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Kandhamal National Shame & Manmohan
विश्व के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे नेताओं में से एक हमारे देश के प्रधानमंत्री ने कंधमाल की घटनाओं को “राष्ट्रीय शर्म” घोषित किया है। इसके पहले एकाध बार ही “राष्ट्रीय शर्म” का नाम सुना था मैंने, जी हाँ “गुजरात दंगों” के दौरान… उस वक्त भी कई कांग्रेसियों ने और यहाँ तक कि वाजपेयी जी ने भी इसे राष्ट्रीय शर्म का नाम दिया था। सवाल उठता है कि एक देश के लिये “राष्ट्रीय शर्म” क्या होनी चाहिये? राष्ट्रीय शर्म के क्या मायने हैं? क्या इस परिभाषा के अनुसार पूरे देश को शर्म आना चाहिये, शर्म से डूब मरना चाहिये या शर्म के मारे सुधर जाना चाहिये, पश्चाताप करना चाहिये या माफ़ी माँगना चाहिये? जब राष्ट्रीय शर्म घोषित हुई है तो देश का कुछ तो फ़र्ज़ बनता ही है, जैसे कि राष्ट्रीय आपदा के दौरान हर देशवासी का फ़र्ज़ बनता है कि वह कुछ न कुछ आर्थिक सहयोग करे, उसी प्रकार देशवासी किसी राष्ट्रीय शर्म पर कम से कम मुँह लटका कर तो बैठ ही सकते हैं।

साठ साल में सिर्फ़ दो बार ही राष्ट्रीय शर्म आई? आईये अब एक लिस्ट बनाते हैं कि गुजरात और उड़ीसा के दंगों के अलावा क्या-क्या राष्ट्रीय शर्म हो सकती हैं, या होना चाहिये (लेकिन हैं नहीं)। इस सूची में आप भी अपनी तरफ़ से एक-दो शर्म डाल सकते हैं, जब शर्म की यह सूची बहुत लम्बी हो जायेगी तब इसे माननीय प्रधानमंत्री को भेजा जायेगा, इस सूची को अनुमोदन के लिये कांग्रेस और भाजपा के अन्य नेताओं को भी भेजा जायेगा और उनसे पूछा जायेगा कि इसमें से कोई मुद्दा “शर्म” की श्रेणी में आता है या नहीं? (बिलकुल निचोड़कर भेजा जायेगा साहब, क्योंकि तब तक यह लिस्ट “शर्म” से पानी-पानी होकर भीग चुकी होगी) –



1) जम्मू के तीन लाख से ज्यादा पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं, यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

2) गोधरा में कुछ हिन्दू जला दिये जाते हैं, तब किसी को शर्म नहीं आई?

3) आज़ादी के बाद 5000 से अधिक हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो चुके हैं (अधिकतर “सेकुलरों” की सरकारों में), यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

4) विश्व के कम भ्रष्ट देशों में भारत का स्थान बहुत-बहुत नीचे है और इसकी छवि एक “बिकाऊ लोगों वाले देश” के रूप में है, यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

5) पिछले दस वर्षों में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं, यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

6) 525 सांसदों में से दो तिहाई पर चोरी, हत्या, बलात्कार, लूटपाट और धोखाधड़ी के आरोप हैं, ये शर्म है या गर्व?

7) मुफ़्ती मुहम्मद और हज़रत बल के दबाव में आतंकवादी छोड़े जाते हैं, कंधार प्रकरण में घुटने टेकते हुए चार आतंकवादियों को छोड़ा गया, शर्म आती है या नहीं?

8) देश की 40 प्रतिशत से अधिक जनता गरीबी की रेखा के नीचे है, यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

9) भारत नाम की “धर्मशाला” में लाखों लोग अवैध रूप से रह रहे हैं, यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

10) सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद शाहबानो केस बदला, दिल्ली में अतिक्रमणकारियों को शह दी गई, जस्टिस रामास्वामी को बचाने के लिये सारे भ्रष्ट एक सुर में बोले थे, अफ़ज़ल गुरु, अबू सलेम, तेलगी सब मजे कर रहे हैं, कभी शर्म आई थी कि नहीं?

11) देश के करोड़ों बच्चों को दोनों समय का भोजन नहीं मिलता है, यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

12) करोड़ों लोगों को प्राथमिक चिकित्सा तक उपलब्ध नहीं है, यह राष्ट्रीय शर्म है या नहीं?

मनमोहन जी, माना कि अपने “बॉस” को खुश करने के लिये ईसाईयों पर हमले को आपने “राष्ट्रीय शर्म” बता दिया, लेकिन ज़रा कभी इस “शर्म की लिस्ट” पर भी एक निगाह डाल लीजियेगा…

तो ब्लॉगर बन्धुओं, अब क्या सब कुछ मैं ही लिखूंगा? कभी तो कोई पोस्ट “छटाँक” भर की लिखने दो यार… चलो अपनी-अपनी तरफ़ से “एक-एक बाल्टी शर्म” इस लिस्ट में डालो और “आज तक की सबसे ज़्यादा सेकुलर सरकार” (जी हाँ, क्या कहा विश्वास नहीं होता? अरे भाई, राष्ट्रपति हिन्दू, उपराष्ट्रपति मुस्लिम, प्रधानमंत्री सिख और इन सबका बॉस "ईसाई", है ना महानतम सेकुलर) को भेजने का बन्दोबस्त करो…

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Secularism, Jammu Agitation & Kandhamal
इस देश में एक परम्परा स्थापित होती जा रही है कि यदि आप हिन्दू हैं और अपने धर्म के प्रति समर्पित हैं और उसकी रक्षा के लिये कुछ भी करते हैं तो आप “हिन्दू राष्ट्रवादी” कहलायेंगे, जिनकी तुलना “नाजियों” से की जायेगी, और यदि आप हिन्दू हैं और गला फ़ाड़-फ़ाड़कर हिन्दुत्व और हिन्दुओं के खिलाफ़ चिल्लायेंगे तो आप “महान सेकुलर” कहलायेंगे, यही बीते साठ सालों की भारत की राजनीतिक विडम्बना है, जो अब धीरे-धीरे वर्ग-संघर्ष का रूप लेती जा रही है। “सेकुलर” लोग जब RSS और उसके संगठनों की ओर एक उंगली उठाते हैं तो उनकी तरफ़ चार उंगलियाँ स्वयमेव उठ जाती हैं और ये चार उंगलियाँ स्वतन्त्रता के साठ वर्षों में की गई अनगिनत भूलों की गवाही होती हैं। खुद की गिरेबान में झाँकने की बजाय, “सेकुलरिज़्म” का बाना ओढ़े हुए ये “देशद्रोही” हर घटना के लिये RSS को जिम्मेदार ठहराकर मुक्त होना चाहते हैं। लेकिन यह ढोंग अब ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है, इन “सेकुलरों” की पोल खुलने लगी है।

ताज़ा मामला है उड़ीसा में कंधमाल जिले का, जहाँ हिंसा हुई है, कुछ लोग मारे गये हैं और कई घायल हुए हैं। घटना की जड़ में है 83 वर्षीय स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की कायरतापूर्ण हत्या। स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती उड़ीसा के जंगलों में आदिवासियों के बीच 1967 से लगातार काम कर रहे थे। स्वामीजी ने कई स्कूल, अस्पताल और मन्दिर बनवाये हैं, जो आदिवासियों के बीच शिक्षा का प्रसार करने में लगे हैं। सेकुलरों को खासतौर पर यह बताने की आवश्यकता है कि आज जो कंधमाल की स्थिति है वह रातोंरात नहीं बन गई। 23 दिसम्बर 2007 को इसकी शुरुआत की गई थी, जब ब्रहमनीगाँव में ईसाईयों ने गाँव में स्थित मन्दिर के सामने ही चर्च का एक गेट बनाने की कोशिश की। वहाँ के स्थानीय निवासियों और हिन्दुओं ने इस बात का विरोध किया क्योंकि चर्च का एक गेट पहले से ही मौजूद था, जो कि मन्दिर से दूर था, लेकिन फ़िर भी जबरन वहाँ एक गेट बना ही दिया गया, जिसके बाद ईसाई-हिन्दू संघर्ष की शुरुआत हुई, चूँकि उस गाँव में ईसाईयों की संख्या ज्यादा है, अतः हिन्दुओं को बलपूर्वक दबा दिया गया। जब लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी उस गाँव में पहुँचे तो उनकी कार पर भी हिंसक ईसाईयों द्वारा हमला किया गया जिसमें उनके दो सहायक गम्भीर रूप से घायल हुए थे (यानी कि यह घटना लगभग आठ माह पुरानी है)। स्वामीजी उस समूचे इलाके में श्रद्धा और आदर के केन्द्र हैं, उनके हजारों समर्थकों से ईसाईयों के झगड़े शुरु हो गये। कई लोग इन झगड़ों में घायल हुए, कई मकान जलाये गये और सम्पत्ति को नुकसान पहुँचा। यहाँ तक तो स्थिति नियन्त्रण में थी, लेकिन जब ब्रहमनीगाँव, झिंझिरीगुड़ा, कटिंगिया, और गोदापुर इलाकों में हुए हमलों के आरोपियों की धरपकड़ की गई तो उसमें से अधिकतर नक्सली और माओवादी उग्रवादी थे, जिनका घनिष्ठ सम्बन्ध चर्च से था। इन उग्रवादियों से 20 रायफ़लें और अन्य घातक हथियार बरामद किये गये। यह सब बढ़ते-बढ़ते आखिर इसका अन्त बुजुर्ग स्वामी जी की हत्या में हुआ, क्योंकि माओवादियों और ईसाईयों की आँखों में खटकने वाले और उनके धर्मान्तरण के रास्ते में आने वाले वही एकमात्र व्यक्ति थे। “सेकुलरवादी” वहाँ चल रहे घटनाक्रम को अल्पसंख्यकों पर हमला बता रहे हैं, लेकिन स्वामी जी की हत्या के बारे में एक भी शब्द नहीं बोलते, यह है उनका दोगलापन।




उड़ीसा के गरीब/आदिवासी जिले हों, या मध्यप्रदेश का झाबुआ/धार जिले या गुजरात का डांग… सभी जगह लगभग एक ही घटनाक्रम होता है। पहले दूरदराज के आदिवासी इलाकों में एक छोटा सा चर्च खुलता है (ज़ाहिर है कि समाजसेवा के नाम पर), फ़िर एक स्कूल, एक अस्पताल और छोटी-मोटी संस्थायें। अगला कदम होता है गरीब और अनपढ़ लोगों के “ब्रेनवॉश” का, उन्हें धीरे-धीरे बरगलाने का और उनकी झोंपड़ियों में क्रॉस और यीशु की तस्वीरें लगवाने का, फ़िर मौका पाते ही धन का लालच देकर धर्मान्तरण करवाने का। यदि जनसंख्या के आँकड़े उठाकर देख लिये जायें तो पता चलेगा कि नागालैण्ड, मिजोरम जैसे प्रदेशों में इसी नीति के तहत धीरे-धीरे ईसाईयों की संख्या बढ़ाई गई, और अब जब वे बहुसंख्यक हो गये हैं तो हिन्दुओं को वहाँ से भगाने का काम शुरु हो गया है, यह तो हिन्दू ही है जो बहुसंख्यक होने के कारंण भारत में (और अल्पसंख्यक होने के कारण बांग्लादेश, पाकिस्तान, मलेशिया, फ़िजी आदि में) जूते खाता रहता है – Courtsey Congress। और सब हो चुकने के बाद “सेकुलर” मीडिया को सबसे आखिर में सारी गलती हिन्दूवादी संगठनों की ही दिखाई देती है।

हरेक घटना का ठीकरा संघ के माथे पर फ़ोड़ना “सेकुलरों” का प्रिय शगल बन गया है, उन घटनाओं के पीछे के इतिहास, प्रमुख घटनायें, यह सब क्यों हुआ? आदि पर मीडिया ध्यान नहीं देता है और सेकुलर उसे ध्यान देने भी नहीं देते, बस गला फ़ाड़कर हिन्दूवादियों के विरुद्ध चिल्लाने लगते हैं, लिखने लगते हैं, बकवास करने लगते हैं… जानबूझकर आधी-अधूरी जानकारी दी जाती है, ताकि जनता भ्रमित हो और संघ के खिलाफ़ एक माहौल तैयार किया जा सके, यही सब पिछले साठ साल से सुनियोजित ढंग से हो रहा है। जिन्होंने संघ को जाना नहीं, समझा नहीं, करीब से देखा तक नहीं, वे भी उसकी आलोचना में जुट जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता है कि झाबुआ और धार जैसे इलाकों में आदिवासियों से शराब छुड़वाने का महती काम संघ ने काफ़ी सफ़लतापूर्वक किया, उन्हें यह भी पता नहीं होता कि किसी भी राष्ट्रीय आपदा या बड़ी दुर्घटना के समय सबसे पहले संघ के कार्यकर्ता वहाँ पहुँचते हैं, न ही इस बात पर कभी विचार किया जाता है कि संघ के बौद्धिक या किसी अन्य कार्यक्रम में ब्राह्मण-दलित-ठाकुर एक साथ एक पंगत में बैठकर भोजन करते हैं, बड़े कार्यक्रमों में मंच पर नेताओं के लिये जगह नहीं होती, आडवाणी जैसे नेता तक ज़मीन पर बैठे देखे जा सकते हैं, पथ संचलन जैसे विशाल कार्यक्रमों के लिये भी प्रशासन की मदद नहीं के बराबर ली जाती है, हजारों कार्यकर्ताओं का भोजन घर-घर से व्यक्तिगत रूप से जुटा लिया जाता है… कभी विचार किया है कि आखिर ऐसा क्या आकर्षण है, वह कौन सी विचारधारा है जिसके कारण व्यक्ति आजीवन संघ से बँधा हुआ रहता है, यहाँ तक कि अविवाहित रहते हुए, घर-परिवार को छोड़कर कार्यकर्ता सुदूर गाँवों में जाते हैं, क्यों?




लेकिन यह सब समझने के लिये चाहिये होती है “दृष्टि”, जो कि “नेहरूवादी मोतियाबिन्द” के कारण आ नहीं सकती। जीवन भर सिर्फ़ अपना स्वार्थ देखने और चाटुकारिता करके परिवारवाद को बढ़ावा देने वाले लोग संघ को कभी नहीं समझ सकते, और संघ को इससे कोई शिकायत भी नहीं है, संघ को “मीडिया”(?) का सहारा लेने की भी कभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई, बल्कि संघ खुद मीडिया से दूर रहता आया है। कभी देखा है कि दशहरा पथ संचलन के अलावा संघ का कोई कार्यक्रम मीडिया में आया हो? जबकि दो कौड़ी का नेता जो पैसा देकर थोड़ी सी भीड़ जुटाता है वह “हेडलाइन” पा जाता है।

बहरहाल, यहाँ पर मसला संघ का नहीं है, बल्कि बगैर सोचे-समझे, विवाद की पृष्ठभूमि समझे-जाने बिना टिप्पणी करने, विवाद-फ़साद करने, संघ के विरुद्ध धरने-प्रदर्शन-बयानबाजी करने की “सेकुलर मानसिकता” का है। राहुल गाँधी यूँ ही नहीं अपने उड़ीसा दौरे में अचानक सुरक्षा घेरा तोड़कर आदिवासियों के इलाके में रात बिताने चले जाते हैं। हमें अक्सर बताया जाता है कि “What an IDEA Sir जी”, यानी कि जो सफ़ेद चोंगे में है वही असल में समाजसेवी है, मानवतावादी है, साक्षात ईश्वर का अवतार है और बाकी के सभी लोग शोषण और अत्याचार कर रहे हैं। सेकुलरों को पहले खुद की तरफ़ उठी हुई चारों उंगलियों का इलाज करना चाहिये, फ़िर संघ की तरफ़ उठने वाली उंगली की ज़रूरत ही नहीं रह जायेगी। संदेश साफ़ है, पहले अपनी गिरेबान में झाँको, फ़िर दूसरों को उपदेश दो, साठ साल से जो “सेकुलर” “क्रिया” चल रही है, उसकी “प्रतिक्रिया” के लिये भी तैयार रहो… लेकिन होता यह है कि लालू-मुलायम जैसे खुलेआम सिमी की तारीफ़ करने वाले लोग इनके रहनुमा बने फ़िरते हैं और “सेकुलरिस्ट” इस पर ऐतराज़ भी नहीं करते।

जल्द ही वह दिन आयेगा जब “सेकुलर” शब्द सुनते ही व्यक्ति चप्पल उतारने को झुकेगा…

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हालांकि मुझे यह तो मालूम था कि “नरेन्द्र मोदी” का नाम लेने भर से गुजरात में कई समस्यायें हल हो जाती हैं लेकिन जिस बात का सिर्फ़ अन्देशा था कि मोदी का नाम सुनने भर से कई लोगों के “पेट में मरोड़” उठने लगती है, वह आखिरकार सच हो ही गया। हिन्दी के एक वरिष्ठ और महान ब्लॉगर हैं श्री अनिल रघुराज जी। बहुत उम्दा लिखते हैं, मैं खुद इनका सब्स्क्राइबर हूँ, शोधपूर्ण और तर्कसंगत लेखों के मालिक हैं ये साहब। इन सज्जन को मेरे लिखे हुए ब्लॉग में “टैगों” (Tags का हिन्दी बहुवचन शायद यही होता होगा) के उपयोग पर अचानक आपत्ति हो गई (जबकि यह टैग मैं पिछले 6-8 महीनों से उपयोग कर रहा हूँ) और इन्होंने मेरी हँसी उड़ाते हुए व्यंग्यात्मक शैली में उस पर लेख लिख मारा। इसमें उन्होंने सवाल उठाये हैं कि आखिर मैं ब्लॉग के अन्त में इतने टैग क्यों लगाता हूँ? और “विषयान्तर” टैग क्यों लगाता हूँ? उनका पहला वाक्य है – “काफी दिनों से देख रहा हूं कि कुछ ब्लॉगर छटांक भर की पोस्ट पर किलो भर के टैग लगा देते हैं। इधर पोस्ट का आकार तो बड़ा हो गया है, लेकिन टैग का वजन अब भी उस पर भारी पड़ता है”, उन्हें मेरी पोस्टें “छटाँक” भर की दिखती है, जबकि मित्रों का कहना है कि मैं कुछ ज्यादा ही लम्बी पोस्ट लिखता हूँ (बल्कि कई बार तो मुझे 3-4 भागों में एक पोस्ट को देना पड़ता है) इस छटाँक भर “दृष्टिदोष” पर वारी जाऊँ। फ़िर तुरन्त रघुराज जी अपने असली “दर्द” पर आ जाते हैं, व्यंग्य कसते हुए कहते हैं, “सुरेश जी झन्नाटेदार अंदाज़ में लिखते हैं, जैसे अभी कोई धमाका कर देंगे। उनकी राष्ट्रभक्ति पर उंगली उठाना पूर्णमासी के चांद में दाग खोजने जैसा है। सेकुलर बुद्धिजीवियों पर तो ऐसे उबलते हैं कि वश चलता तो सबको सूली पर लटका देते या बंगाल की खाड़ी में फेंकवा देते…”। यह है इनका असली दर्द, “टैग-वैग” वाली बात तो मुलम्मा भर था, जिसे हम “कलई” कहते हैं, जैसे कि एक पैकेट जिसमें रखकर पत्थर मारा जाये तो सामने वाले को पता न चले। टैग की आपत्ति इन्होंने यहीं पर खत्म कर दी और असली मुद्दे पर आ गये, यानी कि जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया, जी हाँ “नरेन्द्र मोदी”।

लेकिन पहले वाली बात पहले की जाये (यानी कि जो कलई है, उसकी)। समझ में नहीं आया कि मेरे ज्यादा टैग लगाने से रघुराज जी को क्या आपत्ति है? क्या मैंने किसी पाठक से कहा है कि पूरी पोस्ट “टैग सहित” पढ़ो, वरना गोली मार दूंगा? ये तो कुछ ऐसा ही हुआ कि पूरा अखबार पढ़ने के बाद व्यक्ति कहे कि आखिरी पेज पर बीड़ी का विज्ञापन क्यों छापा? लोग अखबार पढ़ने आते हैं या बीड़ी खरीदने… उन्हीं का तर्क है कि “इनका मकसद अगर ज्यादा से ज्यादा पाठक खींचना है तो मान लीजिए कोई Hindi Typing on Computers सर्च करके मोदी वाली पोस्ट पर आ जाए तो क्या यह उसके साथ धोखाधड़ी नहीं है?” भाई रघुराज जी, यदि टैग लगाने से पाठक नहीं आते हैं तो भी आपको तकलीफ़ है? फ़िर लगे ही रहने दीजिये, मत आने दीजिये मेरे चिठ्ठे पर पाठकों को… आप इतने बारीक टैग पढ़कर अपनी आँखें क्यों खराब करते हैं? और यदि टैग लगे हों और इस बहाने से कोई पाठक खोजता हुआ हिन्दी ब्लॉग पर आ जाये तो भी आपको आपत्ति है? यानी चित भी मेरी पट भी मेरी? “धोखाधड़ी” शब्द का जवाब यह है कि, इसमें कुछ भी गलत नहीं है, मेरा ब्लॉग सभी विषयों पर केन्द्रित होता है, मैं विभिन्न विषयों पर लिखता हूँ, ऐसे में यदि “गलती से ही सही” किसी टैग से सर्च करके कोई अंग्रेजी पाठक मेरे हिन्दी चिठ्ठे पर आता है तो क्या इससे हिन्दी ब्लॉग जगत का नुकसान हो जायेगा? अपने चिठ्ठे की रैंकिंग बढ़ाने के लिये न तो कभी मैंने “सेक्स” नाम का टैग लगाया, न ही “एंजेलीना जोली” नाम का, फ़िर क्या दुःख है भाई? रघुराज जी यहीं नहीं थमे, अपनी बात को वज़नदार बनाने के चक्कर में बेचारे “दीपक भारतदीप” जी की एक-दो पोस्ट को मेरे साथ लपेट ले गये। दीपक जी एक बेहद सीधे-सादे इंसान हैं, रहीम, कबीर, चाणक्य आदि पर ज्ञानवर्धक लेख लिखते हैं, किसी के लेने-देने में नहीं रहते, न किसी से खामख्वाह उलझते हैं। उन दीपक जी को भी नसीहत देते हुए रघुराज जी उनके अंग्रेजी हिज्जों पर पिल पड़े (कि स्पेलिंग गलत है)। जबकि मेरे हिसाब से अंग्रेजी में यदि कोई गलती है भी तो उसे नज़र-अन्दाज़ किया जाना चाहिये, क्योंकि वह हिन्दी ब्लॉगरों की भाषा ही नहीं है, लेकिन यदि बाल की खाल न निकाली तो फ़िर महान पत्रकार कैसे कहलायेंगे?

सीधी तरह तर्कों से बताओ कि ज्यादा “टैग” लगाने से क्या-क्या नुकसान हैं? कितने पाठक हैं जो लेख के साथ “टैग” भी पढ़ते हैं और उसके कारण उकता जाते हैं? यदि ज्यादा टैग लगायें तो क्या तूफ़ान आ गया और यदि कम टैग लगाऊँ तो क्या कहर बरपा होगा? (जवाब का इंतजार रहेगा) तो ये तो थी मुलम्मे वाली (यानी कलई, यानी नकली) बात, अब आते हैं उनके असली दर्द पर…

पहले व्यंग्यात्मक शैली में मेरी हँसी उड़ाने के बाद इन्होंने नरेन्द्र मोदी को घसीटने की कोशिश की, और उनका असली दर्द खुलकर सामने आ गया। नरेन्द्र मोदी, भाजपा या संघ की किसी भी तरह की तारीफ़ से दिल्ली/मुम्बई में बैठे कई लोगों को “पेचिश” हो जाती है, वे उस तारीफ़ करने वाले की आलोचना के बहाने ढूँढते हैं, और चूँकि ज़ाहिरा तौर पर वे “सेकुलर”(?) होते हैं इसलिये सीधे तर्कों में बात नहीं करते। ये बात वे खुद जानते हैं कि जैसे ही वे सेकुलर शब्द का उल्लेख भर करेंगे, शाहबानो केस का भूत उनका गला पकड़ लेगा, जैसे ही सेकुलर भजन शुरु किया जायेगा, कांग्रेस के 40 साला राज में हुए सैकड़ों हिन्दू-मुस्लिम दंगे एक साथ कोरस में उनका साथ देने लग जायेंगे, जैसे ही वे “फ़िलीस्तीन” नाम का मंझीरा बजायेंगे, जम्मू के विस्थापित हिन्दू उनके कपड़े उतारने को बेताब हो जायेंगे… सिलसिला अन्तहीन है, इसलिये ये लोग एक “गैंग” बनाकर अपरोक्ष रूप से हमला करते हैं, कुछ लोग पहले ईमेल भेजकर गरियाते हैं, फ़िर एकाध सेकुलर लेखक इस अदा में पोस्ट पटकता है कि “हम ही श्रेष्ठ हैं, बाकी के सब कीड़े-मकोड़े हैं…”।

अक्सर नसीहत दी जाती है कि ब्लॉग का कंटेण्ट (सामग्री) महत्वपूर्ण होता है और वही ब्लॉग आगे ज़िन्दा रहेगा, और मुझे लगता है कि डेढ़ साल में 250 से अधिक एकल ब्लॉग लिखने, 80-85 सब्स्क्राइबर होने और 34,000 से ज्यादा हिट्स आने के बाद, ब्लॉग में कण्टेण्ट सम्बन्धी किसी सेकुलर सर्टिफ़िकेट की मुझे आवश्यकता नहीं है। सांप्रदायिकता का मतलब भी मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सफ़दर नागौरी भी उज्जैन का है और सोहराबुद्दीन भी था। मैं एक आम लेखक हूँ, जो दिल से लिखता है दिमाग से नहीं। मुझे दिल्ली/मुम्बई में पत्रकारिता में कैरियर नहीं बनाना है जो मैं किसी की चमचागिरी करता फ़िरूँ, और कौन नहीं जानता कि ये तथाकथित पत्रकार किस मिट्टी के बने होते हैं। कुछ पत्रकार आरुषि हत्याकांड की “क्लिप” दिखा-दिखाकर चैनल की टीआरपी बढ़ने पर शैम्पेन की पार्टी देते हैं, तो कुछ चापलूसी में इतने गिर जाते हैं कि अपने ज़मीर का सौदा कुछेक हज़ार रुपये में कर डालते हैं। एक साहब तो विदेशी बाला से शादी रचाने के फ़ेर में अपनी देसी बीवी को जलाकर मार चुके हैं, अस्तु।

यह बात मैं पहले भी कह चुका हूँ कि मैं “नेटवर्क” बनाने के मामले में एकदम असफ़ल हूँ, मैंने अपने ब्लॉग पर कोई ब्लॉग-रोल नहीं लगाया हुआ है, ज़ाहिर है कि मेरा चिठ्ठा भी बहुत कम लोगों के ब्लॉग रोल में मौजूद है, मैं खामख्वाह की टिप्पणियाँ भी कम ही कर पाता हूँ, इतनी सारी पोस्ट लिखने के बावजूद चिठ्ठाचर्चा में मेरे चिठ्ठे की चर्चा कभी भूले-भटके ही होती है, न मुझे ऐसी “फ़ोरम” पता हैं जहाँ से अपने चिठ्ठे का प्रचार किया जाता है, लेकिन मुझे सिर्फ़ लिखने से मतलब है, कौन पढ़ता है, कौन नहीं पढ़ता, कितनी टिप्पणियाँ आती हैं, इससे कोई मतलब नहीं। यदि मुझे हिट्स का मोह होता तो मैं दिन भर सिर्फ़ टिप्पणियाँ ही करता या लम्बा-चौड़ा ब्लॉग रोल बनाता (जिससे की एक-दूसरे की पीठ खुजाने की शैली में मेरा चिठ्ठा भी कई लोग अपने ब्लॉग रोल में लगाते) और बड़े पत्रकारों की चमचागिरी करता रहता, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, मैं “नेटवर्क” बनाने में कमज़ोर हूँ। हाँ… मेरे ब्लॉग पर सभी तरह का माल मिलेगा, “टैग” भी और विज्ञापन भी (मैं कोई संत-महात्मा नहीं हूँ जिसे ब्लॉग से कमाई बुरी लगे)। मैं ब्लॉग जगत में आया ही इसलिये हूँ कि मुझे किसी घटिया से सम्पादक की चिरौरी न करना पड़े, क्योंकि मेरे लेख छापने की ताब शायद ही किसी अखबार में हो।

इस “छटाँक भर” लेख का लब्बेलुआब ये है कि रघुराज जी का यह “टैग” वाला लेख सरासर एक बहाना था, कुछ “स्वयंभू” बड़े पत्रकारों को मेरे पिछले कुछ लेख चुभ गये हैं खासकर “सेकुलर बुद्धिजीवी…”, “धर्मनिरपेक्षों को नंगा करने के लिये जम्मूवासी…” और “राष्ट्रीय स्वाभिमान…” वाला, इससे वे तिलमिला गये हैं, लेकिन मैं इसमें क्या कर सकता हूँ? मैं तो खुल्लमखुल्ला कहता हूँ कि मैं इसी प्रयास में हूँ कि “सेकुलर” शब्द को एक गाली बना दूँ, कोई छिपाने वाली बात नहीं है। कान का मैल निकालकर साफ़-साफ़ सुनें… मैं पीठ पीछे से हमला नहीं करता, मुझे मखमल के कपड़े में लपेट कर जूता मारना नहीं आता, हम तो पानी में जूता भिगो-भिगोकर मारने वालों में से हैं। मैं हर प्रकार के और किसी भी भाषा शैली के ईमेल और लेख से निपटने में सक्षम हूँ (बल्कि यदि कुछ व्यक्तिगत ईमेल सार्वजनिक कर दूँ तो कईयों की पोल खुल जायेगी, लेकिन वह मेरी नीति के खिलाफ़ है)। जब मैं किसी से नहीं उलझता तो कोई मुझसे खामख्वाह न उलझे, बात करनी हो तो तर्कों के साथ और मुद्दे पर करे, “अ-मुद्दे” को मुद्दा बनाकर नहीं। आशा है कि दीपक भारतदीप जी भी इन सभी बिन्दुओं से सहमत होंगे। दीपक जी पहले भी एक पोस्ट में कह चुके हैं कि महानगरों में रहने वाले कुछ ब्लॉगर अपने-आपको ज़मीन से दो इंच ऊपर समझते हैं और कस्बों और छोटे शहरों से आने वाले ब्लॉगरों को अपने तरीके से हांकने की कोशिश करते हैं या नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं (श्री रवि रतलामी जी अपवाद हैं, क्योंकि उनका काम बोलता है) और इस कोशिश में “पत्रकार नाम की बिरादरी” ज्यादा बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है, आशा है कि इस छटांक भर लेख में शामिल विभिन्न बिन्दुओं पर बहस के काफ़ी मुद्दे मिलेंगे और कईयों के दिमाग के जाले साफ़ होंगे।

अब अन्त में कुछ शब्द मेरे उन सब्स्क्राइबरों के लिये जो यह सोच रहे होंगे कि आखिर यह लेख क्या बला है? क्योंकि मेरे 90% सब्स्क्राईबर, ब्लॉग जगत से नावाकिफ़ हैं और वे नहीं जानते कि हिन्दी ब्लॉग-जगत में यह सब तो चलता ही रहता है। कृपया मेरे ऐसे पाठक इस लेख को “इग्नोर” करें, यह समझें कि गलती से यह लेख उनके मेल-बॉक्स में आ गया है…

अब इस पोस्ट के साथ “पचास ग्राम के टैग” भी नहीं लगाता और देखता हूँ कि इससे ट्रैफ़िक पर कोई असर पड़ता है या नहीं। तो ब्लॉगर बन्धुओं, अब इस “छटाँक” भर की पोस्ट पर किलो भर की टिप्पणियाँ मत कर दीजियेगा। आप इसे बुरा सपना मानकर भूल जाइये, क्योंकि बुरे सपने बार-बार आना अच्छी बात नहीं है…
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Growing Economy of India & Youths
इतिहास में पहली बार हमें ओलम्पिक में दो-चार पदक मिले हैं, जिसमें एक स्वर्ण भी है। निश्चित ही इस उपलब्धि पर समूचे देश को गर्व है। स्वर्ण पदक भले ही अभिनव बिन्द्रा ने अपने एकल प्रयासों से और पिता द्वारा हासिल आर्थिक सम्पन्नता के कारण हासिल किया हो, लेकिन कुश्ती के वीर सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेन्दर पूर्णतः मध्यमवर्ग से आते हैं, इन्होंने बहुत आर्थिक संघर्षों के बाद यह मुकाम हासिल किया है। यह मात्र संयोग नहीं है कि जिन खेलों में भारत को पदक मिले हैं वह खेल आक्रामकता और एकाग्रता का सम्मिश्रण हैं।

भारत को स्वर्ण मिलते ही पाकिस्तान के एक नेता ने कहा भी था कि “भारत में निशानेबाजी जैसा आक्रामक खेल जानबूझकर सिखाया जा रहा है और भारत आक्रामक है ही…” ज़ाहिर है इस बयान को हँसी में उड़ा दिया जाना चाहिये। यह बयान एक कुंठित पाकिस्तानी का है, जिसका देश साथ में आज़ाद होने के बावजूद भारत से बहुत-बहुत पीछे रह गया है (हरेक मामले में)। पाकिस्तानियों का यह बयान उनकी धर्म-आधारित व्यवस्था के मद्देनज़र आया हो सकता है, जिसके कारण वे लोग कभी तरक्की नहीं कर पाये, लेकिन भारत की निगाह से देखें तो यह मात्र संयोग नहीं है। निशानेबाजी, कुश्ती और मुक्केबाजी तीनों खेल आक्रामकता, जीतने का जज़्बा और एकाग्रता मांगते हैं, और भारत का आज का युवा इन तीनों का मिश्रण बनकर उभर रहा है। निकम्मे, कामचोर और भ्रष्ट खेल अधिकारियों के बावजूद खिलाड़ी आगे आ रहे हैं। खुली अर्थव्यवस्था के कारण आज के युवा के पास अधिक मौके उपलब्ध हैं, वह धीरे-धीरे पिछली सदी की मानसिकता से बाहर निकल रहा है, सूचना क्रांति के कारण इस युवा को बरगलाना इतना आसान नहीं है। लेकिन साथ ही साथ यह युवा अब “जीत” को लेकर आक्रामक हो चला है, और यह एक शुभ संकेत है, और जब मैं “युवा” कह रहा हूँ, इसका मतलब सिर्फ़ शहरी या महानगरीय युवा नहीं होता, छोटे-छोटे कस्बों और नगरों से आत्मविश्वास से लबरेज़ युवक सामने आ रहे हैं, वे आँख में आँख मिलाकर बात करते हैं और हिन्दी बोलने में झेंपते नहीं हैं, उन्हें अब अन्याय और शोषण पसन्द नहीं है और वे सिर्फ़ और सिर्फ़ जीत चाहते हैं। क्या यह बदलाव तेजी से बदलते भारत का प्रतीक है? क्या अब हम “उड़ान” भरने को पूरी तरह तैयार हैं? मेरा जवाब होगा “हाँ”…। इस उभरते हुए “युवा विस्फ़ोट” को अब सही दिशा देने की ज़रूरत है, देश को सख्त आवश्यकता है एक युवा और ऊर्जावान नेतृत्व की, जो वर्तमान में कुर्सी पर काबिज “थकेले” नेताओं की जगह ले सके। ऐसे नेताओं से निज़ात पाने का वक्त आ चुका है जो कब्र में पैर लटकाये बैठे हैं लेकिन कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं हैं। ऐसे नेताओं को धकियाना होगा जो त्वरित निर्णय तक नहीं ले पाते और सोच-विचार में ही समय गुज़ार देते हैं, भले ही समय उन्हें पीछे छोड़कर आगे निकल चुका हो। विश्व के दूसरे नेताओं, उनकी फ़िटनेस, उनकी देशभक्ति की नीतियों (यानी मेरे देश को जिस बात से फ़ायदा हो वही सही है) को देखकर कई बार शर्म आती है, कि क्या “सिस्टम” बनाया है हमने!! देश की आबादी में 55% से अधिक संख्या 22-40 आयु वर्ग की है, और उन पर राज कर रहे हैं 75-80 वर्षीय नेता जो अपनी बूर्जुआ नीतियों को अभी भी ठीक मानते हैं। वही सड़े-गले नेता, वही एक परिवार, सदियों से चला आ रहा भ्रष्टाचार, नेताओं को अपने इशारे पर नचाती नौकरशाही, थके हुए कामचोर सरकारी कर्मचारी, सब कुछ बदलने की आवश्यकता है अब…



देश के युवक अपने बूते पर सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में दुनिया पर परचम लहराये हुए हैं, IIT/IIM एक ब्राण्ड नेम बन चुका है, क्रिकेट में 20-20 विश्वकप जीता जा चुका है, कुश्ती और मुक्केबाजी में पदक भी आ चुका है, लेकिन हमारे भ्रष्ट नेता और मनमौजी अफ़सरशाह अभी भी सुधरने को तैयार नहीं हैं। हमारा युवा पिछड़ेपन को “जोर लगाकर पटकना” चाहता है, वह भ्रष्टाचार पर “मुक्कों” की बरसात करना चाहता है, उसका “निशाना” आर्थिक विकास पर सधा हुआ है, बस उसे ज़रूरत है एक सही युवा नेता की, जिसमें काम करने का अनुभव हो, दृष्टि खुली हुई हो, “भारत का हित” उसके लिये सर्वोपरि हो, जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो, परिवारवाद से मुक्त हो, जो देश के गद्दारों को ठिकाने लगा सके, जो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर “नये भारत की नई दहाड़” दिखा सके (बकरी की तरह मिमियाता न हो), जो चीन को आँख दिखा सके, जो बांग्लादेश को लतिया सके, जो पाकिस्तान को उसकी सही औकात दिखा सके, जो नई सदी में (जिसके 8 साल तो निकल चुके) भारत को सच्चे अर्थों में “महाशक्ति” बना सके… है कोई आपकी निगाह में?

और हाँ… खबरदार जो नरेन्द्र मोदी का नाम लिया तो… (हा हा हा हा हा………)


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Secular Intellectuals Terrorism & Nation
हाल ही में यासीन मलिक द्वारा एक ब्लॉग शुरु किया गया है जिस पर वह नियमित रूप से लिखा करेगा, कोई बात नहीं…ब्लॉग लिखना हरेक का व्यक्तिगत मामला है और हर व्यक्ति कुछ भी लिखने को स्वतन्त्र है (कम से कम ऐसा “भारतीय” लोग तो मानते हैं)। यासीन मलिक कौन हैं और इन्हें भारत से कितना प्रेम है या भारत के प्रति इनके विचार कितने “महान” हैं यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है। समस्या शुरु होती है ऐसे “महान व्यक्ति”(?) के ब्लॉग को प्रचारित करने की कोशिश से और भारत में ही रहने वाले कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा इसका प्रचार करने से। यह भी पता चला है कि यासीन मलिक जैसों को एक “प्लेटफ़ॉर्म” प्रदान करने की यह एक सोची-समझी चाल है, और जिन प्रसिद्ध(?) व्यक्तियों को हिन्दी में ब्लॉग लिखने में दिक्कत हो उसे “भाड़े के टट्टू” भी प्रदान किये जायेंगे। इस सेवा के ज़रिये ये “जयचन्द” अपना आर्थिक उल्लू तो सीधा करेंगे ही, किसी पुरस्कार की जुगाड़ में भी लगे हों तो कोई बड़ी बात नहीं। असल में भारत में पैदा होने वाली यह “सेकुलर बुद्धिजीवी” नाम की “खरपतवार” अपने कुछ मानवाधिकारवादी “गुर्गों” के साथ मिलकर एक “गैंग” बनाती हैं, फ़िर “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” (यानी चाहे विचारधारा भारत विरोधी हो या किसी को खुल्लमखुल्ला गरियाना हो, या देवी-देवताओं के नंगे चित्र बनाने हों) के नाम पर एक विलाप-प्रलाप शुरु किया जाता है, जिसकी परिणति किसी सरकारी पुरस्कार या किसी NGO की मानद सदस्यता अथवा किसी बड़े विदेशी चन्दे के रूप में होती है।

इन मानवाधिकारवादियों का चेहरा कई बार बेनकाब हो चुका है, लेकिन “शर्म हमको आती नहीं” वाली मानसिकता लेकर ये लोग डटे रहते हैं। संसद पर हमले को लेकर सारा देश सन्न है, उद्वेलित होता है, देश की सर्वोच्च न्यायालय अफ़ज़ल गुरु नाम के आतंकवादी को फ़ाँसी की सजा सुना चुकी है, देश आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है कि कब उसका नाश हो, लेकिन नहीं साहब… भारत में यह इतना आसान नहीं है। फ़ाँसी की सजा को “अमानवीय” बताते हुए “सेकुलरिस्ट” और मानवाधिकारवादी (Human Right Activitsts) एक सोचा-समझा मीडिया अभियान चलाते हैं ताकि उस आतंकवादी की जान बचाई जा सके। चूंकि मीडिया में भी इन लोगों के “पिठ्ठू” बैठे होते हैं सो वे इन “महान विचारों” को हाथोंहाथ लेते हैं, और महात्मा गाँधी को “पोस्टर बॉय” बनाकर रख देने वाली कांग्रेस, तो तैयार ही बैठी होती है कि ऐसी कोई “देशप्रेमी” माँग आये और वह उस पर तत्काल विचार करे। इन सेकुलर बुद्धिजीवियों ने कई ख्यात(?) लोगों को अपने साथ मिला लिया है, कुछ को बरगलाकर, कुछ को झूठी कहानियाँ सुनाकर, तो कुछ को विभिन्न पुरस्कारों और चन्दे का “लालच” देकर। सबसे पहला नाम है मेगसायसाय पुरस्कार विजेता संदीप पांडे का, बहुत महान व्यक्ति हैं ये साहब… ये गाँधीवादी हैं, ये शांति के पक्षधर हैं, ये भारत-अमेरिका परमाणु करार के विरोध में हैं… ये सज्जन उन सभाओं में भी भाषण देते फ़िरते हैं जहाँ आम आदमियों और सरकारी कर्मचारियों का कत्ल करने वाले नक्सली संगठनों का सम्मान किया जाता है, मतलब ये कि “बहुत बड़े आदमी” हैं। पांडे जी को गुजरात में हुई हिंसा से बेहद दुख हुआ, लेकिन अपने ही देश में विस्थापित किये गये 3.50 लाख कश्मीरी पंडितों के लिये इनके पास एक भी सहानुभूति भरा शब्द नहीं है, उलटा अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी को रोकने की दलील देकर ये एक तरह से कश्मीर के आतंकवादियों की मदद ही करते हैं। एक खाँटी कम्युनिस्ट की तरह इन्हें भी “राष्ट्रवाद” शब्द से परहेज है। “आशा” और “एड” नाम के दो संगठन ये चलाते हैं, जिन पर यदा-कदा अमेरिका से भारी पैसा लेने के आरोप लगते रहते हैं।



एक और महान हस्ती हैं बुकर पुरस्कार प्राप्त “अरुन्धती रॉय”… गुजरात के दंगों पर झूठ लिख-लिखकर इन्हें कई बार वाहवाही मिली। अरुन्धती रॉय भारत को कश्मीर में आक्रांता और घुसपैठिया मानती हैं। अपनी अंतरराष्ट्रीय सभाओं और भाषणों में ये अक्सर भारत को उत्तर-पूर्व में भी जबरन घुसा हुआ बताती हैं। अरुन्धती रॉय जी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर SAR गिलानी (संसद हमले के एक आरोपी) की भी काफ़ी पैरवी की थी, जिन्होंने खुल्लमखुल्ला टीवी पर कहा था कि “मैं कश्मीर आंदोलन के लिये अपना संघर्ष जारी रखूंगा…”। ऐसा बताया जाता है कि अपनी ईसाई परवरिश पर गर्व करने वाली यह मोहतरमा विभिन्न चर्चों से भारी राशि लेती रहती हैं। इनके महान विचार में “भारत कभी भी एक देश नहीं था, न है, भारत तो विभिन्न समूहों का एक संकुल भर है, कश्मीर और समूचा उत्तर-पूर्व भारत का स्वाभाविक हिस्सा नहीं है…” (आशा है कि आप इन विचारों से गदगद हुए होंगे)। एक और महान नेत्री हैं “मेधा पाटकर”… सरदार सरोवर के विस्थापितों का आंदोलन चलाने वाली इन नेत्री को पता नहीं क्या सूझा कि अफ़ज़ल गुरु के समर्थन में दिल्ली जाकर धरने पर बैठ गईं और हस्ताक्षर अभियान में भी भाग लिया। इनके संगठन पर भी बाँध के निर्माण को रोकने या उसमें “देरी करवाने” के लिये विदेशी पैसा लेने के आरोप लगते रहते हैं। अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी इन्हें “सत्ता प्रतिष्ठान की दादागिरी” प्रतीत होती है। मेधा कहती हैं कि “केन्द्र की सेकुलर सरकार को अफ़ज़ल गुरु की दया याचिका पर निर्णय लेना चाहिये…” पता नहीं उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय में सेकुलरवाद कहाँ से आ गया? शायद वे यह कहना चाहती हैं कि उच्चतम न्यायालय साम्प्रदायिक है? एक और प्रसिद्ध(?) मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं नन्दिता हक्सर, वे कहती हैं… “हमें अभी तक अफ़ज़ल गुरु की पूरी कहानी तक मालूम नहीं है…” अब हक्सर मैडम को कौन बताये कि हम यहाँ कहानी सुनने-सुनाने नहीं बैठे हैं, और जो भी सुनना था सुप्रीम कोर्ट सुन चुका है। एक कान्फ़्रेंस में उन्होंने कहा कि बुश और नरेन्द्र मोदी को फ़ाँसी दी जाना चाहिये, क्योंकि ये लोग नरसंहार में शामिल हैं…तब शायद ये इनकी कहानी सुनने की प्रतीक्षा नहीं करना चाहतीं।

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि इन सेकुलरों, मानवाधिकारवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में से किसी एक ने भी दिल्ली, वाराणसी, अहमदाबाद, बंगलोर आदि में मारे गये मासूम लोगों की तरफ़दारी नहीं की है। इन कथित बुद्धिजीवियों की निगाह में भारत का “आम आदमी” मानव नहीं है, उसके कोई मानवाधिकार नहीं हैं, और यदि हैं भी तो तभी जब वह मुसलमान हो या ईसाई हो, ज़ोहरा शेख की बेकरी जले या ग्राहम स्टेंस को जलाया जाये, ये लोग तूफ़ान खड़ा कर देंगे, भले ही बम विस्फ़ोटों में तमाम हिन्दू गाहे-बगाहे मरते रहें, इनकी बला से। इनके अनुसार सारे मानवाधिकार या तो अपराधियों, आतंकवादियों, गुण्डों आदि के लिये हैं या फ़िर अल्पसंख्यकों का मानवाधिकार पर एकतरफ़ा कब्जा है। कश्मीर और नागालैण्ड में हिन्दुओं के कोई मानवाधिकार नहीं होते, ये बुद्धिजीवी “वन्देमातरम” और सरस्वती वन्दना का विरोध करते हैं, लेकिन मदरसों में पढ़ाया जाने वाला साहित्य इन्हें स्वीकार्य है।

इन उदाहरणों का मकसद यह नहीं है कि उपरोक्त सभी “महानुभाव” देशद्रोही हैं या कि उनकी मानसिकता भारत विरोधी है, लेकिन साफ़ तौर पर ऐसा लगता है कि ये लोग किन्हीं खास “सेकुलरों” के बहकावे में आ गये हैं। हमारे देश में ऐसे हजारों वास्तविक समाजसेवक हैं जो “मीडिया मैनेजर” नहीं हैं, वे लोग सच में समाज के कमजोर वर्गों के लिये प्राणपण से और सकारात्मक मानसिकता के साथ काम कर रहे हैं, उनके पास फ़ालतू के धरने-प्रदर्शनों में भाग लेने का समय ही नहीं है, उन लोगों को आज तक कोई पुरस्कार नहीं मिला, न ही उन्हें कोई अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से चन्दा मिलता है। जबकि दूसरी तरफ़ ये “सेकुलर” बुद्धिजीवी (Secular Intellectuals) हैं जो अपने सम्बन्धों को बेहतर “भुनाना” जानते हैं, ये मीडिया के लाड़ले हैं, जाहिर है कि इन्हें संसद पर हमले में मारे गये शहीद जवानों से ज्यादा चिन्ता इस बात की है कि अफ़ज़ल गुरु को खाना बराबर मिल रहा है या नहीं। अवार्ड, पुरस्कार, मीडिया की चकाचौंध, इंटरव्यू आदि के चक्कर में इन्हें हुसैन या तसलीमा नसरीन की बेहद चिन्ता है, लेकिन ईसाई संस्थाओं द्वारा किया जा रहा धर्मान्तरण नहीं दिखाई देता। ये लोग नाम-दाम के लिये कहीं भी धरने पर बैठ जायेंगे, हस्ताक्षर अभियान चलायेंगे, मानव श्रृंखला बनायेंगे, लेकिन सेना के जवानों का पैसा खाते हुए सचिवालय के अफ़सर इन्हें नहीं दिखाई देंगे, पेट्रोल पंप के आवंटन के लिये भटकती हुई शहीद की विधवा के लिये इनके दिल में कोई आँसू नहीं है, गोधरा हत्याकांड को ये खारिज कर देंगे। राष्ट्र का मानसिक पतन कैसे किया जाये इसमें ये लोग माहिर होते हैं। लोकतन्त्र का फ़ायदा उठाकर ये सेकुलर बुद्धिजीवी जब चाहे, जहाँ चाहे बकवास करते रहते हैं, बिना ये सोचे समझे कि वे क्या कर रहे हैं, किसका पक्ष ले रहे हैं, क्योंकि इन लोगों की “राष्ट्र” और राष्ट्रवाद की अवधारणा ही एकदम अलग है।



अहमदाबाद विस्फ़ोटों के आरोपी पकड़े गये हैं, अब इनका काम शुरु होगा। लालू जैसे चारा-चोर सिमी के पक्ष में खुलकर बोल चुके हैं, बस अब सेकुलर बुद्धिजीवियों का “कोरस-गान” चालू होगा। सबसे पहले तमाम आरोपियों के मुसलमान होने पर सवाल उठाये जायेंगे… फ़िर गुजरात पुलिस की कार्यशैली पर सवाल और उसकी दक्षता को संदेह के घेरे में लाने के प्रयास… कुछ “खास” सेकुलर चैनलों के ज़रिये अपराधियों का महिमामण्डन (जैसे दाऊद और सलेम को “ग्लोरिफ़ाई” करना), अखबारों में लेख छपवाकर (और अब तो यासीन मलिक से ब्लॉग लिखवाकर भी) भारत विरोधियों की पैरोकारी करना, मुसलमानों की गरीबी और अशिक्षा को आतंकवाद का असली कारण बताना (मानो सारे गरीब और अशिक्षित हिन्दू आतंकवादी बनने को तैयार ही बैठे हों), फ़िर फ़ाइव स्टार होटलों में प्रेस कान्फ़्रेन्स आयोजित कर मानवाधिकार की चोंचलेबाजी, आतंकवादियों की पैरवी के लिये एक ख्यात वकील भी तैयार, यानी कि सारे पैंतरे और हथकण्डे अपनाये जायेंगे, कि कैसे पुलिस को उलझाया जाये, कैसे न्याय-प्रक्रिया में देरी की जाये, कैसे मानवाधिकारों की दुहाई देकर मामले को लटकाया जाये।

क्या आपको नहीं लगता कि “सेकुलर बुद्धिजीवी” नाम के यह प्राणी आतंकवादियों की “बी” टीम के समान हैं? ये लोग आतंकवाद का “सोफ़िस्टिकेटेड” (Sofisticated) चेहरा हैं, जब आतंकवादी अपना काम करके निकल जाते हैं तब इस टीम का “असली काम” शुरु होता है। “भेड़ की खाल में छुपे हुए” सेकुलर बुद्धिजीवी बेहद खतरनाक लोग हैं, इनसे सिर्फ़ बचना ही पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि इन लोगों को बेनकाब भी करते चलें…


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Jammu Kashmir Agitation Economic Solution
जम्मू में चल रहा आंदोलन अब एक महीने से ऊपर हो चुका है। सदा की तरह हमारे “सेकुलर” मीडिया को यह आंदोलन ठीक से दिखाई नहीं दे रहा, जबकि कश्मीर में सिर्फ़ चार दिन पुराने आंदोलन में उन्हें “देश को तोड़ने का खतरा” दिखाई देने लगा। मीडिया की आंखों में छाये “मोतियाबिन्द” का यह हाल है कि उन्हें जम्मू में तिरंगा लहराते युवक और श्रीनगर में बीते 20 सालों से पाकिस्तानी झंडा लहराते युवकों में कोई फ़र्क नहीं दिखता… लानत है ऐसी बुद्धिजीवी मानसिकता पर जो “राष्ट्रवाद” और “शर्मनिरपेक्षता” में भी अन्तर नहीं कर पाती।

कश्मीर नामक बिगडैल औलाद को पालने-पोसने और उसे लाड़-प्यार करके सिर पर बैठाने के चक्कर में जम्मू और लद्दाख नाम के दो होनहार, आज्ञाकारी और “संयुक्त परिवार” के हामी दो बेटों के साथ साठ साल में जो अन्याय हुआ है, यह आंदोलन उसी का नतीजा है, इतनी आसान सी बात सत्ता में बैठे नेता-अधिकारी समझ नहीं पा रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया में यह सवाल उठाये जा रहे हैं कि “कश्मीर किस रास्ते पर जा रहा है?”, “कश्मीर का हल क्या होना चाहिये?” आदि-आदि। कोई भी सरकार हो यह अंग्रेजी मीडिया लगभग हमेशा सत्ता प्रतिष्ठान के नज़दीकी होते हैं, अपनी “नायाब” नीतियाँ सरकार को सुझाते रहते हैं और सरकारें भी अक्सर इन्हीं की सुनती हैं और उसी अनुरूप उनकी नीति तय होती है चाहे वह आर्थिक नीति हो या कोई और…



पहले भी लिखा जा चुका है कि कश्मीर समस्या के सिर्फ़ दो ही हल हैं, या तो उसे पूरी तरह से सेना के हवाले कर दिया जाये और आंदोलन को बेरहमी से कुचला जाये (जैसा चीन ने तिब्बत में किया), या फ़िर दूसरा रास्ता है कश्मीर को आज़ाद कर दो। आज जो कश्मीरी फ़ल व्यापारी मुज़फ़्फ़राबाद जाकर अपने फ़ल बेचना चाहते हैं उन्हें अपने मन की कर लेने दो। यदि “आर्थिक भाषा” में ही उन्हें समझना है तो ऐसा ही सही। कानूनी रूप से कश्मीरियों को पाकिस्तान में फ़ल बेचने की अनुमति दी जाये, वे भी यह जान सकें कि उभरती हुई आर्थिक शक्ति और एक खुली अर्थव्यवस्था में धंधा करना ज्यादा फ़ायदेमन्द है या एक “भिखारीनुमा” पाकिस्तान के साथ। बहुत जल्दी उन्हें पता चल जायेगा कि किसके साथ रहने में ज्यादा फ़ायदा है। लेकिन शर्तें ये होना चाहिये कि, 1) कश्मीरी लोग साठ साल से मिल रही भारत सरकार की “खैरात” नहीं लेंगे, कोई सब्सिडी नहीं, कोई योजना नहीं, कोई विशेष पैकेज नहीं, किसी प्रकार की “खून-चुसाई” नहीं… 2) सैयद शाह गिलानी और मीरवाइज़ उमर फ़ारुक जैसे लोग जिन्हें कश्मीरी अपना नेता मानते हैं, भारतीय सेना द्वारा उनको मिल रहा सुरक्षा कवच हटा लिया जाये… 3) आतंकवादियों के रहनुमा मुफ़्ती मुहम्मद और उनकी बिटिया की तमाम सुविधायें कम कर दी जायें…4) यदि भारतीय व्यक्ति कश्मीर में कोई सम्पत्ति नहीं खरीद सकता है तो कश्मीरी भी भारत में कुछ न खरीदें… देखते हैं कि यह “शर्तों का ये पैकेज” वे लोग स्वीकारते हैं या नहीं? मुफ़्ती, फ़ारुक, गिलानी और मीर जैसों को साफ़-साफ़ यह बताने की जरूरत है कि हम आपको यह अत्यधिक मदद देकर आज तक अहसान कर रहे थे, नहीं चाहिये हो तो अब भाड़ में जाओ…

लेकिन पेंच यह है कि ये सारी शर्तें पहले लालू-मुलायम-पासवान नाम के तीन नये मुल्लाओं को स्वीकार हों। फ़िलहाल तो सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्षों की बोलती बन्द है, उन्हें समझ नहीं आ रहा कि अमरनाथ भूमि के मामले में क्या बकवास करें, चाहे मीडिया हो, चाहे लालूनुमा जोकर नेता हों, चाहे धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगवीर-समूह हों… जम्मू के हिन्दुओं का “रिएक्शन” देखकर सभी के सभी को साँप सूंघ गया है…असल में हमेशा की तरह “महारानी और गुलाम” टाइप के धर्मनिरपेक्ष लोग सोच रहे थे कि जम्मू के हिन्दू जूते खाते ही रहेंगे और कुछ नहीं कहेंगे, लेकिन अब पासा पलट गया है तो उन्हें “सर्वदलीय बैठक” नज़र आ रही है, उन्हें भाजपा का “सहयोग” चाहिये, क्यों भाई ज़मीन वापस छीनते वक्त भाजपा से पूछा था क्या?



विश्वास कीजिये, जिसे “मुफ़्तखोरी” की आदत लग जाती है, वह भिखारी आपकी सब शर्तें मान लेगा लेकिन कोई काम नहीं करेगा, कश्मीरियों को भी लौटकर भारत के पास ही आना है, सिर्फ़ हमें कुछ समय के लिये संयम रखना होगा। हमें ही यह संयम रखना होगा कि जब भी कोई भारतीय वैष्णो देवी तक जाये तो आगे कश्मीर न जाये, हमें अपनी धार्मिक भावनाओं पर नियन्त्रण रखना होगा कि सिर्फ़ पाँच साल (जी हाँ सिर्फ़ 5 साल) तक कोई भी भारतवासी अमरनाथ न जाये, पर्यटन का इतना ही शौक है तो लद्दाख जाओ, हिमाचल जाओ कहीं भी जाओ, लेकिन कश्मीर न जाओ… विदेशियों को भी वहाँ मत जाने दो… न वहाँ के सेब खाओ, न वहाँ की पश्मीना शॉल खरीदो (नहीं खरीदोगे तो मर नहीं जाओगे), कश्मीर में एक फ़ूटी कौड़ी भी भारतवासियों द्वारा खर्च नहीं की जाना चाहिये… हमारे पैसों पर पलने वाले कश्मीरी पिस्सुओं के होश ठिकाने लगाने के लिये एक आर्थिक चाबुक की भी जरूरत है… सारा आतंकवाद हवा हो जायेगा, सारी धार्मिक कट्टरता पेट की आग में घुल जायेगी… वे लोग खुद होकर कहेंगे कि भारतीयों कश्मीर आओ… धारा 370 हटाओ, यहाँ आकर बसो और हमें भूखों मरने से बचाओ… आतंकवाद का हल आम जनता ही खोज सकती है। जैसा उसने पंजाब में किया था, वैसे ही कश्मीर में भी इन फ़र्जी नेताओं को जनता लतियाने लगेगी… बस कुछ कठोर कदम और थोड़ा संयम हमें रखना होगा…


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15 August National Pride of India
9 अगस्त अभी ही बीता है, 15 अगस्त भी आने वाला है। ये दो तारीखें भारत के स्वतन्त्रता इतिहास और लोकतन्त्र की लड़ाई के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। 8 अगस्त को चीन में विश्व के सबसे खेल आयोजन “ओलम्पिक” का उद्घाटन समारोह हुआ। समूचे विश्व के प्रमुख देशों के राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति इस समारोह में शामिल हुए। लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र होने का दावा करने वाले, चीन के बाद दूसरी एशियाई महाशक्ति होने का दम भरने वाले, 125 करोड़ की विशाल आबादी और 60% “युवा” जनसंख्या वाले देश से प्रतिनिधित्व करने के लिये किसे बुलाया गया? प्रधानमंत्री को या राष्ट्रपति को? नहीं जी, दोनों को निमन्त्रण तक नहीं भेजा गया, बुलाया गया सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को। सोनिया गाँधी को UPA का अध्यक्ष (अर्थात प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों को नौकरी पर रखने की ताकत) होने के नाते और राहुल बाबा को शायद उनके पुत्र होने के नाते (और तो कोई खासियत फ़िलहाल नहीं दिखाई देती)। इनके साथ गये भारी-भरकम लाव-लश्कर, चमचे-लगुए-भगुए और खेल मंत्रालय के निकम्मे-मोटे अधिकारी, जिनकी लार टपक रही है 2010 में दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों के बजट को देखते हुए।

वैसे तो यह प्रत्येक देश का अपना आंतरिक मामला है कि वह अपने यहाँ समारोह में किसे बुलाये या किसे न बुलाये। “प्रैक्टिकली” देखें तो चीन के रहनुमाओं ने एकदम सही निर्णय लिया कि सोनिया गाँधी को बुलाया जाये। जो व्यक्ति देश में सबसे अधिक “पावरफ़ुल” होता है सामान्यतः उसे ही ऐसे महत्वपूर्ण आयोजनों में बुलाया जाता है, ताकि आपसी सम्बन्ध मजबूत हों। यहाँ तक तो यह चीन का मामला है, लेकिन इसके आगे की बात भारत का अपना मामला है। हमारे देश में लोकतन्त्र है, सौ करोड़ लोगों द्वारा चुना गया एक प्रधानमंत्री है, एक मंत्रिमण्डल है, एक प्रणाली है। भारत के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति की (चाहे वह कैसा भी हो) न सिर्फ़ हमारे देश में बल्कि विदेशों में भी एक विशिष्ट इज्जत होती है, एक बना-बनाया “प्रोटोकॉल” होता है, जिसे निभाना प्रत्येक देश का कर्तव्य होता है। हम कोई ऐरे-गैरे नत्थू खैरे नहीं हैं, कि इतने बड़े देश की कोई सरेआम इज्जत उतारता रहे। लेकिन ऐसा हुआ है और लगातार हो रहा है। जब चीन ने बीजिंग ओलम्पिक के लिये सोनिया गाँधी को निमंत्रण भेजा था तो उस निमन्त्रण को आदर के साथ यह कहकर वापस किया जा सकता था कि या तो भारत के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को भी इसमें शामिल किया जाये या फ़िर इसे सधन्यवाद वापस माना जाये।



निमन्त्रण पत्र मिलने और समारोह के बीच भी काफ़ी समय था, चीन के दूतावास के मार्फ़त और उच्च स्तरीय चैनल के माध्यम से यह संदेश भेजा जा सकता था कि आपने जो किया है वह अनुचित है और तत्काल “भूल-सुधार” किया जाये। लेकिन ऐसा नहीं किया गया, जब भाजपा शुरुआत से कह रही थी कि मनमोहन तो एक “बबुआ प्रधानमंत्री” हैं, “एक नकली प्रधानमंत्री” हैं तब हमारा “सेकुलर” मीडिया भाजपा की आलोचना करता था कि वह देश और देश के प्रधानमंत्री की इज्जत खराब कर रही है। लेकिन अब सरेआम सारे विश्व के सामने चीन ने हमारे प्रधानमंत्री को उनकी “सही जगह” दिखा दी है तो कोई हल्ला नहीं? कोई विवाद नहीं? कोई आपत्ति नहीं कि आखिर इतने बड़े लोकतन्त्र का ऐसा अपमान क्यों किया जा रहा है? राहुल गाँधी को विश्व मंच पर एक नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करने की इस परिवार की यह योजना थी, जिसमें सोनिया सफ़ल हुई हैं। इतने बड़े आयोजन में जहाँ समूचे विश्व के मीडिया की आँखें नेताओं पर टिकी थीं, तब विश्व को पता चला कि भारत नाम के देश में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नाम की कोई चीज नहीं है, उनकी कोई औकात नहीं है, उन्हें बुलाया तक नहीं गया है, क्या इससे भारत का सम्मान दोगुना हो गया? लेकिन बात-बात पर बतंगड़ बनाने वाले कम्युनिस्ट (जो कि अब समर्थन वापस ले चुके हैं) भी खामोश हैं, क्योंकि यह उन्हीं की परम्परा है जहाँ पोलित ब्यूरो का महासचिव राज्य के मुख्यमंत्री से अधिक ताकतवर होता है और उसी को हर जगह बुलाया जाता है, और चीन जो कि उनका “मानसिक मालिक” है उसी ने यह हरकत की है तो “लाल बन्दरों” के मुँह में दही जमना स्वाभाविक है। लेकिन यदि किसी सरकारी कार्यक्रम में भाजपा के मुख्यमंत्री की जगह “सरसंघचालक” को बैठा दिया जाये तो फ़िर देखिये कैसे हमारे “धर्मनिरपेक्ष लंगूर” उछलकूद मचाते हैं, जिनका साथ देने के लिये “सेकुलर बुद्धिजीवी और सेकुलर मीडिया” नाम के दो नचैये सदैव तत्पर रहते हैं। पाँच करोड़ गुजरातियों द्वारा पूर्ण बहुमत से तीसरी बार चुने गये नरेन्द्र मोदी को अमेरिका की सरकार, वहाँ हल्ला मचा रहे मानवाधिकारवादियों(?) के दबाव में वीज़ा देने को तैयार नहीं है लेकिन “सेकुलर मीडिया” और हमारे माननीय प्रधानमंत्री दोनों ही एक मुख्यमंत्री के सार्वजनिक अपमान पर चुप्पी साधे हुए हैं, और क्यों साधे हुए हैं यह भी स्पष्ट हो गया है कि जब इन्हें “खुद के अपमान” की ही फ़िक्र नहीं है और इसके खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो नरेन्द्र मोदी के पक्ष में क्या बोलेंगे? यह है हमारा असली राष्ट्रीय चरित्र और असली “सेकुलरिज़्म”!!! ज़रा एक बार किसी वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी को वीज़ा देने से मना करके देखो, या हवाई अड्डे पर किसी अमेरिकी मंत्री के कपड़े उतारकर तलाशी लेकर देखो, पता चल जायेगा कि “राष्ट्रीय स्वाभिमान” क्या होता है। क्या आत्मसम्मान भी कोई सिखाने की चीज़ होती है?



कहने का तात्पर्य यही है कि अब इस देश में लोगों को देश के सम्मान और अपमान तक की फ़िक्र नहीं रह गई है। यही मीडिया, यही नेता, यही कार्पोरेट जगत (364 दिन छोड़कर) 15 अगस्त आते ही “देशभक्ति” की बासी कढ़ी पर पन्ने के पन्ने रंगेगा, लाउडस्पीकरों पर चिल्ला-चिल्लाकर दिमाग की पाव-भाजी बना देगा, लेकिन इनमें से एक ने भी उठकर चीन से यह नहीं कहा कि “ये लो अपना निमन्त्रण पत्र, हमें नहीं चाहिये, यह हमारे प्रधानमंत्री / राष्ट्रपति का अपमान तो है ही, सौ करोड़ लोगों का भी अपमान है… चीन वालों तुम्हारे निमन्त्रण पत्र की पुंगी बनाओ और…@#%^$&*(^%# ”, लेकिन यह बोलने के लिये दम-गुर्दे चाहिये होते हैं, रीढ़ की हड्डी मजबूत होना चाहिये, जो कि भ्रष्टाचार और अनाचार से खोखले हो चुके देश में नहीं बचे। ओलम्पिक की उदघाटन परेड में भारतीय दल की “यूनिफ़ॉर्म” तक में एकरूपता नहीं थी, तो राष्ट्र के प्रमुख मुद्दों पर एकता कहाँ से आयेगी, इसीलिये कोई भी आता है और हमें लतियाकर चलता बनता है, हम अपनी रोजी-रोटी में ही मस्त हैं, कमाने में लगे हैं, देश जाये भाड़ में। हाँ, 15 अगस्त को (यदि छुट्टी का दाँव नहीं लग पाया तो मजबूरी में) अपने ऑफ़िस में एक अदद झंडा फ़हराने पहुँच जायेंगे, जिसे देर शाम को बेचारा अकेला चौकीदार हौले से उतारेगा, तब तक तमाम अफ़सरान और बाबू थकान उतारने के लिये “नशे में टुन्न” हो चुके होंगे…

अभी तो 15 अगस्त मना लो भाईयों… “सेकुलरिज्म” और भ्रष्टाचार का यही हाल रहा तो हो सकता है कि सन् 2025 में एक अवैध बांग्लादेशी की नाजायज़ औलाद, भारत का प्रधानमंत्री बन जाये…


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Jammu Kashmir Secularism and Congress
धर्मनिरपेक्ष “भांड-गवैयों” की स्वयंभू मालकिन “महारानी” सोनिया गाँधी ने राजनाथ सिंह से फ़ोन पर जम्मू समस्या सुलझाने के लिये मदद हेतु बात की। सोनिया जी ने फ़रमाया कि “इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति नहीं होना चाहिये…” अहा !! कितने उच्च विचार हैं, बिलकुल “छँटे हुए” कांग्रेसियों की तरह। लेकिन क्या वे यह बतायेंगी कि “यह गंदी राजनीति शुरु किसने की है…” नहीं, नहीं… गुलाम नबी आजाद ने नहीं, वो तो सिर्फ़ एक “नौकर” है, उसकी इतनी हिम्मत नहीं है कि इतने गम्भीर मुद्दे पर वह सोच भी सके। असल में यह “कीड़ा” तो शाहबानो केस के फ़ैसले को उलटने के साथ ही भारतीय लोकतन्त्र के शरीर में घुस गया था, वही कीड़ा आज जब “कैंसर” बनकर लपलपा रहा है तो तमाम गाँधीवादियों और मानवाधिकारवादियों को जमाने भर के “लेक्चर” याद आने लगे हैं। “संयम रखना चाहिये…”, “बहकावे में नहीं आना चाहिये…”, “संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति नहीं करना चाहिये…” आदि-आदि, और मजे की बात तो यह है कि ऐसे “लेक्चर” अक्सर हिन्दुओं को ही पिलाये जाते हैं। बहुसंख्यक हिन्दू भी महान प्रवचन सुन-सुनकर ढीठ टाइप के हो गये हैं। उन्हें मालूम रहता है कि बम विस्फ़ोट हुए हैं, “संयम बरतना है…”, हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार हुआ है, “धैर्य रखना है…”, अपने ही देश में रिफ़्यूजी बनकर दिल्ली में कैम्प में सड़ना है लेकिन विरोध नहीं करना है, गुजरात में ट्रेन में आग से कितने ही मासूम मारे जायें, उन्हें सहिष्णु बने रहना चाहिये… चाहे असम में कांग्रेस हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बनाने पर उतारू हो या उनके वामपंथी भाई अपने बांग्लादेशी भाइयों को गले लगा-लगा कर इस “धर्मशाला रूपी” देश में घुसाते जा रहे हों, “उसे तो हमेशा संयम ही बरतना है…” क्यों? क्योंकि हिन्दू धर्म महान है, यह सदियों पुराना धर्म है… आदि-आदि। इसी संयम की पराकाष्ठा अफ़ज़ल गुरु के रूप में हमारे सामने आ रही है, जहाँ सुप्रीम कोर्ट भी उसे सजा दे चुका है, लेकिन फ़िर भी कांग्रेसी अपने “दामाद” को फ़ाँसी देने को तैयार नहीं हैं। बस संयम रखे जाओ, गुलाब के फ़ूल भेंट किये जाओ, सत्याग्रह(?) किये जाओ, गरज यह कि बाकी सब कुछ करो, “कर्म” के अलावा, यह है खालिस बुद्धिजीवी निठल्ला चिन्तन। (इसलिये खबरदार… कोई मुझे बुद्धिजीवी न कहे, और “धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी” तो बिलकुल नहीं, और कोई भी गाली चलेगी)।



असल में जम्मू के युवक भी सचमुच गलती कर रहे हैं, उन्हें पुलिस या राज्य सरकार पर अपना गुस्सा सड़कों पर उतारने की क्या जरूरत है? जम्मू क्षेत्र में जितने भी पीडीपी के स्थानीय नेता हैं, उन्हें घर से निकालकर चौराहे पर लाकर जूते से मारना चाहिये, पीडीपी नाम की “फ़फ़ूंद” जम्मू क्षेत्र से ही हटा देना चाहिये। और फ़िर रह-रह कर एक खयाल आता है कि यह सब हम किन “अहसानफ़रामोशों” के लिये कर रहे हैं? जिस कश्मीर की जनता को साठ साल में भी समझ में नहीं आया कि भारत के साथ रहने में फ़ायदा है या पाकिस्तान के साथ, उन मूर्खों को जबरदस्ती अपने साथ जोड़े रखने के लिये इतनी मशक्कत क्यों? अलग होना चाहते हैं, कर दो अलग… जवाहर सुरंग से उधर का घाटी वाला हिस्सा (लद्दाख छोड़कर) आजाद कर दो। मेरा दावा है कि पाकिस्तान भी इस “अवैध संतान” को गोद लेने को तैयार नहीं होगा। 5-10 साल में ही “अलग होने” का रोमांटिक भूत(?) सिर से उतर जायेगा। सारी अरबों रुपयों की सरकारी मदद बन्द कर दो, सारी केन्द्रीय परियोजनायें बन्द कर दो, सारी सब्सिडी बन्द कर दो, सेना के जवान वापस बुला लो और कश्मीर में पीडीपी और हुर्रियत को तय करने दो कि प्रधानमंत्री कौन बने और सरकार कैसे चले… छोड़ दो उन्हें उनके हाल पर। यही तो चाहते हैं न वे? आखिर क्यों हम अपने करदाताओं की गाढ़ी कमाई कश्मीर नामक गढ्ढे में डाले जा रहे हैं? जिस प्रकार पंजाब में जनता ने खुद आतंकवाद को कुचल दिया था, उसी प्रकार कश्मीर की जनता को भी बहुत जल्दी समझ में आ जायेगा कि भारत और पाकिस्तान में कितना भारी अन्तर है। इसलिये हे जम्मू वालों जब भी तुम्हारे द्वार पर “ताली” बजाते हुए धर्मनिरपेक्षतावादी आयें तुम भी उनसे यही मांगो कि पिछले 60 साल में दोनों हाथों से जितना कश्मीर को दिया है उसका ज्यादा नहीं तो आधा ही हमें दे दो…

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