ताबूतों पर काँग्रेसी राजनीति और 2G घोटाला..

Written by शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015 21:39

भारत में ये कहावत अक्सर सुनी जाती हैं, कि “जब मुसीबतें और बुरा वक्त आता है, तो चारों तरफ से आता है”... आज ये कहावत देश में काँग्रेस की स्थिति और उसके द्वारा रचित झूठों, जालसाजियों और षडयंत्रों पर पूरी तरह लागू होती दिखाई दे रही है. 16 मई 2014 को भारत की जनता ने काँग्रेस को उसके पिछले दस वर्षों के भ्रष्टाचार, कुशासन और अहंकार की ऐसी बुरी सजा दी, कि उसे मात्र 44 सीटों पर संतोष करना पड़ा.

इस करारी हार ने काँग्रेस को बुरी तरह सन्नाटे में ला दिया और मानसिक रूप से त्रस्त कर दिया. जिस व्यक्ति अर्थात नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द तमाम तरह के आरोप, बयानबाजी और “मौत का सौदागर” जैसी घटिया भाषा का उपयोग किया गया, वही व्यक्ति समूचे विपक्ष की नाक पर घूँसा लगाते हुए न सिर्फ प्रधानमंत्री बना, बल्कि पूर्ण बहुमत के साथ बना. देश के कई “कथित” बुद्धिजीवियों ने कभी सोचा भी न होगा कि तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने जिस व्यक्ति को अमेरिका का वीज़ा न मिले, इस हेतु जी-तोड़ कोशिशें और पत्राचार किया गया, आज वही व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में एक वर्ष में तीन-तीन बार ससम्मान अमेरिका गया. सोनिया गाँधी की किचन कैबिनेट अर्थात NAC में शामिल जिस शक्तिशाली “NGOs गिरोह” ने देश-विदेश में नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार और कानाफूसियों का दौर चला रखा था, वे NGOs अब अपनी आय के स्रोत सूखते देखकर बौखलाने लगे हैं. इसी के साथ TRP के भूखे भेड़ियों और एक जमात विशेष का एजेंडा चलाने वाले मीडिया समूहों ने “गुजरात 2002” से लगातार जिस एक व्यक्ति के खिलाफ घृणा अभियान चलाया, वह मोदी की इतनी शानदार जीत के बावजूद बदस्तूर जारी है. विगत कुछ दिनों में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका अर्थात सुप्रीम कोर्ट ने लगातार तीन-चार ऐसे फैसले दिए हैं, जिससे “काँग्रेस-NGOs-मीडिया” का यह “नापाक गठबंधन” बुरी तरह शर्मसार हुआ और सत्य की जीत हुई है. हालाँकि अभी भी इस गिरोह ने कोई सबक नहीं सीखा, और अपनी गलतियों पर ध्यान देने, पश्चाताप करने अथवा सुधार करने की कोई इच्छा नहीं दिखाई है. नरेंद्र मोदी, जॉर्ज फर्नांडीस, भाजपा को विशुद्ध लाभ पहुँचाने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को जानबूझकर “काँग्रेस पोषित मीडिया चैनलों” ने दबाए रखा. देश को “बीफ”, “गौमांस”, “आरक्षण” जैसी बातों में उलझाए रखा गया, ताकि सुप्रीम कोर्ट के इन ऐतिहासिक निर्णयों का जनता को पता ना चले. परन्तु अब ऐसा होने वाला नहीं है, देश की जनता न सिर्फ जागरूक हो गई है, बल्कि सोशल मीडिया पर लगातार पोल खुलने के कारण जनता ने इन चैनलों पर भरोसा करना भी कम कर दिया है. आगामी जनवरी 2016 में जब केन्द्र सरकार नेताजी सुभाषचंद्र बोस की गुप्त फाईलों को सार्वजनिक करना आरम्भ करेगी, तब इस “गिरोह” का और भी पर्दाफ़ाश होगा.

बहरहाल, हम लौटते हैं हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस को लगाई गई फटकारों और काँग्रेसी षड्यंत्रों पर. पाठकों को “ताबूत घोटाला” नाम का काण्ड जरूर याद होगा. कारगिल युद्ध के समय वाजपेयी सरकार ने मृत सैनिकों के शव सुरक्षित रूप से रखने और लाने के लिए एक अमेरिकी कम्पनी, ब्यूत्रों एंड बायजा से अल्युमीनियम के ताबूत आयात किए थे. भारत ने यह युद्ध 1999 में लड़ा था और उसमें विजय प्राप्त की. तत्कालीन विपक्ष में बैठी काँग्रेस को वाजपेयी सरकार की यह उपलब्धि फूटी आँख नहीं सुहाई और उसने षड्यंत्र रचने का फैसला कर लिया. संसद में वाजपेयी के क्षीण बहुमत को देखते हुए काँग्रेस ने उस समय के सबसे ईमानदार समाजवादी व्यक्ति जॉर्ज फर्नांडीस जो कि रक्षामंत्री भी थे, को निशाना बनाने का फैसला किया. अपने “पालतू” अखबारों एवं चैनलों के माध्यम से ताबूत घोटाले के आरोप जमकर लगाए गए. कई दिनों तक संसद में लगातार हंगामा किया गया, और कार्यवाही ठप्प रखी गई. अंततः मीडिया के दबाव में वाजपेयी जी ने फर्नांडीस को रक्षामंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के लिए राजी कर लिया. हालाँकि उस समय भी जॉर्ज फर्नांडीस ने संसद में अपने लिखित बयान में यह कहा था कि, “इस ताबूत खरीदी से उनका कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि जिस समय इन्हें खरीदने का फैसला हुआ, उस समय वे रक्षामंत्री थे ही नहीं और खरीद प्रक्रिया में उनका कोई दखल नहीं था. क्योंकि यह खरीद रक्षा सचिव के स्तर तक ही सीमित थी”. भारत और अमेरिका के राजदूतों ने भी एक प्रेस कांफ्रेंस में उन ताबूतों की वास्तविक कीमत वही बताई जिस भाव पर खरीदी की गई. परन्तु “काँग्रेस-मीडिया-NGO” का यह त्रिकोणीय गिरोह वाजपेयी सरकार के एक शक्तिशाली मंत्री की “बलि” आवश्यक समझता था, इसलिए इतना शोर मचाया गया कि देश की जनता भी इसे सच मानने लगी. अंततः जॉर्ज फर्नांडीस को बेआबरू होकर जाना ही पड़ा.

इस घटना ने उनके बेदाग़ राजनैतिक करियर पर एक गहरा दाग लगा दिया और वे सदमे में चले गए. ताबूत घोटाले को लेकर सबसे पहली FIR यूपीए शासनकाल के दौरान 2006 में दायर की गई. जॉर्ज फर्नांडीस को सीबीआई, जाँच आयोग और जनहित याचिकाओं के माध्यम से लगातार परेशान किया जाता रहा. उस समय काँग्रेस (यूपीए) की ही सरकार थी, CBI भी काँग्रेस के दबाव में थी. लेकिन 2009 तक जॉर्ज फर्नांडीस के खिलाफ एक भी सबूत एकत्रित करने में नाकाम रही. अंततः CBI ने हथियार डाल दिए और विशेष सीबीआई कोर्ट ने जॉर्ज फर्नांडीस को बाइज्जत बरी कर दिया. लेकिन काँग्रेस में एक “डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट” (शातिर दिमागों और घटिया चालों का विभाग) भी है, वह इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था, पाले-पोसे हुए NGOs किस दिन काम आते. इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करवा दी गई, और यह मामला फिर से उलझा दिया गया. अंततः विगत 13 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने ताबूत घोटाले से सम्बन्धित सभी “जनहित”(??) याचिकाओं को बकवास और झूठा करार देते हुए उन्हें खारिज कर दिया और अपने निर्णय में कहा है कि “ताबूत घोटाला” नाम का कोई घोटाला हुआ ही नहीं है और इस तरह के झूठे मामलों में न्यायालय का समय बर्बाद नहीं किया जावे. परन्तु काँग्रेस को शर्म तो आती नहीं है, इसलिए उसकी तरफ से कोई सफाई आने का सवाल नहीं था. परन्तु देश का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के रुख इस कथित घोटाले पर जैसा था, वह बेहद निराशाजनक और बिकाऊ किस्म का था. उल्लेखनीय है कि ताबूत घोटाले को सबसे पहले प्रमुखता से उठाने वाले थे “तहलका” के संपादक तरुण तेजपाल, जो आजकल यौन हिंसा के एक मामले में जमानत पर चल रहे हैं. खैर... यह तो था काँग्रेस को पड़ने वाला पहला तमाचा, परन्तु अफ़सोस यह रहा कि जॉर्ज फर्नांडीस इस समय “अल्ज़ईमर” रोग से पीड़ित हो चुके हैं और वे अपनी इस जीत पर कुछ कहने अथवा इसका आनंद लेने की स्थिति में नहीं हैं.

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सुनवाई कर रही विशेष सीबीआई कोर्ट ने हाल ही में काँग्रेस के एक और घृणित षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश किया. जैसा अब पूरा देश और दुनिया जानती है कि यूपीए शासनकाल में चरम पर पहुँच चुके भ्रष्टाचार में “लूट का सिरमौर” 2G स्पेक्ट्रम घोटाला रहा है. भारत की जनता और खजाने को सुव्यवस्थित रूप से चूना लगाने के इस “भ्रष्ट महाअभियान” में खरबों रूपए का हेर-फेर हुआ. 2G और कोयला घोटाला इन्हीं दो प्रमुख महाघोटालों की वजह से मनमोहन सिंह की छवि रसातल में पहुँची. परन्तु यूपीए सरकार के अंतिम वर्षों में केन्द्रीय मंत्री इतने अहंकारी और षडयंत्रकारी बन चुके थे कि सबसे पहले तो कपिल सिब्बल साहब “जीरो लॉस” नाम की नायाब थ्योरी खोज लाए. सिब्बल के अनुसार 2G कोई घोटाला ही नहीं था, और इससे सरकारी राजस्व को कतई कोई नुक्सान नहीं हुआ है. उन्होंने तो CAG विनोद राय को भी झूठा और बेईमान घोषित कर दिया था. लेकिन जब चारों तरफ से नए-नए खुलासे होने लगे, सुप्रीम कोर्ट से लताड़ पड़ने लगी और सिब्बल की जीरो लॉस थ्योरी खुद ही शून्य बन गई तब यूपीए के एक और शक्तिशाली मंत्री चिदंबरम ने अपने आकाओं के इशारे पर यह “अदभुत रचना” की, कि 2G घोटाला आज का नहीं है, बल्कि वाजपेयी सरकार के समय से चला आ रहा है. सोनिया गाँधी सहित सभी मंत्रियों ने विभिन्न प्रसार माध्यमों में आकर जोर-शोर से चीखना आरम्भ कर दिया कि वाजपेयी सरकार के समय प्रमोद महाजन और अरुण शौरी ने विभिन्न कंपनियों को मनमाने दामों पर स्पेक्ट्रम बेचकर देश का करोड़ों रूपए का नुक्सान किया है. देश की जनता को भ्रम में डालने और अपने अपराधों से हाथ धोने की इस कवायद में “काबिल वकील” कपिल सिब्बल और चिदंबरम ने काफी मदद की. यूपीए सरकार को लगा कि तीसरी बार भी वही सत्ता में आएगी, इसीलिए बड़ी बेशर्मी से यूपीए सरकार द्वारा एक झूठे और गढे हुए मामले को न्यायालय में ले जाया गया, ताकि वाजपेयी सरकार की छवि खराब करके स्वयं का राजनैतिक घाटा कम किया जा सके.

चूँकि काँग्रेस के बुरे दिन अभी खत्म नहीं हुए हैं, इसीलिए अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के विशेष जज ओपी सैनी ने यूपीए सरकार द्वारा दायर इस मामले को पूरी तरह खारिज करते हुए तत्कालीन दूरसंचार सचिव श्यामल घोष तथा भारती सेल्युलर, हचिंसन और वोडाफोन द्वारा सन 2002 में पूर्णतः वैध तरीके से हासिल किए गए स्पेक्ट्रम और उसकी प्रक्रिया को वाजिब ठहराया. न्यायाधीश ओपी सैनी ने 235 पृष्ठ के अपने फैसले में लिखा है कि “FIR एवं अन्य सबूतों को देखने पर साफ़ पता चलता है कि यह मामला राजनैतिक विद्वेष से दायर किया गया है. इसमें कोई तथ्य नहीं हैं और यह आरोप-पत्र पूर्णतः फर्जी और गढा हुआ प्रतीत होता है. तत्कालीन दूरसंचार मंत्री प्रमोद महाजन ने उस समय की परिस्थितियों के अनुसार एकदम सही निर्णय लिया था. न्यायाधीश ने सिब्बल-चिदंबरम की जोड़ी पर अप्रत्यक्ष टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “यह चार्जशीट बड़े ही योजनाबद्घ तरीके और इस सफाई से तैयार की गई है, मानो इन कंपनियों को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम प्रदान करने के लिए अकेले प्रमोद महाजन ही जिम्मेदार हों”. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आने के बाद भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने काँग्रेस और कपिल सिब्बल द्वारा देश से माफी की माँग की, जो “काँग्रेस के स्वभाव को देखते हुए” तत्काल खारिज भी हो गई, वैसे भी काँग्रेस पार्टी ने उनके दूरसंचार मंत्री ए.राजा के तमाम गुनाहों से पहले ही अपना पल्ला झाड़ रखा था.

असल में कपिल सिब्बल साहब ने अपने एक चहेते रिटायर्ड जज शिवराज पाटिल को इस बात की जिम्मेदारी सौंपी थी कि, वे 1999 से 2002 के बीच हुए स्पेक्ट्रम आवंटन की सभी फाईलों में से कुछ न कुछ ऐसा खोज निकालें जिससे वाजपेयी सरकार और खासकर प्रमोद महाजन को कठघरे में खड़ा किया जा सके. उसी को आधार बनाकर मनगढंत कहानी के रूप में साक्ष्य प्रस्तुत किए गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के कारण यह षड्यंत्र पकड़ में आ गया. श्यामल घोष, जो कि एक बेहद ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी माने जाते थे, उन्होंने हमेशा इस बात का खंडन किया कि तीनों दूरसंचार कंपनियों का उन पर कोई दबाव था अथवा प्रमोद महाजन से उनकी कोई साँठगाँठ थी. एक बार सर्वोच्च अदालत ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में सीबीआई को “तोते” की संज्ञा दी थी, उसके पीछे कारण यही था कि अपने शासनकाल में यूपीए ने लगभग सभी संस्थाओं का ऐसा नाश कर दिया था, कि वे सिर्फ काँग्रेस की पालतू बनकर रह गई थीं. इसी “तोते” ने श्यामल घोष और एयरटेल, वोडाफोन तथा हचिंसन के बीच किए गए काल्पनिक भ्रष्टाचार की कुछ ऐसी कहानी रची, जिससे तोते के मालिक खुश हो जाएँ. जस्टिस ओपी सैनी ने सीबीआई अधिकारियों को लताड़ लगाते हुए पूछा कि, “इस कथित षड्यंत्र में षड्यंत्रकारी के रूप में सिर्फ श्यामल घोष का ही नाम क्यों है? षड्यंत्र के मामले में किसी एकल व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट कैसे दायर हो सकती है? और आरोपी कहाँ हैं? श्यामल घोष ने किसके साथ मिलकर यह षड्यंत्र रचा?”. यूपीए रचित झूठे कागजातों पर खड़ी सीबीआई के पास इसका कोई जवाब नहीं था. फटकार खाने के बाद तत्कालीन सीबीआई ने सुनील मित्तल, रवि रुईया और असीम घोष के नाम भी आरोप-पत्र में जोड़े, परन्तु कोई भी प्रामाणिक तथ्य नहीं होने की वजह से पहले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने इस नकली चार्जशीट पर स्थगन दे दिया और इसी वर्ष जनवरी 2015 में जस्टिस दत्तू की खंडपीठ ने तीनों कंपनियों के प्रमुखों के खिलाफ इस चार्जशीट को ही खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने वास्तविक न्याय करते हुए यूपीए शासनकाल के दौरान की गई इस झूठी और द्वेषपूर्ण कार्रवाई के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए तत्कालीन जाँच अधिकारी आरए यादव के खिलाफ जाँच का आदेश दिया है और न्यायालय का समय खराब करने और त्रुटिपूर्ण एवं बनावटी तथ्य पेश करने हेतु आलोचना करते हुए ईमानदार अधिकारियों को परेशान करने से बाज आने की सलाह दी है. अब उन सभी सीबीआई अधिकारियों के खिलाफ जाँच की जाएगी, जिन्होंने तत्कालीन काँग्रेस सरकार के दबाव में आकर नकली तथ्य पेश किए, झूठी कहानियाँ रचीं, परन्तु केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली ने महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है कि अधिकारियों के साथ-साथ उन काँग्रेस सरकार के उन मंत्रियों सिब्बल और चिदंबरम को भी कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए, जिन्होंने प्रमोद महाजन और वाजपेयी सरकार को बदनाम करने के लिए यह षड्यंत्र रचा.

कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी बदनामी और कुकर्मों को छिपाने के लिए काँग्रेस किस हद तक जा सकती है, यह मामला उसकी मिसाल है. पहले वाले मामले में बेचारे जॉर्ज फर्नांडीस अब अल्जाइमर से पीड़ित हैं, इसलिए ना तो वे अपनी जीत की खुशी मना सकते हैं और ना ही काँग्रेस के इस झूठ के खिलाफ कोई बयान दे सकते हैं. ठीक वही स्थिति प्रमोद महाजन की है, क्लीन चिट् मिलने से पहले ही उनकी मृत्यु हो चुकी है. परन्तु जिस मीडिया ने “ताबूत घोटाले” के समय फर्नांडीस और 2G मामले में प्रमोद महाजन की छवि खराब करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनकी चुप्पी के गहरे मायने हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस को मारे गए उक्त दोनों ही तमाचों की गूँज किसी भी चैनल पर सुनाई नहीं दी, यह बड़ा ही रहस्यमयी लगता है.

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