Super User

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I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai. 


I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

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How Coward Hindus Face Problems
आत्मपीड़ा और स्व-आलोचना का यदि कोई पैमाना मानें तो हिन्दुओं का स्थान उसमें विश्व में सबसे ऊपर आता है। विगत सौ वर्षों में “खुद से घृणा करने की कला” में हिन्दुओं ने महारत हासिल कर ली है। राजनेता, मीडिया, तथाकथित सेक्यूलर, बुद्धिजीवी(?), मानवाधिकार कार्यकर्ता जो हिन्दुओं को गाली देने में सबसे आगे रहते हैं उनमें ज्यादातर हिन्दू ही हैं। हिन्दुओं का सबसे बड़ा दुश्मन आज की तारीख में कोई है तो वह है “हिन्दू”।

हिन्दुओं के दिमाग को समझना काफ़ी आसान है, इस लेख में पलायनवादी और कायर हिन्दुओं की मानसिकता को समझने की कोशिश की गई है। जब भी हिन्दुओं पर कोई संकट आता है, या कोई समस्या उत्पन्न होती है, या कोई घटना उन्हें नुकसान पहुँचा सकती है, तब हिन्दू समस्या का सामना कैसे करते हैं? किसी भी मुश्किल या समस्या से निपटने के तो तरीके होते हैं, पहला उसे समस्या मानो और उसका मुकाबला करो, उस समस्या का समाधान ढूंढने के लिये उपाय करो, और कुछ कदम उठाओ तथा दूसरा तरीका है संकट या समस्या को समस्या मानो ही मत। यदि हिन्दू हित की कोई समस्या है और उसके हल के लिये कदम उठाना पड़ें तो जाहिर है कि विवाद होंगे, तनाव होगा, झगड़े होंगे, आक्रमण करना पड़ेगा, जबकि यदि हम समस्या को समस्या मानें ही नहीं तो क्या होगा, कुछ नहीं, कोई झगड़ा-टंटा नहीं, कोई विवाद नहीं, कोई लड़ाई नहीं। सीधी सी बात यही है कि दूसरा रास्ता ज्यादा आसान है, पहला वाला कठिन है। बरसों से हिन्दू दूसरा वाला रास्ता अपनाते आये हैं, समस्या की अनदेखी करो, रेत में शतुरमुर्ग की तरह अपना सिर छुपा लो, लेकिन उससे तूफ़ान का खतरा कम नहीं हो जाता, बल्कि और बढ़ जाता है। सुविधाभोगी और कायर हिन्दू अपना “आज” सुविधाजनक बनाने के लिये अपने “कल” को मुश्किलों के हवाले कर रहे हैं।

फ़िर सवाल उठता है कि आखिर ये कायर हिन्दू अपनी समस्याओं को सुलझाते कैसे हैं? कई तरीकों में से सबसे आसान तरीका होता है खुद हिन्दुओं पर, अपने भाई-बन्धुओं पर “सांप्रदायिक” होने का आरोप लगाकर। सबसे पहले “घरघुस्सू” बुद्धिजीवी हिन्दू खुद ही हिन्दुओं पर “संकीर्ण विचारधारा वाले” (Narrow Minded), कट्टरपंथी (Fundamentalist) आदि होने का आरोप करेगा। जाहिर है कि हिन्दू द्वारा हिन्दू पर शाब्दिक हमला करना आसान होता है, क्योंकि हिन्दू खुद ही कम आक्रामक और कम हिंसक है। जबकि असली दुश्मन से निपटना उन बुद्धिजीवियों के लिये काफ़ी मुश्किल है, इसलिये हिन्दू बुद्धिजीवी “संत” होने का ढोंग रचता है और अपने ही धर्म के लोगों को खरी-खोटी सुनाने का उपक्रम करता है। क्योंकि उसे मालूम है कि यदि उसने दूसरे धर्म के खिलाफ़ कुछ कहा तो जूते खाना निश्चित है। ऐसे में नेता, मीडिया, धर्मनिरपेक्ष(?) सभी लोग एक सुर में हिन्दुओं को ही कट्टरवादी और दंगों के लिये दोषी बताने लगते हैं, क्योंकि उनमें यह नैतिक और मानसिक ताकत नहीं होती कि वे “जेहाद”, “आतंकवाद” को गलत ठहरा सकें या उसकी कड़ी आलोचना कर सकें। लगे हाथों हमारे महान मानवाधिकारवादी भी आतंकवादियों और अपराधियों के मानवाधिकारों को लेकर बेहद चिंतित हो जाते हैं, भले ही कश्मीरी पंडित अपने ही देश में सड़ते रहें। हम हिन्दू कभी भी बढ़ती हुई मुसलमान आबादी या तेज होते जा रहे ईसाई धर्मान्तरण को लगातार नजरअंदाज करते जाते हैं। हम ये कभी मानते ही नहीं कि ये कोई समस्या है, या इससे हिन्दुओं को या भारत को खतरा है। है न मजेदार तरीका समस्या से निपटने का, बस उसे नजर-अंदाज कर दो। हिन्दू बुद्धिजीवी इस बात पर भी कभी बहस नहीं करते कि कश्मीर से हिन्दुओं को चुन-चुनकर भगा दिया गया है, उन्हें चिंता होती है फ़िलिस्तीन की या फ़िजी की। यदि गलती से कभी बहस कर भी ली तो उसके हल के नाम पर शून्य, अमेरिका-पाकिस्तान का मुँह तकते रहेंगे जिन्दगी भर, ये है "टिपीकल" धर्मनिरपेक्षतावादी तरीका।



हिन्दुओं ने इतिहास से कभी सबक न सीखने की कसम खा रखी है। सारे आँकड़े और तथ्य चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि अगले बीस वर्षों के भीतर हम दूसरे विभाजन की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन मीडिया और बुद्धिजीवी इसे नहीं मानेंगे। इसके बजाय वे उन संस्थाओं की आलोचना करेंगे जो कि धर्म आधारित जनगणना करती हैं। जब उन्हें धर्म आधारित जनगणना के आँकड़े बताये जायेंगे तो वे उसे खारिज कर देंगे और उसे “बकवास” और एक “सेक्यूलर” देश में गैरजरूरी बतायेंगे। इसके पीछे का उद्देश्य साफ़ होता है, तथाकथित बुद्धिजीवी मुख्य मुद्दे को दरकिनार करके जनसंख्या के आँकड़ों को ही गलत बताकर उसे मुख्य मुद्दा बना देंगे, इससे असली मुद्दे पर पलायन करने में आसानी होती है। सनद रहे कि 1948 में जिन उत्तर-पूर्वी राज्यों में हिन्दू जनसंख्या बहुसंख्यक थी उनमें से पाँच राज्यों में 2001 की जनगणना के अनुसार ईसाई बहुसंख्यक हो गये हैं, जबकि असम में मुसलमान जनसंख्या तेजी से बढ़कर 32% तक हो गई है और किसी-किसी जिले में यह 60% तक है, लेकिन कायर हिन्दू बुद्धिजीवी इसे बकवास कहकर टाल देंगे।

मुसलमान संप्रदाय को मुख्य धारा में लाने के लिये उनमें आधुनिक शिक्षा का प्रसार जरूरी है, परिवार नियोजन अपनाने पर बल देना जरूरी है, उन्हें यह समझाने की जरूरत है कि अवैध बांग्लादेशियों को पनाह देने की बजाय पुलिस में रिपोर्ट करें, लेकिन इसके लिये पहले “समस्या” को “समस्या” मानना होगा न!!! उससे लड़ना होगा, लेकिन पलायन में माहिर हिन्दू बुद्धिजीवी ये नहीं करेंगे। इसलिये जब उमा भारती को हुबली में “विवादित स्थल” पर तिरंगा फ़हराने के आरोप में गिरफ़्तार किया जाता है तब हमारे ही हिन्दू भाई-बन्धु कभी ये जानने की कोशिश नहीं करते कि कथित विवादित स्थल “विवादित” क्यों है, वह विवादित कब और कैसे बना, क्या देश में कहीं भी तिरंगा फ़हराना विवादित हो सकता है? ये जानने की बजाय बुद्धिजीवी भाजपा को कोसने लगते हैं कि वह खामख्वाह विवादित मुद्दों को हवा दे रही है, दंगे करवाना चाहती है, हिन्दू वोटों के लिये यह सब कर रही है आदि-आदि। यही बुद्धिजीवी “भावनाओं को चोट पहुँचने” के आधार पर वन्देमातरम का गायन ऐच्छिक कर देते हैं। जब शंकराचार्य को गिरफ़्तार किया जाता है तब हमें सीख दी जाती है कि “कानून सबके लिये बराबर है, कानून का पालन करना चाहिये…” मीडिया में कहीं यह चर्चा नहीं की जाती कि हो सकता है कि इसके पीछे भी किसी की साजिश हो, यहाँ तक कि जब शंकराचार्य सुप्रीम कोर्ट से बाइज्जत बरी हो जायें तब भी उस खबर को पीछे के पन्ने पर कहीं कोने में छापा जायेगा, भले ही अफ़जल गुरु को फ़ाँसी देने में टालमटोल की जाती रहे (उस वक्त “कानून” और सुप्रीम कोर्ट जाने कहाँ चला जाता है)।

असल में हिन्दुओं में ही काफ़ी सारे “अवैध और काले पैसे वाले”, कुछ “डरपोक” और कुछ “सेक्यूलर” दिमाग वाले गद्दार भरे हुए हैं। इन लोगों को बांग्लादेशियों के अवैध घुसपैठ में कोई समस्या नजर नहीं आती, इन्हें मदरसों से चलाये जा रहे अभियान दिखाई नहीं देते, इन्हें चर्च द्वारा आदिवासियों के बीच किये जा रहे धर्मान्तरण में कुछ भी गैरवाजिब नहीं लगता। ये लोग सोमनाथ मन्दिर को सरकारी पैसे से बनवाने का विरोध करेंगे लेकिन मस्जिदों को प्रतिवर्ष दिये जा रहे करोड़ों रुपये की मदद पर चुप्पी साध जायेंगे। यदि शिक्षा पद्धति में “वैदिक गणित” या “नैतिक शिक्षा” की बात भर की जाये तो उन्हें “भगवाकरण” का खतरा दिखाई देने लगता है, सरस्वती वन्दना के विरोध में भी ये लोग “धर्म” ढूंढ लेते हैं। इनके अनुसार वनवासी क्षेत्रों में सिर्फ़ और सिर्फ़ “चर्च” ही समाजसेवा कर रहा है, बाकी के सब लोग वहाँ शोषण कर रहे हैं।



हकीकत तो ये है कि यदि इन समस्याओं को हम लोग समस्या मानें तो इसके निदान के लिये हमे “कुछ” करना पड़ेगा, लेकिन भगोड़ी मानसिकता वाले हिन्दू कुछ करना नहीं चाहते, इसलिये संकट के हल की बात नहीं उठती। बस लगातार प्रचार करते रहो कि हिन्दू धर्म सहनशील है, अनेकता में एकता का समर्थक है, हिन्दू धर्म आध्यात्म से भरपूर है और कभी हिंसा की पैरवी नहीं करता आदि-आदि। हिन्दुओं का खूब सारा समय, पैसा और ऊर्जा विभिन्न प्रकार की पूजाओं, यज्ञों, भागवत कथाओं, बाबाओं और स्वामियों की चरण-वन्दना जैसे निकम्मे कामों में खर्च होता है। जमाने भर को “गीता के कर्म के सिद्धांत” की दुहाई देते नहीं थकते, लेकिन जब खुद कुछ सच्चा कर्म करने की बारी आती है तो पीठ दिखा कर भाग जाते हैं। जिस गीता में अधिकतर हिन्दुओं का विश्वास है, जिस गीता पर हाथ रखकर कसमें खाई जाती हैं, उसमें स्पष्ट लिखा है कि अधर्म के खिलाफ़ लड़ना हरेक का कर्तव्य है, बल्कि अधर्म का नाश करने के लिये यदि कृष्ण की तरह चालबाजियाँ भी करना पड़ें तो भी कोई हर्ज नहीं, उसी गीता को हम भूल चुके हैं। अपना नपुंसकतावाद छिपाने के लिये हमने “सेक्यूलर” और “अहिंसा” का मुखौटा ओढ़ लिया है। अहिंसा के मूल सिद्धांत को हमने अपनी “अकर्मण्यता” छिपाने के लिये उपयोग कर लिया है। जबकि महात्मा गाँधी ने खुद एक जगह लिखा है “My own experiences but confirm the opinion that the Mussalman as a rule is a bully, and the Hindu is a coward; where there are cowards there will always be bullies.” अर्थात “मुसलमान जब शासक बनता है तब वह निर्दयी और दबंग होता है, जबकि हिन्दू शासक डरपोक…” यहाँ तक कि एक बार उन्होंने यह भी कहा कि “यदि मुझे डरपोक और अत्याचार सहन करने तथा हिंसा में से एक को चुनना पड़े तो मैं हिंसा पसन्द करूँगा…भले ही अहिंसा मेरा सिद्धांत हो”। लेकिन शतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाये बैठे हिन्दू ये सोचते रहते हैं कि तूफ़ान नहीं आने वाला या अपने-आप टल जायेगा। उसकी इस मानसिकता को हवा देते रहते हैं हिन्दू बुद्धिजीवी और कथित धर्मनिरपेक्ष लोग, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि बांग्लादेश से घुसपैठ रोकी जाये, पाकिस्तान से आतंकवाद पर सीधी बात की जाये, देश के नागरिकों में देशप्रेम की भावना जगाना, आतंकवादियों को खदेड़-खदेड़ कर मारना, जो आतंकवादी और दुर्दान्त आतंकवादी पकड़ में आ जायें उन्हें तत्काल मार गिराना, पुलिस तंत्र में शामिल राजनीति, खुफ़िया तंत्र को मजबूत करना, जैसे कठोर उपाय किये बिना हम यूँ ही सतत जूते खाते रहेंगे। पाकिस्तान, बांग्लादेश या देश में रह रहे कुछेक गद्दार लोग हिन्दुओं के उतने बड़े दुश्मन नहीं है, असली दुश्मन तो हैं हमारे अपने ही लोग, वे लोग जो समस्या को समस्या मानते ही नहीं और धर्मनिरपेक्षता के उपदेश पिलाते रहते हैं…।

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सन्दर्भ : शची रायरीकर, 22 जनवरी 2005
Astrology, Astronomy, Science, Jayant Narlikar
भारत में फ़लज्योतिष का इतिहास बहुत पुराना है, सदियों से ज्योतिषी विभिन्न तरीकों (ग्रहों की गणना, नाड़ी, ताड़पत्र आदि) से भविष्यवाणियाँ करके अपनी आजीविका चलाते रहे। लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ और विज्ञान ने आम जनजीवन के दिमागों में ज्योति फ़ैलाने की शुरुआत की, धीरे-धीरे इनका “धंधा” कम हुआ। लेकिन जनसंख्या की बढ़ती रफ़्तार और जीवन की बढ़ती मुश्किलों ने व्यक्ति को अपना भविष्य जानने की उत्सुकता से मुक्त नहीं किया, प्रकारांतर से इस “धंधे” पर कोई खास असर नहीं पड़ा। हाल ही में इंग्लैंड में अदालत ने दक्षिण एशियाई ज्योतिषियों और भविष्यवाणीकर्ताओं पर किसी भविष्यवाणी के गलत साबित होने पर मुकदमा चलाने की अनुमति दी है। महाराष्ट्र की अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति और कई समाज सुधारक वैज्ञानिक बुद्धिजीवी समय-समय पर ज्योतिषियों को “उपभोक्ता कानून” के अन्तर्गत लाने की माँग करते रहे हैं, जो कि वाजिब भी है, क्योंकि यजमान अन्ततः है तो एक “उपभोक्ता” ही। ज्योतिष समर्थकों का सबसे प्रमुख तर्क होता है कि ये “शास्त्र” सदियों पुराना है और पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति और गणनाओं पर आधारित है। अक्सर ज्योतिष समर्थकों और वैज्ञानिकों में इस पर बहस-मुबाहिसा होता रहता है कि फ़लज्योतिष (कुंडली देखकर भविष्यकथन) का वैज्ञानिक आधार क्या है? कैसे किसी बालक की कुंडली देखकर उसके भविष्य की घटनाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है? इसमें गलती होने का प्रतिशत आमतौर पर कितना होता है? जन्म-समय क्या तय किया जाना चाहिये, ताकि दोनों पक्ष संतुष्ट हों? आदि-आदि।

पुणे विश्वविद्यालय के सांख्यिकी विभाग, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, इंटर-यूनिवर्सिटी खगोल शास्त्र एवं खगोल भौतिकी केन्द्र (आयुका) तथा प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयन्त नारलीकर ने संयुक्त उपक्रम के तहत एक योजना तैयार की है, जिसमें फ़लज्योतिष और विज्ञान का आमना-सामना करने की कोशिश की है (इसमें पुणे विश्वविद्यालय की भूमिका केवल सांख्यिकीय आँकड़ों को एकत्र कर गणना करने / जाँचने की है)। वैज्ञानिक तरीकों और सांख्यिकी आँकड़ों के जरिये यह जानने की कोशिश की जायेगी, कि फ़लज्योतिष कितना कारगर है, या कितना वैज्ञानिक है, अथवा इसकी भविष्यवाणियाँ कितनी (कितने प्रतिशत तक) सटीक होती हैं, आदि-आदि। इससे दोनों पक्षों (फ़लज्योतिषियों / भविष्यवक्ताओं तथा वैज्ञानिकों / अंधविश्वास कहने वालों) को अपना-अपना पक्ष रखने में मदद मिलेगी। इस सम्बन्ध में विदेशों में कई प्रकार के शोध पहले से ही चल रहे हैं। इस समूची योजना का प्रारूप कुछ इस प्रकार का होगा –

प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि या कहें कि “दिमागी शक्ति” अलग-अलग होती है, जाहिर है कि इसका उस व्यक्ति के आने वाले जीवन पर गहरा असर पड़ता है, तो इस बात का प्रतिबिम्ब जन्म कुंडलियों में दर्शित होना चाहिये। कहने का मतलब यह कि जन्म कुंडली देखकर, उसका गहन “वैज्ञानिक” अध्ययन करके, फ़लज्योतिषी उस जातक के बारे में जान सकते हैं। इसी को विचार बनाकर इस जाँच प्रक्रिया को तय करने की कोशिश की गई है। एक मंदबुद्धि बच्चों के स्कूल के 100 बच्चों की जन्म-पत्रिका और जन्म समय (उनके माता-पिता की सहमति से) लिये जायेंगे, इसी प्रकार हमेशा 70% से अधिक अंक लाने वाले बच्चों की जन्म पत्रिकायें और जन्म समय एकत्रित किये जायेंगे। जो भी ज्योतिषी या ज्योतिष संस्था इस चुनौती को स्वीकार करेगी, उसे विभिन्न बच्चों की 40 जन्म-पत्रिकायें और जन्म-समय (अपने अनुसार जन्म पत्रिका बनाने के लिये अन्य “डीटेल्स” भी) दिये जायेंगे, उस ज्योतिषी या संस्था को एक माह में अध्ययन करके मात्र यह बताना है कि उक्त कुंडलियों में से कौन सी कुंडली मंदबुद्धि बालक की है और कौन सी कुंडली तीव्र बुद्धि बालक की (जाहिर है कि जो “घटना” घट चुकी है उसके बारे में कुंडली द्वारा जानना है)। प्रक्रिया के अनुसार ज्योतिषियों के 90% या अधिक परिणाम अचूक आये तो फ़लज्योतिष एक विज्ञान है यह सिद्ध करने की ओर निर्णायक कदम बढ़ेगा, जबकि यदि अध्ययनकर्ताओं के परिणाम 70% से कम निकले तो फ़लज्योतिष “विज्ञान” नहीं है यह अपने-आप सिद्ध हो जायेगा। इसी प्रकार यदि परिणाम 70% से 90% के बीच आते हैं तो फ़लज्योतिष और विज्ञान में सामंजस्य स्थापित करने और निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लिये “सैम्पल” (40 या 100) का आकार बढ़ाया जायेगा, ताकि और अधिक अचूक परिणाम हासिल हो। इन सारे प्राप्त आँकड़ों का पुणे विश्वविद्यालय के सांख्यिकी विभाग में “डबल ब्लाइंड टेस्ट” पद्धति से मापन किया जायेगा। यह सारी प्रक्रिया पूर्णतः निशुल्क रहेगी, इच्छुक ज्योतिषी या ज्योतिष संस्था पुणे विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सुधाकर कुंटे, सांख्यिकी विभाग, पुणे विश्वविद्यालय, पुणे – 411007 से कुंडलियाँ मंगवा सकते हैं। कुंडलियाँ मंगवाने के लिये उन्हें 11x9 साइज का बड़ा लिफ़ाफ़ा, वापस भेजने के लिये 35/- रुपये के टिकट लगाकर भेजना होगा।



यह पहली जाँच पूरी होने पर इसी प्रकार की और जाँचे (विवाह, मृत्यु आदि) करने की योजना है, ताकि ज्योतिष और विज्ञान के बीच चलने वाली बहस का निर्णायक निष्कर्ष निकले। इस योजना में पूरे भारत के किसी भी भाषा, प्रांत के ज्योतिषी शामिल हो सकते हैं, जो यह समझते हैं कि “ज्योतिष पूर्णतः विज्ञान है”। यह एक सतत चलने वाली लम्बी प्रक्रिया है, इसका उद्देश्य विशुद्ध रूप से यह जानना है कि “फ़लज्योतिष का कोई वैज्ञानिक आधार है या नहीं?” यदि है तो विज्ञान इसमें और क्या योगदान कर सकता है? और विज्ञान नहीं है तो क्यों न गलत-सलत भविष्यवाणियाँ करने वालों पर मुकदमा दायर किया जाये। ज्योतिषियों के सामने यह एक सुनहरा मौका है कि वे यह साबित करने की कोशिश करें कि पुरातन भारतीय ज्ञान, आज के विज्ञान से कहीं आगे था/है। इस चुनौती को स्वीकार करके और सफ़लता प्राप्त करके ज्योतिषी, सदा के लिये वैज्ञानिकों का मुँह बन्द कर सकते हैं… क्योंकि एक विरोधाभास यह भी है कि एक ओर तो पुणे विश्वविद्यालय ने “ज्योतिषशास्त्र” नामक विषय को शामिल करने से स्पष्ट मना कर दिया है, वहीं दूसरी ओर उज्जैन, (जो कि ज्योतिष और धर्म का एक प्रमुख स्थान माना जाता है) के विक्रम विश्वविद्यालय में ज्योतिषशास्त्र पर जोरशोर से पढ़ाई चल रही है और पीएच.डी दी जा रही है।

इस सम्बन्ध में प्रतिभागी और विद्वानजन, इस जाँच योजना के समन्वयक श्री प्रकाश घाटपांडे, डी २०२, कपिल अभिजात, डहाणुकर कॉलनी, कोथरुड पुणे (99231-70625) से भी सम्पर्क कर सकते हैं।

अंत में ताजा खबर : कल ही पुणे में सम्पन्न ज्योतिषियों की एक बैठक में सर्वसम्मति(?) से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि कोई भी ज्योतिषी इस चुनौती को स्वीकार न करे, यह ज्योतिषियों को बदनाम करने(??) का एक षडयन्त्र है। क्या ज्योतिषी सामना शुरु होने से पहले ही भाग खड़े होंगे…?

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Salman Khan, Sony Set Max, Reality Show
एक “प्रोमो” से हाल ही में पाला पड़ा और मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई कि मल्लिका शेरावत के “मर्द संस्करण”, ऐश्वर्या राय जैसी सुन्दरी को सरेआम चाँटा जमाने / गरियाने वाले, स्वाद और शौक के लिये काले हिरण का शिकार करने फ़िर विश्नोईयों द्वारा अदालत में नाक रगड़ दिये जाने के बावजूद दाँत निपोरने वाले, विजय माल्या के “प्रोडक्ट” की शान रखते हुए फ़ुटपाथ पर “कीड़े-मकोड़ों” को कुचलने वाले, यानी की तमाम-तमाम गुणों से भरपूर, महान व्यक्तित्व वाले “सुपरस्टार” (जी हाँ प्रोमो में उन्हें सुपरस्टार ही कहा जा रहा था), एक टीवी कार्यक्रम पेश करने जा रहे हैं। अमूमन (केबीसी का पहला भाग देखने के बाद से) मैं शाहरुख, सलमान या और किसी के इस प्रकार के करोड़ों रुपये खैरात में बाँटने वाले कार्यक्रम नहीं देखता, लेकिन यदि किसी अन्य कार्यक्रम के बीच में “ट्रेलर” या “प्रोमो” नाम की बला मेरा गला पकड़ ले तो मैं क्या कर सकता हूँ। जाहिर है कि जब इतने “सद्गगुणी” कलाकार कार्यक्रम पेश करने वाले हैं तो उसकी जमकर “चिल्लाचोट” की जायेगी, कसीदे काढ़े जायेंगे। प्रोमो से ही पता चला कि ये महाशय “दस का दम” नाम का कोई “Percentage” (प्रतिशत) वाला खेल भारत के लोगों और लुगाइयों को खिलाने जा रहे हैं (जबकि भारतवासी पहले ही Percentage के खेल में माहिर हैं)।

जिस प्रकार चावल की बोरी से एक मुठ्ठी चावल की खुशबू से ही उसकी क्वालिटी के बारे में पता चल जाता है, उसी प्रकार पहले ही प्रोमो को देखकर लगा कि यह कार्यक्रम मानसिक दिवालियेपन की इन्तेहा साबित होगा। नमूना देखिये – सलमान पूछ रहे हैं कि “कितने प्रतिशत भारतीय अपनी सुहागरात सोते-सोते ही बिताते हैं?” अब महिला (जो कि इस बेहूदा सवाल पर या तो खी-खी करके हँसेगी, या फ़िर शरमाने का नाटक करेगी) को इस सवाल का जवाब बताना है। प्रोमो का अगला दृश्य है – “एक महिला (या लड़की) सलमान के सामने घुटने टेक कर उससे प्रेम की भीख माँग रही है”, अगले दृश्य में दर्शकों की फ़रमाइश पर (ऐसा कहने का रिवाज है) सलमान एक फ़ूहड़ सा डांस करके दिखा रहे हैं, साथ देने के लिये एक प्रतियोगी को भी उन्होंने नाच में शामिल किया हुआ है, और उस “भरतनाट्यम” में वे एक गमछानुमा वस्त्र लेकर दोनो टाँगों के बीच से कमर के नीचे का हिस्सा पोंछते नजर आते हैं… आया न मजा भाइयों (शायद आपने भी यह प्रोमो देखा होगा)।



आजकल कोई भी टीवी कार्यक्रम हिट करवाने के लिये कोई न कोई विवाद पैदा करना जरूरी है, या फ़िर उस प्रोग्राम में नंगई और छिछोरापन भरा जाये, या फ़िर जजों के बीच तथा जज और प्रतियोगियों के बीच गालीगलौज करवाई जाये, फ़िर पैसा देकर उसका प्रचार अखबारों में करवाया जाये, ताकि कुछ मूर्ख लोग भी ऐसे कार्यक्रम देखने के लिये पहुँचें। प्रोमो में “सुहागरात” वाला सवाल तो एक बानगी भर था ताकि चालीस पार के अधेड़ सलमान पर “मर-मिटने वाली”(?) बालायें कार्यक्रम के प्रति ज्यादा आकर्षित हों। लगभग यही चोंचला शाहरुख खान अपने कार्यक्रम “क्या आप पाँचवी पास से तेज हैं?” में अपना चुके हैं, जहाँ वे अधिकतर महिलाओं को ही प्रतियोगी चुनते हैं, फ़िर पहले उन महिलाओं के शरीर पर यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ हाथ फ़ेरते हैं, ठुमके लगाते हैं या फ़िर अपमानित करके बाहर भेजते हैं। अमिताभ बच्चन कैसे भी हों, कम से कम केबीसी में उन्होंने कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया (चाहे उनके फ़ैन्स ने अपनी मर्यादा को त्याग दिया हो), ये एक बड़ा अंतर है जो अमिताभ और शाहरुख/सलमान जैसों के संस्कारों में स्पष्ट दिखता है।

हो सकता है कि सलमान अगले एपिसोड में पूछें कि “बताइये भारत में कितने प्रतिशत लोग अंडरवियर पहनते हैं?” सही जवाब आपको दिलायेगा एक करोड़ रुपये…। या अगला सवाल “भारत में कितने प्रतिशत लड़कियाँ लड़कों के साथ भागने की इच्छुक हैं?” एक अंतहीन सिलसिला चलेगा बकवास सवालों का, नया विवाद पैदा करने के लिये इन सवालों में “धार्मिक” सवालों को भी जोड़ा जा सकता है। जिस प्रकार मूर्खता की कोई सीमा नहीं होती, शायद छिछोरेपन की भी कोई सीमा नहीं होती। मजे की बात यह होगी कि इस कार्यक्रम में अधिकतर सवाल अधकचरे या गैरजिम्मेदारी वाले ही पूछे जायेंगे, हमें इंतजार रहेगा जब सलमान पूछें कि “भारत में सड़कों के डामर में कितने प्रतिशत का कमीशन चलता है?”, या “बिजली चोरी का सर्वाधिक प्रतिशत “इस” राज्य में है, बताइये कितना?”, अथवा “प्राइमरी स्कूलों का प्रतिशत ज्यादा है या शराब की दुकानों का?” जाहिर है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला… जवाबों के प्रतिशत खुद ही कार्यक्रम निर्माताओं द्वारा तय किये जायेंगे, ऐसा कोई “रेफ़रेंस” नहीं दिया जायेगा कि “प्रतिशत” का यह आँकड़ा ये लोग कहाँ से उठाकर लाये।

तो बस बुद्धू बक्से को निहारते जाइये, जब शाहरुख मैदान में हैं तो सलमान क्यों पीछे रहें? साथ ही बजरंग दल वालों को भी बोल दीजियेगा कि तैयार रहें उन्हें काम मिलने ही वाला है…

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Karnataka Elections, Congress, JDU, Secularism
कर्नाटक के नतीजे आ चुके हैं, भाजपा का दक्षिण में पहला कदम सफ़लतापूर्वक पड़ चुका है। इसके पीछे गत 15 वर्षों की मेहनत, कार्यकर्ताओं का खून-पसीना तो है ही, कांग्रेस पार्टी के “सेक्यूलरिज्म”, एनडीटीवी के महान(?) पत्रकारों के विश्लेषण आदि भी शामिल हैं। चुनाव से पहले कांग्रेस ने जीतने पर टीवी देने का वायदा किया था, मानो गरीबों का मजाक उड़ा रही हो कि “लो टीवी पर देखो कि महंगाई कितनी बढ़ रही है”, “लो हमारे दिये टीवी पर देखो कि राहुल बाबा के रोड-शो कैसे धुंआधार होते हैं”। क्या-क्या पापड़ नहीं बेले सोनिया-राहुल तथा गौड़ा-स्वामी की खानदानी जोड़ियों ने… किसानो के कर्ज माफ़ करवाये, मध्यम वर्ग को खुश करने के लिये छठा वेतन आयोग दिया, मुसलमानों को खुश करने के लिये “खच्चर कमेटी” बनाई, एसएम कृष्णा को महाराष्ट्र से लाये, हेगड़े की बेटी को चुनाव में खड़ा किया, लेकिन सब-सब बेकार, पानी में चला गया। कर्नाटक की जनता बाप-बेटे की नौटंकी और पीठ में छुरा घोंपने की आदत से तंग आ चुकी थी और उसने भाजपा को सत्ता सौंप दी।

सन 2004 से अब तक 24 चुनावों में 16 बार हार का सामना कर चुकीं “त्यागमूर्ति” सोनिया गाँधी अब भी कांग्रेसियों की तारणहार बनी हुई हैं, क्या खूब चरण-वन्दना का नमूना है। इन चुनावों ने एक बार फ़िर साबित किया है कि अंग्रेजी प्रेस को भारत की सही पहचान नहीं है (ताजा उदाहरण मायावती की जीत) ये पहले भी कई बार साबित हो चुका है, लेकिन फ़िर भी “अक्ल है कि उनको आती नहीं…” ऊटपटांग विश्लेषण दिये जायेंगे, नकली आँकड़े फ़ेंके जायेंगे, “धर्मनिरपेक्षता” (चाहते हुए भी यहाँ गाली नहीं दे सकता) पर सिद्धान्त पेश किये ही जायेंगे, पता नहीं कब ये लोग समझेंगे कि संघ-भाजपा एक विचारधारा है, जो कि आसानी से नहीं मिटती और लाखों-करोड़ों प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं जो अखबारों में, नेट पर, चर्चाओं, व्याख्यानों में अपना प्रयास जारी रखते हैं, चुपचाप और लगातार…धर्मनिरपेक्षतावादी(?) जितना ज्यादा भाजपा को गरियाते हैं उतना ही इन कार्यकर्ताओं का इरादा पक्का होता जाता है। ये पहला सेमीफ़ायनल था, दूसरा सेमीफ़ायनल दिसम्बर में मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ चुनाव में होगा फ़िर फ़ायनल मई 09 में लोकसभा के चुनाव, जहाँ ढोंगी और दोमुँहे वामपंथियों को धूल चटाने का सुनहरा मौका मिलेगा…

ये भाजपा के लिये भी एक अच्छा मौका है फ़िर से अपने को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का। कंधार के पापों से मुक्ति तो कभी नहीं मिलेगी, हालांकि कई प्रतिबद्ध वोटरों ने वोट न देकर भाजपा को इसकी सजा दे दी थी। अब भाजपा को कंधार जैसी निकृष्ट हरकत से तौबा करना चाहिये, चन्द्रबाबू नायडू, ममता बैनर्जी, फ़ारुख अब्दुल्ला, शरद यादव जैसे क्षेत्रीय “मेंढकों” का उपयोग तो करना चाहिये लेकिन इनके दबाव में नहीं आना चाहिये, दबंगता से अपनी शर्तें मनवाना चाहिये, राम जन्मभूमि, धारा 370, समान नागरिक संहिता, आतंकवाद को सख्ती से कुचलना, आतंकवादियों को फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिये जल्दी से जल्दी फ़ाँसी दिलवाना जैसे कामों को प्राथमिकता देना चाहिये…लेकिन क्या भाजपा नेतृत्व ये सब कर पायेगा???

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All India Radio Announcers Pronunciation
“रेडियो” का नाम आते ही एक रोमांटिक सा अहसास मन पर तारी हो जाता है, रेडियो से मेरे जुड़ाव की याद मुझे बहुत दूर यानी बचपन तक ले जाती है। आज भी मुझे अच्छी तरह से याद है कि सन 1975 में जब हमारा परिवार सीधी (मप्र में रीवा/चुरहट से आगे स्थित) में रहता था और मैं शायद छठवीं-सातवीं में पढ़ता था। घर पर एक विशाल सा रेडियो था बुश बैरन (Bush Baron) का, आठ बैंड का, चिकनी लकड़ी के कैबिनेट वाला, वाल्व वाला। उस जमाने में ट्रांजिस्टर नहीं आये थे, वाल्व के रेडियो आते थे, जिन्हें चालू करने के बाद लगभग 2-3 मिनट रुकना पड़ता था वाल्व गरम होने के लिये। उन रेडियो के लिये लायसेंस भी एक जमाने में हुआ करते थे, उस रेडियो में एक एंटीना लगाना पड़ता था। वह एंटीना यानी तांबे की जालीनुमा एक बड़ी सी पट्टी होती थी जिसे कमरे के एक छोर से दूसरे छोर पर बाँधा जाता था। उस जमाने में इस प्रकार का रेडियो भी हरेक के यहाँ नहीं होता था और “खास चीज़” माना जाता था, और जैसा साऊंड मैने उस रेडियो का सुना हुआ है, आज तक किसी रेडियो का नहीं सुना। बहरहाल, उस रेडियो पर हमारी माताजी सुबह छः बजे मराठी भक्ति गीत सुनने के लिये रेडियो सांगली, रेडियो परभणी और रेडियो औरंगाबाद लगा लेती थीं, जी हाँ सैकड़ों किलोमीटर दूर भी, ऐसा उस रेडियो और एंटीना का पुण्य-प्रताप था, सो रेडियो से आशिकाना बचपन में ही शुरु हो गया था।

सीधी में उन दिनों घर के आसपास घने जंगल हुआ करते थे, सुबह रेडियो की आवाज से ही उठते थे और रेडियो की आवाज सुनते हुए ही नींद आती थी। उन दिनों मनोरंजन का घरेलू साधन और कुछ था भी नहीं, हम लोग रात 8.45 पर सोने चले जाते थे, (आजकल के बच्चे रात 12 बजे भी नहीं सोते), उस समय आकाशवाणी से रात्रिकालीन मुख्य समाचार आते थे, और श्री देवकीनन्दन पांडेय की गरजदार और स्पष्ट उच्चारण वाली आवाज “ये आकाशवाणी है, अब आप देवकीनन्दन पांडे से समाचार सुनिये…” सुनते हुए हमें सोना ही पड़ता था, क्योंकि सुबह पढ़ाई के लिये उठना होता था और पिताजी वह न्यूज अवश्य सुनते थे तथा उसके बाद रेडियो अगली सुबह तक बन्द हो जाता था। देवकीनन्दन पांडे की आवाज का वह असर मुझ पर आज तक बाकी है, यहाँ तक कि जब उनके साहबजादे सुधीर पांडे रेडियो/फ़िल्मों/टीवी पर आने लगे तब भी मैं उनमें उनके पिता की आवाज खोजता था। रेडियो सांगली और परभणी ने बचपन के मन पर जो संगीत के संस्कार दिये और देवकीनन्दन पांडे के स्पष्ट उच्चारणों का जो गहरा असर हुआ, उसी के कारण आज मैं कम से कम इतना कहने की स्थिति में हूँ कि भले ही मैं तानसेन नहीं, लेकिन “कानसेन” अवश्य हूँ। विभिन्न उदघोषकों और गायकों की आवाज सुनकर “कान” इतने मजबूत हो गये हैं कि अब किसी भी किस्म की उच्चारण गलती आसानी से पचती नहीं, न ही घटिया किस्म का कोई गाना। अस्तु…

जब थोड़े और बड़े हुए और चूंकि पिताजी की ट्रांसफ़र वाली नौकरी थी, तब हम अम्बिकापुर (सरगुजा छत्तीसगढ़) और छिन्दवाड़ा में कुछ वर्षों तक रहे। उस समय तक घर में “मरफ़ी” का एक टू-इन-वन तथा “नेल्को” कम्पनी का एक ट्रांजिस्टर आ चुका था (और शायद ही लोग विश्वास करेंगे कि नेल्को का वह ट्रांजिस्टर -1981 मॉडल आज भी चालू कंडीशन में है और उसे मैं दिन भर सुनता हूँ, और मेरी दुकान पर आने वाले ग्राहक उसकी साउंड क्वालिटी से रश्क करते हैं, उन दिनों ट्रांजिस्टर में FM बैंड नहीं आता था, इसलिये इसमें मैंने FM की एक विशेष “प्लेट” लगवाई हुई है, जो कि बाहर लटकती रहती है क्योंकि ट्रांजिस्टर के अन्दर उसे फ़िट करने की जगह नहीं है)। बहरहाल, मरफ़ी के टू-इन-वन में तो काफ़ी झंझटें थी, कैसेट लगाओ, उसे बार-बार पलटो, उसका हेड बीच-बीच में साफ़ करते रहो ताकि आवाज अच्छी मिले, इसलिये मुझे आज भी ट्रांजिस्टर ही पसन्द है, कभी भी, कहीं भी गोद में उठा ले जाओ, मनचाहे गाने पाने के लिये स्टेशन बदलते रहो, बहुत मजा आता है। उन दिनों चूंकि स्कूल-कॉलेज तथा खेलकूद, क्रिकेट में समय ज्यादा गुजरता था, इसलिये रेडियो सुनने का समय कम मिलता था।

शायद मैं इस बात में कोई अतिश्योक्ति नहीं कर रहा हूँ कि मेरी उम्र के उस समय के लोगों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने रेडियो सीलोन से प्रसारित होने वाला “बिनाका गीतमाला” और अमीन सायानी की जादुई आवाज न सुनी होगी। जिस प्रकार एक समय रामायण के समय ट्रेनें तक रुक जाती थीं, लगभग उसी प्रकार एक समय बिनाका गीतमाला के लिये लोग अपने जरूरी से जरूरी काम टाल देते थे। हम लोग भोजन करने के समय में फ़ेरबदल कर लेते थे, लेकिन बुधवार को बिनाका सुने बिना चैन नहीं आता था। जब अमीन सायानी “भाइयों और बहनों” से शुरुआत करते थे तो एक समाँ बंध जाता था, यहाँ तक कि हम लोग उनकी “सुफ़ैद” (जी हाँ अमीन साहब कई बार सफ़ेद को सुफ़ैद दाँत कहते थे) शब्द की नकल करने की कोशिश भी करते थे। रेडियो सीलोन ने अमीन सायानी और तबस्सुम जैसे महान उदघोषकों को सुनने का मौका दिया। तबस्सुम की चुलबुली आवाज आज भी जस की तस है, मुझे बेहद आश्चर्य होता है कि आखिर ये कैसे होता है? उन दिनों ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस का दोपहर साढ़े तीन बजे आने वाला फ़रमाइशी कार्यक्रम हम अवश्य सुनते थे। “ये ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस है, पेश-ए-खिदमत है आपकी पसन्द के फ़रमाइशी नगमें…”, जिस नफ़ासत और अदब से उर्दू शब्दों को पिरोकर “अज़रा कुरैशी” नाम की एक उदघोषिका बोलती थीं ऐसा लगता था मानो मीनाकुमारी खुद माइक पर आन खड़ी हुई हैं।

“क्रिकेट और फ़िल्मों ने मेरी जिन्दगी को बरबाद किया है”, ऐसा मेरे पिताजी कहते हैं… तो भला क्रिकेट और कमेंट्री से मैं दूर कैसे रह सकता था। इस क्षेत्र की बात की जाये तो मेरी पसन्द हैं जसदेव सिंह, नरोत्तम पुरी और सुशील दोषी। तीनों की इस विधा पर जबरदस्त पकड़ है। खेल और आँकड़ों का गहरा ज्ञान, कई बार जल्दी-जल्दी बोलने के बावजूद श्रोता तक साफ़ और सही उच्चारण में आवाज पहुँचाने की कला तथा श्रोताओं का ध्यान बराबर अपनी तरफ़ बनाये रखने में कामयाबी, ये सभी गुण इनमें हैं। फ़िलहाल इतना ही…

अगले भाग में विविध भारती और टीवी के कुछ उदघोषकों पर मेरे विचार (भाग-2 में जारी………)

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All India Radio Vividh Bharti Doordarshan
1982 के एशियाड के समय भारत में रंगीन टीवी का उदय हुआ, हालांकि लगभग 1990 तक कलर टीवी भी एक “लग्जरी आयटम” हुआ करता था (अवमूल्यन की पराकाष्ठा देखिये कि अब कलर टीवी चुनाव घोषणा पत्रों में मुफ़्त में बाँटे जाने लगे हैं)। “सुदर्शन चेहरे वाले” कई उदघोषक रेडियो से टीवी की ओर मुड़ गये, कुछ टीवी नाटकों / धारावाहिकों में काम करने लगे थे। उन दिनों चूंकि टीवी नया-नया आया था, तो उसका काफ़ी “क्रेज” था और उस दौर में रेडियो से मेरा नाता थोड़ा कम हो गया था, फ़िर भी उदघोषकों के अल्फ़ाज़, अदायगी और उच्चारण की ओर मेरा ध्यान बराबर रहता था। अन्तर सिर्फ़ इतना आया था कि टीवी के कारण मुखड़े का दर्शन भी होने लगा था इसलिये शम्मी नारंग, सरला माहेश्वरी, जेवी रमण, सरिता सेठी आदि हमारे लिये उन दिनों आकर्षण का केन्द्र थे। सरला माहेश्वरी को न्यूज पढ़ते देखने के लिये कई बार आधे-आधे घंटे यूँ ही बकवास सा “चित्रहार” देखते बैठे रहते थे। वैसे मैंने तो मुम्बई में बचपन में स्मिता पाटील और स्मिता तलवलकर को भी टीवी पर समाचार पढ़ते देखा था और अचंभित हुआ था, लेकिन “हरीश भिमानी” की बात ही कुछ और थी, महाभारत के “समय” तो वे काफ़ी बाद में बने, उससे पहले कई-कई बार उन्हें सुनना बेहद सुकून देता था। टीवी के आने से उदघोषकों का चेहरा-मोहरा दर्शनीय होना अपने-आप में एक शर्त थी, उस वक्त भी तबस्सुम जी अपने पूरे शबाब और ज़लाल के साथ पर्दे पर नमूदार होती थीं और बाकी सबकी छुट्टी कर देती थीं। रेडियो के लिये उन दिनों मंदी के दिन थे ऐसा मैं मानता हूँ। फ़िर से कालचक्र घूमा, टीवी की दुनिया में ज़ीटीवी नाम के पहले निजी चैनल का प्रवेश हुआ और मानो धीरे-धीरे उदघोषकों की शुद्धता नष्ट होने लगी। लगभग उन्हीं दिनों आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरु हुआ था, अंग्रेजी लहजे के उच्चारण और अंग्रेजी शब्दों की भरमार (बल्कि हमला) लिये हुए नये-नवेले उदघोषकों का आगाज़ हुआ, और जिस तेजी से फ़ूहड़ता और घटियापन का प्रसार हुआ उससे संगीतप्रेमी और रेडियोप्रेमी पुनः रेडियो की ओर लौटने लगे। उदारीकरण का असर (अच्छा और बुरा दोनो) रेडियो पर भी पड़ना लाजिमी था, कई प्रायवेट रेडियो चैनल आये, कई योजनायें और भिन्न-भिन्न तरीके के कार्यक्रम लेकर आये, लेकिन एक मुख्य बात से ये तमाम रेडियो चैनल दूर रहे, वह थी “भारतीयता की सुगन्ध”। और इसी मोड़ पर आकर श्रोताओं के बीच “विविध भारती” ने अपनी पकड़, जो कुछ समय के लिये ढीली पड़ गई थी, पुनः मजबूत कर ली।

विविध भारती, जो कि अपने नाम के अनुरूप ही विविधता लिये हुए है, आज की तारीख में अधिकतर लोगों का पसन्दीदा चैनल है। लोगबाग कुछ समय के लिये दूसरे “कांदा-भिंडी” टाइप के निजी रेडियो चैनल सुनते हैं, लेकिन वे सुकून और शांति के लिये वापस विविध भारती पर लौटकर आते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कि हॉट-डॉग खाने वाले एकाध-दो दिन वह खा सकते हैं, लेकिन पेट भरने और मन की शांति के लिये उन्हें दाल-रोटीनुमा, घरेलू, अपनी सी लगने वाली, विविध भारती पर वापस आना ही पड़ेगा। मेरे अनुसार गत पचास वर्षों में विविध भारती ने अभूतपूर्व और उल्लेखनीय तरक्की की है, जाहिर है कि इसे सरकारी मदद मिलती रही है, और इसे चैनल चलाने के लिये “कमाने” के अजूबे तरीके नहीं आजमाना पड़े, लेकिन फ़िर भी सरकारी होने के बावजूद इसकी कार्यसंस्कृति में उत्कृष्टता का पुट बरकरार ही रहा, और आज भी है।

विविध भारती के मुम्बई केन्द्र से प्रसारित होने वाले लगभग सभी कार्यक्रम उत्तम हैं और उससे ज्यादा उत्तम हैं यहाँ के उदघोषकों की टीम। मुझे कौतूहल है कि इतने सारे प्रतिभाशाली और एक से बढ़कर एक उदघोषक एक ही छत के नीचे हैं। कमल शर्मा, अमरकान्त दुबे, यूनुस खान, अशोक सोनावणे, राजेन्द्र त्रिपाठी, महेन्द्र मोदी… इसी प्रकार महिलाओं में रेणु बंसल, निम्मी मिश्रा, ममता सिंह, आदि। लगभग सभी का हिन्दी उच्चारण एकदम स्पष्ट, आवाज खनकदार, प्रस्तुति शानदार, फ़िल्मों सम्बन्धी ज्ञान भी उच्च स्तर का, यही तो खूबियाँ होना चाहिये उदघोषक में!!! आवाज, उच्चारण और प्रस्तुति की दृष्टि से मेरी व्यक्तिगत पसन्द का क्रम इस प्रकार है – (1) कमल शर्मा, (2) अमरकान्त दुबे और (3) यूनुस खान तथा महिलाओं में – (1) रेणु बंसल, (2) निम्मी मिश्रा (3) ममता सिंह। इस लिस्ट में मैंने लोकेन्द्र शर्मा जी को शामिल नहीं किया है, क्योंकि वे शायद रिटायर हो चुके हैं, वरना उनका स्थान पहला होता। महिला उदघोषकों में सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं रेणु बंसल, फ़ोन-इन कार्यक्रम में जब वे “ऐस्स्स्स्सा…” शब्द बोलती हैं तब बड़ा अच्छा लगता है, इसी प्रकार श्रोताओं द्वारा फ़ोन पर “मैं अपने मित्रों का नाम ले लूँ” पूछते ही निम्मी मिश्रा प्यार से “लीजिये नाआआआआ…” कहती हैं तो दिल उछल जाता है। ममता सिंह जी, अनजाने ही सही, अपना विशिष्ट “उत्तरप्रदेशी लहजा” छुपा नहीं पातीं। मुझे इस बात का गर्व है कि कई उदघोषकों का सम्बन्ध मध्यप्रदेश से रहा है, और अपने “कानसेन” अनुभव से मेरा यह मत बना है कि एक अच्छा उदघोषक बनने के लिये एक तो संस्कृत और उर्दू का उच्चारण जितना स्पष्ट हो सके, करने का अभ्यास करना चाहिये (हिन्दी का अपने-आप हो जायेगा) और हर हिन्दी उदघोषक को कम से कम पाँच-सात साल मध्यप्रदेश में पोस्टिंग देना चाहिये। मेरे एक और अभिन्न मित्र हैं इन्दौर के “संजय पटेल”, बेहतरीन आवाज, उच्चारण, प्रस्तुति, और मंच संचालन के लिये लगने वाला “इनोवेशन” उनमें जबरदस्त है। मेरा अब तक का सबसे खराब अनुभव “कमलेश पाठक” नाम की महिला उदघोषिका को सुनने का रहा है, लगता ही नहीं कि वे विविध भारती जैसे प्रतिष्ठित “घराने” में पदस्थ हैं, इसी प्रकार बीच में कुछ दिनों पहले “जॉयदीप मुखर्जी” नाम के एक अनाउंसर आये थे जिन्होंने शायद विविध भारती को निजी चैनल समझ लिया था, ऐसा कुछ तरीका था उनका कार्यक्रम पेश करने का। बहरहाल, आलोचना के लिये एक पोस्ट अलग से बाद में लिखूंगा…

व्यवसायगत मजबूरियों के कारण आजकल अन्य रेडियो चैनल या टीवी देखना कम हो गया है, लेकिन जिस “नेल्को” रेडियो का मैने जिक्र किया था, वह कार्यस्थल पर एक ऊँचे स्थान पर रखा हुआ है, जहाँ मेरा भी हाथ नहीं पहुँचता। उस रेडियो में विविध भारती सेट करके रख दिया है, सुबह बोर्ड से बटन चालू करता हूँ और रात को घर जाते समय ही बन्द करता हूँ। ब्लॉग जगत में नहीं आया होता तो यूनुस भाई से भी परिचय नहीं होता, उनकी आवाज का फ़ैन तो हूँ ही, अब उनका “मुखड़ा” भी देख लिया और उनसे चैटिंग भी कर ली, और क्या चाहिये मुझ जैसे एक आम-गुमनाम लेकिन कट्टर रेडियो श्रोता को? किस्मत ने चाहा तो शायद कभी “कालजयी हीरो” अर्थात अमीन सायानी साहब से भी मुलाकात हो जाये…

पाठकों को इस लेख में कई प्रसिद्ध नाम छूटे हुए महसूस होंगे जैसे पं विनोद शर्मा, ब्रजभूषण साहनी, कब्बन मिर्जा, महाजन साहब जैसे कई-कई अच्छे उदघोषक हैं, लेकिन मैंने सिर्फ़ उनका ही उल्लेख किया है, जिनको मैंने ज्यादा सुना है। राजनीति और सामाजिक बुराइयों पर लेख लिखते-लिखते मैंने सोचा कि कुछ “हट-के” लिखा जाये (“टेस्ट चेंज” करने के लिये), आशा है कि पाठकों को पसन्द आया होगा…

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SBI Recruitment Procedure & Fees
काफ़ी वर्षों के बाद भारतीय स्टेट बैंक (SBI) ने 20000 क्लर्कों की भर्ती के लिये विज्ञापन जारी किया है, जिसे भरने की आखिरी तारीख 31 मई है। इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि एसबीआई इस समय मानव संसाधन की कमी की समस्या से जूझ रही है। चूंकि काफ़ी वर्षों तक कोई भर्ती नहीं की गई, काफ़ी सारे वरिष्ठ लोगों ने काम का बोझ बढ़ जाने और वीआरएस की आकर्षक शर्तों के कारण VRS (Voluntary Retirement Scheme) ले लिया, तथा बाकी के बचे-खुचे अधिकारी भी धीरे-धीरे रिटायरमेंट की कगार पर पहुँच चुके हैं। काम का बोझ तो निश्चित ही बढ़ा है, सरकार की सबसे मुख्य बैंक होने के कारण पेंशन, रोजगार, भत्ते, चालान, डीडी जैसे कई कामों ने क्लर्कों पर काम का बोझ बढ़ाया है जिनमें से अधिकतर उस आयु वर्ग में पहुँच चुके हैं, जहाँ एक तो काम करने की रफ़्तार कम होने लगती है और दूसरे नई तकनीक सीखने में हिचक और अनिच्छा भी आड़े आती है। ऐसे माहौल में युवाओं की भरती करने के लिये SBI ने एकमुश्त 20,000 क्लर्कों की भर्ती के लिये अभियान शुरु किया है। यहाँ तक तो सब कुछ ठीकठाक लगता है, लेकिन असली “पेंच” यहीं से शुरु होता है। यह बात तो अब सभी जान गये हैं कि बैंकें अब जनसुविधा या जनहित के काम कम से कम करने की कोशिशें कर रहे हैं, यदि करना भी पड़े तो उसमें तमाम किंतु-परन्तु-लेकिन की आपत्ति लगाकर करते हैं, वहीं वित्त मंत्रालय के निर्देशों के मुताबिक हरेक बैंक अपने-अपने विभिन्न शुल्क (Charges) लगाकर अपना अतिरिक्त “खर्चा” निकालने की जुगत में लगे रहते हैं। (इस बारे में पहले भी काफ़ी प्रकाशित हो चुका है कि किस तरह से बैंकें ATM Charges, Inter-Transaction Charges, DD Charges, Cheque Book per leaf charges, Late fees, Minimum Balance Fees जैसे अलग-अलग शुल्क लेकर काफ़ी माल बना लेती हैं)। ये तथाकथित शुल्क इतने कम होते हैं कि सामान्य व्यक्ति इसे या तो समझ ही नहीं पाता या फ़िर जानबूझकर कोई विरोध नहीं करता “कि इतना शुल्क कोई खास बात नहीं…”। यह ठीक लालू यादव जैसी नीति है, जिसमें उपभोक्ता को धीरे-धीरे और छोटे-छोटे शुल्क लगाकर लूटा जाता है। यह छोटे-छोटे और मामूली से लगने वाले शुल्क, ग्राहकों की संख्या बढ़ने पर एक खासी बड़ी रकम बन जाती है जो कि रेल्वे या बैंक के फ़ायदे में गिनी जाती है। हालांकि आम जनता इसमें कुछ खास नहीं कर सकती, क्योंकि उदारीकरण के बाद बैंकों को पूरी छूट दी गई है (निजी क्षेत्र के बैंकों को कुछ ज्यादा ही) कि वे ग्राहक को ATM, Core Banking, Internet Banking आदि के द्वारा बैंक शाखा से दूर ही रखने की कोशिश करें और इसे शानदार सुविधा बताकर इसका मनमाना (लेकिन मामूली सा लगने वाला) शुल्क वसूल लें। (हो सकता है कि कुछ दिनों बाद किसी बैंक शाखा में घुसते ही आपसे दस रुपये माँग लिये जायें, गद्देदार सोफ़े पर बैठने और एसी की हवा खाने के शुल्क के रूप में)



बात हो रही थी SBI की क्लर्क भर्ती अभियान की… रोजगार समाचार में छपे विज्ञापन के अनुसार बैंक (और अन्य बैंकों जैसे बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र, कार्पोरेशन बैंक, आंध्रा बैंक, इलाहाबाद बैंक आदि ने भी) ने क्लर्क की भर्ती के लिये न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता 60% अंकों से 12वीं पास या 40% अंकों से किसी भी विषय में ग्रेजुएट रखी है। इसके लिये किसी भी CBS (Core Banking) शाखा में 250/- का चालान जमा करके इसे नेट से ऑनलाइन ही भरना है, उसमें भी पेंच यह कि प्रार्थी का ई-मेल आईडी होना आवश्यक है, वरना ऑनलाइन फ़ॉर्म भरा ही नहीं जायेगा (यह शर्त भी अजीबोगरीब है, ग्रामीण क्षेत्र के कई युवा उम्मीदवारों को ई-मेल आईडी क्या होता है यही नहीं मालूम)। यहाँ से मुख्य आपत्ति शुरु होती है… जब बैंक सारी प्रक्रिया ऑनलाइन करवा रहा है तो उसे शुल्क कम रखना चाहिये था, क्योंकि उनके स्टाफ़ के समय और ऊर्जा की काफ़ी बचत हो गई। एक मोटे अनुमान के अनुसार समूचे भारत से इन 20,000 पदों के लिये कम से कम 25 से 30 लाख लोग फ़ॉर्म भरेंगे (सिर्फ़ उज्जैन जैसे छोटे शहर से 3000 से 4000 फ़ॉर्म भरे जा चुके हैं)। एक समाचार के अनुसार दिनांक 23 मई तक एसबीआई के इस “भर्ती खाते” में अच्छी-खासी रकम एकत्रित हो चुकी थी, यानी कि 31 मई की अन्तिम तिथि तक करोड़ों रुपये एसबीआई की जेब में पहुँच चुके होंगे। हालांकि इस सारी प्रक्रिया में गैरकानूनी या अजूबा कुछ भी नहीं है, पहले भी भर्ती में यही शर्तें होती थीं। मेरा कहने का मुख्य पहलू यह है कि बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती साक्षरता, बढ़ती अपेक्षाओं को देखते हुए एसबीआई को शुल्क कम से कम रखना चाहिये था। दूसरी मुख्य बात यह कि 12वीं की परीक्षा में शामिल होने वाले को भी फ़ॉर्म भरने की अनुमति है शर्त वही 60% वाली है, इसी प्रकार ग्रेजुएट परीक्षा में शामिल होने वाले को भी परीक्षा देने की छूट है, बशर्ते उसके कम से कम 40% हों। इसका सीधा सा अर्थ यही होता है कि कम से कम पाँच से दस प्रतिशत उम्मीदवार तो परीक्षा देने से पहले ही बाहर हो जायेंगे (जिनका रिजल्ट 31 मई के बाद आयेगा और जिन्हें 12वीं में 60% या ग्रेजुएट में 40%अंक नहीं मिलेंगे)।

अगला पेंच यह है कि कुल पाँच विषय हैं जिनमें 40% अंक लाना आवश्यक है तभी साक्षात्कार की प्रावीण्य सूची में स्थान मिलने की सम्भावना है, लेकिन विज्ञापन में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि पाँचों विषयों में कुल मिलाकर 40% लाना है या पाँचों विषयों में अलग-अलग 40% अंक लाना है। यह बैंक के “स्वत्व-अधिकार” क्षेत्र में है कि वह आगे क्या नीति अपनाता है। चलो मान भी लिया कि कम से कम 40% अंक पर ही अभ्यर्थी पास होगा, लेकिन जब M.Sc. वाले भी फ़ॉर्म भर रहे हैं, बेरोजगारी से त्रस्त B.E. और M.B.A. वाले भी बैंक में “क्लर्क” बनने के लिये लालायित हैं तब ऐसे में भला 12वीं पास या “appeared” वाले लाखों लड़कों का क्या होगा? इस कठिन परीक्षा में ये लोग कैसे मुकाबला करेंगे? यह तो खरगोश-कछुए या गधे-घोड़े को एक साथ दौड़ाने जैसा कार्य है। बैंक ने पहले ही साफ़ कर दिया है कि प्रकाशित पदों के तीन गुना उम्मीदवार ही साक्षात्कार के लिये प्रावीण्य सूची बनाकर बुलाये जायेंगे, अर्थात सिर्फ़ 60,000 युवाओं को इंटरव्यू के लिये बुलाया जायेगा। मान लो कि बीस लाख व्यक्ति भी फ़ॉर्म भर रहे हैं तो 19 लाख 40 हजार का बाहर होना तो तय है, ऐसे में एक दृष्टि से देखा जाये तो 12वीं पास वाले लाखों बच्चे तो ऐसे ही स्पर्धा से बाहर हो जायेंगे, तो उनके पैसे तो बर्बाद ही हुए, फ़िर ऐसी शर्तें रखने की क्या तुक है? या तो बैंक पहले ही साफ़ कर दे कि “क्लर्क” के पद के लिये पोस्ट ग्रेजुएट उम्मीदवार पर विचार नहीं किया जायेगा। सवाल यह है कि क्या इस प्रकार का “खुला भर्ती अभियान” कहीं बैंकों द्वारा पैसा बटोरने का साधन तो नहीं है? बेरोजगारों के साथ इस प्रकार के “छुप-छुप कर छलने” वाले विज्ञापन के बारे में कोई आपत्ति नहीं उठती आश्चर्य है!!!

विशेष टिप्पणी – खुद मैंने अपने सायबर कैफ़े से गत दस दिनों में लगभग 150 फ़ॉर्म भरे हैं, हालांकि मैंने कई 12वीं पास बच्चों को यह फ़ॉर्म न भरने की सलाह दी (जिन्हें मैं जानता हूँ कि वह गधा, बैंक की परीक्षा तो क्या 12वीं में भी पास नहीं होगा, लेकिन यदि कोई 250/- जानबूझकर कुँए में फ़ेंकना चाहता हो तो मैं क्या कर सकता हूँ) और यह 250/- तो शुरुआती बैंक चालान भर हैं, कई उत्साहीलाल तो बैंक की परीक्षा की तैयारी करने के लिये कोचिंग क्लास जाने का प्लान बना रहे हैं। कोचिंग वालों ने भी तीन महीने की 4000/- की फ़ीस को “एक महीने के बैंक परीक्षा क्रैश कोर्स” के नाम पर 2000/- झटकने की तैयारी कर ली है, वहाँ भी लम्बी लाइन लगी है। इसके बाद चूंकि उज्जैन में परीक्षा केन्द्र नहीं है इसलिये इन्दौर जाकर परीक्षा देने का खर्चा भी बाकी है…

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महान अर्थशास्त्री और भारत के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में फ़रमाया कि महंगाई का बढ़ना “अपरिहार्य” है… महंगाई आज के दौर में जीवन की एक सच्चाई है (Inflation is a Fact of life), मेरे ख्याल से वे गलत नहीं कह रहे हैं, बल्कि उन्होंने तो सिर्फ़ एक ही बात गिनाई है जो “अपरिहार्य” है, ऐसी कुछ और बातें हैं जो “मेरा भारत महान” में अपरिहार्य हैं, जैसे –

1) पेट्रोल की कीमतें बढ़ना अपरिहार्य है
2) टैक्स (सर्विस टैक्स) आदि का बढ़ना अपरिहार्य (Fact of Life) है
3) भ्रष्ट नेता हमारे जीवन में अपरिहार्य है
4) “काला पैसा” (Black Money) भी अपरिहार्य है
5) आलसी, कामचोर और मक्कार सरकारी कर्मचारी भी अपरिहार्य हैं
6) खराब सड़कें अपरिहार्य हैं
7) बिजली चोरी करके बचने वाले अपरिहार्य हैं
8) गंदे शहर और अतिक्रमण हमारे लिये अपरिहार्य हैं
9) सांठगाँठ, अनियमिततायें, नेता-आईएएस-उद्योगपति गठजोड़ अपरिहार्य है
10) आतंकवाद, मारकाट, खून-खच्चर भी अपरिहार्य है
11) नेताओं के भव्य जन्मदिन अपरिहार्य हैं
12) पेट्रोल खरीदने की औकात न होने पर भी LPG से कारें-होटलें चलाने वाले अपरिहार्य हैं
13) किसानों की आत्महत्यायें भी अपरिहार्य है
14) बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी, अपरिहार्य है….

और भी गिनाऊँ क्या? “मन्नू भाई”, मैं सिर्फ़ एक बात जानना चाहता हूँ, कि इन सब कामों के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों को जेल में सड़ाना और गोली से उड़ाना कब अपरिहार्य होगा????

नोट : कभी-कभी छोटा ब्लॉग पोस्ट भी लिखना चाहिये, ऐसा एक वरिष्ठ ने कहा था…

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रविवार, 15 जून 2008 12:54

Aurangzeb and Kashi Vishwanath Temple


औरंगजेब और काशी विश्वनाथ सम्बन्धी एक नकली “सेकुलर” कहानी की धज्जियाँ

 
कुछ दिनों पूर्व “तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कड़गम” (TTMK) (नाम सुना है कभी???) के एक नेता एम एच जवाहिरुल्ला ने एक जनसभा में फ़रमाया कि “औरंगजेब के खिलाफ़ सबसे बड़ा आरोप है कि उसने काशी विश्वनाथ का मन्दिर ध्वस्त किया था, हालांकि यह सच है, लेकिन उसने ऐसा क्यों किया था यह भी जानना जरूरी है” उसके बाद उन्होंने स्व बीएन पांडे की एक पुस्तक का हवाला दिया और प्रेस को बताया कि असल में औरंगजेब के एक वफ़ादार राजपूत राजा की रानी का विश्वनाथ मन्दिर में अपमान हुआ और उनके साथ मन्दिर में लूट की घटना हुई थी, इसलिये औरंगजेब ने मन्दिर की पवित्रता बनाये रखने के लिये(???) काशी विश्वनाथ को ढहा दिया था”… (हुई न आपके ज्ञान में बढ़ोतरी)। एक कट्टर धार्मिक बादशाह, जो अपने अत्याचारों और धर्म परिवर्तन के लिये कुख्यात था, जिनके खानदान में दारुकुट्टे और हरमों की परम्परा वाले औरतबाज लोग थे, वह एक रानी की इज्जत के लिये इतना चिंतित हो गया? वो भी हिन्दू रानी और हिन्दू मन्दिर के लिये कि उसने “सम्मान” की खातिर काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहा दिया? कोई विश्वास कर सकता है भला? लेकिन इस प्रकार की “सेकुलर”(?) कहानियाँ सुनाने में वामपंथी लोग बड़े उस्ताद हैं।

जब अयोध्या आंदोलन अपने चरम पर था, उस वक्त विश्व हिन्दू परिषद ने अपने अगले लक्ष्य तय कर लिये थे कि अब काशी और मथुरा की बारी होगी। हालांकि बाद में बनारस के व्यापारी समुदाय द्वारा अन्दरूनी विरोध (आंदोलन से धंधे को होने वाले नुकसान के आकलन के कारण) को देखते हुए परिषद ने वह “आईडिया” फ़िलहाल छोड़ दिया है। लेकिन उसी समय से “सेकुलर” और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने काशी की मस्जिद के पक्ष में माहौल बनाने के लिये कहानियाँ गढ़ना शुरु कर दिया था, जिससे यह आभास हो कि विश्वनाथ का मन्दिर कोई विवादास्पद नही है, न ही उससे लगी हुई मस्जिद। हिन्दुओं और मीडिया को यह यकीन दिलाने के लिये कि औरंगजेब एक बेहद न्यायप्रिय और “सेकुलर” बादशाह था, नये-नये किस्से सुनाने की शुरुआत की गई, इन्हीं में से एक है यह कहानी। इसके रचयिता हैं श्री बी एन पांडे (गाँधी दर्शन समिति के पूर्व अध्यक्ष और उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल)।

बहरहाल, औरंगजेब को “संत” और परोपकारी साबित करने की कोशिश पहले शुरु की सैयद शहाबुद्दीन (आईएफ़एस) ने, जिन्होंने कहा कि “मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाना शरीयत के खिलाफ़ है, इसलिये औरंगजेब ऐसा कर ही नहीं सकता” (कितने भोले बलम हैं शहाबुद्दीन साहब)। फ़िर जेएनयू के स्वघोषित “सेकुलर” बुद्धिजीवी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी एक सुर में औरंगजेब और अकबर को महान धर्मनिरपेक्षतावादी बताने के लिये पूरा जोर लगा दिया, जबकि मुगल काल के कई दस्तावेज, डायरियाँ, ग्रन्थ आदि खुलेआम बताते हैं कि उस समय हजारों मन्दिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। यहाँ तक कि अरुण शौरी जी ने 2 सितम्बर 1669 के मुगल अदालती दस्तावेज जिसे “मासिरी आलमगिरी” कहा जाता है, उसमें से एक अंश उद्धृत करके बताया कि “बादशाह के आदेश पर अधिकारियों ने बनारस में काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहाया”, और आज भी उस पुराने मन्दिर की दीवार औरंगजेब द्वारा बनाई गई मस्जिद में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।

खैर, वापस आते हैं मूल कहानी की ओर… लेखक फ़रमाते हैं कि “एक बार औरंगजेब बंगाल की ओर यात्रा के दौरान लवाजमे के साथ बनारस के पास से गुजर रहा था, तब साथ चल रहे हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से विनती की कि यहाँ एक दिन रुका जाये ताकि रानियाँ गंगा स्नान कर सकें और विश्वनाथ के दर्शन कर सकें, औरंगजेब राजी हो गया(???)। बनारस तक के पाँच मील लम्बे रास्ते पर सेना तैनात कर दी गई और तमाम रानियाँ अपनी-अपनी पालकी में विश्वनाथ के दर्शनों के लिये निकलीं। पूजा के बाद सभी रानियाँ वापस लौट गईं सिवाय एक रानी “कच्छ की महारानी” के। महारानी की तलाश शुरु की गई, मन्दिर की तलाशी ली गई, लेकिन कुछ नहीं मिला। औरंगजेब बहुत नाराज हुआ और उसने खुद वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मन्दिर की तलाशी ली। अन्त में उन्हें पता चला कि गणेश जी की मूर्ति के नीचे एक तहखाना बना हुआ है, जिसमें नीचे जाती हुई सीढ़ियाँ उन्हें दिखाई दीं। तहखाने में जाने पर उन्हें वहाँ खोई हुई महारानी मिलीं, जो कि बुरी तरह घबराई हुई थीं और रो रही थी, उनके गहने-जेवर आदि लूट लिये गये थे। हिन्दू राजाओं ने इसका तीव्र विरोध किया और बादशाह से कड़ी कार्रवाई करने की माँग की। तब महान औरंगजेब ने आदेश दिया कि इस अपवित्र हो चुके मन्दिर को ढहा दिया जाये, विश्वनाथ की मूर्ति को और कहीं “शिफ़्ट” कर दिया जाये तथा मन्दिर के मुख्य पुजारी को गिरफ़्तार करके सजा दी जाये। इस तरह “मजबूरी” में औरंगजेब को काशी विश्वनाथ का मन्दिर गिराना पड़ा… ख्यात पश्चिमी इतिहासकार डॉ कोनराड एल्स्ट ने इस कहानी में छेद ही छेद ढूँढ निकाले, उन्होंने सवाल किये कि –

1) सबसे पहले तो इस बात का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है कि औरंगजेब ने इस प्रकार की कोई यात्रा दिल्ली से बंगाल की ओर की थी। उन दिनों के तमाम मुगल दस्तावेज और दिन-ब-दिन की डायरियाँ आज भी मौजूद हैं और ऐसी किसी यात्रा का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता, और पांडे जी ने जिस चमत्कारिक घटना का विवरण दिया है वह तो अस्तित्व में थी ही नहीं।

2) औरंगजेब कभी भी हिन्दू राजाओं या हिन्दू सैनिकों के बीच में नहीं रहा।

3) जैसा कि लिखा गया है, क्या तमाम हिन्दू राजा अपनी पत्नियों को दौरे पर साथ रखते थे? क्या वे पिकनिक मनाने जा रहे थे?

4) सैनिकों और अंगरक्षकों से चारों तरफ़ से घिरी हुई महारानी को कैसे कोई पुजारी अगवा कर सकता है?

5) हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से कड़ी कार्रवाई की माँग क्यों की? क्या एक लुटेरे पुजारी(???) को सजा देने लायक ताकत भी उनमें नहीं बची थी?

6) जब मन्दिर अपवित्र(?) हो गया था, तब उसे तोड़कर नई जगह शास्त्रों और वेदों के मुताबिक मन्दिर बनाया गया, लेकिन कहाँ, किस पवित्र जगह पर?

दिमाग में सबसे पहले सवाल उठता है कि पांडे जी को औरंगजेब के बारे में यह विशेष ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ? खुद पांडे जी अपने लेखन में स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इसके बारे में डॉ पट्टाभि सीतारमैया की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़ा था (यानी कि खुद उन्होंने किसी मुगल दस्तावेज का अध्ययन नहीं किया था, न ही कहीं का “रेफ़रेंस” दिया था)। औरंगजेब को महात्मा साबित करने के लिये जेएनयू के प्रोफ़ेसर के एन पणिक्कर की थ्योरी यह थी कि “काशी विश्वनाथ मन्दिर ढहाने का कारण राजनैतिक रहा होगा। उस जमाने में औरंगजेब के विरोध में सूफ़ी विद्रोहियों और मन्दिर के पंडितों के बीच सांठगांठ बन रही थी, उसे तोड़ने के लिये औरंगजेब ने मन्दिर तोड़ा” क्या गजब की थ्योरी है, जबकि उस जमाने में काशी के पंडित गठबन्धन बनाना तो दूर “म्लेच्छों” से बात तक नहीं करते थे।

खोजबीन करने पर पता चलता है कि पट्टाभि सीतारमैया ने यह कहानी अपनी जेलयात्रा के दौरान एक डायरी में लिखी थी, और उन्होंने यह कहानी लखनऊ के एक मुल्ला से सुनी थी। अर्थात एक मुल्ला की जबान से सुनी गई कहानी को सेकुलरवादियों ने सिर पर बिठा लिया और औरंगजेब को महान साबित करने में जुट गये, बाकी सारे दस्तावेज और कागजात सब बेकार, यहाँ तक कि “आर्कियोलॉजी विभाग” और “मासिरी आलमगिरी” जैसे आधिकारिक लेख भी बेकार।

तो अब आपको पता चल गया होगा कि अपनी गलत बात को सही साबित करने के लिये सेकुलरवादी और वामपंथी किस तरह से किस्से गढ़ते हैं, कैसे इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हैं, कैसे मुगलों और उनके घटिया बादशाहों को महान और धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। एक ग्राहम स्टेंस को उड़ीसा में जलाकर मार दिया जाता है या एक जोहरा के परिवार को बेकरी में जला दिया जाता है (यह एक क्रूर और पाशविक कृत्य था) लेकिन उस वक्त कैसे मीडिया, अंतरराष्ट्रीय समुदाय, ईसाई संगठन और हमारे सदाबहार घरेलू “धर्मनिरपेक्षतावादी” जोरदार और संगठित “गिरोह” की तरह हल्ला मचाते हैं, जबकि इन्हीं लोगों और इनके साथ-साथ मानवाधिकारवादियों को कश्मीर के पंडितों की कोई चिन्ता नहीं सताती, श्रीनगर, बारामूला में उनके घर जलने पर कोई प्रतिनिधिमंडल नहीं जाता, एक साजिश के तहत पंडितों के “जातीय सफ़ाये” को सतत नजर-अंदाज कर दिया जाता है। असम में बांग्लादेशियों का बहुमत और हिन्दुओं का अल्पमत नजदीक ही है, लेकिन इनकी असल चिंता होती है कि जेलों में आतंकियों को अच्छा खाना मिल रहा है या नहीं? सोहराबुद्दीन के मानवाधिकार सुरक्षित हैं या नहीं? अबू सलेम की तबियत ठीक है या नहीं? फ़िलिस्तीन में क्या हो रहा है? आदि-आदि-आदि। अब समय आ गया है कि इनके घटिया कुप्रचार का मुँहतोड़ जवाब दिया जाये, कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी इन “बनी-बनाई” कहानियों और “अर्धसत्य” के बहकावे में आ जाये (हालांकि कॉन्वेंट स्कूलों के जरिये इतिहास को विकृत करने में वे सफ़ल हो रहे हैं), क्योंकि NDTV जैसे कई कथित “धर्मनिरपेक्ष” मीडिया भी इनके साथ है। इस बारे में आप क्या सोचते हैं???

कुछ करेंगे या ऐसे ही बैठे रहेंगे? और कुछ नहीं तो कम से कम इस लेख की लिंक मित्रों को “फ़ॉरवर्ड” ही कर दीजिये…


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सन्दर्भ – डॉ कोनराड एल्स्ट एवं बी शान्तनु
IIT Coaching Classes Kota
जून के महीने में अखबार पढ़ना एक बेहद त्रासदायक और संतापदायक काम होता है, आप सोचेंगे ऐसा क्यों? असल में मई के आखिरी सप्ताह या जून के पहले सप्ताह देश में “रिजल्ट” का मौसम होता है। दसवीं, बारहवीं, पीईटी, पीएमटी, आईआईटी-जेईई, और भी न जाने क्या-क्या लगातार रिजल्ट आते ही रहते हैं। जाहिर है कि रिजल्ट आयेंगे तो “सबसे ज्यादा मुनाफ़े वाले धंधेबाज” यानी कि कोचिंग क्लास वाले मानो पूरा का पूरा अखबार ही खरीद लेते हैं। रिजल्ट के अगले ही दिन फ़ुल पेज के विज्ञापन झलकने लगते हैं, “हमने ऐसा तीर मारा, हमारे यहाँ के अलाँ-फ़लाँ स्टूडेंट ने ये तोप मारी आदि-आदि”। विज्ञापन भी एक-दूसरे कोचिंग क्लास वालों को आपस में नीचा दिखाने की भाषा में किये जाते हैं… “मार लिया मैदान…”, “क्रैक करके रख दिया”, “है कोई दूसरा हमारे जैसा”, “हम ही हैं सिरमौर…” जैसे हेडिंग वाले भड़काऊ विज्ञापन दिये जाते हैं। अखबार वालों का क्या जा रहा है, उन्हें तो खासी मोटी रकम वाली कमाई हो रही है (मुश्किल हम जैसे मूर्खों की होती है जो तीन-चार रुपये का अखबार खरीदते हैं, जिसमें पढ़ने के लिये दो या तीन पेज ही होते हैं, बाकी के पेज कोचिंग क्लासेस, केन्द्र या राज्य सरकार की कोई फ़ालतू सी योजना, किसी कमीने नेता के जन्मदिन की बधाईयाँ, बाइक-मोबाइल-कार-फ़्रिज-टीवी बेचने के लिये फ़ूहड़ता… आदि होता है) और कोचिंग वालों का भी क्या लग रहा है “तेरा तुझको अर्पण…” की तर्ज पर पालकों से झटकी हुई मोटी रकम में से थोड़ा सा खर्च कर दिया, ताकि अगले साल के “कटने वाले बकरे” पहले से ही बुक किये जा सकें । एक ही छात्र की तस्वीर दो-तीन-चार कोचिंग क्लास वालों के विज्ञापन में दिखाई दे जाती है। यह संभव ही नहीं कि कोई छात्र एक साथ इतनी सारी कोचिंग क्लास में जा सकता है, लेकिन खामख्वाह “झाँकी” जमाने में क्या जा रहा है, कौन उनसे इस बाबत पूछताछ करने वाला है। रिजल्ट आते ही एक तरह का मकड़जाल बुन लिया जाता है, तरह-तरह के दावे और लुभावने विज्ञापन देकर “हम ही श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तो बेकार हैं” का भाव पैदा किया जाता है।

यह खबर सबने सुनी होगी कि बिहार में शौकिया तौर पर गरीब छात्रों के लिये आईआईटी की क्लासेस चलाने वाले “सुपर-30” में सभी 30 गरीब छात्रों का चयन आईआईटी के लिये हो गया है (पिछले वर्ष यह 30 में से 28 था), अर्थात लगभग 100% छात्र सफ़ल। धन्य हैं श्री अभयानन्द जी जिन्होंने यह प्रकल्प हाथ में लिया है। अब नजर डालते हैं कोटा की महान(?) कोचिंग संस्थाओं पर… अव्वल तो ये लोग कभी भी विज्ञापन देकर जाहिर नहीं करते कि उनके यहाँ कुल कितने छात्रों ने प्रवेश लिया। लेकिन हाल ही में एक विज्ञापन देखकर पता चला कि एक “बड़ी” कोचिंग क्लास ने लिखा “1547 छात्रों में से 184 का चयन”, एक और उभरती हुई कोचिंग संस्था ने बताया कि कुल “48 छात्रों में से 4 का चयन आईआईटी-एआईईईई में”। अब खुद ही हिसाब लगाइये कि कितना प्रतिशत हुआ? मुश्किल से 12-14% सफ़लता!!! इस सड़ी सी बात पर इतना क्या इतराना? क्यों इतना डंका पीटना? अरे तुमसे दस गुना अच्छे तो “सुपर-30” वाले हैं, जिनके पास न तो चिकने पन्नों वाले ब्रोशर हैं, न ही एसी रूम हैं, न उनकी फ़ैकल्टी फ़ाइव स्टार में रुकती है, न ही वे मोटी फ़ीस वसूलते हैं, फ़िर भी उनका रिजल्ट लगभग 100% है, तो कोटा में “शिक्षा इंडस्ट्री” चलाने वाले किस बात पर गर्व करते हैं? अच्छा, एक बात और है… ये कथित महान कोचिंग क्लासेस वाले अपने यहाँ छात्रों को प्रवेश कैसे देते हैं… सबसे पहले वे 85-90 प्रतिशत अंक से कम लाने वाले को साफ़ मना कर देते हैं। फ़िर उच्च अंक लाने वाले बेहतरीन तीक्ष्ण बुद्धि वाले लड़के छाँटे जाते हैं, उनमें भी एक “एन्ट्रेन्स परीक्षा” आयोजित की जाती है, उसमें जो सफ़ल होते हैं उन्हें ही कोटा में प्रवेश मिलता है… इसका मतलब यह कि दूध में से क्रीम निकालने के बाद उस क्रीम को भी फ़ेंटकर सबसे बढ़िया घी निकाल लिया, फ़िर दावा करते हैं कि 1547 छात्रों में से 184 का चयन???? अरे भाई तुम तो पहले से ही कुशाग्र बुद्धि वाले लड़के छाँट चुके हो, फ़िर भी इतना कम सफ़लता प्रतिशत?? उम्दा किस्म का “हीरा” पहले से ही तुम्हारे पास है, सिर्फ़ उसे तराशना है, फ़िर भी??? यदि इतने ही शूरवीर(?) हो, तो किसी गरीब लड़के को जिसके 80 प्रतिशत नम्बर आये हों, मुफ़्त में पढ़ाकर दिखाओ और उसका सिलेक्शन आईआईटी में करवाओ। जब तुम्हें मालूम है कि आईआईटी में सिर्फ़ 6000-6500 सीटें हैं, तो एक साल के लिये ऐसा करके दिखाओ कि सब बड़े-बड़े कोचिंग वाले आपस में मिलकर सिर्फ़ और सिर्फ़ 8000 छात्रों को प्रवेश दो, और उसमें से ज्यादा नहीं तो 5000 सिलेक्शन करवा के दिखा दो, तो माना जाये कि वाकई में तुम्हारी शिक्षा(?) में कुछ दम है।

एक पेंच और है, जब इस “महान” देश में IAS, IPS की परीक्षा तक में धांधली हो जाती है, “मुन्नाभाई” किसी अन्य की जगह जाकर परीक्षा दे आते हैं, पैसा देकर पेपर आउट हो जाते हैं, होटलों में बैठकर परीक्षापत्र हल किये जाते हैं, तो क्या गारंटी है कि IIT, IIM, AIEEE की परीक्षा भी बेदाग होती होगी??? बड़े कोचिंग संस्थान जिनकी आमदनी करोड़ों में है, क्या “ऊपर” तक सेटिंग नहीं कर सकते? भारत जैसे “बिकाऊ लोगों के देश" में बिलकुल कर सकते हैं।

अब आते हैं खर्चों पर… एक छात्र की फ़ीस तीस हजार से पचास हजार (जैसी दुकान हो उस हिसाब से), 11वी-12वीं पास करवाने की गारंटी की जुगाड़ की फ़ीस अलग से, उस छात्र का रहना-खाना आदि का खर्च 5 से 10 हजार प्रतिमाह, इसके अलावा पुस्तकें, स्टेशनरी, परीक्षायें दिलवाने के खर्च, बीच-बीच में घर आने-जाने का खर्चा… कहने का मतलब यह कि एक लड़के पर दो साल में कम से कम तीन-चार लाख रुपये खर्च होता है, इसके बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बेचारे का सिलेक्शन IIT नहीं, तो AIEEE नहीं, तो किसी अच्छे कॉलेज में ही हो जाये, और यदि हो भी जाये तो फ़िर से खर्चों की नई ABCD शुरु होगी वह अलग है, और सिलेक्शन नहीं हुआ तो तीन-चार लाख गये पानी में? बताइये इतना बड़ा जुआ खेलने की ताकत भारत के कितने प्रतिशत परिवारों में है? क्या यह भी एक प्रकार का आर्थिक आरक्षण नहीं है? क्योंकि मैंने ऐसे कई गरीब-निम्न मध्यमवर्गीय परिवार देखे हैं, जिनमें बच्चों ने 12वीं में 80-85 प्रतिशत तक अंक लाये हैं, लेकिन वे लोग पहले से ही इस “खेल” से बाहर हैं, क्योंकि वे बेचारे तो बड़े कोचिंग संस्थानों के दरवाजे में भी घुसने से डरते हैं। लेकिन हमारी “नौकरी पाने पर आधारित” शिक्षा व्यवस्था का यह एक दर्दनाक पहलू है कि हरेक पालक को इंजीनियर, डॉक्टर ही चाहिये, चाहे उसके लिये कुछ भी करना पड़े, आँखों में एक सपना लिये माँ-बाप दिन-रात खटते रहते हैं, लेकिन अन्य किसी विकल्प पर विचार तक नहीं करते। छोटे-छोटे कस्बों में ही तीन-तीन टेक्निकल कॉलेज खुल गये हैं, जिसमें 12वीं में सप्लीमेंट्री पाये हुए लड़के को भी एडमिशन दे दिया जाता है, फ़िर वह जैसे-तैसे धक्के खाते-खाते चार या पाँच साल में 60-70 प्रतिशत वाली डिग्री हाथ में लेकर बाहर निकलता है। उज्जैन से हर साल 350-400 सॉफ़्टवेयर/केमिकल/सिविल इंजीनियर पैदा होते हैं, जिनमें से 30-40 को ही ठीकठाक “प्लेसमेंट” मिल पाती है, बाकी के इंजीनियर सड़क नापते रहते हैं, कुछ “फ़्रस्ट्रेट” हो जाते हैं, कुछ ठेकेदार बन जाते हैं, कुछ कोई और धंधा कर लेते हैं, लेकिन ताकत न होते हुए भी हजारों परिवार यह महंगा जुआ हर साल खेल रहे हैं। आखिर क्या फ़ायदा है ऐसी शिक्षा का? फ़ायदा तो भरपूर हुआ लेकिन कोचिंग क्लास वालों का और उसके बाद प्रायवेट इंजीनियरिंग कॉलेज वालों का… लेकिन फ़िलहाल इस “शिक्षा बाजार के खेल” का कोई तात्कालिक हल नहीं है, इसके लिये शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे, चाहिये होगी दूरदृष्टि, पक्का इरादा और ईमानदार नीति निर्माता, जिनका काफ़ी समय से अकाल पड़ा हुआ है…

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