माननीय सुप्रीम कोर्ट जी, "उन्हें" मुआवज़ा और पेंशन, हम कहाँ जायें? Compensation to Criminal and Pension to Terrorist

Written by शुक्रवार, 04 सितम्बर 2009 14:11
पाकिस्तानी आतंकवादी अज़मल कसाब को मिलने वाली सुविधाओं और उसकी मांगों के बारे में तथा सरकार और अन्य "दानवाधिकार" संगठनों द्वारा उसके आगे बिछे जाने को लेकर पहले भी काफ़ी लिखा जा चुका है (ये और बात है कि चाहे कोई भी राष्ट्रवादी व्यक्ति कितनी ही आलोचना कर ले, कांग्रेस और हमारे हिन्दुत्वविरोधी मीडिया पर कोई असर नहीं पड़ता)। इसी प्रकार कश्मीर में मारे गये आतंकवादियों के परिवारों के आश्रितों को कांग्रेस-मुफ़्ती-फ़ारुक द्वारा आपसी सहमति से बाँटे गये पैसों पर भी काफ़ी चर्चा हो चुकी है। यह घटनायें कांग्रेस सरकारों द्वारा प्रायोजित और आयोजित होती थीं, सो इसकी जमकर आलोचना की गई, प्रत्येक देशप्रेमी को (सेकुलरों को छोड़कर) करना भी चाहिये। लेकिन अब एक नया ही मामला सामने आया है, जिसकी आलोचना भी हम-आप नहीं कर सकते।

जैसा कि सभी जानते हैं हमारे देश की न्यायपालिकाएं एक "लाजवन्ती" नारी से भी ज्यादा छुई-मुई हैं, जरा सा "छेड़" दो, तो तड़ से उनकी अवमानना हो जाती है। इसलिए पहले ही घोषणा कर दूं कि यह लेख मेरे प्रिय पाठकों के लिये सिर्फ़ "एक खबर" मानी जाये, "माननीय" न्यायालय के खिलाफ़ टिप्पणी नहीं…

11 अगस्त को "माननीय" सर्वोच्च न्यायालय की दो जजों तरुण चटर्जी और आफ़ताब आलम की खण्डपीठ ने गुजरात में नवम्बर 2005 में एनकाउंटर में मारे गये सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसर बी के परिजनों को दस लाख रुपये का मुआवज़ा देने का निर्देश दिया है। ऐसे में "माननीय" न्यायालय से पूछने को जी चाहता है कि क्या ज्ञात और घोषित अपराधियों के परिजनों के लिये मुआवज़ा घोषित करने से गलत संदेश नहीं जायेगा? मुआवज़ा कितना मिलना चाहिये, यह निर्धारित करते समय क्या "माननीय" न्यायालय ने उस परिवार के "पाप में सहभागी होने" और उसकी आय को ध्यान में रखा है? इन अपराधियों द्वारा अब तक मारे गये निर्दोष व्यक्तियों के परिजनों को क्या ऐसा कोई मुआवज़ा "माननीय" न्यायालय ने दिया है? यदि इन अपराधियों द्वारा मारे गये लोगों के परिजन "माननीय" न्यायालय की दृष्टि के सामने नहीं आ पाये हैं तो क्या इसमें उनका दोष है, और क्या यही न्याय है? एक सामान्य और आम नागरिक इस निर्णय को किस प्रकार देखे? क्या यह निर्णय अपराधियों के परिवारों को कानूनी रूप से पालने-पोसने और उन अपराधियों द्वारा सरेआम एक न्यायप्रिय और कानून का पालन करने वाले आम नागरिक के साथ बलात्कार जैसा नहीं लगता?

उल्लेखनीय है कि सोहराबुद्दीन उज्जैन के पास उन्हेल का रहने वाला एक ट्रक चालक था, जिसे इन्दौर से कांडला बन्दरगाह माल लाने-ले जाने के दौरान अपराधियों का सम्पर्क मिला और वह बाद में दाऊद की गैंग के लिये काम करने लगा। मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान सरकारों के लिये वह एक समय सिरदर्द बन गया था और दाऊद के अपहरण रैकेट में उसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। सोहराबुद्दीन को गुजरात पुलिस द्वारा मार गिराये जाने के बाद जब उसका शव उसके पैतृक गाँव लाया गया तब उसकी शवयात्रा का स्वागत एक गुट द्वारा हवा में गोलियां दाग कर किया गया था। इस व्यक्ति के परिजनों को जनता के टैक्स की गाढ़ी कमाई का 10 लाख रुपया देने के पीछे "माननीय" न्यायालय का क्या उद्देश्य है, यह समझ से परे है।

आज जबकि समूचा भारत आतंकवाद से जूझ रहा है, आतंकवादियों और अन्तर्राष्ट्रीय अपराधियों में खुलेआम सांठगांठ साबित हो चुकी है, ऐसे में यह उदाहरण पेश करना क्या "माननीय" न्यायालय को शोभा देता है? खासकर ऐसे में जबकि हमारे जांबाज पुलिसवाले कम से कम संसाधनों और पुराने हथियारों से काम चला रहे हों और उनकी जान पर खतरा सतत मंडराता है? सवाल यह भी है कि "माननीय" न्यायालय ने अब तक कितने पुलिसवालों और छत्तीसगढ़ में रोजाना शहीद होने वाले पुलिसवालों को दस-दस लाख रुपये दिलवाये हैं?

दाऊद का एक और गुर्गा अब्दुल लतीफ़, जो कि साबरमती जेल से मोबाइल द्वारा सतत अपने साथियों के सम्पर्क में था, एक मध्यरात्रि में जेल से भागते समय पुलिस की गोली का शिकार हुआ, इस प्रकार के घोषित रूप से समाजविरोधी तत्वों को इस तरह "टपकाने" में कोई बुराई नहीं है, बल्कि इसे कानूनन जायज़ बना दिया जाना चाहिये, खासकर ऐसे मामलों में जहाँ न्यायालय द्वारा यह साबित किया जा चुका हो कि वह व्यक्ति कुख्यात अपराधी है और जेहादी संगठनों से उसकी मिलीभगत है, तभी हम आतंकवाद पर एक हद तक अंकुश लगा पाने में कामयाब होंगे।

"माननीय" न्यायालय को यह समझना चाहिये कि मुआवज़ा अवश्य दिया जाये, लेकिन सिर्फ़ उन्हीं को जो गलत पहचान के शिकार होकर पुलिस के हाथों मारे गये हैं (जैसे कनॉट प्लेस दिल्ली की घटना में वे दोनो व्यापारी)। एक अपराधी के परिजनों को मुआवज़ा देने से निश्चित रूप से गलत संदेश गया है। लेकिन यह बात हमारे सेकुलरों, लाल बन्दरों और झोला-ब्रिगेड वाले कथित मानवाधिकारवादियों को समझ नहीं आयेगी।

बाटला हाउस की जाँच में पुलिस वालों की भूमिका निर्दोष पाई गई है, लेकिन फ़िर भी सेकुलरों का "फ़र्जी मुठभेड़" राग जारी है, साध्वी प्रज्ञा के साथ अमानवीय बर्ताव जारी है लेकिन मानवाधिकार और महिला आयोग चुप्पी साधे बैठा है। अब बाटला हाउस कांड की जाँच सीबीआई से करवाने की मांग की जा रही है, यदि उसमें भी पुलिस को क्लीन चिट मिल गई तो ये सेकुलर लोग मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जायेंगे।

एक बार पहले भी "माननीय" सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात दंगों के सम्बन्ध में तीस्ता सीतलवाड द्वारा बगैर हस्ताक्षर किये कोरे हलफ़नामें स्वीकार किये हैं तथा, एक और "माननीय" हाईकोर्ट ने एक युवती इशरत जहाँ को, जिसे आतंकवादियों से गहरे सम्बन्ध होने की वजह से गुजरात पुलिस द्वारा मार गिराया गया था, उसकी न्यायिक जाँच के आदेश दिये थे, जबकि लश्कर-ए-तैयबा की वेबसाईट पर इशरतजहाँ को "शहीद" के रूप में खुलेआम चित्रित किया जा चुका था। ताज़ा समाचार के अनुसार कसाब को अण्डाकार जेल में रोज़े रखने/खोलने के लिये रोज़ाना समय बताया जायेगा ताकि उसकी धार्मिक भावनायें(?) आहत न हों, जबकि साध्वी प्रज्ञा को एक बार अंडा खिलाने की घृणित कोशिश की जा चुकी है, "सेकुलर देशद्रोहियों" के पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि यदि साध्वी प्रज्ञा जेल में गणेश मूर्ति स्थापित करने की मांग करें, तो क्या अनुमति दी जायेगी? "सेकुलरिज़्म" के कथित योद्धा इन बातों पर एक "राष्ट्रविरोधी चुप्पी" साध जाते हैं या फ़िर गोलमोल जवाब देते हैं, क्योंकि जैसा कि सभी जानते हैं, नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ बोलना-लिखना अथवा मुसलमानों के पक्ष में कुछ भी बोलना ही सेकुलरिज़्म कहलाता है। ये दो "पैरामीटर" सेकुलर घोषित किये जाने के लिये पर्याप्त हैं। ये घटिया लोग जीवन भर "संघ और हिन्दुत्व" को गाली देने में ही अपनी ऊर्जा खपाते रहे, और इन्हें पता भी नहीं कि भारत के पिछवाड़े में डण्डा करने वाली ताकतें मजबूत होती रहीं।

शुरुआत में जिन दोनों मामलों (कसाब और कश्मीर के आतंकवादी) का जिक्र किया गया था, उनमें तो "सरकारी तंत्र" और वोट बैंक की राजनीति ने अपना घृणित खेल दिखाया था, लेकिन अब "माननीय" न्यायालय भी ऐसे निर्णय करेगा तो आम नागरिक कहाँ जाये?

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विशेष नोट - इस लेख में "माननीय" शब्द का उपयोग 12-13 बार किया है, इसी से पता चलता है कि मैं कानून का कितना घोर, घनघोर, घटाटोप सम्मान करता हूं, और "अवमानना" करने का तो कोई सवाल ही नहीं है :)। टिप्पणी करने वाले बन्धु-भगिनियाँ भी टिप्पणी करते समय माननीय शब्द का उपयोग अवश्य करें वह भी डबल कोट के साथ… वरना आप तो जानते ही हैं कि पंगेबाज के साथ क्या हुआ था।

फ़िलहाल यू-ट्यूब की यह लिंक देखें और अपना कीमती (और असली) खून जलायें… सेकुलर UPA के सौजन्य से… :)

http://www.youtube.com/watch?v=NK6xwFRQ7BQ



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I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai. 


I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

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