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सोमवार, 29 सितम्बर 2008 17:35
पोप का साम्राज्य और उनका दुःख…
Pope & Conversion in India
जी न्यूज़ पर चर्च के बारे में एक सीरिज़ आ रही है, जिसमें बताया गया है कि भारत सरकार के बाद इस देश में भूमि का सबसे बड़ा अकेला मालिक है “चर्च”, जी हाँ, “चर्च” के पास इस समय समूचे भारत में 52 लाख करोड़ की भू-सम्पत्ति है। इसमें से लगभग 50 प्रतिशत ज़मीन उसके पास अंग्रेजों के समय से है, लेकिन बाकी की ज़मीन तमाम केन्द्र और राज्य सरकारों ने उसे धर्मस्व कार्य हेतु “दान” में दी है।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि धर्म के नाम पर सबसे अधिक रक्तपात इस्लाम और ईसाई धर्मावलम्बियों द्वारा किया गया है। ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करना, सेवा करने के लिये स्कूल और अस्पताल खोलना आदि चर्च के मुख्य काम हैं, लेकिन असल में इसका मकसद ईसाईयों की संख्या में वृद्धि करना होता है। गरीब, ज़रूरतमंद, अशिक्षित लोग इनके फ़ेंके हुए झाँसे में आ जाते हैं, रही-सही कसर भारी-भरकम पैसे और नौकरी का लालच पूरी कर देता है। “चर्च” की सत्ता और धन-सम्पत्ति के अकूत भण्डार के बारे में जब-तब कई पुस्तकों और जर्नलों में प्रकाशित होता रहता है। भारत में चर्च फ़िलहाल “गलत” कारणों से चर्चा में है, ज़ाहिर है कि “धर्मान्तरण” के मामले को लेकर। इन घटनाओं पर “पोप” भी बहुत दुखी हैं और उन्होंने भारत में अपने प्रतिनिधियों और भारत सरकार (इसे सोनिया गाँधी पढ़े) के समक्ष चिन्ता जताई है।
पोप का दुखी होना स्वाभाविक भी है, जिस “एकमात्र सच्चे धर्म” का जन्म 2008 वर्ष पहले समूची धरती से “विभिन्न गलत अवधारणाओं को मिटाने के लिये” हुआ था, उस पर भारत जैसे देश में हमले हो रहे हैं। चर्च और पोप की सत्ता जिस “प्रोफ़ेशनल” तरीके से काम करती है, उसे देखकर बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ भी शर्मा जायें। जिस तरह विशाल कम्पनियों में “बिजनेस प्लान” बनाया जाता है, ठीक उसी तरह रोम में ईसाई धर्म के प्रचार के लिये “वार-प्लान” बनाया जाता है। यह “योजनायें” विभिन्न देशों, विभिन्न क्षेत्रों, विभिन्न धर्मों के लिये अलग-अलग होती हैं। इन सभी योजनाओं को “गहन मार्केटिंग रिसर्च” और विश्लेषण के बाद तैयार किया जाता है। जिस प्रकार एक कम्पनी अपने अगले आने वाले 25 वर्षों का एक “प्रोजेक्शन” तैयार करती है, उसी प्रकार इसे भी तैयार किया जाता है। ऐसा बताया जाता है कि वर्तमान में ऐसी 1590 योजनायें चल रही हैं जो कि सन् 2025 तक बढ़कर 3000 हो जायेंगी। सन् 2025 के “प्रोजेक्शन” के अनुसार बढ़ोतरी इस प्रकार की जाना है (यानी कि टारगेट यह दिया गया है) वर्तमान 35500 ईसाई संस्थायें बढ़कर 63000, धर्म परिवर्तन के मामले 35 लाख से बढ़कर 53 लाख, 4100 विभिन्न मिशनरी संस्थायें बढ़कर 6000, 56 लाख धर्मसेवकों की संख्या बढ़ाकर 65 लाख (पूरे यूरोप की समूची सेना से भी ज्यादा संख्या) किया जाना है। वर्तमान में चर्च की कुल सम्पत्ति (भारत में) 13,71,000 करोड़ है (जिसमें खाली पड़ी ज़मीन शामिल नहीं है), यह राशि भारत के GDP का 60% से भी ज्यादा है, इसे भी बढ़ाकर 2025 तक 40,00,000 करोड़ किया जाना प्रस्तावित है।
इवेलैंजिकल चर्च द्वारा लाखों की संख्या में साहित्य बाँटा जाता है। वर्तमान में चर्च द्वारा 20 करोड़ बाइबल, 70 लाख बुकलेट, 1,70,000 मिशनरी साहित्य, 60000 पत्रिकायें और 18000 लेख वितरित किये जाते हैं, सन् 2025 तक इसे बढ़ाकर दोगुना करने का लक्ष्य दिया गया है। इसी प्रकार चर्च द्वारा अलग-अलग देशों में संचालित विभिन्न रेडियो और टीवी स्टेशनों की संख्या 4050 से बढ़ाकर 5000 करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया है। हालांकि चर्च द्वारा अपरोक्ष रूप से “खरीदे हुए” कई चैनल चल ही रहे हैं, लेकिन इससे उनका नेटवर्क और भी मजबूत होगा। बजट देखें तो हाल-फ़िलहाल प्रति व्यक्ति को ईसाई बनाने का खर्च लगभग 1.55 करोड़ रुपये आता है (सारे खर्चे मिलाकर) जिसे 2025 तक बढ़ाकर 3.05 करोड़ प्रति व्यक्ति कर दिया गया है।
दुनिया भर के चार्टर्ड अकाउंटेण्ट्स के लिये एक खुशखबरी है। चर्च द्वारा इन चार्टर्ड अकाउंटेंट्स को किसी भी बड़ी से बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी से अधिक भुगतान किया जाता है। चर्च द्वारा हिसाब-किताब रखने के लिये लगभग 4800 करोड़ रुपये ऑडिट फ़ीस के रूप में दिये जाते हैं। लेकिन पोप की मुश्किलें यहीं से शुरु भी होती हैं, एक अनुमान के अनुसार चर्च के पैसों में घोटाले का आँकड़ा बेहद खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है, जिसके सन् 2025 तक बहुत ज़्यादा बढ़ जाने की आशंका है। इस प्रकार चर्च एक संगठित MNC की तरह काम करता है, भले ही इसमें आर्थिक घोटाले होते रहते हैं, अधिक जानकारी के लिये International Bulletin of Missionary Research (IBMR, जनवरी 2002 का अंक) देखा जा सकता है।
पोप की मुश्किलें भारत में और बढ़ जाती हैं जब जयललिता और नरेन्द्र मोदी जैसे “ठरकी” लोग धर्मान्तरण के खिलाफ़ अपने-अपने राज्यों में कानून लागू कर देते हैं, उनकी देखादेखी शिवराज और वसुन्धरा जैसे लोग भी ऐसा कानून बनाने की सोचने लगते हैं। यदि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जायेगी तो पोप 2000 साल पुराने इस सबसे पवित्र धर्म को कैसे बचायेंगे? उनकी विशाल “सेना” क्या करेगी? जबकि उसमें से भी 5 लाख लोग प्रतिवर्ष रिटायर हो जाते हैं, उससे अधिक की नई भरती की जाती है। “चर्च” दुनिया की सबसे बड़ी रोज़गार निर्माता “कम्पनी” है। जयललिता और मोदी दुनिया के उस इलाके से आते हैं जहाँ के गरीबों को “सेवा” और “पवित्र धर्म” की सबसे अधिक ज़रूरत है। IBMR की रिपोर्ट के अनुसार भारत में किसी भी गरीब को ईसाई बनाने का खर्च दुनिया के किसी विकसित देश के मुकाबले 700 गुना (जी हाँ 700 गुना) सस्ता है। भारत पोप के लिये सबसे “सस्ता बाजार” है, लेकिन जयललिता और मोदी जैसे लोग उनका रास्ता रोकना शुरु कर देते हैं। पोप और उनके भारतीय “भक्त” इस प्रयास में हैं कि इस प्रकार के कानून और न बनने पायें, जो बने हैं उन्हें भी हटा लिया जाये, टीवी चैनलों पर चर्च की छवि एक “सेवाभावी”, “दयालु” और “मददगार” की ही दिखाई दे (ये और बात है कि नागालैण्ड जैसे राज्य में जैसे ही ईसाई बहुसंख्यक होते हैं, हथियारों के बल पर बाकी धर्मों के लोगों को वहाँ से खदेड़ना शुरु कर देते हैं), और इस कार्य में वे सफ़ल भी हुए हैं, क्योंकि उन्हें भारत के भीतर से ही “सेकुलरिज़्म” के नाम पर बहुत लोग समर्थन(?) के लिये मिल जाते हैं।
तो कहने का तात्पर्य यह है कि पोप अपने विशाल साम्राज्य के बावजूद भारत के मामले में बहुत दुःखी हैं, आइये उन्हें सांत्वना दें… और हाँ यदि आप में भी “सेवा”(?) की भावना हिलोरें लेने लगी हो, तो एक NGO बनाईये, चर्च से पैसा लीजिये और शुरु हो जाईये… भारत जैसे देश में “सेवा” का बहुत “स्कोप” है…
Conversion, Hindu-Christian Clashes in India, Anti-Hindu Policies of India, Pope Rome and Christians, Religion and Religious Activities, Kandhamal Orissa, Dangs Gujrat and Karnataka Violence, Christian NGOs in India, Land acquired by Churches in India, भारत में धर्मान्तरण, हिन्दू-ईसाई संघर्ष और भारत, भारत में चर्च की ज़मीन और कंधमाल, धर्म-परिवर्तन और हिन्दू, नरेन्द्र मोदी, येदियुरप्पा और नवीन पटनायक, धर्मांतरण विरोधी कानून और तमिलनाडु, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि धर्म के नाम पर सबसे अधिक रक्तपात इस्लाम और ईसाई धर्मावलम्बियों द्वारा किया गया है। ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करना, सेवा करने के लिये स्कूल और अस्पताल खोलना आदि चर्च के मुख्य काम हैं, लेकिन असल में इसका मकसद ईसाईयों की संख्या में वृद्धि करना होता है। गरीब, ज़रूरतमंद, अशिक्षित लोग इनके फ़ेंके हुए झाँसे में आ जाते हैं, रही-सही कसर भारी-भरकम पैसे और नौकरी का लालच पूरी कर देता है। “चर्च” की सत्ता और धन-सम्पत्ति के अकूत भण्डार के बारे में जब-तब कई पुस्तकों और जर्नलों में प्रकाशित होता रहता है। भारत में चर्च फ़िलहाल “गलत” कारणों से चर्चा में है, ज़ाहिर है कि “धर्मान्तरण” के मामले को लेकर। इन घटनाओं पर “पोप” भी बहुत दुखी हैं और उन्होंने भारत में अपने प्रतिनिधियों और भारत सरकार (इसे सोनिया गाँधी पढ़े) के समक्ष चिन्ता जताई है।
पोप का दुखी होना स्वाभाविक भी है, जिस “एकमात्र सच्चे धर्म” का जन्म 2008 वर्ष पहले समूची धरती से “विभिन्न गलत अवधारणाओं को मिटाने के लिये” हुआ था, उस पर भारत जैसे देश में हमले हो रहे हैं। चर्च और पोप की सत्ता जिस “प्रोफ़ेशनल” तरीके से काम करती है, उसे देखकर बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ भी शर्मा जायें। जिस तरह विशाल कम्पनियों में “बिजनेस प्लान” बनाया जाता है, ठीक उसी तरह रोम में ईसाई धर्म के प्रचार के लिये “वार-प्लान” बनाया जाता है। यह “योजनायें” विभिन्न देशों, विभिन्न क्षेत्रों, विभिन्न धर्मों के लिये अलग-अलग होती हैं। इन सभी योजनाओं को “गहन मार्केटिंग रिसर्च” और विश्लेषण के बाद तैयार किया जाता है। जिस प्रकार एक कम्पनी अपने अगले आने वाले 25 वर्षों का एक “प्रोजेक्शन” तैयार करती है, उसी प्रकार इसे भी तैयार किया जाता है। ऐसा बताया जाता है कि वर्तमान में ऐसी 1590 योजनायें चल रही हैं जो कि सन् 2025 तक बढ़कर 3000 हो जायेंगी। सन् 2025 के “प्रोजेक्शन” के अनुसार बढ़ोतरी इस प्रकार की जाना है (यानी कि टारगेट यह दिया गया है) वर्तमान 35500 ईसाई संस्थायें बढ़कर 63000, धर्म परिवर्तन के मामले 35 लाख से बढ़कर 53 लाख, 4100 विभिन्न मिशनरी संस्थायें बढ़कर 6000, 56 लाख धर्मसेवकों की संख्या बढ़ाकर 65 लाख (पूरे यूरोप की समूची सेना से भी ज्यादा संख्या) किया जाना है। वर्तमान में चर्च की कुल सम्पत्ति (भारत में) 13,71,000 करोड़ है (जिसमें खाली पड़ी ज़मीन शामिल नहीं है), यह राशि भारत के GDP का 60% से भी ज्यादा है, इसे भी बढ़ाकर 2025 तक 40,00,000 करोड़ किया जाना प्रस्तावित है।
इवेलैंजिकल चर्च द्वारा लाखों की संख्या में साहित्य बाँटा जाता है। वर्तमान में चर्च द्वारा 20 करोड़ बाइबल, 70 लाख बुकलेट, 1,70,000 मिशनरी साहित्य, 60000 पत्रिकायें और 18000 लेख वितरित किये जाते हैं, सन् 2025 तक इसे बढ़ाकर दोगुना करने का लक्ष्य दिया गया है। इसी प्रकार चर्च द्वारा अलग-अलग देशों में संचालित विभिन्न रेडियो और टीवी स्टेशनों की संख्या 4050 से बढ़ाकर 5000 करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया है। हालांकि चर्च द्वारा अपरोक्ष रूप से “खरीदे हुए” कई चैनल चल ही रहे हैं, लेकिन इससे उनका नेटवर्क और भी मजबूत होगा। बजट देखें तो हाल-फ़िलहाल प्रति व्यक्ति को ईसाई बनाने का खर्च लगभग 1.55 करोड़ रुपये आता है (सारे खर्चे मिलाकर) जिसे 2025 तक बढ़ाकर 3.05 करोड़ प्रति व्यक्ति कर दिया गया है।
दुनिया भर के चार्टर्ड अकाउंटेण्ट्स के लिये एक खुशखबरी है। चर्च द्वारा इन चार्टर्ड अकाउंटेंट्स को किसी भी बड़ी से बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी से अधिक भुगतान किया जाता है। चर्च द्वारा हिसाब-किताब रखने के लिये लगभग 4800 करोड़ रुपये ऑडिट फ़ीस के रूप में दिये जाते हैं। लेकिन पोप की मुश्किलें यहीं से शुरु भी होती हैं, एक अनुमान के अनुसार चर्च के पैसों में घोटाले का आँकड़ा बेहद खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है, जिसके सन् 2025 तक बहुत ज़्यादा बढ़ जाने की आशंका है। इस प्रकार चर्च एक संगठित MNC की तरह काम करता है, भले ही इसमें आर्थिक घोटाले होते रहते हैं, अधिक जानकारी के लिये International Bulletin of Missionary Research (IBMR, जनवरी 2002 का अंक) देखा जा सकता है।
पोप की मुश्किलें भारत में और बढ़ जाती हैं जब जयललिता और नरेन्द्र मोदी जैसे “ठरकी” लोग धर्मान्तरण के खिलाफ़ अपने-अपने राज्यों में कानून लागू कर देते हैं, उनकी देखादेखी शिवराज और वसुन्धरा जैसे लोग भी ऐसा कानून बनाने की सोचने लगते हैं। यदि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जायेगी तो पोप 2000 साल पुराने इस सबसे पवित्र धर्म को कैसे बचायेंगे? उनकी विशाल “सेना” क्या करेगी? जबकि उसमें से भी 5 लाख लोग प्रतिवर्ष रिटायर हो जाते हैं, उससे अधिक की नई भरती की जाती है। “चर्च” दुनिया की सबसे बड़ी रोज़गार निर्माता “कम्पनी” है। जयललिता और मोदी दुनिया के उस इलाके से आते हैं जहाँ के गरीबों को “सेवा” और “पवित्र धर्म” की सबसे अधिक ज़रूरत है। IBMR की रिपोर्ट के अनुसार भारत में किसी भी गरीब को ईसाई बनाने का खर्च दुनिया के किसी विकसित देश के मुकाबले 700 गुना (जी हाँ 700 गुना) सस्ता है। भारत पोप के लिये सबसे “सस्ता बाजार” है, लेकिन जयललिता और मोदी जैसे लोग उनका रास्ता रोकना शुरु कर देते हैं। पोप और उनके भारतीय “भक्त” इस प्रयास में हैं कि इस प्रकार के कानून और न बनने पायें, जो बने हैं उन्हें भी हटा लिया जाये, टीवी चैनलों पर चर्च की छवि एक “सेवाभावी”, “दयालु” और “मददगार” की ही दिखाई दे (ये और बात है कि नागालैण्ड जैसे राज्य में जैसे ही ईसाई बहुसंख्यक होते हैं, हथियारों के बल पर बाकी धर्मों के लोगों को वहाँ से खदेड़ना शुरु कर देते हैं), और इस कार्य में वे सफ़ल भी हुए हैं, क्योंकि उन्हें भारत के भीतर से ही “सेकुलरिज़्म” के नाम पर बहुत लोग समर्थन(?) के लिये मिल जाते हैं।
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ब्लॉग
बुधवार, 24 सितम्बर 2008 12:37
अविवाहित प्रधानमंत्री के बारे में क्या विचार है?
Unmarried Prime Minister of India
किसी भी व्यक्ति का अविवाहित रहना या न रहना उसका व्यक्तिगत मामला होता है। लेकिन जब यह परिस्थिति राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में काम करने वालों की होती है तब इसे मीडिया व्यक्तिगत नहीं रहने देता। फ़िलहाल देश में कुछ ऐसे राजनैतिक व्यक्तित्व उभर रहे हैं जो कि एक लक्ष्य को लेकर अविवाहित रहे हैं। कुछ उस वक्त की परिस्थितियाँ और कुछ उसकी विचारधारा का प्रवाह, लेकिन कई व्यक्तियों ने आजीवन अविवाहित रहने का फ़ैसला किया है।
देश के राजनैतिक परिदृश्य पर इस वक्त सबसे आगे और सबसे तेज तीन नाम चमक रहे हैं, और संयोग देखिये कि तीनों ही अविवाहित हैं। पहला नाम है राहुल गाँधी का जो कि 39 वर्ष के होने के बावजूद "फ़िलहाल" अविवाहित हैं, दूसरा नाम है बसपा नेत्री मायावती (53 वर्ष) का और तीसरा नाम है नरेन्द्र मोदी (59 वर्ष) का। यदि इन तीनों व्यक्तित्वों की पार्टियाँ सही समय पर सही गतिविधियाँ और राजनैतिक पैंतरेबाजी करें तो निश्चित जानिये कि भारत का अगला प्रधानमंत्री कोई "अविवाहित" होगा (जो कि न सिर्फ़ भारत बल्कि विश्व में भी काफ़ी कम ही देखने में आया है)। इन तीनों नामों में राहुल गाँधी को इस क्लब में जोड़ने का एकमात्र कारण उनका "फ़िलहाल" अविवाहित होना ही है, लेकिन उनकी उम्र काफ़ी कम है इसलिये भविष्य के बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन बाकी के दोनो व्यक्तित्वों के बारे में कहा जा सकता है कि उनके अविवाहित ही रहने की सम्भावना काफ़ी है। सवाल है कि क्या अविवाहित रहने वाले सामाजिक और राजनैतिक व्यक्तित्व अपने लक्ष्यों के प्रति अधिक समर्पित होते हैं? क्या उनका अविवाहित रहना उनकी विचारधारा और पार्टी तथा देश के लिये फ़ायदेमन्द होता है? लगता तो ऐसा ही है…
सबसे पहले बात करते हैं मायावती के बारे में। उल्लेखनीय है कि कांशीराम भी आजीवन अविवाहित रहे, उन्होंने अपना सारा जीवन समाज के दबे-कुचले वर्गों को संगठित करने में लगा दिया। सरकारी नौकरी में रहे, "बामसेफ़" नाम का संगठन तैयार किया, जिसका विस्तारित राजनैतिक रूप "बहुजन समाज पार्टी" के रूप में देश के सामने आया। कांशीराम ने सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अपने-आप को पार्टी के काम के लिये झोंक दिया। वे अपनी "पेन" वाली थ्योरी के इतने कायल थे कि हर जगह, हर सभा में, हर इंटरव्यू में वह "खड़े पेन" का उदाहरण अवश्य देते थे। बात थी विचारधारा की, सो उन्होंने पार्टी को बनाने में दिन-रात एक कर दिया, न अपनी परवाह की न अपने विवाह के बारे में सोचा। उन्होंने देश और उत्तरप्रदेश के सघन दौरे करके पार्टी को इतना मजबूत बना दिया कि अब उत्तरप्रदेश में कोई भी सरकार बसपा के बगैर बन नहीं सकती। इन्हीं कांशीराम ने जब मायावती में प्रतिभा देखी तभी उन्हें कह दिया था कि तुम IAS बनने के चक्कर में मत पड़ो, एक दिन तुम्हें मुख्यमंत्री बनना है…सैकड़ों IAS तुम्हारे आगे-पीछे हाथ बाँधे घूमते नज़र आयेंगे… कांशीराम ने जो कहा सच कर दिखाया। आज मायावती सिर्फ़ मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री पद की भी दावेदार हैं। बसपा नेत्री मायावती ने जब अपने उत्तराधिकारी के बारे में सार्वजनिक बयान दिया था, तो लोगों ने उस नाम के बारे में कयास लगाने शुरु कर दिये थे, खोजी पत्रकारों की बात मानें तो वह शख्स हैं राजाराम, जो कि फ़िलहाल मध्यप्रदेश के बसपा प्रभारी हैं। वे भी अविवाहित हैं और सारा जीवन बसपा को समर्पित करने का मन बना चुके हैं।
सवाल उठता है कि क्या यदि कांशीराम विवाह कर लेते तो पत्नी और बच्चों की जिम्मेदारी के चलते इतना बड़ा आंदोलन वे खड़ा कर पाते? मेरे खयाल से तो नहीं… हर कोई इस बात को स्वीकार करेगा कि शादी के बाद व्यक्ति की प्राथमिकतायें बदल जाती हैं। उस व्यक्ति पर अपने परिवार की देखभाल, भरण-पोषण की जिम्मेदारी आयद होती है, रिश्तेदारियाँ निभाने का दबाव होता है जो उसे समाजसेवा या राजनीति में झोंक देने में बाधक होता है। ज़ाहिर सी बात है कि उसके अपने परिवार के प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं जिन्हें पूरा करने के लिये उसे परिवार को समय देना ही पड़ेगा।
महात्मा गाँधी के पुत्र की आत्मकथा (जिस पर फ़िल्म "गाँधी माय फ़ादर" भी बनी) में उन्होंने कहा है कि गाँधीजी सामाजिक और राजनैतिक आंदोलनों में व्यस्त रहने के कारण परिवार को अधिक समय नहीं दे पाते थे और उनके बच्चे अकेलापन (पिता की कमी) महसूस करते थे। बहुत से पुरुषों और महिलाओं को जीवन में कभी न कभी ऐसा महसूस होता है कि यदि मेरे पीछे परिवार की जिम्मेदारियाँ न होतीं तो शायद मैं और बेहतर तरीके से और खुलकर काम कर सकता था, ये और बात है कि कर्तव्य और जिम्मेदारी के अहसास के कारण यह विचार कुछ ही समय के लिये आते हैं। ऐसे में सहज ही लगता है कि यदि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में काम करने वाले लोग अविवाहित रहते हैं तो वे अपने लक्ष्यों के प्रति अधिक सजग, सक्रिय और समर्पित हो सकते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तो यह बहुत पुरानी परम्परा है कि पूर्णकालिक स्वयंसेवक अविवाहित ही रहेंगे, और यह उचित भी है क्योंकि स्वयंसेवकों को सुदूर क्षेत्रों में अभावों में कई-कई दिनों तक प्रचार के लिये जाना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं भाजपा के पितृपुरुष कुशाभाऊ ठाकरे। आज भाजपा जो भी है, जितनी भी है उसके पीछे कुशाभाऊ ठाकरे का अमिट योगदान है। उत्तर-पूर्व के राज्यों और दक्षिण में आज संघ का जो भी प्रसार है वह सिर्फ़ और सिर्फ़ कुशाभाऊ ठाकरे की अनथक मेहनत का नतीजा है। कुल एक सूटकेस ही जीवन भर उनकी गृहस्थी और सम्पत्ति रहा। दो-तीन जोड़ कपड़े, संघ का साहित्य और सादी चप्पलें पहन कर ताउम्र उन्होंने यात्राओं में बिता दी, रहना-खाना संघ कार्यालयों में और पूरा जीवन संघ को समर्पित। RSS में ऐसे कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है। अब तक हुए तमाम सरसंघचालक, जेपी माथुर, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, नरेन्द्र मोदी जैसे सैकड़ों लोग हैं जो कि शायद विवाह कर लेते तो पता नहीं संघ और भाजपा आज कहाँ होते।
कम्युनिस्ट पार्टियों में भी लगभग यही ट्रेण्ड रहा है उनके भी कई नेता अविवाहित रहे और पार्टी की विचारधारा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। नक्सलवादी आन्दोलन के प्रवर्तक कहे जाने वाले कानू सान्याल भी अविवाहित हैं। चर्च और ईसाईयत के प्रचार में लगे हुए पादरी और नन भी आजीवन अविवाहित रहने का व्रत लेते हैं ताकि वे अपना काम पूर्ण निष्ठा से कर सकें, क्योंकि विवाह करने से व्यक्ति कई प्रकार के बन्धनों में बँध जाता है। गाहे-बगाहे इन कार्यकर्ताओं के बारे में मीडिया और अन्य माध्यमों में यौन कदाचरण के मामले सामने आते रहते हैं। देश-विदेश में चर्च में बिशपों, पादरियों और ननों द्वारा घटित ऐसी कई घटनायें सामने आती रहती हैं (ये और बात है कि संघ का व्यक्ति यदि इसमें पाया जाये तो हल्ला ज्यादा होता है) कुछ समय पहले संघ के एक प्रचारक संजय जोशी के बारे में भी इस तरह की एक सीडी मीडिया में आई थी, उसमें कितनी सच्चाई है यह तो सम्बन्धित पक्ष ही जानें, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि इस प्रकार का व्यवहार पूर्णरूपेण एक मानव स्वभाव और मानवीय गलती है। इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा पुरुष या स्त्री होगी जिसमें कभी भी यौनेच्छा जागृत नहीं हुई हो, चाहे वह कितना भी बड़ा संत-महात्मा-पीर क्यों न हो। ऐसे में इन अविवाहित व्यक्तियों द्वारा जाने-अनजाने कभी-कभार इस प्रकार की गलती होना कोई भूचाल लाने वाली घटना नहीं है, यदि अपराध के दोषी हैं तो सजा अवश्य मिलना चाहिये। दिक्कत तब होती है जब "सेकुलर"(?) लोग अटलबिहारी वाजपेयी के जवानी के किस्से चटखारे ले-लेकर सुनाते हैं लेकिन नेहरू नामक "रंगीले रतन" को भूल जाते हैं। खैर यह विषय अलग ही है…
राहुल गाँधी के बारे में सुना गया है कि वे किसी कोलम्बियन कन्या से शादी करना चाहते हैं, लेकिन शायद बात कहीं अटक रही है। यदि वे विवाह कर लेते हैं तो फ़िर "अविवाहित क्लब" के नेताओं में सबसे कद्दावर दो ही लोग बचेंगे, मायावती और नरेन्द्र मोदी। दोनों ही अपनी प्रशासनिक क्षमता साबित कर चुके हैं, दोनों का खासा जनाधार है, दोनों ही अपनी-अपनी पार्टी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, दोनों "चुनाव-जिताऊ" भाषणों के लिये मशहूर हैं। मायावती तो "भेंट" पर सबसे अधिक टैक्स देने वाली राजनेता बन चुकी हैं, मोदी पर भी फ़िलहाल तो कोई बड़ा भ्रष्टाचार का मामला सामने नहीं आया है। ऐसे में हो सकता है कि भारत को अगले कुछ ही समय में एक अविवाहित प्रधानमंत्री मिल जाये। अविवाहित प्रधानमंत्री होने के तीन फ़ायदे तो तत्काल दिखाई दे रहे हैं, पहला वह अपना पूरा समय काम में बितायेगा, परिवार के लिये नहीं। दूसरा यह कि उसके किसी बेटे-बेटी-बहू आदि को आतंकवादी किडनैप नहीं कर सकते (क्योंकि हैं ही नहीं), तीसरा उस व्यक्ति पर वंशवाद और भाई-भतीजावाद का आरोप भी नहीं लग सकता। मायावती ने तो पहले ही कह दिया कि उनका उत्तराधिकारी उनके परिवार का कोई व्यक्ति नहीं होगा, जो कि तारीफ़ की बात तो है। संघ के सरसंघचालकों ने कभी भी अपने परिवार के किसी व्यक्ति को उत्तराधिकारी नामज़द नहीं किया, जबकि वे चाहते तो कर सकते थे और उसे संघ के लाखों कार्यकर्ता स्वीकार भी कर लेते, लेकिन फ़िर कांग्रेस और बाकियों में क्या अन्तर रह जाता?
तो प्रिय पाठकों, देश के प्रधानमंत्री के तौर पर एक अविवाहित व्यक्ति के कुछ फ़ायदे मैंने गिना दिये हैं, कुछ आप गिना दीजिये। साथ ही राहुल गाँधी, मायावती और नरेन्द्र मोदी में से आपका वोट किसे मिलेगा यह भी बताईये…
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किसी भी व्यक्ति का अविवाहित रहना या न रहना उसका व्यक्तिगत मामला होता है। लेकिन जब यह परिस्थिति राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में काम करने वालों की होती है तब इसे मीडिया व्यक्तिगत नहीं रहने देता। फ़िलहाल देश में कुछ ऐसे राजनैतिक व्यक्तित्व उभर रहे हैं जो कि एक लक्ष्य को लेकर अविवाहित रहे हैं। कुछ उस वक्त की परिस्थितियाँ और कुछ उसकी विचारधारा का प्रवाह, लेकिन कई व्यक्तियों ने आजीवन अविवाहित रहने का फ़ैसला किया है।
देश के राजनैतिक परिदृश्य पर इस वक्त सबसे आगे और सबसे तेज तीन नाम चमक रहे हैं, और संयोग देखिये कि तीनों ही अविवाहित हैं। पहला नाम है राहुल गाँधी का जो कि 39 वर्ष के होने के बावजूद "फ़िलहाल" अविवाहित हैं, दूसरा नाम है बसपा नेत्री मायावती (53 वर्ष) का और तीसरा नाम है नरेन्द्र मोदी (59 वर्ष) का। यदि इन तीनों व्यक्तित्वों की पार्टियाँ सही समय पर सही गतिविधियाँ और राजनैतिक पैंतरेबाजी करें तो निश्चित जानिये कि भारत का अगला प्रधानमंत्री कोई "अविवाहित" होगा (जो कि न सिर्फ़ भारत बल्कि विश्व में भी काफ़ी कम ही देखने में आया है)। इन तीनों नामों में राहुल गाँधी को इस क्लब में जोड़ने का एकमात्र कारण उनका "फ़िलहाल" अविवाहित होना ही है, लेकिन उनकी उम्र काफ़ी कम है इसलिये भविष्य के बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन बाकी के दोनो व्यक्तित्वों के बारे में कहा जा सकता है कि उनके अविवाहित ही रहने की सम्भावना काफ़ी है। सवाल है कि क्या अविवाहित रहने वाले सामाजिक और राजनैतिक व्यक्तित्व अपने लक्ष्यों के प्रति अधिक समर्पित होते हैं? क्या उनका अविवाहित रहना उनकी विचारधारा और पार्टी तथा देश के लिये फ़ायदेमन्द होता है? लगता तो ऐसा ही है…
सबसे पहले बात करते हैं मायावती के बारे में। उल्लेखनीय है कि कांशीराम भी आजीवन अविवाहित रहे, उन्होंने अपना सारा जीवन समाज के दबे-कुचले वर्गों को संगठित करने में लगा दिया। सरकारी नौकरी में रहे, "बामसेफ़" नाम का संगठन तैयार किया, जिसका विस्तारित राजनैतिक रूप "बहुजन समाज पार्टी" के रूप में देश के सामने आया। कांशीराम ने सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अपने-आप को पार्टी के काम के लिये झोंक दिया। वे अपनी "पेन" वाली थ्योरी के इतने कायल थे कि हर जगह, हर सभा में, हर इंटरव्यू में वह "खड़े पेन" का उदाहरण अवश्य देते थे। बात थी विचारधारा की, सो उन्होंने पार्टी को बनाने में दिन-रात एक कर दिया, न अपनी परवाह की न अपने विवाह के बारे में सोचा। उन्होंने देश और उत्तरप्रदेश के सघन दौरे करके पार्टी को इतना मजबूत बना दिया कि अब उत्तरप्रदेश में कोई भी सरकार बसपा के बगैर बन नहीं सकती। इन्हीं कांशीराम ने जब मायावती में प्रतिभा देखी तभी उन्हें कह दिया था कि तुम IAS बनने के चक्कर में मत पड़ो, एक दिन तुम्हें मुख्यमंत्री बनना है…सैकड़ों IAS तुम्हारे आगे-पीछे हाथ बाँधे घूमते नज़र आयेंगे… कांशीराम ने जो कहा सच कर दिखाया। आज मायावती सिर्फ़ मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री पद की भी दावेदार हैं। बसपा नेत्री मायावती ने जब अपने उत्तराधिकारी के बारे में सार्वजनिक बयान दिया था, तो लोगों ने उस नाम के बारे में कयास लगाने शुरु कर दिये थे, खोजी पत्रकारों की बात मानें तो वह शख्स हैं राजाराम, जो कि फ़िलहाल मध्यप्रदेश के बसपा प्रभारी हैं। वे भी अविवाहित हैं और सारा जीवन बसपा को समर्पित करने का मन बना चुके हैं।
सवाल उठता है कि क्या यदि कांशीराम विवाह कर लेते तो पत्नी और बच्चों की जिम्मेदारी के चलते इतना बड़ा आंदोलन वे खड़ा कर पाते? मेरे खयाल से तो नहीं… हर कोई इस बात को स्वीकार करेगा कि शादी के बाद व्यक्ति की प्राथमिकतायें बदल जाती हैं। उस व्यक्ति पर अपने परिवार की देखभाल, भरण-पोषण की जिम्मेदारी आयद होती है, रिश्तेदारियाँ निभाने का दबाव होता है जो उसे समाजसेवा या राजनीति में झोंक देने में बाधक होता है। ज़ाहिर सी बात है कि उसके अपने परिवार के प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं जिन्हें पूरा करने के लिये उसे परिवार को समय देना ही पड़ेगा।
महात्मा गाँधी के पुत्र की आत्मकथा (जिस पर फ़िल्म "गाँधी माय फ़ादर" भी बनी) में उन्होंने कहा है कि गाँधीजी सामाजिक और राजनैतिक आंदोलनों में व्यस्त रहने के कारण परिवार को अधिक समय नहीं दे पाते थे और उनके बच्चे अकेलापन (पिता की कमी) महसूस करते थे। बहुत से पुरुषों और महिलाओं को जीवन में कभी न कभी ऐसा महसूस होता है कि यदि मेरे पीछे परिवार की जिम्मेदारियाँ न होतीं तो शायद मैं और बेहतर तरीके से और खुलकर काम कर सकता था, ये और बात है कि कर्तव्य और जिम्मेदारी के अहसास के कारण यह विचार कुछ ही समय के लिये आते हैं। ऐसे में सहज ही लगता है कि यदि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में काम करने वाले लोग अविवाहित रहते हैं तो वे अपने लक्ष्यों के प्रति अधिक सजग, सक्रिय और समर्पित हो सकते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तो यह बहुत पुरानी परम्परा है कि पूर्णकालिक स्वयंसेवक अविवाहित ही रहेंगे, और यह उचित भी है क्योंकि स्वयंसेवकों को सुदूर क्षेत्रों में अभावों में कई-कई दिनों तक प्रचार के लिये जाना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं भाजपा के पितृपुरुष कुशाभाऊ ठाकरे। आज भाजपा जो भी है, जितनी भी है उसके पीछे कुशाभाऊ ठाकरे का अमिट योगदान है। उत्तर-पूर्व के राज्यों और दक्षिण में आज संघ का जो भी प्रसार है वह सिर्फ़ और सिर्फ़ कुशाभाऊ ठाकरे की अनथक मेहनत का नतीजा है। कुल एक सूटकेस ही जीवन भर उनकी गृहस्थी और सम्पत्ति रहा। दो-तीन जोड़ कपड़े, संघ का साहित्य और सादी चप्पलें पहन कर ताउम्र उन्होंने यात्राओं में बिता दी, रहना-खाना संघ कार्यालयों में और पूरा जीवन संघ को समर्पित। RSS में ऐसे कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है। अब तक हुए तमाम सरसंघचालक, जेपी माथुर, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, नरेन्द्र मोदी जैसे सैकड़ों लोग हैं जो कि शायद विवाह कर लेते तो पता नहीं संघ और भाजपा आज कहाँ होते।
कम्युनिस्ट पार्टियों में भी लगभग यही ट्रेण्ड रहा है उनके भी कई नेता अविवाहित रहे और पार्टी की विचारधारा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। नक्सलवादी आन्दोलन के प्रवर्तक कहे जाने वाले कानू सान्याल भी अविवाहित हैं। चर्च और ईसाईयत के प्रचार में लगे हुए पादरी और नन भी आजीवन अविवाहित रहने का व्रत लेते हैं ताकि वे अपना काम पूर्ण निष्ठा से कर सकें, क्योंकि विवाह करने से व्यक्ति कई प्रकार के बन्धनों में बँध जाता है। गाहे-बगाहे इन कार्यकर्ताओं के बारे में मीडिया और अन्य माध्यमों में यौन कदाचरण के मामले सामने आते रहते हैं। देश-विदेश में चर्च में बिशपों, पादरियों और ननों द्वारा घटित ऐसी कई घटनायें सामने आती रहती हैं (ये और बात है कि संघ का व्यक्ति यदि इसमें पाया जाये तो हल्ला ज्यादा होता है) कुछ समय पहले संघ के एक प्रचारक संजय जोशी के बारे में भी इस तरह की एक सीडी मीडिया में आई थी, उसमें कितनी सच्चाई है यह तो सम्बन्धित पक्ष ही जानें, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि इस प्रकार का व्यवहार पूर्णरूपेण एक मानव स्वभाव और मानवीय गलती है। इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा पुरुष या स्त्री होगी जिसमें कभी भी यौनेच्छा जागृत नहीं हुई हो, चाहे वह कितना भी बड़ा संत-महात्मा-पीर क्यों न हो। ऐसे में इन अविवाहित व्यक्तियों द्वारा जाने-अनजाने कभी-कभार इस प्रकार की गलती होना कोई भूचाल लाने वाली घटना नहीं है, यदि अपराध के दोषी हैं तो सजा अवश्य मिलना चाहिये। दिक्कत तब होती है जब "सेकुलर"(?) लोग अटलबिहारी वाजपेयी के जवानी के किस्से चटखारे ले-लेकर सुनाते हैं लेकिन नेहरू नामक "रंगीले रतन" को भूल जाते हैं। खैर यह विषय अलग ही है…
राहुल गाँधी के बारे में सुना गया है कि वे किसी कोलम्बियन कन्या से शादी करना चाहते हैं, लेकिन शायद बात कहीं अटक रही है। यदि वे विवाह कर लेते हैं तो फ़िर "अविवाहित क्लब" के नेताओं में सबसे कद्दावर दो ही लोग बचेंगे, मायावती और नरेन्द्र मोदी। दोनों ही अपनी प्रशासनिक क्षमता साबित कर चुके हैं, दोनों का खासा जनाधार है, दोनों ही अपनी-अपनी पार्टी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, दोनों "चुनाव-जिताऊ" भाषणों के लिये मशहूर हैं। मायावती तो "भेंट" पर सबसे अधिक टैक्स देने वाली राजनेता बन चुकी हैं, मोदी पर भी फ़िलहाल तो कोई बड़ा भ्रष्टाचार का मामला सामने नहीं आया है। ऐसे में हो सकता है कि भारत को अगले कुछ ही समय में एक अविवाहित प्रधानमंत्री मिल जाये। अविवाहित प्रधानमंत्री होने के तीन फ़ायदे तो तत्काल दिखाई दे रहे हैं, पहला वह अपना पूरा समय काम में बितायेगा, परिवार के लिये नहीं। दूसरा यह कि उसके किसी बेटे-बेटी-बहू आदि को आतंकवादी किडनैप नहीं कर सकते (क्योंकि हैं ही नहीं), तीसरा उस व्यक्ति पर वंशवाद और भाई-भतीजावाद का आरोप भी नहीं लग सकता। मायावती ने तो पहले ही कह दिया कि उनका उत्तराधिकारी उनके परिवार का कोई व्यक्ति नहीं होगा, जो कि तारीफ़ की बात तो है। संघ के सरसंघचालकों ने कभी भी अपने परिवार के किसी व्यक्ति को उत्तराधिकारी नामज़द नहीं किया, जबकि वे चाहते तो कर सकते थे और उसे संघ के लाखों कार्यकर्ता स्वीकार भी कर लेते, लेकिन फ़िर कांग्रेस और बाकियों में क्या अन्तर रह जाता?
तो प्रिय पाठकों, देश के प्रधानमंत्री के तौर पर एक अविवाहित व्यक्ति के कुछ फ़ायदे मैंने गिना दिये हैं, कुछ आप गिना दीजिये। साथ ही राहुल गाँधी, मायावती और नरेन्द्र मोदी में से आपका वोट किसे मिलेगा यह भी बताईये…
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ब्लॉग
शुक्रवार, 19 सितम्बर 2008 13:17
हिन्दी सप्ताह विशेष : राज ठाकरे और करुणानिधि में भेदभाव क्यों?
Raj Thakre Mumbai Anti-Hindi Movement
सबसे पहले एक सवाल – कितने लोग हैं जिन्होंने मेगास्टार रजनीकान्त को चेन्नई शहर के किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में हिन्दी में बोलते सुना है? रजनीकान्त की मातृभाषा मराठी है, उनके जीवन का काफ़ी सारा समय कर्नाटक में बीता, फ़िर वे तमिल के सुपरस्टार बने। इसी तमिलनाडु के एक और हीरो हैं करुणानिधि, जिन्होंने हिन्दी विरोध की ही राजनीति से अपना जीवन शुरु किया था और आज इस मुकाम तक पहुँचे हैं। बहुत लोगों को याद है कि साठ के दशक में तमिलनाडु में सभी दुकानों पर तमिल भाषा के बोर्ड लगाना अनिवार्य किया गया था, और हिन्दी के साइनबोर्ड पर कालिख पोती गई थी। आज लगभग वही काम मुम्बई में राज ठाकरे करने की कोशिश कर रहे हैं (उनके सफ़ल होने की सम्भावना फ़िलहाल नहीं के बराबर है), तो उस पर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है? दूसरी तरफ़ जया बच्चन हैं जो लगभग दंभी अन्दाज़ में ठाकरे का मखौल उड़ाते हुए कहती हैं कि “हम यूपी वाले लोग हैं, तो हम हिन्दी में ही बोलेंगे…”। सोचा जा सकता है कि जिस परिवार को मुम्बई में 30-40 साल होने आये, मुम्बई ने ही उन्हें पहचान दी, रोजी-रोटी दी, आज भी वह “हम यूपी वाले हैं…” की मानसिकता से बाहर नहीं आ पाया है, तो इसमें किसे दोष देना चाहिये? निश्चित रूप से यह सिर्फ़ मुम्बई में ही सम्भव है, कोलकाता या चेन्नई में नहीं।
अक्सर मुम्बई के “मेट्रो कल्चर” की दलील और दुहाई दी जाती है, क्या चेन्नई और कोलकाता मेट्रो नहीं हैं? फ़िर वहाँ जाकर रहने वाला व्यक्ति कैसे तमिल और बांग्ला को अपना लेता है? और वही व्यक्ति मुम्बई में अपना सारा जीवन मराठी का एक शब्द बोले बिना निकाल लेता है? क्या “मेट्रो कल्चर” का मतलब स्थानीय भाषा और संस्कृति की उपेक्षा करने का लाइसेंस है? आम मध्यमवर्गीय मराठी व्यक्ति मुम्बई की सीमा से लगभग बाहर हो चुका है, आज मुम्बई सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यापारियों, शेयर दलालों, धनपतियों और अन्य राज्यों से आये लोगों का शहर बन चुका है। जब राज ठाकरे इस मुद्दे को उठाते हैं तो बुद्धिजीवियों और चैनलों में तत्काल उन्हें “लगभग आतंकवादी” घोषित करने की होड़ लग जाती है, जबकि करुणानिधि यदि दिल्ली में भी प्रेस कान्फ़्रेंस आयोजित करते हैं तो भी तमिल में ही बोलते हैं, लेकिन कहीं कोई बात नहीं होती। हिन्दीभाषियों द्वारा मराठी भाषा को मुम्बई में जितने हल्के तौर पर लिया जाता है, उतना वह तमिल भाषा को चेन्नई में नहीं ले सकते, वह भी तब जबकि मराठी भाषा की लिपि देवनागरी है, तमिल या मलयालम की तरह द्रविड नहीं। तमिल के मुकाबले, मराठी सीखना बेहद आसान है, लेकिन फ़िर भी ऐसी घोर उपेक्षा? इसमें किसका दोष है? क्या राज ठाकरे का, कि वह मराठी में बोर्ड लगाने की बात कह रहे हैं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में मराठी में बोलने का आग्रह कर रहे हैं, या फ़िर उनका जो अभी भी “हम यूपी वाले हैं…” की मानसिकता में जी रहे हैं?
एक शख्स हैं श्री साईसुरेश सिवास्वामी, तमिल हैं और लगभग 23 वर्ष पूर्व नौकरी के सिलसिले में मुम्बई आये थे। उन्होंने हाल के विवाद पर रेडिफ़.कॉम पर एक लेख लिखा है, जिसमें वे कहते हैं “जब मैं जवान था तब चेन्नई में हिन्दी साइनबोर्ड को कालिख पोतने वाला वहाँ “लोकल हीरो” समझा जाता था, और जब मैं मुम्बई आया तो यह देखकर हैरान था कि यहाँ मराठी का नामोनिशान मिटता जा रहा है और कोई भी साईनबोर्ड मराठी में नहीं है। यहाँ तक कि मुझे खुद शर्म महसूस होती है कि इतने वर्ष मुम्बई में बिताने के बावजूद मेरी हिन्दी अधिक शुद्ध है, मराठी की बनिस्बत…”। बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि “शिवसेना ने भी मराठी पर उतना जोर नहीं दिया, क्योंकि उसे महानगरपालिका से आगे बढ़कर राज्य की सत्ता चाहिये थी जो सिर्फ़ मराठी वोटों से नहीं मिल सकती थी, अन्ततः शिवसेना ने भी सिर्फ़ बम्बई को “मुम्बई” बनाकर इस मुद्दे से अपना हाथ खींच लिया…” लेकिन बाहर से आने वालों का यह फ़र्ज़ बनता था कि वह स्थानीय भाषा का सम्मान करते, उसके साथ चलते और उसे दिल से अपनाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि मराठी माणुस स्वभावतः बेहद सहिष्णु, लोकतान्त्रिक और अपने काम से काम रखने वाला होता है। उसके सीधेपन को उसकी सहमति जानकर अन्य राज्यों के लोग आते गये, हिन्दी थोपते गये, पैसे के जोर पर मुम्बई में ज़मीनें हथियाते गये और एक आम मराठी व्यक्ति धीरे-धीरे मुम्बई से बाहर हो गया। राज ठाकरे को भी मराठी से बहुत प्रेम है ऐसा नहीं है, साफ़ है कि वह भी अपनी राजनीति को चमकाने के लिये ऐसा कर रहा है, लेकिन उसने जो मुद्दा उठाया है वह कई स्थानीय लोगों के दिल के तार हिलाता है। मंत्रालय और मुख्य कार्यालयों का कामकाज या तो हिन्दी में होता है या अंग्रेजी में, मराठी कहीं नहीं है। रोज़ाना नये अंग्रेजी स्कूल खुलते जा रहे हैं, जहाँ हिन्दी “भी” पढ़ाई जाती है, लेकिन मराठी स्कूलों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है, ज़ाहिर है कि यह राज्य सरकार का दोष है, लेकिन जो व्यक्ति मुम्बई में रहकर इलाहाबाद में स्कूल खोल सकता है, उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह एकाध मराठी स्कूल मुम्बई में भी खोले।
लेकिन राज ठाकरे बहुत देर कर चुके हैं, उनके इस मराठी-अमराठी मुद्दे की पकड़ बनाने के लिये मुम्बई में इतने मराठी बचे ही नहीं हैं कि राज ठाकरे की राजनीति पनप सके। पिछले “मुम्बई मनपा” चुनावों में राज ठाकरे इसका मजा चख चुके हैं। राज ठाकरे द्वारा मराठी की बात करते ही अन्य प्रान्तों के लोग उनके खिलाफ़ लामबन्द हो जाते हैं और वे अकेले पड़ जाते हैं, ऐसा ही होता रहेगा, क्योंकि मुम्बई में बाहर से आने वालों की संख्या अब इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि अब वहाँ यह मुद्दा चलने वाला नहीं है। यह मुम्बई के स्थानीय मराठियों का दुर्भाग्य तो है, लेकिन इसके जिम्मेदार वे खुद ही हैं जो उन्होंने चेन्नई जैसा आन्दोलन नहीं चलाया और बर्दाश्त करते रहे।
हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है, सप्ताह और पखवाड़ा मनाया जा रहा है, अच्छी बात है। हिन्दी-हिन्दी भजने वाले सिर्फ़ एक बार करुणानिधि को हिन्दी सिखाकर दिखायें, हिन्दी भाषा की अलख उत्तर-पूर्व के राज्यों (जहाँ से हिन्दीभाषियों को भगाया जा रहा है) और तमिलनाडु में जलाकर दिखायें। हालांकि अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के कारण अब स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है और दक्षिण के लोग भी हिन्दी सीखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि बगैर इसके उत्तर भारत में काम चलाना मुश्किल होगा, लेकिन यह स्थिति दक्षिण से बाहर जाने वालों की है, दक्षिण में जाकर बसने वालों को वहाँ की स्थानीय भाषा सीखना-बोलना अभी भी आवश्यक है, जबकि मुम्बई में ऐसा नहीं है। दरअसल हिन्दी प्रांतों के लोग क्षेत्रीय भाषाओं को गम्भीरता से लेते ही नहीं हैं, यदि सीखना भी पड़े तो मजबूरी में ही सीखते हैं। वे इस बात को नहीं समझते कि उस क्षेत्रीय भाषा का भी अपना विराट साहित्य संसार है। वे हिन्दी को ही श्रेष्ठ मानते हैं, और क्षेत्रीय भाषा को संख्याबल से दबाने का प्रयास करते हैं। इसके ठीक उलट मराठी व्यक्ति है जो जिस प्रान्त में जाता है वहाँ की भाषा, बोलचाल का लहजा और पहनावा तत्काल पकड़ लेता है, मैं आपको बनारस के कई मराठी परिवार दिखा सकता हूँ, जिनकी धोती, मुँह में पान और अवधी तथा खड़ी बोली को सुनकर आप विश्वास नहीं करेंगे कि यह व्यक्ति ठेठ मराठी है। मराठी व्यक्ति कभी अन्य राज्यों में “गुट” नहीं बनाता, दबंगता नहीं दिखाता, न ही राजनीति में कोई खास दिलचस्पी रखता है। एक ज़माने में कर्नाटक से लेकर अटक (अफ़गानिस्तान) तक मराठा साम्राज्य फ़ैला हुआ था, लेकिन क्या आज की तारीख में महाराष्ट्र छोड़कर किसी भी अन्य राज्य में मराठी वोट बैंक नाम की कोई चीज़ है? क्या अन्य राज्यों में मराठियों ने कभी राजनैतिक ताकत जताने या सामाजिक दबाव बनाने की कोशिश की है? महाराष्ट्र से बाहर कितने विधायक और सांसद मराठी हैं? इन प्रश्नों के जवाबों को अन्य राज्यों में बसे हुए विभिन्न राज्यों के लोगों को लेकर उसका प्रतिशत निकालिये, स्थिति साफ़ हो जायेगी।
मेरा जन्म मध्यप्रदेश में हुआ है और कर्मस्थली भी यही है और मुझे इस पर गर्व है। मेरी हिन्दी कई हिन्दीभाषियों से बेहतर है, गाँधीसागर बाँध के कारण मध्यप्रदेश के हितों को चोट लगने पर मैं राजस्थान को गरियाता हूँ, और विद्युत मंडल के बँटवारे में यदि मध्यप्रदेश के साथ अन्याय हुआ तो छत्तीसगढ़ को भी खरी-खोटी सुनाता हूँ, और ऐसा ही होना चाहिये। जो भी व्यक्ति जहाँ रहे, जिस जगह काम करे, जहाँ अपना आशियाना बनाये, रोजी-रोटी कमाये-खाये, उसे वहाँ की भाषा-संस्कृति में घुल-मिल जाना चाहिये, तभी सामाजिक समरसता बनेगी। ये नहीं कि रहते-खाते-कमाते तो दुबई में हैं, लेकिन अस्पताल खोलेंगे आज़मगढ़ में, नागरिक तो हैं कनाडा के लेकिन सड़क बनवायेंगे टिम्बकटू में…
यह थोड़ा विषयान्तर हो सकता है लेकिन इस मौके पर विदेशों में बसे भारतीयों को भी इस मुद्दे से सीखने की आवश्यकता है, ऐसा क्यों होता है कि भारतीय जिस देश में जाते हैं वहाँ के स्थानीय समाज को वे नहीं अपनाते हैं। कई परिवार ऐसे हैं जो 30-40 साल से ब्रिटेन-कनाडा-न्यूजीलैण्ड में बसे हुए हैं, वहीं नौकरी-व्यवसाय करते हैं, उनकी नागरिकता तक ब्रिटिश है, वे भविष्य में कभी भी भारत नहीं आने वाले, लेकिन ताज़िन्दगी वे “भारत-भारत” भजते रहते हैं, यहाँ की सरकार भी उन्हें भारतवंशी(?) कहकर बुलाती रहती है, आखिर क्यों? फ़िर कैसे वहाँ का स्थानीय समाज उनसे जुड़ेगा? “हम तो यूपी वाले हैं…” की मानसिकता वहाँ भी दिखाई देती है और फ़िर जर्मनी, फ़िजी, अरब देशों, मलेशिया, केन्या सभी जगहों पर भारतीयों(?) पर हमले होते रहते हैं। रहे होंगे कभी आपके वंशज भारतीय, लेकिन अब तो आप और आपके बच्चे इंग्लैण्ड के नागरिक हैं, फ़िर भारत इंग्लैण्ड को क्रिकेट में हराये तो आप तिरंगा क्यों लहराते हैं? और फ़िर अपेक्षा करते हैं कि स्थानीय व्यक्ति आपका सम्मान करे?
यह सारा खेल पेट से जुड़ा हुआ है, हर जगह स्थानीय व्यक्ति को लगता है कि बाहर से आया हुआ व्यक्ति उसकी रोजी-रोटी छीन रहा है, इसका फ़ायदा नेता उठाते हैं और इसे भाषा का मुद्दा बना डालते हैं, और दोनों व्यक्तियों में आपसी सामंजस्य न होने के कारण आग और भड़कती जाती है। राज ठाकरे और करुणानिधि में कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही क्षेत्रीयतावाद की राजनीति करते हैं, भाषा के विवाद पैदा करते हैं, अन्तर सिर्फ़ इतना है कि राज ठाकरे गालियाँ खा रहे हैं…और करुणानिधि मलाई। राज ठाकरे को गालियों से मलाई का सफ़र तय करने में अभी काफ़ी समय लगेगा… क्योंकि मराठी लोग ही उनका साथ नहीं देने वाले… लेकिन फ़िर भी स्थानीय भाषा के सम्मान और उसे “दिल से” अपनाने का मुद्दा तो अपनी जगह पर कायम रहेगा ही…
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सबसे पहले एक सवाल – कितने लोग हैं जिन्होंने मेगास्टार रजनीकान्त को चेन्नई शहर के किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में हिन्दी में बोलते सुना है? रजनीकान्त की मातृभाषा मराठी है, उनके जीवन का काफ़ी सारा समय कर्नाटक में बीता, फ़िर वे तमिल के सुपरस्टार बने। इसी तमिलनाडु के एक और हीरो हैं करुणानिधि, जिन्होंने हिन्दी विरोध की ही राजनीति से अपना जीवन शुरु किया था और आज इस मुकाम तक पहुँचे हैं। बहुत लोगों को याद है कि साठ के दशक में तमिलनाडु में सभी दुकानों पर तमिल भाषा के बोर्ड लगाना अनिवार्य किया गया था, और हिन्दी के साइनबोर्ड पर कालिख पोती गई थी। आज लगभग वही काम मुम्बई में राज ठाकरे करने की कोशिश कर रहे हैं (उनके सफ़ल होने की सम्भावना फ़िलहाल नहीं के बराबर है), तो उस पर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है? दूसरी तरफ़ जया बच्चन हैं जो लगभग दंभी अन्दाज़ में ठाकरे का मखौल उड़ाते हुए कहती हैं कि “हम यूपी वाले लोग हैं, तो हम हिन्दी में ही बोलेंगे…”। सोचा जा सकता है कि जिस परिवार को मुम्बई में 30-40 साल होने आये, मुम्बई ने ही उन्हें पहचान दी, रोजी-रोटी दी, आज भी वह “हम यूपी वाले हैं…” की मानसिकता से बाहर नहीं आ पाया है, तो इसमें किसे दोष देना चाहिये? निश्चित रूप से यह सिर्फ़ मुम्बई में ही सम्भव है, कोलकाता या चेन्नई में नहीं।
अक्सर मुम्बई के “मेट्रो कल्चर” की दलील और दुहाई दी जाती है, क्या चेन्नई और कोलकाता मेट्रो नहीं हैं? फ़िर वहाँ जाकर रहने वाला व्यक्ति कैसे तमिल और बांग्ला को अपना लेता है? और वही व्यक्ति मुम्बई में अपना सारा जीवन मराठी का एक शब्द बोले बिना निकाल लेता है? क्या “मेट्रो कल्चर” का मतलब स्थानीय भाषा और संस्कृति की उपेक्षा करने का लाइसेंस है? आम मध्यमवर्गीय मराठी व्यक्ति मुम्बई की सीमा से लगभग बाहर हो चुका है, आज मुम्बई सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यापारियों, शेयर दलालों, धनपतियों और अन्य राज्यों से आये लोगों का शहर बन चुका है। जब राज ठाकरे इस मुद्दे को उठाते हैं तो बुद्धिजीवियों और चैनलों में तत्काल उन्हें “लगभग आतंकवादी” घोषित करने की होड़ लग जाती है, जबकि करुणानिधि यदि दिल्ली में भी प्रेस कान्फ़्रेंस आयोजित करते हैं तो भी तमिल में ही बोलते हैं, लेकिन कहीं कोई बात नहीं होती। हिन्दीभाषियों द्वारा मराठी भाषा को मुम्बई में जितने हल्के तौर पर लिया जाता है, उतना वह तमिल भाषा को चेन्नई में नहीं ले सकते, वह भी तब जबकि मराठी भाषा की लिपि देवनागरी है, तमिल या मलयालम की तरह द्रविड नहीं। तमिल के मुकाबले, मराठी सीखना बेहद आसान है, लेकिन फ़िर भी ऐसी घोर उपेक्षा? इसमें किसका दोष है? क्या राज ठाकरे का, कि वह मराठी में बोर्ड लगाने की बात कह रहे हैं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में मराठी में बोलने का आग्रह कर रहे हैं, या फ़िर उनका जो अभी भी “हम यूपी वाले हैं…” की मानसिकता में जी रहे हैं?
एक शख्स हैं श्री साईसुरेश सिवास्वामी, तमिल हैं और लगभग 23 वर्ष पूर्व नौकरी के सिलसिले में मुम्बई आये थे। उन्होंने हाल के विवाद पर रेडिफ़.कॉम पर एक लेख लिखा है, जिसमें वे कहते हैं “जब मैं जवान था तब चेन्नई में हिन्दी साइनबोर्ड को कालिख पोतने वाला वहाँ “लोकल हीरो” समझा जाता था, और जब मैं मुम्बई आया तो यह देखकर हैरान था कि यहाँ मराठी का नामोनिशान मिटता जा रहा है और कोई भी साईनबोर्ड मराठी में नहीं है। यहाँ तक कि मुझे खुद शर्म महसूस होती है कि इतने वर्ष मुम्बई में बिताने के बावजूद मेरी हिन्दी अधिक शुद्ध है, मराठी की बनिस्बत…”। बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि “शिवसेना ने भी मराठी पर उतना जोर नहीं दिया, क्योंकि उसे महानगरपालिका से आगे बढ़कर राज्य की सत्ता चाहिये थी जो सिर्फ़ मराठी वोटों से नहीं मिल सकती थी, अन्ततः शिवसेना ने भी सिर्फ़ बम्बई को “मुम्बई” बनाकर इस मुद्दे से अपना हाथ खींच लिया…” लेकिन बाहर से आने वालों का यह फ़र्ज़ बनता था कि वह स्थानीय भाषा का सम्मान करते, उसके साथ चलते और उसे दिल से अपनाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि मराठी माणुस स्वभावतः बेहद सहिष्णु, लोकतान्त्रिक और अपने काम से काम रखने वाला होता है। उसके सीधेपन को उसकी सहमति जानकर अन्य राज्यों के लोग आते गये, हिन्दी थोपते गये, पैसे के जोर पर मुम्बई में ज़मीनें हथियाते गये और एक आम मराठी व्यक्ति धीरे-धीरे मुम्बई से बाहर हो गया। राज ठाकरे को भी मराठी से बहुत प्रेम है ऐसा नहीं है, साफ़ है कि वह भी अपनी राजनीति को चमकाने के लिये ऐसा कर रहा है, लेकिन उसने जो मुद्दा उठाया है वह कई स्थानीय लोगों के दिल के तार हिलाता है। मंत्रालय और मुख्य कार्यालयों का कामकाज या तो हिन्दी में होता है या अंग्रेजी में, मराठी कहीं नहीं है। रोज़ाना नये अंग्रेजी स्कूल खुलते जा रहे हैं, जहाँ हिन्दी “भी” पढ़ाई जाती है, लेकिन मराठी स्कूलों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है, ज़ाहिर है कि यह राज्य सरकार का दोष है, लेकिन जो व्यक्ति मुम्बई में रहकर इलाहाबाद में स्कूल खोल सकता है, उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह एकाध मराठी स्कूल मुम्बई में भी खोले।
लेकिन राज ठाकरे बहुत देर कर चुके हैं, उनके इस मराठी-अमराठी मुद्दे की पकड़ बनाने के लिये मुम्बई में इतने मराठी बचे ही नहीं हैं कि राज ठाकरे की राजनीति पनप सके। पिछले “मुम्बई मनपा” चुनावों में राज ठाकरे इसका मजा चख चुके हैं। राज ठाकरे द्वारा मराठी की बात करते ही अन्य प्रान्तों के लोग उनके खिलाफ़ लामबन्द हो जाते हैं और वे अकेले पड़ जाते हैं, ऐसा ही होता रहेगा, क्योंकि मुम्बई में बाहर से आने वालों की संख्या अब इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि अब वहाँ यह मुद्दा चलने वाला नहीं है। यह मुम्बई के स्थानीय मराठियों का दुर्भाग्य तो है, लेकिन इसके जिम्मेदार वे खुद ही हैं जो उन्होंने चेन्नई जैसा आन्दोलन नहीं चलाया और बर्दाश्त करते रहे।
हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है, सप्ताह और पखवाड़ा मनाया जा रहा है, अच्छी बात है। हिन्दी-हिन्दी भजने वाले सिर्फ़ एक बार करुणानिधि को हिन्दी सिखाकर दिखायें, हिन्दी भाषा की अलख उत्तर-पूर्व के राज्यों (जहाँ से हिन्दीभाषियों को भगाया जा रहा है) और तमिलनाडु में जलाकर दिखायें। हालांकि अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के कारण अब स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है और दक्षिण के लोग भी हिन्दी सीखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि बगैर इसके उत्तर भारत में काम चलाना मुश्किल होगा, लेकिन यह स्थिति दक्षिण से बाहर जाने वालों की है, दक्षिण में जाकर बसने वालों को वहाँ की स्थानीय भाषा सीखना-बोलना अभी भी आवश्यक है, जबकि मुम्बई में ऐसा नहीं है। दरअसल हिन्दी प्रांतों के लोग क्षेत्रीय भाषाओं को गम्भीरता से लेते ही नहीं हैं, यदि सीखना भी पड़े तो मजबूरी में ही सीखते हैं। वे इस बात को नहीं समझते कि उस क्षेत्रीय भाषा का भी अपना विराट साहित्य संसार है। वे हिन्दी को ही श्रेष्ठ मानते हैं, और क्षेत्रीय भाषा को संख्याबल से दबाने का प्रयास करते हैं। इसके ठीक उलट मराठी व्यक्ति है जो जिस प्रान्त में जाता है वहाँ की भाषा, बोलचाल का लहजा और पहनावा तत्काल पकड़ लेता है, मैं आपको बनारस के कई मराठी परिवार दिखा सकता हूँ, जिनकी धोती, मुँह में पान और अवधी तथा खड़ी बोली को सुनकर आप विश्वास नहीं करेंगे कि यह व्यक्ति ठेठ मराठी है। मराठी व्यक्ति कभी अन्य राज्यों में “गुट” नहीं बनाता, दबंगता नहीं दिखाता, न ही राजनीति में कोई खास दिलचस्पी रखता है। एक ज़माने में कर्नाटक से लेकर अटक (अफ़गानिस्तान) तक मराठा साम्राज्य फ़ैला हुआ था, लेकिन क्या आज की तारीख में महाराष्ट्र छोड़कर किसी भी अन्य राज्य में मराठी वोट बैंक नाम की कोई चीज़ है? क्या अन्य राज्यों में मराठियों ने कभी राजनैतिक ताकत जताने या सामाजिक दबाव बनाने की कोशिश की है? महाराष्ट्र से बाहर कितने विधायक और सांसद मराठी हैं? इन प्रश्नों के जवाबों को अन्य राज्यों में बसे हुए विभिन्न राज्यों के लोगों को लेकर उसका प्रतिशत निकालिये, स्थिति साफ़ हो जायेगी।
मेरा जन्म मध्यप्रदेश में हुआ है और कर्मस्थली भी यही है और मुझे इस पर गर्व है। मेरी हिन्दी कई हिन्दीभाषियों से बेहतर है, गाँधीसागर बाँध के कारण मध्यप्रदेश के हितों को चोट लगने पर मैं राजस्थान को गरियाता हूँ, और विद्युत मंडल के बँटवारे में यदि मध्यप्रदेश के साथ अन्याय हुआ तो छत्तीसगढ़ को भी खरी-खोटी सुनाता हूँ, और ऐसा ही होना चाहिये। जो भी व्यक्ति जहाँ रहे, जिस जगह काम करे, जहाँ अपना आशियाना बनाये, रोजी-रोटी कमाये-खाये, उसे वहाँ की भाषा-संस्कृति में घुल-मिल जाना चाहिये, तभी सामाजिक समरसता बनेगी। ये नहीं कि रहते-खाते-कमाते तो दुबई में हैं, लेकिन अस्पताल खोलेंगे आज़मगढ़ में, नागरिक तो हैं कनाडा के लेकिन सड़क बनवायेंगे टिम्बकटू में…
यह थोड़ा विषयान्तर हो सकता है लेकिन इस मौके पर विदेशों में बसे भारतीयों को भी इस मुद्दे से सीखने की आवश्यकता है, ऐसा क्यों होता है कि भारतीय जिस देश में जाते हैं वहाँ के स्थानीय समाज को वे नहीं अपनाते हैं। कई परिवार ऐसे हैं जो 30-40 साल से ब्रिटेन-कनाडा-न्यूजीलैण्ड में बसे हुए हैं, वहीं नौकरी-व्यवसाय करते हैं, उनकी नागरिकता तक ब्रिटिश है, वे भविष्य में कभी भी भारत नहीं आने वाले, लेकिन ताज़िन्दगी वे “भारत-भारत” भजते रहते हैं, यहाँ की सरकार भी उन्हें भारतवंशी(?) कहकर बुलाती रहती है, आखिर क्यों? फ़िर कैसे वहाँ का स्थानीय समाज उनसे जुड़ेगा? “हम तो यूपी वाले हैं…” की मानसिकता वहाँ भी दिखाई देती है और फ़िर जर्मनी, फ़िजी, अरब देशों, मलेशिया, केन्या सभी जगहों पर भारतीयों(?) पर हमले होते रहते हैं। रहे होंगे कभी आपके वंशज भारतीय, लेकिन अब तो आप और आपके बच्चे इंग्लैण्ड के नागरिक हैं, फ़िर भारत इंग्लैण्ड को क्रिकेट में हराये तो आप तिरंगा क्यों लहराते हैं? और फ़िर अपेक्षा करते हैं कि स्थानीय व्यक्ति आपका सम्मान करे?
यह सारा खेल पेट से जुड़ा हुआ है, हर जगह स्थानीय व्यक्ति को लगता है कि बाहर से आया हुआ व्यक्ति उसकी रोजी-रोटी छीन रहा है, इसका फ़ायदा नेता उठाते हैं और इसे भाषा का मुद्दा बना डालते हैं, और दोनों व्यक्तियों में आपसी सामंजस्य न होने के कारण आग और भड़कती जाती है। राज ठाकरे और करुणानिधि में कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही क्षेत्रीयतावाद की राजनीति करते हैं, भाषा के विवाद पैदा करते हैं, अन्तर सिर्फ़ इतना है कि राज ठाकरे गालियाँ खा रहे हैं…और करुणानिधि मलाई। राज ठाकरे को गालियों से मलाई का सफ़र तय करने में अभी काफ़ी समय लगेगा… क्योंकि मराठी लोग ही उनका साथ नहीं देने वाले… लेकिन फ़िर भी स्थानीय भाषा के सम्मान और उसे “दिल से” अपनाने का मुद्दा तो अपनी जगह पर कायम रहेगा ही…
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रविवार, 14 सितम्बर 2008 13:02
पुलिस वालों जलवा दिखाओ, देशद्रोही नेताओं के भरोसे रहे तो…
Terrorist attack & Indian Police Encounter
बंगलोर, अहमदाबाद, जयपुर के बाद अब दिल्ली का नम्बर भी आ गया, साफ़ है कि कोई भी शहर अब सुरक्षित नहीं रहा, बम धमाके और मौत किसी भी समय किसी भी परिवार को उजाड़ सकते हैं। इस देश में एक गृहमंत्री भी है, जिनका नाम है शिवराज पाटिल (नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा, ठीक वैसे ही जैसे कि उपराष्ट्रपति का नाम भी कम ही लोगों को मालूम होगा)। तो हमारे गृहमंत्री साहब मीटिंग करते हैं, सेमिनार करते हैं, निर्देश देते हैं, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं है। वही बरसों पुरानी रट लगाये रहते हैं, "आतंकवादियों का कड़ा मुकाबला किया जायेगा…", "इस तरह की कायराना हरकतों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा…", आदि-आदि। रेड अलर्ट और हाई अलर्ट तो एक सरकारी उत्सव की तरह हो गये हैं जो हर महीने-पन्द्रह दिन में आते-जाते रहते हैं, एक कर्मकाण्ड की तरह रेड अलर्ट मनाया जाता है, एक बेगारी की तरह हाई अलर्ट टाला जाता है। फ़िर से सब उसी ढर्रे पर लौट आते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो… फ़िर अखबार और मीडिया देश की जनता की तारीफ़ों(?) के कसीदे काढ़ते हैं कि "देखो कैसे जनजीवन सामान्य हो गया…" "देश की जनता ने अलाँ-फ़लाँ त्यौहार जोरशोर से मनाकर आतंकवाद को मुँहतोड़ जवाब दिया…" इन मूर्खों को कौन समझाये कि क्या जनता अगले दिन अपने काम पर न जाये? या बम विस्फ़ोट हो गया है तो अगले दिन सभी लोग भूखे सो जायें? कोई कामधाम नहीं है क्या, जनजीवन सामान्य न करें तो क्या करें? सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ अपना काम नहीं कर रही, कम से कम आम जनता तो अपना काम करे, उसमें आतंकवाद को जवाब देने की बात कहाँ से आ गई? खैर… जो हो रहा है वह ऐसे ही चलता रहेगा, अब उम्मीद की किरण बची है पुलिस वालों से…
पुलिस वालों, अब तुम्हारे जागने का वक्त आ गया है यदि देशद्रोही नेताओं के भरोसे बैठे रहे और उनके घटिया आदेशों का पालन करते रहे तो एक दिन तुम्हारा परिवार भी ऐसे ही किसी बम विस्फ़ोट में मारा जायेगा तब हाथ मलने के सिवा कोई चारा न होगा। इस लेख के माध्यम से पुलिस वालों से एक अनुरोध है, विनती है, करबद्ध प्रार्थना है कि अब अपना पुलिसिया जलवा दिखाओ, अपने मुखबिरों की नकेल कसो, उनका नेटवर्क मजबूत करो, सूचनायें एकत्रित करो और "व्यक्तिगत स्तर पर देश की खातिर" मुठभेड़ों का जोरदार दौरदौरा चलाओ। चार-छः महीनों में पकड़े जा सकने वाले आतंकवादियों और देशद्रोहियों की लाशें बिछाओ। भले ही उसे आधिकारिक मुठभेड़ न दिखाओ, लेकिन देश के भले के लिये हर पुलिस वाला कम से कम दो-चार समाजविरोधी काँटों को तो साफ़ कर ही सकता है। "सेफ़ मुठभेड़" कैसे की जाती है, यह अनुभवी पुलिस वालों को बताने की ज़रूरत नहीं है, बस इस बात का ध्यान रखना होगा कि कहीं कोई बेगुनाह न मारा जाये, पहले पक्की सूचनायें इकठ्ठा करो, उनको जाँच-परख लो, फ़िर उस आतंकवादी को उड़ा दो। ऐसा दमनचक्र चलाओ कि देशद्रोहियों को पनाह देने वालों का सर चकरा जाये कि आखिर यह हो क्या रहा है? जिसके पास AK-47 बरामद हो वह कोई सन्त तो नहीं हो सकता, जिस घर से RDX और डिटोनेटर बरामद हो रहे हों वह कोई महात्मा का आश्रम तो हो नहीं सकता, उसे वहीं मार गिराओ, उस घर को नेस्तनाबूद कर दो, उस घर में रहने वाले पूरे परिवार को पुलिस की थर्ड डिग्री का मजा चखाओ। सेकुलर लोग कहेंगे कि उस परिवार का क्या दोष है वह तो निर्दोष है, लेकिन बम विस्फ़ोट में मारे जाने वाले भी तो निर्दोष ही होते हैं।
प्रिय पुलिस वालों, हम एक युद्धकाल में जी रहे हैं यहाँ शान्तिकाल के नियम लागू नहीं होते। हो सकता है कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाये, लेकिन अभी गेहूँ का पिसना अधिक महत्वपूर्ण है, अपनी तरफ़ से सावधानी बरतो, लेकिन यदि कोई बेगुनाह मारा भी जाता है तो उसमें छाती कूटने की आवश्यकता नहीं है, रोजाना कई बेगुनाह सड़कों पर कारों-ट्रकों द्वारा कुचले जाते हैं और अमीरज़ादे पैसा देकर छूट जाते हैं, और फ़िर यह तो देश की सुरक्षा का मामला है, गर्व का मामला है। हे पुलिस वालों, तुम नाकों-चौराहों पर पैसा खाते हो, मर्डर-झगड़ा होने पर दोनों पार्टियों से पैसा खाते हो, तुम FIR लिखने तक का पैसा खाते हो, ये काम तो तुम छोड़ने से रहे तो कम से कम एक नेक काम करो, महीने-दो महीने में एकाध बड़े गुण्डे का एनकाउंटर करो, यदि वह गुण्डा देशविरोधी काम में लिप्त पाया जाये तो जल्दी से जल्दी करो। एक बात होती है "राजदण्ड", दिखने में यह हवलदार के हाथ में एक मामूली डण्डे जैसा दिखता है, लेकिन उस डण्डे का जलाल ही अपराधियों में खौफ़ पैदा करता है। आतंकवादियों के दिलोदिमाग में इस राजदण्ड का ऐसा खौफ़ पैदा करो कि वे कुछ भी करने से पहले दस बार सोचें। हमारे देश की न्याय व्यवस्था पर भी भरोसा रखो, जो न्याय व्यवस्था अबू सलेम, दाऊद इब्राहीम, तेलगी, शहाबुद्दीन जैसों की "मददगार" है, वह कई एनकाउंटर करने के बावजूद तुम्हारी भी "मदद" करेगी, यदि देशद्रोही वकील हैं तो देशप्रेमी वकील भी हैं इस देश में… इसलिये बेखौफ़ होकर इस युद्धकाल में अपना कर्तव्य निभाओ, लोग यह नहीं याद रखते कि पंजाब में कितने बेगुनाह मारे गये, लोग याद रखते हैं केपीएस गिल को…।
और एक अन्तिम बात… "सेकुलर" और "मानवाधिकारवादी" नाम के दो आस्तीन के साँपों (ये साँप अफ़ज़ल को गले लगाये रहेंगे, बांग्लादेशी घुसपैठियों की राशनकार्ड और पैसों से मदद करते रहेंगे, आतंकवादियों को बिरयानी खिलाकर छोड़ते रहेंगे) से दूर रहने की कोशिश करना… जनता तुम्हें लाख-लाख दुआयें देगी जो तुम्हारे बच्चों के ही काम आयेगी। तो उठो और काम में जुट जाओ, शुरुआत जेल में बन्द आतंकवादियों से ही करो… सबसे पहले उन्हें एक दिन छोड़कर खाने में जुलाब की चार गोली खिलाओ…, चुपके से एड्स के इंजेक्शन लगाओ… "असली गोली" बाद में, फ़िर आगे क्या और कैसे करना है यह भी मुझे बताना पड़ेगा क्या???
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बंगलोर, अहमदाबाद, जयपुर के बाद अब दिल्ली का नम्बर भी आ गया, साफ़ है कि कोई भी शहर अब सुरक्षित नहीं रहा, बम धमाके और मौत किसी भी समय किसी भी परिवार को उजाड़ सकते हैं। इस देश में एक गृहमंत्री भी है, जिनका नाम है शिवराज पाटिल (नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा, ठीक वैसे ही जैसे कि उपराष्ट्रपति का नाम भी कम ही लोगों को मालूम होगा)। तो हमारे गृहमंत्री साहब मीटिंग करते हैं, सेमिनार करते हैं, निर्देश देते हैं, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं है। वही बरसों पुरानी रट लगाये रहते हैं, "आतंकवादियों का कड़ा मुकाबला किया जायेगा…", "इस तरह की कायराना हरकतों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा…", आदि-आदि। रेड अलर्ट और हाई अलर्ट तो एक सरकारी उत्सव की तरह हो गये हैं जो हर महीने-पन्द्रह दिन में आते-जाते रहते हैं, एक कर्मकाण्ड की तरह रेड अलर्ट मनाया जाता है, एक बेगारी की तरह हाई अलर्ट टाला जाता है। फ़िर से सब उसी ढर्रे पर लौट आते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो… फ़िर अखबार और मीडिया देश की जनता की तारीफ़ों(?) के कसीदे काढ़ते हैं कि "देखो कैसे जनजीवन सामान्य हो गया…" "देश की जनता ने अलाँ-फ़लाँ त्यौहार जोरशोर से मनाकर आतंकवाद को मुँहतोड़ जवाब दिया…" इन मूर्खों को कौन समझाये कि क्या जनता अगले दिन अपने काम पर न जाये? या बम विस्फ़ोट हो गया है तो अगले दिन सभी लोग भूखे सो जायें? कोई कामधाम नहीं है क्या, जनजीवन सामान्य न करें तो क्या करें? सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ अपना काम नहीं कर रही, कम से कम आम जनता तो अपना काम करे, उसमें आतंकवाद को जवाब देने की बात कहाँ से आ गई? खैर… जो हो रहा है वह ऐसे ही चलता रहेगा, अब उम्मीद की किरण बची है पुलिस वालों से…
पुलिस वालों, अब तुम्हारे जागने का वक्त आ गया है यदि देशद्रोही नेताओं के भरोसे बैठे रहे और उनके घटिया आदेशों का पालन करते रहे तो एक दिन तुम्हारा परिवार भी ऐसे ही किसी बम विस्फ़ोट में मारा जायेगा तब हाथ मलने के सिवा कोई चारा न होगा। इस लेख के माध्यम से पुलिस वालों से एक अनुरोध है, विनती है, करबद्ध प्रार्थना है कि अब अपना पुलिसिया जलवा दिखाओ, अपने मुखबिरों की नकेल कसो, उनका नेटवर्क मजबूत करो, सूचनायें एकत्रित करो और "व्यक्तिगत स्तर पर देश की खातिर" मुठभेड़ों का जोरदार दौरदौरा चलाओ। चार-छः महीनों में पकड़े जा सकने वाले आतंकवादियों और देशद्रोहियों की लाशें बिछाओ। भले ही उसे आधिकारिक मुठभेड़ न दिखाओ, लेकिन देश के भले के लिये हर पुलिस वाला कम से कम दो-चार समाजविरोधी काँटों को तो साफ़ कर ही सकता है। "सेफ़ मुठभेड़" कैसे की जाती है, यह अनुभवी पुलिस वालों को बताने की ज़रूरत नहीं है, बस इस बात का ध्यान रखना होगा कि कहीं कोई बेगुनाह न मारा जाये, पहले पक्की सूचनायें इकठ्ठा करो, उनको जाँच-परख लो, फ़िर उस आतंकवादी को उड़ा दो। ऐसा दमनचक्र चलाओ कि देशद्रोहियों को पनाह देने वालों का सर चकरा जाये कि आखिर यह हो क्या रहा है? जिसके पास AK-47 बरामद हो वह कोई सन्त तो नहीं हो सकता, जिस घर से RDX और डिटोनेटर बरामद हो रहे हों वह कोई महात्मा का आश्रम तो हो नहीं सकता, उसे वहीं मार गिराओ, उस घर को नेस्तनाबूद कर दो, उस घर में रहने वाले पूरे परिवार को पुलिस की थर्ड डिग्री का मजा चखाओ। सेकुलर लोग कहेंगे कि उस परिवार का क्या दोष है वह तो निर्दोष है, लेकिन बम विस्फ़ोट में मारे जाने वाले भी तो निर्दोष ही होते हैं।
प्रिय पुलिस वालों, हम एक युद्धकाल में जी रहे हैं यहाँ शान्तिकाल के नियम लागू नहीं होते। हो सकता है कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाये, लेकिन अभी गेहूँ का पिसना अधिक महत्वपूर्ण है, अपनी तरफ़ से सावधानी बरतो, लेकिन यदि कोई बेगुनाह मारा भी जाता है तो उसमें छाती कूटने की आवश्यकता नहीं है, रोजाना कई बेगुनाह सड़कों पर कारों-ट्रकों द्वारा कुचले जाते हैं और अमीरज़ादे पैसा देकर छूट जाते हैं, और फ़िर यह तो देश की सुरक्षा का मामला है, गर्व का मामला है। हे पुलिस वालों, तुम नाकों-चौराहों पर पैसा खाते हो, मर्डर-झगड़ा होने पर दोनों पार्टियों से पैसा खाते हो, तुम FIR लिखने तक का पैसा खाते हो, ये काम तो तुम छोड़ने से रहे तो कम से कम एक नेक काम करो, महीने-दो महीने में एकाध बड़े गुण्डे का एनकाउंटर करो, यदि वह गुण्डा देशविरोधी काम में लिप्त पाया जाये तो जल्दी से जल्दी करो। एक बात होती है "राजदण्ड", दिखने में यह हवलदार के हाथ में एक मामूली डण्डे जैसा दिखता है, लेकिन उस डण्डे का जलाल ही अपराधियों में खौफ़ पैदा करता है। आतंकवादियों के दिलोदिमाग में इस राजदण्ड का ऐसा खौफ़ पैदा करो कि वे कुछ भी करने से पहले दस बार सोचें। हमारे देश की न्याय व्यवस्था पर भी भरोसा रखो, जो न्याय व्यवस्था अबू सलेम, दाऊद इब्राहीम, तेलगी, शहाबुद्दीन जैसों की "मददगार" है, वह कई एनकाउंटर करने के बावजूद तुम्हारी भी "मदद" करेगी, यदि देशद्रोही वकील हैं तो देशप्रेमी वकील भी हैं इस देश में… इसलिये बेखौफ़ होकर इस युद्धकाल में अपना कर्तव्य निभाओ, लोग यह नहीं याद रखते कि पंजाब में कितने बेगुनाह मारे गये, लोग याद रखते हैं केपीएस गिल को…।
और एक अन्तिम बात… "सेकुलर" और "मानवाधिकारवादी" नाम के दो आस्तीन के साँपों (ये साँप अफ़ज़ल को गले लगाये रहेंगे, बांग्लादेशी घुसपैठियों की राशनकार्ड और पैसों से मदद करते रहेंगे, आतंकवादियों को बिरयानी खिलाकर छोड़ते रहेंगे) से दूर रहने की कोशिश करना… जनता तुम्हें लाख-लाख दुआयें देगी जो तुम्हारे बच्चों के ही काम आयेगी। तो उठो और काम में जुट जाओ, शुरुआत जेल में बन्द आतंकवादियों से ही करो… सबसे पहले उन्हें एक दिन छोड़कर खाने में जुलाब की चार गोली खिलाओ…, चुपके से एड्स के इंजेक्शन लगाओ… "असली गोली" बाद में, फ़िर आगे क्या और कैसे करना है यह भी मुझे बताना पड़ेगा क्या???
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