
Super User
I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai.
I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles.
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शुक्रवार, 04 अप्रैल 2008 12:07
किशोर कुमार जैसी प्रतिभा वाले "सचिन"…
Sachin Pilgaonkar Marathi Films Actor
असल में सचिन का पूरा नाम कई लोग नहीं जानते हैं। उन्हें सिर्फ़ “सचिन” के नाम से जाना जाता रहा है। इसलिये शीर्षक में नाम पढ़कर कई पाठक चौंके होंगे, ये शायद “सचिन” नाम का कुछ जादू है। सचिन तेंडुलकर, सचिन पिलगाँवकर, सचिन खेड़ेकर, सचिन पायलट… बहुत सारे सचिन हैं, हालांकि सचिन तेंडुलकर इन सभी पर अकेले ही भारी पड़ते हैं (वे हैं भी), लेकिन इस लेख में बात हो रही है सचिन पिलगाँवकर की। हिन्दी फ़िल्मों के स्टार और मराठी फ़िल्मों के सुपर स्टार… जी हाँ, ये हैं मासूम चेहरे वाले, सदाबहार दिखाई देने वाले, हमारे-आपके सिर्फ़ “सचिन”।
जब भी मासूम चेहरे की बात होती है, तब सबसे पहले नाम आता है तबस्सुम का और सचिन का, बाकी जुगल हंसराज और शाहिद कपूर आदि सब बाद में आते हैं। जितनी और जैसी प्रतिभा किशोर कुमार में थी, लगभग उतनी ही प्रतिभा या यूँ कहें कि कलाकारी के विविध आयामों के धनी हैं सचिन पिलगाँवकर। अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, गायक, नृत्य निर्देशक, सम्पादक, टीवी सीरियल निर्माता… क्या-क्या नहीं करते हैं ये। (पहले भी मैंने मराठी के दो दिग्गज कलाकारों दादा कोंडके और निळु फ़ुले पर आलेख लिखे हैं, सचिन भी उन्हीं की श्रेणी में आते हैं)
17 अगस्त 1957 को मुम्बई (Mumbai) में एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में सचिन की परवरिश एक आम मराठी मध्यमवर्गीय परिवार की तरह ही हुई। बचपन से ही उनके मोहक चेहरे के कारण उन्हें फ़िल्मों में काम मिलने लगा था। चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर उनकी पहली फ़िल्म है “एक और सुहागन”, लेकिन उन्हें असली प्रसिद्धि मिली फ़िल्म “ब्रह्मचारी” से, जिसमें उन्होंने शम्मी कपूर के साथ काम किया और उसके बाद “ज्वेल थीफ़” से जिसमें उन्होंने वैजयन्तीमाला के छोटे भाई का रोल बखूबी निभाया।

“स्वीट सिक्सटीन” की उम्र में पहुँचते ही, उन्हें राजश्री प्रोडक्शन की “गीत गाता चल” में किशोरवय हीरो की भूमिका मिली, जिसमें उनकी हीरोइन थीं सारिका। इस जोड़ी ने फ़िर लगातार कुछ फ़िल्मों में काम किया। यूँ तो सचिन ने कई हिट फ़िल्मों में काम किया, लेकिन उल्लेखनीय फ़िल्मों के तौर पर कही जा सकती है “अँखियों के झरोखे से”, “बालिका वधू”, “अवतार”, “घर एक मन्दिर”, “कॉलेज गर्ल”, “नदिया के पार” आदि। जैसे ही उनकी उम्र थोड़ी बढ़ी (लेकिन चेहरे पर वही मासूमियत बरकरार थी), उन्होंने मैदान न छोड़ते हुए चरित्र भूमिकायें निभाना शुरु कर दिया। “शोले”, “त्रिशूल”, “सत्ते पे सत्ता” आदि में वे दिखाई दिये।

1990 के दशक के शुरुआत में जब टीवी ने पैर पसारना शुरु किया तब वे इस विधा की ओर मुड़े और एक सुपरहिट कॉमेडी शो “तू-तू-मैं-मैं” निर्देशित किया, जिसमें मुख्य भूमिका में थीं उनकी पत्नी सुप्रिया और मराठी रंगमंच और हिन्दी फ़िल्मों की “ग्लैमरस” माँ रीमा लागू। उनका एक और निर्माण था “हद कर दी”। एक अच्छे गायक और संगीतप्रेमी होने के कारण (मराठी हैं, तो होंगे ही) उन्होंने स्टार टीवी पर एक हिट कार्यक्रम “चलती का नाम अंताक्षरी” भी संचालित किया। उम्र के पचासवें वर्ष में उन्होंने एक चुनौती के रूप में स्टार टीवी के नृत्य कार्यक्रम “नच बलिये” (Nach Baliye) में अपनी पत्नी के साथ भाग लिया। सभी प्रतियोगियों में ये जोड़ी सबसे अधिक उम्र की थी। इन्होंने भी सोचा नहीं था कि वे इतने आगे जायेंगे, इसलिये हरेक एपिसोड को ये अपना अन्तिम नृत्य मानकर करते रहे और अन्त में जीत इन्हीं की हुई और इस जोड़ी को इनाम के तौर पर चालीस लाख रुपये मिले। उम्र के इस पड़ाव पर एक डांस के शो में युवाओं को पछाड़कर जीतना वाकई अदभुत है। 2007 में जी टीवी मराठी पर इन्होंने एक शो शुरु किया है, जिसमें ये जज भी बने हैं, नाम है “एका पेक्षा एक” (एक से बढ़कर एक)। इसमें सचिन महाराष्ट्र की युवा नृत्य प्रतिभाओं को खोज रहे हैं। इनके बेदाग, चमकदार और विवादरहित करियर में सिर्फ़ एक बार अप्रिय स्थिति बनी थी, जब इनकी गोद ली हुई पुत्री करिश्मा ने इन पर गलतफ़हमी में कुछ आरोप लगाये थे, हालांकि बाद में मामला सुलझ गया था… वैसे इनकी खुद की एक पुत्री श्रिया है, जो अभी अठारह वर्ष की है।

इससे बरसों पहले अस्सी के दशक में सचिन ने कई मराठी फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें प्रमुख हैं “माई-बाप”, “नवरी मिळे नवरयाला” (इस फ़िल्म के दौरान ही सुप्रिया से उनका इश्क हुआ और शादी हुई), “माझा पती करोड़पती”, “गम्मत-जम्मत” आदि। मराठी के सशक्त अभिनेता अशोक सराफ़ और स्वर्गीय लक्ष्मीकान्त बेर्डे से उनकी खूब दोस्ती जमती है। बच्चों से उनका प्रेम जगजाहिर है, इसीलिये वे स्टार टीवी के बच्चों के एक डांस शो में फ़रीदा जलाल के साथ जज बने हुए हैं। उनकी हिन्दी और उर्दू उच्चारण एकदम शुद्ध हैं, और कोई कह नहीं सकता कि उसमें मराठी “टच” है (जैसा कि सदाशिव अमरापुरकर के उच्चारण में साफ़ झलकता है)। सचिन अपने शुद्ध उच्चारण का पूरा श्रेय स्वर्गीय मीनाकुमारी (Meena Kumari) को देते हैं, जिनके यहाँ वे बचपन में लगातार मिठाई खाने जाते थे और मीनाकुमारी उन्हें पुत्रवत स्नेह प्रदान करती थीं, उनका उर्दू तलफ़्फ़ुज ठीक करती थीं और हिन्दी से उर्दू के तर्जुमें करके देती थीं। नदिया के पार में उनका भोजपुरी का साफ़ उच्चारण इसका सबूत है।
मेहनत, लगन और उत्साह से सतत काम में लगे रहने वाले इस हँसमुख, विनम्र और महान कलाकार को मेरे जैसे एक छोटे से सिनेमाप्रेमी का सलाम…
Sachin Pilgaonkara, Supriya Pilgaonkar, Marathi Films, Sachin and Supriya in Nach Baliye, Superstars of Marathi Films, Dada Kondke, Nilu Fule, Sachin Pilgaonkar, Ashok Saraf, Laxmikant Berde, Sachin, Meenakumari, Kishore Kumar, Mehmood, Shammi Kapoor, Nadiya ke paar, Ankhiyon ke jharokhe se, Avtaar, Satte pe Satta, Sholay, Trishul, Sachin Pilgaonkar, Supriya Pilgaonkar, Reema Lagu, Tu-Tu-Main-Main, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
असल में सचिन का पूरा नाम कई लोग नहीं जानते हैं। उन्हें सिर्फ़ “सचिन” के नाम से जाना जाता रहा है। इसलिये शीर्षक में नाम पढ़कर कई पाठक चौंके होंगे, ये शायद “सचिन” नाम का कुछ जादू है। सचिन तेंडुलकर, सचिन पिलगाँवकर, सचिन खेड़ेकर, सचिन पायलट… बहुत सारे सचिन हैं, हालांकि सचिन तेंडुलकर इन सभी पर अकेले ही भारी पड़ते हैं (वे हैं भी), लेकिन इस लेख में बात हो रही है सचिन पिलगाँवकर की। हिन्दी फ़िल्मों के स्टार और मराठी फ़िल्मों के सुपर स्टार… जी हाँ, ये हैं मासूम चेहरे वाले, सदाबहार दिखाई देने वाले, हमारे-आपके सिर्फ़ “सचिन”।
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“स्वीट सिक्सटीन” की उम्र में पहुँचते ही, उन्हें राजश्री प्रोडक्शन की “गीत गाता चल” में किशोरवय हीरो की भूमिका मिली, जिसमें उनकी हीरोइन थीं सारिका। इस जोड़ी ने फ़िर लगातार कुछ फ़िल्मों में काम किया। यूँ तो सचिन ने कई हिट फ़िल्मों में काम किया, लेकिन उल्लेखनीय फ़िल्मों के तौर पर कही जा सकती है “अँखियों के झरोखे से”, “बालिका वधू”, “अवतार”, “घर एक मन्दिर”, “कॉलेज गर्ल”, “नदिया के पार” आदि। जैसे ही उनकी उम्र थोड़ी बढ़ी (लेकिन चेहरे पर वही मासूमियत बरकरार थी), उन्होंने मैदान न छोड़ते हुए चरित्र भूमिकायें निभाना शुरु कर दिया। “शोले”, “त्रिशूल”, “सत्ते पे सत्ता” आदि में वे दिखाई दिये।

1990 के दशक के शुरुआत में जब टीवी ने पैर पसारना शुरु किया तब वे इस विधा की ओर मुड़े और एक सुपरहिट कॉमेडी शो “तू-तू-मैं-मैं” निर्देशित किया, जिसमें मुख्य भूमिका में थीं उनकी पत्नी सुप्रिया और मराठी रंगमंच और हिन्दी फ़िल्मों की “ग्लैमरस” माँ रीमा लागू। उनका एक और निर्माण था “हद कर दी”। एक अच्छे गायक और संगीतप्रेमी होने के कारण (मराठी हैं, तो होंगे ही) उन्होंने स्टार टीवी पर एक हिट कार्यक्रम “चलती का नाम अंताक्षरी” भी संचालित किया। उम्र के पचासवें वर्ष में उन्होंने एक चुनौती के रूप में स्टार टीवी के नृत्य कार्यक्रम “नच बलिये” (Nach Baliye) में अपनी पत्नी के साथ भाग लिया। सभी प्रतियोगियों में ये जोड़ी सबसे अधिक उम्र की थी। इन्होंने भी सोचा नहीं था कि वे इतने आगे जायेंगे, इसलिये हरेक एपिसोड को ये अपना अन्तिम नृत्य मानकर करते रहे और अन्त में जीत इन्हीं की हुई और इस जोड़ी को इनाम के तौर पर चालीस लाख रुपये मिले। उम्र के इस पड़ाव पर एक डांस के शो में युवाओं को पछाड़कर जीतना वाकई अदभुत है। 2007 में जी टीवी मराठी पर इन्होंने एक शो शुरु किया है, जिसमें ये जज भी बने हैं, नाम है “एका पेक्षा एक” (एक से बढ़कर एक)। इसमें सचिन महाराष्ट्र की युवा नृत्य प्रतिभाओं को खोज रहे हैं। इनके बेदाग, चमकदार और विवादरहित करियर में सिर्फ़ एक बार अप्रिय स्थिति बनी थी, जब इनकी गोद ली हुई पुत्री करिश्मा ने इन पर गलतफ़हमी में कुछ आरोप लगाये थे, हालांकि बाद में मामला सुलझ गया था… वैसे इनकी खुद की एक पुत्री श्रिया है, जो अभी अठारह वर्ष की है।

इससे बरसों पहले अस्सी के दशक में सचिन ने कई मराठी फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें प्रमुख हैं “माई-बाप”, “नवरी मिळे नवरयाला” (इस फ़िल्म के दौरान ही सुप्रिया से उनका इश्क हुआ और शादी हुई), “माझा पती करोड़पती”, “गम्मत-जम्मत” आदि। मराठी के सशक्त अभिनेता अशोक सराफ़ और स्वर्गीय लक्ष्मीकान्त बेर्डे से उनकी खूब दोस्ती जमती है। बच्चों से उनका प्रेम जगजाहिर है, इसीलिये वे स्टार टीवी के बच्चों के एक डांस शो में फ़रीदा जलाल के साथ जज बने हुए हैं। उनकी हिन्दी और उर्दू उच्चारण एकदम शुद्ध हैं, और कोई कह नहीं सकता कि उसमें मराठी “टच” है (जैसा कि सदाशिव अमरापुरकर के उच्चारण में साफ़ झलकता है)। सचिन अपने शुद्ध उच्चारण का पूरा श्रेय स्वर्गीय मीनाकुमारी (Meena Kumari) को देते हैं, जिनके यहाँ वे बचपन में लगातार मिठाई खाने जाते थे और मीनाकुमारी उन्हें पुत्रवत स्नेह प्रदान करती थीं, उनका उर्दू तलफ़्फ़ुज ठीक करती थीं और हिन्दी से उर्दू के तर्जुमें करके देती थीं। नदिया के पार में उनका भोजपुरी का साफ़ उच्चारण इसका सबूत है।
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रविवार, 06 अप्रैल 2008 18:18
सरकारें चाहती है सभी लोग बेईमान और भ्रष्ट बन जायें…
Corruption, Non-Governance, India, Common Man
हाल ही में उज्जैन नगर निगम ने पानी की दरें 60 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर 150 रुपये प्रतिमाह कर दी। यानी कि सीधे ढाई गुना बढ़ोतरी। नगर निगम ने अपने आँकड़ों में स्वीकार किया कि वर्तमान में उज्जैन में लगभग 80,000 मकान हैं, जिनमें से करीब 45,000 घरों में वैध नल कनेक्शन हैं और 10,000 घरों में अवैध नल चल रहे हैं। यदि 10,000 अवैध घरों, झुग्गियों आदि को छोड़ भी दिया जाये तो वैध 45,000 घरों में से सिर्फ़ 15,000 से कुछ ही अधिक घरों से जल दर की वसूली हो पाती है, मतलब सिर्फ़ 25% लोगों से पानी का पैसा वसूला जाता है। 10,000 अवैध और 30,000 वैध पानी लेने वालों पर नगर निगम का कोई बस नहीं चलता है। बेशर्मी की पराकाष्ठा तो यह है कि सब कुछ मालूम होने के बावजूद ईमानदारी से पानी का पैसा चुका रहे लोगों पर बोझा बढ़ा कर 60 रुपये से 150 रुपये कर दिया गया। बड़े-बड़े संस्थानों, उद्योगों, राजनेताओं, उनके लगुए-भगुओं-चमचों, पहलवानों, जाति विशेष के नलों, सम्प्रदाय विशेष की कालोनियों के नलों का पैसा खुलेआम जमा नहीं होता। इन परजीवियों (Parasites) को पाल-पोस रहे हैं वे ईमानदार जल उपभोक्ता जो अपना पैसा भरते हैं। भारत में सरकारें निकम्मी होती हैं, ये बात सभी जानते हैं, सब-कुछ जानबूझकर भी रौबदार लोगों पर कोई कठोर कार्रवाई न होना इस बात का सबूत है कि सरकार में इच्छाशक्ति ही नहीं है, कि वह इन “खास” VIP लोगों से पानी का पैसा वसूल कर सके। अब ईमानदार उपभोक्ता यही सवाल पूछ रहा है, कि “मैं ही क्यों पानी का पैसा भरूँ? क्यों न मैं भी चोरी कर लूँ? पहली बात तो सरकार कुछ करेगी नहीं, यदि करने का मन बना भी ले तो नेता हैं बचाने के लिये, जब चोरी बढ़ते-बढ़ते 10-15 हजार रुपये की हो जायेगी, तब सरकार खुद कहेगी कि “अच्छा चलो छोड़ो, चार हजार रुपये दे दो…बाकी का माफ़”।
आँकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में बिजली का नुकसान (Loss) करीब-करीब 35% है। इस 35% में से अधिकतर नुकसान ट्रांसमिशन और सप्लाई के दोषों के कारण है। बिजली बिलों की वसूली में हालांकि गत कुछ वर्षों में सख्ती आई है, लेकिन यह सख्ती सिर्फ़ मध्यम वर्ग और आम आदमी के हिस्से ही है। उच्च वर्ग तो अपने उद्योगों में दादागिरी से बिजली चोरी करता है, निम्न वर्ग भी अपनी झोपड़ियों में दादागिरी से हीटर जला रहा है, पिस रहा है मध्यम वर्ग जो ईमानदारी से बिजली का बिल भर रहा है। वह ईमानदार बिजली उपभोक्ता भी सरकार से पूछता है कि अकेले मालनपुर (भिण्ड), पीथमपुर (इन्दौर), मण्डीदीप (भोपाल) जैसे Industrial Area में रोजाना करोड़ों की बिजली चोरी हो रही है, क्यों न मैं भी सीधे तार डालकर बिजली चोरी कर लूँ?
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देश के हर शहर में आधुनिक जमीन चोर हैं। दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों से मिलीभगत करके लोगों ने करोड़ों की जमीन अतिक्रमण करके दबा ली, उन पर आलीशान शोरूम, दफ़्तर खोल लिये, लाखों-करोड़ों रुपये कमा लिये, जब उच्चतम न्यायालय ने डंडा चलाया तो दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार किसके पक्ष में खड़ी हुई, चोरों के। सीलिंग को लेकर जमाने भर के अड़ंगे लगाये गये, अतिक्रमणकारी सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने लगे, जमीनों पर नाजायज कब्जे वालों ने कहा “हमारा क्या कसूर है?”, और ईमानदारी से नक्शा पास करवाकर, नियमों के मुताबिक “सेट-बैक” छोड़ने वाला, अनुमति लेकर ही दूसरी मंजिल बनाने वाला भी खुद से पूछ रहा है… “मेरा क्या कसूर है?…”
केन्द्र सरकार द्वारा यह घोषित नियम है कि कुकिंग गैस LPG सिर्फ़ घरेलू खाना पकाने के लिये उपयोग की जायेगी, इसका कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं होगा। हमें-आपको-आम आदमी को चारों तरफ़ दिखाई दे रहा है कि लगभग सभी होटलों में, ढाबों में, चाय ठेलों पर, छोटे-बड़े मिठाई शो-रूमों पर खुलेआम धड़ल्ले से 450/- रुपये का सिलेण्डर लेकर काम किया जा रहा है। जिनकी कार खरीदने की औकात तो है (लेकिन उसे पेट्रोल से चलाने की औकात नहीं है), वे हर दूसरे रोज अपनी कार में कुकिंग गैस भरवाते नजर आते हैं, या अपने घर की टंकी सरेआम कार में लगाते दिख जाते हैं। लेकिन यह सब कुछ सरकार(?) को नहीं दिखाई देता। सरकार सिर्फ़ नियम बनाने में लगी है – कि अब महीने में सिर्फ़ एक सिलेण्डर दिया जायेगा, कि 25 दिन के पहले गैस का नम्बर नहीं लगाया जायेगा आदि-आदि। आम आदमी जो बचा-बचाकर गैस उपयोग करता है, डीलर की झिड़कियाँ सुनता है, हॉकर की मान-मनौव्वल करता है, वह पूछता है कि “मेरा कसूर क्या है…?” मैं तो गैस चोरी भी नहीं कर सकता।
केन्द्र सरकार की कर्ज माफ़ी (Loan Waiver Scheme) की घोषणा मात्र से अकेले उज्जैन जिले के सहकारी बैंकों के 5000 करोड़ रुपये फ़ँस गये हैं। चूँकि अभी सिर्फ़ घोषणा हुई है, गाइडलाइन नहीं आई हैं, इसलिये लगभग सभी किसानों ने हाथ ऊँचे कर दिये हैं कि “काहे की वसूली… कर्जा तो माफ़ हो गया है…”। अब ईमानदार किसान जिसने बैंक का कर्ज समय पर चुका दिया था, खुद से पूछ रहा है कि उसने क्या गलती कर दी? जो उसे इस प्रकार की सजा मिल गई है।
गरज यह कि चारों तरफ़ खुलेआम लूट मची हुई है हर चीज में हर बात में… जिसका दाँव लग रहा है चोरी कर रहा है, डाके डाल रहा है। सरकार भी उन्हीं के साथ है… निकम्मी सरकारें पानी चोरी नहीं रोक पातीं, बिजली चोरी नहीं रोक पातीं, कुकिंग गैस का व्यावसायिक उपयोग नहीं रोक पातीं, परीक्षाओं में नकल नहीं रोक पातीं, बड़े उद्योगपति से टैक्स वसूल नहीं कर पातीं, अतिक्रमणकर्ता से जमीन खाली नहीं करवा पातीं, कर्ज वसूल नहीं कर पातीं तो उसे माफ़ कर देती हैं…। ऐसा लगता है कि हमारी नपुंसक सरकारों ने ठान लिया है कि कानून-व्यवस्था का राज तो उनसे चलेगा नहीं, क्यों न पूरी जनता को चोर, उठाईगीरा, बेईमान और भ्रष्ट बना दिया जाये… है ना मेरा भारत महान !!!
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हाल ही में उज्जैन नगर निगम ने पानी की दरें 60 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर 150 रुपये प्रतिमाह कर दी। यानी कि सीधे ढाई गुना बढ़ोतरी। नगर निगम ने अपने आँकड़ों में स्वीकार किया कि वर्तमान में उज्जैन में लगभग 80,000 मकान हैं, जिनमें से करीब 45,000 घरों में वैध नल कनेक्शन हैं और 10,000 घरों में अवैध नल चल रहे हैं। यदि 10,000 अवैध घरों, झुग्गियों आदि को छोड़ भी दिया जाये तो वैध 45,000 घरों में से सिर्फ़ 15,000 से कुछ ही अधिक घरों से जल दर की वसूली हो पाती है, मतलब सिर्फ़ 25% लोगों से पानी का पैसा वसूला जाता है। 10,000 अवैध और 30,000 वैध पानी लेने वालों पर नगर निगम का कोई बस नहीं चलता है। बेशर्मी की पराकाष्ठा तो यह है कि सब कुछ मालूम होने के बावजूद ईमानदारी से पानी का पैसा चुका रहे लोगों पर बोझा बढ़ा कर 60 रुपये से 150 रुपये कर दिया गया। बड़े-बड़े संस्थानों, उद्योगों, राजनेताओं, उनके लगुए-भगुओं-चमचों, पहलवानों, जाति विशेष के नलों, सम्प्रदाय विशेष की कालोनियों के नलों का पैसा खुलेआम जमा नहीं होता। इन परजीवियों (Parasites) को पाल-पोस रहे हैं वे ईमानदार जल उपभोक्ता जो अपना पैसा भरते हैं। भारत में सरकारें निकम्मी होती हैं, ये बात सभी जानते हैं, सब-कुछ जानबूझकर भी रौबदार लोगों पर कोई कठोर कार्रवाई न होना इस बात का सबूत है कि सरकार में इच्छाशक्ति ही नहीं है, कि वह इन “खास” VIP लोगों से पानी का पैसा वसूल कर सके। अब ईमानदार उपभोक्ता यही सवाल पूछ रहा है, कि “मैं ही क्यों पानी का पैसा भरूँ? क्यों न मैं भी चोरी कर लूँ? पहली बात तो सरकार कुछ करेगी नहीं, यदि करने का मन बना भी ले तो नेता हैं बचाने के लिये, जब चोरी बढ़ते-बढ़ते 10-15 हजार रुपये की हो जायेगी, तब सरकार खुद कहेगी कि “अच्छा चलो छोड़ो, चार हजार रुपये दे दो…बाकी का माफ़”।
आँकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में बिजली का नुकसान (Loss) करीब-करीब 35% है। इस 35% में से अधिकतर नुकसान ट्रांसमिशन और सप्लाई के दोषों के कारण है। बिजली बिलों की वसूली में हालांकि गत कुछ वर्षों में सख्ती आई है, लेकिन यह सख्ती सिर्फ़ मध्यम वर्ग और आम आदमी के हिस्से ही है। उच्च वर्ग तो अपने उद्योगों में दादागिरी से बिजली चोरी करता है, निम्न वर्ग भी अपनी झोपड़ियों में दादागिरी से हीटर जला रहा है, पिस रहा है मध्यम वर्ग जो ईमानदारी से बिजली का बिल भर रहा है। वह ईमानदार बिजली उपभोक्ता भी सरकार से पूछता है कि अकेले मालनपुर (भिण्ड), पीथमपुर (इन्दौर), मण्डीदीप (भोपाल) जैसे Industrial Area में रोजाना करोड़ों की बिजली चोरी हो रही है, क्यों न मैं भी सीधे तार डालकर बिजली चोरी कर लूँ?
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देश के हर शहर में आधुनिक जमीन चोर हैं। दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों से मिलीभगत करके लोगों ने करोड़ों की जमीन अतिक्रमण करके दबा ली, उन पर आलीशान शोरूम, दफ़्तर खोल लिये, लाखों-करोड़ों रुपये कमा लिये, जब उच्चतम न्यायालय ने डंडा चलाया तो दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार किसके पक्ष में खड़ी हुई, चोरों के। सीलिंग को लेकर जमाने भर के अड़ंगे लगाये गये, अतिक्रमणकारी सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने लगे, जमीनों पर नाजायज कब्जे वालों ने कहा “हमारा क्या कसूर है?”, और ईमानदारी से नक्शा पास करवाकर, नियमों के मुताबिक “सेट-बैक” छोड़ने वाला, अनुमति लेकर ही दूसरी मंजिल बनाने वाला भी खुद से पूछ रहा है… “मेरा क्या कसूर है?…”
केन्द्र सरकार द्वारा यह घोषित नियम है कि कुकिंग गैस LPG सिर्फ़ घरेलू खाना पकाने के लिये उपयोग की जायेगी, इसका कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं होगा। हमें-आपको-आम आदमी को चारों तरफ़ दिखाई दे रहा है कि लगभग सभी होटलों में, ढाबों में, चाय ठेलों पर, छोटे-बड़े मिठाई शो-रूमों पर खुलेआम धड़ल्ले से 450/- रुपये का सिलेण्डर लेकर काम किया जा रहा है। जिनकी कार खरीदने की औकात तो है (लेकिन उसे पेट्रोल से चलाने की औकात नहीं है), वे हर दूसरे रोज अपनी कार में कुकिंग गैस भरवाते नजर आते हैं, या अपने घर की टंकी सरेआम कार में लगाते दिख जाते हैं। लेकिन यह सब कुछ सरकार(?) को नहीं दिखाई देता। सरकार सिर्फ़ नियम बनाने में लगी है – कि अब महीने में सिर्फ़ एक सिलेण्डर दिया जायेगा, कि 25 दिन के पहले गैस का नम्बर नहीं लगाया जायेगा आदि-आदि। आम आदमी जो बचा-बचाकर गैस उपयोग करता है, डीलर की झिड़कियाँ सुनता है, हॉकर की मान-मनौव्वल करता है, वह पूछता है कि “मेरा कसूर क्या है…?” मैं तो गैस चोरी भी नहीं कर सकता।
केन्द्र सरकार की कर्ज माफ़ी (Loan Waiver Scheme) की घोषणा मात्र से अकेले उज्जैन जिले के सहकारी बैंकों के 5000 करोड़ रुपये फ़ँस गये हैं। चूँकि अभी सिर्फ़ घोषणा हुई है, गाइडलाइन नहीं आई हैं, इसलिये लगभग सभी किसानों ने हाथ ऊँचे कर दिये हैं कि “काहे की वसूली… कर्जा तो माफ़ हो गया है…”। अब ईमानदार किसान जिसने बैंक का कर्ज समय पर चुका दिया था, खुद से पूछ रहा है कि उसने क्या गलती कर दी? जो उसे इस प्रकार की सजा मिल गई है।
गरज यह कि चारों तरफ़ खुलेआम लूट मची हुई है हर चीज में हर बात में… जिसका दाँव लग रहा है चोरी कर रहा है, डाके डाल रहा है। सरकार भी उन्हीं के साथ है… निकम्मी सरकारें पानी चोरी नहीं रोक पातीं, बिजली चोरी नहीं रोक पातीं, कुकिंग गैस का व्यावसायिक उपयोग नहीं रोक पातीं, परीक्षाओं में नकल नहीं रोक पातीं, बड़े उद्योगपति से टैक्स वसूल नहीं कर पातीं, अतिक्रमणकर्ता से जमीन खाली नहीं करवा पातीं, कर्ज वसूल नहीं कर पातीं तो उसे माफ़ कर देती हैं…। ऐसा लगता है कि हमारी नपुंसक सरकारों ने ठान लिया है कि कानून-व्यवस्था का राज तो उनसे चलेगा नहीं, क्यों न पूरी जनता को चोर, उठाईगीरा, बेईमान और भ्रष्ट बना दिया जाये… है ना मेरा भारत महान !!!
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बुधवार, 09 अप्रैल 2008 20:53
केन्द्र सरकार को भूटिया ने जमाई “किक” और किरण बेदी ने जड़ा “तमाचा”…
China Tibet Human Rights India Coca Cola
ओलम्पिक मशाल भारत आने वाली है, ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की जा रही है, मानो हजारों आतंकवादी देश में घुस आये हों और नेताओं को बस मारने ही वाले हों। प्रणव मुखर्जी साहब दलाई लामा को सरेआम धमका रहे हैं कि “वे राजनीति नहीं करें” (हुर्रियत नेता चाहे जो बकवास करें, दलाई लामा कुछ नहीं बोल सकते, है ना मजेदार!! )। गरज कि चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री का माहौल बना हुआ है। इस माहौल में देश की पहली महिला आईपीएस अफ़सर किरण बेदी ने ओलम्पिक मशाल थामने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि “पिंजरे में बन्द कैदी की तरह मशाल लेकर दौड़ने का कोई मतलब नहीं है…”। असल में सरकार तिब्बती प्रदर्शनकारियों से इतना डर गई है कि उसने दौड़ मार्ग को जालियों से ढाँक दिया है, चप्पे-चप्पे पर पुलिस और सेना के जवान तैनात हैं। बेदी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इस “घुटन” भरे माहौल में वे ओलम्पिक मशाल लेकर नहीं दौड़ सकतीं। इसके पहले फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया पहले “मर्द” रहे जिन्होंने खुलेआम चीन की आलोचना करते हुए तिब्बत के समर्थन में मशाल लेने से इनकार किया। हालांकि किरण बेदी का तर्क भूटिया से कुछ अलग है, लेकिन मकसद वही है कि “तिब्बत में मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिये, चीन तिब्बत के नेताओं से बात करे और भारत सरकार चीन से न दबे।
जो बात एक आम आदमी की समझ में आ रही है वह सरकार को समझ नहीं आ रही। सारी दुनिया में चीन का विरोध शुरु हो गया है, हर जगह ओलम्पिक मशाल को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। बुश, पुतिन और फ़्रांस-जर्मनी आदि के नेता चीन के नेताओं को फ़ोन करके दलाई लामा से बात करने को कह रहे हैं। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं सिवाय प्रदर्शनकारियों को धमकाने के। मानो चीन-तिब्बत मसले से हमें कुछ लेना-देना न हो। सदा-सर्वदा मानवाधिकार और गाँधीवाद की दुहाई देने और गीत गाने वाले लोग चीन सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं, बर्मा के फ़ौजी शासकों से चर्चायें कर रहे हैं (पाकिस्तान के फ़ौजी शासकों से बात करना तो मजबूरी है)। .चीन सरेआम अपना घटिया माल भारत में चेप रहा है, बाजार का सन्तुलन बिगाड़ रहा है, अरुणाचल में दिनदहाड़े हमें आँखें दिखा रहा है, हमारी सीमा पर अतिक्रमण कर रहा है, पाकिस्तान से उसका प्रेम जगजाहिर है, वह आधी रात को हमारे राजदूत को बुलाकर डाँट रहा है… लेकिन हमारे वामपंथी नेताओं की “बन्दर घुड़की” के आगे सरकार बेबस नजर आ रही है। चीन ने भारत सरकार को झुकने को कहा तो सरकार लेट ही गई। सबसे अफ़सोसनाक रवैया तथाकथित मानवाधिकारवादियों का रहा, जिन्हें “गाजा पट्टी” की ज्यादा चिंता है, पड़ोसी तिब्बत की नहीं (जाहिर है कि तिब्बती वोट नहीं डालते) ।

असल में सरकार ने चीन की आँख में उंगली करने का एक शानदार और सुनहरा मौका गँवा दिया। जब चीन हमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट दिलवाने में हमारी कोई मदद नहीं करने वाला, व्यापार सन्तुलन भी आने वाले वर्षों में उसके ही पक्ष में ही रहने वाला है, गाहे-बगाहे पाकिस्तान को हथियार और परमाणु सामग्री बेचता रहेगा, तो फ़िर हम क्यों और कब तक उसके लिये कालीन बिछाते रहें? लेकिन सरकार कुछ खास पूंजीपतियों (जिनके चीन के साथ व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं और जिन्हें आने वाले समय में चीन में कमाई के अवसर दिख रहे हैं) तथा वामपंथियों के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गई है।
बाजारवाद की आँधी में सरकार ने विदेश में अपनी ही खिल्ली उड़वा ली है। इस पूरे विवाद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बहुत बड़ा रोल है। ओलम्पिक का मतलब है अरबों डॉलर की कमाई, कोकाकोला और रीबॉक जैसी कम्पनियों ने आमिर खान और सचिन तेंडुलकर पर व्यावसायिक दबाव बनाकर मशाल दौड़ के लिये उन्हें राजी कर लिया। यह खेल सिर्फ़ खेल नहीं हैं, बल्कि इन कम्पनियों के लिये भविष्य के बाजार की रणनीति का प्रचार भी होते हैं। सारे विश्व में इन कम्पनियों ने मोटी रकम दे-देकर नामचीन खिलाड़ियों को खरीदा है और “खेल भावना” के नाम पर उन्हें दौड़ाया है, अब आने वाले छः महीनों तक विज्ञापनों में ये लोग मशाल लिये कम्पनियों का माल बेचते नजर आयेंगे। लेकिन भूटिया और किरण बेदी की अंतरात्मा को वे नहीं खरीद सकीं। इन लोगों ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर विरोध का दामन थाम लिया है।
हम क्षेत्रीय महाशक्ति होने का दम भरते हैं, किस बिना पर? क्षेत्रीय महाशक्ति ऐसी पिलपिलाये हुए मेमने की तरह नहीं बोला करतीं, और एक बात तो तय है कि यदि भारत सरकार गाँधीवाद और मानवाधिकार की बातें करती है तो भी, और यदि महाशक्ति बनने का ढोंग करती हो तब भी…दोनों परिस्थितियों में उसे तिब्बत के लिये बोलना जरूरी है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही। पिछले लगभग बीस वर्षों के आर्थिक उदारीकरण के बाद भी हम मतिभ्रम में फ़ँसे हुए हैं कि हमें क्या होना चाहिये, पूर्ण बाजारवादी, गाँधीवादी या सैनिक/आर्थिक महाशक्ति, और इस चक्कर में हम कुछ भी नहीं बन पाये हैं…
Beijing Olympics and Tibet Issue, Olympics and Human Rights, Free Tibet Movement, China and Olympics, Tibet, Dalai Lama, India, Market Economy, Coca Cola, Reebok, Olympics and China, Gandhism, Nuclear Power, Market Forces, Bhutia, Kiran Bedi, Sachin Tendulkar, Aamir Khan, Coca Cola, Communists in India, Policies of China over Tibet and Congress Government, Pakistan, Human Rights, Kashmir and China, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
ओलम्पिक मशाल भारत आने वाली है, ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की जा रही है, मानो हजारों आतंकवादी देश में घुस आये हों और नेताओं को बस मारने ही वाले हों। प्रणव मुखर्जी साहब दलाई लामा को सरेआम धमका रहे हैं कि “वे राजनीति नहीं करें” (हुर्रियत नेता चाहे जो बकवास करें, दलाई लामा कुछ नहीं बोल सकते, है ना मजेदार!! )। गरज कि चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री का माहौल बना हुआ है। इस माहौल में देश की पहली महिला आईपीएस अफ़सर किरण बेदी ने ओलम्पिक मशाल थामने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि “पिंजरे में बन्द कैदी की तरह मशाल लेकर दौड़ने का कोई मतलब नहीं है…”। असल में सरकार तिब्बती प्रदर्शनकारियों से इतना डर गई है कि उसने दौड़ मार्ग को जालियों से ढाँक दिया है, चप्पे-चप्पे पर पुलिस और सेना के जवान तैनात हैं। बेदी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इस “घुटन” भरे माहौल में वे ओलम्पिक मशाल लेकर नहीं दौड़ सकतीं। इसके पहले फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया पहले “मर्द” रहे जिन्होंने खुलेआम चीन की आलोचना करते हुए तिब्बत के समर्थन में मशाल लेने से इनकार किया। हालांकि किरण बेदी का तर्क भूटिया से कुछ अलग है, लेकिन मकसद वही है कि “तिब्बत में मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिये, चीन तिब्बत के नेताओं से बात करे और भारत सरकार चीन से न दबे।
जो बात एक आम आदमी की समझ में आ रही है वह सरकार को समझ नहीं आ रही। सारी दुनिया में चीन का विरोध शुरु हो गया है, हर जगह ओलम्पिक मशाल को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। बुश, पुतिन और फ़्रांस-जर्मनी आदि के नेता चीन के नेताओं को फ़ोन करके दलाई लामा से बात करने को कह रहे हैं। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं सिवाय प्रदर्शनकारियों को धमकाने के। मानो चीन-तिब्बत मसले से हमें कुछ लेना-देना न हो। सदा-सर्वदा मानवाधिकार और गाँधीवाद की दुहाई देने और गीत गाने वाले लोग चीन सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं, बर्मा के फ़ौजी शासकों से चर्चायें कर रहे हैं (पाकिस्तान के फ़ौजी शासकों से बात करना तो मजबूरी है)। .चीन सरेआम अपना घटिया माल भारत में चेप रहा है, बाजार का सन्तुलन बिगाड़ रहा है, अरुणाचल में दिनदहाड़े हमें आँखें दिखा रहा है, हमारी सीमा पर अतिक्रमण कर रहा है, पाकिस्तान से उसका प्रेम जगजाहिर है, वह आधी रात को हमारे राजदूत को बुलाकर डाँट रहा है… लेकिन हमारे वामपंथी नेताओं की “बन्दर घुड़की” के आगे सरकार बेबस नजर आ रही है। चीन ने भारत सरकार को झुकने को कहा तो सरकार लेट ही गई। सबसे अफ़सोसनाक रवैया तथाकथित मानवाधिकारवादियों का रहा, जिन्हें “गाजा पट्टी” की ज्यादा चिंता है, पड़ोसी तिब्बत की नहीं (जाहिर है कि तिब्बती वोट नहीं डालते) ।

असल में सरकार ने चीन की आँख में उंगली करने का एक शानदार और सुनहरा मौका गँवा दिया। जब चीन हमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट दिलवाने में हमारी कोई मदद नहीं करने वाला, व्यापार सन्तुलन भी आने वाले वर्षों में उसके ही पक्ष में ही रहने वाला है, गाहे-बगाहे पाकिस्तान को हथियार और परमाणु सामग्री बेचता रहेगा, तो फ़िर हम क्यों और कब तक उसके लिये कालीन बिछाते रहें? लेकिन सरकार कुछ खास पूंजीपतियों (जिनके चीन के साथ व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं और जिन्हें आने वाले समय में चीन में कमाई के अवसर दिख रहे हैं) तथा वामपंथियों के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गई है।
बाजारवाद की आँधी में सरकार ने विदेश में अपनी ही खिल्ली उड़वा ली है। इस पूरे विवाद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बहुत बड़ा रोल है। ओलम्पिक का मतलब है अरबों डॉलर की कमाई, कोकाकोला और रीबॉक जैसी कम्पनियों ने आमिर खान और सचिन तेंडुलकर पर व्यावसायिक दबाव बनाकर मशाल दौड़ के लिये उन्हें राजी कर लिया। यह खेल सिर्फ़ खेल नहीं हैं, बल्कि इन कम्पनियों के लिये भविष्य के बाजार की रणनीति का प्रचार भी होते हैं। सारे विश्व में इन कम्पनियों ने मोटी रकम दे-देकर नामचीन खिलाड़ियों को खरीदा है और “खेल भावना” के नाम पर उन्हें दौड़ाया है, अब आने वाले छः महीनों तक विज्ञापनों में ये लोग मशाल लिये कम्पनियों का माल बेचते नजर आयेंगे। लेकिन भूटिया और किरण बेदी की अंतरात्मा को वे नहीं खरीद सकीं। इन लोगों ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर विरोध का दामन थाम लिया है।
हम क्षेत्रीय महाशक्ति होने का दम भरते हैं, किस बिना पर? क्षेत्रीय महाशक्ति ऐसी पिलपिलाये हुए मेमने की तरह नहीं बोला करतीं, और एक बात तो तय है कि यदि भारत सरकार गाँधीवाद और मानवाधिकार की बातें करती है तो भी, और यदि महाशक्ति बनने का ढोंग करती हो तब भी…दोनों परिस्थितियों में उसे तिब्बत के लिये बोलना जरूरी है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही। पिछले लगभग बीस वर्षों के आर्थिक उदारीकरण के बाद भी हम मतिभ्रम में फ़ँसे हुए हैं कि हमें क्या होना चाहिये, पूर्ण बाजारवादी, गाँधीवादी या सैनिक/आर्थिक महाशक्ति, और इस चक्कर में हम कुछ भी नहीं बन पाये हैं…
Beijing Olympics and Tibet Issue, Olympics and Human Rights, Free Tibet Movement, China and Olympics, Tibet, Dalai Lama, India, Market Economy, Coca Cola, Reebok, Olympics and China, Gandhism, Nuclear Power, Market Forces, Bhutia, Kiran Bedi, Sachin Tendulkar, Aamir Khan, Coca Cola, Communists in India, Policies of China over Tibet and Congress Government, Pakistan, Human Rights, Kashmir and China, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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शनिवार, 12 अप्रैल 2008 20:19
गरीब-मध्यमवर्गीय ब्राह्मणों “सामाजिक न्याय” के लिये कुर्बान हो जाओ…
Poor Brahmins Social Justice and Reservation
केन्द्र सरकार के उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगा दी है। अब कांग्रेस सहित सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी रोटियाँ नये सिरे से सेंक सकेंगे। निर्णय आये को अभी दो-चार दिन भी नहीं हुए हैं, लेकिन तमाम चैनलों और अखबारों में नेताओं और पिछड़े वर्ग के रहनुमाओं द्वारा “क्रीमी लेयर” को आरक्षण से बाहर रखने पर चिल्लाचोट मचना शुरु हो गई है। निजी शिक्षण संस्थाओं में भी आरक्षण लागू करवाने का इशारा “ओबीसी के मसीहा” अर्जुनसिंह पहले ही दे चुके हैं, पासवान और मायावती पहले ही प्रायवेट कम्पनियों में 33% प्रतिशत आरक्षण की माँग कर चुके हैं। यानी कि सभी को अधिक से अधिक हिस्सेदारी चाहिये। इस सारे “तमाशे” में एक वर्ग सबसे दूर उपेक्षित सा खड़ा है, वह है निम्न और मध्यम वर्ग के ब्राह्मणों का, जिसके बारे में न तो कोई बात कर रहा है, न ही कोई उससे पूछ रहा है कि उसकी क्या गलती है। स्वयंभू पत्रकार और जे-एन-यू के कथित विद्वान लगातार आँकड़े परोस रहे हैं कि सरकारी नौकरियों में कितने प्रतिशत ब्राह्मण हैं, कितने प्रतिशत दलित है, कितने मुसलमान हैं आदि-आदि। न तो गुणवत्ता की बात हो रही है, न ही अन्याय की। यह “बदला” लिया ही इसलिये जा रहा है कि हमारे पूर्वजों ने कभी अत्याचार किये थे। जाहिर है कि परदादा के कर्मों का फ़ल परपोते को भुगतना पड़ रहा है, “सामाजिक न्याय” के नाम पर।
आँकड़े ही परोसने हैं तो मैं भी बता सकता हूँ कि सिर्फ़ दिल्ली मे कम से कम 50 सुलभ शौचालय हैं, जिनका “मेंटेनेंस” और सफ़ाई का काम ब्राह्मण कर रहे हैं। एक-एक शौचालय में 6-6 ब्राह्मणों को रोजगार मिला हुआ है, ये लोग उत्तरप्रदेश के उन गाँवों से आये हैं जहाँ की दलित आबादी 65-70% है। दिल्ली के पटेल नगर चौराहे पर खड़े रिक्शे वालों में से अधिकतर ब्राह्मण हैं। तमिलनाडु में आरक्षण लगभग 70% तक पहुँच जाने के कारण ज्यादातर ब्राह्मण तमिलनाडु से पलायन कर चुके हैं। उप्र और बिहार की कुल 600 सीटों में से सिर्फ़ चुनिंदा (5 से 10) विधायक ही ब्राह्मण हैं, बाकी पर यादवों और दलितों का कब्जा है। कश्मीर से चार लाख पंडितों को खदेड़ा जा चुका है, कई की हत्या की गई और आज हजारों अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं पूछ रहा। अधिकतर राज्यों में ब्राह्मणों की 40-45% आबादी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। तमिलनाडु और कर्नाटक में मंदिरों में पुजारी की तनख्वाह आज भी सिर्फ़ 300 रुपये है, जबकि मन्दिर के स्टाफ़ का वेतन 2500 रुपये है। भारत सरकार लगभग एक हजार करोड़ रुपये मस्जिदों में इमामों को वजीफ़े देती है और लगभग 200 करोड़ की सब्सिडी हज के लिये अलग से, लेकिन उसके पास गरीब ब्राह्मणों के लिये कुछ नहीं है। कर्नाटक सरकार द्वारा विधानसभा में रखे गये आँकड़ों के मुताबिक राज्य के ईसाईयों की औसत मासिक आमदनी है 1562/-, मुसलमानों की 794/-, वोक्कालिगा समुदाय की 914/-, अनुसूचित जाति की 680/- रुपये जबकि ब्राह्मणों की सिर्फ़ 537/- रुपये मासिक। असल समस्या यह है कि दलित, ओबीसी और मुसलमान के वोट मिलाकर कोई भी राजनैतिक पार्टी आराम से सत्ता में आ सकती है, फ़िर क्यों कोई ब्राह्मणों की फ़िक्र करने लगा, और जब भी “प्रतिभा” के साथ अन्याय की बात की जाती है, तो देश जाये भाड़ में, हमारी अपनी जाति का भला कैसे हो यह देखा जायेगा।

आने वाले दिनों में “नेता” क्या करेंगे इसका एक अनुमान :
इस बात में मुझे कोई शंका नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अब माल कूटने के लिये और अपने चमचों और रिश्तेदारों को भरने के लिये “क्रीमी लेयर” को नये सिरे से परिभाषित किया जायेगा। सभी ओबीसी सांसदों और विधायकों को “गरीब” मान लिया जायेगा, सभी ओबीसी प्रशासनिक अफ़सरों, बैंक अधिकारियों, अन्य शासकीय कर्मचारियों, बैंक अधिकारी, डॉक्टर आदि सभी को “गरीब” या “अतिगरीब” मान लिया जायेगा, और जो सचमुच गरीब ओबीसी छात्र हैं वे मुँह तकते रह जायेंगे। फ़िर अगला कदम होगा निजी / प्रायवेट कॉलेजों और शिक्षण संस्थाओं की बाँहें मरोड़कर उनसे आरक्षण लागू करवाने की (जाहिर है कि वहाँ भी मोटी फ़ीस के कारण पैसे वाले ओबीसी ही घुस पायेंगे)।
एकाध-दो वर्षों या अगले चुनाव आने तक सरकारों का अगला कदम होगा निजी कम्पनियों में भी आरक्षण देने का। उद्योगपति को अपना फ़ायदा देखना है, वह सरकार से करों में छूट हासिल करेगा, “सेज” के नाम पर जमीन हथियायेगा और खुशी-खुशी 30% “अनप्रोडक्टिव” लोगों को नौकरी पर रख लेगा, इस सारी प्रक्रिया में “पेट पर लात” पड़ेगी फ़िर से गरीब ब्राह्मण के ही। सरकारों ने यह मान लिया है कि कोई ब्राह्मण है तो वह अमीर ही होगा। न तो उसे परीक्षा फ़ीस में कोई रियायत मिलेगी, न “एज लिमिट” में कोई छूट होगी, न ही किसी प्रकार के मुफ़्त कोर्स उपलब्ध करवाये जायेंगे, न ही कोई छात्रवृत्ति प्रदान की जायेगी। सुप्रीम कोर्ट के नतीजों को लात मारने की कांग्रेस की पुरानी आदत है (रामास्वामी केस हो या शाहबानो केस), इसलिये इस फ़ैसले पर खुश न हों, “वे” लोग इसे भी अपने पक्ष में करने के लिये कानून बदल देंगे, परिभाषायें बदल देंगे, ओबीसी लिस्ट कम करना तो दूर, बढ़ा भी देंगे…
बहरहाल, अब जून-जुलाई का महीना नजदीक आ रहा है, विभिन्न परीक्षाओं के नतीजे और एडमिशन चालू होंगे। वह वक्त हजारों युवाओं के सपने टूटने का मौसम होगा, ये युवक 90-95 प्रतिशत अंक लाकर भी सिर्फ़ इसलिये अपना मनपसन्द विषय नहीं चुन पायेंगे, क्योंकि उन्हें “सामाजिक न्याय” नाम का धर्म पूरा करना है। वे खुली आँखों से अपने साथ अन्याय होते देख सकेंगे, वे सरेआम देख सकेंगे कि 90% अंक लाने के बावजूद वह प्रतिभाशाली कॉलेज के गेट के बाहर खड़ा है और उसका “दोस्त” 50-60% अंक लाकर भी उससे आगे जा रहा है। जो पैसे वाला होगा वह अपने बेटे के लिये कुछ ज्यादा पैसा देकर इंजीनियरिंग/ डॉक्टरी की सीट खरीद लेगा, कुछ सीटें “NRI” हथिया ले जायेंगे, वह कुछ नहीं कर पायेगा सिवाय घुट-घुटकर जीने के, अपने से कमतर अंक और प्रतिभा वाले को नौकरी पाते देखने के, और “पढ़े फ़ारसी बेचे तेल” कहावत को सच होता पाने के लिये। जाहिर है कि सीटें कम हैं, प्रतिभा का विस्फ़ोट ज्यादा है और जो लोग साठ सालों में प्राथमिक शिक्षा का स्तर तक नहीं सुधार पाये, जनसंख्या नियन्त्रित नहीं कर पाये, भ्रष्टाचार नहीं रोक पाये, वे लोग आपको “सामाजिक न्याय”, “अफ़र्मेटिव एक्शन” आदि के उपदेश देंगे और झेड श्रेणी की सुरक्षा के नाम पर लाखों रुपये खर्च करते रहेंगे…
(भाग–2 में जारी… आरक्षण नामक दुश्मन से निपटने हेतु कुछ सुझाव…)
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केन्द्र सरकार के उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगा दी है। अब कांग्रेस सहित सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी रोटियाँ नये सिरे से सेंक सकेंगे। निर्णय आये को अभी दो-चार दिन भी नहीं हुए हैं, लेकिन तमाम चैनलों और अखबारों में नेताओं और पिछड़े वर्ग के रहनुमाओं द्वारा “क्रीमी लेयर” को आरक्षण से बाहर रखने पर चिल्लाचोट मचना शुरु हो गई है। निजी शिक्षण संस्थाओं में भी आरक्षण लागू करवाने का इशारा “ओबीसी के मसीहा” अर्जुनसिंह पहले ही दे चुके हैं, पासवान और मायावती पहले ही प्रायवेट कम्पनियों में 33% प्रतिशत आरक्षण की माँग कर चुके हैं। यानी कि सभी को अधिक से अधिक हिस्सेदारी चाहिये। इस सारे “तमाशे” में एक वर्ग सबसे दूर उपेक्षित सा खड़ा है, वह है निम्न और मध्यम वर्ग के ब्राह्मणों का, जिसके बारे में न तो कोई बात कर रहा है, न ही कोई उससे पूछ रहा है कि उसकी क्या गलती है। स्वयंभू पत्रकार और जे-एन-यू के कथित विद्वान लगातार आँकड़े परोस रहे हैं कि सरकारी नौकरियों में कितने प्रतिशत ब्राह्मण हैं, कितने प्रतिशत दलित है, कितने मुसलमान हैं आदि-आदि। न तो गुणवत्ता की बात हो रही है, न ही अन्याय की। यह “बदला” लिया ही इसलिये जा रहा है कि हमारे पूर्वजों ने कभी अत्याचार किये थे। जाहिर है कि परदादा के कर्मों का फ़ल परपोते को भुगतना पड़ रहा है, “सामाजिक न्याय” के नाम पर।
आँकड़े ही परोसने हैं तो मैं भी बता सकता हूँ कि सिर्फ़ दिल्ली मे कम से कम 50 सुलभ शौचालय हैं, जिनका “मेंटेनेंस” और सफ़ाई का काम ब्राह्मण कर रहे हैं। एक-एक शौचालय में 6-6 ब्राह्मणों को रोजगार मिला हुआ है, ये लोग उत्तरप्रदेश के उन गाँवों से आये हैं जहाँ की दलित आबादी 65-70% है। दिल्ली के पटेल नगर चौराहे पर खड़े रिक्शे वालों में से अधिकतर ब्राह्मण हैं। तमिलनाडु में आरक्षण लगभग 70% तक पहुँच जाने के कारण ज्यादातर ब्राह्मण तमिलनाडु से पलायन कर चुके हैं। उप्र और बिहार की कुल 600 सीटों में से सिर्फ़ चुनिंदा (5 से 10) विधायक ही ब्राह्मण हैं, बाकी पर यादवों और दलितों का कब्जा है। कश्मीर से चार लाख पंडितों को खदेड़ा जा चुका है, कई की हत्या की गई और आज हजारों अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं पूछ रहा। अधिकतर राज्यों में ब्राह्मणों की 40-45% आबादी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। तमिलनाडु और कर्नाटक में मंदिरों में पुजारी की तनख्वाह आज भी सिर्फ़ 300 रुपये है, जबकि मन्दिर के स्टाफ़ का वेतन 2500 रुपये है। भारत सरकार लगभग एक हजार करोड़ रुपये मस्जिदों में इमामों को वजीफ़े देती है और लगभग 200 करोड़ की सब्सिडी हज के लिये अलग से, लेकिन उसके पास गरीब ब्राह्मणों के लिये कुछ नहीं है। कर्नाटक सरकार द्वारा विधानसभा में रखे गये आँकड़ों के मुताबिक राज्य के ईसाईयों की औसत मासिक आमदनी है 1562/-, मुसलमानों की 794/-, वोक्कालिगा समुदाय की 914/-, अनुसूचित जाति की 680/- रुपये जबकि ब्राह्मणों की सिर्फ़ 537/- रुपये मासिक। असल समस्या यह है कि दलित, ओबीसी और मुसलमान के वोट मिलाकर कोई भी राजनैतिक पार्टी आराम से सत्ता में आ सकती है, फ़िर क्यों कोई ब्राह्मणों की फ़िक्र करने लगा, और जब भी “प्रतिभा” के साथ अन्याय की बात की जाती है, तो देश जाये भाड़ में, हमारी अपनी जाति का भला कैसे हो यह देखा जायेगा।

आने वाले दिनों में “नेता” क्या करेंगे इसका एक अनुमान :
इस बात में मुझे कोई शंका नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अब माल कूटने के लिये और अपने चमचों और रिश्तेदारों को भरने के लिये “क्रीमी लेयर” को नये सिरे से परिभाषित किया जायेगा। सभी ओबीसी सांसदों और विधायकों को “गरीब” मान लिया जायेगा, सभी ओबीसी प्रशासनिक अफ़सरों, बैंक अधिकारियों, अन्य शासकीय कर्मचारियों, बैंक अधिकारी, डॉक्टर आदि सभी को “गरीब” या “अतिगरीब” मान लिया जायेगा, और जो सचमुच गरीब ओबीसी छात्र हैं वे मुँह तकते रह जायेंगे। फ़िर अगला कदम होगा निजी / प्रायवेट कॉलेजों और शिक्षण संस्थाओं की बाँहें मरोड़कर उनसे आरक्षण लागू करवाने की (जाहिर है कि वहाँ भी मोटी फ़ीस के कारण पैसे वाले ओबीसी ही घुस पायेंगे)।
एकाध-दो वर्षों या अगले चुनाव आने तक सरकारों का अगला कदम होगा निजी कम्पनियों में भी आरक्षण देने का। उद्योगपति को अपना फ़ायदा देखना है, वह सरकार से करों में छूट हासिल करेगा, “सेज” के नाम पर जमीन हथियायेगा और खुशी-खुशी 30% “अनप्रोडक्टिव” लोगों को नौकरी पर रख लेगा, इस सारी प्रक्रिया में “पेट पर लात” पड़ेगी फ़िर से गरीब ब्राह्मण के ही। सरकारों ने यह मान लिया है कि कोई ब्राह्मण है तो वह अमीर ही होगा। न तो उसे परीक्षा फ़ीस में कोई रियायत मिलेगी, न “एज लिमिट” में कोई छूट होगी, न ही किसी प्रकार के मुफ़्त कोर्स उपलब्ध करवाये जायेंगे, न ही कोई छात्रवृत्ति प्रदान की जायेगी। सुप्रीम कोर्ट के नतीजों को लात मारने की कांग्रेस की पुरानी आदत है (रामास्वामी केस हो या शाहबानो केस), इसलिये इस फ़ैसले पर खुश न हों, “वे” लोग इसे भी अपने पक्ष में करने के लिये कानून बदल देंगे, परिभाषायें बदल देंगे, ओबीसी लिस्ट कम करना तो दूर, बढ़ा भी देंगे…
बहरहाल, अब जून-जुलाई का महीना नजदीक आ रहा है, विभिन्न परीक्षाओं के नतीजे और एडमिशन चालू होंगे। वह वक्त हजारों युवाओं के सपने टूटने का मौसम होगा, ये युवक 90-95 प्रतिशत अंक लाकर भी सिर्फ़ इसलिये अपना मनपसन्द विषय नहीं चुन पायेंगे, क्योंकि उन्हें “सामाजिक न्याय” नाम का धर्म पूरा करना है। वे खुली आँखों से अपने साथ अन्याय होते देख सकेंगे, वे सरेआम देख सकेंगे कि 90% अंक लाने के बावजूद वह प्रतिभाशाली कॉलेज के गेट के बाहर खड़ा है और उसका “दोस्त” 50-60% अंक लाकर भी उससे आगे जा रहा है। जो पैसे वाला होगा वह अपने बेटे के लिये कुछ ज्यादा पैसा देकर इंजीनियरिंग/ डॉक्टरी की सीट खरीद लेगा, कुछ सीटें “NRI” हथिया ले जायेंगे, वह कुछ नहीं कर पायेगा सिवाय घुट-घुटकर जीने के, अपने से कमतर अंक और प्रतिभा वाले को नौकरी पाते देखने के, और “पढ़े फ़ारसी बेचे तेल” कहावत को सच होता पाने के लिये। जाहिर है कि सीटें कम हैं, प्रतिभा का विस्फ़ोट ज्यादा है और जो लोग साठ सालों में प्राथमिक शिक्षा का स्तर तक नहीं सुधार पाये, जनसंख्या नियन्त्रित नहीं कर पाये, भ्रष्टाचार नहीं रोक पाये, वे लोग आपको “सामाजिक न्याय”, “अफ़र्मेटिव एक्शन” आदि के उपदेश देंगे और झेड श्रेणी की सुरक्षा के नाम पर लाखों रुपये खर्च करते रहेंगे…
(भाग–2 में जारी… आरक्षण नामक दुश्मन से निपटने हेतु कुछ सुझाव…)
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रविवार, 13 अप्रैल 2008 17:21
"आरक्षण" नामक राक्षस से कैसे बचा जाये : कुछ उपाय
(भाग 1 से जारी…) जैसा कि मैंने पिछले भाग में लिखा था कि जब कहीं कोई सुनवाई नहीं है, ब्राह्मण कोई “वोट बैंक” नहीं है, तो मध्यमवर्गीय ब्राह्मणों को क्या करना चाहिये? यूँ देखा जाये तो कई विकल्प हैं, जैसे –
(1) अभी फ़िलहाल जब तक निजी कम्पनियों में आरक्षण लागू नहीं है, तब तक वहीं कोशिश की जाये (चाहे शुरुआत में कम वेतन मिले), निजी कम्पनियों का गुणगान करते रहें, कोशिश यही होना चाहिये कि सरकारी नौकरियों का हिस्सा घटता ही जाये और ज्यादा से ज्यादा संस्थानों पर निजी कम्पनियाँ कब्जा कर लें (उद्योगपति चाहे कितने ही समझौते कर ले, “क्वालिटी” से समझौता कम ही करता है, आरक्षण देने के बावजूद वह कुछ जुगाड़ लगाकर कोशिश यही करेगा कि उसे प्रतिभाशाली युवक ही मिलें, इससे सच्चे प्रतिभाशालियों को सही काम मिल सकेगा)। मंडल आयोग का पिटारा खुलने और आर्थिक उदारीकरण के बाद गत 10-15 वर्षों में यह काम बखूबी किया गया है, जिसकी बदौलत ब्राह्मणों को योग्यतानुसार नौकरियाँ मिली हैं। यदि निजी कम्पनियाँ न होतीं तो पता नहीं कितने युवक विदेश चले जाते, क्योंकि उनके लायक नौकरियाँ उन्हें सरकारी क्षेत्र में तो मिलने से रहीं।
(2) एक थोड़ा कठिन रास्ता है विदेश जाने का, अपने दोस्तों-रिश्तेदारों-पहचान वालों की मदद से विदेश में शुरुआत में कोई छोटा सा काम ढूँढने की कोशिश करें, कहीं से लोन वगैरह लेकर विदेश में नौकरी की शुरुआत करें और धीरे-धीरे आगे बढ़ें। यदि ज्यादा पढ़े-लिखे है तो न्यूजीलैण्ड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ़िनलैण्ड, नार्वे, स्वीडन जैसे देशों में जाने की कोशिश करें, यदि कामगार या कम पढ़े-लिखे हैं तो दुबई, मस्कत, कुवैत, सिंगापुर, इंडोनेशिया की ओर रुख करें, जरूर कोई न कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी, उसके बाद भारत की ओर पैर करके भी न सोयें। हो सकता है विदेश में आपके साथ अन्याय-शोषण हो, लेकिन यहाँ भी कौन से पलक-पाँवड़े बिछाये जा रहे हैं।

(3) तीसरा रास्ता है व्यापार का, यदि बहुत ज्यादा (95% लायक) अंक नहीं ला पाते हों, तो शुरुआत से ही यह मान लें कि तुम ब्राह्मण हो तो तुम्हें कोई नौकरी नहीं मिलने वाली। कॉलेज के दिनों से ही किसी छोटे व्यापार की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करना शुरु करें, पार्ट टाइम नौकरी करके उस व्यवसाय का अनुभव प्राप्त करें। फ़िर पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के लिये धक्के खाने में वक्त गँवाने की बजाय सीधे बैंकों से लोन लेकर अपना खुद का बिजनेस शुरु करें, और उस व्यवसाय में जम जाने के बाद कम से कम एक गरीब ब्राह्मण को रोजगार देना ना भूलें। मुझे नहीं पता कि कितने लोगों ने गरीब जैन, गरीब सिख, गरीब बोहरा, गरीब बनिया देखे हैं, मैंने तो नहीं देखे, हाँ लेकिन, बहुत गरीब दलित और गरीब ब्राह्मण बहुत देखे हैं, ऐसा क्यों है पता नहीं? लेकिन ब्राह्मण समाज में एकता और सहकार की भावना मजबूत करने की कोशिश करें।
(4) सेना में जाने का विकल्प भी बेहतरीन है। सेना हमेशा जवानों और अफ़सरों की कमी से जूझती रही है, ऐसे में आरक्षण नामक दुश्मन से निपटने के लिये सेना में नौकरी के बारे में जरूर सोचें, क्योंकि वहाँ से रिटायरमेंट के बाद कई कम्पनियों / बैंकों में सुरक्षा गार्ड की नौकरी भी मिल सकती है।
(5) अगला विकल्प है उनके लिये जो बचपन से ही औसत नम्बरों से पास हो रहे हैं। वे तो सरकारी या निजी नौकरी भूल ही जायें, अपनी “लिमिट” पहचान कर किसी हुनर में उस्ताद बनने की कोशिश करें (जाहिर है कि इसमें माता-पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होगी)। बच्चे में क्या प्रतिभा है, या किस प्रकार के हुनरमंद काम में इसे डाला जा सकता है, इसे बचपन से भाँपना होगा। कई क्षेत्र ऐसे हैं जिसमें हुनर के बल पर अच्छा खासा पैसा कमाया जा सकता है। ऑटोमोबाइल मेकेनिक, गीत-संगीत, कोई वाद्य बजाना, कोई वस्तु निर्मित करना, पेंटिंग… यहाँ तक कि कम्प्यूटर पर टायपिंग तक… कोई एक हुनर अपनायें, उसकी गहरी साधना करें और उसमें महारत हासिल करें। नौकरियों में सौ प्रतिशत आरक्षण भी हो जाये तो भी लोग तुम्हें दूर-दूर से ढूँढते हुए आयेंगे और मान-मनौव्वल करेंगे, विश्वास रखिये।
(6) एक और विकल्प है, जिसमें ब्राह्मणों के पुरखे, बाप-दादे पहले से माहिर हैं… वह है पुरोहिताई-पंडिताई-ज्योतिषबाजी-वास्तु आदि (हालांकि व्यक्तिगत रूप से मैं इसके खिलाफ़ हूँ, लेकिन सम्मानजनक तौर से परिवार और पेट पालने के लिये कुछ तो करना ही होगा, अपने से कम अंक पाने वाले और कम प्रतिभाशाली व्यक्ति के हाथ के नीचे काम करने के अपमान से बचते हुए)। जमकर अंधविश्वास फ़ैलायें, कथा-कहानियाँ-किस्से सुनाकर लोगों को डरायें, उन्हें तमाम तरह के अनुष्ठान-यज्ञ-वास्तु-क्रियायें आदि के बारे में बतायें और जमकर माल कूटें। जैसे-जैसे दलित-ओबीसी वर्ग पैसे वाला होता जायेगा, निश्चित जानिये कि वह भी इन चक्करों में जरूर पड़ेगा।
तो गरीब-मध्यमवर्गीय ब्राह्मणों तुम्हें निराश होने की कोई जरूरत नहीं है, “उन्हें” सौ प्रतिशत आरक्षण लेने दो, उन्हें सारी सुविधायें हथियाने दो, उन्हें सारी छूटें लेने दो, सरकार पर भरोसा मत करो वह तुम्हारी कभी नहीं सुनेगी, तुम तो सिर्फ़ अपने दोनो हाथों और तेज दिमाग पर भरोसा रखो। कई रास्ते हैं, सम्मान बनाये रखकर पैसा कमाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं…
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(1) अभी फ़िलहाल जब तक निजी कम्पनियों में आरक्षण लागू नहीं है, तब तक वहीं कोशिश की जाये (चाहे शुरुआत में कम वेतन मिले), निजी कम्पनियों का गुणगान करते रहें, कोशिश यही होना चाहिये कि सरकारी नौकरियों का हिस्सा घटता ही जाये और ज्यादा से ज्यादा संस्थानों पर निजी कम्पनियाँ कब्जा कर लें (उद्योगपति चाहे कितने ही समझौते कर ले, “क्वालिटी” से समझौता कम ही करता है, आरक्षण देने के बावजूद वह कुछ जुगाड़ लगाकर कोशिश यही करेगा कि उसे प्रतिभाशाली युवक ही मिलें, इससे सच्चे प्रतिभाशालियों को सही काम मिल सकेगा)। मंडल आयोग का पिटारा खुलने और आर्थिक उदारीकरण के बाद गत 10-15 वर्षों में यह काम बखूबी किया गया है, जिसकी बदौलत ब्राह्मणों को योग्यतानुसार नौकरियाँ मिली हैं। यदि निजी कम्पनियाँ न होतीं तो पता नहीं कितने युवक विदेश चले जाते, क्योंकि उनके लायक नौकरियाँ उन्हें सरकारी क्षेत्र में तो मिलने से रहीं।
(2) एक थोड़ा कठिन रास्ता है विदेश जाने का, अपने दोस्तों-रिश्तेदारों-पहचान वालों की मदद से विदेश में शुरुआत में कोई छोटा सा काम ढूँढने की कोशिश करें, कहीं से लोन वगैरह लेकर विदेश में नौकरी की शुरुआत करें और धीरे-धीरे आगे बढ़ें। यदि ज्यादा पढ़े-लिखे है तो न्यूजीलैण्ड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ़िनलैण्ड, नार्वे, स्वीडन जैसे देशों में जाने की कोशिश करें, यदि कामगार या कम पढ़े-लिखे हैं तो दुबई, मस्कत, कुवैत, सिंगापुर, इंडोनेशिया की ओर रुख करें, जरूर कोई न कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी, उसके बाद भारत की ओर पैर करके भी न सोयें। हो सकता है विदेश में आपके साथ अन्याय-शोषण हो, लेकिन यहाँ भी कौन से पलक-पाँवड़े बिछाये जा रहे हैं।

(3) तीसरा रास्ता है व्यापार का, यदि बहुत ज्यादा (95% लायक) अंक नहीं ला पाते हों, तो शुरुआत से ही यह मान लें कि तुम ब्राह्मण हो तो तुम्हें कोई नौकरी नहीं मिलने वाली। कॉलेज के दिनों से ही किसी छोटे व्यापार की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करना शुरु करें, पार्ट टाइम नौकरी करके उस व्यवसाय का अनुभव प्राप्त करें। फ़िर पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के लिये धक्के खाने में वक्त गँवाने की बजाय सीधे बैंकों से लोन लेकर अपना खुद का बिजनेस शुरु करें, और उस व्यवसाय में जम जाने के बाद कम से कम एक गरीब ब्राह्मण को रोजगार देना ना भूलें। मुझे नहीं पता कि कितने लोगों ने गरीब जैन, गरीब सिख, गरीब बोहरा, गरीब बनिया देखे हैं, मैंने तो नहीं देखे, हाँ लेकिन, बहुत गरीब दलित और गरीब ब्राह्मण बहुत देखे हैं, ऐसा क्यों है पता नहीं? लेकिन ब्राह्मण समाज में एकता और सहकार की भावना मजबूत करने की कोशिश करें।
(4) सेना में जाने का विकल्प भी बेहतरीन है। सेना हमेशा जवानों और अफ़सरों की कमी से जूझती रही है, ऐसे में आरक्षण नामक दुश्मन से निपटने के लिये सेना में नौकरी के बारे में जरूर सोचें, क्योंकि वहाँ से रिटायरमेंट के बाद कई कम्पनियों / बैंकों में सुरक्षा गार्ड की नौकरी भी मिल सकती है।
(5) अगला विकल्प है उनके लिये जो बचपन से ही औसत नम्बरों से पास हो रहे हैं। वे तो सरकारी या निजी नौकरी भूल ही जायें, अपनी “लिमिट” पहचान कर किसी हुनर में उस्ताद बनने की कोशिश करें (जाहिर है कि इसमें माता-पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होगी)। बच्चे में क्या प्रतिभा है, या किस प्रकार के हुनरमंद काम में इसे डाला जा सकता है, इसे बचपन से भाँपना होगा। कई क्षेत्र ऐसे हैं जिसमें हुनर के बल पर अच्छा खासा पैसा कमाया जा सकता है। ऑटोमोबाइल मेकेनिक, गीत-संगीत, कोई वाद्य बजाना, कोई वस्तु निर्मित करना, पेंटिंग… यहाँ तक कि कम्प्यूटर पर टायपिंग तक… कोई एक हुनर अपनायें, उसकी गहरी साधना करें और उसमें महारत हासिल करें। नौकरियों में सौ प्रतिशत आरक्षण भी हो जाये तो भी लोग तुम्हें दूर-दूर से ढूँढते हुए आयेंगे और मान-मनौव्वल करेंगे, विश्वास रखिये।
(6) एक और विकल्प है, जिसमें ब्राह्मणों के पुरखे, बाप-दादे पहले से माहिर हैं… वह है पुरोहिताई-पंडिताई-ज्योतिषबाजी-वास्तु आदि (हालांकि व्यक्तिगत रूप से मैं इसके खिलाफ़ हूँ, लेकिन सम्मानजनक तौर से परिवार और पेट पालने के लिये कुछ तो करना ही होगा, अपने से कम अंक पाने वाले और कम प्रतिभाशाली व्यक्ति के हाथ के नीचे काम करने के अपमान से बचते हुए)। जमकर अंधविश्वास फ़ैलायें, कथा-कहानियाँ-किस्से सुनाकर लोगों को डरायें, उन्हें तमाम तरह के अनुष्ठान-यज्ञ-वास्तु-क्रियायें आदि के बारे में बतायें और जमकर माल कूटें। जैसे-जैसे दलित-ओबीसी वर्ग पैसे वाला होता जायेगा, निश्चित जानिये कि वह भी इन चक्करों में जरूर पड़ेगा।
तो गरीब-मध्यमवर्गीय ब्राह्मणों तुम्हें निराश होने की कोई जरूरत नहीं है, “उन्हें” सौ प्रतिशत आरक्षण लेने दो, उन्हें सारी सुविधायें हथियाने दो, उन्हें सारी छूटें लेने दो, सरकार पर भरोसा मत करो वह तुम्हारी कभी नहीं सुनेगी, तुम तो सिर्फ़ अपने दोनो हाथों और तेज दिमाग पर भरोसा रखो। कई रास्ते हैं, सम्मान बनाये रखकर पैसा कमाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं…
Reservation in Higher Education Institutes Arjun Singh, OBC Reservation in IIT, IIM and Central Universities, Reservation Affirmative Action Political Parties Congress, Reservation, Social Justice, Mandal Commission Report VP Singh, Anti-reservation Bill, UP, Bihar, Bahujan Samaj Party, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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गुरुवार, 17 अप्रैल 2008 17:51
लालची और ढोंगी हैं आधुनिक ज्ञान-गुरु, आध्यात्म-गुरु
Spiritualism Baba Guru Copyright Patent
लाइनस टोर्वाल्ड्स और रिचर्ड स्टॉलमैन, ये दो नाम हैं। जो लोग कम्प्यूटर क्षेत्र से नहीं हैं, उन्हें इन दोनों व्यक्तियों के बारे में पता नहीं होगा। पहले व्यक्ति हैं लाइनस जिन्होंने कम्प्यूटर पर “लाइनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम” का आविष्कार किया और उसे मुक्त और मुफ़्त किया। दूसरे सज्जन हैं स्टॉलमैन, जो कि “फ़्री सॉफ़्टवेयर फ़ाउंडेशन” के संस्थापक हैं, एक ऐसा आंदोलन जिसने सॉफ़्टवेयर दुनिया में तहलका मचा दिया, और कई लोगों को, जिनमें लाइनस भी थे, प्रेरित किया कि वे लोग निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा के लिये मुफ़्त सॉफ़्टवेयर उपलब्ध करवायें। अधिकतर पाठक सोच रहे होंगे कि ये क्या बात हुई? क्या ये कोई क्रांतिकारी कदम है? जी हाँ है… खासकर यदि हम आधुनिक तथाकथित गुरुओं, ज्ञान गुरुओं और आध्यात्मिक गुरुओं के कामों को देखें तो।
(लाइनस टोरवाल्ड्स)
(रिचर्ड स्टॉलमैन)
आजकल के गुरु/ बाबा / महन्त / योगी / ज्ञान गुरु आदि समाज को देते तो कम हैं उसके बदले में शोषण अधिक कर लेते हैं। आजकल के ये गुरु कॉपीराइट, पेटेंट आदि के जरिये पैसा बनाने में लगे हैं, यहाँ तक कि कुछ ने तो कतिपय योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। पहले हम देखते हैं कि इनके “भक्त”(?) इनके बारे में क्या कहते हैं –
- हमारे गुरु आध्यात्म की ऊँचाइयों तक पहुँच चुके हैं
- हमारे गुरु को सांसारिक भौतिक वस्तुओं का कोई मोह नहीं है
- फ़लाँ गुरु तो इस धरती के जीवन-मरण से परे जा चुके हैं
- हमारे गुरु तो मन की भीतरी शक्ति को पहचान चुके हैं और उन्होंने आत्मिक शांति हासिल कर ली है… यानी कि तरह-तरह की ऊँची-ऊँची बातें और ज्ञान बाँटना…

अब सवाल उठता है कि यदि ये तमाम गुरु इस सांसारिक जीवन से ऊपर उठ चुके हैं, इन्हें पहले से ही आत्मिक शांति हासिल है तो काहे ये तमाम लोग कॉपीराइट, पेटेण्ट और रॉयल्टी के चक्करों में पड़े हुए हैं? उनके भक्त इसका जवाब ये देते हैं कि “हमारे गुरु दान, रॉयल्टी आदि में पैसा लेकर समाजसेवा में लगा देते हैं…”। इस प्रकार तो “बिल गेट्स” को विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरु का दर्जा दिया जाना चाहिये। बल्कि गेट्स तो “गुरुओं के गुरु” हैं, “गुरु घंटाल” हैं, बिल गेट्स नाम के गुरु ने भी तो कॉपीराइट और पेटेण्ट के जरिये अरबों-खरबों की सम्पत्ति जमा की है और अब एक फ़ाउण्डेशन बना कर वे भी समाजसेवा कर रहे हैं। श्री श्री 108 श्री बिल गेट्स बाबा ने तो करोड़ों डॉलर का चन्दा विभिन्न सेवा योजनाओं में अलग-अलग सरकारों, अफ़्रीका में भुखमरी से बचाने, एड्स नियंत्रण के लिये दे दिया है।
यदि लोग सोचते हैं कि अवैध तरीके से, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अत्याचार करके कमाई हुई दौलत का कुछ हिस्सा वे अपने कथित “धर्मगुरु” को देकर पाप से बच जाते हैं, तो जैसे उनकी सोच गिरी हुई है, ठीक वैसी ही उनके गुरुओं की सोच भी गिरी हुई है, जो सिर्फ़ इस बात में विश्वास रखते हैं कि “पैसा कहीं से भी आये उन्हें कोई मतलब नहीं है, पैसे का कोई रंग नहीं होता, कोई रूप नहीं होता…” इसलिये बेशर्मी और ढिठाई से तानाशाहों, भ्रष्ट अफ़सरों, नेताओं और शोषण करने वाले उद्योगपतियों से रुपया-पैसा लेने में कोई बुराई नहीं है। ऐसा वे खुद प्रचारित भी करते / करवाते हैं कि, पाप से कमाये हुए धन का कुछ हिस्सा दान कर देने से “पुण्य”(?) मिलता है। और इसके बाद वे दावा करते हैं कि वे निस्वार्थ भाव से समाजसेवा में लगे हैं, सभी सांसारिक बन्धनों से वे मुक्त हैं आदि-आदि… जबकि उनके “कर्म” कुछ और कहते हैं। बिल गेट्स ने कभी नहीं कहा कि वे एक आध्यात्मिक गुरु हैं, या कोई महान आत्मा हैं, बिल गेट्स कम से कम एक मामले में ईमानदार तो हैं, कि वे साफ़ कहते हैं “यह एक बिजनेस है…”। लेकिन आडम्बर से भरे ज्ञान गुरु यह भी स्वीकार नहीं करते कि असल में वे भी एक “धंधेबाज” ही हैं… आधुनिक गुरुओं और बाबाओं ने आध्यात्म को भी दूषित करके रख दिया है, “आध्यात्म” और “ज्ञान” कोई इंस्टेण्ट कॉफ़ी या पिज्जा नहीं है कि वह तुरन्त जल्दी से मिल जाये, लेकिन अपने “धंधे” के लिये एक विशेष प्रकार का “नकली-आध्यात्म” इन्होंने फ़ैला रखा है।
दूसरी तरफ़ लाइनस और स्टॉलमैन जैसे लोग हैं, जो कि असल में गुरु हैं, “धंधेबाज” गुरुओं से कहीं बेहतर और भले। ये दोनों व्यक्ति ज्यादा “आध्यात्मिक” हैं और सच में सांसारिक स्वार्थों से ऊपर उठे हुए हैं। यदि ये लोग चाहते तो टेक्नोलॉजी के इस प्रयोग और इनका कॉपीराइट, पेटेण्ट, रॉयल्टी से अरबों डॉलर कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मेहनत और बुद्धि से बनाई हुई तकनीक उन्होंने विद्यार्थियों और जरूरतमन्द लोगों के बीच मुफ़्त बाँट दी। कुछ ऐसा ही हिन्दी कम्प्यूटिंग और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में है। कई लोग शौकिया तौर पर इससे जुड़े हैं, मुफ़्त में अपना ज्ञान बाँट रहे हैं, जिन्हें हिन्दी टायपिंग नहीं आती उनकी निस्वार्थ भाव से मदद कर रहे हैं, क्यों? क्या वे भी पेटेण्ट करवाकर कुछ सालों बाद लाखों रुपया नहीं कमा सकते थे? लेकिन कई-कई लोग हैं जो सैकड़ों-हजारों की तकनीकी मदद कर रहे हैं। क्या इसमें हमें प्राचीन भारतीय ॠषियों की झलक नहीं मिलती, जिन्होंने अपना ज्ञान और जो कुछ भी उन्होंने अध्ययन करके पाया, उसे बिना किसी स्वार्थ या कमाई के लालच में न सिर्फ़ पांडुलिपियों और ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया बल्कि अपने शिष्यों और भक्तों को मुफ़्त में वितरित भी किया। बगैर एक पल भी यह सोचे कि इसके बदले में उन्हें क्या मिलेगा?

लेकिन ये आजकल के कथित गुरु-बाबा-प्रवचनकार-योगी आदि… किताबें लिखते हैं तो उसे कॉपीराइट करवा लेते हैं और भारी दामों में भक्तों को बेचते हैं। कुछ अन्य गुरु अपने गीतों, भजनों और भाषणों की कैसेट, सीडी, डीवीडी आदि बनवाते हैं और पहले ये देख लेते हैं कि उससे कितनी रॉयल्टी मिलने वाली है। कुछ और “पहुँचे हुए” गुरुओं ने तो योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। जबकि देखा जाये तो जो आजकल के बाबा कर रहे हैं, या बता रहे हैं या ज्ञान दे रहे हैं वह सब तो पहले से ही वेदों, उपनिषदों और ग्रंथों में है, फ़िर ये लोग नया क्या दे रहे हैं जिसकी कॉपीराइट करना पड़े, क्या यह भी एक प्रकार की चोरी नहीं है? सबसे पहली आपत्ति तो यही होना चाहिये कि उन्होंने कुछ “नया निर्माण” तो किया नहीं है, फ़िर वे कैसे इससे पेटेण्ट / रॉयल्टी का पैसा कमा सकते हैं?
लेकिन फ़िर भी उनके “भक्त” (अंध) हैं, वे जोर-शोर से अपना “धंधा” चलाते हैं, दुनिया को ज्ञान(?) बाँटते फ़िरते हैं, दुनियादारी के मिथ्या होने के बारे में डोज देते रहते हैं (खुद एसी कारों में घूमते हैं)। स्वयं पैसे के पीछे भागते हैं, झोला-झंडा-चड्डी-लोटा-घंटी-अंगूठी सब तो बेचते हैं, सदा पाँच-सात सितारा होटलों और आश्रमों में ठहरते हैं, तर माल उड़ाते हैं।
कोई बता सकता है कि क्यों पढ़े-लिखे और उच्च तबके के लोग भी इनके झाँसे में आ जाते हैं? बिल गेट्स भले कोई महात्मा न सही, लेकिन इनसे बुरा तो नहीं है…
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लाइनस टोर्वाल्ड्स और रिचर्ड स्टॉलमैन, ये दो नाम हैं। जो लोग कम्प्यूटर क्षेत्र से नहीं हैं, उन्हें इन दोनों व्यक्तियों के बारे में पता नहीं होगा। पहले व्यक्ति हैं लाइनस जिन्होंने कम्प्यूटर पर “लाइनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम” का आविष्कार किया और उसे मुक्त और मुफ़्त किया। दूसरे सज्जन हैं स्टॉलमैन, जो कि “फ़्री सॉफ़्टवेयर फ़ाउंडेशन” के संस्थापक हैं, एक ऐसा आंदोलन जिसने सॉफ़्टवेयर दुनिया में तहलका मचा दिया, और कई लोगों को, जिनमें लाइनस भी थे, प्रेरित किया कि वे लोग निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा के लिये मुफ़्त सॉफ़्टवेयर उपलब्ध करवायें। अधिकतर पाठक सोच रहे होंगे कि ये क्या बात हुई? क्या ये कोई क्रांतिकारी कदम है? जी हाँ है… खासकर यदि हम आधुनिक तथाकथित गुरुओं, ज्ञान गुरुओं और आध्यात्मिक गुरुओं के कामों को देखें तो।


आजकल के गुरु/ बाबा / महन्त / योगी / ज्ञान गुरु आदि समाज को देते तो कम हैं उसके बदले में शोषण अधिक कर लेते हैं। आजकल के ये गुरु कॉपीराइट, पेटेंट आदि के जरिये पैसा बनाने में लगे हैं, यहाँ तक कि कुछ ने तो कतिपय योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। पहले हम देखते हैं कि इनके “भक्त”(?) इनके बारे में क्या कहते हैं –
- हमारे गुरु आध्यात्म की ऊँचाइयों तक पहुँच चुके हैं
- हमारे गुरु को सांसारिक भौतिक वस्तुओं का कोई मोह नहीं है
- फ़लाँ गुरु तो इस धरती के जीवन-मरण से परे जा चुके हैं
- हमारे गुरु तो मन की भीतरी शक्ति को पहचान चुके हैं और उन्होंने आत्मिक शांति हासिल कर ली है… यानी कि तरह-तरह की ऊँची-ऊँची बातें और ज्ञान बाँटना…

अब सवाल उठता है कि यदि ये तमाम गुरु इस सांसारिक जीवन से ऊपर उठ चुके हैं, इन्हें पहले से ही आत्मिक शांति हासिल है तो काहे ये तमाम लोग कॉपीराइट, पेटेण्ट और रॉयल्टी के चक्करों में पड़े हुए हैं? उनके भक्त इसका जवाब ये देते हैं कि “हमारे गुरु दान, रॉयल्टी आदि में पैसा लेकर समाजसेवा में लगा देते हैं…”। इस प्रकार तो “बिल गेट्स” को विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरु का दर्जा दिया जाना चाहिये। बल्कि गेट्स तो “गुरुओं के गुरु” हैं, “गुरु घंटाल” हैं, बिल गेट्स नाम के गुरु ने भी तो कॉपीराइट और पेटेण्ट के जरिये अरबों-खरबों की सम्पत्ति जमा की है और अब एक फ़ाउण्डेशन बना कर वे भी समाजसेवा कर रहे हैं। श्री श्री 108 श्री बिल गेट्स बाबा ने तो करोड़ों डॉलर का चन्दा विभिन्न सेवा योजनाओं में अलग-अलग सरकारों, अफ़्रीका में भुखमरी से बचाने, एड्स नियंत्रण के लिये दे दिया है।
यदि लोग सोचते हैं कि अवैध तरीके से, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अत्याचार करके कमाई हुई दौलत का कुछ हिस्सा वे अपने कथित “धर्मगुरु” को देकर पाप से बच जाते हैं, तो जैसे उनकी सोच गिरी हुई है, ठीक वैसी ही उनके गुरुओं की सोच भी गिरी हुई है, जो सिर्फ़ इस बात में विश्वास रखते हैं कि “पैसा कहीं से भी आये उन्हें कोई मतलब नहीं है, पैसे का कोई रंग नहीं होता, कोई रूप नहीं होता…” इसलिये बेशर्मी और ढिठाई से तानाशाहों, भ्रष्ट अफ़सरों, नेताओं और शोषण करने वाले उद्योगपतियों से रुपया-पैसा लेने में कोई बुराई नहीं है। ऐसा वे खुद प्रचारित भी करते / करवाते हैं कि, पाप से कमाये हुए धन का कुछ हिस्सा दान कर देने से “पुण्य”(?) मिलता है। और इसके बाद वे दावा करते हैं कि वे निस्वार्थ भाव से समाजसेवा में लगे हैं, सभी सांसारिक बन्धनों से वे मुक्त हैं आदि-आदि… जबकि उनके “कर्म” कुछ और कहते हैं। बिल गेट्स ने कभी नहीं कहा कि वे एक आध्यात्मिक गुरु हैं, या कोई महान आत्मा हैं, बिल गेट्स कम से कम एक मामले में ईमानदार तो हैं, कि वे साफ़ कहते हैं “यह एक बिजनेस है…”। लेकिन आडम्बर से भरे ज्ञान गुरु यह भी स्वीकार नहीं करते कि असल में वे भी एक “धंधेबाज” ही हैं… आधुनिक गुरुओं और बाबाओं ने आध्यात्म को भी दूषित करके रख दिया है, “आध्यात्म” और “ज्ञान” कोई इंस्टेण्ट कॉफ़ी या पिज्जा नहीं है कि वह तुरन्त जल्दी से मिल जाये, लेकिन अपने “धंधे” के लिये एक विशेष प्रकार का “नकली-आध्यात्म” इन्होंने फ़ैला रखा है।
दूसरी तरफ़ लाइनस और स्टॉलमैन जैसे लोग हैं, जो कि असल में गुरु हैं, “धंधेबाज” गुरुओं से कहीं बेहतर और भले। ये दोनों व्यक्ति ज्यादा “आध्यात्मिक” हैं और सच में सांसारिक स्वार्थों से ऊपर उठे हुए हैं। यदि ये लोग चाहते तो टेक्नोलॉजी के इस प्रयोग और इनका कॉपीराइट, पेटेण्ट, रॉयल्टी से अरबों डॉलर कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मेहनत और बुद्धि से बनाई हुई तकनीक उन्होंने विद्यार्थियों और जरूरतमन्द लोगों के बीच मुफ़्त बाँट दी। कुछ ऐसा ही हिन्दी कम्प्यूटिंग और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में है। कई लोग शौकिया तौर पर इससे जुड़े हैं, मुफ़्त में अपना ज्ञान बाँट रहे हैं, जिन्हें हिन्दी टायपिंग नहीं आती उनकी निस्वार्थ भाव से मदद कर रहे हैं, क्यों? क्या वे भी पेटेण्ट करवाकर कुछ सालों बाद लाखों रुपया नहीं कमा सकते थे? लेकिन कई-कई लोग हैं जो सैकड़ों-हजारों की तकनीकी मदद कर रहे हैं। क्या इसमें हमें प्राचीन भारतीय ॠषियों की झलक नहीं मिलती, जिन्होंने अपना ज्ञान और जो कुछ भी उन्होंने अध्ययन करके पाया, उसे बिना किसी स्वार्थ या कमाई के लालच में न सिर्फ़ पांडुलिपियों और ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया बल्कि अपने शिष्यों और भक्तों को मुफ़्त में वितरित भी किया। बगैर एक पल भी यह सोचे कि इसके बदले में उन्हें क्या मिलेगा?

लेकिन ये आजकल के कथित गुरु-बाबा-प्रवचनकार-योगी आदि… किताबें लिखते हैं तो उसे कॉपीराइट करवा लेते हैं और भारी दामों में भक्तों को बेचते हैं। कुछ अन्य गुरु अपने गीतों, भजनों और भाषणों की कैसेट, सीडी, डीवीडी आदि बनवाते हैं और पहले ये देख लेते हैं कि उससे कितनी रॉयल्टी मिलने वाली है। कुछ और “पहुँचे हुए” गुरुओं ने तो योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। जबकि देखा जाये तो जो आजकल के बाबा कर रहे हैं, या बता रहे हैं या ज्ञान दे रहे हैं वह सब तो पहले से ही वेदों, उपनिषदों और ग्रंथों में है, फ़िर ये लोग नया क्या दे रहे हैं जिसकी कॉपीराइट करना पड़े, क्या यह भी एक प्रकार की चोरी नहीं है? सबसे पहली आपत्ति तो यही होना चाहिये कि उन्होंने कुछ “नया निर्माण” तो किया नहीं है, फ़िर वे कैसे इससे पेटेण्ट / रॉयल्टी का पैसा कमा सकते हैं?
लेकिन फ़िर भी उनके “भक्त” (अंध) हैं, वे जोर-शोर से अपना “धंधा” चलाते हैं, दुनिया को ज्ञान(?) बाँटते फ़िरते हैं, दुनियादारी के मिथ्या होने के बारे में डोज देते रहते हैं (खुद एसी कारों में घूमते हैं)। स्वयं पैसे के पीछे भागते हैं, झोला-झंडा-चड्डी-लोटा-घंटी-अंगूठी सब तो बेचते हैं, सदा पाँच-सात सितारा होटलों और आश्रमों में ठहरते हैं, तर माल उड़ाते हैं।
कोई बता सकता है कि क्यों पढ़े-लिखे और उच्च तबके के लोग भी इनके झाँसे में आ जाते हैं? बिल गेट्स भले कोई महात्मा न सही, लेकिन इनसे बुरा तो नहीं है…
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शनिवार, 19 अप्रैल 2008 13:23
यदि अमेरिका, “कश्मीर” को एक स्वतन्त्र राष्ट्र घोषित कर दे तो?
US India Kashmir Yugoslavia Serbia Kosovo
पुराने लोग कह गये हैं कि “शैतान हो या भगवान, पहचानना हो तो उसके कर्मों से पहचानो…”। हालांकि फ़िलहाल यह एक “दूर की कौड़ी” है, लेकिन अमेरिका नामक शैतान का क्या भरोसा, आगे दिये गये उदाहरण से पाठक सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि यह “दूर की कौड़ी” किसी दिन “गले की फ़ाँस” भी बन सकती है। अमेरिका की यह पुरानी आदत है कि वह वर्तमान दोस्त में भी भावी दुश्मन की सम्भावना रखते हुए, कोई न कोई मुद्दा अनसुलझा रख कर उसपर विश्व राजनीति थोपता रहता है। जैसा कि रूस-अफ़गानिस्तान, ईरान-ईराक, चीन-ताइवान, भारत-पाकिस्तान आदि। अब जरा भविष्य की एक सम्भावना पर सोचें…
यदि अचानक अमेरिका “कश्मीर” को एक अलग राष्ट्र के तौर पर मान्यता दे देता है, तो हम कुछ नहीं कर सकेंगे। उसका एकमात्र और मजबूत कारण (अमेरिका की नजरों में) यह होगा कि कश्मीर में 99% जनता मुस्लिम है। यूगोस्लाविया नाम के देश की बहुत लोगों को याद होगी। कई पुराने लोग अब भी “पंचशील-पंचशील” जपते रहते हैं, जिसमें से एक शक्तिशाली देश था यूगोस्लाविया। जिसके शासक थे मार्शल टीटो। यूगोस्लाविया का एक प्रांत है “कोसोवो”, जहाँ की 90% आबादी मुस्लिमों की है, उसे अमेरिका और नाटो देशों ने एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी है। हालांकि भारत सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार नहीं कर रही है (हमेशा की तरह)।

1999 में अमेरिका और नाटो ने यूगोस्लाविया पर बमबारी करके सर्बिया के एक हिस्से कोसोवो पर कब्जा जमा लिया था, तब से “नाटो” ही इस इलाके का मालिक है। सर्ब नेता मिलोसेविच ने इसका विरोध किया और कोसोवो में कत्लेआम मचाना शुरु किया तब अमेरिका ने उसे युद्धबंदी बना लिया और कोसोवो से ईसाई सर्बों को खदेड़ना शुरु कर दिया। आज के हालात में कोसोवो में गिने-चुने सर्बियाई बचे हैं (इसे भारत के कश्मीर से तुलना करके देखें…जहाँ से हिन्दुओं को भगा दिया गया है, और लगभग 99% आबादी मुस्लिम है, और भाई लोगों को गाजा-पट्टी की चिंता ज्यादा सताती है)।
(इस अगले उदाहरण को भी भारत के सन्दर्भ में तौल कर देखिये…) 1980 से पहले तक यूगोस्लाविया एक समय एक बहुभाषी और बहुलतावादी संस्कृति का मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश था। यूरोप में वह एक औद्योगिक शक्ति रहा और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर भी था। 1980 में यूगोस्लाविया की जीडीपी वृद्धि दर 6.1 प्रतिशत थी, साक्षरता दर 91% और जीवन संभावना दर 72 वर्ष थी। लेकिन दस साल के पश्चिमी आर्थिक मॉडल का अनुसरण, फ़िर पाँच साल तक युद्ध, बहिष्कार और बाहरी हस्तक्षेप ने यूगोस्लाविया को तोड़ कर रख दिया। IMF की विचित्र नीतियों से वहाँ का औद्योगिक वातावरण दूषित हो गया और कई उद्योग बीमार हो गये। समूचे 90 के दशक में विश्व बैंक और आईएमएफ़ यूगोस्लाविया को कड़वी आर्थिक गोलियाँ देते रहे और अन्ततः उसकी अर्थव्यवस्था पहले धराशाई हुई और फ़िर लगभग कोमा में चली गई…
एक तरफ़ तो अमेरिका और नाटो मुस्लिम आतंकवादियो के खिलाफ़ युद्ध चलाये हुए हैं, और दूसरी तरफ़ विश्व के कई हिस्सों में उनकी मदद भी कर रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिमी कार्टर और रोनाल्ड रेगन ने अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान को लगातार हथियार दिये, 1992 में बिल क्लिंटन जम्मू-कश्मीर को एक विवादित इलाका कह चुके हैं, 1997 में क्लिंटन ने ही तालिबान को पैदा किया और पाला-पोसा, 1999 में अमेरिका और नाटो ने यूगोस्लाविया पर हमला करके “बोस्निया” नामक इस्लामिक राज्य बना दिया और अब गैरकानूनी तरीके से उसे एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी।
हमारे लिये सबक बिलकुल साफ़ है, फ़िलहाल तो हम अमेरिका के हित और फ़ायदे में हैं, इसलिये वह हमें “परमाणु-परमाणु” नामक गुब्बारा-लालीपाप पकड़ा रहा है, लेकिन जिस दिन भी हमारी अर्थव्यवस्था चरमरायेगी, या भारत अमेरिका के लिये उपयोगी और सुविधाजनक नहीं रहेगा, या कभी अमेरिका को आँखे दिखाने की नौबत आयेगी, उस दिन अमेरिका कश्मीर को एक “स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र” घोषित करने के षडयन्त्र में लग जायेगा… जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि भले ही यह अभी “दूर की कौड़ी” लगे, लेकिन बुरा वक्त कभी कह कर नहीं आता। हमारी तैयारी पहले से होनी चाहिये, और वह यही हो सकती है कि कश्मीर के मुद्दे को जल्द से जल्द कैसे भी हो सुलझाना होगा, धारा 370 हटाकर घाटी में हिन्दुओं को बसाना होगा जिससे जनसंख्या संतुलन बना रहे। अमेरिका का न कभी भरोसा था, न किसी को कभी होगा, वे लोग सिर्फ़ अपने फ़ायदे का सोचते हैं। “विश्व गुरु” बनने या “सत्य-अहिंसा” की उसे कोई चाह नहीं है…न ही हमारे खासुलखास पड़ोसियों को… आप भले ही भजते रहिये कि “भारत एक महाशक्ति बनने वाला है, बन रहा है आदि-आदि”, लेकिन हकीकत यही है कि हम “क्षेत्रीय महाशक्ति” तक नहीं हैं, पाकिस्तान-बांग्लादेश तो खुलेआम हमारे दुश्मन हैं, श्रीलंका भी कोई बात मानता नहीं, नेपाल जब-तब आँखें दिखाता रहता है, बर्मा के फ़ौजी शासकों के सामने हमारी घिग्घी बँधी हुई रहती है, ले-देकर एक पिद्दी सा मालदीव बचा है (यदि उसे पड़ोसी मानें तो)। कमजोर सरकारों, लुंजपुंज नेताओं और नपुंसकतावादी नीतियों से देश के टुकड़े-टुकड़े होने से कोई रोक नहीं सकता, आधा कश्मीर तो पहले से ही हमारा नहीं है, बाकी भी चला जायेगा, ठीक ऐसा ही खतरा उत्तर-पूर्व की सीमाओं पर भी मंडरा रहा है, और यदि हम समय पर नहीं जागे तो……
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सन्दर्भ: डॉ दीपक बसु (प्रोफ़ेसर-अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था) नागासाकी विश्वविद्यालय, जापान
पुराने लोग कह गये हैं कि “शैतान हो या भगवान, पहचानना हो तो उसके कर्मों से पहचानो…”। हालांकि फ़िलहाल यह एक “दूर की कौड़ी” है, लेकिन अमेरिका नामक शैतान का क्या भरोसा, आगे दिये गये उदाहरण से पाठक सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि यह “दूर की कौड़ी” किसी दिन “गले की फ़ाँस” भी बन सकती है। अमेरिका की यह पुरानी आदत है कि वह वर्तमान दोस्त में भी भावी दुश्मन की सम्भावना रखते हुए, कोई न कोई मुद्दा अनसुलझा रख कर उसपर विश्व राजनीति थोपता रहता है। जैसा कि रूस-अफ़गानिस्तान, ईरान-ईराक, चीन-ताइवान, भारत-पाकिस्तान आदि। अब जरा भविष्य की एक सम्भावना पर सोचें…
यदि अचानक अमेरिका “कश्मीर” को एक अलग राष्ट्र के तौर पर मान्यता दे देता है, तो हम कुछ नहीं कर सकेंगे। उसका एकमात्र और मजबूत कारण (अमेरिका की नजरों में) यह होगा कि कश्मीर में 99% जनता मुस्लिम है। यूगोस्लाविया नाम के देश की बहुत लोगों को याद होगी। कई पुराने लोग अब भी “पंचशील-पंचशील” जपते रहते हैं, जिसमें से एक शक्तिशाली देश था यूगोस्लाविया। जिसके शासक थे मार्शल टीटो। यूगोस्लाविया का एक प्रांत है “कोसोवो”, जहाँ की 90% आबादी मुस्लिमों की है, उसे अमेरिका और नाटो देशों ने एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी है। हालांकि भारत सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार नहीं कर रही है (हमेशा की तरह)।

1999 में अमेरिका और नाटो ने यूगोस्लाविया पर बमबारी करके सर्बिया के एक हिस्से कोसोवो पर कब्जा जमा लिया था, तब से “नाटो” ही इस इलाके का मालिक है। सर्ब नेता मिलोसेविच ने इसका विरोध किया और कोसोवो में कत्लेआम मचाना शुरु किया तब अमेरिका ने उसे युद्धबंदी बना लिया और कोसोवो से ईसाई सर्बों को खदेड़ना शुरु कर दिया। आज के हालात में कोसोवो में गिने-चुने सर्बियाई बचे हैं (इसे भारत के कश्मीर से तुलना करके देखें…जहाँ से हिन्दुओं को भगा दिया गया है, और लगभग 99% आबादी मुस्लिम है, और भाई लोगों को गाजा-पट्टी की चिंता ज्यादा सताती है)।
(इस अगले उदाहरण को भी भारत के सन्दर्भ में तौल कर देखिये…) 1980 से पहले तक यूगोस्लाविया एक समय एक बहुभाषी और बहुलतावादी संस्कृति का मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश था। यूरोप में वह एक औद्योगिक शक्ति रहा और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर भी था। 1980 में यूगोस्लाविया की जीडीपी वृद्धि दर 6.1 प्रतिशत थी, साक्षरता दर 91% और जीवन संभावना दर 72 वर्ष थी। लेकिन दस साल के पश्चिमी आर्थिक मॉडल का अनुसरण, फ़िर पाँच साल तक युद्ध, बहिष्कार और बाहरी हस्तक्षेप ने यूगोस्लाविया को तोड़ कर रख दिया। IMF की विचित्र नीतियों से वहाँ का औद्योगिक वातावरण दूषित हो गया और कई उद्योग बीमार हो गये। समूचे 90 के दशक में विश्व बैंक और आईएमएफ़ यूगोस्लाविया को कड़वी आर्थिक गोलियाँ देते रहे और अन्ततः उसकी अर्थव्यवस्था पहले धराशाई हुई और फ़िर लगभग कोमा में चली गई…
एक तरफ़ तो अमेरिका और नाटो मुस्लिम आतंकवादियो के खिलाफ़ युद्ध चलाये हुए हैं, और दूसरी तरफ़ विश्व के कई हिस्सों में उनकी मदद भी कर रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिमी कार्टर और रोनाल्ड रेगन ने अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान को लगातार हथियार दिये, 1992 में बिल क्लिंटन जम्मू-कश्मीर को एक विवादित इलाका कह चुके हैं, 1997 में क्लिंटन ने ही तालिबान को पैदा किया और पाला-पोसा, 1999 में अमेरिका और नाटो ने यूगोस्लाविया पर हमला करके “बोस्निया” नामक इस्लामिक राज्य बना दिया और अब गैरकानूनी तरीके से उसे एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी।
हमारे लिये सबक बिलकुल साफ़ है, फ़िलहाल तो हम अमेरिका के हित और फ़ायदे में हैं, इसलिये वह हमें “परमाणु-परमाणु” नामक गुब्बारा-लालीपाप पकड़ा रहा है, लेकिन जिस दिन भी हमारी अर्थव्यवस्था चरमरायेगी, या भारत अमेरिका के लिये उपयोगी और सुविधाजनक नहीं रहेगा, या कभी अमेरिका को आँखे दिखाने की नौबत आयेगी, उस दिन अमेरिका कश्मीर को एक “स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र” घोषित करने के षडयन्त्र में लग जायेगा… जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि भले ही यह अभी “दूर की कौड़ी” लगे, लेकिन बुरा वक्त कभी कह कर नहीं आता। हमारी तैयारी पहले से होनी चाहिये, और वह यही हो सकती है कि कश्मीर के मुद्दे को जल्द से जल्द कैसे भी हो सुलझाना होगा, धारा 370 हटाकर घाटी में हिन्दुओं को बसाना होगा जिससे जनसंख्या संतुलन बना रहे। अमेरिका का न कभी भरोसा था, न किसी को कभी होगा, वे लोग सिर्फ़ अपने फ़ायदे का सोचते हैं। “विश्व गुरु” बनने या “सत्य-अहिंसा” की उसे कोई चाह नहीं है…न ही हमारे खासुलखास पड़ोसियों को… आप भले ही भजते रहिये कि “भारत एक महाशक्ति बनने वाला है, बन रहा है आदि-आदि”, लेकिन हकीकत यही है कि हम “क्षेत्रीय महाशक्ति” तक नहीं हैं, पाकिस्तान-बांग्लादेश तो खुलेआम हमारे दुश्मन हैं, श्रीलंका भी कोई बात मानता नहीं, नेपाल जब-तब आँखें दिखाता रहता है, बर्मा के फ़ौजी शासकों के सामने हमारी घिग्घी बँधी हुई रहती है, ले-देकर एक पिद्दी सा मालदीव बचा है (यदि उसे पड़ोसी मानें तो)। कमजोर सरकारों, लुंजपुंज नेताओं और नपुंसकतावादी नीतियों से देश के टुकड़े-टुकड़े होने से कोई रोक नहीं सकता, आधा कश्मीर तो पहले से ही हमारा नहीं है, बाकी भी चला जायेगा, ठीक ऐसा ही खतरा उत्तर-पूर्व की सीमाओं पर भी मंडरा रहा है, और यदि हम समय पर नहीं जागे तो……
US Interest in Kashmir, Kashmir India and Serbia, Kosovo Serbia Yugoslavia and India, US Intervention in Afghanistan and Pakistan, Bill Clinton, Jimmy Carter, Ronald Regan, US Tibet and China, US Interference in Kashmir Pakistan and India, Kashmir as Muslim Country, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
सन्दर्भ: डॉ दीपक बसु (प्रोफ़ेसर-अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था) नागासाकी विश्वविद्यालय, जापान
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शनिवार, 19 अप्रैल 2008 20:36
कोंकण रेल्वे का विश्वस्तरीय रेल टक्कररोधी उपकरण
Konkan Railway ACD Network Rajaram
कोंकण रेल्वे अर्थात इंजीनियरिंग की दुनिया का एक आश्चर्य, एक बेहतरीन कारीगरी का नमूना है। मधु दण्डवते के अथक प्रयासों के कारण ही यह रेल्वे ट्रेक मूर्तरूप (Executed) ले सका है। ब्रिटेन की एक सर्वे एजेंसी ने इस रूट पर रेल्वे का निर्माण “असम्भव” है यह कहकर पल्ला झाड़ लिया था, लेकिन मधु दण्डवते की जिद ने और दिल्ली मेट्रो के वर्तमान अध्यक्ष और देश के महान इंजीनियर ई. श्रीधरन के तकनीकी प्रयासों की वजह से यह ट्रेन रूट देश की सेवा में आया और अब तक इससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष (ट्रकों के डीजल बचत, मुम्बई-मंगलोर के बीच की दूरी कम होने आदि) रूप से देश को अरबों का फ़ायदा हुआ है। ब्रिटेन की सर्वे टीम के मना करने के बावजूद श्रीधरन और होनहार भारतीय इंजीनियरों ने हार नहीं मानी और यह कारनामा (Miracle) कर दिखाया।
“कारनामा” मैं इसलिये कह रहा हूँ, क्योंकि इस पहाड़ी इलाके (जहाँ हमेशा चट्टाने खिसकने का डर बना रहता है) में कुल 760 किमी के रूट में 150 से अधिक पुल तथा 93 सुरंगों का निर्माण किया गया है। जिसमें से एक सुरंग लगभग 6 किमी लम्बी है तथा एक पुल की जमीन तल से ऊँचाई कुतुबमीनार के बराबर है। है ना इंजीनियरिंग का कमाल और यह कर दिखाया है भारतीय इंजीनियरों ने ही, और अब यह टक्कररोधी ACD तकनीक जिसे शीघ्र ही अंतर्राष्ट्रीय ऑर्डर मिलने वाले हैं। (चित्र में भारत के पश्चिमी घाट में स्थित कोंकण रेल्वे का रुट दिखाया गया है)

एण्टी-कोलीजन डिवाइस (ACD) नेटवर्क-
यह उपकरण ट्रेनों की आमने-सामने होने वाली टक्कर से बचाव का एक साधन है। इस उपकरण को कोंकण रेल्वे कार्पोरेशन लिमिटेड ने “रक्षा कवच” नाम से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पेटेण्ट करवा लिया है। इस क्रांतिकारी उपकरण के जनक हैं एक अत्यंत प्रतिभाशाली इंजीनियर श्री बी. राजाराम। इन्होंने अब तक भारत सरकार को 17 अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट (Patent) दिलवाये हैं, जिसके द्वारा सरकार को आने वाले दस वर्षों में लगभग 30,000 करोड़ रुपये की आमदनी होने की सम्भावना है। (इसके वीडियो को यहाँ पर देखा जा सकता है और यहाँ भी)
(चित्र में राजाराम जी दिखाई दे रहे हैं,नेशनल ज्योग्राफ़िक चैनल के एक फ़ोटो में)
कोंकण रेल्वे, जैसा कि सभी जानते हैं, रेल मंत्रालय के अधीन एक पब्लिक सेक्टर अर्धशासकीय कम्पनी की तरह कार्य करती है। ACD नाम का यह उपकरण जीपीएस सेटेलाइट सिस्टम की मदद से काम करता है। इस तकनीक से दो ट्रेनों की स्थिति पर लगातार उपग्रह से ऑटोमेटिक नजर रखी जाती है। दोनो उपकरण (मतलब दो ट्रेनों के इंजनों में लगे हुए दो विभिन्न उपकरण) आपस में एक “मोडम” से अपना-अपना “सूचनायें साझा” (Data Share) करते चलते हैं। इससे किसी भी क्षण यदि आमने-सामने की टक्कर की स्थिति बन रही हो तो अपने-आप ट्रेन में ब्रेक लग जाते हैं। इन उपकरणों को दो-दो के सेट में हरेक ट्रेन में लगाया जाता है (एक इंजन में और एक गार्ड के डिब्बे में – ताकि पीछे की टक्कर से भी बचाव हो)। ये उपकरण कूट-भाषा में एक दूसरे के सतत सम्पर्क में रहते हैं और ट्रेनों के एक ही ट्रेक पर आने पर एक निश्चित दूरी से स्वतः ब्रेक लगाना शुरु कर देते हैं। यह उपकरण उस दशा में भी काम करता है यदि कोई ट्रेन पहाड़ी इलाके में चट्टानें खिसकने आदि से बीच में ही फ़ँस गई हो, या पटरी से उतरकर कुछ डिब्बे दूसरी पटरी पर गिरे पड़े हों, तब यह उपकरण दूसरी तरफ़ से (दूसरे ट्रेक से) आने वाली ट्रेनों की स्पीड भी घटाकर 15 किमी प्रतिघंटा कर देता है, जिससे कि अन्य दुर्घटना से बचा जा सके। इस उपकरण के काम करने की सीमा (Range) तीन किलोमीटर की होती है, और इतने समय में कितनी भी तेज गति की ट्रेन को आसानी से रोका जा सकता है। इस सम्पूर्ण प्रोजेक्ट को कोंकण रेल्वे में तो काफ़ी पहले से लागू कर ही दिया गया है, उत्तर-पूर्व रेल्वे के 1736 किमी के खण्ड में भी इसका सफ़लतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। हाल ही में रेल मंत्रालय ने घोषणा की है कि सन 2013 तक समूचे भारतीय रेलवे में हर ट्रेन में इसका उपयोग प्रारम्भ कर दिया जायेगा, जिससे निश्चित रूप से दुर्घटनाओं में कमी आयेगी।
अगले भाग में हम जानेंगे कोंकण रेल्वे की एक और खास सुविधा के बारे में तथा मधु दण्डवते का एक सच्चा किस्सा… (भाग-2 में जारी)
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कोंकण रेल्वे अर्थात इंजीनियरिंग की दुनिया का एक आश्चर्य, एक बेहतरीन कारीगरी का नमूना है। मधु दण्डवते के अथक प्रयासों के कारण ही यह रेल्वे ट्रेक मूर्तरूप (Executed) ले सका है। ब्रिटेन की एक सर्वे एजेंसी ने इस रूट पर रेल्वे का निर्माण “असम्भव” है यह कहकर पल्ला झाड़ लिया था, लेकिन मधु दण्डवते की जिद ने और दिल्ली मेट्रो के वर्तमान अध्यक्ष और देश के महान इंजीनियर ई. श्रीधरन के तकनीकी प्रयासों की वजह से यह ट्रेन रूट देश की सेवा में आया और अब तक इससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष (ट्रकों के डीजल बचत, मुम्बई-मंगलोर के बीच की दूरी कम होने आदि) रूप से देश को अरबों का फ़ायदा हुआ है। ब्रिटेन की सर्वे टीम के मना करने के बावजूद श्रीधरन और होनहार भारतीय इंजीनियरों ने हार नहीं मानी और यह कारनामा (Miracle) कर दिखाया।


एण्टी-कोलीजन डिवाइस (ACD) नेटवर्क-
यह उपकरण ट्रेनों की आमने-सामने होने वाली टक्कर से बचाव का एक साधन है। इस उपकरण को कोंकण रेल्वे कार्पोरेशन लिमिटेड ने “रक्षा कवच” नाम से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पेटेण्ट करवा लिया है। इस क्रांतिकारी उपकरण के जनक हैं एक अत्यंत प्रतिभाशाली इंजीनियर श्री बी. राजाराम। इन्होंने अब तक भारत सरकार को 17 अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट (Patent) दिलवाये हैं, जिसके द्वारा सरकार को आने वाले दस वर्षों में लगभग 30,000 करोड़ रुपये की आमदनी होने की सम्भावना है। (इसके वीडियो को यहाँ पर देखा जा सकता है और यहाँ भी)

कोंकण रेल्वे, जैसा कि सभी जानते हैं, रेल मंत्रालय के अधीन एक पब्लिक सेक्टर अर्धशासकीय कम्पनी की तरह कार्य करती है। ACD नाम का यह उपकरण जीपीएस सेटेलाइट सिस्टम की मदद से काम करता है। इस तकनीक से दो ट्रेनों की स्थिति पर लगातार उपग्रह से ऑटोमेटिक नजर रखी जाती है। दोनो उपकरण (मतलब दो ट्रेनों के इंजनों में लगे हुए दो विभिन्न उपकरण) आपस में एक “मोडम” से अपना-अपना “सूचनायें साझा” (Data Share) करते चलते हैं। इससे किसी भी क्षण यदि आमने-सामने की टक्कर की स्थिति बन रही हो तो अपने-आप ट्रेन में ब्रेक लग जाते हैं। इन उपकरणों को दो-दो के सेट में हरेक ट्रेन में लगाया जाता है (एक इंजन में और एक गार्ड के डिब्बे में – ताकि पीछे की टक्कर से भी बचाव हो)। ये उपकरण कूट-भाषा में एक दूसरे के सतत सम्पर्क में रहते हैं और ट्रेनों के एक ही ट्रेक पर आने पर एक निश्चित दूरी से स्वतः ब्रेक लगाना शुरु कर देते हैं। यह उपकरण उस दशा में भी काम करता है यदि कोई ट्रेन पहाड़ी इलाके में चट्टानें खिसकने आदि से बीच में ही फ़ँस गई हो, या पटरी से उतरकर कुछ डिब्बे दूसरी पटरी पर गिरे पड़े हों, तब यह उपकरण दूसरी तरफ़ से (दूसरे ट्रेक से) आने वाली ट्रेनों की स्पीड भी घटाकर 15 किमी प्रतिघंटा कर देता है, जिससे कि अन्य दुर्घटना से बचा जा सके। इस उपकरण के काम करने की सीमा (Range) तीन किलोमीटर की होती है, और इतने समय में कितनी भी तेज गति की ट्रेन को आसानी से रोका जा सकता है। इस सम्पूर्ण प्रोजेक्ट को कोंकण रेल्वे में तो काफ़ी पहले से लागू कर ही दिया गया है, उत्तर-पूर्व रेल्वे के 1736 किमी के खण्ड में भी इसका सफ़लतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। हाल ही में रेल मंत्रालय ने घोषणा की है कि सन 2013 तक समूचे भारतीय रेलवे में हर ट्रेन में इसका उपयोग प्रारम्भ कर दिया जायेगा, जिससे निश्चित रूप से दुर्घटनाओं में कमी आयेगी।
अगले भाग में हम जानेंगे कोंकण रेल्वे की एक और खास सुविधा के बारे में तथा मधु दण्डवते का एक सच्चा किस्सा… (भाग-2 में जारी)
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रविवार, 20 अप्रैल 2008 20:27
कोंकण रेल्वे की एक और खासियत तथा मधु दण्डवते
Konkan Railway ACD Network Sridharan
(भाग-1 से जारी…)
कोंकण रेल्वे की एक और खासियत है “RO-RO” तकनीक –
“RO-RO” का अर्थ है “Roll On – Roll Off”। इस सुविधा के अनुसार माल से पूरी तरह से भरे हुए ट्रक सीधे कोंकण रेल्वे में चढ़ा दिये जाते हैं (ड्राइवर सहित)। कोंकण रेल्वे का समूचा इलाका ऊँची-उँची पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा हुआ है। इस “रूट” (राष्ट्रीय राजमार्ग 17) पर ट्रक ड्रायवरों को ट्रक चलाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, और काफ़ी एक्सीडेंट भी होते हैं। इधर सड़कों और मौसम की हालत भी खराब रहती ही है। ऐसे में कोंकण रेल्वे की यह सुविधा व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों और ड्रायवरों के लिये एक वरदान साबित होती है। जाहिर है कि इससे उनके डीजल और टायर खपत में भारी कमी आती है, ड्रायवरों को भी आराम हो जाता है, और सबसे बड़ी बात है कि माल जल्दी से अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है। कोंकण रेल्वे को इससे भारी आमदनी होती है। मुम्बई से यदि त्रिवेन्द्रम माल भेजना हो और यदि ट्रक को “रो-रो” सुविधा से भेजा जाये तो लगभग 700 किमी की बचत होती है। सोचिये कि राष्ट्र की बचत के साथ-साथ यह सुविधा पर्यावरण Environment की कितनी रक्षा कर रही है।
ट्रक को मुम्बई से सीधे ट्रेन में चढ़ा दिया जाता है और उसे मंगलोर में उतारकर ड्रायवर आगे त्रिवेन्द्रम तक ले जाता है। इसी प्रकार जब वह बंगलोर या हुबली या कोचीन से माल भरता है तो मंगलोर में ट्रक को ट्रेन में चढ़ा देता है जिसे मुम्बई में उतार कर आगे गुजरात की ओर बढ़ा दिया जाता है। कुल मिलाकर यह तकनीक और सुविधा सभी के लिये फ़ायदेमन्द है। कोंकण रेल्वे चूँकि एक सार्वजनिक उपक्रम होते हुए भी पब्लिक लिमिटेड है, इसलिये यहाँ की सुविधायें भी विश्वस्तरीय हैं। इस रेल्वे में साधारण रेल कर्मचारियों को पास की सुविधा हासिल नहीं होती है। यह कोंकण रेल्वे की निर्माण शर्तों में शामिल है कि जब तक कोंकण रेल के निर्माण पर हुआ खर्च नहीं निकल जाता, तब तक सिर्फ़ कुछ उच्च अधिकारियों को ही पास की सुविधा मिलेगी, बाकी रेलकर्मियों की मुफ़्तखोरी नहीं चलेगी। हाल ही में इस रेल्वे रूट के एक स्टेशन “चिपळूण” को वहाँ स्थापित सुविधाओं के लिये ISO 2006 के प्रमाणपत्र से नवाजा गया है।

कोंकण रेल्वे की बात चली है तो जाहिर है कि मधु दण्डवते की बात जरूर होगी। हाल ही में मराठी-गैरमराठी विवाद के दौरान किसी “सज्जन”(?) ने मधु दण्डवते और लालू की तुलना करने की बेवकूफ़ी की थी, उस पर एक सच्ची घटना याद आ गई। कई लोगों को याद होगा कि पहले की ट्रेनों में दरवाजों पर एक तरफ़ Entry (प्रवेश) और दूसरे दरवाजे पर “Exit” (निर्गम) लिखा होता था। एक बार मधु दण्डवते किसी स्टेशन का निरीक्षण करने गये थे, रेल अधिकारी और कार्यकर्ता ट्रेन रुकते ही हार-फ़ूल लेकर अगले दरवाजे की ओर दौड़े, क्योंकि दण्डवते की सीट का नम्बर शायद 4 या 5 था, जाहिर है कि हर कोई सोच रहा था कि वे निकट के दरवाजे से उतरेंगे, जबकि हुआ यह कि दण्डवते साहब अकेले दूसरे दरवाजे Exit पर खड़े थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि चूँकि इधर की ओर Exit लिखा है इसलिये मैं इधर से ही उतरूँगा। ऐसे उसूलों, नियमों और आदर्शों के पक्के थे मधु दण्डवते साहब। ये और बात है कि आजकल लोगों के साले साहब तो अपनी सुविधा के लिये राजधानी एक्सप्रेस का प्लेटफ़ॉर्म तक बदलवा लेते हैं…और भ्रष्टाचार की बात तो छोड़ ही दीजिये। दण्डवते साहब चाहते तो एक ट्रेन अपने “घर” के लिये भी चला सकते थे… जैसी कि गनी खान साहब ने मालदा के लिये या लालू ने अपने ससुराल के लिये चलवाई है। मधु दण्डवते और लालू के बीच तुलना बेकार की बात थी और रहेगी। फ़िलहाल तो भारतीय इंजीनियरों की जय बोलिये…
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(भाग-1 से जारी…)
कोंकण रेल्वे की एक और खासियत है “RO-RO” तकनीक –
“RO-RO” का अर्थ है “Roll On – Roll Off”। इस सुविधा के अनुसार माल से पूरी तरह से भरे हुए ट्रक सीधे कोंकण रेल्वे में चढ़ा दिये जाते हैं (ड्राइवर सहित)। कोंकण रेल्वे का समूचा इलाका ऊँची-उँची पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा हुआ है। इस “रूट” (राष्ट्रीय राजमार्ग 17) पर ट्रक ड्रायवरों को ट्रक चलाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, और काफ़ी एक्सीडेंट भी होते हैं। इधर सड़कों और मौसम की हालत भी खराब रहती ही है। ऐसे में कोंकण रेल्वे की यह सुविधा व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों और ड्रायवरों के लिये एक वरदान साबित होती है। जाहिर है कि इससे उनके डीजल और टायर खपत में भारी कमी आती है, ड्रायवरों को भी आराम हो जाता है, और सबसे बड़ी बात है कि माल जल्दी से अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है। कोंकण रेल्वे को इससे भारी आमदनी होती है। मुम्बई से यदि त्रिवेन्द्रम माल भेजना हो और यदि ट्रक को “रो-रो” सुविधा से भेजा जाये तो लगभग 700 किमी की बचत होती है। सोचिये कि राष्ट्र की बचत के साथ-साथ यह सुविधा पर्यावरण Environment की कितनी रक्षा कर रही है।

कोंकण रेल्वे की बात चली है तो जाहिर है कि मधु दण्डवते की बात जरूर होगी। हाल ही में मराठी-गैरमराठी विवाद के दौरान किसी “सज्जन”(?) ने मधु दण्डवते और लालू की तुलना करने की बेवकूफ़ी की थी, उस पर एक सच्ची घटना याद आ गई। कई लोगों को याद होगा कि पहले की ट्रेनों में दरवाजों पर एक तरफ़ Entry (प्रवेश) और दूसरे दरवाजे पर “Exit” (निर्गम) लिखा होता था। एक बार मधु दण्डवते किसी स्टेशन का निरीक्षण करने गये थे, रेल अधिकारी और कार्यकर्ता ट्रेन रुकते ही हार-फ़ूल लेकर अगले दरवाजे की ओर दौड़े, क्योंकि दण्डवते की सीट का नम्बर शायद 4 या 5 था, जाहिर है कि हर कोई सोच रहा था कि वे निकट के दरवाजे से उतरेंगे, जबकि हुआ यह कि दण्डवते साहब अकेले दूसरे दरवाजे Exit पर खड़े थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि चूँकि इधर की ओर Exit लिखा है इसलिये मैं इधर से ही उतरूँगा। ऐसे उसूलों, नियमों और आदर्शों के पक्के थे मधु दण्डवते साहब। ये और बात है कि आजकल लोगों के साले साहब तो अपनी सुविधा के लिये राजधानी एक्सप्रेस का प्लेटफ़ॉर्म तक बदलवा लेते हैं…और भ्रष्टाचार की बात तो छोड़ ही दीजिये। दण्डवते साहब चाहते तो एक ट्रेन अपने “घर” के लिये भी चला सकते थे… जैसी कि गनी खान साहब ने मालदा के लिये या लालू ने अपने ससुराल के लिये चलवाई है। मधु दण्डवते और लालू के बीच तुलना बेकार की बात थी और रहेगी। फ़िलहाल तो भारतीय इंजीनियरों की जय बोलिये…
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बुधवार, 23 अप्रैल 2008 16:45
आप एके-47 के बारे में कितना जानते हैं?
AK-47, Mikhael Kalashnikov, Russia
परमाणु बम के बाद सबसे घातक हथियार कौन सा है? इसका सीधा सा जवाब होना चाहिये, एके-47। गत सत्तर वर्षों में इस रायफ़ल से लाखों लोगों की जान गई है। हरेक व्यक्ति की हथियार के रूप में सबसे पहली पसन्द होती है एके-47। आखिर ऐसा क्या खास है इसमें? क्यों यह इतनी लोकप्रिय है, और इसके जनक मिखाइल कलाश्निकोव (Kalashnikov) के बारे में आप कितना जानते हैं? आइये देखें -
कलाश्निकोव की ऑटोमेटिक मशीनगन की सफ़लता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगभग 100 से भी अधिक देशों की सेनायें इस रायफ़ल (Rifle) का उपयोग कर रही हैं। कई देशों के “प्रतीक चिन्हों” में एके-47 का चित्र शामिल किया गया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार 1990 तक लगभग 7 करोड़ एके-47 रायफ़लें पूरे विश्व में उपलब्ध थीं, जिनकी संख्या आज की तारीख में बीस करोड़ से ऊपर है। सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि आज तक कलाश्निकोव ने इसका पेटेंट नहीं करवाया, इसके कारण इस गन में हरेक देश ने अपनी जरूरतों के मुताबिक विभिन्न बदलाव किये, पाकिस्तान के सीमान्त प्रांत (Frontier) में तो इसका निर्माण एक “कुटीर उद्योग” की तरह किया जाता है। हर सेना और हर आतंकवादी संगठन इसे पाने के लिये लालायित रह्ता है।

मिखाइल कलाश्निकोव का जन्म 10 नवम्बर 1919 को रूस (USSR) में अटलाई प्रांत के कुर्या गाँव में एक बड़े परिवार में हुआ था। सेकण्डरी स्कूल से नौंवी पास करने के बाद कलाश्निकोव ने पास के मताई डिपो में बतौर अप्रेन्टिस नौकरी की शुरुआत की, और धीरे-धीरे तुर्किस्तान-सर्बियन रेल्वे में “टेक्निकल क्लर्क” के पद पर पहुँच गये। 1938 में विश्व युद्ध की आशंका के चलते उन्हें “लाल-सेना” से बुलावा आ गया, और कीयेव के टैंक मेकेनिकल स्कूल में उन्होंने काम किया। इसी दौरान उनका तकनीकी कौशल उभरने लगा था, टैंक की इस यूनिट में नौकरी के दौरान ही टैंको द्वारा दागे गये गोलों की संख्या गिनने के लिये “काऊंटर” बना लिया और उसे टैंकों में फ़िट किया। सेना के उच्चाधिकारियों की निगाह तभी इस प्रतिभाशाली युवक पर पड़ गई थी। अक्टूबर 1941 में एक भीषण युद्ध के दौरान कलाश्निकोव बुरी तरह घायल हुए और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उस वक्त मशीनगन पर काम कर रहे उनके अधिकारी मिखाइल टिमोफ़ीविच ने उन्हें इस पर आगे काम करने को कहा। अस्पताल के बिस्तर पर बिताये छः महीनों में कलाश्निकोव ने अपने दिमाग में एक सब-मशीनगन का रफ़ डिजाइन तैयार कर लिया था। वह वापस अपने डिपो में लौटे और उन्होंने उसे अपने नेताओं और कामरेडों की मदद से मूर्तरूप दिया। जून 1942 में कलाश्निकोव की सब-मशीनगन वर्कशॉप में तैयार हो चुकी थी, इस डिजाइन को रक्षा अकादमी में भेजा गया। वहाँ सेना के अधिकारियों और प्रसिद्ध सेना वैज्ञानिक एए ब्लागोन्रारोव ने उनके प्रोजेक्ट में रुचि दिखाई। हालांकि इतनी आसानी से तकनीकी लोगों और वैज्ञानिकों ने कलाश्निकोव पर भरोसा नहीं किया और सन 1942 के अंत तक वे सेंट्रल रिसर्च ऑर्डिनेंस डिरेक्टोरेट में ही काम पर लगे रहे। 1944 में कलाश्निकोव ने एक “सेल्फ़ लोडिंग कार्बाइन” का डिजाइन तैयार किया, 1946 में इसके विभिन्न टेस्ट किये गये और अन्ततः 1949 में इसे सेना में शामिल कर लिया गया। इस आविष्कार के लिये कलाश्निकोव को प्रथम श्रेणी का स्टालिन पुरस्कार दिया गया। रूसी सरकार ने कलाश्निकोव का बहुत सम्मान किया है, उन्हें दो बार 1958 और 1976 में “हीरो ऑफ़ सोशलिस्ट लेबर”, 1949 में “स्टालिन पुरस्कार”, 1964 में “लेनिन पुरस्कार” आदि। 1969 में उन्हें सेना में “कर्नल” का रैंक दिया गया और 1971 में “डॉक्टर ऑफ़ इंजीनियरिंग” की मानद उपाधि भी दी गई। 1980 से उन्हें कुर्या गाँव का “प्रथम नागरिक” मान लिया गया और 1987 में इझ्वेस्क प्रान्त के मानद नागरिक का सम्मान उन्हें दिया गया। खुद रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने अपने हाथों से “मातृभूमि की विशेष सेवा के लिये” उन्हें रूसी ऑर्डर से सम्मानित किया और 75 वीं सालगिरह के मौके पर उन्हें मानद “मेजर जनरल” (Major General) की उपाधि भी दी गई।
अगले भाग में हम एके-47 की खूबियों और इसके बारे में खुद कलाश्निकोव के विचार जानेंगे (जारी भाग-2 में…)
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परमाणु बम के बाद सबसे घातक हथियार कौन सा है? इसका सीधा सा जवाब होना चाहिये, एके-47। गत सत्तर वर्षों में इस रायफ़ल से लाखों लोगों की जान गई है। हरेक व्यक्ति की हथियार के रूप में सबसे पहली पसन्द होती है एके-47। आखिर ऐसा क्या खास है इसमें? क्यों यह इतनी लोकप्रिय है, और इसके जनक मिखाइल कलाश्निकोव (Kalashnikov) के बारे में आप कितना जानते हैं? आइये देखें -
कलाश्निकोव की ऑटोमेटिक मशीनगन की सफ़लता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगभग 100 से भी अधिक देशों की सेनायें इस रायफ़ल (Rifle) का उपयोग कर रही हैं। कई देशों के “प्रतीक चिन्हों” में एके-47 का चित्र शामिल किया गया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार 1990 तक लगभग 7 करोड़ एके-47 रायफ़लें पूरे विश्व में उपलब्ध थीं, जिनकी संख्या आज की तारीख में बीस करोड़ से ऊपर है। सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि आज तक कलाश्निकोव ने इसका पेटेंट नहीं करवाया, इसके कारण इस गन में हरेक देश ने अपनी जरूरतों के मुताबिक विभिन्न बदलाव किये, पाकिस्तान के सीमान्त प्रांत (Frontier) में तो इसका निर्माण एक “कुटीर उद्योग” की तरह किया जाता है। हर सेना और हर आतंकवादी संगठन इसे पाने के लिये लालायित रह्ता है।

मिखाइल कलाश्निकोव का जन्म 10 नवम्बर 1919 को रूस (USSR) में अटलाई प्रांत के कुर्या गाँव में एक बड़े परिवार में हुआ था। सेकण्डरी स्कूल से नौंवी पास करने के बाद कलाश्निकोव ने पास के मताई डिपो में बतौर अप्रेन्टिस नौकरी की शुरुआत की, और धीरे-धीरे तुर्किस्तान-सर्बियन रेल्वे में “टेक्निकल क्लर्क” के पद पर पहुँच गये। 1938 में विश्व युद्ध की आशंका के चलते उन्हें “लाल-सेना” से बुलावा आ गया, और कीयेव के टैंक मेकेनिकल स्कूल में उन्होंने काम किया। इसी दौरान उनका तकनीकी कौशल उभरने लगा था, टैंक की इस यूनिट में नौकरी के दौरान ही टैंको द्वारा दागे गये गोलों की संख्या गिनने के लिये “काऊंटर” बना लिया और उसे टैंकों में फ़िट किया। सेना के उच्चाधिकारियों की निगाह तभी इस प्रतिभाशाली युवक पर पड़ गई थी। अक्टूबर 1941 में एक भीषण युद्ध के दौरान कलाश्निकोव बुरी तरह घायल हुए और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उस वक्त मशीनगन पर काम कर रहे उनके अधिकारी मिखाइल टिमोफ़ीविच ने उन्हें इस पर आगे काम करने को कहा। अस्पताल के बिस्तर पर बिताये छः महीनों में कलाश्निकोव ने अपने दिमाग में एक सब-मशीनगन का रफ़ डिजाइन तैयार कर लिया था। वह वापस अपने डिपो में लौटे और उन्होंने उसे अपने नेताओं और कामरेडों की मदद से मूर्तरूप दिया। जून 1942 में कलाश्निकोव की सब-मशीनगन वर्कशॉप में तैयार हो चुकी थी, इस डिजाइन को रक्षा अकादमी में भेजा गया। वहाँ सेना के अधिकारियों और प्रसिद्ध सेना वैज्ञानिक एए ब्लागोन्रारोव ने उनके प्रोजेक्ट में रुचि दिखाई। हालांकि इतनी आसानी से तकनीकी लोगों और वैज्ञानिकों ने कलाश्निकोव पर भरोसा नहीं किया और सन 1942 के अंत तक वे सेंट्रल रिसर्च ऑर्डिनेंस डिरेक्टोरेट में ही काम पर लगे रहे। 1944 में कलाश्निकोव ने एक “सेल्फ़ लोडिंग कार्बाइन” का डिजाइन तैयार किया, 1946 में इसके विभिन्न टेस्ट किये गये और अन्ततः 1949 में इसे सेना में शामिल कर लिया गया। इस आविष्कार के लिये कलाश्निकोव को प्रथम श्रेणी का स्टालिन पुरस्कार दिया गया। रूसी सरकार ने कलाश्निकोव का बहुत सम्मान किया है, उन्हें दो बार 1958 और 1976 में “हीरो ऑफ़ सोशलिस्ट लेबर”, 1949 में “स्टालिन पुरस्कार”, 1964 में “लेनिन पुरस्कार” आदि। 1969 में उन्हें सेना में “कर्नल” का रैंक दिया गया और 1971 में “डॉक्टर ऑफ़ इंजीनियरिंग” की मानद उपाधि भी दी गई। 1980 से उन्हें कुर्या गाँव का “प्रथम नागरिक” मान लिया गया और 1987 में इझ्वेस्क प्रान्त के मानद नागरिक का सम्मान उन्हें दिया गया। खुद रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने अपने हाथों से “मातृभूमि की विशेष सेवा के लिये” उन्हें रूसी ऑर्डर से सम्मानित किया और 75 वीं सालगिरह के मौके पर उन्हें मानद “मेजर जनरल” (Major General) की उपाधि भी दी गई।
अगले भाग में हम एके-47 की खूबियों और इसके बारे में खुद कलाश्निकोव के विचार जानेंगे (जारी भाग-2 में…)
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