desiCNN - Items filtered by date: जुलाई 2007
गुरुवार, 26 जुलाई 2007 20:46

"क्रेन बेदी" हार गईं ?

एक बार फ़िर से हमारी "व्यवस्था" एक होनहार और काबिल व्यक्ति के गले की फ़ाँस बन गई, टीवी पर किरण बेदी की आँखों में आँसू देखकर किसी भी देशभक्त व्यक्ति का खून खौलना स्वाभाविक है । (जिन लोगों को जानकारी नहीं है उनके लिये - किरण बेदी से दो साल जूनियर व्यक्ति को दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बना दिया गया है, जबकि उस पर गंभीर किस्म के आरोप हैं) हमारी भ्रष्ट व्यवस्था के आगे "क्रेन बेदी" के नाम से मशहूर एक फ़ौलादी महिला को जिस कदर दरकिनार कर दिया गया, उससे एक बार फ़िर स्पष्ट हो गया है कि इटली की महिला का "महिला सशक्तिकरण" का दावा कितना खोखला है ।

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शुक्रवार, 20 जुलाई 2007 20:50

दाऊद भाई..पधारो ना म्हारे देस

दाऊद भाई, आपको ये पत्र लिखते हुए बहुत खुशी हो रही है, चारों तरफ़ खुशी जैसे पसरी हुई है, खुशी का कारण भी है, मोनिका "जी" को भोपाल की एक अदालत ने फ़र्जी पासपोर्ट मामले में बरी कर दिया है, जिसकी खुद मोनिका ने भी सपने में कल्पना नहीं की होगी, लेकिन कल्पना करने से क्या होता है, आप तो जानते ही हैं कि हमारे यहाँ का सिस्टम कैसा "यूजर-फ़्रेंण्डली" हो गया है (जो इस सिस्टम को "यूज़" करता है, ये सिस्टम उसका फ़्रेण्ड बन जाता है), अब आप हों या अबू भाई, कहीं भी बैठे-बैठे सारी जेलों को अपने तरीके से संचालित कर सकते हैं (मैं तो कहता हूँ कि सरकार को आपको जेल सुधार का ठेका दे देना चाहिये)...

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हिन्दी फ़िल्मों में अक्सर गीतों को लिखते समय या उनके चित्रीकरण के समय कोई जरूरी नहीं है कि उनका आपस में कोई तालमेल हो ही...हिन्दी फ़िल्मी गीतों के इतिहास को देखें तो हिन्दी के शब्दों का अधिकतम प्रयोग करने वाले गीतकार कम ही हुए हैं, जैसे भरत व्यास, प्रदीप आदि । यह लगभग परम्परा का ही रूप ले चुका है कि उर्दू शब्दों का उपयोग तो गीतों में होगा ही (आजकल तो अंग्रेजी के शब्दों के बिना हिन्दी गीत नहीं बन पा रहे गीतकारों से) इसलिये यह गीत कुछ "अलग हट के" बनता है, क्योंकि इस गीत में शुद्ध हिन्दी शब्दों का खूबसूरती का प्रयोग किया गया है, और कई लोगों को जानकर आश्चर्य होगा कि गीत लिखा है वर्मा मलिक साहब ने.

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मंगलवार, 17 जुलाई 2007 17:45

"माँ" पर निबन्ध : माँ से पहचान

राहुल.. होमवर्क हो गया क्या ? चलो जल्दी करो.. स्कूल को देर हो रही है । हो गया मम्मी.. देखो स्कूल में मुझे "मेरी माँ" पर निबन्ध लिखकर ले जाना है, मैने लिखा है - "मेरी माँ मुझे जल्दी उठाती है, होमवर्क करवाती है, पढा़ती है, मुझे कहानियाँ सुनाती है, मुझे डॉक्टर के यहाँ ले जाती है..." चलो,चलो ठीक है, जल्दी से नाश्ता कर लो... बस आती ही होगी । माँ ने राहुल को मदद करके उसे स्कूल भेज दिया । लेकिन शाम को जब राहुल स्कूल से वापस आया तो गुमसुम सा था, निराश सा था । स्कूल में मैडम ने कहा कि जो तुम लोग लिखकर लाये हो, वह तो सभी बच्चों ने थोडे-बहुत फ़ेरबदल के साथ लिखा है, तुम लोगों ने निबन्ध में नया क्या लिखा ? माँ तुम्हारे लिये इतना कुछ करती है, इसलिये वह तुम्हें अच्छी लगती है, लेकिन अपनी माँ के बारे में तुम्हें क्या-क्या मालूम है, वह लिखो... तुम्हारी माँ को क्या पसन्द-नापसन्द है, उसके शौक क्या हैं, उसका जन्मदिन, उसकी मेहनत... इन सब के बारे में तुम्हारे पिताजी को, तुम्हारी दीदी और भैया को क्या लगता है, तुम लोग अपनी माँ के लिये क्या करते हो ? इन सब बातों को देखो, परखो और निरीक्षण करके नया निबन्ध लिखकर लाओ, चाहो तो अपने दीदी, भाई या पिताजी से मदद ले सकते हो... तुम लोग अब आठवीं के बच्चे हो, जरा अपना भी दिमाग लगाओ और फ़िर से निबन्ध लिख कर लाओ..
राहुल के निरीक्षण की शुरुआत हो गई.... माँ की पसन्द-नापसन्द... मैं तो सिर्फ़ आलू की सब्जी खाता हूँ, माँ तो सभी सब्जियाँ, चटनियाँ खाती है, हम सभी को ताजा परोसती है, और यदि किसी दिन कम पड़ जाये तो थोडा़ सा ही खाती है.. बचा हुआ खाना बेकार ना जाये इसलिये कई बार खामख्वाह एक रोटी ज्यादा भी खा लेती है । ताजा और गरम खाना हमें परोसती है, और सुबह का या कल का बासी खुद की थाली में लेती है...अरे.. मैने तो कभी माँ से नहीं कहा कि आज मुझे बासी खाना दे दो, ताजी रोटी तुम खा लो.. मैं ही क्यों, दीदी, भैया और पिताजी ने भी माँ से ऐसा नहीं कहा । मुझे टेबल टेनिस खेलना पसन्द है, इसलिये माँ ने मेरे बर्थ-डे पर बैट लाकर दिया । माँ के शौक क्या हैं ? ... हाँ ठीक.. उसे पत्रिकायें पढना और हारमोनियम बजाना अच्छा लगता है, लेकिन बहुत सालों से हमारा हारमोनियम खराब हो गया है, माँ ने तो सभी से कहा था, लेकिन ना तो भैया, न पापा, किसी ने उस हारमोनियम को ठीक नहीं करवाया... थोडा़ सा समय मिलता है तो माँ कुछ पढने बैठ जाती है, लेकिन एकाध पुस्तक खरीदने की बात चलते ही पापा कहते हैं, पत्रिकायें बहुत महंगी हो गई हैं, इतने में तो दीदी की एक किताब आ जायेगी । अब.. रंग.. रंग.. रंग.. माँ को कौन सा रंग पसन्द है ? पता नहीं, क्योंकि माँ खुद के लिये बहुत ही कम साडियाँ खरीदती है, शादी-ब्याह में जो मिल जाती हैं उसी से काम चलाती है, हाँ, लेकिन बिस्तर की चादरें माँ ने हल्के नीले रंग की ली थीं... निबन्ध में नीला लिख लेता हूँ.. । माँ का जन्मदिन.. कब होता है.. मैडम ने कहा है कि कुछ भी माँ से नहीं पूछना है, दीदी ने बताया - ४ जनवरी... इस दिन हम लोग क्या करते हैं... छिः माँ का जन्मदिन तो हमने कभी ठीक से मनाया ही नहीं.. मेरे, दीदी और पापा के बर्थ-डे पर माँ लौकी का हलवा, गुलाब जामुन और पुरणपोली बनाती है । माँ को कौन सी मिठाई पसन्द है ? मालूम नहीं.. क्यों पापा, माँ को मीठे में क्या पसन्द है ? पापा... पापा... "अरे क्या चाहिये, मैं अखबार पढ रहा हूँ, दिखता नहीं क्या ? माँ से पूछो.. मुझे क्या मालूम !
पिछले हफ़्ते दीदी अपनी सहेलियों के साथ पिकनिक गई थी.. माँ ने सुबह जल्दी उठकर उसके लिये आलू की सब्जी और पूडि़याँ बनाकर दी थीं, पापा ने जो पैसे दिये थे, उसके अलावा अपने पास से पचास रुपये भी दिये... माँ कब पिकनिक पर गई थी ? याद नहीं.. पिछले महीने माँ के महिला मंडल की पिकनिक थी, लेकिन पिताजी ने अपने दोस्तों को खाने पर बुला लिया था और माँ पिकनिक पर नहीं जा पाई । माँ की पढाई के बारे में...मुझे ऐसा याद आ रहा है कि माँ किसी को बता रही थी कि दो मामाओं की पढाई के लिये माँ को कॉलेज बीच में ही छोड़ना पडा़ और उसकी शादी कर दी गई थी । अखबार पढना भी माँ को बहुत पसन्द है, दोपहर में सारे काम निपटाकर माँ अखबार पढती थी, लेकिन दीदी कॉलेज जाने लगी और मैं आठवीं में आ गया तो पिताजी ने हमारी अंग्रेजी सुधारने के लिये हिन्दी अखबार बन्द करके इंग्लिश अखबार लगवा दिया । माँ को टीवी देखना भी अच्छा लगता है, लेकिन रात को पिताजी घर आते ही अंग्रेजी कार्यक्रम और न्यूज लगा देते हैं और मैं दोपहर में कार्टून देखता हूँ, इन सब के बीच माँ को टीवी भी देखने को नहीं मिलता । माँ की सहेलियाँ... एकाध ही हैं महिला मंडल को छोड़कर... मतलब इतने सारे काम करते-करते माँ को सहेलियों के यहाँ जाने का समय ही नहीं मिलता... दीदी अपनी सहेलियों के साथ पिकनिक, फ़िल्में जाती है, मैं शाम को क्रिकेट खेलने जाता हूँ..पिताजी के दोस्त भी हर रविवार को ताश खेलने आ जाते हैं, माँ उनके लिये चाय-नाश्ता बनाती रहती है । माँ को शाम को घूमने जाना अच्छा लगता है, लेकिन पिताजी तो हमेशा रात को देर से घर आते हैं, मैं खेलने में मगन, दीदी और भैया अपने-अपने दोस्तों में, ऐसे में माँ अकेले ही सब्जी खरीदने के बहाने घूमकर आती है, लेकिन उसे वहाँ से भी जल्दी लौटना पडता है, क्योंकि यदि उसे देर हो जाये तो हम "भूख लगी..भूख लगी" करके उसे परेशान कर देते हैं । माँ कभी-कभी क्यों जरा-जरा सी बात पर चिढ जाती है, अब मुझे समझने लगा है ।
मैडम ने निबन्ध लिखने के लिये दस दिन का समय दिया था, राहुल का निरीक्षण जारी था... माँ के कामकाज, उसकी दिनचर्या और दूसरों के साथ उसकी तुलना करते-करते राहुल की धीरे-धीरे अपनी माँ से "पहचान" हो गई थी.. माँ पर निबन्ध लगभग पूरा हो चला था... और अचानक निबन्ध समाप्त करते-करते उसकी कॉपी पर दो बूँद आँसू टपक पडे़ ।
(एक मराठी रचना का अनुवाद, आंशिक फ़ेरबदल व सम्पादन के साथ)
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शुक्रवार, 13 जुलाई 2007 10:59

एक था बचपन, एक था बचपन...

यह गीत एक विशुद्ध "नॉस्टैल्जिक" गीत है... इस गीत को सुनकर हर कोई अपने बचपन में खो जाता है और अपने "खोये" हुए पिता को अवश्य याद करता है, खासकर तब, जबकि या तो वह खुद पिता बन चुका हो, या अपने माता-पिता से बहुत दूर बैठा हो, रोजी-रोटी के चक्करों में देश छोड़कर और अपने-अपने पिता को बेहद "मिस" करते हुए यह गीत अक्सर कईयों की आँखें भिगोता है...

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हिन्दी फ़िल्मों में शैलेन्द्र और शंकर-जयकिशन की जोडी़ ने कई अदभुत गीत दिये हैं । शैलेन्द्र तो आसान शब्दों में अपनी बात कहने के लिये मशहूर रहे हैं । उन्होंने बहुत ही कम क्लिष्ट शब्दों का उपयोग किया और जब धुनों पर लिखा तो ऐसे सरल शब्दों में, कि एक आम आदमी उसे आसानी से गा सके और उससे भी बडी़ बात यह कि समझ सके । गुलजार की तरह कठिन शब्द, या साहिर / शकील की तरह कठिन उर्दू शब्दों के उपयोग से वे बचे हैं ।

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शुक्रवार, 06 जुलाई 2007 13:18

मेहमूद का एक अविस्मरणीय गीत

इस गीत में प्रथम दृष्टया देखने पर कोई खास बात नहीं दिखती... लेकिन इस गीत पर लिखने की पहली वजह तो यह है कि यह रेडियो पर बहुत कम बजता है और जब भी बजता है पूरा नहीं बजता.. दूसरा कारण है ख्यात हास्य अभिनेता मेहमूद द्वारा यह गीत गाना, न सिर्फ़ गाना बल्कि इतने बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करना । यह संगीतकार राजेश रोशन की पहली फ़िल्म है, जिन्हें मेहमूद ने अपने भाईयों के कहने पर एक बार सुनना कबूल किया था, उस एक ही बैठक में राजेश रोशन ने मेहमूद को इतना प्रभावित किया कि वे आजीवन मित्र बने रहे और मेहमूद की कई फ़िल्मों में राजेश रोशन ने संगीत दिया ।

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दादा कोंडके - यह नाम आते ही हमारे सामने छवि उभरती है द्विअर्थी संवादों वाली फ़िल्में बनाने वाले, एक बेहद साधारण से चेहरे मोहरे वाले, नाडा़ लटकती हुई ढीली-ढाली चड्डीनुमा पैंट पहनने वाले, अस्पष्ट सी आवाज में संवाद बोलने वाले एक शख्स की । दादा कोंडके के नाम पर अक्सर हमारे यहाँ का तथाकथित उच्च वर्ग समीक्षक नाक-भौंह सिकोड़ता है, हमेशा दादा को एक दोयम दर्जे का, सिर्फ़ द्विअर्थी और अश्लील संवादों के सहारे अपनी फ़िल्में बनाने वाले के रूप में उनकी व्याख्या की जाती है । यह सुविधाभोगी वर्ग आसानी से भूल जाता है कि मल्टीप्लेक्स के बाहर भी जनता रहती है और उसे भी मनोरंजन चाहिये होता है, उसी वर्ग के लिये फ़िल्में बनाकर दादा का नाम लगातार नौ सिल्वर जुबली फ़िल्में बनाने के लिये "गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स" में शामिल हुआ है (जबकि राजकपूर, यश चोपडा़ और सुभाष घई की भारी-भरकम बजट और अनाप-शनाप प्रचार पाने वाली फ़िल्में कई बार टिकट खिडकी पर दम तोड़ चुकी हैं)।

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