desiCNN - Items filtered by date: अक्टूबर 2007
Superstitions, Education and Urban Community

मध्यप्रदेश के मालवा निमाड़ अंचल में इन दिनों “हरे काँच की चूड़ियाँ पहनो” नामक अंधविश्वास चल रहा है। एक अफ़वाह के अनुसार यदि महिलायें हाथों में हरे काँच की चूड़ियाँ पहनेंगी तो उनके सुहाग, बच्चे और घर-द्वार सुरक्षित रहेगा। यदि किसी महिला ने यह नहीं पहनीं तो भारी अनिष्ट हो जायेगा। मजे की बात तो यह है कि गाँवों की अनपढ़ महिलाओं के साथ-साथ पढ़ी-लिखी, शहरी और कम्प्यूटर का उपयोग करने वाली मूर्ख महिलायें भी इस अंधविश्वास के चक्कर में पड़ रही हैं। “नारी शक्ति” और अबला-सबला आंदोलन चलाने वाली, सिन्दूर और मंगलसूत्र को गुलामी की निशानी मानने वाली कई महिलायें भी इसकी चपेट में हैं। चूड़ी निर्माता और विक्रेता जमकर माल कूट रहे हैं।

इसी प्रकार कुछ माह पहले इसी अंचल में “जलेबी” नामक अंधविश्वास चला था, जिसके अनुसार ढाई सौ ग्राम जलेबी को पूजा करके नर्मदा में विसर्जित करना था, जिससे कि महिलाओं/लड़कियों के भाईयों के जीवन पर आया संकट टल जाये। हालत यह हो गई थी कि नर्मदा नदी में जलेबी की चाशनी और मैदे की लुगदी के कारण घोर प्रदूषण के चलते प्रशासन को अन्त में यह चेतावनी देना पड़ी कि इस प्रकार की “जलेबी विसर्जन” ना किया जाये अन्यथा कड़ी कार्रवाई की जायेगी। भाई लोगों ने जमी-जमाई दुकानदारी छोड़कर नर्मदा किनारे जलेबी की दुकानें खोल ली थीं, अफ़वाह चलाई, महिलाओं को बेवकूफ़ बनाया, और अच्छा कमाया। नर्मदा नदी प्रदूषित होती है तो होती रहे, उनकी बला से, यूँ भी साल में दो बार गणेश और दुर्गा पूजा की लाखों मूर्तियाँ प्रवाहित करके पानी गन्दा करते ही हैं।

इसी प्रकार उज्जैन या आसपास के नगरों में धर्मप्राण(?) जनता को मूक प्राणियों, गाय-ढोर को चारा खिलाने का शौक होता है, उनका मानना है कि इससे पुण्य(?) मिलता है। अब यहाँ गणित यह खेला जाता है कि आवारा पशु, गाय-बैल आदि सड़क पर छोड़ दिये जाते हैं, फ़िर वही व्यक्ति खुद एक ठेला लेकर घास बेचने बैठ जाता है, घास बेच कर भी कमा लेता है, और अपने आवारा पशु को फ़ोकट में चारा भी खिलवा लेता है, सड़क पर गाय-बैल गोबर करते रहें, लोग टकरा-टकरा कर गिरते रहें, न प्रशासन को कोई मतलब होता है, ना ही धर्मालुओं(?) को, आखिर “धर्म” का मामला जो ठहरा। एक बात तो सिद्ध है, कि शिक्षा प्रसार का अंधविश्वास से कोई लेना-देना नहीं होता। हमारे एक पड़ोसी जो Ph.D. वाले डॉक्टर हैं, मुहूर्त देखकर घर से निकलते हैं, इसी प्रकार एक और MD डॉक्टर हैं जो पंचांग देखकर महत्वपूर्ण ऑपरेशन करते हैं, अब इसे क्या कहा जाये?

इस लगातार जारी मूर्खता का एक और प्रमाण हैं इंटरनेट पर सतत जारी ई-मेल अंधविश्वास अभियान, जिसमें आपसे कहा जाता है कि यह मेल जादू और चमत्कार भरी है, इसे आप बीस लोगों को Forward करेंगे तो आपको खजाना और सुख-समृद्धि प्राप्त होगी, पढ़े-लिखे लोग बगैर सोचे-समझे इसे Forward कर भी देते हैं। मेरे पास जब ऐसी कोई मेल आती है तो सबसे पहले उसे “कचरा पेटी” (Delete) का रास्ता दिखाता हूँ (वह भी Shift दबाकर)| लेकिन सिवाय माथा पीटने के या फ़िर हँसने के और क्या चारा रह जाता है? जब शिक्षित होकर भी लोगबाग इस तरह की हरकतें करते हैं तो गुस्सा भी आता है, शर्म भी आती है, और कभी-कभी लगता है कि क्यों हम खामख्वाह गाँव वालों और अनपढ़ों के पीछे पड़े रहते हैं, पहले शहरों में तो लोग छींकने और बिल्ली के रास्ता काटने जैसे घटियातम अंधविश्वासों से बाहर निकलें। लेकिन इसका कोई इलाज नहीं है।

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Challenge Astrology Unanswered Astro Questions

ज्योतिष के सिद्धांतों और उनकी अप्रासंगिकता तथा अवैज्ञानिकता को लेकर पिछले दो लेखों के अभी तक मुझे सन्तोषजनक जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं। संतोषजनक मतलब तार्किक और वैज्ञानिक जवाब। जो प्रतिक्रियायें अभी तक मुझे मिली हैं, उनमें से अधिकतर का सार यही हैं कि “ज्योतिष तो एक महान शास्त्र है”, “हमारे पूर्वजों और ऋषि-मुनियों ने जिस पद्धति को विकसित किया, वह जरूर अच्छी ही होगी”, “जानकारी तो नहीं है, लेकिन ज्योतिष सत्य ही होगा”... आदि... तात्पर्य यह कि मेरे प्रश्नों का सोच-विचार कर तर्कसम्मत जवाब देने की बजाय अधिकतर लोगों ने “ज्योतिष तो सच ही है, हमारा विश्वास (या अंधविश्वास?) है, हमारे बुजुर्ग कभी गलत नहीं होते....” आदि-आदि की टेक ही लगाये रखी। एक ज्योतिषी महोदय ने समस्त ज्योतिष विरोधियों को नास्तिक ठहराते हुए तमाम चुनौतियाँ ही दे डालीं.... अस्तु। अब पुनः एक बार विद्वान ज्योतिषियों की सुविधा (या असुविधा?) के लिये मैं अपने सवाल दोहरा देता हूँ-

प्रश्न १ – यदि दूरस्थ ग्रहों का प्रभाव मानव पर पड़ता है, तो कैसे पड़ता है? क्या इस सम्बन्ध में ज्योतिषियों ने कोई अध्ययन किये हैं, यदि हाँ तो इन्हें किस जर्नल में प्रकाशित किया है? किस ग्रह का असर कितना होता है, क्या यह विस्तार से बताया गया है?

प्रश्न २ – क्या राहु-केतु नामक ग्रह होते हैं? या यह काल्पनिक हैं? यदि होते हैं, तो सौरमंडल में उनकी सही स्थिति और कोण आदि क्या है? और यदि काल्पनिक हैं, तो उनका असर कुंडलियों और जीवन पर कैसे पड़ता है? क्यों राहु और केतु का दशा काल 18 और 7 वर्ष रखा गया है? कोई अध्ययन या वैज्ञानिक ग्रन्थ हो तो “रेफ़रेन्स” दें।

प्रश्न ३ – एक ही स्थान, एक ही समय, एक ही परिवार, एक ही पृष्ठभूमि में जन्म लेने वाले दो जुड़वाँ बच्चों के कर्म, आचरण, शिक्षा, विवाह, बच्चों का जन्म और मृत्यु आदि में अन्तर क्यों आना चाहिये? (“भाग्य में लिखा है” नामक जवाब छोड़कर)

फ़लज्योतिष या भविष्यवक्ताओं को असुविधा में डालने के लिये कई ऐसे विषय हैं, जिन पर ज्योतिषी सीधे तौर कुछ भी बोलने से बचते रहते हैं, इसीलिये कई लोग अब यह मानने लगे हैं कि ज्योतिष या भविष्यकथन आदि के जो दावे किये जाते हैं वह दरअसल Law of Probability (संभाव्यता के सिद्धांत) पर आधारित होते हैं। यदि मेरे पास दस व्यक्ति प्रश्न पूछते हैं कि गुरुजी मेरी भैंस खो गई है, कहाँ मिलेगी? और मैं उन दसों व्यक्तियों को कहूँ कि जाओ बच्चा, तुम्हारी भैंस पूर्व दिशा में मिलेगी... तो इस बात की संभावना 40% से भी अधिक है कि सच में भैंस पूर्व दिशा में ही मिले, अर्थात मेरे चार भगत तो पक्के बन गये, बाकी के छः लोग भी अपने मन को किसी कारण से समझा लेंगे, लेकिन “बाबा” को दोष कतई नहीं देंगे। यदि भविष्यकथन इतना ही सही होता तो तमाम ज्योतिषी शेयर मार्केट में पैसा लगाकर रातोंरात अरबपति हो जाते, लेकिन ऐसा है नहीं, वरना मुकेश अम्बानी की जन्मपत्रिका देखकर कोई महान ज्योतिषी आसानी से बता सकता है कि “रिलायंस पेट्रोलियम” का शेयर अगले तीन साल में कितना “रिटर्न” देगा, ऐसा दावा अभी तक किसी ज्योतिषी से सुनने में तो नहीं आया है।

ज्योतिष के मूल सिद्धांत अर्थात “जन्म समय” जिस पर सारा ज्योतिष टिका हुआ है, जब वही विवादों के घेरे में हो तब सही भविष्यवाणी कैसे की जा सकती है। जन्म समय किसे माना जाये? जब गर्भ में पहली बार कोई जीव जन्म लेता है तब (यह तो खुद माँ-बाप भी नहीं बता सकते)...यदि यह समय जीवात्मा के जीवन का नहीं माना जाता तो फ़िर कम से कम गर्भधारण का आठवाँ महीना तो माना ही जाना चाहिये, क्योंकि तब तक बच्चे की सुनने-समझने की शक्ति विकसित हो चुकी होती है (वरना अभिमन्यु के चक्रव्यूह भेद वाली “थ्योरी” धराशायी हो जायेगी)... या उस समय को माना जाये जब वह गर्भाशय से बाहर आता है तब... या फ़िर उस समय को जब उसकी नाल काटी जाती है और पहली बार उसके मुँह से आवाज निकलती है तब... ज्योतिषियों में इस पर मतभेद हैं, तो पहले यह बात तो स्पष्ट हो, फ़िर बाकी की बातें... क्योंकि इन सभी समय में कहीं नौ माह का, कहीं दो चार मिनट का तो कहीं-कहीं दस पन्द्रह मिनट का अन्तर भी आना स्वाभाविक है। जब हमारे ज्योतिषी बन्धु इस बात पर जोर देते हैं कि हर पन्द्रह मिनट में ग्रहों की स्थिति बदल जाती है, तब इतने बड़े अन्तर से तो कुछ का कुछ हो सकता है। और इस बात की भी क्या गारंटी है कि नर्स ने प्रसूतिगृह से बाहर आकर जो समय बताया वही सही हो, उसमें भी हेर-फ़ेर हो ही सकता है... फ़िर कैसे सही भविष्य देखा जायेगा?

अब बात आती है चुनौतियों की, डॉ.अब्राहम कोवूर (भारत में जन्मे और फ़िलहाल श्रीलंका में स्थाई निवासरत) नामक एक वैज्ञानिक ने वर्षों पहले भारत में चल रहे अंधविश्वासों और “बाबागिरी” के चमत्कारों(?) को लेकर कुछ चुनौतियाँ दी थीं, जैसे बन्द कमरे में कथित चमत्कार दिखाना, कम से कम कपड़ों में चमत्कार दिखाना, अंगूठी, भभूत जैसी छोटी चीजों की बजाय हवा में से कद्दू, गन्ना जैसी वस्तुयें प्रकट करना आदि शामिल थीं (इन चुनौतियों को स्वीकार करने और करके दिखाने पर इनाम राशि उस वक्त एक लाख रखी थी, जो अब बढ़कर पाँच लाख कर दी गई है)। आज तक इन चुनौतियों को किसी ने स्वीकार नहीं किया है। १ से ३ दिसम्बर १९८५ को तीसरे अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन में इन्हीं डॉ.कोवूर ने ज्योतिषियों को भी निम्नलिखित चुनौतियाँ दी थीं-

(१) ज्योतिषियों को दस अचूक जन्मसमय की कुंडलियाँ दी जायेंगी और साथ ही दस हाथों के निशान कागज पर दिये जायेंगे, उन्हें सिर्फ़ यह बताना होगा कि सम्बन्धित व्यक्ति जीवित है या मृत? तथा स्त्री है या पुरुष?

(२) इसी प्रकार दूसरे दस कुंडलियों और अंगूठे के निशान के समूह के आधार पर सम्बन्धित व्यक्ति के शिक्षण, विवाह, दुर्घटनायें, नौकरी/व्यवसाय और मृत्यु की बाबत भविष्यवाणियाँ करना हैं, यदि अस्सी प्रतिशत भी सही निकल जायें तो हम (अर्थात महाराष्ट्र अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति) इसे विज्ञान मान लेंगे।

(३) ऊपर दी गई पद्धति के अनुसार विख्यात ज्योतिषियों (जिनका चयन भी ज्योतिषियों की महासमिति ही करे) को अलग-अलग कमरों में बैठाकर भविष्यकथन करवाया जायेगा। इससे यह सिद्ध होगा कि भारत के नामचीन ज्योतिषियों द्वारा एक जैसी कुंडलियों और समय के आधार पर किया गया कथन सत्य से कितना दूर होगा और उन्हीं महानुभावों के आपस में एक-दूसरे के विरोधी कथन आने पर समाज के सामने असलियत आ सकेगी।

लेकिन इस चुनौती को स्वीकार करने के लिये आज तक कोई तैयार नहीं हुआ है...फ़िर वे इसे विज्ञान कैसे कह सकते हैं? अभी तो मेरे पास कई प्रश्न हैं, फ़िलहाल लेख के शुरुआत में दिये हुए तीन प्रश्नों का उत्तर जान लूँ, और इन चुनौतियों के बारे में महान लोगों के विचार देखूँ, फ़िर आगे और सवाल होंगे... ज्योतिषीगण कृपया इनके जवाब दें, चाहे तो अपने ब्लॉग पर ही दें, या मुझे व्यक्तिगत मेल करें...
(सन्दर्भ : महाराष्ट्र अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति एवं प्रकाश घाटपांडे, पुणे)

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Contradictions in Astrological Methods
“ज्योतिष विज्ञान नहीं, कोरी कल्पना और अनुमान है” लेख में हमने देखा कि किस तरह से विज्ञान के मूल सिद्धांत पर भी ज्योतिष टिकता नहीं है और खामोश बना रहता है, अब उन “कथित” असरकारी तरंगों को देखें -

सबसे पहले याद करें ज्योतिष के मूल सिद्धांत को कि “ग्रह अपना प्रभाव धरती पर डालते हैं”, चलो मान लिया कि दूर आकाश से किसी प्रकार की किरणें मनुष्य के जन्म-स्थान तक पहुँच भी गईं, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि वे किरणें धरती के दूसरे हिस्से में जन्म लेने वाले बच्चे तक कैसे पहुँच जाती हैं? (सभी जानते हैं कि धरती गोल है, इसलिये कोई भी ग्रह धरती के उसके सामने वाले हिस्से को ही प्रभावित कर सकता है, जैसे कि चन्द्र या सूर्यग्रहण कहीं-कहीं ही दिखाई देता है)। लेकिन ज्योतिष विज्ञान(?) के अनुसार ग्रहों और नक्षत्रों का असर धरती के उस दूसरे हिस्से पर भी होता है, जो उसके सामने नहीं है। शायद वे यह कहना चाहते हैं कि धरती तो चपटी है थाली की तरह, जिसमें सारी किरणें या जो भी कुछ है, सभी स्थानों पर जन्म लेने वालों पर समान प्रभाव डालेंगे।

(१) इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें – यह किरणें अधिकतर प्रकाश किरणों के रूप में होती हैं, और स्वाभाविक है कि ये किरणें धरती से अंधेरे वाले हिस्से में नहीं पहुँच सकतीं। न ही इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें धरती को भेदकर दूसरी तरफ़ पहुँच सकती हैं, मतलब ज्योतिष के लिये इन किरणों का कोई मतलब नहीं है।

(२) गुरुत्वाकर्षण – विज्ञान के अनुसार दो पिंडों के बीच की दूरी पर यह बल निर्भर होता है, लेकिन ज्योतिष विज्ञान को गुरुत्वाकर्षण से भी कोई लेना-देना नहीं होता। प्रत्येक ग्रह और धरती की दूरी समयानुसार थोड़ी-बहुत घटती-बढती रहती है, सो उसका असर भी कम-ज्यादा होना चाहिये, लेकिन ज्योतिष इस बात को नहीं मानता।

(३) चुम्बकीय किरणें – इनका प्रभाव एक बहुत ही सीमित हिस्से तक होता है, ये अधिक दूरी तक प्रवास नहीं कर सकतीं। करोड़ों मील दूर किसी ग्रह से चुम्बकीय किरणें यहाँ तक पहुँचना नितांत असम्भव है। इसी प्रकार वैदिक ज्योतिष के “खास” कमाई वाले ग्रह राहु-केतु की उपस्थिति के बारे में अभी तक तो विज्ञान को नहीं पता, कि वे धरती के किस कोण पर, कितनी दूरी पर स्थित हैं, राहु और केतु की तारामंडल में निश्चित स्थिति क्या है? न ही ज्योतिष विज्ञान ने किसी तरह से हमें यह बताने की जहमत उठाई है। क्या राहु-केतु कोई चुम्बकीय प्रभाव डाल सकते हैं? पता नहीं..। मतलब चुम्बकीय प्रभाव वाली “थ्योरी” भी नहीं लागू हो रही... तात्पर्य यह है कि यदि हम मान भी लें कि ग्रहों या नक्षत्रों का कोई प्रभाव होता भी है, तो कृपया बताया जाये कि वह पृथ्वी तक पहुँचता किस प्रणाली से है? स्वाभाविकतः एक सवाल मन में उठता है कि कहीं ये किरणें ग्रहों की बजाय ज्योतिषियों के दिमाग की तरंगें तो नहीं?

इस मोड़ पर आकर तमाम ज्योतिषी दैवी शक्ति, पुराण, पवित्रता, आदि की दुहाई देने लग जाते हैं। वे कुतर्क देने लग जाते हैं कि “ज्योतिष” कोई ऐसा-वैसा या ऐरा-गैरा विषय नहीं है, यह विषय विज्ञान के आगे की चीज है, जहाँ भौतिक विज्ञान समाप्त होता है, वहाँ से ज्योतिष आरम्भ होता है...आदि-आदि, और तारों-ग्रहों-नक्षत्रों का प्रभाव धरती के प्राणियों पर अवश्य पड़ता है। यह प्रभाव रहस्यमयी तरीके से यहाँ तक पहुँचता है। ऊपर दिये गये तर्कों को काटने के लिये कुछ प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने इस प्रभाव को दैवीय और गुप्त रूप से उत्पन्न भी बताया है। वे सीधे कह देते हैं कि ग्रहों की स्थितियों के अनुसार पड़ने वाले प्रभावों को वैज्ञानिक तरीके से साबित नहीं किया जा सकता।

इन तर्कों के आधार पर ज्योतिषियों का दोमुँहापन साफ़-साफ़ उजागर हो जाता है, जब हम कहते हैं कि ज्योतिष शास्त्र दैवीय शक्तियों, चमत्कार आदि की बातें करता रहता है तो वे कहते हैं कि नहीं यह एक विज्ञान है, और जब विज्ञान सम्बन्धी उनके तर्क नहीं चलते तो वे गुप्त, रहस्यमयी, पाप-पुण्य, भाग्य आदि की बातें करके कहते हैं कि इसे विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता, अब इसे क्या कहा जाये?

वैदिक ज्योतिष में “दशा-पद्धति” की विसंगतियाँ और उठते प्रश्न –
“ज्योतिष” विज्ञान का मूल सिद्धान्त है “जैसा ऊपर, वैसा ही नीचे” अर्थात जैसा अन्तरिक्ष या सुदूर ब्रह्माण्ड में घटित होगा उसका असर धरती पर पड़ेगा। अर्थात ऐसी उनकी मान्यता होती है, और उसी के अनुसार वे भविष्य में आने वाली घटनाओं की गणना करके “ग्राहक” को बताते हैं। हमें देखना होगा कि जिस “ऊपर” नाम की चीज या “ब्रह्माण्ड” की बातें ये करते हैं और उसी के आधार पर राशियों और जन्म-कुण्डली का निर्धारण करते हैं, दर-असल वहाँ वैज्ञानिक समय पद्धति से क्या-क्या घट रहा है, जिसके आधार पर यहाँ “नीचे” मनुष्यों के भविष्य, भाग्य(?) और दुर्भाग्य(?) का निर्धारण वे सतत्‌ करते रहते हैं। ज्योतिष के मूल सिद्धान्त “दशा-पद्धति” में साफ़-साफ़ असंगत नजर आते हैं। “दशा-पद्धति” सिर्फ़ “मानो या ना मानो” के सिद्धान्त पर काम करती है, इसका ग्रहों या तारों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता, न ही राशियों और जन्म-नक्षत्रों से। अद्‌भुत तरीके से यह “गणनायें” की जाती हैं और इसमें सिर्फ़ ग्रह का नाम देना ही पर्याप्त होता है, राशि का नाम जरूरी नहीं है। “दशा-पद्धति” ऐसी अनोखी पद्धति है जिसमें तारों और ग्रहों की कोई आवश्यकता नहीं है, सिर्फ़ उनका नाम लेना काफ़ी है।

दशा-पद्धति के आधारभूत तत्व-
इस पद्धति में ग्रह का नाम होता है, एक “प्रॉक्सी” के तौर पर, यह नाम ही उस ग्रह की तमाम “पॉवर ऑफ़ अटॉर्नी” लेकर चलता है, इसलिये ध्यान दें कि “ग्रह” मतलब सिर्फ़ एक नाम है, असली ग्रह नहीं। यह पद्धति मानकर चलती है हरेक ग्रह का अपना-अपना पूर्वनिर्धारित “स्वभाव” और “प्रभाव” होता है और ये ग्रह उसी के अनुसार मनुष्य पर कुछ वर्षों तक अपना असर डालते हैं, जिसे वे “दशा-काल” कहते हैं। ग्रहों के नाम और स्थान मनमाने तरीके से संयोजित किये हुए प्रतीत होते हैं, क्योंकि ये ग्रह उसी निर्धारित क्रम पर चलते हैं। वे एक के बाद एक आते हैं और मनुष्य के जीवन पर अपने निर्धारित वर्षों तक प्रभाव डालते हैं, फ़िर अगला ग्रह दूसरे ग्रह से “चार्ज” ग्रहण करता है और यह प्रक्रिया चलती रहती है। १२० वर्षों की दशा को “विंशोत्तरी” कहा जाता है जिसमें ग्रहों का क्रम इस प्रकार है – केतु (एक काल्पनिक ग्रह), शुक्र (Venus), सूर्य (Sun), चन्द्र (Moon), मंगल (Mars), राहु (काल्पनिक), गुरु (Jupiter), शनि (Saturn) और बुध (Merquery). इन ग्रहों का दशा-काल (प्रभाव समय) इस प्रकार मान लिया गया है – 7, 20, 6, 10, 7, 18, 16, 19, और 17 कुल मिलाकर 120 वर्ष। जबकि 108 वर्षों के दशा-काल, जिसे “अष्टोत्तरी” कहा जाता है, इसमें ‘केतु’ को निकाल दिया गया है। इस काल में शुक्र से मंगल तक तो क्रम वही है, लेकिन बाकी के चार ग्रहों को उलटे क्रम में लगा दिया जाता है, पता नहीं क्यों (जाहिर है कि ज्योतिष के विद्वान मेरे जैसे अज्ञानी और अधर्मी को इस बात का भी जवाब देंगे)। निश्चित तौर पर इन सबका कोई ठोस कारण नहीं नजर आता। जब राहु और केतु दोनों काल्पनिक ग्रह हैं फ़िर राहु का दशा काल 18 वर्ष और केतु का 7 वर्ष क्यों? दशा पद्धति का सम्बन्ध हमारे जीवन पर ऐसा माना गया है – बच्चे का जन्म नक्षत्र (Zodiac Birth) कुण्डली के आधार पर तय किया जाता है, इस जन्म-नक्षत्र का एक ‘स्वामी’ (Boss) या भगवान होता है। जब इसका कार्यकाल समाप्त हो जाता है तब अगल ग्रह आकर उसका स्थान ले लेता है और यह क्रम सम्पूर्ण जीवन तक चलता रहता है।

कुछ ज्योतिषी और पुराने लोग तो यह दावे भी करते रहते हैं कि – “कुछ प्राचीन ऋषियों ने हजारों साल पहले ताड़पत्रों पर समूची मानव जाति का भविष्य लिख दिया था”, “उन ऋषियों ने तो सारे अनुमान और जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य का भूत-भविष्य पहले ही देख लिया था”, “उन ताड़पत्रों को सिर्फ़ विशेषज्ञ लोग ही पढ़ सकते हैं क्योंकि वे एक विशिष्ट भाषा में लिखे हुए हैं”, तात्पर्य यह कि सब कुछ रहस्यमयी, मनमाना, अगणितीय, अवैज्ञानिक है। यदि नहीं, तो महान लोग बताने का कष्ट करें कि- एक ही स्थान और एक ही समय पर, यहाँ तक कि लगभग एक ही पारिवारिक पृष्ठभूमि रखने वाले दो बच्चों (यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चों) के कर्म, उनके भविष्य, उनकी नौकरी/व्यवसाय, उनकी शादी, उनके बच्चे, उनकी मृत्यु के बीच समानता क्यों नहीं होती? क्यों सुनामी में मारे गये लाखों लोगों की कुण्डली एक जैसी नहीं थी?

जब विज्ञान कहता है कि H2 और O को मिलाकर पानी बनता है तो वह पानी साइबेरिया में भी बनता है और ऑस्ट्रेलिया में भी बनता है। विज्ञान कभी भी यह नहीं कहता कि अब हम यह टेलीफ़ोन चालू कर रहे हैं, यदि आपका “कर्म” अच्छा होगा तो यह चलेगा, नहीं तो नहीं चलेगा। विज्ञान ने यह भी कभी नहीं कहा कि हम यह मोटर चालू कर रहे हैं, यदि आपका “भाग्य” साथ देता रहा तो यह चलती रहेगी, हो सकता है कि न भी चले, यह भी हो सकता है कि आपके पूर्वजन्म के कारण यह मोटर जल जाये। लेकिन ज्योतिषियों के पास इस बाबत्‌ तमाम कुतर्क होते हैं, और भोला भगत इस बात पर विश्वास कर लेता है कि “पंडित” जी ने तो भविष्य एकदम सही बताया था, लेकिन क्या करें “भाग्य में यही लिखा था”, “जो होना है वह होकर ही रहता है”, “हो सकता है कि हमारे कर्मों में कोई खोट हो” आदि-आदि। मतलब ज्योतिषी महोदय माल अंटी करके भी साफ़ बरी।

हाल ही में तमिलनाडु में एक व्यक्ति ने कोर्ट में धोखाधड़ी का मुकदमा दायर किया था जिसमें ज्योतिषी महोदय एक मृत व्यक्ति की कुण्डली देखकर उसके उज्जवल भविष्य और चमकदार कैरियर की भविष्यवाणियाँ करते पकड़े गये थे। जब कुण्डली देखकर वे यह भी नहीं बता सकते कि मौत हो चुकी है तब वे विवाह, गृहप्रवेश, परीक्षा में पास/फ़ेल होने जैसी बातों के बारे में एकदम सही कैसे बता सकते हैं। एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल (जो कि ज्योतिष, ज्योतिषियों, पंडों और पुजारियों के लिये मशहूर है) के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी की लड़की ने घर से भागकर एक दूसरे धर्म के लड़के से शादी कर ली, ज्योतिषी महाशय को पता ही नहीं चल सका। दूसरे एक और महान ज्योतिषी ने अपनी लड़की की पचासों कुंडलियाँ मिलाकर, तमाम ठोक-बजाकर उसकी शादी की लेकिन “जमाईराजा” दारुकुट्टे और जुआरी निकले, उनकी लड़की को आत्महत्या करनी पड़ी, ऐसा क्यों? यदि वे पचास कुंडलियाँ देखकर भी अपने लिये एक सही दामाद नहीं ढूँढ सकते तो फ़िर उन्हें ज़माने को ‘ज्ञान’ बाँटने का क्या हक है? इसलिये इसे विज्ञान कहना तो कम से कम बन्द किया जाये, हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि यह सिर्फ़ एक अनुमान है, जिसके सही या गलत होने की पूरी सम्भावना है, और यही तो हम कह रहे हैं... दिक्कत यह है कि “खगोल विज्ञान” का विस्तार करके स्वार्थी तत्वों ने उसे “ज्योतिष विज्ञान” बना दिया है।

दुनिया के बड़े-बड़े और विद्वान ज्योतिषी सेमिनार करें, गोष्ठियाँ करें, सभायें करें, कुछ उपकरणों की मदद लें और सभी मिलकर बतायें कि फ़लाँ लड़की की कुण्डली में भयानक सा “मंगल” बैठा हुआ है, अव्वल तो इसकी शादी होगी ही नहीं या यदि किसी ने इससे शादी की तो उसकी इतने-इतने समय में मृत्यु हो जायेगी, और वाकई में वैसा ही हो तब तो इसे विज्ञान माना जायेगा... और ऐसा एक कुंडली में नहीं बल्कि सर्वमान्य रूप से एक जैसी कुण्डलियों में होना चाहिये, यही तो विज्ञान का सिद्धान्त है कि जो एक जगह और एक व्यक्ति के लिये लागू है वही सभी के लिये लागू होगा। लेकिन नहीं, जहाँ आपने तर्क-वितर्क करने की कोशिश की, तत्काल आप अधर्मी, नालायक, बड़बोले आदि घोषित कर दिये जाते हैं, ताकि सच्चाई (जो अभी साबित होना बाकी है) सामने न आ सके, धन्धा-पानी बदस्तूर जारी रहे।

हाल ही में हरियाणा के रोहतक में एक डॉक्टर दंपति ने तथाकथित तन्त्र-मंत्र के चक्कर में अपने एक बेटे की बलि चढ़ा दी, यह निश्चित तौर पर झकझोरने वाली और समर्थ सोच रखने वाले लोगों के लिये वाकई चिन्ता की बात है। एक पढ़े-लिखे पति-पत्नी भी जब तंत्र-मंत्र के चक्कर में इस हद तक गिर जाते हैं तो बेचारे अनपढ़ और गाँव वाले लोगों को क्या दोष दिया जा सकता है? तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, ज्योतिष-कुण्डली, धर्म-कर्म, भाग्य, अंधविश्वास आदि से हमारा समाज इतना प्रभावित है कि उच्च और वैज्ञानिक शिक्षा भी उसे “बाबागिरी”, “कर्मकाण्ड” आदि कुचक्रों से बाहर नहीं निकाल पा रही है।

ज्योतिषी जरा नील आर्मस्ट्रॉंग की कुंडली देखकर बतायें कि उस पर चन्द्रमा का कितना असर हुआ? और सुनीता विलियम्स की कुंडली भी देखें कि लगभग दो सौ दिन पृथ्वी से दूर रहने से मंगल का कितना प्रभाव उस पर कम-ज्यादा हुआ, क्योंकि पृथ्वी के चक्कर लगाने के दौरान सुनीता की दूरी रोज-ब-रोज मंगल और चन्द्रमा से घटती-बढ़ती रही थी? फ़िर वैज्ञानिक आँकड़ों के साथ विश्व के सामने आयें और बतायें। वरना यूँ ही ज्योतिष को ‘विज्ञान’ कह देने भर से विज्ञान मान लेना भी एक अज्ञानता होगी।

अधर्मी, विधर्मी, नालायक, बड़बोला, अज्ञानी, बेवकूफ़ आदि शब्दों को अग्रिम में ग्रहण करते हुए वैज्ञानिक और गणितीय तर्कों के इन्तजार में हूँ..... ताकि उनका भी सकारात्मक जवाब दिया जा सके। अगले भाग में कुछ और तार्किक प्रश्न होंगे, जाहिर है कि मुझमें अक्ल की कमी है...

(लेख में सन्दर्भ – महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के साहित्य से)

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Astrology, Science, Fiction and Predictions

मेरे एक लेख “क्या आप भगवान को मानते हैं?” के जवाब में कुछ ज्योतिषी बन्धु बहुत लाल-पीले हुए थे और मुझे अधर्मी, अज्ञानी का खिताब दिया था। अक्सर अपने धन्धे की मार्केटिंग के लिये ज्योतिष को “विज्ञान” बताया जाता है, ताकि शिक्षित लोग भी उसके झाँसे में आ जायें। इसी विषय को लेकर मैंने कुछे मुद्दे उठाने की कोशिश इस लेखमाला में की है, जिस पर विचार किया जाना, बहस-मुबाहिसा किया जाना, नये-नये तर्क दिया जाना आवश्यक है ताकि भ्रम छँटे और वास्तविक स्थिति लोगों के सामने आ सके।

यह बात तो सभी मानेंगे कि जब तक ज्योतिष और ग्रहों के तथाकथित असर जब तक साबित नहीं हो जाते, कम से कम तब तक तो ज्योतिष विद्या एक “अप्रायोगिक विश्वास” ही है, लेकिन सिर्फ़ यही आधार ज्योतिष को विज्ञान नहीं होना सिद्ध नहीं करता, कुछ और भी आधार हैं जिन पर विचार किया जाना आवश्यक है ताकि साबित किया जा सके कि ज्योतिष विज्ञान नहीं है, बल्कि कोरे अनुमान, ऊटपटाँग कल्पनायें और खोखला अंधविश्वास है।

सिर्फ़ यह कह देने भर से कि रोजाना हजारों ज्योतिषियों के लाखों अनुमान गलत साबित होते हैं, इसलिये ज्योतिष विज्ञान नहीं है, भी काफ़ी नहीं होगा। ज्योतिष-भाग्य-पूर्वजन्म आदि को मानना न मानना हरेक का व्यक्तिगत मामला है, लेकिन जब ज्योतिष को “विज्ञान” बताया जाता है तब असली आपत्ति शुरु होती है। सबसे पहला प्रश्न तो उठता है- विज्ञान क्या है? ऑक्सफ़ोर्ड के एक शब्दकोष के अनुसार – “ज्ञान की एक शाखा, विशेषकर वह जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हो, एक संगठित संस्था द्वारा एकत्रित प्रयोग आधारित जानकारी पर आधारित सूचनाओं का भंडार”। विज्ञान की इस परिभाषा को यदि ‘ज्योतिष’ पर लागू किया जाये तो इनमें से कोई भी सिद्धांत ज्योतिर्विज्ञान पर लागू नहीं होता है, न तो वैज्ञानिक परिभाषायें ना ही भौतिक अवस्थायें, कैसे? आगे देखते हैं

“इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका” के अनुसार, “ग्रहों के काल्पनिक वृत्त (या निशान) अथवा कोई काल्पनिक गोलाकार (जैसे- राशियाँ आदि) किसी प्रकार की “शक्ति” से लैस होते हैं या उनके कोई विशेष प्रभाव होते हैं, यह सिद्धांत विज्ञान को मान्य नहीं हैं”। इसमें एक और बात भ्रम पैदा करने वाली यह है कि भारतीय ज्योतिषियों और पश्चिमी “एस्ट्रोलॉजी” के सिद्धांतकारों में भी इन “शक्तिशाली ग्रहों” के स्थान आदि पर भारी मतभेद हैं, इसी से ज्योतिष सम्बन्धी सारे अनुमान विसंगतिपूर्ण हो जाते हैं। ज्योतिष का मूल सिद्धांत यह है कि तमाम ग्रह या नक्षत्र अपने-अपने स्थान (घर) में स्थित होकर उसी के अनुसार व्यक्ति को फ़ल या कुफ़ल देते हैं, पूरी तरह से काल्पनिक और मात्र पूर्व अनुमानों पर आधारित होता है। ये कल्पनायें भी इस प्रकार हैं- “ग्रहों को अपना खुद का ज्ञान होता है”, “सारे ग्रह ज्योतिषियों की तरह जानकारी रखते हैं और जिस ‘घर’ में वे होते हैं उसी के अनुरूप वे सदा पवित्र या अपवित्र शक्तियाँ मानवों को देते चलते हैं”, जो कि ज्योतिषी तमाम गणनायें करके बताते हैं। इस प्रकार की अनोखी और अलौकिक कल्पनायें विज्ञान की कसौटी पर कहीं से कहीं तक खरी नहीं उतरतीं। इस तर्क का ज्योतिष विज्ञानी(?) कभी भी खंडन नहीं करते, इसलिये “ज्योतिष विज्ञान नहीं है, सिर्फ़ कल्पना है” इस बात को बल मिलता है।

क्या मनुष्य के जीवन को ग्रह प्रभावित करते हैं?
“स्वर्गीय” या ग्रहों के प्रभाव पृथ्वी पर दो तरह से असर डाल सकते हैं- पहला है प्राकृतिक या भौतिक और दूसरा है ज्योतिष के सिद्धांत के अनुसार।
(१) भौतिक रूप – सूर्य और चन्द्रमा मनुष्य जीवन को प्रभावित करते हैं, भौतिक स्वरूप में। मनुष्य जीवन ऊर्जा से चलता है, और सूर्य हमें अपनी भौतिक किरणों से हमें ऊर्जा और ऊष्मा प्रदान करता है। सूर्य के कारण ही भिन्न-भिन्न मौसम, वर्षा, ठंड आदि आते-जाते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण और चुंबकीय बलों के कारण धरती पर समुद्र में ज्वार-भाटा आदि आते हैं, इससे सिद्ध होता है कि सूर्य और चन्द्रमा मानव जीवन पर अपना भौतिक असर डालते हैं। इन प्रभावों को हम तमाम वैज्ञानिक विधियों और उपकरणों से नाप सकते हैं, प्रभाव को कम-ज्यादा कर सकते हैं। लेकिन क्या बाकी के सारे ग्रह भी इसी प्रकार हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं? इसका उत्तर है कि- यदि मान लिया जाये कि उन सभी ग्रहों का कुछ असर होता भी है तो उनकी दूरी के कारण वह बेहद अप्रभावी और लगभग उपेक्षा करने योग्य होता होगा। क्योंकि आज तक किसी ज्योतिषी ने किसी उपकरण द्वारा यह नहीं बताया है कि किसी ग्रह विशेष की किरणों(?) से मनुष्य को कितना नुकसान हुआ है? एक खास बात ध्यान देने वाली यह है कि सूर्य और चन्द्रमा के जो भी प्रभाव मनुष्य पर पड़ते हैं, वे सार्वजनिक और समानुपात से सभी पर पड़ते हैं, ना कि ज्योतिष के सिद्धांत के अनुसार, जिसमें “मंगल” चुन-चुनकर लड़कियों या लड़कों को अपना निशाना बनाता है। सीधी बात है कि किसी ग्रह का असर सभी मनुष्यों पर समान रूप से पड़ना चाहिये, न कि व्यक्तिगत रूप से (यदि यह विज्ञान है, तो)।
(२) दूसरा रूप विशुद्ध ज्योतिष के अनुसार- कि प्रत्येक ग्रह मनुष्य जीवन पर प्रभाव डालता है। ये और बात है कि आज तक प्रायोगिक रूप से इस बात को किसी महान ज्योतिषी ने साबित नहीं किया है, न कोई वैज्ञानिक उपकरण से मापा गया है, ना ही किसी अन्य विधि से सर्वमान्य रूप से इसे सिद्ध किया गया है, बस मान्यता है कि ऐसा होता है, कैसे और क्यों होता है, इसके बारे में पूछना बेकार है और ग्रहों का प्रभाव व्यक्ति विशेष पर ही क्यों पड़ता है, समूची धरती पर एक साथ नहीं? कार्ल ई.कोपेन्शर ने तथाकथित “मंगल प्रभाव” को सिरे से गलत साबित कर दिया है, साथ ही इस बात को भी गलत साबित कर दिया कि ग्रहों का प्रभाव अनुवांशिकी भी होता है (जैसी कि मान्यता है कि पिता और पुत्रों की कुंडलियों में काफ़ी समानतायें पाई जाती हैं)। इसलिये अब तक इस बारे में कोई पक्का सबूत पेश नहीं किया गया है कि ग्रहों और नक्षत्रों का प्रभाव होता है, या मनुष्य पर पड़ता है।

खगोल विज्ञान और ज्योतिष का घालमेल करना-
प्रत्येक ज्योतिषी और भारत में ज्योतिष को मानने वाले सदा जपते रहते हैं कि पृथ्वी और अन्य दूरस्थ ग्रहों का आपस में कुछ सम्बन्ध होता है। वे यह बात जन्म से ही मानकर चलते हैं और जमाने भर को घुट्टी में पिलाते रहते हैं, कि तारे और ग्रह कोई विशेष प्रकार की किरणें छोड़ते हैं जो धरती पर इन्सानों और यहाँ तक कि घटनाओं को भी प्रभावित करती है। तत्काल यह प्रश्न उठना चाहिये कि ये ज्योतिषीय प्रभाव या किरणें या असर (या जो भी कुछ है), वह पृथ्वी तक पहुँचता कैसे है? विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि किसी भी प्रकार के बल या तरंगों को दूर तक प्रवास करने और वहाँ कुछ असर डालने के लिये तीन प्रकार के बलों की आवश्यकता होगी ही –

(१) इलेक्ट्रोमैग्नेटिक विकिरण (Electromagnetic Radiation)
(२) गुरुत्वाकर्षण (Gravitational Attraction) या
(३) चुम्बकीय तरंगे (Magnetic Fields)

अब कम से कम विज्ञान तो इन तीन कारणों के अलावा और कोई कारण नहीं जानता, जिससे कि सुदूर स्थित कोई पिंड अपना प्रभाव धरती तक पहुँचा सके। अब कुछ क्षणों के लिये मान भी लिया जाये कि इनमें से किसी एक कारण से कोई ग्रह हमें प्रभावित करता है तो यह देखना होगा कि ज्योतिषीय सिद्धांत इनमें से किसमें “फ़िट” बैठता है। ... जारी रहेगा भाग-२ में भी....

अगले भाग में इन्हीं सिद्धांतों पर जरा विस्तार से चर्चा करूँगा और साथ ही कुछ और तर्क...

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Symmonds Australia Indian Cricket Team

क्रिकेट में “स्लेजिंग” का मतलब होता है कुछ बोलकर या हरकतों से विपक्षी खिलाड़ी को छेड़ना, जिससे कि वह गुस्से में आये, उसकी एकाग्रता भंग हो और वह गलती करे।

हाल की भारत-ऑस्ट्रेलिया सीरिज में खिलाड़ियों के बीच काफ़ी तूतू-मैंमैं हुई, जिसमें दर्शक भी शामिल हुए और मामले ने काफ़ी तूल पकड़ लिया, हालांकि ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों द्वारा यह करना एक आम बात है, लेकिन दरअसल वे क्रोधित (बल्कि भौंचक्के) इसलिये थे कि इस बार स्लेजिंग की शुरुआत की भारतीय युवा खिलाड़ियों ने। गोरी चमड़ी के देशों के खिलाड़ी (ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, द.अफ़्रीका और न्यूजीलैंड) स्लेजिंग के कार्य में माहिर माने जाते हैं (यह उनके संस्कारों मे ही है – कैसे भी हो...जीतो), लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह स्थिति धीरे-धीरे बदलती नजर आ रही है।

भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और वेस्टईण्डीज के खिलाड़ी अब ताने, गालीगलौज और छींटाकशी सुनते-सुनते तंग आ चुके थे। इन देशों की युवा ब्रिगेड ने अब “जैसे को तैसा” का जवाब देने की ठान ली है, और हो भी क्यों नहीं? अब इस खेल पर गोरे देशों का एकतरफ़ा कब्जा नहीं रहा है। काले-सांवले देश भी उन्हें जब-तब हराने लगे हैं, उनके गेंदबाजों को धोने लगे हैं, दर्शक संख्या इन काले देशों में ही ज्यादा होती है, विश्व क्रिकेट प्रशासन का सबसे अधिक पैसा यहीं से आता है, फ़िर यहाँ के खिलाड़ी गोरों की बातें क्योंकर सुनें? और कोई माने या माने सबसे बड़ा बदलाव आया है देश की आर्थिक स्थिति और नई सदी में भारत के युवाओं की सोच में। गाँधी जिस सदी में मरे थे अब वह बीत चुकी है। इक्कीसवीं सदी में जो युवा भारत की क्रिकेट टीम में आ रहे हैं, वे महानगरों के कम हैं, कस्बों और छोटे शहरों के ज्यादा हैं। भले ही आरम्भ में इन खिलाडियों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो, लेकिन अब भारत की तरक्की और बदली हुई परिस्थितियों में, वे कुछ भी चुपचाप सुन लेने वाले “मेमने” नहीं रहे, वे भी “मुँहजोरी” का जवाब “मुँहजोरी” से देना सीख गये हैं, और यह सही रवैया भी है। यह रवैया धीरे-धीरे हमें लगभग हरेक क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। जिस दिन युवाओं के यही विद्रोही तेवर भारत में फ़ैले भ्रष्टाचार के प्रति हो जायेंगे, उस दिन सही मायनों में बदलाव आयेगा।

बहरहाल, वे दिन अब लद गये जब भारत या पाकिस्तान या किसी अन्य देश के खिलाड़ी को कोई “गोरा” कुछ कहता था तो वे उसे हँसकर टाल देते थे, या “महान खेलभावना”(?) का परिचय देते हुए भूल जाते थे, लेकिन अब जमाना बदल गया है, हर कोई जीतना चाहता है, लाखों-करोड़ों रुपये दाँव पर लगे हुए हैं, खिलाड़ी के कैरियर का सवाल है, तनाव है, दबाव है, अब यह सब नहीं सहा जायेगा, यदि ताना मारा जाता है तो ताना मारा जायेगा, यदि गाली दी जाती है तो और बड़ी गाली दी जाती है। इसके पीछे गोरे देशों की मानसिकता “ठाकुरों-ब्राह्मणों” वाली सवर्ण मानसिकता है, कि- “ऐ साला, काला लोग, हम ही तुमको उठना-बैठना-खेलना सिखाया है और साला तुम हमारे सामने आँख उठाकर कैसे चलता है, कैसे हमें हरा सकता है... साले हम शासक लोग हैं और तुम गुलाम लोग हो, गालियाँ खाते रहना तुम्हारी नियति है”, इसी घटिया मानसिकता के चलते अधिकतर काले देशों के खिलाड़ियों के साथ अन्याय होता आया है। “चकर” होगा तो शोएब अख्तर या मुरलीधरन, ब्रेट ली नहीं.... “दूसरा” नामक गेंद यदि हरभजन या सकलैन फ़ेंकेगा तो “वह थ्रो करता है”, यदि सचिन, इंजमाम या रणतुंगा, क्रीज पर अधिक देर तक टिक गया तो गालीगलौज, छेड़छाड़ तो पक्की है ही ऊटपटांग अपीलों का दौर भी प्रारम्भ हो जायेगा।

लेकिन अब जबकि क्रिकेट के तथाकथित “दलित” तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, उन्हें जब-तब हराने लगे हैं, रिकॉर्ड बुक में काले-सांवले लोगों के नाम ही ज्यादा आगे आने लगे हैं तो “गोरों” के पेट में दुखने लगा है और जिस चीज में वे अधिक माहिर हैं वे करने पर उतारू हो गये, लेकिन जब पासा पलटता दिखाई देने लगा, तब “उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे” की तर्ज पर पोंटिंग और सायमंड्स हल्ला मचाने लगे। उन्हें गुमान है “गोरी चमड़ी” का और “शासक वर्ग के होने” का, और इस गुमान को मुँहतोड़ जवाब देना जरूरी है। (भले ही “भारत का क्रिकेट खेल के उत्थान में कोई योगदान नहीं है, लेकिन इतने भी गये-गुजरे हम नहीं हैं कि कोई भी ऐरा-गैरा हमें गाली देता फ़िरे”)

अब यह तो सायमंड्स की धमकी से स्पष्ट हो गया है कि आने वाला ऑस्ट्रेलिया दौरा भारत के लिये खतरनाक रहेगा, लेकिन यदि सकारात्मक मानसिकता और “शठे शाठ्यम समाचरेत” का जज्बा दिल में रखते हुए, अग्नि परीक्षा पार करके वहाँ से लौटेंगे तब यह टीम एकदम बदली हुई टीम नजर आयेगी (यह आमतौर पर देखा जाता है कि किसी टीम के किसी खिलाड़ी को यदि कोई दूसरा गाली देता है तो टीम में एकजुटता बढ़ती है)।

सन्देश साफ़ है, “कौन बेवकूफ़ कहता है कि क्रिकेट एक जेंटलमैन गेम है”, मुगालता दूर कीजिये, क्रिकेट में भी छिछोरापन बढ़ता जा रहा है और, और बढ़ेगा, और हमारे युवा खिलाड़ी उसी भाषा में उसका जवाब भी देंगे।

“लेख के अगले भाग में क्रिकेट के इतिहास में घटित कुछ बेहद घटिया दर्जे की “स्लेजिंग” और पीड़ित खिलाड़ी द्वारा चुटीले और व्यंग्यात्मक अन्दाज में दिये गये जवाबी हमले, आदि के बारे में....”

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गुरुवार, 11 अक्टूबर 2007 17:13

भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-५)

Phonetics, Language, Alphabets in Hindi

अब तक पिछले चार भागों में हम उच्चारण के मूलभूत सिद्धांत, विभिन्न उच्चारक, उनकी स्थितियाँ, व्यंजन और अनेक परिभाषाओं के बारे में जान चुके हैं। इस भाग में हम जानेंगे स्वरों के बारे में।
पहले भाग में मैंने स्वरों की जो सूची दी थी, उसमें अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ और लृ को स्थान दिया था। इस पर कुछ पाठकों ने शंका व्यक्त की थी कि ‘अं’ और ‘अः’ को इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया है। इसका कारण समझने की कोशिश करें–

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मंगलवार, 09 अक्टूबर 2007 12:43

भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-४)

Phonetics, Language, Alphabets in Hindi

‘अ’ की तरह ‘ह’ को भी सभी वर्णों का प्रकाशक कहा जाता है। कोई भी वर्ण बिना विसर्ग और अकार के बिना उच्चारित नहीं हो सकता। अ ही नाभि की गहराई से उच्चरित होने पर विसर्ग बन जाता है। इस प्रकार अ स्वयं अपने में से अपना विरोधी स्वर उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह कि अ से ह तक की वर्णमाला में विसर्ग और अकार किसी ना किसी रूप में मौजूद रहते हैं।

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Kumaraswami, BJP, Karnatak, Power sharing

जो काम मायावती एक जमाने में करते-करते रह गईं थी, वह बाप-बेटे की जुगलबन्दी और काँग्रेस की पिछवाड़े से की गई “उँगली” ने कर दिखाया। कर्नाटक में सत्ता की बन्दरबाँट में जब माल देने की बारी आई तो बिल्ली सारा माल अकेले हजम करने की जिद कर बैठी, और “बन्दर” देखते ही रह गये। इसे कहते हैं “चोरों को पड़ गये मोर”...। इन भाजपा वालों के साथ कम से कम एक बार यह चोट होना जरूरी था, सत्ता के लिये “यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ, मत पूछो कहाँ-कहाँ” मुँह मारते भाजपाईयों को यह चमाट कुछ ज्यादा ही जोरदार लगा है (जोर का झटका धीरे से)। आश्चर्य सिर्फ़ इस बात का है कि जनता को ठगने वाले दो चोर आपस में ही एक दूसरे को ठग लिये और जनता को मजा आ गया। इसे कहते हैं “बिन पैसे का तमाशा”, क्या-क्या नहीं किया भाजपा ने इनके लिये, लग्जरी बस से गुजरात और मध्यप्रदेश घुमाने ले गये, पहले सत्ता भी दी, मुख्यमंत्री पद भी नहीं माँगा, इतने सारे “त्याग” के बदले मिला क्या... ठेंगा...। कम से कम अब तो भाजपा वालों को अकल आ जानी चाहिये कि “धर्मनिरपेक्ष दल” (हा हा हा हा) अपने बाप के भी सगे नहीं है, तो इनके क्या होंगे। मजे की बात तो यह है कि तमाम विचार मंथन, शिविर और जाने क्या-क्या आयोजित करने वाले इनके आका इन्हें समझाते क्यों नहीं कि भाजपा को अकेले ही चलना चाहिये, जब तक पूर्ण सत्ता ना मिले (चाहे वह पचास साल बाद मिले)। भानुमति का जो पिटारा वाजपेयी जी किसी तरह पाँच साल चला ले गये, उस वक्त ने ही इनकी खटिया खड़ी की है। कल्पना करें कि भाजपा कह देती कि जब तक हमारे तीन मुद्दे – राम मन्दिर, धारा ३७० और समान नागरिकता कानून नहीं माने जायेंगे, हमे किसी से गठबन्धन नहीं करना, सब जाओ भाड़ में। उस वक्त ये सारे चूहे जैसे दल कहाँ जाते, निश्चित रूप से कांग्रेस की गोद में तो नहीं, क्योंकि अपने-अपने राज्यों में तो ये कांग्रेस के खिलाफ़ ही जीत कर आये थे, लेकिन भाजपा वालों को अपने मुद्दे या अपनी पहचान या सौदेबाजी करने से ज्यादा सत्ता की मलाई चाटने की जल्दी थी और ताबड़तोड़ “एनडीए” नाम का जमूरा खड़ा किया (ठीक वैसा ही जैसा की अभी “यूपीए” नाम का है), अंततः हुआ क्या, कन्धार का दाग सदा के लिये माथे पर लग गया, नायडू साहब, जयललिता और ममता केन्द्र को चूस कर अपने-अपने रास्ते निकल लिये, ये “राम के बन्दर” बैठे रह गये हाथ में फ़टा हुआ भगवा लिये। अब भी वक्त हाथ से नहीं निकला है, मोदी को आगे करो, हिन्दुत्व की राजनीति खुलकर करो, कम से कम इतनी सीटें लाओ (और मिल भी जायेंगी) कि मजबूत सौदेबाजी की स्थिति में आ जाओ, फ़िर अपना मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनवाओ.... राम मन्दिर पर जोरदार काम करो, सरकार गिर जाती है तो गिर जाने दो, अगली बार, उसकी अगली बार, नहीं तो और अगली बार... कभी न कभी ये “धर्मनिरपेक्ष”(?) दल भाजपा को उनकी शर्तों पर समर्थन जरूर देंगे, लेकिन उसके लिये सत्ता का त्याग करना पड़ेगा, जो कि भाजपा के लिये एक मुश्किल भरा काम है... आगे “राम” जाने....


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शुक्रवार, 05 अक्टूबर 2007 21:02

भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-३)

Phonetics, Language, Alphabets in Hindi

(भाग-२ से जारी...)

कभी-कभी आश्चर्य होता है, अपने मुँह से हम इतने सारे शब्द, इतनी ध्वनियाँ कैसे निकालते हैं, यही तो हमारे वाणी तंत्र की विशेषता है। मानव का वाणी तंत्र नाभि से होंठ तक होता है, यह ध्वनि का एक अद्‌भुत उपकरण है। मनुष्य का वाणी तंत्र सर्वाधिक विकसित होता है। अन्य प्राणियों, पशु-पक्षियों में यह तंत्र इतना विकसित नहीं होता, इसीलिये उनकी ध्वनियाँ बहुत सीमित होती हैं। चिड़िया सिर्फ़ चीं-चीं करती सुनाई देती है, शेर-गाय-बकरी आदि की ध्वनियाँ भी सीमित हैं। लेकिन मनुष्य में हर वर्ण का एक अलग स्थान से उच्चारण होता है। इस तंत्र के ज्यादा से ज्यादा इतने हिस्से तय किये गये हैं कि प्रत्येक वर्ण के लिये एक-एक स्थान निर्धारित है।

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Phonetics, Language, Alphabets in Hindi

(भाग-१ से जारी...)
हमारी सृष्टि अक्षर से उत्पन्न होती है, इनका क्षरण नहीं होता इसलिये ये अक्षर कहलाते हैं। हमारी भाषा भी अक्षरों पर आधारित होती है, इन अक्षरों का भी क्षरण नहीं होता। अक्षर में स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं, इन्हें वर्ण भी कहा जाता है। ये सारे वर्ण ध्वनि पर आधारित हैं, ध्वनि ही नाद है, और यह नाद सम्पूर्ण आकाश में व्याप्त रहता है - सूक्ष्म रूप में। इसीलिये आज वैज्ञानिक, कृष्ण द्वारा कही गई गीता को अंतरिक्ष से प्राप्त करने के प्रयास में जुटे हैं।

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