डूबता “टाईटैनिक” : भगदड़, बदहवासी और गलतियाँ...
टाईटैनिक जैसे विशाल जहाज
के बारे में कहा जाता था कि वह इतना विशाल और सुरक्षित है कि कभी डूब नहीं सकता,
लेकिन बर्फ की एक चट्टान से टकराने भर से उसमें जो छेद हुआ, वह उसके डूबने के लिए
पर्याप्त रहा. जब टाईटैनिक डूबा तो उसका कप्तान निराश, असहाय अवस्था में चुपचाप
अपने केबिन में जा बैठा था... टाईटैनिक जहाज के हश्र को देखकर 2014 के आम चुनावों में जाने
वाली काँग्रेस की याद आ जाती है. हालांकि अभी लोकसभा के आम चुनाव लगभग तीन माह दूर
हैं, परन्तु काँग्रेस नामक टाईटैनिक जहाज के कप्तान मनमोहन सिंह ने पार्टी की
शोकांतिका पिछले माह ही लिख दी थी. अपनी “दुर्लभ किस्म की” पत्रकार वार्ता में हताश
दिखाई दे रहे मनमोहन सिंह ने अपना विदाई भाषण भी पढ़ दिया और यह भी साफ़ कर दिया कि
अगले आम चुनावों के बाद वे राजनैतिक परिदृश्य पर दिखाई नहीं देंगे.
जापान की एक निजी जनसंपर्क
एवं विज्ञापन कंपनी “देन्त्सू” जब राहुल गाँधी को यह सलाह
देती है कि उन्हें काँग्रेस का घोषणापत्र जारी करने के लिए आम जनता के बीच जाना
चाहिए, तो कभी वे कुलियों के बीच पहुँच जाते हैं तो कभी भोपाल की महिलाओं के बीच.
परन्तु राहुल गाँधी के इस “स्टंट” को ठीक तरीके से निभाने के
लिए उनमें जो प्रतिभा और वाकचातुर्य होना चाहिए, उसका उनमें सख्त अभाव है.
देन्त्सू कंपनी ने “कट्टर सोच नहीं, युवा जोश” के नाम से तमाम शहरों के
होर्डिंग्स, चैनलों, अखबारों एवं वेबसाईटों पर जो विज्ञापन अभियान समय से पहले ही
आरम्भ कर दिया है, जनता में उसकी बहुत ठंडी प्रतिक्रिया मिली. खासकर जब हसीबा अमीन
जैसी युवा काँग्रेस कार्यकर्ता को राहुल गाँधी के साथ दिखाया गया तो भाजपा की सोशल
मीडिया टीम ने तत्काल हसीबा अमीन के पुराने अस्थि-पंजर खोलकर उसके तमाम घोटालों की
लिस्ट जनता के सामने रख दी. जल्दी ही हसीबा अमीन की विदाई कर दी गई, और उसके स्थान
पर दूसरे युवाओं को जगह दी गई, लेकिन जब खुद कप्तान ने ही टाईटैनिक में इतने छेद
कर दिए हों, तो नए-नवेले कप्तान के भरोसे इतना बड़ा जहाज कैसे संभलेगा?
महँगाई और भ्रष्टाचार ये दो
इतने बड़े-बड़े छेद हैं कि दस साल से लगातार भारी होते जा रहे यूपीए के जहाज को
डुबोने के लिए काफी हैं. फिर इसके अलावा इस सरकार के मंत्रियों (जैसे कपिल सिब्बल,
सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी आदि) का अहंकारी रवैया, काँग्रेस के प्रवक्ताओं की “पाँच रूपए थाली”, “बारह रूपए में भरपेट भोजन” जैसी ऊलजलूल बयानबाजी तथा
लगातार नरेंद्र मोदी और गुजरात को कोसने-गरियाने की वजह से आम चुनावों में
काँग्रेस का सूपड़ा साफ़ होना लगभग तय है. कोयला, २जी, हेलीकॉप्टर और कॉमनवेल्थ ये
चार दाग ही इतने बड़े-बड़े हैं कि काँग्रेस अपनी चादर किसी भी कोने में छिपाने की कोशिश
करे, दिख ही जाएँगे. साथ ही आर्थिक नीतियों को लेकर अनिर्णय और मंत्रालयों की आपसी
खींचतान ने काँग्रेस के “जयन्ती नटराजन टैक्स” को जन्म दिया है.
उद्योगपतियों को अपनी योजनाओं की मंजूरी हेतु पर्यावरण मंत्रालय के चक्कर कटवाए जा
रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने चहेतों को पिछले दरवाजे से पुरस्कृत किया जा रहा है.
विदेश नीति पर विभिन्न देशों के हाथों सतत हो रही पिटाई की वजह से देश के मतदाता
के मन में एक क्रोध का भाव है. बची-खुची कसर भाजपा की “चायवाला” रणनीति एवं तेलंगाना बिल
ने पूरी कर ही दी है. जब मणिशंकर अय्यर ने अपनी चिर-परिचित हेकड़ी और सनक वाले
अंदाज़ में नरेंद्र मोदी को “चाय बेचने वाला कभी देश का
प्रधानमंत्री नहीं बन सकता” कहा होगा, उस समय तो वे
खुद को अपनी हाईकमान की निगाहों में हीरो बना हुए समझ रहे होंगे... लेकिन मणिशंकर
अय्यर को अनुमान नहीं था कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी
इसी मुद्दे को लेकर अपनी प्रचार रणनीति में ऐसा नया मसाला ले आएँगे कि काँग्रेस के
“राजकुमार” तक को मजबूरी में कहना
पड़ेगा कि “चायवाले की इज्जत करो”. विभिन्न राज्यों के
लोकसभा इलाकों में लगने वाले चाय के “नमो टी स्टॉल” तथा भाजपा की “चाय पर चर्चा” नामक विज्ञापन रणनीति ने
काँग्रेस में उच्च स्तर पर होश फाख्ता कर दिए हैं. इस हडकंप का अंदाजा इसी बात से
लगाया जा सकता है कि खुद राहुल गाँधी और अहमद पटेल तक को मैदान में उतरना पड़ा.
अहमद पटेल ने बाकायदा बयान जारी करके झूठ बोलने की कोशिश की, कि नरेंद्र मोदी कभी
चाय नहीं बेचते थे, बल्कि कैंटीन के ठेकेदार थे. हालांकि काँग्रेस की प्रतिष्ठा
इतनी गिर चुकी है कि अहमद पटेल की बातों पर शायद ही किसी ने यकीन किया होगा. इस
बीच नरेंद्र मोदी ने अपनी आक्रामक शैली के चलते देश में चारों तरफ तूफानी दौरे करके
भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच जोश तो भर ही दिया है, साथ ही कई सीटों पर आरंभिक आकलन,
प्रत्याशियों की क्षमता तथा संगठन के बारे में जानकारी का पहला राउंड पूरा कर लिया
है. काँग्रेस को नरेंद्र मोदी की “चाय बेचने वाले” तथा “पिछड़ा वर्ग” इन दो तथ्यों की काट नहीं
मिल रही.
जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया
काँग्रेस ने तेलंगाना और सीमान्ध्र जैसे 42 सीटों वाले महत्त्वपूर्ण
राज्य में अपने हाथों अपनी कब्र खुद ही खोद ली है. पाठकों को याद होगा कि जिस समय
राजशेखर रेड्डी जीवित थे, उन्होंने आंध्रप्रदेश में काँग्रेस को इतना मजबूत कर दिया
था कि यहीं के सांसदों के बल पर काँग्रेस केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई थी. लेकिन
सोनिया गाँधी और उनके निकटस्थ चाटुकारों ने आंधप्रदेश व तेलंगाना में ऐसा बचकाना
और अनुभवहीन खेल खेला कि अब काँग्रेस को “न माया मिली, न राम” जैसे मुहावरे की याद आएगी.
दोनों हाथों में लड्डू रखनी की चाहत वाली सनातन काँग्रेसी रणनीति ने काँग्रेस का
बंटाधार करके रखा हुआ है. तेलंगाना और सीमान्ध्र में भी यही दुर्भाग्यपूर्ण
काँग्रेसी चाल चली गई और जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़े ही शांतिपूर्ण एवं
सामंजस्यपूर्ण तरीके से तीन राज्यों का गठन कर लिया, वहीं काँग्रेस को एक राज्य के
विभाजन में ही पसीने आ गए हैं जो आगामी लोकसभा चुनावों में उसे बहुत भारी पड़ेंगे.
भाजपा को इन दोनों राज्यों में अधिक नुक्सान इसलिए नहीं है क्योंकि यहाँ भाजपा
पहले से ही लगभग अदृश्य है और उसे चंद्रबाबू या जगनमोहन में से किसी एक को चुनना
भर बाकी है, जो कि नतीजों पर निर्भर करेगा.
मप्र-राजस्थान-गुजरात और छग
इन चारों राज्यों में भाजपा सर्वाधिक मजबूत है, हाल ही में शिवराज-रमण सिंह और
वसुंधरा राजे ने खासी सफलता अर्जित की है, इसलिए फिलहाल नरेंद्र मोदी के नाम पर
यहाँ से भाजपा को सीटें मिलना जितना आसान है, काँग्रेस के लिए उतना ही कठिन. इसलिए
काँग्रेस यहाँ कोई चमत्कार की उम्मीद लगाए ही बैठी रहेगी. उधर दिल्ली में AAP वालों ने पहले ही भाजपा से
अधिक काँग्रेस को नुक्सान पहुँचाया हुआ है, इसलिए वहाँ दावे से कुछ नहीं कहा जा
सकता. हरियाणा में जिस तरह आए दिन हुड्डा पर जूते फेंके जा रहे हैं या अस्थायी
शिक्षक उन्हें तमाचा मारने की जुगाड़ में लगे हुए हैं वहाँ भी काँग्रेस का भविष्य
कुछ उज्जवल नहीं दीखता. हिमाचल और उत्तराखंड में काँग्रेस की हालत इस बात पर
निर्भर करेगी कि हाल ही में सत्ता हासिल करने के बाद वीरभद्र सिंह ने कितना काम
किया है, तथा बहुगुणा को हटाने का कोई फायदा हुआ है कि नहीं. सत्ता हासिल करने की
दृष्टि से देश के दो सबसे प्रमुख राज्यों यूपी और बिहार में काँग्रेस की हालत
पिछले बीस वर्षों से खस्ता ही है, मई २०१४ में भी हालात में कोई विशेष परिवर्तन की
उम्मीद कम ही है. सपा-बसपा के परम्परागत जाति आधारित वोटों, मुज़फ्फरनगर के
बहुचर्चित दंगों की काली छाया तथा नरेंद्र मोदी के वाराणसी सीट से चुनाव लड़ने की
अटकलों ने पहले से ही काँग्रेस के दम-गुर्दे की हवा खराब कर रखी है. ऊपर से
काँग्रेसी खेमे में रीता बहुगुणा, प्रमोद तिवारी और पूनिया की आपसी खींचतान तथा
राहुल गाँधी के सामने “हवाहवाई” उम्मीदवार कुमार विश्वास
ने माहौल बिगाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. काँग्रेस का यही हाल बिहार में भी
है, काँग्रेस को उम्मीद थी कि भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद नीतीश पके हुए आम की
तरह अपने-आप उसकी झोली में आ गिरेंगे. लेकिन नीतीश फिलहाल अपने पत्ते खोलना नहीं
चाहते और उधर लालू-पासवान ने भी काँग्रेस पर दबाव बना रखा है. उम्मीद यही है कि
बिहार में असली मुकाबला काँग्रेस-लालू गठबंधन तथा भाजपा के बीच होगा, और पाँच साल
की शासन-विरोधी लहर एवं नरेंद्र मोदी के बढते प्रभाव की वजह से नीतीश सिर्फ
वोट-कटवा बनकर रह जाएँगे. झारखंड में भी काँग्रेस की हालत उतनी अच्छी नहीं कही जा
सकती, क्योंकि पहले भी और अब भी मधु कौड़ा के जेल जाने के बाद वहाँ कांग्रेस को
अक्सर झामुमो की पिछलग्गू बनकर ही रहना पड़ता है...| पश्चिम बंगाल में हाल ही में
सम्पन्न पंचायत चुनावों ने ममता की राजनैतिक पकड़ को और मजबूत किया है तथा काँग्रेस
और वाम मोर्चे को कोई मौका नहीं मिला है. सपा के मुलायम की तरह ही ममता भी चाहेंगी
कि आने वाली केन्द्र सरकार में सत्ता की चाभी उनके हाथ में हो. इसलिए उन्होंने
अन्ना हजारे पर सफलतापूर्वक डोरे डालकर उन्हें अपने पाले में कर लिया है. ज़ाहिर है
कि बंगाल में भी काँग्रेस बहुत अधिक की उम्मीद नहीं कर सकती. दूसरी तरफ बाबा
रामदेव नामक शख्स हैं, जो रामलीला मैदान से खदेड़ा जाना कतई भूले नहीं हैं. चाहे
कोई बड़बोले बाबा रामदेव को पसंद करे या ना करे, लेकिन उनकी बात मानने वाले लाखों
अनुयायी देश में मौजूद हैं. इसलिए बाबा रामदेव अपने संगठन “भारत स्वाभिमान” तथा पतंजलि दवाओं के
हजारों आऊटलेट के जरिये कभी फुसफुसाते हुए, तो कभी गरजते हुए, कभी डॉक्टर
सुब्रह्मण्यम स्वामी के साथ मंच साझा करते हुए काँग्रेस की जड़ों में बखूबी मठ्ठा
डाल रहे हैं. उत्तर भारत में निश्चित रूप से बाबा रामदेव कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य
छोड़ेंगे.
अब आते हैं काँग्रेस के
सदैव मजबूत गढ़ रहे दक्षिण में. जैसा कि मैंने पहले ही अपने विश्लेषण में बताया कि
तेलंगाना और सीमान्ध्र में काँग्रेस को जितनी भी सीटें मिलेंगी वह एक तरह से उसके
लिए “बोनस” ही होगा, क्योंकि
विश्लेषकों का अनुमान है कि आंध्र-तेलंगाना की संयुक्त 42 सीटों में से काँग्रेस को
इस बार आठ-दस भी मिल जाएँ तो बहुत है. अतः आंध्रप्रदेश से होने वाली सीटों के
नुकसान की भरपाई काँग्रेस को कर्नाटक और महाराष्ट्र से करनी पड़ेगी. महाराष्ट्र में
शरद पवार पहले ही काँग्रेस पर आँखें तरेर रहे हैं और मोदी से मुलाक़ात करने की धमकी
भर से गठबंधन में उन्होंने पिछले चुनावों जितनी सीटें काँग्रेस से अपने खाते में
हथिया ली हैं. महाराष्ट्र में भाजपा ने RPI के अध्यक्ष रामदास आठवले
को राज्यसभा में पहुँचाकर पहले ही अपने गठबंधन की रूपरेखा तय कर दी है.
सेना-भाजपा-रिपाई का यह गठबंधन पिछले पन्द्रह साल से सत्तारूढ़ काँग्रेस के लिए
खासी मुश्किलें खड़ी करने वाला है. हालांकि दिल्ली में केजरीवाल की ही तरह
महाराष्ट्र में भी काँग्रेस राज ठाकरे को “वोट-कटवा” के रूप में तैयार कर रही
है, परन्तु आदर्श सोसायटी घोटाले के गहरे दाग तथा अजीत पवार द्वारा बांधों को
पेशाब से भरने जैसे फूहड़ बयान उसे निश्चित ही भारी पड़ेंगे. यह कहना मुश्किल है कि
आन्ध्र के नुक्सान की भरपाई महाराष्ट्र से आसानी से हो पाएगी. उड़ीसा में बीजद की
पकड़ ढीली नहीं हुई है. वह काँग्रेस-भाजपा को इतनी आसानी से पैर जमाने नहीं देगी.
इसी प्रकार तमिलनाडु में तो सिर्फ द्रविड़ पार्टियों का ही सिक्का चलता है, दोनों
राष्ट्रीय दल इनमें से जीते हुए दल के पिछलग्गू बनकर ही रहते हैं. अब भी यही होगा.
किंगमेकर कहलाने का जो सपना फिलहाल मुलायम, मायावती और ममता देख रहे हैं, ठीक वही
जयललिता भी देख रही हैं... प्रत्येक दल का सपना है किसी तरह से २५-३० सीटें आ जाएँ
तो बात बन जाए. लगभग सभी चुनावी पंडितों का अनुमान है कि 2014 में त्रिशंकु सरकार बनेगी.
ऐसे में केजरीवाल को भी बीस-पच्चीस सीटों का सपना देखने की पूरी छूट हासिल है. सभी
इसी कोशिश में रहेंगे कि जिस तरह NDA की पहली सरकार को चंद्रबाबू नायडू ने जमकर “दुहा” था, वैसा ही उसे भी दुहने
को मिल जाए, तो दो-चार पीढियाँ तर जाएँ... लेकिन सभी पार्टियाँ नरेंद्र मोदी के
प्रभाव और अदृश्य लहर को भाँपने में फिलहाल असमर्थ पाती हैं. नरेंद्र मोदी अकेले
के करिश्मे पर भाजपा को कितनी सीटें दिलवा पाते हैं, इसका अनुमान अभी कोई भी
सही-सही नहीं लगा पा रहा. यदि भाजपा का प्रत्याशी चयन अच्छा रहा तो चुनाव परिणाम
अप्रत्याशित भी हो सकते हैं. अभी भी आम चुनाव में लगभग दो-तीन माह बचे हैं,
नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ने वाली भीड़, तथा जनता के बीच बहता हुआ “अंडर-करंट” अभी और भी बढ़ेगा. नमो टी
स्टॉल लगाकर तथा RSS के समर्पित स्वयंसेवकों की
फ़ौज अब पूरी तरह से मोदी के पक्ष में अभियान चलाने में जुट गई है. आगामी दो माह
में यदि कोई बहुत बड़ी अप्रत्याशित घटना नहीं घटी, या काँग्रेस के पक्ष में “सहानुभूति लहर” चलने लायक कोई दुर्घटना
नहीं हुई, तो काँग्रेस का सफाया तय जानिये.
यानी समूचे परिदृश्य पर एक
बार संक्षिप्त निगाह डालें, तो काँग्रेस के पास अच्छी मात्र में सीटें दिलाने लायक
फिलहाल चार-पाँच राज्य ही हैं, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र और
कर्नाटक. जबकि पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, यूपी, तमिलनाडु, केरल, कश्मीर, झारखंड जैसे
राज्यों में तीसरा मोर्चा के बिखरे हुए खिलाड़ी बाजी मार सकते हैं. सिर्फ इन
राज्यों के भरोसे तो केन्द्र में काँग्रेस की सरकार बनेगी नहीं. ज़ाहिर है कि वह भी
चाहेगी कि तीसरा मोर्चा अधिक से अधिक सीटें लाए. इसीलिए वह परदे के पीछे से
केजरीवाल को हीरो बनाकर उसकी मदद कर रही है, जबकि राज ठाकरे को भी इसी पद्धति से
सेना-भाजपा के वोट काटने के लिए हीरो बना रही है. जिस प्रकार हारती हुई सेना वापस
जाते-जाते मारकाट, तबाही और लूट मचाते हुए जाती है, उसी प्रकार काँग्रेस भी आने
वाली सरकार के लिए विशाल राजकोषीय घाटे और महँगाई के रूप में दो राक्षस छोड़े जा
रही है. खाद्यान्न सुरक्षा बिल तथा स्ट्रीट वेंडर बिल वह पास करवा चुकी है क्योंकि
कोई भी दल उसका राजनैतिक रूप से विरोध करने की स्थिति में ही नहीं था. जबकि
साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम अधिनियम को भी वह सूची में ले आई है, ताकि मुस्लिम
वोटरों को लुभाया जा सके. इसके अलावा अल्पसंख्यक कल्याण, राजीव आवास योजना तथा
सब्सिडी वाले बारह गैस सिलेंडर करके वह निम्न-माध्यम वर्ग को लुभाने की पूरी
तैयारी कर चुकी है, इसमें भले ही देश की अर्थव्यवस्था चौपट ही क्यों ना हो जाए,
उसे कोई फर्क नहीं पड़ता.
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन
द्वारा वर्ष 2009-10 के आंकड़ों
के आधार पर जारी की
गई रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त कर चुके ग्रामीण युवकों में
बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत और युवतियों में करीब सात प्रतिशत रही। शहरी
क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी दर 5.9 प्रतिशत और महिलाओं में 20.5 प्रतिशत है। अर्थात शहरी क्षेत्रों में
युवकों की अपेक्षा
युवतियों
में बेरोजगारी दर करीब चार गुना अधिक है। शहरी क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी
दर 11 प्रतिशत और
युवतियों में 19 प्रतिशत
दर्ज की गयी। स्नातक या उससे आगे की पढ़ाई कर चुकी युवतियों में
बेरोजगारी दर युवकों की बेरोजगारी दर से लगभग दोगुनी है। ग्रामीण
क्षेत्र के स्नातक युवकों में बेरोजगारी दर 16.6 प्रतिशत और युवतियों में 30.4 प्रतिशत रही। शहरी क्षेत्रों के ऐसे युवकों में
बेरोजगारी दर 13.8 प्रतिशत और
युवतियों में 24.7 प्रतिशत
दर्ज की गई है। एक मोटे अनुमान के अनुसार आगामी लोकसभा चुनावों में शहरी और
ग्रामीण इलाकों में लगभग 35% मतदाता 25 वर्ष की आयु से कम
वाले होंगे, जबकि लगभग 15-18 प्रतिशत मतदाता 25 से 40 वर्ष की
आयु के होंगे. जरा सोचिये, राहुल गाँधी जो तथाकथित युवा नेता हैं, फिर भी देश के
युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं... उधर देश के युवा जो विज्ञान, उद्योग एवं
ज्ञान आधारित कार्यों में तेजी से आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें नरेंद्र मोदी अपने भाषणों
तथा गुजरात मॉडल से लुभाए चले जा रहे हैं. यह विशाल मतदाता वर्ग (इनमें से भी कई
युवा पहली बार लोकसभा चुनेंगे) जो बेरोजगारी और देश की हालत से त्रस्त है क्या वह
इतनी आसानी से काँग्रेस को बख्श देगा??
आम चुनावों को लेकर अभी से
विभिन्न संस्थाओं, चैनलों एवं अखबारों ने अपने-अपने स्तर पर चुनाव पूर्व सर्वे
आरम्भ कर दिए हैं. सी-वोटर हो या इण्डिया-टुडे हो अथवा जागरण समूह हो, लगभग सभी के
चुनाव-पूर्व सर्वे में दिखाया जा रहा है कि काँग्रेस इस बार अपने ऐतिहासिक निम्नतम
स्तर अर्थात सौ सीटों से भी नीचे सिमट जाएगी. दिसम्बर में हुए सर्वे के अनुसार
विश्लेषक लोग भाजपा को 150 सीटें दे रहे थे, लेकिन
फरवरी आते-आते दो सर्वे और हुए, जिसमें भाजपा को मिलने वाली सीटों की संख्या 200-210 तक आँकी जा रही है. इन
सर्वे के नतीजों पर “बहसियाने और बकबकाने वाले
अधिकाँश तथाकथित बुद्धिजीवी (लेकिन वास्तव में काँग्रेसी प्रवक्ता)” भी इन नतीजों से मोटे तौर
पर सहमत हैं. इसी से पता चलता है कि देश में काँग्रेस विरोधी एक लहर चल रही है,
जनता अब इनसे बुरी तरह उकता चुकी है, और पहला मौका पाते ही यूपीए को सत्ता से उखाड़
फेंकना चाहती है. मई २०१४ में देश का नया गैर-काँग्रेसी प्रधानमंत्री कौन होगा, यह
भविष्य के गर्भ में है.
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