्टे अपने सदस्यों का अन्तिम संस्कार भी नहीं करने देता बल्कि उन्हें कब्र में दफ़नाया जाता है। लिट्टे की सबसे बड़ी आर्थिक और शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति करने वाली संस्था रही “पश्चिम का एवेंजेलिकल चर्च”। चर्च (खासकर नॉर्वे, जर्मनी, स्पेन) और पश्चिम के अन्य देशों के पैसों के बल पर तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका को मिलाकर एक “तमिल ईलम” बनाने की योजना थी, फ़िलहाल जिस पर चीन की मेहरबानी से पानी फ़िर गया है। गत 5 साल में चर्च का सर्वाधिक पैसा भारत में जिस राज्य में आया है वह “तमिलनाडु” है। करुणानिधि भले ही अपने-आप को नास्तिक बताते रहे हों, लेकिन गले में पीला दुपट्टा ओढ़कर भी वे सदा चर्च की मदद को तत्पर रहे हैं। शंकराचार्य की गिरफ़्तारी हो या चेन्नै हाईकोर्ट में वकीलों द्वारा किया गया उपद्रव हो, हरेक घटना के पीछे द्रमुक का हिन्दू और ब्राह्मणविरोधी रुख स्पष्ट दिखा है। जबकि चीन के लिये अपना फ़ायदा अधिक महत्वपूर्ण है, “चर्च” वगैरह की शक्ति को वह जूते की नोक पर रखता है, इसलिये उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि श्रीलंका में चल रहा संघर्ष असल में “बौद्ध” और “चर्च” का संघर्ष था। पश्चिमी देशों की श्रीलंका में मानवाधिकार आदि की “चिल्लपों” इसी कारण है कि चर्च का काफ़ी पैसा पानी में चला गया, जबकि श्रीलंका सरकार का रुख “कान पर बैठी मक्खी उड़ाने” जैसा इसलिये है, क्योंकि वह जानता है कि चीन उसके साथ है।
फ़िलहाल तो भारत सरकार एक मूक दर्शक की भूमिका में है (जैसा कि वह अधिकतर मामलों में होती है), चाहे करुणानिधि खुलेआम तमिलनाडु में “तमिल ईलम” की स्थापना की घोषणा कर रहे हों, वाइको सरेआम “खून की नदियाँ” बहाने की बात कर रहे हों। छोटी-मोटी पार्टियाँ जनता को उकसाकर भारतीय सेना के ट्रकों को लूट रही हैं, जला रही हैं… लेकिन शायद केन्द्र की कांग्रेस सरकार करुणानिधि या जयललिता से भविष्य में होने वाले राजनैतिक समीकरण पर ध्यान टिकाये हुए है, जयललिता को पटाने में लगी है, फ़िर चाहे “देशहित” जाये भाड़ में।
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मंगलवार, 05 मई 2009 13:15
बहराइच - एक क्रूर मुगल आक्रांता की कब्र पर मेला? Mughal Invader Defeated by Hindu Kings in Behraich
जैसा कि पहले भी कई बार कहा जा चुका है कि वामपंथियों और कांग्रेसियों ने भारत के गौरवशाली हिन्दू इतिहास को शर्मनाक बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है… क्रूर, अत्याचारी और अनाचारी मुगल शासकों के गुणगान करने में इन लोगों को आत्मिक सुख की अनुभूति होती है। लेकिन यह मामला उससे भी बढ़कर है, एक मुगल आक्रांता, जो कि समूचे भारत को “दारुल-इस्लाम” बनाने का सपना देखता था, की कब्र को दरगाह के रूप में अंधविश्वास और भेड़चाल के साथ नवाज़ा जाता है, लेकिन इतिहास को सुधार कर देश में आत्मगौरव निर्माण करने की बजाय हमारे महान इतिहासकार इस पर मौन हैं।
मुझे यकीन है कि अधिकतर पाठकों ने सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी के बारे में नहीं सुना होगा, यहाँ तक कि बहराइच (उत्तरप्रदेश) में रहने वालों को भी इसके बारे में शायद ठीक-ठीक पता न होगा। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं बहराइच (उत्तरप्रदेश) में “दरगाह शरीफ़”(???) पर प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के पहले रविवार को लगने वाले सालाना उर्स के बारे में…। बहराइच शहर से 3 किमी दूर सैयद सालार मसूद गाज़ी की दरगाह स्थित है, ऐसी मान्यता है(?) कि मज़ार-ए-शरीफ़ में स्नान करने से बीमारियाँ दूर हो जाती हैं (http://behraich.nic.in/) और अंधविश्वास के मारे लाखों लोग यहाँ आते हैं। सैयद सालार मसूद गाज़ी कौन था, उसकी कब्र “दरगाह” में कैसे तब्दील हो गई आदि के बारे में आगे जानेंगे ही, पहले “बहराइच” के बारे में संक्षिप्त में जान लें – यह इलाका “गन्धर्व वन” के रूप में प्राचीन वेदों में वर्णित है, ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने ॠषियों की तपस्या के लिये यहाँ एक घने जंगल का निर्माण किया था, जिसके कारण इसका नाम पड़ा “ब्रह्माइच”, जो कालांतर में भ्रष्ट होते-होते बहराइच बन गया।
अब आते हैं सालार मसूद पर… पाठकगंण महमूद गज़नवी (गज़नी) के बारे में तो जानते ही होंगे, वही मुगल आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 16 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में लगवाया। इसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही रिश्तेदार था सैयद सालार मसूद… यह बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया। सैयद सालार मसूद एक सनकी किस्म का धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता था। महमूद गजनवी तो बार-बार भारत आता था सिर्फ़ लूटने के लिये और वापस चला जाता था, लेकिन इस बार सैयद सालार मसूद भारत में विशाल सेना लेकर आया था कि वह इस भूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहेगा और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करेगा (जाहिर है कि तलवार के बल पर)।
सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं(?) को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।
इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई, ज़ाहिर है कि इतिहास की पुस्तकों में जिसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है। इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें 17 राजा सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई। जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये अथवा उसे एक भयानक युद्ध झेलना पड़ेगा। गाज़ी मसूद का जवाब भी वही आया जो कि अपेक्षित था, उसने कहा कि “इस धरती की सारी ज़मीन खुदा की है, और वह जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है… यह उसका धार्मिक कर्तव्य है कि वह सभी को इस्लाम का अनुयायी बनाये और जो खुदा को नहीं मानते उन्हें काफ़िर माना जाये…”।
उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी। इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।
बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ। बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा”(?) के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है।
इस समूचे घटनाक्रम को यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ बातें मुख्य रूप से स्पष्ट होती हैं-
(1) महमूद गजनवी के इतने आक्रमणों के बावजूद हिन्दुओं के पहली बार संगठित होते ही एक क्रूर मुगल आक्रांता को बुरी तरह से हराया गया (अर्थात यदि हिन्दू संगठित हो जायें तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता)
(2) एक मुगल आक्रांता जो भारत को इस्लामी देश बनाने का सपना देखता था, आज की तारीख में एक “पीर-शहीद” का दर्जा पाये हुए है और दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर मूर्ख हिन्दू उसकी मज़ार पर जाकर मत्था टेक रहे हैं।
(3) एक इतना बड़ा तथ्य कि महमूद गजनवी के एक प्रमुख रिश्तेदार को भारत की भूमि पर समाप्त किया गया, इतिहास की पुस्तकों में सिरे से ही गायब है।
जो कुछ भी उपलब्ध है इंटरनेट पर ही है, इस सम्बन्ध में रोमिला थापर की पुस्तक “Dargah of Ghazi in Bahraich” में उल्लेख है
एन्ना सुवोरोवा की एक और पुस्तक “Muslim Saints of South Asia” में भी इसका उल्लेख मिलता है,
जो मूर्ख हिन्दू उस दरगाह पर जाकर अभी भी स्वास्थ्य और शारीरिक तकलीफ़ों सम्बन्धी तथा अन्य दुआएं मांगते हैं उनकी खिल्ली स्वयं “तुलसीदास” भी उड़ा चुके हैं। चूंकि मुगल शासनकाल होने के कारण तुलसीदास ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है, लेकिन फ़िर भी बहराइच में जारी इस “भेड़िया धसान” (भेड़चाल) के बारे में वे अपनी “दोहावली” में कहते हैं –
लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥
अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच क्यों जाते हैं…” (यहाँ भी देखें)
“लाल” इतिहासकारों और धूर्त तथा स्वार्थी कांग्रेसियों ने हमेशा भारत की जनता को उनके गौरवपूर्ण इतिहास से महरूम रखने का प्रयोजन किया हुआ है। इनका साथ देने के लिये “सेकुलर” नाम की घृणित कौम भी इनके पीछे हमेशा रही है। भारत के इतिहास को छेड़छाड़ करके मनमाने और षडयन्त्रपूर्ण तरीके से अंग्रेजों और मुगलों को श्रेष्ठ बताया गया है और हिन्दू राजाओं का या तो उल्लेख ही नहीं है और यदि है भी तो दमित-कुचले और हारे हुए के रूप में। आखिर इस विकृति के सुधार का उपाय क्या है…? जवाब बड़ा मुश्किल है, लेकिन एक बात तो तय है कि इतने लम्बे समय तक हिन्दू कौम का “ब्रेनवॉश” किया गया है, तो दिमागों से यह गंदगी साफ़ करने में समय तो लगेगा ही। इसके लिये शिक्षण पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। “मैकाले की अवैध संतानों” को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, यह एक धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है। हालांकि संतोष का विषय यह है कि इंटरनेट नामक हथियार युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, युवाओं में “हिन्दू भावनाओं” का उभार हो रहा है, उनमें अपने सही इतिहास को जानने की भूख है। आज का युवा काफ़ी समझदार है, वह देख रहा है कि भारत के आसपास क्या हो रहा है, वह जानता है कि भारत में कितनी अन्दरूनी शक्ति है, लेकिन जब वह “सेकुलरवादियों”, कांग्रेसियों और वामपंथियों के ढोंग भरे प्रवचन और उलटबाँसियाँ सुनता है तो उसे उबकाई आने लगती है, इन युवाओं (17 से 23 वर्ष आयु समूह) को भारत के गौरवशाली पृष्ठभूमि का ज्ञान करवाना चाहिये। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि भले ही वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर बनें, लेकिन उन्हें किसी से “दबकर” रहने या अपने धर्म और हिन्दुत्व को लेकर किसी शर्मिन्दगी का अहसास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस दिन हिन्दू संगठित होकर प्रतिकार करने लगेंगे, एक “हिन्दू वोट बैंक” की तरह चुनाव में वोटिंग करने लगेंगे, उस दिन ये “सेकुलर” नामक रीढ़विहीन प्राणी देखते-देखते गायब हो जायेगा।
हमें प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब खुलकर देना चाहिये, वरना हो सकता है कि किसी दिन एकाध “गधे की दरगाह” पर भी हिन्दू सिर झुकाते हुए मिलें…
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मुझे यकीन है कि अधिकतर पाठकों ने सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी के बारे में नहीं सुना होगा, यहाँ तक कि बहराइच (उत्तरप्रदेश) में रहने वालों को भी इसके बारे में शायद ठीक-ठीक पता न होगा। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं बहराइच (उत्तरप्रदेश) में “दरगाह शरीफ़”(???) पर प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के पहले रविवार को लगने वाले सालाना उर्स के बारे में…। बहराइच शहर से 3 किमी दूर सैयद सालार मसूद गाज़ी की दरगाह स्थित है, ऐसी मान्यता है(?) कि मज़ार-ए-शरीफ़ में स्नान करने से बीमारियाँ दूर हो जाती हैं (http://behraich.nic.in/) और अंधविश्वास के मारे लाखों लोग यहाँ आते हैं। सैयद सालार मसूद गाज़ी कौन था, उसकी कब्र “दरगाह” में कैसे तब्दील हो गई आदि के बारे में आगे जानेंगे ही, पहले “बहराइच” के बारे में संक्षिप्त में जान लें – यह इलाका “गन्धर्व वन” के रूप में प्राचीन वेदों में वर्णित है, ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने ॠषियों की तपस्या के लिये यहाँ एक घने जंगल का निर्माण किया था, जिसके कारण इसका नाम पड़ा “ब्रह्माइच”, जो कालांतर में भ्रष्ट होते-होते बहराइच बन गया।
अब आते हैं सालार मसूद पर… पाठकगंण महमूद गज़नवी (गज़नी) के बारे में तो जानते ही होंगे, वही मुगल आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 16 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में लगवाया। इसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही रिश्तेदार था सैयद सालार मसूद… यह बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया। सैयद सालार मसूद एक सनकी किस्म का धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता था। महमूद गजनवी तो बार-बार भारत आता था सिर्फ़ लूटने के लिये और वापस चला जाता था, लेकिन इस बार सैयद सालार मसूद भारत में विशाल सेना लेकर आया था कि वह इस भूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहेगा और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करेगा (जाहिर है कि तलवार के बल पर)।
सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं(?) को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।
इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई, ज़ाहिर है कि इतिहास की पुस्तकों में जिसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है। इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें 17 राजा सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई। जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये अथवा उसे एक भयानक युद्ध झेलना पड़ेगा। गाज़ी मसूद का जवाब भी वही आया जो कि अपेक्षित था, उसने कहा कि “इस धरती की सारी ज़मीन खुदा की है, और वह जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है… यह उसका धार्मिक कर्तव्य है कि वह सभी को इस्लाम का अनुयायी बनाये और जो खुदा को नहीं मानते उन्हें काफ़िर माना जाये…”।
उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी। इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।
बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ। बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा”(?) के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है।
इस समूचे घटनाक्रम को यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ बातें मुख्य रूप से स्पष्ट होती हैं-
(1) महमूद गजनवी के इतने आक्रमणों के बावजूद हिन्दुओं के पहली बार संगठित होते ही एक क्रूर मुगल आक्रांता को बुरी तरह से हराया गया (अर्थात यदि हिन्दू संगठित हो जायें तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता)
(2) एक मुगल आक्रांता जो भारत को इस्लामी देश बनाने का सपना देखता था, आज की तारीख में एक “पीर-शहीद” का दर्जा पाये हुए है और दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर मूर्ख हिन्दू उसकी मज़ार पर जाकर मत्था टेक रहे हैं।
(3) एक इतना बड़ा तथ्य कि महमूद गजनवी के एक प्रमुख रिश्तेदार को भारत की भूमि पर समाप्त किया गया, इतिहास की पुस्तकों में सिरे से ही गायब है।
जो कुछ भी उपलब्ध है इंटरनेट पर ही है, इस सम्बन्ध में रोमिला थापर की पुस्तक “Dargah of Ghazi in Bahraich” में उल्लेख है
एन्ना सुवोरोवा की एक और पुस्तक “Muslim Saints of South Asia” में भी इसका उल्लेख मिलता है,
जो मूर्ख हिन्दू उस दरगाह पर जाकर अभी भी स्वास्थ्य और शारीरिक तकलीफ़ों सम्बन्धी तथा अन्य दुआएं मांगते हैं उनकी खिल्ली स्वयं “तुलसीदास” भी उड़ा चुके हैं। चूंकि मुगल शासनकाल होने के कारण तुलसीदास ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है, लेकिन फ़िर भी बहराइच में जारी इस “भेड़िया धसान” (भेड़चाल) के बारे में वे अपनी “दोहावली” में कहते हैं –
लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥
अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच क्यों जाते हैं…” (यहाँ भी देखें)
“लाल” इतिहासकारों और धूर्त तथा स्वार्थी कांग्रेसियों ने हमेशा भारत की जनता को उनके गौरवपूर्ण इतिहास से महरूम रखने का प्रयोजन किया हुआ है। इनका साथ देने के लिये “सेकुलर” नाम की घृणित कौम भी इनके पीछे हमेशा रही है। भारत के इतिहास को छेड़छाड़ करके मनमाने और षडयन्त्रपूर्ण तरीके से अंग्रेजों और मुगलों को श्रेष्ठ बताया गया है और हिन्दू राजाओं का या तो उल्लेख ही नहीं है और यदि है भी तो दमित-कुचले और हारे हुए के रूप में। आखिर इस विकृति के सुधार का उपाय क्या है…? जवाब बड़ा मुश्किल है, लेकिन एक बात तो तय है कि इतने लम्बे समय तक हिन्दू कौम का “ब्रेनवॉश” किया गया है, तो दिमागों से यह गंदगी साफ़ करने में समय तो लगेगा ही। इसके लिये शिक्षण पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। “मैकाले की अवैध संतानों” को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, यह एक धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है। हालांकि संतोष का विषय यह है कि इंटरनेट नामक हथियार युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, युवाओं में “हिन्दू भावनाओं” का उभार हो रहा है, उनमें अपने सही इतिहास को जानने की भूख है। आज का युवा काफ़ी समझदार है, वह देख रहा है कि भारत के आसपास क्या हो रहा है, वह जानता है कि भारत में कितनी अन्दरूनी शक्ति है, लेकिन जब वह “सेकुलरवादियों”, कांग्रेसियों और वामपंथियों के ढोंग भरे प्रवचन और उलटबाँसियाँ सुनता है तो उसे उबकाई आने लगती है, इन युवाओं (17 से 23 वर्ष आयु समूह) को भारत के गौरवशाली पृष्ठभूमि का ज्ञान करवाना चाहिये। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि भले ही वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर बनें, लेकिन उन्हें किसी से “दबकर” रहने या अपने धर्म और हिन्दुत्व को लेकर किसी शर्मिन्दगी का अहसास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस दिन हिन्दू संगठित होकर प्रतिकार करने लगेंगे, एक “हिन्दू वोट बैंक” की तरह चुनाव में वोटिंग करने लगेंगे, उस दिन ये “सेकुलर” नामक रीढ़विहीन प्राणी देखते-देखते गायब हो जायेगा।
हमें प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब खुलकर देना चाहिये, वरना हो सकता है कि किसी दिन एकाध “गधे की दरगाह” पर भी हिन्दू सिर झुकाते हुए मिलें…
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ब्लॉग
शुक्रवार, 01 मई 2009 18:23
63 पत्नियों के हत्यारे “मुगल” के बारे में जानिये – बीजापुर की “साठ-कब्र” Bijapur Saat Kabar Fanatic Mughal Emperors
जलन, असुरक्षा और अविश्वास इन तत्वों से तो इस्लामी शासनकाल के पन्ने रंगे पड़े हैं, जहाँ भाई-भाई, और पिता-पुत्र में सत्ता के लिये खूनी रंजिशें की गईं, लेकिन क्या आपने सुना है कि कोई शासक अपनी 63 पत्नियों को सिर्फ़ इसलिये मार डाले कि कहीं उसके मरने के बाद वे दोबारा शादी न कर लें… है ना आश्चर्यजनक बात!!! लेकिन सच है…
यूँ तो कर्नाटक के बीजापुर में गोल गुम्बज और इब्राहीम रोज़ा जैसी कई ऐतिहासिक इमारतें और दर्शनीय स्थल हैं, लेकिन एक स्थान ऐसा भी है जहाँ पर्यटकों को ले जाकर इस्लामी आक्रांताओं के कई काले कारनामों में से एक के दर्शन करवाये जा सकते हैं। बीजापुर-अठानी रोड पर लगभग 5 किलोमीटर दूर एक उजाड़ स्थल पर पाँच एकड़ में फ़ैली यह ऐतिहासिक कत्लगाह है। “सात कबर” (साठ कब्र का अपभ्रंश) ऐसी ही एक जगह है। इस स्थान पर आदिलशाही सल्तनत के एक सेनापति अफ़ज़ल खान द्वारा अपनी 63 पत्नियों की हत्या के बाद बनाई गई कब्रें हैं। इस खण्डहर में काले पत्थर के चबूतरे पर 63 कब्रें बनाई गई हैं।
इतिहास कुछ इस प्रकार है कि एक तरफ़ औरंगज़ेब और दूसरी तरफ़ से शिवाजी द्वारा लगातार जारी हमलों से परेशान होकर आदिलशाही द्वितीय (जिसने बीजापुर पर कई वर्षों तक शासन किया) ने सेनापति अफ़ज़ल खान को आदेश दिया कि इनसे निपटा जाये और राज्य को बचाने के लिये पहले शिवाजी पर चढ़ाई की जाये। हालांकि अफ़ज़ल खान के पास एक बड़ी सेना थी, लेकिन फ़िर भी वह ज्योतिष और भविष्यवक्ताओं पर काफ़ी भरोसा करता था। शिवाजी से युद्ध पर जाने के पहले उसके ज्योतिषियों ने उसके जीवित वापस न लौटने की भविष्यवाणी की। उसी समय उसने तय कर लिया कि कहीं उसकी मौत के बाद उसकी पत्नियाँ दूसरी शादी न कर लें, इसलिये सभी 63 पत्नियों को मार डालने की योजना बनाई।
अफ़ज़ल खान अपनी सभी पत्नियों को एक साथ बीजापुर के बाहर एक सुनसान स्थल पर लेकर गया। जहाँ एक बड़ी बावड़ी स्थित थी, उसने एक-एक करके अपनी पत्नियों को उसमें धकेलना शुरु किया, इस भीषण दुष्कृत्य को देखकर उसकी दो पत्नियों ने भागने की कोशिश की लेकिन उसने सैनिकों को उन्हें मार गिराने का हुक्म दिया। सभी 63 पत्नियों की हत्या के बाद उसने वहीं पास में सबकी कब्र एक साथ बनवाई।
आज की तारीख में इतना समय गुज़र जाने के बाद भी जीर्ण-शीर्ण खण्डहर अवस्था में यह बावड़ी और कब्रें काफ़ी ठीक-ठाक हालत में हैं। यहाँ पहली दो लाइनों में 7-7 कब्रें, तीसरी लाइन में 5 कब्रें तथा आखिरी की चारों लाइनों में 11 कब्रें बनी हुई दिखाई देती हैं और वहीं एक बड़ी “आर्च” (मेहराब) भी बनाई गई है, ऐसा क्यों और किस गणित के आधार पर किया गया, ये तो अफ़ज़ल खान ही बता सकता है। वह बावड़ी भी इस कब्रगाह से कुछ दूर पर ही स्थित है। अफ़ज़ल खान ने खुद अपने लिये भी एक कब्र यहीं पहले से बनवाकर रखी थी। हालांकि उसके शव को यहाँ तक नहीं लाया जा सका और मौत के बाद प्रतापगढ़ के किले में ही उसे दफ़नाया गया था, लेकिन इससे यह भी साबित होता है कि वह अपनी मौत को लेकर बेहद आश्वस्त था, भला ऐसी मानसिकता में वह शिवाजी से युद्ध कैसे लड़ता? मराठा योद्धा शिवाजी के हाथों अफ़ज़ल खान का वध प्रतापगढ़ के किले में 1659 में हुआ।
वामपंथियों और कांग्रेसियों ने हमारे इतिहास में मुगल बादशाहों के अच्छे-अच्छे, नर्म-नर्म, मुलायम-मुलायम किस्से-कहानी ही भर रखे हैं, जिनके द्वारा उन्हें सतत महान, सदभावनापूर्ण और दयालु(?) बताया है, लेकिन इस प्रकार 63 पत्नियों की हत्या वाली बातें जानबूझकर छुपाकर रखी गई हैं। आज बीजापुर में इस स्थान तक पहुँचने के लिये ऊबड़-खाबड़ सड़कों से होकर जाना पड़ता है और वहाँ अधिकतर लोगों को इसके बारे में विस्तार से कुछ पता नहीं है (साठ कब्र का नाम भी अपभ्रंश होते-होते “सात-कबर” हो गया), जो भी हो लेकिन है तो यह एक ऐतिहासिक स्थल ही, सरकार को इस तरफ़ ध्यान देना चाहिये और इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना चाहिये। लोगों को मुगलकाल के राजाओं द्वारा की गई क्रूरता को भी पता होना चाहिये। आजकल टूरिज़्म के क्षेत्र में “डार्क टूरिज़्म” (Dark Tourism) का नया फ़ैशन चल पड़ा है, जिसमें विभिन्न देशों के पर्यटक ऐसे भयानक पर्यटन(?) स्थल को देखने की इच्छा रखते हैं। इंडोनेशिया में बाली का वह समुद्र तट बहुत लोकप्रिय हो रहा है जहाँ आतंकवादियों ने बम विस्फ़ोट करके सैकड़ों मासूमों को मारा था, इसी प्रकार तमिलनाडु में सुदूर स्थित गाँव जिन्हें सुनामी ने लील लिया था वहाँ भी पर्यटक जा रहे हैं, तथा हाल ही में मुम्बई के हमले के बाद नरीमन हाउस को देखने भारी संख्या में दर्शक पहुँच रहे हैं, उस इमारत में रहने वाले लोगों ने गोलियों के निशान वैसे ही रखे हुए हैं और जहाँ-जहाँ आतंकवादी मारे गये थे वहाँ लाल घेरा बना रखा है, पर्यटकों को दिखाने के लिये। “मौत को तमाशा” बनाने के बारे में सुनने में भले ही अजीब लगता हो, लेकिन यह हो रहा है।
ऐसे में यदि खोजबीन करके भारत के खूनी इतिहास में से मुगल बादशाहों द्वारा किये गये अत्याचारों को भी बाकायदा पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाये तो क्या बुराई है? कम से कम अगली पीढ़ी को उनके कारनामों के बारे में तो पता चलेगा, वरना “मैकाले-मार्क्स” के प्रभाव में वे तो यही सोचते रहेंगे कि अकबर एक दयालु बादशाह था (भले ही उसने सैकड़ों हिन्दुओं का कत्ल किया हो), शाहजहाँ अपनी बेगम से बहुत प्यार करता था (मुमताज़ ने 14 बच्चे पैदा किये और उसकी मौत भी एक डिलेवरी के दौरान ही हुई, ऐसा भयानक प्यार? शाहजहाँ खुद एक बच्चा पैदा करता तब पता चलता), या औरंगज़ेब ने जज़िया खत्म किया और वह टोपियाँ सिलकर खुद का खर्च निकालता था (भले ही उसने हजारों मन्दिर तुड़वाये हों, बेटी ज़ेबुन्निसा शायर और पेंटर थी इसलिये उससे नफ़रत करता था, भाई दाराशिकोह हिन्दू धर्म की ओर झुकाव रखने लगा तो उसे मरवा दिया… इतना महान मुगल शासक?)…
तात्पर्य यह कि इस “दयालु मुगल शासक” वाले वामपंथी “मिथक” को तोड़ना बहुत ज़रूरी है। बच्चों को उनके व्यक्तित्व के उचित विकास के लिये सही इतिहास बताना ही चाहिये… वरना उन्हें 63 पत्नियों के हत्यारे के बारे में कैसे पता चलेगा…
(सूचना का मूल स्रोत यहाँ देखें)
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नोट : क्या आप जानते हैं, कि भारत में एक मुगल हमलावर (जो समूचे भारत को दारुल-इस्लाम बनाने का सपना देखता था) की दरगाह पर मेला लगता है, जहाँ हिन्दू-मुस्लिम “दुआएं”(???) माँगने जाते हैं… उसके बारे में भी शीघ्र ही लेख पेश किया जायेगा…
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यूँ तो कर्नाटक के बीजापुर में गोल गुम्बज और इब्राहीम रोज़ा जैसी कई ऐतिहासिक इमारतें और दर्शनीय स्थल हैं, लेकिन एक स्थान ऐसा भी है जहाँ पर्यटकों को ले जाकर इस्लामी आक्रांताओं के कई काले कारनामों में से एक के दर्शन करवाये जा सकते हैं। बीजापुर-अठानी रोड पर लगभग 5 किलोमीटर दूर एक उजाड़ स्थल पर पाँच एकड़ में फ़ैली यह ऐतिहासिक कत्लगाह है। “सात कबर” (साठ कब्र का अपभ्रंश) ऐसी ही एक जगह है। इस स्थान पर आदिलशाही सल्तनत के एक सेनापति अफ़ज़ल खान द्वारा अपनी 63 पत्नियों की हत्या के बाद बनाई गई कब्रें हैं। इस खण्डहर में काले पत्थर के चबूतरे पर 63 कब्रें बनाई गई हैं।
इतिहास कुछ इस प्रकार है कि एक तरफ़ औरंगज़ेब और दूसरी तरफ़ से शिवाजी द्वारा लगातार जारी हमलों से परेशान होकर आदिलशाही द्वितीय (जिसने बीजापुर पर कई वर्षों तक शासन किया) ने सेनापति अफ़ज़ल खान को आदेश दिया कि इनसे निपटा जाये और राज्य को बचाने के लिये पहले शिवाजी पर चढ़ाई की जाये। हालांकि अफ़ज़ल खान के पास एक बड़ी सेना थी, लेकिन फ़िर भी वह ज्योतिष और भविष्यवक्ताओं पर काफ़ी भरोसा करता था। शिवाजी से युद्ध पर जाने के पहले उसके ज्योतिषियों ने उसके जीवित वापस न लौटने की भविष्यवाणी की। उसी समय उसने तय कर लिया कि कहीं उसकी मौत के बाद उसकी पत्नियाँ दूसरी शादी न कर लें, इसलिये सभी 63 पत्नियों को मार डालने की योजना बनाई।
अफ़ज़ल खान अपनी सभी पत्नियों को एक साथ बीजापुर के बाहर एक सुनसान स्थल पर लेकर गया। जहाँ एक बड़ी बावड़ी स्थित थी, उसने एक-एक करके अपनी पत्नियों को उसमें धकेलना शुरु किया, इस भीषण दुष्कृत्य को देखकर उसकी दो पत्नियों ने भागने की कोशिश की लेकिन उसने सैनिकों को उन्हें मार गिराने का हुक्म दिया। सभी 63 पत्नियों की हत्या के बाद उसने वहीं पास में सबकी कब्र एक साथ बनवाई।
आज की तारीख में इतना समय गुज़र जाने के बाद भी जीर्ण-शीर्ण खण्डहर अवस्था में यह बावड़ी और कब्रें काफ़ी ठीक-ठाक हालत में हैं। यहाँ पहली दो लाइनों में 7-7 कब्रें, तीसरी लाइन में 5 कब्रें तथा आखिरी की चारों लाइनों में 11 कब्रें बनी हुई दिखाई देती हैं और वहीं एक बड़ी “आर्च” (मेहराब) भी बनाई गई है, ऐसा क्यों और किस गणित के आधार पर किया गया, ये तो अफ़ज़ल खान ही बता सकता है। वह बावड़ी भी इस कब्रगाह से कुछ दूर पर ही स्थित है। अफ़ज़ल खान ने खुद अपने लिये भी एक कब्र यहीं पहले से बनवाकर रखी थी। हालांकि उसके शव को यहाँ तक नहीं लाया जा सका और मौत के बाद प्रतापगढ़ के किले में ही उसे दफ़नाया गया था, लेकिन इससे यह भी साबित होता है कि वह अपनी मौत को लेकर बेहद आश्वस्त था, भला ऐसी मानसिकता में वह शिवाजी से युद्ध कैसे लड़ता? मराठा योद्धा शिवाजी के हाथों अफ़ज़ल खान का वध प्रतापगढ़ के किले में 1659 में हुआ।
वामपंथियों और कांग्रेसियों ने हमारे इतिहास में मुगल बादशाहों के अच्छे-अच्छे, नर्म-नर्म, मुलायम-मुलायम किस्से-कहानी ही भर रखे हैं, जिनके द्वारा उन्हें सतत महान, सदभावनापूर्ण और दयालु(?) बताया है, लेकिन इस प्रकार 63 पत्नियों की हत्या वाली बातें जानबूझकर छुपाकर रखी गई हैं। आज बीजापुर में इस स्थान तक पहुँचने के लिये ऊबड़-खाबड़ सड़कों से होकर जाना पड़ता है और वहाँ अधिकतर लोगों को इसके बारे में विस्तार से कुछ पता नहीं है (साठ कब्र का नाम भी अपभ्रंश होते-होते “सात-कबर” हो गया), जो भी हो लेकिन है तो यह एक ऐतिहासिक स्थल ही, सरकार को इस तरफ़ ध्यान देना चाहिये और इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना चाहिये। लोगों को मुगलकाल के राजाओं द्वारा की गई क्रूरता को भी पता होना चाहिये। आजकल टूरिज़्म के क्षेत्र में “डार्क टूरिज़्म” (Dark Tourism) का नया फ़ैशन चल पड़ा है, जिसमें विभिन्न देशों के पर्यटक ऐसे भयानक पर्यटन(?) स्थल को देखने की इच्छा रखते हैं। इंडोनेशिया में बाली का वह समुद्र तट बहुत लोकप्रिय हो रहा है जहाँ आतंकवादियों ने बम विस्फ़ोट करके सैकड़ों मासूमों को मारा था, इसी प्रकार तमिलनाडु में सुदूर स्थित गाँव जिन्हें सुनामी ने लील लिया था वहाँ भी पर्यटक जा रहे हैं, तथा हाल ही में मुम्बई के हमले के बाद नरीमन हाउस को देखने भारी संख्या में दर्शक पहुँच रहे हैं, उस इमारत में रहने वाले लोगों ने गोलियों के निशान वैसे ही रखे हुए हैं और जहाँ-जहाँ आतंकवादी मारे गये थे वहाँ लाल घेरा बना रखा है, पर्यटकों को दिखाने के लिये। “मौत को तमाशा” बनाने के बारे में सुनने में भले ही अजीब लगता हो, लेकिन यह हो रहा है।
ऐसे में यदि खोजबीन करके भारत के खूनी इतिहास में से मुगल बादशाहों द्वारा किये गये अत्याचारों को भी बाकायदा पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाये तो क्या बुराई है? कम से कम अगली पीढ़ी को उनके कारनामों के बारे में तो पता चलेगा, वरना “मैकाले-मार्क्स” के प्रभाव में वे तो यही सोचते रहेंगे कि अकबर एक दयालु बादशाह था (भले ही उसने सैकड़ों हिन्दुओं का कत्ल किया हो), शाहजहाँ अपनी बेगम से बहुत प्यार करता था (मुमताज़ ने 14 बच्चे पैदा किये और उसकी मौत भी एक डिलेवरी के दौरान ही हुई, ऐसा भयानक प्यार? शाहजहाँ खुद एक बच्चा पैदा करता तब पता चलता), या औरंगज़ेब ने जज़िया खत्म किया और वह टोपियाँ सिलकर खुद का खर्च निकालता था (भले ही उसने हजारों मन्दिर तुड़वाये हों, बेटी ज़ेबुन्निसा शायर और पेंटर थी इसलिये उससे नफ़रत करता था, भाई दाराशिकोह हिन्दू धर्म की ओर झुकाव रखने लगा तो उसे मरवा दिया… इतना महान मुगल शासक?)…
तात्पर्य यह कि इस “दयालु मुगल शासक” वाले वामपंथी “मिथक” को तोड़ना बहुत ज़रूरी है। बच्चों को उनके व्यक्तित्व के उचित विकास के लिये सही इतिहास बताना ही चाहिये… वरना उन्हें 63 पत्नियों के हत्यारे के बारे में कैसे पता चलेगा…
(सूचना का मूल स्रोत यहाँ देखें)
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नोट : क्या आप जानते हैं, कि भारत में एक मुगल हमलावर (जो समूचे भारत को दारुल-इस्लाम बनाने का सपना देखता था) की दरगाह पर मेला लगता है, जहाँ हिन्दू-मुस्लिम “दुआएं”(???) माँगने जाते हैं… उसके बारे में भी शीघ्र ही लेख पेश किया जायेगा…
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