तमिल चीतों के सफ़ाये में चीन की भूमिका और भारत मूक दर्शक China’s role in Tamil Tiger Eradication
Written by Super User शुक्रवार, 08 मई 2009 16:20
जब श्रीलंका ने तमिल चीतों पर निर्णायक हमला बोलने का निर्णय लिया तब कई लोगों को आश्चर्य हुआ था, कि आखिर श्रीलंका कैसे यह कर सकेगा। लेकिन इलाके पर बारीक नज़र रखने वाले विशेषज्ञ जानते थे कि चीन का हाथ अब पूरी तरह से श्रीलंका की पीठ पर है और प्रभाकरन सिर्फ़ कुछ ही दिनों का मेहमान है। चीन की मदद से न सिर्फ़ श्रीलंका ने जफ़ना और त्रिंकोमाली पर पकड़ मजबूत कर ली बल्कि “अन्तर्राष्ट्रीय आवाजों” और “पश्चिम की चिंताओं” की परवाह भी नहीं की।
श्रीलंका के दक्षिणी तट पर, विश्व के सबसे व्यस्ततम जलमार्ग से सिर्फ़ 10 समुद्री मील दूर एक विशालकाय निर्माण कार्य चल रहा है। “हम्बनतोटा” नामक इस मछलीमार गाँव की शान्ति भारी मशीनों ने भंग की हुई है… यहाँ चीन की आर्थिक और तकनीकी मदद से एक बहुत बड़ा बन्दरगाह बनाया जा रहा है, जिसे चीन अपने हितों के लिये उपयोग करेगा।

मार्च 2007 में जब श्रीलंका और चीन की सरकारों के बीच इस बन्दरगाह को बनाने का समझौता हुआ तभी से (यानी पिछले दो साल से) चीन ने श्रीलंका को इसके बदले में हथियार, अन्य साजो-सामान की सहायता और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनोवैज्ञानिक मदद सब कुछ दिया। असल में लगभग 1 अरब डॉलर की भारी-भरकम लागत से बनने वाले इस सैनिक-असैनिक बन्दरगाह से चीन अपने सभी जहाजों और तेल टैंकरों की मरम्मत और ईंधन की देखभाल तो करेगा ही, इस सामरिक रूप से महत्वपूर्ण समुद्री इलाके से सऊदी अरब द्वारा आने वाले उसके तेल पर भी नज़र रखेगा। भले ही चीन कहे कि यह एक व्यावसायिक बन्दरगाह है और श्रीलंका का इस पर पूरा नियन्त्रण होगा, लेकिन जो लोग चीन को जानते हैं वे यह जानते हैं कि चीन इस बन्दरगाह का उपयोग निश्चित रूप से क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज करने के लिये करेगा, और दक्षिण प्रशान्त और हिन्द महासागर में उसकी एक मजबूत उपस्थिति हो जायेगी।
इस जलमार्ग की विशिष्टता और उपयोगिता कितनी है यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि 1957 तक ब्रिटेन ने भी त्रिंकोमाली में अपना नौसेनिक अड्डा बनाया हुआ था और आज भी दिएगो गार्सिया में वह अमेरिका के साथ साझेदारी में एक महत्वपूर्ण द्वीप पर काबिज है। चीन की नज़र श्रीलंका पर 1990 से ही थी, लेकिन अब तमिल चीतों के सफ़ाये में मदद के बहाने से चीन ने श्रीलंका में पूरी तरह से घुसपैठ कर ली है, जब पश्चिमी देशों और भारत ने श्रीलंका को मदद देने से इंकार कर दिया तब चीन ने सभी को ठेंगे पर रखते हुए “लंका लॉजिस्टिक्स एण्ड टेक्नोलॉजीस” (जिसके मालिक श्रीलंकाई राष्ट्रपति के भाई गोतभाया राजपक्षे हैं) से श्रीलंका को खुलकर भारी हथियार दिये। अप्रैल 2007 में 40 करोड़ डॉलर के हथियारों के बाद छः F-7 विमान भी लगभग मुफ़्त में उसने श्रीलंका को दिये ताकि वह लिट्टे के हवाई हमलों से निपट सके। क्या इतना सब चीन मानवता के नाते कर रहा है? कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है। खासकर तब, जबकि चीन ने पिछले दस साल में पाकिस्तान में ग्वादर बन्दरगाह, बांग्लादेश में चटगाँव बन्दरगाह और बर्मा में सिटवे बन्दरगाह को आधुनिक बनाने में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया है। (खबर यहाँ देखें)
क्या अब किसी के कानों में खतरे की घंटी बजी? जरूर बजी, हरेक समझदार व्यक्ति इस खतरे को भाँप रहा है, सिवाय भारत की कांग्रेसी सरकार के, जिसकी विदेश नीति की विफ़लता का आलम यह है कि तिब्बत के बाद अब नेपाल के रास्ते चीन पूर्वी सीमा पर आन खड़ा हुआ है तथा देश के चारों ओर महत्वपूर्ण ठिकानों पर अपने बन्दरगाह बना चुका है। सिर्फ़ अमेरिका की चमचागिरी करना ही “विदेश नीति” नहीं होती, यह बात कौन हमारे नेताओं को समझायेगा? आखिर कब भारत एक तनकर खड़ा होने वाला देश बनेगा। तथाकथित मानवाधिकारों की परवाह किये बिना कब भारत “अपने फ़ायदे” के बारे में सोचेगा? जो कुछ चीन ने श्रीलंका में किया क्या हम नहीं कर सकते थे? बांग्लादेश और पाकिस्तान को छोड़ भी दें (क्योंकि वे इस्लामिक देश हैं) तब भी कम से कम श्रीलंका और बर्मा में भारत अपने “पैर” जमा सकता था, लेकिन हमारी सरकारों को कभी करुणानिधि का डर सताता है, कभी “मानवाधिकारवादियों” का, तो कभी “लाल झण्डे वालों” का…, देश का फ़ायदा (दूरगामी फ़ायदा) कैसे हो यह सोचने की फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है। उधर महिन्द्रा राजपक्षे की चारों तरफ़ से मौज है, सन् 2005 से लेकर अब तक चीन उसे 1 अरब डॉलर की अतिरिक्त मदद दे चुका है, जबकि इसी अवधि में अमेरिका ने सिर्फ़ 7 करोड़ डॉलर और ब्रिटेन ने सिर्फ़ 2 करोड़ पौंड की मदद दी है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर राजपक्षे विश्व की सहानुभूति तो बटोर ही रहे हैं, माल भी बटोर रहे हैं। चीन ने उसे संयुक्त राष्ट्र में उठने वाली किसी भी आपत्ति पर कान न देने को कहा है, और श्रीलंका जानता है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन का वरदहस्त होने के क्या मायने हैं, इसलिये वह भारत को भी “भाव” देने को तैयार नहीं हैं, जबकि इधर भारतीय नेता खामखा मुगालते में बैठे हैं कि श्रीलंका हमारी कोई भी बात सुनेगा।
इस सारे झमेले में एक “मिशनरी/चर्च” का कोण भी है, जिसकी तरफ़ अभी बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया है। श्रीलंका में बरसों से जारी सिंहली-तमिल संघर्ष के दौरान जिस लिट्टे का जन्म हुआ, अब वह लिट्टे पुराना लिट्टे नहीं रहा। उसके प्रमुख प्रभाकरण भी ईसाई बन चुके और कई प्रमुख ओहदेदार भी। लिट्टे अपने सदस्यों का अन्तिम संस्कार भी नहीं करने देता बल्कि उन्हें कब्र में दफ़नाया जाता है। लिट्टे की सबसे बड़ी आर्थिक और शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति करने वाली संस्था रही “पश्चिम का एवेंजेलिकल चर्च”। चर्च (खासकर नॉर्वे, जर्मनी, स्पेन) और पश्चिम के अन्य देशों के पैसों के बल पर तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका को मिलाकर एक “तमिल ईलम” बनाने की योजना थी, फ़िलहाल जिस पर चीन की मेहरबानी से पानी फ़िर गया है। गत 5 साल में चर्च का सर्वाधिक पैसा भारत में जिस राज्य में आया है वह “तमिलनाडु” है। करुणानिधि भले ही अपने-आप को नास्तिक बताते रहे हों, लेकिन गले में पीला दुपट्टा ओढ़कर भी वे सदा चर्च की मदद को तत्पर रहे हैं। शंकराचार्य की गिरफ़्तारी हो या चेन्नै हाईकोर्ट में वकीलों द्वारा किया गया उपद्रव हो, हरेक घटना के पीछे द्रमुक का हिन्दू और ब्राह्मणविरोधी रुख स्पष्ट दिखा है। जबकि चीन के लिये अपना फ़ायदा अधिक महत्वपूर्ण है, “चर्च” वगैरह की शक्ति को वह जूते की नोक पर रखता है, इसलिये उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि श्रीलंका में चल रहा संघर्ष असल में “बौद्ध” और “चर्च” का संघर्ष था। पश्चिमी देशों की श्रीलंका में मानवाधिकार आदि की “चिल्लपों” इसी कारण है कि चर्च का काफ़ी पैसा पानी में चला गया, जबकि श्रीलंका सरकार का रुख “कान पर बैठी मक्खी उड़ाने” जैसा इसलिये है, क्योंकि वह जानता है कि चीन उसके साथ है।
फ़िलहाल तो भारत सरकार एक मूक दर्शक की भूमिका में है (जैसा कि वह अधिकतर मामलों में होती है), चाहे करुणानिधि खुलेआम तमिलनाडु में “तमिल ईलम” की स्थापना की घोषणा कर रहे हों, वाइको सरेआम “खून की नदियाँ” बहाने की बात कर रहे हों। छोटी-मोटी पार्टियाँ जनता को उकसाकर भारतीय सेना के ट्रकों को लूट रही हैं, जला रही हैं… लेकिन शायद केन्द्र की कांग्रेस सरकार करुणानिधि या जयललिता से भविष्य में होने वाले राजनैतिक समीकरण पर ध्यान टिकाये हुए है, जयललिता को पटाने में लगी है, फ़िर चाहे “देशहित” जाये भाड़ में।
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श्रीलंका के दक्षिणी तट पर, विश्व के सबसे व्यस्ततम जलमार्ग से सिर्फ़ 10 समुद्री मील दूर एक विशालकाय निर्माण कार्य चल रहा है। “हम्बनतोटा” नामक इस मछलीमार गाँव की शान्ति भारी मशीनों ने भंग की हुई है… यहाँ चीन की आर्थिक और तकनीकी मदद से एक बहुत बड़ा बन्दरगाह बनाया जा रहा है, जिसे चीन अपने हितों के लिये उपयोग करेगा।

मार्च 2007 में जब श्रीलंका और चीन की सरकारों के बीच इस बन्दरगाह को बनाने का समझौता हुआ तभी से (यानी पिछले दो साल से) चीन ने श्रीलंका को इसके बदले में हथियार, अन्य साजो-सामान की सहायता और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनोवैज्ञानिक मदद सब कुछ दिया। असल में लगभग 1 अरब डॉलर की भारी-भरकम लागत से बनने वाले इस सैनिक-असैनिक बन्दरगाह से चीन अपने सभी जहाजों और तेल टैंकरों की मरम्मत और ईंधन की देखभाल तो करेगा ही, इस सामरिक रूप से महत्वपूर्ण समुद्री इलाके से सऊदी अरब द्वारा आने वाले उसके तेल पर भी नज़र रखेगा। भले ही चीन कहे कि यह एक व्यावसायिक बन्दरगाह है और श्रीलंका का इस पर पूरा नियन्त्रण होगा, लेकिन जो लोग चीन को जानते हैं वे यह जानते हैं कि चीन इस बन्दरगाह का उपयोग निश्चित रूप से क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज करने के लिये करेगा, और दक्षिण प्रशान्त और हिन्द महासागर में उसकी एक मजबूत उपस्थिति हो जायेगी।
इस जलमार्ग की विशिष्टता और उपयोगिता कितनी है यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि 1957 तक ब्रिटेन ने भी त्रिंकोमाली में अपना नौसेनिक अड्डा बनाया हुआ था और आज भी दिएगो गार्सिया में वह अमेरिका के साथ साझेदारी में एक महत्वपूर्ण द्वीप पर काबिज है। चीन की नज़र श्रीलंका पर 1990 से ही थी, लेकिन अब तमिल चीतों के सफ़ाये में मदद के बहाने से चीन ने श्रीलंका में पूरी तरह से घुसपैठ कर ली है, जब पश्चिमी देशों और भारत ने श्रीलंका को मदद देने से इंकार कर दिया तब चीन ने सभी को ठेंगे पर रखते हुए “लंका लॉजिस्टिक्स एण्ड टेक्नोलॉजीस” (जिसके मालिक श्रीलंकाई राष्ट्रपति के भाई गोतभाया राजपक्षे हैं) से श्रीलंका को खुलकर भारी हथियार दिये। अप्रैल 2007 में 40 करोड़ डॉलर के हथियारों के बाद छः F-7 विमान भी लगभग मुफ़्त में उसने श्रीलंका को दिये ताकि वह लिट्टे के हवाई हमलों से निपट सके। क्या इतना सब चीन मानवता के नाते कर रहा है? कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है। खासकर तब, जबकि चीन ने पिछले दस साल में पाकिस्तान में ग्वादर बन्दरगाह, बांग्लादेश में चटगाँव बन्दरगाह और बर्मा में सिटवे बन्दरगाह को आधुनिक बनाने में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया है। (खबर यहाँ देखें)
क्या अब किसी के कानों में खतरे की घंटी बजी? जरूर बजी, हरेक समझदार व्यक्ति इस खतरे को भाँप रहा है, सिवाय भारत की कांग्रेसी सरकार के, जिसकी विदेश नीति की विफ़लता का आलम यह है कि तिब्बत के बाद अब नेपाल के रास्ते चीन पूर्वी सीमा पर आन खड़ा हुआ है तथा देश के चारों ओर महत्वपूर्ण ठिकानों पर अपने बन्दरगाह बना चुका है। सिर्फ़ अमेरिका की चमचागिरी करना ही “विदेश नीति” नहीं होती, यह बात कौन हमारे नेताओं को समझायेगा? आखिर कब भारत एक तनकर खड़ा होने वाला देश बनेगा। तथाकथित मानवाधिकारों की परवाह किये बिना कब भारत “अपने फ़ायदे” के बारे में सोचेगा? जो कुछ चीन ने श्रीलंका में किया क्या हम नहीं कर सकते थे? बांग्लादेश और पाकिस्तान को छोड़ भी दें (क्योंकि वे इस्लामिक देश हैं) तब भी कम से कम श्रीलंका और बर्मा में भारत अपने “पैर” जमा सकता था, लेकिन हमारी सरकारों को कभी करुणानिधि का डर सताता है, कभी “मानवाधिकारवादियों” का, तो कभी “लाल झण्डे वालों” का…, देश का फ़ायदा (दूरगामी फ़ायदा) कैसे हो यह सोचने की फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है। उधर महिन्द्रा राजपक्षे की चारों तरफ़ से मौज है, सन् 2005 से लेकर अब तक चीन उसे 1 अरब डॉलर की अतिरिक्त मदद दे चुका है, जबकि इसी अवधि में अमेरिका ने सिर्फ़ 7 करोड़ डॉलर और ब्रिटेन ने सिर्फ़ 2 करोड़ पौंड की मदद दी है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर राजपक्षे विश्व की सहानुभूति तो बटोर ही रहे हैं, माल भी बटोर रहे हैं। चीन ने उसे संयुक्त राष्ट्र में उठने वाली किसी भी आपत्ति पर कान न देने को कहा है, और श्रीलंका जानता है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन का वरदहस्त होने के क्या मायने हैं, इसलिये वह भारत को भी “भाव” देने को तैयार नहीं हैं, जबकि इधर भारतीय नेता खामखा मुगालते में बैठे हैं कि श्रीलंका हमारी कोई भी बात सुनेगा।
इस सारे झमेले में एक “मिशनरी/चर्च” का कोण भी है, जिसकी तरफ़ अभी बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया है। श्रीलंका में बरसों से जारी सिंहली-तमिल संघर्ष के दौरान जिस लिट्टे का जन्म हुआ, अब वह लिट्टे पुराना लिट्टे नहीं रहा। उसके प्रमुख प्रभाकरण भी ईसाई बन चुके और कई प्रमुख ओहदेदार भी। लिट्टे अपने सदस्यों का अन्तिम संस्कार भी नहीं करने देता बल्कि उन्हें कब्र में दफ़नाया जाता है। लिट्टे की सबसे बड़ी आर्थिक और शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति करने वाली संस्था रही “पश्चिम का एवेंजेलिकल चर्च”। चर्च (खासकर नॉर्वे, जर्मनी, स्पेन) और पश्चिम के अन्य देशों के पैसों के बल पर तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका को मिलाकर एक “तमिल ईलम” बनाने की योजना थी, फ़िलहाल जिस पर चीन की मेहरबानी से पानी फ़िर गया है। गत 5 साल में चर्च का सर्वाधिक पैसा भारत में जिस राज्य में आया है वह “तमिलनाडु” है। करुणानिधि भले ही अपने-आप को नास्तिक बताते रहे हों, लेकिन गले में पीला दुपट्टा ओढ़कर भी वे सदा चर्च की मदद को तत्पर रहे हैं। शंकराचार्य की गिरफ़्तारी हो या चेन्नै हाईकोर्ट में वकीलों द्वारा किया गया उपद्रव हो, हरेक घटना के पीछे द्रमुक का हिन्दू और ब्राह्मणविरोधी रुख स्पष्ट दिखा है। जबकि चीन के लिये अपना फ़ायदा अधिक महत्वपूर्ण है, “चर्च” वगैरह की शक्ति को वह जूते की नोक पर रखता है, इसलिये उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि श्रीलंका में चल रहा संघर्ष असल में “बौद्ध” और “चर्च” का संघर्ष था। पश्चिमी देशों की श्रीलंका में मानवाधिकार आदि की “चिल्लपों” इसी कारण है कि चर्च का काफ़ी पैसा पानी में चला गया, जबकि श्रीलंका सरकार का रुख “कान पर बैठी मक्खी उड़ाने” जैसा इसलिये है, क्योंकि वह जानता है कि चीन उसके साथ है।
फ़िलहाल तो भारत सरकार एक मूक दर्शक की भूमिका में है (जैसा कि वह अधिकतर मामलों में होती है), चाहे करुणानिधि खुलेआम तमिलनाडु में “तमिल ईलम” की स्थापना की घोषणा कर रहे हों, वाइको सरेआम “खून की नदियाँ” बहाने की बात कर रहे हों। छोटी-मोटी पार्टियाँ जनता को उकसाकर भारतीय सेना के ट्रकों को लूट रही हैं, जला रही हैं… लेकिन शायद केन्द्र की कांग्रेस सरकार करुणानिधि या जयललिता से भविष्य में होने वाले राजनैतिक समीकरण पर ध्यान टिकाये हुए है, जयललिता को पटाने में लगी है, फ़िर चाहे “देशहित” जाये भाड़ में।
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