
Super User
I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai.
I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles.
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गुरुवार, 19 जून 2008 11:29
नशेड़ी भारतीय युवा, कारें-बाइक लिये सड़कों पर – कारण और इलाज
Drunken Driving Youths Road Accidents
लगभग रोज ही किसी न किसी चैनल पर एक खबर अवश्य होती है कि दिल्ली, मुम्बई, चंडीगढ़, गुड़गाँव, पुणे, हैदराबाद आदि महानगरों में किसी कार ने फ़ुटपाथ पर सोये लोगों को कुचल दिया, किसी बाइक सवार ने किसी बूढ़े की जान ले ली आदि-आदि। हम धीरे-धीरे इन खबरों के भी “आदी”(?) होते जा रहे हैं, और इन घटनाओं में सलमान जैसे “सेलेब्रिटी(?)” तक शामिल हैं। ऐसी घटनाओं के तेजी से बढ़ने के पीछे मुख्य कारण है “युवाओं में बढ़ती शराबनोशी”। शराब अब समाज के लगभग 70% तबके में त्याज्य, या बुरी वस्तु नहीं मानी जाती, शादी-पार्टियों में तो अब यह आम हो चली है, ये बात और है कि शराब पीने और पीने के बाद की हरकतों की तमीज सिखाने का कोई इंस्टीट्यूट अभी तक नहीं खुला है। अक्सर देखने में आया है कि शराब पीकर कार या बाइक से कुचलने की घटनायें आमतौर पर शनिवार-रविवार को ज्यादा होती हैं। हालांकि अमीरजादों के लिये क्या वीक-एण्ड और क्या काम का दिन, लेकिन जब से बीपीओ का बूम आया है, सॉफ़्टवेयर, हवाई सेवाओं, व अन्य सभी इंडस्ट्री ने अनाप-शनाप पैसा युवाओं के हाथों में पहुँचाना शुरु किया है, धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के युवा अमूमन शनिवार-रविवार को “मस्ती”, “एंजॉय”, “रिलैक्स” के नाम पर शराब या अन्य नशे की गिरफ़्त में होते हैं। इसकी शुरुआत होती है बीयर से और अन्त होता है हवालात में या सिर फ़टने के कारण हुई मौत में। रोड एक्सीडेंट के 40-45% मामलों में इसकी जिम्मेदार शराब ही होती है और उसमें भी 90% की उम्र 17 से 30 वर्ष होती है, इसका क्या मतलब निकाला जाये? शराब ही शायद एकमात्र ऐसी चीज है जो खुशी में भी पी जाती है और गम में भी, और कई बार टाइम-पास के लिये भी (विजय माल्या देखते-देखते विशाल एयरलाइन के मालिक यूँ ही नहीं बन गये हैं)।
बहरहाल, अक्सर देखने में आया है कि ऐसी घटनाओं में टक्कर मारकर घायल करने वाला, बल्कि जान लेने तक के मामले में ड्रायवर बच निकलता है। पहले या तो वह भाग जाता है, या पकड़ा जाये तो रिश्वत देकर छूटने की कोशिश करता है, या उसका कोई वैध-अवैध बाप थाने में आकर उसे छुड़ा ले जाता है। मान लो किसी तरह संघर्ष करके केस कोर्ट में चला जाये तो उसे सजा होगी मात्र दो साल की। जी हाँ, कानून के अनुसार एक तो यह जमानती अपराध है, और सजा अधिकतम दो साल की हो सकती है, चाहे उसने कितने ही लोगों को कुचलकर मार दिया हो।
सबसे पहला सुधार तो कानून आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार यही होना चाहिये कि अपराध गैर-जमानती हो (जैसे कि दहेज या दलित उत्पीड़न के मामले में है) और अपराध साबित होने के बाद सजा को बढ़ाकर दो साल की बजाय दस साल किया जाना चाहिये। दो-चार रईसजादे दस साल के लिये अन्दर हो जायें और उनके “पिछवाड़े” पर जेल में डंडे बरसाये जायें तो बाकी के 50% तो वह आलम देखकर गाड़ी चलाना ही छोड़ देंगे, बाकी के दारू पीना छोड़ देंगे और बचे-खुचे लोग “दारू और गाड़ी का कॉम्बिनेशन” नहीं करेंगे। ये तो हुआ पहला और जरूरी कदम। यदि टक्कर के बाद कोई व्यक्ति घायल हुआ है तो लायसेंस निरस्ती और/या भारी जुर्माना तो होना ही चाहिये लेकिन यदि व्यक्ति की जान गई है तब तो कम से कम दस साल की सजा होना ही चाहिये।
हालांकि भारत जैसे देश में कानून का पालन करवाना ही कठिन काम होता है, देश में सरेआम सड़कों पर 100 रुपये में कानून बिकता है, ड्रायविंग लायसेंस हमारे यहाँ घर बैठे बन जाते हैं (राशन कार्ड और पासपोर्ट भी), ऐसे में सबसे पहला काम शिक्षित करने का होना चाहिये, खासकर पालकों को जो अपने आठ-दस साल के नौनिहाल को स्कूटी या लूना चलाते देखकर गदगद हुए जाते हैं। ये नजारे आमतौर पर कालोनियों में देखे जा सकते हैं, सबसे पहले उन बच्चों के वाहन जब्त करके पालकों को “हिन्दी में समझाइश” देना होगा।
कानून में बदलाव के अलावा मेरा सुझाव है कि –
1) नशे में वाहन चलाते पाये जाने पर, गलत लेन या “नो एंट्री” में वाहन पकड़े जाने पर – जान से मारने की कोशिश का केस बनाये जायें
2) दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव यह कि “जुर्माने” में से ट्रैफ़िक जवान को Incentive का प्रावधान होना चाहिये। मान लें कि “गलत पार्किंग”, “जेब्रा क्रॉसिंग पार करना”, “रेड लाइट होते हुए भी गाड़ी भगा ले जाना”, “लायसेंस-रोड टैक्स के कागजात न होना”, “गाड़ी चलाते हुए मोबाइल पर बात करने” जैसे छोटे अपराधों के लिये हमें “गाड़ी की कीमत” के हिसाब से 5% जुर्माना ठोंकना चाहिये और उस जुर्माना राशि में से 10-15% की रकम ट्रैफ़िक जवान को मिलना चाहिये। जैसे यदि किसी चार लाख की कार पर जुर्माना हुआ 20,000/- तो उसमें से 2000/- ट्रैफ़िक जवान का Incentive होगा, किसी 60,000 कीमत की बाइक पर जुर्माना 3000/- और उसमें से 300-500 रुपये ट्रैफ़िक जवान को मिलेंगे, तो ऐसे में भला वह क्यों 50-100 रुपये की रिश्वत लेकर किसी को छोड़ेगा? वह तो चाहेगा कि दिन भर में आठ-दस केस पकड़े और आराम से 5-7 हजार रुपये लेकर घर जाये। ऊपर से सरकार की प्रशंसा अलग से… देखते-देखते ट्रैफ़िक नियमों के प्रति जागरूकता फ़ैलेगी ऐसा मेरा विश्वास है।
भारत के अधिकांश लोग समझाइश से या शिक्षित होने भर से अनुशासन नहीं मानते, इन्हें “डंडा” ही ठीक कर सकता है (कुछ मामलों में “आपातकाल” इसका गवाह है)…
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लगभग रोज ही किसी न किसी चैनल पर एक खबर अवश्य होती है कि दिल्ली, मुम्बई, चंडीगढ़, गुड़गाँव, पुणे, हैदराबाद आदि महानगरों में किसी कार ने फ़ुटपाथ पर सोये लोगों को कुचल दिया, किसी बाइक सवार ने किसी बूढ़े की जान ले ली आदि-आदि। हम धीरे-धीरे इन खबरों के भी “आदी”(?) होते जा रहे हैं, और इन घटनाओं में सलमान जैसे “सेलेब्रिटी(?)” तक शामिल हैं। ऐसी घटनाओं के तेजी से बढ़ने के पीछे मुख्य कारण है “युवाओं में बढ़ती शराबनोशी”। शराब अब समाज के लगभग 70% तबके में त्याज्य, या बुरी वस्तु नहीं मानी जाती, शादी-पार्टियों में तो अब यह आम हो चली है, ये बात और है कि शराब पीने और पीने के बाद की हरकतों की तमीज सिखाने का कोई इंस्टीट्यूट अभी तक नहीं खुला है। अक्सर देखने में आया है कि शराब पीकर कार या बाइक से कुचलने की घटनायें आमतौर पर शनिवार-रविवार को ज्यादा होती हैं। हालांकि अमीरजादों के लिये क्या वीक-एण्ड और क्या काम का दिन, लेकिन जब से बीपीओ का बूम आया है, सॉफ़्टवेयर, हवाई सेवाओं, व अन्य सभी इंडस्ट्री ने अनाप-शनाप पैसा युवाओं के हाथों में पहुँचाना शुरु किया है, धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के युवा अमूमन शनिवार-रविवार को “मस्ती”, “एंजॉय”, “रिलैक्स” के नाम पर शराब या अन्य नशे की गिरफ़्त में होते हैं। इसकी शुरुआत होती है बीयर से और अन्त होता है हवालात में या सिर फ़टने के कारण हुई मौत में। रोड एक्सीडेंट के 40-45% मामलों में इसकी जिम्मेदार शराब ही होती है और उसमें भी 90% की उम्र 17 से 30 वर्ष होती है, इसका क्या मतलब निकाला जाये? शराब ही शायद एकमात्र ऐसी चीज है जो खुशी में भी पी जाती है और गम में भी, और कई बार टाइम-पास के लिये भी (विजय माल्या देखते-देखते विशाल एयरलाइन के मालिक यूँ ही नहीं बन गये हैं)।
बहरहाल, अक्सर देखने में आया है कि ऐसी घटनाओं में टक्कर मारकर घायल करने वाला, बल्कि जान लेने तक के मामले में ड्रायवर बच निकलता है। पहले या तो वह भाग जाता है, या पकड़ा जाये तो रिश्वत देकर छूटने की कोशिश करता है, या उसका कोई वैध-अवैध बाप थाने में आकर उसे छुड़ा ले जाता है। मान लो किसी तरह संघर्ष करके केस कोर्ट में चला जाये तो उसे सजा होगी मात्र दो साल की। जी हाँ, कानून के अनुसार एक तो यह जमानती अपराध है, और सजा अधिकतम दो साल की हो सकती है, चाहे उसने कितने ही लोगों को कुचलकर मार दिया हो।
सबसे पहला सुधार तो कानून आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार यही होना चाहिये कि अपराध गैर-जमानती हो (जैसे कि दहेज या दलित उत्पीड़न के मामले में है) और अपराध साबित होने के बाद सजा को बढ़ाकर दो साल की बजाय दस साल किया जाना चाहिये। दो-चार रईसजादे दस साल के लिये अन्दर हो जायें और उनके “पिछवाड़े” पर जेल में डंडे बरसाये जायें तो बाकी के 50% तो वह आलम देखकर गाड़ी चलाना ही छोड़ देंगे, बाकी के दारू पीना छोड़ देंगे और बचे-खुचे लोग “दारू और गाड़ी का कॉम्बिनेशन” नहीं करेंगे। ये तो हुआ पहला और जरूरी कदम। यदि टक्कर के बाद कोई व्यक्ति घायल हुआ है तो लायसेंस निरस्ती और/या भारी जुर्माना तो होना ही चाहिये लेकिन यदि व्यक्ति की जान गई है तब तो कम से कम दस साल की सजा होना ही चाहिये।
हालांकि भारत जैसे देश में कानून का पालन करवाना ही कठिन काम होता है, देश में सरेआम सड़कों पर 100 रुपये में कानून बिकता है, ड्रायविंग लायसेंस हमारे यहाँ घर बैठे बन जाते हैं (राशन कार्ड और पासपोर्ट भी), ऐसे में सबसे पहला काम शिक्षित करने का होना चाहिये, खासकर पालकों को जो अपने आठ-दस साल के नौनिहाल को स्कूटी या लूना चलाते देखकर गदगद हुए जाते हैं। ये नजारे आमतौर पर कालोनियों में देखे जा सकते हैं, सबसे पहले उन बच्चों के वाहन जब्त करके पालकों को “हिन्दी में समझाइश” देना होगा।
कानून में बदलाव के अलावा मेरा सुझाव है कि –
1) नशे में वाहन चलाते पाये जाने पर, गलत लेन या “नो एंट्री” में वाहन पकड़े जाने पर – जान से मारने की कोशिश का केस बनाये जायें
2) दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव यह कि “जुर्माने” में से ट्रैफ़िक जवान को Incentive का प्रावधान होना चाहिये। मान लें कि “गलत पार्किंग”, “जेब्रा क्रॉसिंग पार करना”, “रेड लाइट होते हुए भी गाड़ी भगा ले जाना”, “लायसेंस-रोड टैक्स के कागजात न होना”, “गाड़ी चलाते हुए मोबाइल पर बात करने” जैसे छोटे अपराधों के लिये हमें “गाड़ी की कीमत” के हिसाब से 5% जुर्माना ठोंकना चाहिये और उस जुर्माना राशि में से 10-15% की रकम ट्रैफ़िक जवान को मिलना चाहिये। जैसे यदि किसी चार लाख की कार पर जुर्माना हुआ 20,000/- तो उसमें से 2000/- ट्रैफ़िक जवान का Incentive होगा, किसी 60,000 कीमत की बाइक पर जुर्माना 3000/- और उसमें से 300-500 रुपये ट्रैफ़िक जवान को मिलेंगे, तो ऐसे में भला वह क्यों 50-100 रुपये की रिश्वत लेकर किसी को छोड़ेगा? वह तो चाहेगा कि दिन भर में आठ-दस केस पकड़े और आराम से 5-7 हजार रुपये लेकर घर जाये। ऊपर से सरकार की प्रशंसा अलग से… देखते-देखते ट्रैफ़िक नियमों के प्रति जागरूकता फ़ैलेगी ऐसा मेरा विश्वास है।
भारत के अधिकांश लोग समझाइश से या शिक्षित होने भर से अनुशासन नहीं मानते, इन्हें “डंडा” ही ठीक कर सकता है (कुछ मामलों में “आपातकाल” इसका गवाह है)…
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शुक्रवार, 27 जून 2008 17:07
कौन कहता है भारत में पेट्रोल संकट है, गरीबी है?
Crude Oil Price Crisis, Indian Politicians
अभी हाल ही में उज्जैन में देश की दो सर्वोच्च हस्तियाँ आईं (वैसे सर्वोच्च तो एक ही थी)। पहले आईं सोनिया गाँधी और उसके कुछ ही दिन बाद आईं राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल। जब से सुरेश पचौरी मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं वे लगातार इस कोशिश में थे कि सोनिया का एक दौरा मप्र में हो जाये, और आखिरकार वह हो गया। हम उज्जैनवासियों के लिये किसी वीवीवीआईपी का आगमन वैसे तो कोई खास बात नहीं, क्योंकि महाकालेश्वर के दर्शनों के लिये यहाँ नेता-अभिनेता-खिलाड़ी-उद्योगपति आते ही रहते हैं। वैसे तो हर विशिष्ट व्यक्ति चुपचाप आता है, महाकाल के दर्शन करता है और बगैर किसी “ऐरे-गैरे” से मिले, निकल लेता है, लेकिन इस बार सोनिया एक रैली को सम्बोधित करने आ रही थीं और वह उज्जैन में कम से कम तीन घंटे रुकने वाली थीं। बस फ़िर क्या था, कांग्रेसी तो कांग्रेसी, प्रशासनिक अधिकारियों को भी लगा कि “घर की शादी है”।
सोनिया गाँधी के आने-जाने का मार्ग तय किया गया, उनकी सुरक्षा के लिये अन्य जिलों से पुलिस बल, रैपिड एक्शन फ़ोर्स, एसपीजी, कमांडो आदि सभी आये, चूंकि वे महाकाल भी जाने वाली थीं, इसलिये ठेठ हवाई अड्डे और सर्किट हाउस से लेकर मन्दिर तक की रिहर्सल कम से कम दस-बीस बार की गई, आईजी-डीआईजी-एसपी के दौरे पर दौरे चले, कलेक्टर-कमिश्नर लगातार उज्जैन भर में घूमते-फ़िरते रहे… कहने का मतलब यह कि सैकड़ों सरकारी गाड़ियाँ, जीपें, ट्रक, डम्पर, नगर निगम के वाहन आदि लगातार आठ-दस दिन तक व्यवस्था में लगे रहे। हजारों लीटर पेट्रोल-डीजल सरकारी और आधिकारिक तौर पर फ़ूंका गया, खामख्वाह तमाम छोटे-बड़े अधिकारी इधर-उधर होते रहे, नगर निगम में किसी काम के लिये जाओ तो पता चलता था कि “साहब सोनियाजी की व्यवस्था में लगे हैं… दौरे पर हैं”, उठाई गाड़ी निकल गये दौरे पर, कोई देखने वाला नहीं, कोई सुनने वाला नहीं। मनमोहन सिंह गला फ़ाड़-फ़ाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि पेट्रोल में मितव्ययिता बरतो, देश संकट के दौर से गुजर रहा है, और इधर कारों का बड़ा भारी लवाजमा (शायद अंग्रेजी में इसे कारकेट कहते हैं) चला जा रहा है, बेवजह। सबसे पहले दो पायलट वाहन टां-टूं-टां-टूं… की तेज आवाज करते हुए (कि ऐ आम आदमी, ऐ कीड़े-मकोड़े रास्ते से हट), फ़िर उसके पीछे दस-बीस कारें, उसके बाद एक-दो एम्बुलेंस, एक फ़ायर ब्रिगेड, एक रैपिड एक्शन फ़ोर्स का ट्रक, और उसके बाद न जाने कितने ही छुटभैये नेता अपनी-अपनी गाड़ियों पर… आखिर यह सब क्या है? और किसके लिये है? जनता को क्या हासिल होगा इससे? कुछ नहीं, लेकिन नहीं साहब फ़िर भी लगे पड़े हैं, दौड़ाये जा रहे हैं गाड़ियाँ मानो इनके लिये मुफ़्त में ईराक से सीधे पाइप लाइन बिछी है घर तक, और मजे की बात तो यह कि इतनी सारी कवायद के बाद सोनिया ने रैली को सम्बोधित किया सिर्फ़ 13 मिनट, जिसमें उनका आना, जमाने भर का स्वागत-हार-फ़ूल-माला-गुलदस्ते-चरण वन्दन आदि भी शामिल था, और महान वचनों का सार क्या था? – कि राज्य सरकार निकम्मी और भ्रष्ट है, महंगाई रोकने में हमारा साथ नहीं दे रही, और आने वाले चुनावों के लिये कांग्रेसियों को तैयार रहना चाहिये। ये तीन बातें तो दिन में चार-चार बार इनके प्रवक्ता विभिन्न टीवी पर बकते रहते हैं, फ़िर नया क्या हुआ?
खैर यह तो हुआ सरकारी खर्चा, जिसकी पाई-पाई हम करदाताओं की जेब से गई है, अब बात करते हैं निजी पेट्रोल-डीजल फ़ूंक तमाशे की… चूंकि यह मध्यप्रदेश में चुनावी वर्ष है, इसलिये हरेक नेता विधानसभा टिकट के लिये अपना शक्ति प्रदर्शन सोनिया के सामने करना चाहता था। आसपास की तहसीलों, गाँवों से सैकड़ों वाहन भर-भर कर लोग लाये गये, जीपें, ट्रक, बस, ट्रैक्टर ट्रालियाँ जिसे जो मिला उसी में किसानों को भरकर लाया गया। मजे की बात तो यह थी कि जब कई गाड़ियाँ उज्जैन की सीमा के बाहर ही थीं, उस वक्त तक तो सोनिया अपना भाषण समाप्त करके जा चुकी थीं। ऐसे में विचारणीय है कि यह पेट्रोल-डीजल संकट असल में किसके लिये है, जाहिर है कि हम-आप जैसे लोगों के लिये जो अपनी जेब से पैसा देकर ईंधन भरवाते हैं। यदि सोनिया गाँधी का यह एक दौरा ही रद्द हो जाता तो देश का लाखों लीटर डीजल बचाया जा सकता था, लेकिन परवाह है किसे…
इसी प्रकार ठीक आठ दिन बाद राष्ट्रपति का दौरा हुआ, प्रशासन की फ़िर से वही कवायद, फ़िर वही रिहर्सल (तीन-तीन बार) सरकारी गाड़ियाँ बगैर सोचे-समझे दौड़ रही हैं, अधिकारी सारे काम-धाम छोड़कर व्यवस्था में लगे हैं, कार्यक्रम बनाये-बिगाड़े जा रहे हैं, कई जगह रंगाई-पुताई की गई, फ़र्जी डामरीकरण किया गया (जो पहली बारिश में ही धुल जायेगा), सर्किट हाउस के पर्दे बदलवाये गये, महंगी क्रॉकरी खरीदी गई (मुझे आज तक समझ में नहीं आया, कि हर प्रमुख हस्ती के दौरे के समय सर्किट हाउस में, और जब भी कोई मंत्री या बड़ा अधिकारी नये बंगले में शिफ़्ट होता है सबसे पहले पर्दे, क्रॉकरी और सोफ़े क्यों बदलवाता है… कोई बताये कि क्या इसमें कोई “छुआछूत कानून” का मामला बनता है?)। तात्पर्य यह कि लाखों रुपये एक-एक दौरे पर सरकारी और निजी तौर पर खर्च होते हैं, इस “बहती गंगा” में अधिकारी और कर्मचारी अपने हाथ-पाँव-मुँह सब धो लेते हैं।
यह देश लुंजपुंज लोकतन्त्र और सड़ी-गली न्याय व्यवस्था की बहुत भारी कीमत चुका रहा है। एक नये प्रकार के राजा-रजवाड़े पैदा हो गये हैं, जो आम आदमी से बहुत-बहुत दूर हैं (शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से)। पिछले वर्ष 11 लाख चौपहिया और 38 लाख दुपहिया वाहनों की बिक्री हुई, चारों तरफ़ हल्ला मचाया जा रहा है कि भारत में बहुत गरीबी है, लेकिन नेताओं के ऐसे भव्य दौरों, पेट्रोल-डीजल की खुलेआम बरबादी और गाड़ियों के नित नये जारी होते मॉडलों को देखकर लगता नहीं कि आज भी कई परिवार 40-50 रुपये रोजाना पर गुजर-बसर कर रहे हैं। लेकिन व्यवस्था ही कुछ ऐसी बनी हुई है कि कफ़न-दफ़न में भी पैसा खाने की जुगाड़ देखने वाले अधिकारी, बच्चों के “कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट” जारी कर रहे हैं, और जिनकी जगह जेल में होना चाहिये वे मंत्रीपद का उपभोग कर रहे हैं।
इस विद्रूप और विषम परिस्थिति में भी “पॉजिटिव” देखना हो तो वह यह है कि इस बहाने कम से कम कुछ सड़कों का, कुछ समय के लिये ही सही कायाकल्प हो जाता है, जहाँ-जहाँ ये वीवीआईपी लोग जाने वाले हों वहाँ की नालियाँ साफ़ हो जाती हैं, उस इलाके की स्ट्रीट लाईटें ठीक हो जाती हैं, उन एक-दो दिनों के लिये बिजली कटौती नहीं होती आदि-आदि, वरना…
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अभी हाल ही में उज्जैन में देश की दो सर्वोच्च हस्तियाँ आईं (वैसे सर्वोच्च तो एक ही थी)। पहले आईं सोनिया गाँधी और उसके कुछ ही दिन बाद आईं राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल। जब से सुरेश पचौरी मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं वे लगातार इस कोशिश में थे कि सोनिया का एक दौरा मप्र में हो जाये, और आखिरकार वह हो गया। हम उज्जैनवासियों के लिये किसी वीवीवीआईपी का आगमन वैसे तो कोई खास बात नहीं, क्योंकि महाकालेश्वर के दर्शनों के लिये यहाँ नेता-अभिनेता-खिलाड़ी-उद्योगपति आते ही रहते हैं। वैसे तो हर विशिष्ट व्यक्ति चुपचाप आता है, महाकाल के दर्शन करता है और बगैर किसी “ऐरे-गैरे” से मिले, निकल लेता है, लेकिन इस बार सोनिया एक रैली को सम्बोधित करने आ रही थीं और वह उज्जैन में कम से कम तीन घंटे रुकने वाली थीं। बस फ़िर क्या था, कांग्रेसी तो कांग्रेसी, प्रशासनिक अधिकारियों को भी लगा कि “घर की शादी है”।
सोनिया गाँधी के आने-जाने का मार्ग तय किया गया, उनकी सुरक्षा के लिये अन्य जिलों से पुलिस बल, रैपिड एक्शन फ़ोर्स, एसपीजी, कमांडो आदि सभी आये, चूंकि वे महाकाल भी जाने वाली थीं, इसलिये ठेठ हवाई अड्डे और सर्किट हाउस से लेकर मन्दिर तक की रिहर्सल कम से कम दस-बीस बार की गई, आईजी-डीआईजी-एसपी के दौरे पर दौरे चले, कलेक्टर-कमिश्नर लगातार उज्जैन भर में घूमते-फ़िरते रहे… कहने का मतलब यह कि सैकड़ों सरकारी गाड़ियाँ, जीपें, ट्रक, डम्पर, नगर निगम के वाहन आदि लगातार आठ-दस दिन तक व्यवस्था में लगे रहे। हजारों लीटर पेट्रोल-डीजल सरकारी और आधिकारिक तौर पर फ़ूंका गया, खामख्वाह तमाम छोटे-बड़े अधिकारी इधर-उधर होते रहे, नगर निगम में किसी काम के लिये जाओ तो पता चलता था कि “साहब सोनियाजी की व्यवस्था में लगे हैं… दौरे पर हैं”, उठाई गाड़ी निकल गये दौरे पर, कोई देखने वाला नहीं, कोई सुनने वाला नहीं। मनमोहन सिंह गला फ़ाड़-फ़ाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि पेट्रोल में मितव्ययिता बरतो, देश संकट के दौर से गुजर रहा है, और इधर कारों का बड़ा भारी लवाजमा (शायद अंग्रेजी में इसे कारकेट कहते हैं) चला जा रहा है, बेवजह। सबसे पहले दो पायलट वाहन टां-टूं-टां-टूं… की तेज आवाज करते हुए (कि ऐ आम आदमी, ऐ कीड़े-मकोड़े रास्ते से हट), फ़िर उसके पीछे दस-बीस कारें, उसके बाद एक-दो एम्बुलेंस, एक फ़ायर ब्रिगेड, एक रैपिड एक्शन फ़ोर्स का ट्रक, और उसके बाद न जाने कितने ही छुटभैये नेता अपनी-अपनी गाड़ियों पर… आखिर यह सब क्या है? और किसके लिये है? जनता को क्या हासिल होगा इससे? कुछ नहीं, लेकिन नहीं साहब फ़िर भी लगे पड़े हैं, दौड़ाये जा रहे हैं गाड़ियाँ मानो इनके लिये मुफ़्त में ईराक से सीधे पाइप लाइन बिछी है घर तक, और मजे की बात तो यह कि इतनी सारी कवायद के बाद सोनिया ने रैली को सम्बोधित किया सिर्फ़ 13 मिनट, जिसमें उनका आना, जमाने भर का स्वागत-हार-फ़ूल-माला-गुलदस्ते-चरण वन्दन आदि भी शामिल था, और महान वचनों का सार क्या था? – कि राज्य सरकार निकम्मी और भ्रष्ट है, महंगाई रोकने में हमारा साथ नहीं दे रही, और आने वाले चुनावों के लिये कांग्रेसियों को तैयार रहना चाहिये। ये तीन बातें तो दिन में चार-चार बार इनके प्रवक्ता विभिन्न टीवी पर बकते रहते हैं, फ़िर नया क्या हुआ?
खैर यह तो हुआ सरकारी खर्चा, जिसकी पाई-पाई हम करदाताओं की जेब से गई है, अब बात करते हैं निजी पेट्रोल-डीजल फ़ूंक तमाशे की… चूंकि यह मध्यप्रदेश में चुनावी वर्ष है, इसलिये हरेक नेता विधानसभा टिकट के लिये अपना शक्ति प्रदर्शन सोनिया के सामने करना चाहता था। आसपास की तहसीलों, गाँवों से सैकड़ों वाहन भर-भर कर लोग लाये गये, जीपें, ट्रक, बस, ट्रैक्टर ट्रालियाँ जिसे जो मिला उसी में किसानों को भरकर लाया गया। मजे की बात तो यह थी कि जब कई गाड़ियाँ उज्जैन की सीमा के बाहर ही थीं, उस वक्त तक तो सोनिया अपना भाषण समाप्त करके जा चुकी थीं। ऐसे में विचारणीय है कि यह पेट्रोल-डीजल संकट असल में किसके लिये है, जाहिर है कि हम-आप जैसे लोगों के लिये जो अपनी जेब से पैसा देकर ईंधन भरवाते हैं। यदि सोनिया गाँधी का यह एक दौरा ही रद्द हो जाता तो देश का लाखों लीटर डीजल बचाया जा सकता था, लेकिन परवाह है किसे…
इसी प्रकार ठीक आठ दिन बाद राष्ट्रपति का दौरा हुआ, प्रशासन की फ़िर से वही कवायद, फ़िर वही रिहर्सल (तीन-तीन बार) सरकारी गाड़ियाँ बगैर सोचे-समझे दौड़ रही हैं, अधिकारी सारे काम-धाम छोड़कर व्यवस्था में लगे हैं, कार्यक्रम बनाये-बिगाड़े जा रहे हैं, कई जगह रंगाई-पुताई की गई, फ़र्जी डामरीकरण किया गया (जो पहली बारिश में ही धुल जायेगा), सर्किट हाउस के पर्दे बदलवाये गये, महंगी क्रॉकरी खरीदी गई (मुझे आज तक समझ में नहीं आया, कि हर प्रमुख हस्ती के दौरे के समय सर्किट हाउस में, और जब भी कोई मंत्री या बड़ा अधिकारी नये बंगले में शिफ़्ट होता है सबसे पहले पर्दे, क्रॉकरी और सोफ़े क्यों बदलवाता है… कोई बताये कि क्या इसमें कोई “छुआछूत कानून” का मामला बनता है?)। तात्पर्य यह कि लाखों रुपये एक-एक दौरे पर सरकारी और निजी तौर पर खर्च होते हैं, इस “बहती गंगा” में अधिकारी और कर्मचारी अपने हाथ-पाँव-मुँह सब धो लेते हैं।
यह देश लुंजपुंज लोकतन्त्र और सड़ी-गली न्याय व्यवस्था की बहुत भारी कीमत चुका रहा है। एक नये प्रकार के राजा-रजवाड़े पैदा हो गये हैं, जो आम आदमी से बहुत-बहुत दूर हैं (शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से)। पिछले वर्ष 11 लाख चौपहिया और 38 लाख दुपहिया वाहनों की बिक्री हुई, चारों तरफ़ हल्ला मचाया जा रहा है कि भारत में बहुत गरीबी है, लेकिन नेताओं के ऐसे भव्य दौरों, पेट्रोल-डीजल की खुलेआम बरबादी और गाड़ियों के नित नये जारी होते मॉडलों को देखकर लगता नहीं कि आज भी कई परिवार 40-50 रुपये रोजाना पर गुजर-बसर कर रहे हैं। लेकिन व्यवस्था ही कुछ ऐसी बनी हुई है कि कफ़न-दफ़न में भी पैसा खाने की जुगाड़ देखने वाले अधिकारी, बच्चों के “कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट” जारी कर रहे हैं, और जिनकी जगह जेल में होना चाहिये वे मंत्रीपद का उपभोग कर रहे हैं।
इस विद्रूप और विषम परिस्थिति में भी “पॉजिटिव” देखना हो तो वह यह है कि इस बहाने कम से कम कुछ सड़कों का, कुछ समय के लिये ही सही कायाकल्प हो जाता है, जहाँ-जहाँ ये वीवीआईपी लोग जाने वाले हों वहाँ की नालियाँ साफ़ हो जाती हैं, उस इलाके की स्ट्रीट लाईटें ठीक हो जाती हैं, उन एक-दो दिनों के लिये बिजली कटौती नहीं होती आदि-आदि, वरना…
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रविवार, 29 जून 2008 16:26
भारत बन रहा है मानव अंगों की मंडी
Human Body Organ Smuggling
गत कुछ वर्षों मे हमारे भारत में कुछ वीभत्स प्रकार के अपराध सामने आये हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है निठारी काण्ड जिसमें अपराधियों ने बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करने के बाद उनके अंग (विशेषकर किडनी) निकाल लिये। दूसरा केस डॉ अमित का है जिसे “किडनी किंग(?)” कहा जा रहा है और जिसका नेटवर्क नेपाल तक फ़ैला हुआ है, और जिसके ग्राहकों में कई विशिष्ट व्यक्ति भी शामिल हैं।
सभी को याद होगा कि इंग्लैंड निवासी स्कारलेट की गोवा में हत्या हुई थी, और जब भारतीय पुलिस और शासकीय मशीनरी के हाथों उसकी मिट्टी के चीथड़े-चीथड़े करके उधर भेजा गया था तब पाया गया था कि उसके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंग गायब थे और स्कारलेट की माँ ने आरोप लगाया था कि उन्हें भारत में निकाल लिया गया है। अकेले उत्तरप्रदेश से गत पाँच वर्षों में 12,000 से अधिक गुमशुदगी के मामले आये हैं, जिसमें से अधिकतर बच्चे हैं। इस प्रकार की खबरें लगातार आती रहती हैं कि अपराधी तत्व कब्रिस्तानों और श्मशानों में (जहाँ बच्चों को दफ़नाया जाता है) से मानव कंकाल, खोपड़ी और मजबूत हड्डियाँ आदि खोदकर ले जाते हैं जो ऊँची कीमतों में बिकती हैं।

एक और पक्ष देखिये, दिनों-दिन नये-नये मेडिकल कॉलेज खुलते जा रहे हैं, उनके पास विद्यार्थियों को “प्रैक्टिकल” करवाने के लिये पर्याप्त मात्रा में मृत शरीर नहीं हैं, मेडिकल कॉलेज लोगों से “देहदान” के लिये लगातार अपीलें करते रहते हैं, लेकिन इस मामले में जागरूकता अभी नहीं के बराबर है (क्योंकि अभी तो नेत्रदान के लिये ही जागरूकता का अभाव है)। अब भारत में घटी या घट रही इन सब घटनाओं को आपस में जोड़कर एक विशाल चित्र देखिये/सोचिये। क्या आपको नहीं लगता कि भारत में मानव अंगों की चोरी, तस्करी, विक्रय का एक विशाल रैकेट काम कर रहा है? छिटपुट मामले कभी-कभार पकड़ में आते हैं, लेकिन निठारी या डॉ अमित जैसे बड़े केस इक्का-दुक्का ही हैं। जाहिर है कि यह “धंधा” बेहद मुनाफ़े वाला है और मुर्दे शिकायत भी नहीं करते, ऐसे में अपराधियों, दलालों, गंदे दिमाग वाले डॉक्टरों और किडनी, आँखें, लीवर आदि अंगों के विदेशी ग्राहकों का एक खतरनाक गैंग चुपचाप अपना काम जारी रखे हुए है।
कई मामलों में जाँचकर्ताओं ने पाया है कि इस प्रकार के मानव अंगों के मुख्य खरीदार अरब देशों के अमीर शेख, कनाडा, जर्मनी और अमेरिका के बेहद धनी लोग होते हैं। भारत की गरीबी और सस्ते मेडिकल इन्फ़्रास्ट्रक्चर का भरपूर दोहन करके ये लोग किडनी, आँखें, दाँत आदि प्रत्यारोपित करवाते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष एक लाख किडनी प्रत्यारोपण की आवश्यकता है, जबकि आधिकारिक और कानूनी रूप से सिर्फ़ 5000 किडनियाँ बदली जा रही हैं, जाहिर है कि “माँग और पूर्ति” में भारी अन्तर है और इसका फ़ायदा “स्मगलर” उठाते हैं। (सन्दर्भ)
मजे की बात तो यह है कि आमतौर पर लोग सोचते हैं कि किडनी बदलना और कार का टायर बदलना लगभग एक जैसा ही है। लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि किडनी लेने वाले और देने वाले का “परफ़ेक्ट मैच” होना बहुत ही मुश्किल होता है तथा ऑपरेशन के बाद दोनों व्यक्तियों की उचित देखभाल और लम्बा इलाज जरूरी होता है। स्मग्लिंग के इन मामलों में “लेनेवाले अमीर” की देखभाल तो बेहतर हो ही जाती है, मारा जाता है बेचारा गरीब देने वाला। जो भी पैसा उसे किडनी बेचकर मिलता है वह उसके अगले पाँच साल की दवाई में ही खर्च हो जाता है (यदि तब तक वह जीवित रहा तो)। “एम्स” के डॉक्टर संदीप गुलेरिया कहते हैं कि भारत में डायलिसिस की सुविधायें अभी भी बहुत कम जगहों पर हैं और बेहद महंगी हैं, इसलिये लोग किडनी बदलवाने का “आसान रास्ता”(?) अपनाते हैं।
इस “गंदे धंधे” की जड़ में जहाँ एक ओर गरीबी और अशिक्षा है, वहीं दूसरी ओर इन मामलों में भारत के लचर कानून भी हैं। कानूनी तौर पर किडनी दान करना भी एक बेहद जटिल प्रक्रिया है, जिसका फ़ायदा “दलाल” किस्म के डॉक्टर उठाते हैं। अब जाकर सरकार इस दिशा में कोई स्पष्ट कानून बनाने के बारे में विचार कर रही है, ताकि अंगदान को आसान बनाया जा सके। चीन में भी मानव अंग खरीदना-बेचना जुर्म माना जाता है, और इसके लिये कड़ी सजा के प्रावधान भी हैं, लेकिन 1984 में चीन सरकार ने संशोधन करके एक कानून पास किया है जिसके अनुसार आजीवन कारावास प्राप्त किसी कैदी, जिसके कोई भी रिश्तेदार मरणोपरांत उसका मृत देह लेने नहीं आयें, के अंग सरकार की अनुमति से निकाले जा सकते हैं और प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। हालांकि धांधली वहाँ भी कम नहीं है, क्योंकि चीन सरकार के अनुसार 2002 में 1060 कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई थी, जबकि एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार इनकी संख्या 15000 से ऊपर है। इन कैदियों के महत्वपूर्ण अंग सिंगापुर और हांगकांग के अमीर चीनियों को लगाये गये।

ऐसा कहा जाता है कि रूस, भारत, कुछ दक्षिण एशियाई देश और कुछ बेहद गरीब अफ़्रीकी देशों में यह धंधा जोरों पर है। इन देशों में मानव अंगों, किडनी, आँखों के कॉर्निया, लीवर, चमड़ी आदि निकालकर बिचौलियों के जरिये बेचे जाते हैं। हाइवे पर अकेले चलने वाले ड्रायवर, नशे में हुए एक्सीडेंट जिनमें लाश लावारिस घोषित हो जाती है, अकेले रहने वाले बूढ़े जिनकी असामयिक मौत हो जाती है, गरीब, मजबूर और कर्ज से दबे हुए लोग आदि इस माफ़िया के आसान शिकार होते हैं (मुम्बई, गुड़गाँव, चेन्नई चारों तरफ़ इस प्रकार के अपराध पकड़ में आ रहे हैं, हाल ही में उज्जैन में एक किडनी रैकेट पकड़ाया है जो डॉकटरों की मिलीभगत से गरीबों और मजदूरों को किडनी बेचने के लिये फ़ुसलाता था)। “ऑर्डर” पूरा करने के चक्कर में कई बार ये अपराधी अपहरण करने से भी नहीं हिचकते। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिये शरीर के विभिन्न अंगों माँग बनी रहती है, इसी प्रकार आयरलैण्ड और जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में टाँगों की लम्बी और मजबूत हड्डियाँ की फ़ार्मेसी कम्पनियाँ मंगवाती हैं जिन्हें दाँतों की “फ़िलिंग” के काम में लिया जाता है।
ऊपर दिये गये तथ्य निश्चित रूप से एक भयानक दुष्चक्र की ओर इशारा करते हैं… ऐसे में हमें अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है, किसी भी अन्जान जगह पर किसी अजनबी पर एकदम विश्वास न करें न ही उसके साथ अधिक समय अकेले रहें, बच्चों को रातों में अकेले सुनसान जगहों पर जाने से हतोत्साहित करें, यदि पार्टी में ज्यादा नशा हो गया हो तो किसी दोस्त को साथ लेकर ही देर रात को घर लौटें…
और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हुआ न मानें, क्योंकि धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है “इंसान”, जिससे सभी को सावधान रहना चाहिये…
Kidney Transplantation in India, Human Organ Trafficking in India, Illegal Kidney Transplantation and Laws in India, Kidney Racket exposed in India, South Asian and African Countries Kidney Transplantation, Kidney Sale Purchase, Poverty and Illiteracy in India, किडनी प्रत्यारोपण, अवैध मानव अंग तस्करी और भारतीय कानून, किडनी रैकेट, डॉ अमित कुमार, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
गत कुछ वर्षों मे हमारे भारत में कुछ वीभत्स प्रकार के अपराध सामने आये हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है निठारी काण्ड जिसमें अपराधियों ने बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करने के बाद उनके अंग (विशेषकर किडनी) निकाल लिये। दूसरा केस डॉ अमित का है जिसे “किडनी किंग(?)” कहा जा रहा है और जिसका नेटवर्क नेपाल तक फ़ैला हुआ है, और जिसके ग्राहकों में कई विशिष्ट व्यक्ति भी शामिल हैं।
सभी को याद होगा कि इंग्लैंड निवासी स्कारलेट की गोवा में हत्या हुई थी, और जब भारतीय पुलिस और शासकीय मशीनरी के हाथों उसकी मिट्टी के चीथड़े-चीथड़े करके उधर भेजा गया था तब पाया गया था कि उसके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंग गायब थे और स्कारलेट की माँ ने आरोप लगाया था कि उन्हें भारत में निकाल लिया गया है। अकेले उत्तरप्रदेश से गत पाँच वर्षों में 12,000 से अधिक गुमशुदगी के मामले आये हैं, जिसमें से अधिकतर बच्चे हैं। इस प्रकार की खबरें लगातार आती रहती हैं कि अपराधी तत्व कब्रिस्तानों और श्मशानों में (जहाँ बच्चों को दफ़नाया जाता है) से मानव कंकाल, खोपड़ी और मजबूत हड्डियाँ आदि खोदकर ले जाते हैं जो ऊँची कीमतों में बिकती हैं।

एक और पक्ष देखिये, दिनों-दिन नये-नये मेडिकल कॉलेज खुलते जा रहे हैं, उनके पास विद्यार्थियों को “प्रैक्टिकल” करवाने के लिये पर्याप्त मात्रा में मृत शरीर नहीं हैं, मेडिकल कॉलेज लोगों से “देहदान” के लिये लगातार अपीलें करते रहते हैं, लेकिन इस मामले में जागरूकता अभी नहीं के बराबर है (क्योंकि अभी तो नेत्रदान के लिये ही जागरूकता का अभाव है)। अब भारत में घटी या घट रही इन सब घटनाओं को आपस में जोड़कर एक विशाल चित्र देखिये/सोचिये। क्या आपको नहीं लगता कि भारत में मानव अंगों की चोरी, तस्करी, विक्रय का एक विशाल रैकेट काम कर रहा है? छिटपुट मामले कभी-कभार पकड़ में आते हैं, लेकिन निठारी या डॉ अमित जैसे बड़े केस इक्का-दुक्का ही हैं। जाहिर है कि यह “धंधा” बेहद मुनाफ़े वाला है और मुर्दे शिकायत भी नहीं करते, ऐसे में अपराधियों, दलालों, गंदे दिमाग वाले डॉक्टरों और किडनी, आँखें, लीवर आदि अंगों के विदेशी ग्राहकों का एक खतरनाक गैंग चुपचाप अपना काम जारी रखे हुए है।
कई मामलों में जाँचकर्ताओं ने पाया है कि इस प्रकार के मानव अंगों के मुख्य खरीदार अरब देशों के अमीर शेख, कनाडा, जर्मनी और अमेरिका के बेहद धनी लोग होते हैं। भारत की गरीबी और सस्ते मेडिकल इन्फ़्रास्ट्रक्चर का भरपूर दोहन करके ये लोग किडनी, आँखें, दाँत आदि प्रत्यारोपित करवाते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष एक लाख किडनी प्रत्यारोपण की आवश्यकता है, जबकि आधिकारिक और कानूनी रूप से सिर्फ़ 5000 किडनियाँ बदली जा रही हैं, जाहिर है कि “माँग और पूर्ति” में भारी अन्तर है और इसका फ़ायदा “स्मगलर” उठाते हैं। (सन्दर्भ)
मजे की बात तो यह है कि आमतौर पर लोग सोचते हैं कि किडनी बदलना और कार का टायर बदलना लगभग एक जैसा ही है। लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि किडनी लेने वाले और देने वाले का “परफ़ेक्ट मैच” होना बहुत ही मुश्किल होता है तथा ऑपरेशन के बाद दोनों व्यक्तियों की उचित देखभाल और लम्बा इलाज जरूरी होता है। स्मग्लिंग के इन मामलों में “लेनेवाले अमीर” की देखभाल तो बेहतर हो ही जाती है, मारा जाता है बेचारा गरीब देने वाला। जो भी पैसा उसे किडनी बेचकर मिलता है वह उसके अगले पाँच साल की दवाई में ही खर्च हो जाता है (यदि तब तक वह जीवित रहा तो)। “एम्स” के डॉक्टर संदीप गुलेरिया कहते हैं कि भारत में डायलिसिस की सुविधायें अभी भी बहुत कम जगहों पर हैं और बेहद महंगी हैं, इसलिये लोग किडनी बदलवाने का “आसान रास्ता”(?) अपनाते हैं।
इस “गंदे धंधे” की जड़ में जहाँ एक ओर गरीबी और अशिक्षा है, वहीं दूसरी ओर इन मामलों में भारत के लचर कानून भी हैं। कानूनी तौर पर किडनी दान करना भी एक बेहद जटिल प्रक्रिया है, जिसका फ़ायदा “दलाल” किस्म के डॉक्टर उठाते हैं। अब जाकर सरकार इस दिशा में कोई स्पष्ट कानून बनाने के बारे में विचार कर रही है, ताकि अंगदान को आसान बनाया जा सके। चीन में भी मानव अंग खरीदना-बेचना जुर्म माना जाता है, और इसके लिये कड़ी सजा के प्रावधान भी हैं, लेकिन 1984 में चीन सरकार ने संशोधन करके एक कानून पास किया है जिसके अनुसार आजीवन कारावास प्राप्त किसी कैदी, जिसके कोई भी रिश्तेदार मरणोपरांत उसका मृत देह लेने नहीं आयें, के अंग सरकार की अनुमति से निकाले जा सकते हैं और प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। हालांकि धांधली वहाँ भी कम नहीं है, क्योंकि चीन सरकार के अनुसार 2002 में 1060 कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई थी, जबकि एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार इनकी संख्या 15000 से ऊपर है। इन कैदियों के महत्वपूर्ण अंग सिंगापुर और हांगकांग के अमीर चीनियों को लगाये गये।

ऐसा कहा जाता है कि रूस, भारत, कुछ दक्षिण एशियाई देश और कुछ बेहद गरीब अफ़्रीकी देशों में यह धंधा जोरों पर है। इन देशों में मानव अंगों, किडनी, आँखों के कॉर्निया, लीवर, चमड़ी आदि निकालकर बिचौलियों के जरिये बेचे जाते हैं। हाइवे पर अकेले चलने वाले ड्रायवर, नशे में हुए एक्सीडेंट जिनमें लाश लावारिस घोषित हो जाती है, अकेले रहने वाले बूढ़े जिनकी असामयिक मौत हो जाती है, गरीब, मजबूर और कर्ज से दबे हुए लोग आदि इस माफ़िया के आसान शिकार होते हैं (मुम्बई, गुड़गाँव, चेन्नई चारों तरफ़ इस प्रकार के अपराध पकड़ में आ रहे हैं, हाल ही में उज्जैन में एक किडनी रैकेट पकड़ाया है जो डॉकटरों की मिलीभगत से गरीबों और मजदूरों को किडनी बेचने के लिये फ़ुसलाता था)। “ऑर्डर” पूरा करने के चक्कर में कई बार ये अपराधी अपहरण करने से भी नहीं हिचकते। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिये शरीर के विभिन्न अंगों माँग बनी रहती है, इसी प्रकार आयरलैण्ड और जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में टाँगों की लम्बी और मजबूत हड्डियाँ की फ़ार्मेसी कम्पनियाँ मंगवाती हैं जिन्हें दाँतों की “फ़िलिंग” के काम में लिया जाता है।
ऊपर दिये गये तथ्य निश्चित रूप से एक भयानक दुष्चक्र की ओर इशारा करते हैं… ऐसे में हमें अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है, किसी भी अन्जान जगह पर किसी अजनबी पर एकदम विश्वास न करें न ही उसके साथ अधिक समय अकेले रहें, बच्चों को रातों में अकेले सुनसान जगहों पर जाने से हतोत्साहित करें, यदि पार्टी में ज्यादा नशा हो गया हो तो किसी दोस्त को साथ लेकर ही देर रात को घर लौटें…
और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हुआ न मानें, क्योंकि धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है “इंसान”, जिससे सभी को सावधान रहना चाहिये…
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गुरुवार, 03 जुलाई 2008 21:31
कश्मीर - नेहरू परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ… (भाग-1)
Kashmir Issue India Pakistan Secularism
अक्टूबर 2002 में जिस वक्त पीडीपी-कांग्रेस की मिलीजुली सरकार कश्मीर में बनने वाली थी और “सौदेबाजी” जोरों पर थी, उस वक्त वहाँ के एक नेता ने कहा था कि “मुफ़्ती साहब को कांग्रेस के बाद सत्ता का आधा हिस्सा लेना चाहिये”, उसके पीछे उनका तर्क था कि “तब हम लोग (यानी पीडीपी) जब चाहे तब सरकार गिरा सकते हैं, अपने चाहे गये समय पर और अपने गढ़े हुए मुद्दों के हिसाब से”… आज वह आशंका सच साबित हो गई है, हालांकि पीडीपी ने पहले जमकर सत्ता का उपभोग कर लिया और अब अन्त में कोई बहाना बनाकर उन्हें सत्ता से हटना ही था क्योंकि चुनाव को सिर्फ़ दो माह बचे हैं। लेकिन क्या कभी इस बात पर विचार किया गया है कि इस प्रकार की राजनैतिक बाजीगरी से भारत का कितना नुकसान होता है? क्यों भारत इन देशद्रोहियों की इच्छापूर्ति के लिये करोड़ों रुपया खर्च करे? “कश्मीर”, हमारी-आपकी-सबकी छाती पर, नेहरू परिवार द्वारा डाला एक बोझ है जो हम सब पिछले साठ वर्षों से ढो रहे हैं।
कश्मीर में एक “शांतिपूर्ण”(?) चुनाव करवाने का मतलब होता है अरबों रुपये का खर्च और सैकड़ों भारतीय जवानों की मौत। लेकिन मुफ़्ती जैसे देशद्रोही नेता कितनी आसानी से मध्यावधि चुनाव की बातें करते हैं। चुनाव के ठीक बाद मुफ़्ती ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि “अब नौजवानों को बन्दूक का रास्ता छोड़ देना चाहिये, क्योंकि “उनके प्रतिनिधि” अब विधानसभा में पहुँच गये हैं, और चाहे हम सत्ता में रहें या बाहर से समर्थन दें, उनकी माँगों के समर्थन में काम करते रहेंगे”…क्या इसके बाद भी उनके देशद्रोही होने में कोई शक रह जाता है? लेकिन हमेशा से सत्ता की भूखी रही कांग्रेस और उनके जनाधारविहीन गुलाम नबी आजाद जैसे लोग तो तुरन्त से पहले कश्मीर की सत्ता चाहते थे और इन देशद्रोहियों से समझौता करने को लार टपका रहे थे । पीडीपी और कुछ नहीं हुर्रियत का ही बदला हुआ रूप है, और उनके ही मुद्दे आगे बढ़ाने में लगी हुई है, यह बात सभी जानते हैं, कांग्रेसियों के सिवाय।
आइये अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी लोग भारत को लूटने में लगे हुए हैं, भारत उनके लिये एक “सोने के अंडे देने वाली मुर्गी” साबित हो रहा है, और यह सब हो रहा है एक आम ईमानदार भारतीय के द्वारा दिये गये टैक्स के पैसों से…
सत्ता में आते ही सबसे पहले महबूबा मुफ़्ती ने SOG (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) को भंग कर दिया। जिस एसओजी ने बहुत ही कम समय में एक से एक खूंखार आतंकवादियों को मार गिराया था, उसे भंग करके महबूबा ने अपने “प्रिय” लोगों, यानी तालिबान, अल-कायदा और पाकिस्तानियों को एक “वेलकम” संदेश दिया था। महबूबा का संदेश साफ़ था “आप भारत में आइये, आपका स्वागत है, यहाँ आपका कुछ नहीं बिगड़ने दिया जायेगा, कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा…” इस प्रकार का खुला निमंत्रण दोबारा शायद न मिले। जाहिर है कि इससे हमें क्या मिलने वाला है, अपहरण, फ़िरौतियाँ, आतंकवाद समूचे देश में।
कश्मीर में अपहरण और राजनेताओं का गहरा सम्बन्ध है, और यह सम्बन्ध एक मजबूत शक की बुनियाद तैयार करते हैं। सबसे पहले 8 दिसम्बर 1989 को रूबिया सईद का अपहरण किया था, जो कि मुफ़्ती मुहम्मद की लड़की है। आतंकवादियों(?) की मुख्य माँग थी जेल में बन्द उनके कुछ खास साथियों को छोड़ना। जिस वक्त बातचीत चल ही रही थी और आतंकवादी सिर्फ़ धनराशि लेकर रुबिया को छोड़ने ही वाले थे, अचानक जेल में बन्द उनके साथियों को रिहा करने के आदेश दिल्ली से आ गये (सन्दर्भ मनोज जोशी – द लॉस्ट रिबेलियन: कश्मीर इन नाइन्टीज़)। उस वक्त केन्द्रीय गृहमंत्री थे मुफ़्ती मुहम्मद सईद और प्रधानमंत्री थे महान धर्मनिरपेक्ष वीपी सिंह।
इस एक फ़ैसले ने एक परम्परा कायम कर दी और यह सिलसिला अपने वीभत्सतम रूप में कंधार प्रकरण के तौर पर सामने आया, जब हमारी “महान धर्मनिरपेक्ष” प्रेस, और न के बराबर देशप्रेम रखने वाले “धनिकों” के एक वर्ग के “छातीकूट अभियान” के दबाव के कारण भाजपा को भी मसूद अजहर और उमर शेख को छोड़ना पड़ा। रूस में एक थियेटर में चेचेन उग्रवादियों द्वारा बन्धक बनाये गये 700 बच्चों को छुड़ाने के लिये रूसी कमांडो ने जैसा धावा बोला, या फ़िर इसराइल के एक अपहृत विमान को दूसरे देश से उसके कमांडो छुड़ाकर लाये थे, ऐसी कार्रवाई आज तक किसी भी भारतीय सरकार ने नहीं की है। असल में केन्द्र में (इन्दिरा गाँधी के अवसान के बाद) हमेशा से एक पिलपिली, लुंजपुंज और “धर्मनिरपेक्ष” सरकार ही रही है। किसी भी केन्द्र सरकार में आतंकवादियों से सख्ती से पेश आने और उनके घुटने तोड़ने की इच्छाशक्ति ही नहीं रही (किसी हद तक हम इसे एक आम भारतीय फ़ितरत कह सकते हैं, दुश्मन को नेस्तनाबूद करके मिट्टी में मिला देना, भारतीयों के खून में, व्यवहार में ही नहीं है, अब यह हमारे “जीन्स” में ही है या फ़िर हमें “अहिंसा” और “माफ़ी” का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर ऐसा बना दिया गया है, यह एक शोध का विषय है)। अच्छा… उस वक्त केन्द्र में सरकार में “प्रगतिशील” और “धर्मनिरपेक्ष” लोगों की फ़ौज थी, खुद वीपी सिंह प्रधानमंत्री, और सलाहकार थे आरिफ़ मुहम्मद खान, इन्द्र कुमार गुजराल, अरुण नेहरू, और इन “बहादुरों” ने आतंकवादी बाँध के जो गेट खोले, तो अगले दस वर्षों में हमे क्या मिला? 30000 हजार लोगों की हत्या, हजारों भारतीय सैनिकों की मौत, घाटी से हिन्दुओं का पूर्ण सफ़ाया, धार्मिक कट्टरतावाद, हिन्दू तीर्थयात्रियों का कत्ले-आम, क्या खूब दूरदृष्टि पाई थी “धर्मनिरपेक्ष” सरकारों ने !!!!
अभी आगे तो पढ़िये साहब… 22 सितम्बर 1991 को गुलाम नबी आजाद के साले तशद्दुक का आतंकवादियों ने अपहरण किया। नतीजा? जेल में बन्द कुछ और आतंकवादी छोड़े गये। गुलाम नबी आजाद उस वक्त केन्द्र में संसदीय कार्य मंत्री थे, और अब कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं। तात्पर्य यह कि गुलाम नबी आजाद और मुफ़्ती मुहम्मद में “अपहरण” और जेल में बन्द कैदियों को छोड़ना ये दो बातें समान हैं। एक और साहब हैं “सैफ़ुद्दीन सोज़”… कांग्रेस के सांसद, जो पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस में थे और जिनके प्रसिद्ध एक वोट के कारण ही एक बार अटल सरकार गिरी थी (लन्दन से फ़ोन पर उन्हें सलाह देने वाले थे शख्स थे वीपी सिंह)। सोज़ की बेटी नाहिदा सोज़ का अगस्त 1991 में अपहरण किया गया और एक बार फ़िर जेल में बन्द कुछ आतंकवादियों को रिहा किया गया।
क्या आपको यह सब रहस्यमयी नहीं लगता? हमेशा ही इन कथित बड़े नेताओं के रिश्तेदारों को ही अपहरण किया जाता है? आज तक किसी भी कश्मीरी नेता ने देशहित में कभी यह नहीं कहा कि आतंकवादियों के आगे झुकने की आवश्यकता नहीं है। तथ्य साफ़ इशारा करते हैं कि इन नेताओं और आतंकवादियों के बीच निश्चित ही सांठगांठ है। यही नेता “रास्ते से भटके नौजवानों” की आवाज विधानसभा में उठाने का दावा करते हैं और बन्दूक छोड़ने की “घड़ियाली आँसू वाली” अपीलें करते नजर आते हैं।
(भाग-2 में हम देखेंगे कि कैसे कश्मीर हम भारतीयों पर बोझ बना हुआ है…) (भाग-2 में जारी रहेगा…)
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अक्टूबर 2002 में जिस वक्त पीडीपी-कांग्रेस की मिलीजुली सरकार कश्मीर में बनने वाली थी और “सौदेबाजी” जोरों पर थी, उस वक्त वहाँ के एक नेता ने कहा था कि “मुफ़्ती साहब को कांग्रेस के बाद सत्ता का आधा हिस्सा लेना चाहिये”, उसके पीछे उनका तर्क था कि “तब हम लोग (यानी पीडीपी) जब चाहे तब सरकार गिरा सकते हैं, अपने चाहे गये समय पर और अपने गढ़े हुए मुद्दों के हिसाब से”… आज वह आशंका सच साबित हो गई है, हालांकि पीडीपी ने पहले जमकर सत्ता का उपभोग कर लिया और अब अन्त में कोई बहाना बनाकर उन्हें सत्ता से हटना ही था क्योंकि चुनाव को सिर्फ़ दो माह बचे हैं। लेकिन क्या कभी इस बात पर विचार किया गया है कि इस प्रकार की राजनैतिक बाजीगरी से भारत का कितना नुकसान होता है? क्यों भारत इन देशद्रोहियों की इच्छापूर्ति के लिये करोड़ों रुपया खर्च करे? “कश्मीर”, हमारी-आपकी-सबकी छाती पर, नेहरू परिवार द्वारा डाला एक बोझ है जो हम सब पिछले साठ वर्षों से ढो रहे हैं।
कश्मीर में एक “शांतिपूर्ण”(?) चुनाव करवाने का मतलब होता है अरबों रुपये का खर्च और सैकड़ों भारतीय जवानों की मौत। लेकिन मुफ़्ती जैसे देशद्रोही नेता कितनी आसानी से मध्यावधि चुनाव की बातें करते हैं। चुनाव के ठीक बाद मुफ़्ती ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि “अब नौजवानों को बन्दूक का रास्ता छोड़ देना चाहिये, क्योंकि “उनके प्रतिनिधि” अब विधानसभा में पहुँच गये हैं, और चाहे हम सत्ता में रहें या बाहर से समर्थन दें, उनकी माँगों के समर्थन में काम करते रहेंगे”…क्या इसके बाद भी उनके देशद्रोही होने में कोई शक रह जाता है? लेकिन हमेशा से सत्ता की भूखी रही कांग्रेस और उनके जनाधारविहीन गुलाम नबी आजाद जैसे लोग तो तुरन्त से पहले कश्मीर की सत्ता चाहते थे और इन देशद्रोहियों से समझौता करने को लार टपका रहे थे । पीडीपी और कुछ नहीं हुर्रियत का ही बदला हुआ रूप है, और उनके ही मुद्दे आगे बढ़ाने में लगी हुई है, यह बात सभी जानते हैं, कांग्रेसियों के सिवाय।
आइये अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी लोग भारत को लूटने में लगे हुए हैं, भारत उनके लिये एक “सोने के अंडे देने वाली मुर्गी” साबित हो रहा है, और यह सब हो रहा है एक आम ईमानदार भारतीय के द्वारा दिये गये टैक्स के पैसों से…
सत्ता में आते ही सबसे पहले महबूबा मुफ़्ती ने SOG (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) को भंग कर दिया। जिस एसओजी ने बहुत ही कम समय में एक से एक खूंखार आतंकवादियों को मार गिराया था, उसे भंग करके महबूबा ने अपने “प्रिय” लोगों, यानी तालिबान, अल-कायदा और पाकिस्तानियों को एक “वेलकम” संदेश दिया था। महबूबा का संदेश साफ़ था “आप भारत में आइये, आपका स्वागत है, यहाँ आपका कुछ नहीं बिगड़ने दिया जायेगा, कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा…” इस प्रकार का खुला निमंत्रण दोबारा शायद न मिले। जाहिर है कि इससे हमें क्या मिलने वाला है, अपहरण, फ़िरौतियाँ, आतंकवाद समूचे देश में।
कश्मीर में अपहरण और राजनेताओं का गहरा सम्बन्ध है, और यह सम्बन्ध एक मजबूत शक की बुनियाद तैयार करते हैं। सबसे पहले 8 दिसम्बर 1989 को रूबिया सईद का अपहरण किया था, जो कि मुफ़्ती मुहम्मद की लड़की है। आतंकवादियों(?) की मुख्य माँग थी जेल में बन्द उनके कुछ खास साथियों को छोड़ना। जिस वक्त बातचीत चल ही रही थी और आतंकवादी सिर्फ़ धनराशि लेकर रुबिया को छोड़ने ही वाले थे, अचानक जेल में बन्द उनके साथियों को रिहा करने के आदेश दिल्ली से आ गये (सन्दर्भ मनोज जोशी – द लॉस्ट रिबेलियन: कश्मीर इन नाइन्टीज़)। उस वक्त केन्द्रीय गृहमंत्री थे मुफ़्ती मुहम्मद सईद और प्रधानमंत्री थे महान धर्मनिरपेक्ष वीपी सिंह।
इस एक फ़ैसले ने एक परम्परा कायम कर दी और यह सिलसिला अपने वीभत्सतम रूप में कंधार प्रकरण के तौर पर सामने आया, जब हमारी “महान धर्मनिरपेक्ष” प्रेस, और न के बराबर देशप्रेम रखने वाले “धनिकों” के एक वर्ग के “छातीकूट अभियान” के दबाव के कारण भाजपा को भी मसूद अजहर और उमर शेख को छोड़ना पड़ा। रूस में एक थियेटर में चेचेन उग्रवादियों द्वारा बन्धक बनाये गये 700 बच्चों को छुड़ाने के लिये रूसी कमांडो ने जैसा धावा बोला, या फ़िर इसराइल के एक अपहृत विमान को दूसरे देश से उसके कमांडो छुड़ाकर लाये थे, ऐसी कार्रवाई आज तक किसी भी भारतीय सरकार ने नहीं की है। असल में केन्द्र में (इन्दिरा गाँधी के अवसान के बाद) हमेशा से एक पिलपिली, लुंजपुंज और “धर्मनिरपेक्ष” सरकार ही रही है। किसी भी केन्द्र सरकार में आतंकवादियों से सख्ती से पेश आने और उनके घुटने तोड़ने की इच्छाशक्ति ही नहीं रही (किसी हद तक हम इसे एक आम भारतीय फ़ितरत कह सकते हैं, दुश्मन को नेस्तनाबूद करके मिट्टी में मिला देना, भारतीयों के खून में, व्यवहार में ही नहीं है, अब यह हमारे “जीन्स” में ही है या फ़िर हमें “अहिंसा” और “माफ़ी” का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर ऐसा बना दिया गया है, यह एक शोध का विषय है)। अच्छा… उस वक्त केन्द्र में सरकार में “प्रगतिशील” और “धर्मनिरपेक्ष” लोगों की फ़ौज थी, खुद वीपी सिंह प्रधानमंत्री, और सलाहकार थे आरिफ़ मुहम्मद खान, इन्द्र कुमार गुजराल, अरुण नेहरू, और इन “बहादुरों” ने आतंकवादी बाँध के जो गेट खोले, तो अगले दस वर्षों में हमे क्या मिला? 30000 हजार लोगों की हत्या, हजारों भारतीय सैनिकों की मौत, घाटी से हिन्दुओं का पूर्ण सफ़ाया, धार्मिक कट्टरतावाद, हिन्दू तीर्थयात्रियों का कत्ले-आम, क्या खूब दूरदृष्टि पाई थी “धर्मनिरपेक्ष” सरकारों ने !!!!
अभी आगे तो पढ़िये साहब… 22 सितम्बर 1991 को गुलाम नबी आजाद के साले तशद्दुक का आतंकवादियों ने अपहरण किया। नतीजा? जेल में बन्द कुछ और आतंकवादी छोड़े गये। गुलाम नबी आजाद उस वक्त केन्द्र में संसदीय कार्य मंत्री थे, और अब कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं। तात्पर्य यह कि गुलाम नबी आजाद और मुफ़्ती मुहम्मद में “अपहरण” और जेल में बन्द कैदियों को छोड़ना ये दो बातें समान हैं। एक और साहब हैं “सैफ़ुद्दीन सोज़”… कांग्रेस के सांसद, जो पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस में थे और जिनके प्रसिद्ध एक वोट के कारण ही एक बार अटल सरकार गिरी थी (लन्दन से फ़ोन पर उन्हें सलाह देने वाले थे शख्स थे वीपी सिंह)। सोज़ की बेटी नाहिदा सोज़ का अगस्त 1991 में अपहरण किया गया और एक बार फ़िर जेल में बन्द कुछ आतंकवादियों को रिहा किया गया।
क्या आपको यह सब रहस्यमयी नहीं लगता? हमेशा ही इन कथित बड़े नेताओं के रिश्तेदारों को ही अपहरण किया जाता है? आज तक किसी भी कश्मीरी नेता ने देशहित में कभी यह नहीं कहा कि आतंकवादियों के आगे झुकने की आवश्यकता नहीं है। तथ्य साफ़ इशारा करते हैं कि इन नेताओं और आतंकवादियों के बीच निश्चित ही सांठगांठ है। यही नेता “रास्ते से भटके नौजवानों” की आवाज विधानसभा में उठाने का दावा करते हैं और बन्दूक छोड़ने की “घड़ियाली आँसू वाली” अपीलें करते नजर आते हैं।
(भाग-2 में हम देखेंगे कि कैसे कश्मीर हम भारतीयों पर बोझ बना हुआ है…) (भाग-2 में जारी रहेगा…)
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शुक्रवार, 04 जुलाई 2008 12:12
कश्मीर का बोझा ढोते हम मूर्ख भारतीय…
Kashmir Drastic Liability on India
(भाग-1 : कश्मीर - नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ… से जारी)
अपनी इन्हीं देशद्रोही नीतियों की वजह से कश्मीरी नेताओं और जनता ने देखिये क्या-क्या हासिल कर लिया है–
1) कश्मीर घाटी से गैर-मुस्लिमों का पूरी तरह से सफ़ाया कर दिया गया है।
2) कई आतंकवादी, जिन्हें सुरक्षाबलों ने जान की बाजी लगाकर पकड़ा था, पैसा, बिरयानी आदि लेकर जेल से बाहर आजाद घूम रहे हैं।
3) कश्मीर घाटी में अलगाववादी भावनायें जोरों पर हैं, चाहे वह “खुद का प्रधानमंत्री” हो या फ़िर छः साल की विधानसभा।
4) पश्चिमी मीडिया (खासकर बीबीसी) के सामने हमेशा कश्मीरी मुसलमान रोते-गाते नजर आते हैं कि “हम पर भारतीय सुरक्षा बल बहुत अत्याचार करते हैं…”
5) केन्द्र से मिली मदद, सबसिडी और छूट का फ़ायदा उठाने (यानी हमारा खून चूसने) में ये “पिस्सू” सबसे आगे रहते हैं।
6) “कश्मीरियत” का झूठा राग सतत् अलापते रहते हैं, जबकि अब कश्मीरियत मतलब सिर्फ़ इस्लाम हो चुका है।
7) कश्मीरी सारे भारत में कहीं भी रह सकते हैं, कहीं भी जमीने खरीद सकते हैं, लेकिन कश्मीर में वे किसी को बर्दाश्त नहीं करते।
कुल मिलाकर कश्मीरियों के लिये यह “विन-विन” की स्थिति है (दोनो हाथों में लड्डू), फ़िर क्या वे मूर्ख हैं जो इतनी आसानी से ये सुविधायें अपने हाथों से जाने देंगे? ढोंगी मुफ़्ती मुहम्मद चाहते हैं कि आतंकवादियों के परिवारों का पुनर्वास किया जाये (जाहिर है कि केन्द्र के पैसे से, यानी हमारे-आपके पैसे से) जिसके लिये एक करोड़ों की योजना उन्होंने केन्द्र को भेजी है। हमेशा की तरह इस योजना को मानवाधिकारवदियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों ने हाथोंहाथ लपक लिया है। इनसे पूछना चाहिये कि आखिर किस बात का पुनर्वास और मुआवजा? तुम्हारा लड़का हमसे पूछकर तो आतंकवादी नहीं बना था। वह तो ज़न्नत में 72 परियों के लालच में “जेहादी” बना था ना? फ़िर हमारे खून-पसीने की कमाई पर तुम क्यों ऐश करोगे? जरा इसराइल से सबक लो, वहाँ स्पष्ट नीति है कि आतंकवादी के पूरे परिवार को दण्ड दिया जाता है, बुलडोजर से उसका घर-बार उखाड़ दिया जाता है और आतंकवादी के परिवार वाले फ़िलीस्तीन की सड़कों पर भीख माँगते हैं। शायद सड़क पर भीख माँगती अपनी माँ को देखकर किसी कट्टर आतंकवादी का दिल पिघले…। जले पर नमक छिड़कने की इंतहा तो यह कि महबूबा मुफ़्ती कहती हैं कि घाटी से गये पंडितों का स्वागत है, हम उनकी सुरक्षा का पूरा खयाल रखेंगे, लेकिन महबूबा ने यह नहीं बताया कि पंडितों की जिस सम्पत्ति और मकानों पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया था, वह उन्हें वापस मिलेगा या नहीं। है ना दोगलापन…
अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी मुसलमान हमारा खून चूस रहे हैं… कश्मीर के बारे में आर्थिक आँकड़े टटोलने की कोशिश कीजिये आपकी आँखें फ़टी की फ़टी रह जायेंगी। आप क्या सोचते हैं कि कश्मीर में गरीबी की दर क्या हो सकती है, बाकी भारत के मुकाबले कम या ज्यादा? 10 प्रतिशत या 20 प्रतिशत? तमाम छातीकूट दावों के बावजूद हकीकत यह है कि कश्मीर में गरीबी की दर है सिर्फ़ 3.4 प्रतिशत जबकि भारत की गरीबी दर है अधिकतम 26 प्रतिशत (बिहार और उड़ीसा जैसे राज्यों में), और ऐसा क्यों है, क्योंकि उन्हें पर्यटन (जो कि 90% भारतीय पर्यटक ही हैं), सूखे मेवों और पशमीना शॉलों के निर्यात से भारी कमाई होती है। ऊपर से तुर्रा यह कि कश्मीर को केन्द्र की तरफ़ से भारी मात्रा में पैसा मिलता है, मदद, सबसिडी और सहायता के नाम पर…
CAGR की रिपोर्ट के अनुसार 1991 में कश्मीर को 1,244 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया जो कि सन् 2002 तक आते-आते बढ़कर 4,578 करोड़ रुपये हो गया था (सन्दर्भ-इंडिया टुडे 14 अक्टूबर 2002)। 1991 से 2002 के बीच केन्द्र सरकार द्वारा कश्मीर को दी गई मदद कुल जीडीपी का 5 प्रतिशत से भी अधिक बैठता है। इसका मतलब है कि कश्मीर को देश के बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा हिस्सा दिया जाता है, किसी भी अनुपात से ज्यादा। यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी परिवार के सबसे निकम्मे और उद्दण्ड लड़के को पिता का सबसे अधिक पैसा मिले “मदद(?) के नाम पर”। क्या आपको बचपन में सुनी हुई कोयल और कौवे की कहानी याद नहीं आई? जिसमें कोयल अपने अंडे कौवे के घोंसले में रख देती है, और कौवा उसके अंडे तो सेता ही है, कोयल के बच्चे भी जोर-जोर से भूख-भूख चिल्लाकर कौवे के बच्चों से अधिक भोजन प्राप्त कर लेते हैं, ठीक यही कश्मीर में हो रहा है, “वे” हमारे पैसों पर पाले जा रहे हैं, और वे इसे अपना “हक”(?) बताकर और ज्यादा हासिल करने की कोशिश में लगे रहते हैं। भारत के ईमानदार करदाताओं का पैसा इस तरह से नाली में बहाया जा रहा है। जब नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि “गुजरात से कोई टैक्स न लो और न ही केन्द्र कोई मदद गुजरात को दे” तो कांग्रेस इसे तत्काल देशद्रोही बयान बताती है। अर्थात यदि देश का कोई पहला राज्य, जो हिम्मत करके कहता है कि “मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ…” तो उसे तारीफ़ की बजाय उलाहने और आलोचना दी जाती है, जबकि गत बीस वर्षों से भी अधिक समय से “जोंक” की तरह देश का खून चूसने वाला कश्मीर “बेचारा” और “धर्मनिरपेक्ष”?
एक बार रेलयात्रा में गृह मंत्रालय के एक अधिकारी मिले थे, उन्होंने आपसी चर्चा में बताया कि कश्मीर में आतंकवाद कभी भी खत्म नहीं होगा, क्योंकि “आतंकवाद के धंधे” से जुड़े लगभग सभी पक्ष नहीं चाहते कि इसका खात्मा हो!!! और खुलासा चाहने पर उन्होंने बताया कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर कश्मीर में पुलिस, BSF, CRPF और सेना को केन्द्र से प्रतिवर्ष 600 से 800 करोड़ रुपया “सस्पेंस अकाउंट” में दिया जाता है, जिसका कोई ऑडिट नहीं किया जाता, न ही इस बारे में अधिकारियों से कोई सवाल किया जाता है कि वह पैसा कहाँ और कैसे खर्चा हुआ। इसी प्रकार का “सस्पेंस अकाउंट” प्रत्येक राज्य की पुलिस को मुखबिरों को पैसा देने के लिये दिया जाता है (अब वह पैसा मुखबिरों तक कितना पहुँचता है, भगवान जाने)।
अब इसे दूसरी तरह से देखें तो, कश्मीर के प्रत्येक व्यक्ति पर केन्द्र सरकार 10,000 रुपये की सबसिडी देती है, जो कि अन्य राज्यों के मुकाबले लगभग 40% ज्यादा है, और यह विशाल धनराशि राज्य को सीधे खर्च करने को दी जाती है (कोई भी सामान्य व्यक्ति आसानी से गणित लगा सकता है कि कश्मीरी नेताओं, हुर्रियत अल्गाववादियों, आतंकवादियों और अफ़सरों की जेब में कितना मोटा हिस्सा आता होगा, “ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल” की ताजा रिपोर्ट में कश्मीर को सबसे भ्रष्ट राज्य का दर्जा इसीलिये मिला हुआ है)। इसके अलावा अरबों रुपये की विभिन्न योजनायें, जैसे रेल्वे की जम्मू-उधमपुर योजना 600 करोड़, उधमपुर-श्रीनगर-बारामुला योजना 5000 करोड़, विभिन्न पहाड़ी सड़कों पर 2000 करोड़, सलाई पावर प्रोजेक्ट 900 करोड़, दुलहस्ती हाइड्रो प्रोजेक्ट 6000 करोड़, डल झील सफ़ाई योजना 150 करोड़ आदि-आदि-आदि, यानी कि पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, लेकिन एक अंधे कुँए में… तो इस बात पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि वहाँ की आम जनता की आर्थिक हालत तमाम आतंकवादी कार्रवाईयों के बावजूद, देश के बाकी राज्यों के गरीबों के मुकाबले काफ़ी बेहतर है।
(भाग-3 में कश्मीर समस्या का एक हल “जरा हट के”…)
(भाग-3 में जारी रहेगा…)
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(भाग-1 : कश्मीर - नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ… से जारी)
अपनी इन्हीं देशद्रोही नीतियों की वजह से कश्मीरी नेताओं और जनता ने देखिये क्या-क्या हासिल कर लिया है–
1) कश्मीर घाटी से गैर-मुस्लिमों का पूरी तरह से सफ़ाया कर दिया गया है।
2) कई आतंकवादी, जिन्हें सुरक्षाबलों ने जान की बाजी लगाकर पकड़ा था, पैसा, बिरयानी आदि लेकर जेल से बाहर आजाद घूम रहे हैं।
3) कश्मीर घाटी में अलगाववादी भावनायें जोरों पर हैं, चाहे वह “खुद का प्रधानमंत्री” हो या फ़िर छः साल की विधानसभा।
4) पश्चिमी मीडिया (खासकर बीबीसी) के सामने हमेशा कश्मीरी मुसलमान रोते-गाते नजर आते हैं कि “हम पर भारतीय सुरक्षा बल बहुत अत्याचार करते हैं…”
5) केन्द्र से मिली मदद, सबसिडी और छूट का फ़ायदा उठाने (यानी हमारा खून चूसने) में ये “पिस्सू” सबसे आगे रहते हैं।
6) “कश्मीरियत” का झूठा राग सतत् अलापते रहते हैं, जबकि अब कश्मीरियत मतलब सिर्फ़ इस्लाम हो चुका है।
7) कश्मीरी सारे भारत में कहीं भी रह सकते हैं, कहीं भी जमीने खरीद सकते हैं, लेकिन कश्मीर में वे किसी को बर्दाश्त नहीं करते।
कुल मिलाकर कश्मीरियों के लिये यह “विन-विन” की स्थिति है (दोनो हाथों में लड्डू), फ़िर क्या वे मूर्ख हैं जो इतनी आसानी से ये सुविधायें अपने हाथों से जाने देंगे? ढोंगी मुफ़्ती मुहम्मद चाहते हैं कि आतंकवादियों के परिवारों का पुनर्वास किया जाये (जाहिर है कि केन्द्र के पैसे से, यानी हमारे-आपके पैसे से) जिसके लिये एक करोड़ों की योजना उन्होंने केन्द्र को भेजी है। हमेशा की तरह इस योजना को मानवाधिकारवदियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों ने हाथोंहाथ लपक लिया है। इनसे पूछना चाहिये कि आखिर किस बात का पुनर्वास और मुआवजा? तुम्हारा लड़का हमसे पूछकर तो आतंकवादी नहीं बना था। वह तो ज़न्नत में 72 परियों के लालच में “जेहादी” बना था ना? फ़िर हमारे खून-पसीने की कमाई पर तुम क्यों ऐश करोगे? जरा इसराइल से सबक लो, वहाँ स्पष्ट नीति है कि आतंकवादी के पूरे परिवार को दण्ड दिया जाता है, बुलडोजर से उसका घर-बार उखाड़ दिया जाता है और आतंकवादी के परिवार वाले फ़िलीस्तीन की सड़कों पर भीख माँगते हैं। शायद सड़क पर भीख माँगती अपनी माँ को देखकर किसी कट्टर आतंकवादी का दिल पिघले…। जले पर नमक छिड़कने की इंतहा तो यह कि महबूबा मुफ़्ती कहती हैं कि घाटी से गये पंडितों का स्वागत है, हम उनकी सुरक्षा का पूरा खयाल रखेंगे, लेकिन महबूबा ने यह नहीं बताया कि पंडितों की जिस सम्पत्ति और मकानों पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया था, वह उन्हें वापस मिलेगा या नहीं। है ना दोगलापन…

अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी मुसलमान हमारा खून चूस रहे हैं… कश्मीर के बारे में आर्थिक आँकड़े टटोलने की कोशिश कीजिये आपकी आँखें फ़टी की फ़टी रह जायेंगी। आप क्या सोचते हैं कि कश्मीर में गरीबी की दर क्या हो सकती है, बाकी भारत के मुकाबले कम या ज्यादा? 10 प्रतिशत या 20 प्रतिशत? तमाम छातीकूट दावों के बावजूद हकीकत यह है कि कश्मीर में गरीबी की दर है सिर्फ़ 3.4 प्रतिशत जबकि भारत की गरीबी दर है अधिकतम 26 प्रतिशत (बिहार और उड़ीसा जैसे राज्यों में), और ऐसा क्यों है, क्योंकि उन्हें पर्यटन (जो कि 90% भारतीय पर्यटक ही हैं), सूखे मेवों और पशमीना शॉलों के निर्यात से भारी कमाई होती है। ऊपर से तुर्रा यह कि कश्मीर को केन्द्र की तरफ़ से भारी मात्रा में पैसा मिलता है, मदद, सबसिडी और सहायता के नाम पर…
CAGR की रिपोर्ट के अनुसार 1991 में कश्मीर को 1,244 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया जो कि सन् 2002 तक आते-आते बढ़कर 4,578 करोड़ रुपये हो गया था (सन्दर्भ-इंडिया टुडे 14 अक्टूबर 2002)। 1991 से 2002 के बीच केन्द्र सरकार द्वारा कश्मीर को दी गई मदद कुल जीडीपी का 5 प्रतिशत से भी अधिक बैठता है। इसका मतलब है कि कश्मीर को देश के बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा हिस्सा दिया जाता है, किसी भी अनुपात से ज्यादा। यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी परिवार के सबसे निकम्मे और उद्दण्ड लड़के को पिता का सबसे अधिक पैसा मिले “मदद(?) के नाम पर”। क्या आपको बचपन में सुनी हुई कोयल और कौवे की कहानी याद नहीं आई? जिसमें कोयल अपने अंडे कौवे के घोंसले में रख देती है, और कौवा उसके अंडे तो सेता ही है, कोयल के बच्चे भी जोर-जोर से भूख-भूख चिल्लाकर कौवे के बच्चों से अधिक भोजन प्राप्त कर लेते हैं, ठीक यही कश्मीर में हो रहा है, “वे” हमारे पैसों पर पाले जा रहे हैं, और वे इसे अपना “हक”(?) बताकर और ज्यादा हासिल करने की कोशिश में लगे रहते हैं। भारत के ईमानदार करदाताओं का पैसा इस तरह से नाली में बहाया जा रहा है। जब नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि “गुजरात से कोई टैक्स न लो और न ही केन्द्र कोई मदद गुजरात को दे” तो कांग्रेस इसे तत्काल देशद्रोही बयान बताती है। अर्थात यदि देश का कोई पहला राज्य, जो हिम्मत करके कहता है कि “मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ…” तो उसे तारीफ़ की बजाय उलाहने और आलोचना दी जाती है, जबकि गत बीस वर्षों से भी अधिक समय से “जोंक” की तरह देश का खून चूसने वाला कश्मीर “बेचारा” और “धर्मनिरपेक्ष”?
एक बार रेलयात्रा में गृह मंत्रालय के एक अधिकारी मिले थे, उन्होंने आपसी चर्चा में बताया कि कश्मीर में आतंकवाद कभी भी खत्म नहीं होगा, क्योंकि “आतंकवाद के धंधे” से जुड़े लगभग सभी पक्ष नहीं चाहते कि इसका खात्मा हो!!! और खुलासा चाहने पर उन्होंने बताया कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर कश्मीर में पुलिस, BSF, CRPF और सेना को केन्द्र से प्रतिवर्ष 600 से 800 करोड़ रुपया “सस्पेंस अकाउंट” में दिया जाता है, जिसका कोई ऑडिट नहीं किया जाता, न ही इस बारे में अधिकारियों से कोई सवाल किया जाता है कि वह पैसा कहाँ और कैसे खर्चा हुआ। इसी प्रकार का “सस्पेंस अकाउंट” प्रत्येक राज्य की पुलिस को मुखबिरों को पैसा देने के लिये दिया जाता है (अब वह पैसा मुखबिरों तक कितना पहुँचता है, भगवान जाने)।
अब इसे दूसरी तरह से देखें तो, कश्मीर के प्रत्येक व्यक्ति पर केन्द्र सरकार 10,000 रुपये की सबसिडी देती है, जो कि अन्य राज्यों के मुकाबले लगभग 40% ज्यादा है, और यह विशाल धनराशि राज्य को सीधे खर्च करने को दी जाती है (कोई भी सामान्य व्यक्ति आसानी से गणित लगा सकता है कि कश्मीरी नेताओं, हुर्रियत अल्गाववादियों, आतंकवादियों और अफ़सरों की जेब में कितना मोटा हिस्सा आता होगा, “ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल” की ताजा रिपोर्ट में कश्मीर को सबसे भ्रष्ट राज्य का दर्जा इसीलिये मिला हुआ है)। इसके अलावा अरबों रुपये की विभिन्न योजनायें, जैसे रेल्वे की जम्मू-उधमपुर योजना 600 करोड़, उधमपुर-श्रीनगर-बारामुला योजना 5000 करोड़, विभिन्न पहाड़ी सड़कों पर 2000 करोड़, सलाई पावर प्रोजेक्ट 900 करोड़, दुलहस्ती हाइड्रो प्रोजेक्ट 6000 करोड़, डल झील सफ़ाई योजना 150 करोड़ आदि-आदि-आदि, यानी कि पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, लेकिन एक अंधे कुँए में… तो इस बात पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि वहाँ की आम जनता की आर्थिक हालत तमाम आतंकवादी कार्रवाईयों के बावजूद, देश के बाकी राज्यों के गरीबों के मुकाबले काफ़ी बेहतर है।
(भाग-3 में कश्मीर समस्या का एक हल “जरा हट के”…)
(भाग-3 में जारी रहेगा…)
Kashmir Issue India Pakistan and Kashmir, Free Kashmir, Kashmir Liberation Movement, Hurriyat Conference, Mehbooba Mufti, Mufti Mohammad Sayeed, PDP, National Conference, Farooq Abdullah, Umar Abdullah, Ghulam Nabi Azad, Congress Policies over Kashmir, Secularism and Kashmiri People, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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शनिवार, 05 जुलाई 2008 14:05
हम भी चाहते हैं कि “कश्मीर आजाद” हो… (भाग-2 से जारी)
Free Kashmir from India
कश्मीर : नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ (भाग 1)
तथा कश्मीर का बोझा ढोते हम मूर्ख भारतीय (भाग 2) से आगे जारी…
सो, जब अगली बार कोई “सेकुलर” “प्रगतिशील” व्यक्ति आपसे पूछे कि भारत में इतनी गरीबी क्यों है? तब यह लेख उसके मुँह पर मारिये और बताइये कि क्योंकि हम भारतवासियों को “कश्मीर” नाम का नासूर पालने का शौक है, और हम कश्मीरी मुसलमानों को हर हालत में खुश देखना चाहते हैं (चाहे वे लोग हमें भूमि का छोटा सा टुकड़ा तक देने को राजी नहीं हैं)। जाहिर है कि उस “सेकुलर” का अगला सवाल यही होगा कि फ़िर हम कश्मीर को भारत से अलग क्यों नहीं कर देते? उसे आज़ाद क्यों नहीं कर देते? तो इसका जवाब है कि ऐसा निश्चित ही किया जा सकता है, लेकिन फ़िर कुछ ही वर्षों में समूचा उत्तर-पूर्व (सातों राज्य) और पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु भी भारत से अलग होने की माँग करने लगेंगे।
कश्मीर हमारे गले में फ़ँसा हुआ हड्डी का वह टुकड़ा है जो न निगलते बन रहा है न उगलते (महान सेकुलर नेहरू परिवार के सौजन्य से)। साठ वर्षों में कश्मीरी मुसलमानों ने क्या-क्या हासिल कर लिया है, देखते हैं…
1) अरबों-खरबों रुपये की केन्द्रीय मदद (जो हमारी-आपकी जेब से जा रही है)
2) कश्मीरी मुसलमान पूरे देश में कहीं भी सम्पत्ति खरीद सकता है, लेकिन एक भारतीय कश्मीर में नहीं।
3) हिन्दुओं का घाटी से पूर्ण सफ़ाया किया जा चुका है।
4) भारत सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री और अफ़सर पदों पर कश्मीरी कब्जा किये हुए हैं।
5) भारत सरकार अपने जवानों को वहाँ उनकी रक्षा के लिये जान गँवाने को भेजती रहती है। सुरक्षा बल आतंकवादियों से लड़ते रहते हैं और कश्मीरी मुसलमान मजे करता है।
अब स्थिति यह है कि कश्मीरी चाहते हैं कि भारत सरकार उनकी आर्थिक मदद तो करती रहे लेकिन आतंकवादी और अलगाववादियों को खुला छोड़ दे। यह उनके लिये फ़ायदे का सौदा है, उन लोगों नें उनकी मदद से कश्मीरी पंडितों को वहाँ से पूरी तरह भगा दिया है और उनके मकानों, सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया है, फ़िर भला वे क्यों चाहेंगे कि पंडित वापस लौटें (न ही फ़िलिस्तीन की चिंता करने वाले “महान सेकुलर” लोग इस बारे में कोई बात करेंगे)।
समय आ गया है कि निम्न बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करें –
--- हम कश्मीर को बहुत-बहुत दे चुके, बस अब और नहीं। कश्मीरियों को साफ़-साफ़ बताने की आवश्यकता है कि हम आप पर क्या खर्च कर रहे हैं और उनके कर्तव्य क्या हैं।
--- इस लेख में बार-बार “कश्मीर” इसलिये कहा गया है कि जम्मू और लद्दाख शांतिप्रिय इलाके हैं (मुस्लिम जनसंख्या कम है ना इसलिये!!!), तो राज्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया जाये। जो हिस्सा अधिक “रेवेन्यू” कमाकर केन्द्र सरकार को दे, उसे ज्यादा केन्द्रीय मदद मिलना चाहिये।
--- वक्त आ गया है कि कश्मीरी नेताओं से धारा 370 के बारे में दो टूक बात की जाये, न कि 1953 से पहले की स्थिति की मूर्खतापूर्ण बातें।
--- कश्मीरियों को भी बाकी भारत में किसी भी प्रकार की सम्पत्ति खरीदने पर रोक लगनी चाहिये।
1) कुल मिलाकर देखा जाये तो कश्मीर समस्या के हल दो ही प्रकार से हो सकते हैं, पहला तो यह कि कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू करके आतंकवादियों के खिलाफ़ सीमापार तक खदेड़ने की नीति अपनाई जाये, आतंकवादियों को रगड़-रगड़ कर उन्हें घुटने के बल बैठा दिया जाये, जैसा कि गिल ने पंजाब में किया था, न तो पाकिस्तान की सुनी जाये, न अमेरिका की न ही किसी मानवाधिकारवादियों की… कुचलना ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये…लेकिन भारतीय सरकारों के “चरित्र”(?) को देखते हुए यह मुश्किल लगता है… (शर्म की बात तो है, लेकिन क्या करें)
2) दूसरा रास्ता है, जो कठिन है लेकिन इसके नतीजे “Long Term” में भारत के पक्ष में ही होंगे – कश्मीरी मुसलमान सदा से यह चाहते हैं कि कश्मीर में भारतीय सेना की संख्या में कटौती की जाये, उनकी यह इच्छा पूरी की जाये। हमारी सेना को धीरे-धीरे सीमा पर बारूदी सुरंगें लगाते हुए पीछे हटना चाहिये और कश्मीर से बाहर निकल आना चाहिये। इसका सीधा असर यह होगा कि तालिबान, अफ़गान और अल-कायदा के लोग कश्मीर में घुसपैठ कर जायेंगे, वे लोग चाहे कितना ही “शरीयत-शरीयत” भज लें, लेकिन वे अपहरण, लूट, बलात्कार से बाज नहीं आयेंगे, विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि बहुत जल्दी ही कश्मीर की जनता का उन “कथित जेहादियों” से मोहभंग हो जायेगा, फ़िर वे खुद ही भारत से मदद की गुहार लगाने लगेंगे, सेना को बुलायेंगे और “आज” के सुनहरे दिन याद करेंगे, उस वक्त हमारा काम आसान हो जायेगा। यदि ऐसा जल्दी नहीं भी होता है, तो निश्चित ही भारत की सेना हटने के बाद पाकिस्तान की दखलअंदाजी कश्मीर में बढ़ जायेगी, ऐसे में कश्मीर की जनता को जो “भारतीय लोकतंत्र” नाम का रसगुल्ला खाने की लत पड़ी हुई है, वह इतनी आसानी से पाकिस्तान के “नकली लोकतंत्र” को सहन नहीं कर पायेगी। वैसे भी तो हम इतना खर्चा करने और हजारों जानें गंवाने के बावजूद उनके दिल में भारत के प्रति प्रेम नहीं जगा सके हैं, फ़िर एक बार यह “जुआ” खेलने में हर्ज ही क्या है? कम से कम भारत के गरीबों और बच्चों की योजनाओं के लिये अरबों रुपया तो बचेगा, जो फ़िलहाल हम “अंधे कुएं” में डाल रहे हैं… इसलिये एक बार कुछ वर्षों के लिये कश्मीर को आजाद कर दो, उन्हें कोई मदद मत दो, सभी भारतीय कुछ वर्षों के लिये “अमरनाथ यात्रा” पर न जायें, कश्मीर में कोई भारतीय पर्यटक न जाये…।
निष्कर्ष - जब पेट पर लात पड़ेगी, तो अकल ठिकाने आने में देर नहीं लगेगी…
इन दो तरीकों के अलावा कोई और तरीका कामयाब होने वाला नहीं है, यदि होना होता, तो पिछले साठ वर्षों में हो गया होता… आपका क्या विचार है???
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कश्मीर : नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ (भाग 1)
तथा कश्मीर का बोझा ढोते हम मूर्ख भारतीय (भाग 2) से आगे जारी…
सो, जब अगली बार कोई “सेकुलर” “प्रगतिशील” व्यक्ति आपसे पूछे कि भारत में इतनी गरीबी क्यों है? तब यह लेख उसके मुँह पर मारिये और बताइये कि क्योंकि हम भारतवासियों को “कश्मीर” नाम का नासूर पालने का शौक है, और हम कश्मीरी मुसलमानों को हर हालत में खुश देखना चाहते हैं (चाहे वे लोग हमें भूमि का छोटा सा टुकड़ा तक देने को राजी नहीं हैं)। जाहिर है कि उस “सेकुलर” का अगला सवाल यही होगा कि फ़िर हम कश्मीर को भारत से अलग क्यों नहीं कर देते? उसे आज़ाद क्यों नहीं कर देते? तो इसका जवाब है कि ऐसा निश्चित ही किया जा सकता है, लेकिन फ़िर कुछ ही वर्षों में समूचा उत्तर-पूर्व (सातों राज्य) और पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु भी भारत से अलग होने की माँग करने लगेंगे।
कश्मीर हमारे गले में फ़ँसा हुआ हड्डी का वह टुकड़ा है जो न निगलते बन रहा है न उगलते (महान सेकुलर नेहरू परिवार के सौजन्य से)। साठ वर्षों में कश्मीरी मुसलमानों ने क्या-क्या हासिल कर लिया है, देखते हैं…
1) अरबों-खरबों रुपये की केन्द्रीय मदद (जो हमारी-आपकी जेब से जा रही है)
2) कश्मीरी मुसलमान पूरे देश में कहीं भी सम्पत्ति खरीद सकता है, लेकिन एक भारतीय कश्मीर में नहीं।
3) हिन्दुओं का घाटी से पूर्ण सफ़ाया किया जा चुका है।
4) भारत सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री और अफ़सर पदों पर कश्मीरी कब्जा किये हुए हैं।
5) भारत सरकार अपने जवानों को वहाँ उनकी रक्षा के लिये जान गँवाने को भेजती रहती है। सुरक्षा बल आतंकवादियों से लड़ते रहते हैं और कश्मीरी मुसलमान मजे करता है।
अब स्थिति यह है कि कश्मीरी चाहते हैं कि भारत सरकार उनकी आर्थिक मदद तो करती रहे लेकिन आतंकवादी और अलगाववादियों को खुला छोड़ दे। यह उनके लिये फ़ायदे का सौदा है, उन लोगों नें उनकी मदद से कश्मीरी पंडितों को वहाँ से पूरी तरह भगा दिया है और उनके मकानों, सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया है, फ़िर भला वे क्यों चाहेंगे कि पंडित वापस लौटें (न ही फ़िलिस्तीन की चिंता करने वाले “महान सेकुलर” लोग इस बारे में कोई बात करेंगे)।
समय आ गया है कि निम्न बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करें –
--- हम कश्मीर को बहुत-बहुत दे चुके, बस अब और नहीं। कश्मीरियों को साफ़-साफ़ बताने की आवश्यकता है कि हम आप पर क्या खर्च कर रहे हैं और उनके कर्तव्य क्या हैं।
--- इस लेख में बार-बार “कश्मीर” इसलिये कहा गया है कि जम्मू और लद्दाख शांतिप्रिय इलाके हैं (मुस्लिम जनसंख्या कम है ना इसलिये!!!), तो राज्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया जाये। जो हिस्सा अधिक “रेवेन्यू” कमाकर केन्द्र सरकार को दे, उसे ज्यादा केन्द्रीय मदद मिलना चाहिये।
--- वक्त आ गया है कि कश्मीरी नेताओं से धारा 370 के बारे में दो टूक बात की जाये, न कि 1953 से पहले की स्थिति की मूर्खतापूर्ण बातें।
--- कश्मीरियों को भी बाकी भारत में किसी भी प्रकार की सम्पत्ति खरीदने पर रोक लगनी चाहिये।
1) कुल मिलाकर देखा जाये तो कश्मीर समस्या के हल दो ही प्रकार से हो सकते हैं, पहला तो यह कि कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू करके आतंकवादियों के खिलाफ़ सीमापार तक खदेड़ने की नीति अपनाई जाये, आतंकवादियों को रगड़-रगड़ कर उन्हें घुटने के बल बैठा दिया जाये, जैसा कि गिल ने पंजाब में किया था, न तो पाकिस्तान की सुनी जाये, न अमेरिका की न ही किसी मानवाधिकारवादियों की… कुचलना ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये…लेकिन भारतीय सरकारों के “चरित्र”(?) को देखते हुए यह मुश्किल लगता है… (शर्म की बात तो है, लेकिन क्या करें)
2) दूसरा रास्ता है, जो कठिन है लेकिन इसके नतीजे “Long Term” में भारत के पक्ष में ही होंगे – कश्मीरी मुसलमान सदा से यह चाहते हैं कि कश्मीर में भारतीय सेना की संख्या में कटौती की जाये, उनकी यह इच्छा पूरी की जाये। हमारी सेना को धीरे-धीरे सीमा पर बारूदी सुरंगें लगाते हुए पीछे हटना चाहिये और कश्मीर से बाहर निकल आना चाहिये। इसका सीधा असर यह होगा कि तालिबान, अफ़गान और अल-कायदा के लोग कश्मीर में घुसपैठ कर जायेंगे, वे लोग चाहे कितना ही “शरीयत-शरीयत” भज लें, लेकिन वे अपहरण, लूट, बलात्कार से बाज नहीं आयेंगे, विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि बहुत जल्दी ही कश्मीर की जनता का उन “कथित जेहादियों” से मोहभंग हो जायेगा, फ़िर वे खुद ही भारत से मदद की गुहार लगाने लगेंगे, सेना को बुलायेंगे और “आज” के सुनहरे दिन याद करेंगे, उस वक्त हमारा काम आसान हो जायेगा। यदि ऐसा जल्दी नहीं भी होता है, तो निश्चित ही भारत की सेना हटने के बाद पाकिस्तान की दखलअंदाजी कश्मीर में बढ़ जायेगी, ऐसे में कश्मीर की जनता को जो “भारतीय लोकतंत्र” नाम का रसगुल्ला खाने की लत पड़ी हुई है, वह इतनी आसानी से पाकिस्तान के “नकली लोकतंत्र” को सहन नहीं कर पायेगी। वैसे भी तो हम इतना खर्चा करने और हजारों जानें गंवाने के बावजूद उनके दिल में भारत के प्रति प्रेम नहीं जगा सके हैं, फ़िर एक बार यह “जुआ” खेलने में हर्ज ही क्या है? कम से कम भारत के गरीबों और बच्चों की योजनाओं के लिये अरबों रुपया तो बचेगा, जो फ़िलहाल हम “अंधे कुएं” में डाल रहे हैं… इसलिये एक बार कुछ वर्षों के लिये कश्मीर को आजाद कर दो, उन्हें कोई मदद मत दो, सभी भारतीय कुछ वर्षों के लिये “अमरनाथ यात्रा” पर न जायें, कश्मीर में कोई भारतीय पर्यटक न जाये…।
निष्कर्ष - जब पेट पर लात पड़ेगी, तो अकल ठिकाने आने में देर नहीं लगेगी…
इन दो तरीकों के अलावा कोई और तरीका कामयाब होने वाला नहीं है, यदि होना होता, तो पिछले साठ वर्षों में हो गया होता… आपका क्या विचार है???
Kashmir Issue India Pakistan and Kashmir, Free Kashmir, Kashmir Liberation Movement, Hurriyat Conference, Mehbooba Mufti, Mufti Mohammad Sayeed, PDP, National Conference, Farooq Abdullah, Umar Abdullah, Ghulam Nabi Azad, Congress Policies over Kashmir, Secularism and Kashmiri People, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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रविवार, 06 जुलाई 2008 13:46
सुधा मूर्ति द्वारा लिखित एक बेहतरीन संस्मरण…
विवाह जीवन का एक अनिवार्य संस्कार है। भारत में विवाह कई रीति-रिवाजों के साथ होता है। हमारी हिन्दी फिल्मों में कई कहानियाँ विवाह के विषय पर आधारित हैं। भारत का इतिहास गवाह है कि कई युद्ध विवाहों के कारण लड़े गए।
पहले विवाह संपन्न होने में पूरा एक सप्ताह तक लग जाता था। समय के साथ-साथ इसकी अवधि कम होती गई। पहले तीन दिन और वर्तमान में एक दिन के लिए यह शुभ समारोह होता है। विवाह में जिंदगी की सारी कमाई खर्च हो जाती है। शादी के लिए कई लोग पैसे उधार लेते हैं और सारी जिंदगी इस कर्ज को चुकाते रहते हैं। जब मैंने बँधुआ मजदूरों के साथ बातें की, तब अनुभव किया कि कर्ज चुकाने के कारण उनकी यह अवस्था हुई है। विवाह के समय हम बारातियों के सुख-सुविधा, दुल्हन के श्रृंगार, व्यंजन आदि के विषय पर चिंतित होते हैं।
हाल ही में मैं मास्को (रूस) गई थी। रूस का इतिहास बताता है कि रूस ने कई युद्ध जीते हैं । वहाँ के निवासी इन बातों से गर्वित हो उठते हैं। शहीद वीरों की स्मृतियों में कई स्मारक एवं मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। पहला युद्ध पीटर दी ग्रेट तथा स्वीडन के बीच हुआ था। दूसरा युद्ध फ्रांस के नेपोलियन एवं जार एलेक्जेंडर प्रथम के बीच हुआ था।
मास्को में एक विशाल पार्क स्थित है, जिसका नाम है पीस पार्क। इस पार्क के मध्य में एक स्तंभ है और इस स्तंभ पर रूस में युद्ध की तारीख एवं स्थानों के बारे में लिखा गया था । पार्क में विभिन्न प्रकार के फव्वारे एवं रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। पर्यटकों के लिए यह एक आकर्षक स्थल है। रविवार के दिन मैं पार्क में गई थी। उस दिन हल्की-सी वर्षा एवं ठंड पड़ रही थी। मैं उस सुहावने मौसम का आनंद छतरी के तले ले रही थी। चारों ओर खिलती हरियाली मन को भा रही थी।
अचानक मेरी नजर कम उम्र के एक युगल पर पड़ी। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि उनकी शादी हाल ही में हुई है। युवती बीस-बाईस वर्ष की थी, पतली-दुबली एवं नीली आँखों वाली। वह देखने में बहुत ही सुंदर थी। युवक भी उसी की उम्र का था तथा दिखने में आकर्षक था। वह फौजी कपड़े पहने था। युवती के सुंदर चमकते कपड़ों पर मोती जड़े हुए थे। युवती ने एक लंबी पोशाक पहन रखी थी। हाथ में एक गुलदस्ता था तथा युवक छतरी से उसे वर्षा की बूँदों से बचा रहा था ताकि वह भीग न जाए।
मैंने देखा कि वे स्मारक की ओर बढ़ रहे हैं। पहुँचने पर उन्होंने गुलदस्ता रखा एवं झुककर प्रार्थना की। कुछ देर बाद वे वहाँ से चले गए। मैं सोच रही थी कि उनसे प्रश्न करूँ कि वे क्या कर रहे थे? इस रिवाज का क्या अर्थ है, परंतु भाषाओं में अंतर होने के कारण मैं उनसे कुछ पूछ नहीं पा रही थी। उस समय एक वृद्ध व्यक्ति मेरे पास खड़े हुए थे। उन्होंने मुझे साड़ी पहने देखकर कहा कि क्या आप भारतीय हैं?
मैंने कहा- हाँ।
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- मैंने राज कपूर की फिल्में देखी हैं। उनकी फिल्में बहुत ही अच्छी हैं। रूस में राज कपूर आए थे। क्या आप यह गाना जानती हैं- मैं आवारा हूँ...।
'क्या आप जानती हैं कि मास्को में भारत के तीन प्रसिद्ध व्यक्तियों की मूर्तियाँ स्थापित हैं?'
मैंने पूछा- कौन हैं वे तीन व्यक्ति? तब वृद्ध ने जवाब दिया, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी एवं इंदिरा गाँधी। वार्तालाप के दौरान मैंने उनसे कुछ सवाल किए।
मैंने पूछा- आप अँगरेजी भाषा कैसे जानते हैं?
तब उन्होंने कहा- मैंने विदेश में नौकरी की थी। उसी समय मैंने अँगरेजी सीखी।
मैंने पूछा- क्या आप बता सकते हैं कि नवविवाहिता वर-वधू ने शादी के दिन स्मारक के दर्शन किसलिए किए?
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- यह यहाँ की प्रथा है। रविवार एवं शनिवार के दिन शादियाँ होती हैं। वर-वधू अपने नाम को सूचीबद्ध करके प्रमुख राष्ट्रीय स्मारक के दर्शन करते हैं। इस देश के हर युवक को कुछ सालों के लिए सेना में विशिष्ट सेवा देनी पड़ती है। चाहे वह सेना में किसी भी पद पर हो, उस युवक को विवाह के दिन अपने सैनिक वस्त्र ही पहनने पड़ते हैं।
मैंने पूछा- ऐसी प्रथा क्यों प्रचलित है यहाँ पर?
यह कृतज्ञता की निशानी है? रूस ने कई युद्ध लड़े हैं। उनमें हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी है। चाहे हमने युद्ध हारे हों या जीते हों, उनकी दी हुई कुर्बानी हमारे देश के लिए बहुमूल्य है। नवविवाहित युगलों को याद रखना चाहिए कि वे एक शांतिपूर्ण स्वतंत्र देश में रहे हैं। चूँकि उनके पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी थी। उन्हें उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए। देशप्रेम विवाह समारोह से अधिक महत्वपूर्ण है। हम बुजुर्गों की यह इच्छा है कि यह परंपरा चलती रहे। विवाह के दिन नवविवाहितों को नजदीक के युद्ध स्मारक के दर्शन करना चाहिए।
इस विषय पर मैं सोचने लगी कि हम अपने बच्चों को क्या सीख देते हैं। क्या हम उन्हें 1857 के स्वतंत्रता के लिए लड़े गए युद्ध के बारे में बताते हैं या हम 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में कहते हैं? क्या हम नवविवाहितों को अंडमान की जेल के विषय में बताते हैं, जहाँ पर हजारों लोगों को कालापानी की सजा दी गई थी एवं वे निर्ममता से फाँसी पर चढ़ाए गए थे?
क्या हम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, शिवाजी, महाराणा प्रताप, लक्ष्मीबाई आदि वीर शहीदों को याद करते हैं? जिन्होंने देश के लिए जान की कुर्बानी दे दी। स्वतंत्र भारत को देखने के लिए वे वीर पुरुष एवं महिला जिंदा नहीं रहे। क्या हम में इतनी कृतज्ञता की भावना है कि उन वीर महापुरुषों को अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन याद करें। हम इस दिन साड़ी, गहने की खरीददारी एवं मनोरंजन के लिए पार्टी में जाते हैं।
मेरी आँखें भर आईं। मैं चाहती हूँ कि यह शिक्षा हम रूस के निवासियों से सीखें और याद करें अपने शहीदों को अपनी खुशियों के अवसर पर।
(यह संस्मरण हाल ही में "नईदुनिया" इन्दौर में प्रकाशित हुआ था)
=========================
इस संस्मरण की भावना के मद्देनजर अब दो शब्द मेरी तरफ़ से…
आज के माहौल से मेल खाता हुआ यह मर्मस्पर्शी लेख है, आम नागरिक के मन में देश के लिये जो जज़्बा अन्य पश्चिमी और यूरोपीय देशों में है, उसका 50% भी भारत के लोगों में नहीं है, यदि होता तो वे दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों की सूची में आगे-आगे नहीं होते… हाँ, दिखावा करने में हम लोग सबसे बेहतर हैं, साल में दो-एक बार सैनिकों के लिये घड़ियाली आँसू बहा लेते हैं बस… आज भी हमारी व्यवस्था शहीदों, शहीदों की विधवाओं और परिवारों के साथ बहुत बुरा सलू्क करती हैं। अफ़जल को अब तक फ़ाँसी नहीं दी जा रही, शहीदों के परिवार पेंशन, गुजारे भत्ते, पेट्रोल पंपों के लिये गिड़गिड़ा रहे हैं, सियाचिन पर सैनिकों के लिये जूते भेजने में अधिकारी पैसे को लेकर आनाकानी करते हैं, लेकिन शर्म हमें आती नहीं… जब रा स्व संघ, मानेकशॉ की अंत्येष्टि के बारे में सवाल उठाता है तो वह सांप्रदायिक, लेकिन कारगिल और पोखरण की वर्षगाँठ भु्ला देने वाले कांग्रेसी "धर्मनिरपेक्ष", यही इस देश का रोना है… राष्ट्र के बारे में, सेना के बारे में बात करना भी सांप्रदायिकता में आने लगा है अब????? असली धर्मनिरपेक्षता यही है कि बच्चों को "ग" से गणेश नहीं बल्कि "ग" से गधा पढ़ाया जाये, शिवाजी के गुणगान की बजाय अकबर को महान बताया जाये, सरस्वती वन्दना और वन्देमातरम् का विरोध करना भी "प्रगतिशीलता" की निशानी माना जाता है… लेकिन जिन लोगों को कश्मीर से ज्यादा चिंता फ़िलिस्तीन की हो, असम-बंगाल की घुसपैठ से ज्यादा चिंता गुजरात की है, उनसे क्या अपेक्षा करें… मानेकशॉ की अंत्येष्टि में "सरकार" सिर्फ़ इसीलिये शामिल नहीं हुई कि कहीं पाकिस्तान-बांग्लादेश नाराज न हो जायें… तरस आता है ऐसी घिनौनी सोच पर, और इनके समर्थकों पर… ऐसे लोग कभी भी "भारत को महान" नहीं बना सकते…
पहले विवाह संपन्न होने में पूरा एक सप्ताह तक लग जाता था। समय के साथ-साथ इसकी अवधि कम होती गई। पहले तीन दिन और वर्तमान में एक दिन के लिए यह शुभ समारोह होता है। विवाह में जिंदगी की सारी कमाई खर्च हो जाती है। शादी के लिए कई लोग पैसे उधार लेते हैं और सारी जिंदगी इस कर्ज को चुकाते रहते हैं। जब मैंने बँधुआ मजदूरों के साथ बातें की, तब अनुभव किया कि कर्ज चुकाने के कारण उनकी यह अवस्था हुई है। विवाह के समय हम बारातियों के सुख-सुविधा, दुल्हन के श्रृंगार, व्यंजन आदि के विषय पर चिंतित होते हैं।
हाल ही में मैं मास्को (रूस) गई थी। रूस का इतिहास बताता है कि रूस ने कई युद्ध जीते हैं । वहाँ के निवासी इन बातों से गर्वित हो उठते हैं। शहीद वीरों की स्मृतियों में कई स्मारक एवं मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। पहला युद्ध पीटर दी ग्रेट तथा स्वीडन के बीच हुआ था। दूसरा युद्ध फ्रांस के नेपोलियन एवं जार एलेक्जेंडर प्रथम के बीच हुआ था।
मास्को में एक विशाल पार्क स्थित है, जिसका नाम है पीस पार्क। इस पार्क के मध्य में एक स्तंभ है और इस स्तंभ पर रूस में युद्ध की तारीख एवं स्थानों के बारे में लिखा गया था । पार्क में विभिन्न प्रकार के फव्वारे एवं रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। पर्यटकों के लिए यह एक आकर्षक स्थल है। रविवार के दिन मैं पार्क में गई थी। उस दिन हल्की-सी वर्षा एवं ठंड पड़ रही थी। मैं उस सुहावने मौसम का आनंद छतरी के तले ले रही थी। चारों ओर खिलती हरियाली मन को भा रही थी।
अचानक मेरी नजर कम उम्र के एक युगल पर पड़ी। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि उनकी शादी हाल ही में हुई है। युवती बीस-बाईस वर्ष की थी, पतली-दुबली एवं नीली आँखों वाली। वह देखने में बहुत ही सुंदर थी। युवक भी उसी की उम्र का था तथा दिखने में आकर्षक था। वह फौजी कपड़े पहने था। युवती के सुंदर चमकते कपड़ों पर मोती जड़े हुए थे। युवती ने एक लंबी पोशाक पहन रखी थी। हाथ में एक गुलदस्ता था तथा युवक छतरी से उसे वर्षा की बूँदों से बचा रहा था ताकि वह भीग न जाए।
मैंने देखा कि वे स्मारक की ओर बढ़ रहे हैं। पहुँचने पर उन्होंने गुलदस्ता रखा एवं झुककर प्रार्थना की। कुछ देर बाद वे वहाँ से चले गए। मैं सोच रही थी कि उनसे प्रश्न करूँ कि वे क्या कर रहे थे? इस रिवाज का क्या अर्थ है, परंतु भाषाओं में अंतर होने के कारण मैं उनसे कुछ पूछ नहीं पा रही थी। उस समय एक वृद्ध व्यक्ति मेरे पास खड़े हुए थे। उन्होंने मुझे साड़ी पहने देखकर कहा कि क्या आप भारतीय हैं?
मैंने कहा- हाँ।
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- मैंने राज कपूर की फिल्में देखी हैं। उनकी फिल्में बहुत ही अच्छी हैं। रूस में राज कपूर आए थे। क्या आप यह गाना जानती हैं- मैं आवारा हूँ...।
'क्या आप जानती हैं कि मास्को में भारत के तीन प्रसिद्ध व्यक्तियों की मूर्तियाँ स्थापित हैं?'
मैंने पूछा- कौन हैं वे तीन व्यक्ति? तब वृद्ध ने जवाब दिया, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी एवं इंदिरा गाँधी। वार्तालाप के दौरान मैंने उनसे कुछ सवाल किए।
मैंने पूछा- आप अँगरेजी भाषा कैसे जानते हैं?
तब उन्होंने कहा- मैंने विदेश में नौकरी की थी। उसी समय मैंने अँगरेजी सीखी।
मैंने पूछा- क्या आप बता सकते हैं कि नवविवाहिता वर-वधू ने शादी के दिन स्मारक के दर्शन किसलिए किए?
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- यह यहाँ की प्रथा है। रविवार एवं शनिवार के दिन शादियाँ होती हैं। वर-वधू अपने नाम को सूचीबद्ध करके प्रमुख राष्ट्रीय स्मारक के दर्शन करते हैं। इस देश के हर युवक को कुछ सालों के लिए सेना में विशिष्ट सेवा देनी पड़ती है। चाहे वह सेना में किसी भी पद पर हो, उस युवक को विवाह के दिन अपने सैनिक वस्त्र ही पहनने पड़ते हैं।
मैंने पूछा- ऐसी प्रथा क्यों प्रचलित है यहाँ पर?
यह कृतज्ञता की निशानी है? रूस ने कई युद्ध लड़े हैं। उनमें हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी है। चाहे हमने युद्ध हारे हों या जीते हों, उनकी दी हुई कुर्बानी हमारे देश के लिए बहुमूल्य है। नवविवाहित युगलों को याद रखना चाहिए कि वे एक शांतिपूर्ण स्वतंत्र देश में रहे हैं। चूँकि उनके पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी थी। उन्हें उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए। देशप्रेम विवाह समारोह से अधिक महत्वपूर्ण है। हम बुजुर्गों की यह इच्छा है कि यह परंपरा चलती रहे। विवाह के दिन नवविवाहितों को नजदीक के युद्ध स्मारक के दर्शन करना चाहिए।
इस विषय पर मैं सोचने लगी कि हम अपने बच्चों को क्या सीख देते हैं। क्या हम उन्हें 1857 के स्वतंत्रता के लिए लड़े गए युद्ध के बारे में बताते हैं या हम 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में कहते हैं? क्या हम नवविवाहितों को अंडमान की जेल के विषय में बताते हैं, जहाँ पर हजारों लोगों को कालापानी की सजा दी गई थी एवं वे निर्ममता से फाँसी पर चढ़ाए गए थे?
क्या हम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, शिवाजी, महाराणा प्रताप, लक्ष्मीबाई आदि वीर शहीदों को याद करते हैं? जिन्होंने देश के लिए जान की कुर्बानी दे दी। स्वतंत्र भारत को देखने के लिए वे वीर पुरुष एवं महिला जिंदा नहीं रहे। क्या हम में इतनी कृतज्ञता की भावना है कि उन वीर महापुरुषों को अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन याद करें। हम इस दिन साड़ी, गहने की खरीददारी एवं मनोरंजन के लिए पार्टी में जाते हैं।
मेरी आँखें भर आईं। मैं चाहती हूँ कि यह शिक्षा हम रूस के निवासियों से सीखें और याद करें अपने शहीदों को अपनी खुशियों के अवसर पर।
(यह संस्मरण हाल ही में "नईदुनिया" इन्दौर में प्रकाशित हुआ था)
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इस संस्मरण की भावना के मद्देनजर अब दो शब्द मेरी तरफ़ से…
आज के माहौल से मेल खाता हुआ यह मर्मस्पर्शी लेख है, आम नागरिक के मन में देश के लिये जो जज़्बा अन्य पश्चिमी और यूरोपीय देशों में है, उसका 50% भी भारत के लोगों में नहीं है, यदि होता तो वे दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों की सूची में आगे-आगे नहीं होते… हाँ, दिखावा करने में हम लोग सबसे बेहतर हैं, साल में दो-एक बार सैनिकों के लिये घड़ियाली आँसू बहा लेते हैं बस… आज भी हमारी व्यवस्था शहीदों, शहीदों की विधवाओं और परिवारों के साथ बहुत बुरा सलू्क करती हैं। अफ़जल को अब तक फ़ाँसी नहीं दी जा रही, शहीदों के परिवार पेंशन, गुजारे भत्ते, पेट्रोल पंपों के लिये गिड़गिड़ा रहे हैं, सियाचिन पर सैनिकों के लिये जूते भेजने में अधिकारी पैसे को लेकर आनाकानी करते हैं, लेकिन शर्म हमें आती नहीं… जब रा स्व संघ, मानेकशॉ की अंत्येष्टि के बारे में सवाल उठाता है तो वह सांप्रदायिक, लेकिन कारगिल और पोखरण की वर्षगाँठ भु्ला देने वाले कांग्रेसी "धर्मनिरपेक्ष", यही इस देश का रोना है… राष्ट्र के बारे में, सेना के बारे में बात करना भी सांप्रदायिकता में आने लगा है अब????? असली धर्मनिरपेक्षता यही है कि बच्चों को "ग" से गणेश नहीं बल्कि "ग" से गधा पढ़ाया जाये, शिवाजी के गुणगान की बजाय अकबर को महान बताया जाये, सरस्वती वन्दना और वन्देमातरम् का विरोध करना भी "प्रगतिशीलता" की निशानी माना जाता है… लेकिन जिन लोगों को कश्मीर से ज्यादा चिंता फ़िलिस्तीन की हो, असम-बंगाल की घुसपैठ से ज्यादा चिंता गुजरात की है, उनसे क्या अपेक्षा करें… मानेकशॉ की अंत्येष्टि में "सरकार" सिर्फ़ इसीलिये शामिल नहीं हुई कि कहीं पाकिस्तान-बांग्लादेश नाराज न हो जायें… तरस आता है ऐसी घिनौनी सोच पर, और इनके समर्थकों पर… ऐसे लोग कभी भी "भारत को महान" नहीं बना सकते…
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शुक्रवार, 11 जुलाई 2008 17:56
कलाम और काकोड़कर चुनाव नहीं लड़ते, इसलिये सच बोल रहे हैं…(भाग-1)
Nuclear Deal India America IAEA
समूचे देश में इस समय परमाणु करार को लेकर “बेकरार और तकरार” जारी है, यहाँ तक कि “निठल्ला चिंतन” भी कई लोग एक साथ कर रहे हैं। जहाँ एक ओर वामपंथी अपने पुरातनपंथी विचारों से चिपके हुए हैं और चार साल तक मजे लूटने के बाद अचानक इस सरकार में उन्हें खामियाँ दिखाई देने लगी हैं, तो दूसरी ओर भाजपा है, जो सोच रही है कि बढ़ती महंगाई, फ़टी-पुरानी पैबन्द लगी “धर्मनिरपेक्षता” और अब बैठे-ठाले सरकार गिरने का खतरा, यानी दोनो हाथों में लड्डू… रही देश की जनता, तो उसे इस सारी नौटंकी से कोई लेना-देना नहीं है, वह अपने रोजमर्रा के संघर्षों में जीवन-यापन कर रही है। जबकि बुद्धिजीवियों द्वारा अखबारों के पन्ने और ब्लॉगों के सर्वर भरे जा रहे हैं, भाई लोग लगे पड़े हैं रस्साकशी में…
इस सारे परिदृश्य में मूल मुद्दा धीरे-धीरे पीछे जा रहा है, जिस पर सबसे ज्यादा बहस होना चाहिये। वह मुद्दा है “भारत की तेजी से बढ़ती ऊर्जा जरूरतें कैसे पूरी होंगी? और इस सम्बन्ध में हमारी विदेश नीति क्या होना चाहिये?” भारत और चीन दो बढ़ती हुई आर्थिक महाशक्ति हैं, दोनों की सबसे बड़ी जरूरत है “ऊर्जा”। फ़िलहाल हम 1,20,000 मेगावाट का उत्पादन कर रहे हैं, जिसमें से 30% चोरी और क्षरण हो जाती है। अगले बीस साल में हमें चार लाख मेगावाट की आवश्यकता होगी, हर व्यक्ति अपने घर में दो-दो एसी लगवा रहा है, कम्प्यूटर खरीद रहा है, चार-चार टीवी हर घर में हैं, किसान भी मोटरों से खेतों में सिंचाई कर रहे हैं, उद्योग-धंधे तेजी से बढ़ रहे हैं… कहाँ से लायेंगे इतनी बिजली?
हरेक देश को अपने भविष्य और जनता के फ़ायदे के बारे में सोचने का पूरा हक है, भारत को भी है। भारत के पास थोरियम के विशाल भंडार मौजूद हैं। भारत के वैज्ञानिक थोरियम से रिएक्टर बनाकर बिजली बनाने की तकनीक पर काम कर रहे हैं (जो पूर्णतः सफ़ल होने पर भारत बिजली का निर्यात तक कर सकेगा)। थोरियम से बिजली बनाने की तकनीक के रास्ते में रोड़ा है पश्चिमी देशों से मिलने वाली आधुनिक तकनीक, विविध उपकरण और वैज्ञानिक मदद। हालांकि भारत के वैज्ञानिकों ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर 350 मेगावाट का एक थोरियम रियेक्टर सफ़लतापूर्वक बना लिया है, लेकिन इस तकनीक में महारत हासिल करने के लिये और इसे व्यापक रूप देने के लिये वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीक और उपकरण चाहिये होंगे, ताकि इस काम में तेजी लाई जा सके।
यह सारी भूमिका इसलिये बाँधी, क्योंकि जो परमाणु समझौता हम अमेरिका से करने जा रहे हैं, उसका मुख्य फ़ायदा यही है कि अभी हमें यूरेनियम के लिये अमेरिका पर निर्भर रहना होता है, लेकिन इस समझौते से पूरा विश्व हमारे लिये खुला हुआ होगा, हम कहीं से भी यूरेनियम, संयंत्र और तकनीक खरीदने को स्वतन्त्र होंगे। इस परमाणु ऊर्जा से हम सिर्फ़ 4000 मेगावाट की बिजली ही पैदा कर पायेंगे, जो कि “ऊँट के मुँह में जीरे के समान” है, लेकिन इसके पीछे कलाम और काकोड़कर की सोच को राजनेता नहीं पहचान पा रहे। इस समझौते के अनुसार, भारत में बिजली का निर्माण तीन चरणों में होगा, पहले चरण में यूरेनियम आधारित बिजली, दूसरे चरण में यूरेनियम विखण्डन (Explosion) आधारित बिजली तथा तीसरे चरण में थोरियम आधारित बिजली उत्पादन। अब परिदृश्य यह है कि भारत में यूरेनियम लगभग नगण्य है, इसलिये शुरुआत में हमें यह आयात करना पड़ेगा, उसके रिएक्टर भी बाहर से मंगवाने पड़ेंगे, लेकिन तीसरा चरण आते-आते भारत के वैज्ञानिकों को नवीनतम रिएक्टर तकनीक तो मिल ही जायेगी, साथ ही भारत में काफ़ी मात्रा में थोरियम मौजूद होने के कारण तब बिजली भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगेगी। कलाम और काकोड़कर दोनो महान वैज्ञानिक हैं, उन्होंने इस परमाणु समझौते का गहन अध्ययन किया है, उन्हें पता है कि भारतीय वैज्ञानिकों को “वैश्विक अस्पृश्यता” से दूर करने के लिये यह समझौता बेहद जरूरी है। तात्कालिक रूप से प्राथमिक चरण में भारत को यह सौदा महंगा पड़ेगा, कारण यूरेनियम बेचने वाले, यूरेनियम के रिएक्टर बेचने वाले, उस पर निगरानी(?) करने में पश्चिमी देशों का एकाधिकार है, और सभी पश्चिमी देश पहले अपना हित / फ़ायदा देखते हैं। ऐसे में यदि भारत भी “सिर्फ़ अपना” फ़ायदा देखे तो इसमें हर्ज ही क्या है?
(भाग-2 में जारी…)
Nuclear Deal, India USA Relationship, IAEA, Uranium Reactors, Thorium Reactor, Abdul Kalam, Anil Kakodkar, India’s Energy Requirement, China, Increasing Petrol-Diesel Prices, परमाणु करार, अमेरिका-भारत सम्बन्ध, आईएईए, यूरेनियम रिएक्टर, थोरियम, अब्दुल कलाम, अनिल काकोड़कर, भारत की ऊर्जा जरूरतें, पेट्रोल-डीजल कीमतें, चीन, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
समूचे देश में इस समय परमाणु करार को लेकर “बेकरार और तकरार” जारी है, यहाँ तक कि “निठल्ला चिंतन” भी कई लोग एक साथ कर रहे हैं। जहाँ एक ओर वामपंथी अपने पुरातनपंथी विचारों से चिपके हुए हैं और चार साल तक मजे लूटने के बाद अचानक इस सरकार में उन्हें खामियाँ दिखाई देने लगी हैं, तो दूसरी ओर भाजपा है, जो सोच रही है कि बढ़ती महंगाई, फ़टी-पुरानी पैबन्द लगी “धर्मनिरपेक्षता” और अब बैठे-ठाले सरकार गिरने का खतरा, यानी दोनो हाथों में लड्डू… रही देश की जनता, तो उसे इस सारी नौटंकी से कोई लेना-देना नहीं है, वह अपने रोजमर्रा के संघर्षों में जीवन-यापन कर रही है। जबकि बुद्धिजीवियों द्वारा अखबारों के पन्ने और ब्लॉगों के सर्वर भरे जा रहे हैं, भाई लोग लगे पड़े हैं रस्साकशी में…
इस सारे परिदृश्य में मूल मुद्दा धीरे-धीरे पीछे जा रहा है, जिस पर सबसे ज्यादा बहस होना चाहिये। वह मुद्दा है “भारत की तेजी से बढ़ती ऊर्जा जरूरतें कैसे पूरी होंगी? और इस सम्बन्ध में हमारी विदेश नीति क्या होना चाहिये?” भारत और चीन दो बढ़ती हुई आर्थिक महाशक्ति हैं, दोनों की सबसे बड़ी जरूरत है “ऊर्जा”। फ़िलहाल हम 1,20,000 मेगावाट का उत्पादन कर रहे हैं, जिसमें से 30% चोरी और क्षरण हो जाती है। अगले बीस साल में हमें चार लाख मेगावाट की आवश्यकता होगी, हर व्यक्ति अपने घर में दो-दो एसी लगवा रहा है, कम्प्यूटर खरीद रहा है, चार-चार टीवी हर घर में हैं, किसान भी मोटरों से खेतों में सिंचाई कर रहे हैं, उद्योग-धंधे तेजी से बढ़ रहे हैं… कहाँ से लायेंगे इतनी बिजली?
हरेक देश को अपने भविष्य और जनता के फ़ायदे के बारे में सोचने का पूरा हक है, भारत को भी है। भारत के पास थोरियम के विशाल भंडार मौजूद हैं। भारत के वैज्ञानिक थोरियम से रिएक्टर बनाकर बिजली बनाने की तकनीक पर काम कर रहे हैं (जो पूर्णतः सफ़ल होने पर भारत बिजली का निर्यात तक कर सकेगा)। थोरियम से बिजली बनाने की तकनीक के रास्ते में रोड़ा है पश्चिमी देशों से मिलने वाली आधुनिक तकनीक, विविध उपकरण और वैज्ञानिक मदद। हालांकि भारत के वैज्ञानिकों ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर 350 मेगावाट का एक थोरियम रियेक्टर सफ़लतापूर्वक बना लिया है, लेकिन इस तकनीक में महारत हासिल करने के लिये और इसे व्यापक रूप देने के लिये वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीक और उपकरण चाहिये होंगे, ताकि इस काम में तेजी लाई जा सके।
यह सारी भूमिका इसलिये बाँधी, क्योंकि जो परमाणु समझौता हम अमेरिका से करने जा रहे हैं, उसका मुख्य फ़ायदा यही है कि अभी हमें यूरेनियम के लिये अमेरिका पर निर्भर रहना होता है, लेकिन इस समझौते से पूरा विश्व हमारे लिये खुला हुआ होगा, हम कहीं से भी यूरेनियम, संयंत्र और तकनीक खरीदने को स्वतन्त्र होंगे। इस परमाणु ऊर्जा से हम सिर्फ़ 4000 मेगावाट की बिजली ही पैदा कर पायेंगे, जो कि “ऊँट के मुँह में जीरे के समान” है, लेकिन इसके पीछे कलाम और काकोड़कर की सोच को राजनेता नहीं पहचान पा रहे। इस समझौते के अनुसार, भारत में बिजली का निर्माण तीन चरणों में होगा, पहले चरण में यूरेनियम आधारित बिजली, दूसरे चरण में यूरेनियम विखण्डन (Explosion) आधारित बिजली तथा तीसरे चरण में थोरियम आधारित बिजली उत्पादन। अब परिदृश्य यह है कि भारत में यूरेनियम लगभग नगण्य है, इसलिये शुरुआत में हमें यह आयात करना पड़ेगा, उसके रिएक्टर भी बाहर से मंगवाने पड़ेंगे, लेकिन तीसरा चरण आते-आते भारत के वैज्ञानिकों को नवीनतम रिएक्टर तकनीक तो मिल ही जायेगी, साथ ही भारत में काफ़ी मात्रा में थोरियम मौजूद होने के कारण तब बिजली भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगेगी। कलाम और काकोड़कर दोनो महान वैज्ञानिक हैं, उन्होंने इस परमाणु समझौते का गहन अध्ययन किया है, उन्हें पता है कि भारतीय वैज्ञानिकों को “वैश्विक अस्पृश्यता” से दूर करने के लिये यह समझौता बेहद जरूरी है। तात्कालिक रूप से प्राथमिक चरण में भारत को यह सौदा महंगा पड़ेगा, कारण यूरेनियम बेचने वाले, यूरेनियम के रिएक्टर बेचने वाले, उस पर निगरानी(?) करने में पश्चिमी देशों का एकाधिकार है, और सभी पश्चिमी देश पहले अपना हित / फ़ायदा देखते हैं। ऐसे में यदि भारत भी “सिर्फ़ अपना” फ़ायदा देखे तो इसमें हर्ज ही क्या है?
(भाग-2 में जारी…)
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शनिवार, 12 जुलाई 2008 20:41
कलाम, काकोड़कर और परमाणु करार (भाग-2)
Nuclear Deal India America IAEA
(भाग-1 “कलाम और काकोड़कर… से आगे…) जिस प्रकार राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में भी ऐसा ही होता है। अमेरिका ने आज ईराक को कब्जे में किया है कल को वह ईरान पर भी हमला बोल सकता है। ईरान भी आज तक भारत को अपना दोस्त कहता रहा है, लेकिन क्या कभी उसने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइप लाइन पर गम्भीरता और उदारता का परिचय दिया है? भारत को “ऊर्जा” की सख्त आवश्यकता है, इसलिये हमें तेल-गैस को छोड़कर अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को खंगालना ही होगा (हालांकि यह एक बहुत देर से उठाया हुआ कदम है, लेकिन फ़िर भी…), इसके लिये परमाणु ऊर्जा, भारत में विस्तृत और विशाल समुद्र किनारों पर पवन ऊर्जा चक्कियाँ, वर्ष में कम से कम आठ महीने भारत में प्रखर सूर्य होता है, इसलिये सौर ऊर्जा… सभी विकल्पों पर एक साथ काम चल रहा है, इनमें से ही एक है थोरियम रिएक्टरों से बिजली उत्पादन । विश्व परमाणु संगठन द्वारा दी गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 3 लाख टन थोरियम (समूचे विश्व का 13%) मौजूद है, जिसका शोधन किया जा सकता है, ऐसे में यदि अपने दीर्घकालीन फ़ायदे के लिये अमेरिका से करार कर लिया तो क्या बिगड़ने वाला है?
सबसे अधिक “चिल्लपों” मची हुई है, भारत की परमाणु भट्टियों के निरीक्षण को लेकर… पता नहीं उसमें ऐसा क्या है? भारत परमाणु शक्ति का शांतिपूर्ण उपयोग करने वाला एक जिम्मेदार देश है, हम पहले से ही परमाणु अस्त्र सम्पन्न हैं, यदि कभी निरीक्षण करने की नौबत आई और निरीक्षण दल में यदि अमेरिकी ही भरे पड़े हों तो भी उसमें इतना हल्ला मचाने की क्या जरूरत है? अक्सर हमें “अखण्डता”, “सार्वभौमिकता” आदि बड़े-बड़े शब्द सुनाई दे जाते हैं, लेकिन अपनी गिरेबाँ में झाँककर देखो कि वाकई में भारत कितना “अखण्ड” है और उसकी नीतियों में कितनी “सार्वभौमिकता” है? सरेआम पोल खुल जायेगी…
भारत के तमाम पड़ोसियों में से एक भी विश्वास के काबिल नहीं है (एक नेपाल बचा था, वह भी लाल हो गया), ऐसे में परमाणु करार के बहाने यदि हमारी अमेरिका से नज़दीकी बढ़ती है तो बुरा क्या है? वामपंथी यदि सत्ता में आते ही चार साल पहले से थोरियम रिएक्टर की मांग करते तो उनका क्या बिगड़ जाता? एक घटिया से मुद्दे पर सरकार गिराने चले हैं और उधर चीन अरुणाचल पर अपना दावा ठोंक रहा है, काहे की सार्वभौमिकता? और अमेरिका का विरोध क्यों? भारतवासियों में एक सर्वे किया जाना चाहिये कि वे अमेरिका पर अधिक विश्वास करते हैं या चीन पर? वामपंथियों की आँखें खुल जायेंगी…
और अन्त में सबसे बड़ी बात तो यही है कि किन्हीं दो देशों, या दो शक्तियों में कोई भी समझौता आपसी फ़ायदे के लिये होता है, उस समझौते को जब मर्जी आये तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। ऐसा कहाँ लिखा है कि भारत को अपने तमाम समझौतों का पालन ताज़िन्दगी करते ही रहना होगा। जब हमारी सुविधा होगी तब हम अपना नया रास्ता पकड़ेंगे, जैसे राजनीति में नहीं, वैसे ही कूटनीति में “नैतिकता” का क्या काम? हिटलर ने रूस से समझौता किया था, लेकिन उसी ने रूस पर हमला किया, पाकिस्तान हमेशा इस्लाम-इस्लाम भजता रहता है, लेकिन वही अमेरिका से सबसे अधिक पैसा और हथियार लेता है, उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बनाने की धमकी देकर अमेरिका और यूरोपीय संघ से अच्छा माल झटक लिया है, चीन ने सरेआम अपनी नदियों का रास्ता मोड़ लिया है और आगे जाकर वह भारत को ही दुख देगा (मतलब यह कि हरेक देश को अपना फ़ायदा सोचना चाहिये, लेकिन “भारत महान” को “लोग क्या कहेंगे…” की फ़िक्र ज्यादा सताती है)। रही बात गुटनिरपेक्षता की, तो अब कहाँ हैं कोई “गुट” और किससे निभायें “निरपेक्षता”? जब अमेरिका ही विश्व का सर्वेसर्वा बन चुका है, चीन उसको चुनौती दे रहा है (यही सच है कि हम अगले 25 वर्षों में भी दोनो की बराबरी नहीं कर सकते हैं), तो फ़िर मौके का फ़ायदा उठाने में क्या गलत है?
इंडियन एक्सप्रेस में भारत के परमाणु आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवासन का एक लेख है, उसके अनुसार भारत को फ़िलहाल यूरेनियम की सख्त आवश्यकता है, जबकि भारत की धरती में लगभग एक लाख टन यूरेनियम होने की सम्भावना है, जिसका दोहन किया जाना अभी बाकी है। यदि भारत-अमेरिका करार हो गया और उसे आईएईए की मंजूरी मिल गई तो हम यूरेनियम कहीं से भी खरीद सकते हैं, अमेरिका से ही लें यह कोई जरूरी तो नहीं। सन् 2050 तक भारत की ऊर्जा जरूरतें थोरियम-यूरेनियम 233 से पूरी होने लगेंगी। पोखरण-2 के बाद तिलमिलाये हुए अमेरिका ने हम पर कई आरोप लगाकर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये, आज वही अमेरिका खुद आगे होकर हमसे परमाणु समझौता करने को बेताब हो रहा है, क्योंकि वह जान चुका है कि भारत से अब और पंगा लेना ठीक नहीं, उसे हमारी जरूरत है और हम हैं कि शंका-कुशंका के घेरे में फ़ँसे हुए खामख्वाह उसे लटका रहे हैं, जबकि हम अपने हित की कुछ शर्तें थोपकर उससे काफ़ी फ़ायदा उठा सकते हैं।
एक बार समझौता हो तो जाने दें, अमेरिका के हित भी हमसे जुड़ जायेंगे, हमारे वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीकें और नये-नये उपकरण मिलेंगे, शोध में तेजी आयेगी जिससे भारत निर्मित थोरियम रिएक्टरों की राह आसान बनेगी। यदि अमेरिका हमसे फ़ायदा उठाना चाहता है, तो हम बेवकूफ़ क्यों बने रहें, हम भी अपना फ़ायदा देखें। यदि खुदा न खास्ता आने वाले भविष्य में समझौते में कोई पेंच दिखाई दिया, या कोई विवाद की स्थिति बनी, तो “हम चले अपने घर, तू जा अपने घर…” भी कहा जा सकता है, और हो सकता है कि आने वाले दस वर्षों में भारत का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों युवा हों, तब तक भारत की युवा शक्ति विश्व में अपना लोहा मनवा चुकी होगी, फ़िर डरना कैसा? क्या हमें अपने आने वाले युवाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि कब्र में पैर लटकाये हुए कुछ “कछुए” और कुछ “धर्मनिरपेक्ष” मेंढक, इस समझौते का विरोध कर रहे हैं? राजनेता (चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी) वोट के लिये सौ बार झूठ बोलेगा, लेकिन कलाम और काकोड़कर को कोई चुनाव नहीं लड़ना है…
खैर… सारे झमेले में फ़िर भी एक बात तो दमदार है कि, प्याज के मुद्दे पर गिरने वाली सरकारें आज परमाणु मुद्दे पर गिरने जा रही हैं, कौन कहता है कि भारत ने तरक्की नहीं की…
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सबसे अधिक “चिल्लपों” मची हुई है, भारत की परमाणु भट्टियों के निरीक्षण को लेकर… पता नहीं उसमें ऐसा क्या है? भारत परमाणु शक्ति का शांतिपूर्ण उपयोग करने वाला एक जिम्मेदार देश है, हम पहले से ही परमाणु अस्त्र सम्पन्न हैं, यदि कभी निरीक्षण करने की नौबत आई और निरीक्षण दल में यदि अमेरिकी ही भरे पड़े हों तो भी उसमें इतना हल्ला मचाने की क्या जरूरत है? अक्सर हमें “अखण्डता”, “सार्वभौमिकता” आदि बड़े-बड़े शब्द सुनाई दे जाते हैं, लेकिन अपनी गिरेबाँ में झाँककर देखो कि वाकई में भारत कितना “अखण्ड” है और उसकी नीतियों में कितनी “सार्वभौमिकता” है? सरेआम पोल खुल जायेगी…
भारत के तमाम पड़ोसियों में से एक भी विश्वास के काबिल नहीं है (एक नेपाल बचा था, वह भी लाल हो गया), ऐसे में परमाणु करार के बहाने यदि हमारी अमेरिका से नज़दीकी बढ़ती है तो बुरा क्या है? वामपंथी यदि सत्ता में आते ही चार साल पहले से थोरियम रिएक्टर की मांग करते तो उनका क्या बिगड़ जाता? एक घटिया से मुद्दे पर सरकार गिराने चले हैं और उधर चीन अरुणाचल पर अपना दावा ठोंक रहा है, काहे की सार्वभौमिकता? और अमेरिका का विरोध क्यों? भारतवासियों में एक सर्वे किया जाना चाहिये कि वे अमेरिका पर अधिक विश्वास करते हैं या चीन पर? वामपंथियों की आँखें खुल जायेंगी…
और अन्त में सबसे बड़ी बात तो यही है कि किन्हीं दो देशों, या दो शक्तियों में कोई भी समझौता आपसी फ़ायदे के लिये होता है, उस समझौते को जब मर्जी आये तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। ऐसा कहाँ लिखा है कि भारत को अपने तमाम समझौतों का पालन ताज़िन्दगी करते ही रहना होगा। जब हमारी सुविधा होगी तब हम अपना नया रास्ता पकड़ेंगे, जैसे राजनीति में नहीं, वैसे ही कूटनीति में “नैतिकता” का क्या काम? हिटलर ने रूस से समझौता किया था, लेकिन उसी ने रूस पर हमला किया, पाकिस्तान हमेशा इस्लाम-इस्लाम भजता रहता है, लेकिन वही अमेरिका से सबसे अधिक पैसा और हथियार लेता है, उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बनाने की धमकी देकर अमेरिका और यूरोपीय संघ से अच्छा माल झटक लिया है, चीन ने सरेआम अपनी नदियों का रास्ता मोड़ लिया है और आगे जाकर वह भारत को ही दुख देगा (मतलब यह कि हरेक देश को अपना फ़ायदा सोचना चाहिये, लेकिन “भारत महान” को “लोग क्या कहेंगे…” की फ़िक्र ज्यादा सताती है)। रही बात गुटनिरपेक्षता की, तो अब कहाँ हैं कोई “गुट” और किससे निभायें “निरपेक्षता”? जब अमेरिका ही विश्व का सर्वेसर्वा बन चुका है, चीन उसको चुनौती दे रहा है (यही सच है कि हम अगले 25 वर्षों में भी दोनो की बराबरी नहीं कर सकते हैं), तो फ़िर मौके का फ़ायदा उठाने में क्या गलत है?
इंडियन एक्सप्रेस में भारत के परमाणु आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवासन का एक लेख है, उसके अनुसार भारत को फ़िलहाल यूरेनियम की सख्त आवश्यकता है, जबकि भारत की धरती में लगभग एक लाख टन यूरेनियम होने की सम्भावना है, जिसका दोहन किया जाना अभी बाकी है। यदि भारत-अमेरिका करार हो गया और उसे आईएईए की मंजूरी मिल गई तो हम यूरेनियम कहीं से भी खरीद सकते हैं, अमेरिका से ही लें यह कोई जरूरी तो नहीं। सन् 2050 तक भारत की ऊर्जा जरूरतें थोरियम-यूरेनियम 233 से पूरी होने लगेंगी। पोखरण-2 के बाद तिलमिलाये हुए अमेरिका ने हम पर कई आरोप लगाकर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये, आज वही अमेरिका खुद आगे होकर हमसे परमाणु समझौता करने को बेताब हो रहा है, क्योंकि वह जान चुका है कि भारत से अब और पंगा लेना ठीक नहीं, उसे हमारी जरूरत है और हम हैं कि शंका-कुशंका के घेरे में फ़ँसे हुए खामख्वाह उसे लटका रहे हैं, जबकि हम अपने हित की कुछ शर्तें थोपकर उससे काफ़ी फ़ायदा उठा सकते हैं।
एक बार समझौता हो तो जाने दें, अमेरिका के हित भी हमसे जुड़ जायेंगे, हमारे वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीकें और नये-नये उपकरण मिलेंगे, शोध में तेजी आयेगी जिससे भारत निर्मित थोरियम रिएक्टरों की राह आसान बनेगी। यदि अमेरिका हमसे फ़ायदा उठाना चाहता है, तो हम बेवकूफ़ क्यों बने रहें, हम भी अपना फ़ायदा देखें। यदि खुदा न खास्ता आने वाले भविष्य में समझौते में कोई पेंच दिखाई दिया, या कोई विवाद की स्थिति बनी, तो “हम चले अपने घर, तू जा अपने घर…” भी कहा जा सकता है, और हो सकता है कि आने वाले दस वर्षों में भारत का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों युवा हों, तब तक भारत की युवा शक्ति विश्व में अपना लोहा मनवा चुकी होगी, फ़िर डरना कैसा? क्या हमें अपने आने वाले युवाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि कब्र में पैर लटकाये हुए कुछ “कछुए” और कुछ “धर्मनिरपेक्ष” मेंढक, इस समझौते का विरोध कर रहे हैं? राजनेता (चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी) वोट के लिये सौ बार झूठ बोलेगा, लेकिन कलाम और काकोड़कर को कोई चुनाव नहीं लड़ना है…
खैर… सारे झमेले में फ़िर भी एक बात तो दमदार है कि, प्याज के मुद्दे पर गिरने वाली सरकारें आज परमाणु मुद्दे पर गिरने जा रही हैं, कौन कहता है कि भारत ने तरक्की नहीं की…
Nuclear Deal, India USA Relationship, IAEA, Uranium Reactors, Thorium Reactor, Abdul Kalam, Anil Kakodkar, India’s Energy Requirement, China, Increasing Petrol-Diesel Prices, परमाणु करार, अमेरिका-भारत सम्बन्ध, आईएईए, यूरेनियम रिएक्टर, थोरियम, अब्दुल कलाम, अनिल काकोड़कर, भारत की ऊर्जा जरूरतें, पेट्रोल-डीजल कीमतें, चीन, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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रविवार, 13 जुलाई 2008 17:01
परमाणु करार – कांग्रेस द्वारा एक पत्थर से कई शिकार
Indo-US Nuclear Deal Politics
सारे देश में एक “अ-मुद्दे” पर बहस चल रही है, जबकि मुद्दा होना चाहिये था “भारत की ऊर्जा जरूरतें कैसे पूरी हों?”, लेकिन यही भारतीय राजनीति और समाज का चरित्र है। इस वक्त हम विश्लेषण करते हैं भारत की अन्दरूनी राजनीति और उठापटक का… कहते हैं कि भारत में बच्चा भी पैदा होता है तो राजनीति होती है और जब बूढ़ा मरता है तब भी… तो भला ऐसे में परमाणु करार जैसे संवेदनशील मामले पर राजनीति न हो, यह नहीं हो सकता…।
पिछले एक माह से जारी इस सारे राजनैतिक खेल में सबसे प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर उभरी है कांग्रेस। कांग्रेस ने एक पत्थर से कई पक्षी मार गिराये हैं (या मारने का प्लान बनाया है)। पिछले चार साल तक वामपंथियों का बोझा ढोने के बाद एकाएक मनमोहन सिंह का “मर्द” जागा और उन्होंने वामपंथियों को “परे-हट” कह दिया। चार साल पहले वामपंथियों की कांग्रेस को सख्त जरूरत थी, ताकि एक “धर्मनिरपेक्ष”(??) सरकार बनाई जा सके, मिल-बाँटकर मलाई खाई जा सके। चार साल तक तो बैठकों, चाय-नाश्ते के दौर चलते रहे, फ़िर आया 2008, जब मार्च के महीने से महंगाई अचानक बढ़ना शुरु हुई और देखते-देखते इसने 11% का आंकड़ा छू लिया। कांग्रेसियों के हाथ-पाँव फ़ुलाने के लिये यह काफ़ी था, क्योंकि दस-ग्यारह माह बाद उन्हें चुनावी महासमर में उतरना है। महंगाई की कोई काट नहीं सूझ रही, न ही ऐसी कोई उम्मीद है कि अगले साल तक महंगाई कुछ कम होगी, ऐसे में कांग्रेस को सहारा मिला समाजवादी पार्टी (सपा) का। दोनों पार्टियाँ उत्तरप्रदेश में मायावती की सताई हुई हैं, एक से भले दो की तर्ज पर “मैनेजर” अमरसिंह का हाथ कांग्रेस ने थाम लिया। कांग्रेस जानती है कि नंदीग्राम, सिंगूर आदि के मुद्दे पर बंगाल में और भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता के मुद्दे पर केरल में वामपंथी दबे हुए हैं और उन्हें खुद अगले चुनाव में ज्यादा सीटें मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, जबकि प्रधानमंत्री बनने (बहुमत) का रास्ता उत्तरप्रदेश और बिहार से होकर गुजरता है। मायावती नामक “हैवीवेट” से निपटने के लिये दो “लाइटवेट” साथ लड़ेंगे, और बिहार में लालू तो एक तरह से सोनिया के दांये हाथ ही बन गये हैं, ऐसे में इस समय वामपंथियों को आराम से लतियाया जा सकता था, और वही किया गया।
अब देखिये एक परमाणु मुद्दे ने कांग्रेस को क्या-क्या दिलाया –
1) एक “टेम्परेरी” दोस्त दिलाया जो उत्तरप्रदेश (जहाँ कांग्रेस लगभग जीरो है) में उन्हें कुछ तो फ़ायदा दिलायेगा, बसपा और सपा को आपस में भिड़ाकर कांग्रेस मजे लेगी, सपा के कुछ मुसलमान वोट भी कांग्रेस की झोली में आ गिरने की सम्भावना है।
2) “तीसरा मोर्चा” नाम की जो हांडी-खिचड़ी पकने की कोशिश हो रही थी, एक झटके में फ़ूट गई और दाना-दाना इधर-उधर बिखर गया, और यदि सरकार गिरती भी है तो हल्ला मचाया जा सकता है कि “देखो-देखो…राष्ट्रहित में हमने अपनी सरकार बलिदान कर दी, लेकिन वामपंथियों के आगे नहीं झुके… आदि” (वैसे भी कांग्रेस और उसके भटियारे चमचे, “त्याग-बलिदान” आदि को बेहतरीन तरीके से सजाकर माल खाते हैं), और इसकी शुरुआत भी अखबारों में परमाणु करार के पक्ष में विज्ञापन देकर शुरु की जा चुकी है।
3) यदि सरकार गिरी तो ठीकरा विपक्ष के माथे, खासकर वामपंथियों के… और यदि सरकार नहीं गिरी तो एक साल का समय और मिल जायेगा, पहले वामपंथियों की भभकियाँ सुनते थे, अब सपाईयों की सौदेबाजी सहेंगे, कौन सा कांग्रेस की जेब से जा रहा है।
इस राजनैतिक खेल में सबसे घाटे में यदि कोई रहा तो वह हैं “लाल मुँह के कॉमरेड” (कांग्रेसी चाँटे और शर्म से लाल हुए)। यदि वे महंगाई के मुद्दे पर सरकार गिराते तो कुछ सहानुभूति मिल जाती, लेकिन समर्थन वापस लेने का बहाना बनाया भी तो क्या घटिया सा!! असल में चार साल तक सत्ता की मौज चखने के दौरान आँखों पर चढ़ चुकी चर्बी के कारण महंगाई उन्हें नहीं दिखी, लेकिन बुढ़ाते हुए पंधे साहब को परमाणु करार के कारण मुस्लिम वोट जरूर दिख गये, इसे कहते हैं परले दर्जे की सिद्धांतहीनता, अवसरवाद और राजनैतिक पाखंड। भाजपा फ़िलहाल “मन-मन भावे, ऊपर से मूँड़ हिलावे” वाली मुद्रा अपनाये हुए है, क्योंकि यदि वह सत्ता में होती तो कांग्रेस से भी तेजी से इस समझौते को निपटाती (समझौते की शुरुआत उन्होंने ही की थी)। भाजपा को लग रहा है कि “सत्ता का आम” बस मुँह में टपकने ही वाला है उसे सिर्फ़ वक्त का इंतजार करना है… हालांकि यह मुगालता उसे भारी पड़ सकता है, क्योंकि यदि सरकार नहीं गिरी, चुनाव अगले साल ही हुए, मानसून बेहतर रहा और कृषि उत्पादन बम्पर होने से कहीं महंगाई दर कम हो गई, तो चार राज्यों में जहाँ भाजपा सत्ता में है वहाँ “सत्ता-विरोधी” (Anti-incumbency) वोट पड़ने से कहीं मामला उलट न जाये और एक बार फ़िर से “धर्मनिरपेक्षता” की बाँग लगाते हुए कांग्रेस सत्ता में आ जाये। कांग्रेस के लिये तो यह मामला एक जुआ ही है, वैसे भी जनता तो नाराज है ही, यदि इन चालबाजियों से “सत्ता के अंकों” (यानी 272 मुंडियाँ) के नजदीक भी पहुँच गये तो फ़िर वामपंथियों को मजबूरन, यानी कि “सांप्रदायिक ताकतों” को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर (इस वाक्य को पढ़कर कृपया हँसें नहीं) कांग्रेस का साथ देना ही पड़ेगा…
तो भाइयों कुल मिलाकर यह है सारा कांग्रेस का खेल… जबकि “कम्युनिस्ट” बन गये हैं इस खेल में “तीसरे जोकर”, जिसका वक्त आने पर “उपयोग” कर लिया जायेगा और फ़िर वक्त बदलने पर फ़ेंक दिया जायेगा… आखिर “धर्मनिरपेक्षता”(?) सबसे बड़ी चीज़ है…
अब सबसे अन्त में जरा “कम्युनिस्ट” (COMMUNIST) शब्द का पूरा अर्थ जान लीजिये –
C = Cheap
O = Opportunists
M = Marionette (controller - China)
M = Mean
U = Useless
N = Nuts
I = Indolents
S = Slayers
T = Traitors
क्या अब भी आपको कम्युनिस्टों की “महानता” पर शक है?
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सारे देश में एक “अ-मुद्दे” पर बहस चल रही है, जबकि मुद्दा होना चाहिये था “भारत की ऊर्जा जरूरतें कैसे पूरी हों?”, लेकिन यही भारतीय राजनीति और समाज का चरित्र है। इस वक्त हम विश्लेषण करते हैं भारत की अन्दरूनी राजनीति और उठापटक का… कहते हैं कि भारत में बच्चा भी पैदा होता है तो राजनीति होती है और जब बूढ़ा मरता है तब भी… तो भला ऐसे में परमाणु करार जैसे संवेदनशील मामले पर राजनीति न हो, यह नहीं हो सकता…।
पिछले एक माह से जारी इस सारे राजनैतिक खेल में सबसे प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर उभरी है कांग्रेस। कांग्रेस ने एक पत्थर से कई पक्षी मार गिराये हैं (या मारने का प्लान बनाया है)। पिछले चार साल तक वामपंथियों का बोझा ढोने के बाद एकाएक मनमोहन सिंह का “मर्द” जागा और उन्होंने वामपंथियों को “परे-हट” कह दिया। चार साल पहले वामपंथियों की कांग्रेस को सख्त जरूरत थी, ताकि एक “धर्मनिरपेक्ष”(??) सरकार बनाई जा सके, मिल-बाँटकर मलाई खाई जा सके। चार साल तक तो बैठकों, चाय-नाश्ते के दौर चलते रहे, फ़िर आया 2008, जब मार्च के महीने से महंगाई अचानक बढ़ना शुरु हुई और देखते-देखते इसने 11% का आंकड़ा छू लिया। कांग्रेसियों के हाथ-पाँव फ़ुलाने के लिये यह काफ़ी था, क्योंकि दस-ग्यारह माह बाद उन्हें चुनावी महासमर में उतरना है। महंगाई की कोई काट नहीं सूझ रही, न ही ऐसी कोई उम्मीद है कि अगले साल तक महंगाई कुछ कम होगी, ऐसे में कांग्रेस को सहारा मिला समाजवादी पार्टी (सपा) का। दोनों पार्टियाँ उत्तरप्रदेश में मायावती की सताई हुई हैं, एक से भले दो की तर्ज पर “मैनेजर” अमरसिंह का हाथ कांग्रेस ने थाम लिया। कांग्रेस जानती है कि नंदीग्राम, सिंगूर आदि के मुद्दे पर बंगाल में और भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता के मुद्दे पर केरल में वामपंथी दबे हुए हैं और उन्हें खुद अगले चुनाव में ज्यादा सीटें मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, जबकि प्रधानमंत्री बनने (बहुमत) का रास्ता उत्तरप्रदेश और बिहार से होकर गुजरता है। मायावती नामक “हैवीवेट” से निपटने के लिये दो “लाइटवेट” साथ लड़ेंगे, और बिहार में लालू तो एक तरह से सोनिया के दांये हाथ ही बन गये हैं, ऐसे में इस समय वामपंथियों को आराम से लतियाया जा सकता था, और वही किया गया।
अब देखिये एक परमाणु मुद्दे ने कांग्रेस को क्या-क्या दिलाया –
1) एक “टेम्परेरी” दोस्त दिलाया जो उत्तरप्रदेश (जहाँ कांग्रेस लगभग जीरो है) में उन्हें कुछ तो फ़ायदा दिलायेगा, बसपा और सपा को आपस में भिड़ाकर कांग्रेस मजे लेगी, सपा के कुछ मुसलमान वोट भी कांग्रेस की झोली में आ गिरने की सम्भावना है।
2) “तीसरा मोर्चा” नाम की जो हांडी-खिचड़ी पकने की कोशिश हो रही थी, एक झटके में फ़ूट गई और दाना-दाना इधर-उधर बिखर गया, और यदि सरकार गिरती भी है तो हल्ला मचाया जा सकता है कि “देखो-देखो…राष्ट्रहित में हमने अपनी सरकार बलिदान कर दी, लेकिन वामपंथियों के आगे नहीं झुके… आदि” (वैसे भी कांग्रेस और उसके भटियारे चमचे, “त्याग-बलिदान” आदि को बेहतरीन तरीके से सजाकर माल खाते हैं), और इसकी शुरुआत भी अखबारों में परमाणु करार के पक्ष में विज्ञापन देकर शुरु की जा चुकी है।
3) यदि सरकार गिरी तो ठीकरा विपक्ष के माथे, खासकर वामपंथियों के… और यदि सरकार नहीं गिरी तो एक साल का समय और मिल जायेगा, पहले वामपंथियों की भभकियाँ सुनते थे, अब सपाईयों की सौदेबाजी सहेंगे, कौन सा कांग्रेस की जेब से जा रहा है।
इस राजनैतिक खेल में सबसे घाटे में यदि कोई रहा तो वह हैं “लाल मुँह के कॉमरेड” (कांग्रेसी चाँटे और शर्म से लाल हुए)। यदि वे महंगाई के मुद्दे पर सरकार गिराते तो कुछ सहानुभूति मिल जाती, लेकिन समर्थन वापस लेने का बहाना बनाया भी तो क्या घटिया सा!! असल में चार साल तक सत्ता की मौज चखने के दौरान आँखों पर चढ़ चुकी चर्बी के कारण महंगाई उन्हें नहीं दिखी, लेकिन बुढ़ाते हुए पंधे साहब को परमाणु करार के कारण मुस्लिम वोट जरूर दिख गये, इसे कहते हैं परले दर्जे की सिद्धांतहीनता, अवसरवाद और राजनैतिक पाखंड। भाजपा फ़िलहाल “मन-मन भावे, ऊपर से मूँड़ हिलावे” वाली मुद्रा अपनाये हुए है, क्योंकि यदि वह सत्ता में होती तो कांग्रेस से भी तेजी से इस समझौते को निपटाती (समझौते की शुरुआत उन्होंने ही की थी)। भाजपा को लग रहा है कि “सत्ता का आम” बस मुँह में टपकने ही वाला है उसे सिर्फ़ वक्त का इंतजार करना है… हालांकि यह मुगालता उसे भारी पड़ सकता है, क्योंकि यदि सरकार नहीं गिरी, चुनाव अगले साल ही हुए, मानसून बेहतर रहा और कृषि उत्पादन बम्पर होने से कहीं महंगाई दर कम हो गई, तो चार राज्यों में जहाँ भाजपा सत्ता में है वहाँ “सत्ता-विरोधी” (Anti-incumbency) वोट पड़ने से कहीं मामला उलट न जाये और एक बार फ़िर से “धर्मनिरपेक्षता” की बाँग लगाते हुए कांग्रेस सत्ता में आ जाये। कांग्रेस के लिये तो यह मामला एक जुआ ही है, वैसे भी जनता तो नाराज है ही, यदि इन चालबाजियों से “सत्ता के अंकों” (यानी 272 मुंडियाँ) के नजदीक भी पहुँच गये तो फ़िर वामपंथियों को मजबूरन, यानी कि “सांप्रदायिक ताकतों” को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर (इस वाक्य को पढ़कर कृपया हँसें नहीं) कांग्रेस का साथ देना ही पड़ेगा…
तो भाइयों कुल मिलाकर यह है सारा कांग्रेस का खेल… जबकि “कम्युनिस्ट” बन गये हैं इस खेल में “तीसरे जोकर”, जिसका वक्त आने पर “उपयोग” कर लिया जायेगा और फ़िर वक्त बदलने पर फ़ेंक दिया जायेगा… आखिर “धर्मनिरपेक्षता”(?) सबसे बड़ी चीज़ है…
अब सबसे अन्त में जरा “कम्युनिस्ट” (COMMUNIST) शब्द का पूरा अर्थ जान लीजिये –
C = Cheap
O = Opportunists
M = Marionette (controller - China)
M = Mean
U = Useless
N = Nuts
I = Indolents
S = Slayers
T = Traitors
क्या अब भी आपको कम्युनिस्टों की “महानता” पर शक है?
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