दिल्ली और बिहार के चुनाव नतीजों से उत्साहित कांग्रेस ने सोचा कि अभी ये मौका बढ़िया है, जिसके द्वारा देश में यह हवा फैलाई जा अलावा कांग्रेस की मदद के लिए जेएनयू का “जमूरा” कन्हैया और उसकी वामपंथी बैंड पार्टी देश में नकारात्मक माहौल बनाने में जुटी हुई ही थी. लेकिन जब उन्नीस मई को चुनाव परिणाम घोषित हुए तो उन राज्यों की जनता ने अपना फैसला सुना दिया था कि नरेंद्र मोदी के “कांग्रेस-मुक्त” भारत को उनका समर्थन एक कदम और आगे बढ़ चूका है. कांग्रेस को केरल और असम जैसे राज्यों में सत्ता से बेदखल होना पड़ा, जबकि तमिलनाडु एवं बंगाल में अगले बीस वर्ष में दूर-दूर तक सत्ता में आने के कोई संकेत नहीं मिले. सांत्वना पुरस्कार के रूप में पुदुच्चेरी विधानसभा में कांग्रेस-द्रमुक गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल हो गया. कांग्रेस को इस सदमे की हालत में, सबसे तगड़ा वज्राघात लगा असम के नतीजों से. पिछले पंद्रह वर्ष से असम में गोगोई सरकार कायम थी, इसलिए कांग्रेस इस मुगालते में थी कि वहां चाहे जितनी भी बुरी स्थिति हो, वह चुनाव-पश्चात बदरुद्दीन अजमल जैसे घोर साम्प्रदायिक व्यक्ति की पार्टी से गठबंधन करके येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल कर ही लेगी. लेकिन हाय री किस्मत... आसाम की जनता ने भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर कांग्रेस के ज़ख्मों पर नमक मल दिया.
आईये जरा राज्यवार विश्लेषण करें कि आखिर भारत लगभग कांग्रेस-मुक्त भारत की तरफ कैसे और क्यों बढ़ रहा है...
केरल :-
विधानसभा चुनावों से ठीक पहले सोलर घोटाले और सेक्स स्कैंडल में फंसे मुख्यमंत्री तथा अन्य मंत्रियों का भविष्य तो पहले से ही स्पष्ट दिखाई देने लगा था, परन्तु कांग्रेस ने सोचा कि चुनावों से ठीक पहले नेता बदलना पार्टी की एकता के लिए ठीक नहीं है. कांग्रेस की यह सोच उसके लिए बिलकुल उलट सिद्ध हुई. केरल की पढी-लिखी जनता, जो कि हर पांच साल में सत्ताधारी को बदल देती है, उसने ओमान चांदी को सत्ता से बेदखल करने का मूड बना लिया था. रही-सही कसर 93 वर्षीय “नौजवान” वीएस अच्युतानंदन ने धुआंधार प्रचार करके पूरी कर दी. इसके अलावा कांग्रेस का कुछ प्रतिशत सवर्ण हिन्दू वोट भी भाजपा ले उड़ी. कांग्रेस के कई नेता दबी ज़बान में यह स्वीकार करते हैं कि केरल में कांग्रेस के एक बड़े वोट बैंक में भाजपा ने जबरदस्त सेंध लगाई है. वाम मोर्चा को जहां एक तरफ समर्पित और हिंसक कैडर का लाभ मिला, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के भ्रष्टाचार और स्कैंडलों का भी फायदा हुआ.
केरल चुनावों में कोई सबसे अधिक फायदे में रहा, तो वह है भाजपा. जिस राज्य में आज तक भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी, 2016 के इन चुनावों में वह बैरियर भी टूट गया और ओ. राजगोपाल के रूप में भाजपा के पहले विधायक ने वहां पार्टी का खाता खोल ही दिया. लगातार कई चुनाव हारने के बाद भी राजगोपाल ने हिम्मत नही हारी और अंततः वामपंथ की हिंसक गतिविधियों तथा RSS के दर्जनों स्वयंसेवकों की हत्याओं का खून रंग लाया और पार्टी ने अपना वोट प्रतिशत 4% से बढ़ाकर 14% कर लिया. हालांकि चुनाव परिणामों के बाद चैनलों को इंटरव्यू देते समय चांडी तथा पिनारेई विजयन ने भले ही यह दावा किया हो कि उन्होंने राज्य में भाजपा को एकदम किनारे कर दिया है, लेकिन वास्तविकता में आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. चांडी और विजयन के खोखले दावों के विपरीत आंकड़े यह बताते हैं कि केरल में 14.4% वोट प्रतिशत के साथ प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में भाजपा और इसके सहयोगी तीसरे क्रमांक पर रहे हैं. 2011 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले लगभग पचास विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने अपना वोट शेयर कहीं-कहीं दोगुना-तिगुना-चौगुना तक कर लिया है. पलक्कड इलाके की मलमपुझा विधानसभा सीट जिसे संभावित मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने जीता, वहां पर भाजपा उम्मीदवार सी.कृष्णकुमार को 46157 वोट मिले और वह दुसरे स्थान पर रहे, जबकि 2011 के चुनावों में यहाँ भाजपा उम्मीदवार को 2000 वोट ही मिले थे. त्रिवेंद्रम सीट पर भाजपा के उम्मीदवार क्रिकेटर श्रीसंत को 37764 वोट मिले और वे तीसरे स्थान पर रहे जबकि इस सीट पर हार-जीत का अंतर सिर्फ एक हजार वोट का रहा. कोल्लम जिले की चथान्नूर सीट पर भाजपा उम्मीदवार 33199 वोट लेकर वामपंथी उम्मीदवार से हारे और दुसरे नंबर पर रहे, यहाँ भी कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही. 2011 में इस सीट पर भाजपाई उम्मीदवार को सिर्फ 3824 वोट मिले थे, यानी सीधे दस गुना बढ़ोतरी.
ये तो सिर्फ दो-चार ही उदाहरण हैं, केरल की लगभग प्रत्येक सीट पर ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जहाँ संघ के स्वयंसेवकों ने पिछले दस वर्ष में कड़ी मेहनत करके, और हिंसक वामपंथी कैडर द्वारा की गई हत्याओं के बावजूद हार नहीं मानी तथा कहीं दुसरे स्थान पर तो वोट संख्या में भारी बढ़ोतरी करते हुए कहीं तीसरे स्थान पर भी रहे. नरेंद्र मोदी की लगातार सक्रियता, नारायण गुरु जैसे आध्यात्मिक व्यक्ति के आशीर्वाद और उनकी वजह से एक समुदाय के थोक में मिले वोटों तथा कांग्रेस-मुस्लिम लीग की सरकार के भ्रष्टाचार एवं हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण केरल की जनता को होने वाली परेशानी के कारण अंततः केरल में भाजपा का खाता खुल ही गया और एक सीट पर विजय मिली.
विश्लेषको की मानें तो नरेंद्र मोदी के “सोमालिया” वाले बयान को भाजपा विरोधी मीडिया ने जिस तरह बढ़ाचढ़ाकर पेश किया तथा केरल की सुशिक्षित जनता ने इसे हाथोंहाथ लिया तथा इसे लेकर चुनाव के अंतिम चरण में “पो मोने मोदी” (मोदी दूर जाओ), जैसे छिटक गए. यदि यह अप्रिय विवाद नहीं हुआ होता तो भाजपा के वोट प्रतिशत में एकाध प्रतिशत की और बढ़ोतरी होती, तथा जिन सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार बहुत कम वोटों से हारे हैं, वहां शायद जीत मिल सकती थी और संभव है कि भाजपा दो-तीन सीटें और जीत जाती. बहरहाल, केरल में भाजपा की जमीन तैयार हो चुकी है, अब इंतज़ार इस बात का है कि पिछले तीस-चालीस वर्ष से जारी UDF-LDF की राजनैतिक लड़ाई में भाजपा उस स्थिति में पहुँचेगी, जहां वह दस-बारह सीटें जीतकर “किंगमेकर” की भूमिका में आ जाए... और वह दिन अब दूर नहीं. कांग्रेस की चिंताओं की असल वजह यही है कि भाजपा उसका वोट प्रतिशत खा रही है.
तमिलनाडु :-
पिछले पचास वर्ष में तमिल अस्मिता, द्रविड़ आन्दोलन तथा “मतदाताओं को मुफ्त में बांटो” वाली नीतियों के कारण आज भी तमिलनाडु में भाजपा-कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के लिए कोई स्थान नहीं है. इसीलिए वहां से यदि कोई आश्चर्यजनक समाचार प्राप्त हुआ तो यही हुआ कि चुनाव पूर्व सारे सर्वे को अंगूठा दिखाते हुए “अम्मा” यानी जयललिता ने क्योंकि उसने चुनाव पूर्व ही द्रमुक से गठबंधन कर लिया था. कांग्रेस का द्रमुक प्रेम कोई नई बात नहीं है. यूपीए सरकार के दौरान भी 2G का महाघोटाला रचने वाले ए.राजा, कनिमोझी तथा दयानिधि मारण जैसे सुपर-भ्रष्टों का जमकर बचाव करती हुई कांग्रेस लोगों को आज भी याद है. चूंकि तमिलनाडु में हर पांच वर्ष में सत्ता की अदला-बदली वाला “ट्रेंड” चलता रहा है, इसलिए कांग्रेस ने सोचा कि मौका अच्छा है. साथ ही जयललिता पर चल रहे भ्रष्टाचार के मामलों में उन्हें जेल होने, जमानत पर छूटने जैसी बातों को लेकर भी कांग्रेस खासी उत्साहित थी, परन्तु तमिलनाडु की जनता कांग्रेस-द्रमुक को कोई मौका देने की इच्छुक नहीं दिखी. एमजी रामचंद्रन के बाद तीस वर्ष के अंतराल से यह पहली बार हुआ कि कोई पार्टी सत्ता में वापस आई हो.
आखिर यह जादू कैसे हुआ? असल में तमिलनाडु की जनता ने “कौन कम भ्रष्टाचारी” है, इसमें चुनाव किया. जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि द्रमुक भी भ्रष्ट है और जयललिता तो बाकायदा जेल होकर आई हैं. परन्तु तमिलनाडु की जनता के मन में आज भी जयललिता की छवि “सताई हुई महिला” की है, इसलिए उसने “कम भ्रष्ट” को चुन लिया. इसके अलावा जयललिता द्वारा “मुफ्तखोरी” को प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की नीतियाँ भी आम गरीब जनता में खासी लोकप्रिय रहीं (दिल्ली के पिछले चुनावों में हम इसका उदाहरण देख चुके हैं). पिछले पांच वर्ष में जयललिता सरकार द्वारा “अम्मा इडली”, “अम्मा डिस्पेंसरी”, जैसी विभिन्न योजनाएं चलाई गईं, जिसमें सरकारी खजाने से गरीबों को लगभग मुफ्त इडली, मुफ्त दवाओं, सस्ते कपड़ों आदि के कारण भले ही सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता रहा हो, लेकिन गरीब वर्ग जयललिता से दूर नहीं गया. आज की स्थिति यह है कि इस चुनाव में जयललिता ने मिक्सर, स्कूटी और लैपटॉप बांटने का भी वादा किया है और जनता को भरोसा है कि “अम्मा” अपना वादा निभाएगी. अब तमाम अर्थशास्त्री भले अपना माथा कूटते रहें, लेकिन वस्तुस्थिति यही है कि तमिलनाडु के कई गरीब घरों में भोजन नहीं बनता. जब बीस रूपए में एक व्यक्ति आराम से सरकारी भोजन पर अपना पेट भर रहा हो, तो वहां घर पर खाना बनाने की जरूरत क्या है? जिस तरह दिल्ली के चुनावों में भाजपा इस “मुफ्त बांटो” वाले खेल में पिछड़ गयी थी, उसी प्रकार द्रमुक-कांग्रेस भी जयललिता के इन “मुफ्तखोरी वादों” के खेल में पिछड़ गए और सत्ता में वापस नहीं आ सके.
ऐसा भी नहीं है कि तमिलनाडु की जनता इस खेल को पसंद कर ही रही हो. अम्मा और करूणानिधि के परिवारवाद एवं दोनों के भ्रष्टाचार से जनता बेहद त्रस्त है, परन्तु उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है. कांग्रेस लगभग मृतप्राय है और भाजपा के पास वहां कोई स्थानीय नेता ही नहीं है, कैडर भी नहीं है. परन्तु तमिलनाडु की जनता में असंतोष है, यह इस बात से सिद्ध होता है कि इस बार तमिलनाडु में NOTA (इनमें से कोई नहीं) के बटन दबाने वालों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है. लगभग पच्चीस विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां हार-जीत के अंतर के मुकाबले NOTA को मिले वोटों की संख्या ज्यादा रही. इनमें से 16 विधानसभा सीटों पर जयललिता की पार्टी जीती. अर्थात यदि कोई तीसरा मजबूत ईमानदार राजनैतिक विकल्प होता, तो निश्चित ही कम से कम दस-बीस सीटें तो ले ही जाता. उदाहरण के लिए तिरुनेलवेली में AIDMK के उम्मीदवाद नागेन्द्रन सिर्फ 800 वोटों से जीते, जबकि NOTA को 2218 वोट मिले. इसी प्रकार एक क्षेत्रीय पार्टी तमिलगम के नेता कृष्णासामी सिर्फ 87 वोटों से हारे, जहां NOTA वोटों की संख्या 2612 रही. कहने का तात्पर्य यह है कि तमिलनाडु में “तीसरे विकल्प” के लिए उर्वर जमीन तैयार है. वहां की कुछ प्रतिशत जनता इन दोनों द्रविड़ पार्टियों, उनके भ्रष्टाचार तथा मुफ्तखोर तरीकों से नाराज है... जरूरत सिर्फ इस बात की है कि वहां भाजपा अपना कैडर बढ़ाए, ईमानदार प्रयास करे और इन दोनों पार्टियों के अलावा बची हुई पार्टियों से गठबंधन करे. हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि भारत में ““मुफ्त और सस्ता”” का आकर्षण इतना ज्यादा होता है, कि दिल्ली जैसे राज्य भी इसकी चपेट में आ जाते हैं तो तमिलनाडु की क्या बिसात?
अब आते हैं पश्चिम बंगाल पर...
वामपंथियों को “उन्हीं की हिंसक भाषा” में जवाब देने के लिए सदैव तत्पर तृणमूल के कार्यकर्ताओं ने पिछले पाँच वर्ष में गाँव-गाँव में उसी पद्धति का कैडर बनाकर ममता दीदी के लिए यह सुनिश्चित कर दिया था कि बंगाल की जनता उन्हें एक बार पुनः चुने. सारदा घोटाला और अन्य दूसरे चिटफंड कंपनियों की लूट से बंगाल की गरीब जनता बुरी तरह त्रस्त थी, लेकिन ममता ने अपनी राजनैतिक परिपक्वता से जनता के इस क्रोध को तुरंत भाँप लिया और गरीबों की लुटी हुई रकम वापस करने के लिए 500 करोड़ का जो फंड स्थापित किया, उसने इन दोनों घोटालों की आँच से तृणमूल काँग्रेस को बचा लिया. इस राज्य में भी भाजपा की स्थिति केरल जैसी ही है, जहाँ वह कहीं भी रेस में नहीं थी. भाजपा को सिर्फ अपनी इज्जत बचानी थी और वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी करनी थी. ये दोनों ही काम भाजपा ने बखूबी किए. रूपा गांगुली, सिद्धार्थनाथ सिंह और बाबुल सुप्रियो में इतनी ताकत कभी नहीं थी कि वे बंगाल में भाजपा को सम्मानजनक स्थान दिला पाएं, लेकिन इन्होंने लगातार कड़ी मेहनत से भाजपा के वोट प्रतिशत में इजाफा जरूर किया. वैसे भी जिस राज्य में वामपंथ ने तीस साल शासन किया हो, तथा जिस राज्य के सत्रह जिलों में मुस्लिम आबादी तीस प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुकी हो, वहाँ भाजपा के उभरते की संभावनाएँ दिनों क्षीण ही होती जाएँगी. तृणमूल के हिंसक कैडर, बांग्लादेशी घुसपैठियों से मुकाबला करने की अक्षमता तथा जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं के अभाव ने भाजपा के लिए इस राज्य में करने के लिए कुछ खास छोड़ा ही नहीं था. सबसे अधिक आश्चर्यजनक और दयनीय स्थिति काँग्रेस की रही, जिसकी हालत यह हो गई कि उसे बंगाल में वामपंथी पार्टियों के साथ गठबंधन करना पड़ा. वैचारिक मखौल और विरोधाभास देखिए कि सोनिया गाँधी की पार्टी केरल में इन्हीं वामपंथियों के खिलाफ चुनाव लड़ रही थी. बहरहाल, पूरी तरह से मुस्लिम वोटों के एकतरफा ध्रुवीकरण तथा तृणमूल के कार्यकर्ताओं की जबरदस्त फील्डिंग के कारण काँग्रेस और वामपंथ दोनों मिलकर भी ममता दीदी को रोक नहीं सके और जयललिता की तरह ही ममता बनर्जी भी लगातार दूसरी बार बंगाल की क्वीन बनीं. भाजपा के लिए इस राज्य में खोने को कुछ था नहीं, इसलिए उसने सिर्फ पाया ही पाया. वामपंथ की जमीन और खिसकी तथा काँग्रेस को यह सबक मिला कि बंगाल में उठने के लिए अभी उसे कम से कम दस वर्ष और चाहिए.
असम में भाजपा को “सर्व-आनंद” मिला...
देश की सेकुलर बिरादरी और विभिन्न मोदी विरोधी गुटों को सबसे तगड़ा मानसिक सदमा लगा असम के चुनाव परिणामों से. जिस तरह से नरेंद्र मोदी सहित पूरी पार्टी और संगठन ने असम में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी, वह इसीलिए थी कि पिछले पन्द्रह वर्ष के गोगोई कुशासन, भ्रष्टाचार और खासकर बांग्लादेशी घुसपैठ ने असम की जनता को बुरी तरह परेशान कर रखा था. RSS ने पिछले बीस वर्ष में इस राज्य में कड़ी जमीनी मेहनत की थी और बोडो उग्रवादियों तथा मुस्लिम कट्टरपंथियों के हाथों अपने कई स्वयंसेवक भी खोए, परन्तु हार नहीं मानी. इसी तरह आदिवासी समुदाय से आने वाले सर्बानंद सोनोवाल को पहले ही मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा ने अपना तुरुप का पत्ता खेल दिया था. सोनोवाल की साफ़ छवि, मोहक मुस्कराहट तथा जमीनी मुद्दों पर उनकी पकड़ के कारण भाजपा की यह चाल काँग्रेस को चित करने के लिए पर्याप्त थी. इस रणनीति में काँग्रेस के ताबूत में अंतिम कील ठोकने वाले एक और प्रमुख व्यक्ति रहे हिमंता बिस्वा सरमा, जो एक समय पर तरुण गोगोई के खासमखास हुआ करते थे. परन्तु काँग्रेस पार्टी में अपनी भीषण उपेक्षा और समुचित सम्मान नहीं मिलने के कारण हिमंता ने भाजपा की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और भाजपा ने भी इसे लपकने में देर नहीं की. हिमंता ने काँग्रेस की तमाम रणनीतियों को पहले ही भाँप लिया और समयानुकूल छिन्न-भिन्न भी कर दिया. भाजपा ने असम के चुनावों में बांग्लादेशी घुसपैठ तथा “असमिया अस्मिता” को प्रमुख मुद्दा बनाया और सीधे काँग्रेस को निशाना बनाने की बजाय AIUDF के बदरुद्दीन अजमल को निशाना बनाया. इसका फायदा भाजपा को इस तरह मिला कि वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना से काँग्रेस डर गई और उसने अंतिम मौके पर बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से गठबंधन नहीं किया. इसका खामियाज़ा काँग्रेस और अजमल दोनों को भुगतना पड़ा. जहाँ एक तरफ काँग्रेस ऊपरी असम में सिर्फ एक सीट (गोगोई) ही जीत पाई वहीं 2006 में धमाकेदार एंट्री मारने वाले बदरुद्दीन अजमल की पार्टी घटकर सिर्फ तेरह सीटों पर सिमट गई, और वे खुद ही चुनाव हार गए...
असम में भाजपा को दो-तिहाई बहुमत मिल जाएगा, यह तो वास्तव में किसी ने भी नहीं सोचा था. हालाँकि असम में भाजपा के लिए जमीन पिछले चुनावों में ही तैयार हो चुकी थी, परन्तु सिर्फ कार्यकर्ता या माहौल होने से चुनाव नहीं जीता जा सकता. चुनाव जीतने के लिए विपक्षी की रणनीति समझना और एक करिश्माई नेता की जरूरत होती है. असम में भाजपा के लिए यह कमी पूरी की AGP से आए सर्बानान्द सोनोवाल ने और काँग्रेस से भाजपा में आए हिमंता सरमा ने. असम में हिन्दू आबादी घटते-घटते 68% तक पहुँच चुकी है, जबकि काँग्रेस की मेहरबानियों से बांग्लादेशी घुसपैठियों और बदरुद्दीन अजमल जैसों के कारण मुस्लिम आबादी 32% तक पहुँच चुकी है. इस बार असम में असली राजनीति 68 बनाम 32 की ही थी, जिसे भाजपा ने बखूबी भुनाया. इसके अलावा काँग्रेस के भीतर उठता असंतोष, गोगोई परिवार का एकाधिकारवाद एवं दिल्ली में बैठे काँग्रेसी नेतृत्त्व द्वारा गोगोई पर अंधविश्वास करते हुए पार्टी की दूसरी पंक्ति को बिलकुल नज़रंदाज़ कर दिया जाना भी एक प्रमुख कारण रहा. असम में भाजपा ने अपना वोट प्रतिशत 12% से बढ़ाकर सीधे तीन गुना यानी 36% कर लिया, और सीटें सीधा दो-तिहाई.
चुनाव परिणामों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ काँग्रेस सिकुड़ती जा रही है, भाजपा उन्हीं क्षेत्रों में अपने पैर पसारती जा रही है. भाजपा का वोट प्रतिशत भले ही अभी सीटों में नहीं बदल रहा है, लेकिन आने वाले कुछ ही वर्षों में जब यह वोट प्रतिशत बीस-बाईस प्रतिशत से ऊपर निकल जाएगा, तो सबसे पहले केरल जैसे राज्य में भाजपा “किंगमेकर” की भूमिका में आ जाएगी. तमिलनाडु में फिलहाल दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों के लिए कोई स्थान नहीं है. तमिलनाडु में जीके मूपनार ने काँग्रेस को जहाँ छोड़ा था, आज काँग्रेस उससे भी नीचे चली गई है, ना तो मणिशंकर अय्यर उसे बचा सकते हैं और ना ही राहुल गाँधी. जब भी राहुल गाँधी का विषय आता है, कई वरिष्ठ काँग्रेसी भी दबी ज़बान से यह स्वीकार करते हैं कि राहुल गाँधी में ना तो चुनाव जीतने का करिश्मा है और ना ही उनमें राजनैतिक इच्छाशक्ति दिखाई देती है. ऐसा प्रतीत होता है मानो अनिच्छुक होते हुए भी उन्हें जबरदस्ती काँग्रेस उपाध्यक्ष पद पर बैठाए रखा गया है. कई कांग्रेसियों को अब अपने भविष्य की चिंता सताने लगी है, इसीलिए जैसे रीता बहुगुणा समाजवादी पार्टी में चली गईं अथवा दिग्विजय सिंह सरेआम “पार्टी में सर्जरी” की बातें कहने लगे हैं अथवा जब सलमान खुर्शीद कहते हैं कि मोदी पर आक्रमण को लेकर काँग्रेस को गहन आत्मचिंतन करना चाहिए, तो इन सभी का मतलब एक ही होता है कि अब काँग्रेस पार्टी गंभीर अवस्था में पहुँच चुकी है.
इन सभी पुराने कांग्रेसियों की चिंता वाजिब भी है. राहुल गाँधी के उपाध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी लोकसभा चुनाव समेत ग्यारह चुनाव हार चुकी है. असम और केरल की सत्ता हाथ से निकल जाने के बाद तो यह स्थिति बनी है कि देश की मात्र 7.3% जनता पर ही काँग्रेस का शासन है, जबकि 43.1% देश की जनता पर भाजपा का अकेले शासन है. बचा हुआ पचास प्रतिशत राजद, जदयू, जयललिता, ममता, बीजद, वामपंथी जैसे क्षेत्रीय दलों का है, जो अपने-अपने इलाके में काँग्रेस से बहुत मजबूत हैं. अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में कर्नाटक, उत्तराखंड और हिमाचल में काँग्रेस रहेगी या जाएगी, कहा नहीं जा सकता.
आखिर काँग्रेस की लगातार यह दुर्गति क्यों होती जा रही है? कारण है मोदी सरकार द्वारा निरंतर शुरू की जारी नई-नई योजनाएँ और उनका सफल क्रियान्वयन. देश की जनता भले ही आज महँगाई से त्रस्त हो, परन्तु उन्होंने काँग्रेस का जो भीषण और नंगा भ्रष्टाचार देखा था, उसके मुकाबले पिछले दो वर्ष में मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लगा है. मोदी सरकार के कुछ मंत्री तो बेहद उम्दा कार्य कर रहे हैं, चाहे बिजली और कोयला क्षेत्र में पीयूष गोयल हों, सड़क परिवहन और नए राजमार्ग बनाने के मामले में नितिन गड़करी हों, रक्षा मंत्रालय जैसे अकूत धन सम्पदा वाले मंत्रालय को संभालने वाले ईमानदार मनोहर पर्रीकर हों या रेलवे मंत्रालय में नित-नवीन प्रयोग करते हुए जनता के लिए सुविधाएँ जुटाने वाले सुरेश प्रभू हो... अथवा विदेश में फँसे किसी भारतीय के एक ट्वीट पर पूरे दूतावास को दौड़ाने वाली सुषमा स्वराज हों... सभी के सभी बेहतरीन कार्य कर रहे हैं. इन सबके ऊपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जिन्होंने पिछले दो वर्ष में प्रशासन में भ्रष्टाचार के कई छेद बन्द किए हैं, तथा नवीन तकनीक अपनाते हुए राशन कार्ड, गैस, केरोसीन की कालाबाजारी करने वाले तथा बोगस (नकली) उपभोक्ताओं की पहचान की है. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद कोयला ब्लॉक आवंटन की नई नीति ने तो कमाल ही कर दिया है, तथा उच्च स्तर पर होने वाले भीषण भ्रष्टाचार को काफी हद तक कम किया है.
यूँ तो दो वर्ष में मोदी सरकार की कई उपलब्धियाँ रही हैं, परन्तु यहाँ हम संक्षेप में कुछ बिंदुओं को देखते हैं, जिनके कारण मोदी सरकार की लोकप्रियता बढ़ी और काँग्रेस की घटी. मोदी सरकार की सबसे सफल योजना “जन-धन योजना” कही जा सकती है, जिसमें पन्द्रह करोड़ बैंक खाते खुलवाए गए. इन खातों में दस करोड़ खाते ऐसे हैं जिन्हें रू-पे डेबिट कार्ड भी दिया गया है, जिसमें जीवन बीमा भी शामिल है. गैस सब्सिडी, मनरेगा का पैसा इत्यादि अब सीधे बैंक खाते में जाता है, जिसके कारण निचले स्तर पर भ्रष्टाचार में भारी कमी आई है. इसके अलावा दवाओं के दामों पर नियंत्रण के लिए जो क़ानून लाया गया और सभी जीवनरक्षक एवं अति-आवश्यक दवाओं के दामों में भारी कमी हुई, उसके कारण जनता में एक अच्छा सन्देश गया है. फ्रांस सरकार से 36 राफेल विमानों की खरीदी में त्वरित निर्णय एवं पिछली सरकार के मुकाबले इन विमानों के दामों में कमी करवाना हो, या फिर “मेक इन इण्डिया” और मुद्रा बैंक कार्यक्रम के तहत छोटे-मझोले उद्योगों को प्राथमिकता देने तथा पचास हजार से दस लाख रूपए के ऋण सरलता से देने जैसी नीतियाँ हों, इन सभी कार्यक्रमों को समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों ने हाथोंहाथ लिया है.
देश की जनता यह भी देख रही है कि किस तरह काँग्रेस और विपक्षी दल मोदी सरकार को GST बिल पास नहीं करने दे रहे, किस तरह विभिन्न मुद्दों पर संसद ठप रखे रहते हैं... किस तरह कन्हैया-उमर खालिद जैसे देशद्रोहियों को समर्थन देकर देश में अशांति का माहौल पैदा कर रहे हैं... जातिवादी राजनीति का ज़हर युवाओं के दिमाग में घोल रहे हैं... जनता अब इन सब हथकंडों से ऊब चुकी है, परन्तु काँग्रेस इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है. इसीलिए जब राहुल गाँधी अचानक रात को JNU पहुँच जाते हैं, अथवा जबरिया दलित घोषित किए गए रोहित वेमुला की लाश पर आँसू बहाते नज़र आते हैं या फिर मल्लिकार्जुन खड़गे खामख्वाह किसी बात पर संसद ठप्प करने की कोशिश करते हैं तो जनता मन में ठानती जाती है कि अब काँग्रेस को वोट नहीं देना है. नतीजा वही हो रहा है, जो इन विधानसभा चुनावों में हमें देखने को मिल रहा है... जनता अब क्षेत्रीय दलों को काँग्रेस से बेहतर समझने लगी है, जो कि देश और खासकर काँग्रेस के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता... देखना तो यही है कि काँग्रेस खुद में “बदलाव” कब लाती है? या फिर लाती भी है कि नहीं?? कहीं ऐसा ना हो कि अगले वर्ष हिमाचल, उत्तराखण्ड या कर्नाटक में से एकाध-दो राज्य भी उसके हाथ से खिसक जाएँ और 125 साल पुरानी काँग्रेस एक “क्षेत्रीय दल” बनकर रह जाए... देखा जाए तो यह स्थिति भाजपा के लिए भी ठीक नहीं है, लेकिन क्या किया जा सकता है, “होईहे वही, जो राम रचि राखा”... क्योंकि नेशनल हेरल्ड और अगस्ता मामले में अब राम ही बचाएँ तो बचाएँ...