
Super User
I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai.
I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles.
Website URL: http://www.google.com
सोमवार, 23 फरवरी 2015 10:51
A Wise Advise to Hinduvta Forces
हिंदूवादियों को प्यार भरा एक पत्र
(कूटनीति से अनजान, "उतावले हिन्दूवादियों" को भाई गौरव शर्मा की एक तेज़ाबी, लेकिन यथार्थवादी नसीहत...)
खुर्शीद अनवर याद है , जेएनयू का बहुत बड़ा नारीवादी बुद्धिजीवी था और बलात्कारी भी , पर दुस्साहस देखिये जब उसका मामला आया तब पूरी सेक्युलर जमात उसके पीछे खड़ी हो गयी , वही सेक्युलर जमात जो बुद्धिजीवियों से भरी पडी है और जहाँ "एक हो जाओ" जैसी बातें करना बचकाना समझा जाना चाहिए , खैर हमने सोचा की इकलौता केस होगा , फिर लिफ्ट में अपनी बच्ची की सहेली के साथ बलात्कार करने वाले वहशी तरुण तेजपाल की बारी आई , बड़े बड़े बुद्धिजीवियों ने उसके समर्थन में अख़बार के अख़बार भर डाले , नहीं नहीं साहब जमानत तो मिलना चाहिए उन्हें रेप ही तो किया है मर्डर थोड़े ही किया , ऐसे जुमले फेंके गए , कल तीस्ता जैसी फ्रॉड दलाल के समर्थन में सैकड़ों सेक्युलर सडकों पर उतर गए, दंगा पीड़ितों का पैसा खा जाने वाली के सारे अपराध सिर्फ इसलिए माफ़ हो गए क्योंकि उसने मोदी से लोहा लिया , ट्विटर , फेसबुक पर उसके समर्थन में मुहीम चल रही है , आज दलालों की दलाल बुरखा दत्त एनडीटीवी से विदाई ले रही हैं , ट्विटर पर उसकी विदाई का ऐसे वर्णन हो रहा है जैसे कोई योद्धा बरसों तक लड़ने के बाद रिटायर हुआ हो , और ये सब तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी ही तो हैं जो उसके सारे गुणदोष भूलकर अपने साथी के साथ खड़े हैं!! इन सब का एजेंडा साफ़ है हिन्दुत्ववादी ताकतों को हराना , ये अपने दिमाग में कोई फितूर नहीं पालते की सही क्या है और गलत क्या है , कॉमरेड है बस , बात खत्म !!
एक हम हैं... महान बुद्धिजीवी , किरण बेदी जैसी महिला हमारी आँखों के सामने कृष्णानगर से हार गयी और हम वहीँ पान की दुकान पर पिचकारी मारते रहे , कहते हैं की किरण बेदी हमारी विचारधारा के लिए नयी थी इसलिए काम नहीं किया .....तो भाई मेरे..... अरविन्द केजरीवाल नितीश कुमार और प्रकाश करात का कोई लंगोटिया यार था क्या ? फिर क्यों वे सब उसके पीछे एक हो गए ? क्यों गोयल और मुखियों की तरह उन्हें ये डर नहीं सताया की ये आदमी आगे बढ़ गया तो हमारा करियर भी ख़राब कर देगा ? देखा जाए तो असली बुद्धिजीवी तो हम हिंदूवादी हैं क्योंकि हम ज्यादा देर तक किसी की अच्छाई के साथ खड़े हो ही नहीं सकते , मीन मेक निकालना , आपस में ही अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता की होड़ मचाना कोई हमसे सीखे , हमसे कोई कह दे की आपको 1 महीने तक मोदी के खिलाफ कुछ नहीं लिखना है फिर देखिये पेट दुखने लगेगा, दस्त लग जायेंगे , हम बाल नोचने लगेंगे पर थोड़े दिन चुप नहीं रह सकेंगे ? आखिर निष्पक्ष फेसबुकिस्म भी कोई चीज़ है !! और ये मानसिकता फेसबुक तक नहीं बल्कि ऊपर से लेकर ज़मीन पर काम करने तक फैली है ...जेटली और राजनाथ को विरोधियों ने नहीं बल्कि हमने खुद फ्लॉप किया , खैर जब हम मोदी को ही नहीं बक्शते तो ये कहाँ के सूरमा हैं !!
जैसे कुछ महीनों पहले मोदी की फ़र्ज़ी चापलूसी करना एक फैशन था वैसे ही आजकल मोदी को गरियाना भी एक फैशन हो चला है , छोटा छोटा फेसबुकिया भी अपने आप को मोदी से बड़ा हिंदूवादी समझता है , हमें मोदी से ये शिकायत है की वो हमारे हिसाब से क्यों नहीं चलता , काम होते हुए दिख तो रहा है पर हमारी इन्द्रियों को तुष्ट करने वाली स्टाइल से नहीं हो रहा , हम चाहते हैं की वाड्रा को घर से घसीटते हुए सड़क पे पीटते पीटते थाने तक लाया जाए जबकि मोदी अपनी स्टाइल से कानून के सहारे वही सब कर रहे हैं , हम चाहते हैं गौ वध , धर्मान्तरण क़ानून अभी के अभी लाया जाये भले ही ओंधे मुँह गिर किरकिरी क्यों ना हो जाये , जबकि मोदी उसके लिए राज्यसभा में बहुमत इकठा करने की जुगत में हैं !! हम चाहते हैं की अरब देशों की चापलूसी बंद हो और इज़राइल से दोस्ती बढे ......तो उसके लिए तेल की निर्भरता खत्म करनी होगी , अब रूस के साथ संधि के बाद ये निर्भरता खत्म होने की पहल शुरू हुई है !! हम चाहते हैं मीडिया पर लगाम कसी जाए पर बताते नहीं की कैसे ? क्या स्टूडियों में घुस जाएँ और गर्दन पकड़ लें ? अब बात ये है की मीडिया की जान उनके व्यावसायिक घपलों में छिपी है जिन्हे एक एक कर बाहर लाया जा रहा है , डेक्कन क्रॉनिकल के मालिक की गिरफ़्तारी उसी कड़ी में समझी जाये , एनडीटीवी बहुत जल्द कानून के शिकंजे में आने वाला है , आईबीएन समूह बहुत हद तक अपनी लाइन सही कर चुका है !!
एक बात गाँठ बाँध के रख लो दोस्तों , मोदी हिन्दुओं की आखिरी उम्मीद है , सैकड़ों साल से गायें कट रही हैं , पांच साल और कट जाएँगी तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा , पर अगली बार मोदी नहीं आया तो ये सारे सेक्युलर की खाल में बैठे जेहादी मिलके तुम्हारा ऐसा हश्र करेंगे की आने वाले कई सालों तक किसी दूसरे मोदी के दिल्ली तक पहुँचने का सपना देखने में भी डर लगेगा !! ऐसा नहीं है की मैं मोदी से हर चीज़ में सहमत हूँ , विरोध मैंने भी किया है, पर बहुत विचार के बाद अब चुप रहना सीख लिया है , उसे पांच साल मौका देने का मन बना लिया है क्योंकि मेरे मोदी के बारे में विचार भले कुछ भी हों....... मुझे मेरे और मेरी आने वाली पीढ़ियों के दुश्मनों का पूरा आभास है ,और जिन हिन्दुओं को ये आभास होते हुए भी मोदी को गरियाने में एक विशिष्ट संतुष्टि का अनुभव होता है उन्हें आज की परिस्थितियों में मैं "महामूर्ख" की श्रेणी में रखना पसंद करूँगा !!
समय की ज़रुरत है की मोदी के विकास मन्त्र को , उपलब्धियों को घर घर पहुँचाया जाए , क्योंकि मोदी को वोट सिर्फ आपने ही नहीं कईयों ने कई कारण से दिया है , आप घराती हो आपके लिए खाना बचे न बचे ये मेहमान आपके घर से भूखे नहीं जाना चाहियें , हिन्दुओं को भी उनकी सुरक्षा और भविष्य के संकट समझाना मुश्किल है और विकास के मुद्दे समझाना आसान !! और ये करना भी इसलिए जरूरी है ताकि एक हिंदूवादी ना सही हिन्दू हितैषी स्थिर सरकार भारतवर्ष में बनी रहे क्योंकि याद रहे जब तक मुर्गी ज़िंदा रहेगी तब तक ही अंडे देगी , अटल जी की तरह उसका भी पेट चीर दोगे तो अगला मनमोहन केजरीवाल के रूप में पाओगे , फिर लड़ते रहना इन टोपीवालों से ज़िंदगी भर !!
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बुधवार, 25 फरवरी 2015 20:22
How to Debate Effectively on TV
टीवी बहस और उसकी प्रभावोत्पादकता
(साभार - आनंद राजाध्यक्ष जी)
(साभार - आनंद राजाध्यक्ष जी)
Jeet Bhargava जी ने मुद्दा उठाया है कि टीवी डिबेट में आने वाले
हिन्दू नेता न तो स्मार्ट ढंग से अपनी बात रख पा रहे है और ना ही विरोधियो के
तर्कों को धार से काट रहे हैं.
विहिप, बजरंग दल और हिन्दू महासभा वाले
बंधुओ, ज़रा
ढंग के ओरेटर लाओ. होम वर्क करके बन्दे भेजो.
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जीत भार्गव जी, मुद्दा आप ने १००% सही उठाया है लेकिन उत्तर इतना सहज और सरल नहीं है. वैसे इस विषय पर बहुत दिनों से लिखने की मंशा थी, आज आप ने प्रेरित ही कर दिया. लीजिये :
.
अच्छे वक्ता जो अच्छे तर्क भी दे सकें, और विषय की गहरी जानकारी भी रखते हों, आसानी से नहीं मिलते. मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो लिखते बेहद तार्किक और मार्मिक भी हैं, लेकिन लेखन और वक्तृत्व में फर्क होता है, डिलीवरी का अंदाज, आवाज, बॉडी लैंग्वेज इत्यादि बहुतही मायने रखते हैं जो हर किसी में उपलब्ध नहीं होते. अंदाज, आवाज और बॉडी लैंग्वेज तो खैर, सीखे और विक्सित भी किये जा सकते हैं लेकिन मूल बुद्धिमत्ता भी आवश्यक है. अनपढ़ गंवार के हाथों में F16 जैसा फाइटर विमान भी क्या काम का?
.
एक्टर और ओरेटर में यही तो फर्क होता है. अक्सर जो देखने मिलते हैं उन्हें वक्ता न कहकर ‘बकता’ कहना ही सही होगा.
ज्ञान के साथ साथ वक्ते के वाणी मैं ओज और अपनी बात मैं कॉन्फिडेंस होना अत्यावश्यक है, तभी उसकी बात सुननेवाले के दिल को छू पाएगी. यह सब कुछ नैसर्गिक देन नहीं होता. कुछ अंश तक होता है, बाकी लगन, मेहनत और प्रशिक्षण अत्यावश्यक है. हीरा तराशने के बाद ही निखरता है .
.
टीवी डिबेट एक और ही विधा है, केवल वक्तृत्व से काम नहीं चलता. भारतीय दर्शन परंपरा मैं वाद विवाद पद्धति पर ज्ञान उपलब्ध है; जरूरत है उसके अभ्यास की. इसको टीवी डिबेट के तांत्रिक अंगों से align करना आवश्यक है कि विपक्ष से कैसे फुटेज खाया जा सके, आवाज कैसी लगानी चाहिए, बॉडी लैंग्वेज कैसी होनी चाहिए, मुख मुद्रा (एक्सप्रेशन) कैसे हों, आवाज के चढ़ उतार इत्यादि.
.
पश्चिमी देशों की और अपने यहाँ वामपंथियों की इस विषय में गहरी सोच है, यह विषय का महत्त्व समझते हैं. पश्चिमी देशों में यह तो बाकायदा एक व्यवसाय है और ऐसे प्रोफेशनल्स की सेवाएं लेना वहां के राजनेता अनिवार्य मानते हैं. मोदीजी ने भी ऐसे मीडिया कंसल्टेंट्स की सेवाएं लेने की बात सुनी है, लेकिन अधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं कर सकता. वैसे, डिबेट के स्तर का नेता या प्रवक्ता और मंच पर जनसमुदाय को सम्बंधित करनेवाला वक्ता उन दोनों में अंतर रहता है, लेकिन वो विषय विस्तार इस पोस्ट के दायरे से बाहर है. अमेरिका में प्रेसिडेंट पद के लिए शीर्ष के दो प्रत्याशियों को डिबेट करनी पड़ती है, अपने यहाँ वो प्रणाली नहीं है.
अपने यहाँ वामपंथी लोग कॉलेज स्तर से ही विद्यार्थियों को अपने जाल में फंसाते हैं और उनका कोचिंग करना शुरू होता है. एक सुनियोजित पद्धति से उनकी जमात बनाई जाती है जो उनकी सामाजिक सेना भी है. यहाँ http://on.fb.me/1mFlPkB और यहाँhttp://on.fb.me/1CFIwMO पढ़ें.
.
इसमें अब हिन्दुत्ववादी संघटनों को करने जैसे तात्कालिक उपाय क्या होंगे जो बिना प्रचुर धन खर्चे हो सके? हाँ, समय अवश्य लगेगा, लेकिन बच्चा शादी के दूसरे दिन तो पैदा नहीं हो सकता भाई ! Full term delivery ही सही होगी. तो प्रस्तुत है :
.
1. संघ की हर "शाखा" में विषय चुन कर वक्तृत्व को उत्तेजन दें. अभ्यासी, होनहार लोगों / मेधावी बच्चों का चयन करें. विविध विषयों का चयन हो, और वक्ता के आकलन शक्ति, delivery इत्यादि उपरनिर्दिष्ट शक्तियों का अभ्यास किया जाए, बिना पक्षपात के.
.
2. इनमे से छंटे वक्ताओं की तालुका, जिला, शहर और राज्य स्तर पर परीक्षा हो. किसमें कौनसी / कितनी भाषा में किस हद तक धाराप्रवाह और तार्किक वक्तृत्व की क्षमता है यह जांचा जाए. कौनसा वक्ता मंच का है और कौन सा टीवी डिबेट का, किसे प्रचार टीम में जोड़ा जाए, किसे थिंक टैंक में समाया जाए ये काफी उपलब्धियां इस उपक्रम से हो सकती हैं. इसी परीक्षा का विस्तार राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जाए ये भी अत्यावश्यक है, सारी मेहनत इसी के लिए ही तो है.
.
3. उनमें जो कॉलेज के छात्र हों उन्हें अपने सहाध्यायिओं को प्रभावित कर के इस धारा में जोड़ने का प्रयास करना चाहिए. कॉलेज में भी वक्तृत्व स्पर्धा में अवश्य भाग लें, इस से लोकप्रियता भी बढ़ेगी, एक neutral या hostile क्राउड का भी अनुभव होगा, stage-fright जाती रहेगी.
.
4. अभी जो लोग लिख रहे हैं, विडिओ पर भाषण देने का भी अभ्यास करें. आजकल विडियो बिलकुल मुफ्त की चीज हो गई है मोबाइल के चलते. कम से कम ढाई मिनट और ज्यादा से ज्यादा दस मिनट तक भाषण कर के देख सकते हैं कहाँ तक प्रभावशाली हैं और कहाँ तक लोगों को पकड़ में रख सकते हैं. आपस में स्काइप पर विडिओ कॉन्फ़्रेंसिंग कर के डिबेट कर के भी देख सकते हैं कि किस लायक है नेशनल टीवी पर जाने के लिए ?
.
5. उपरोक्त जो विडिओ टॉक की बात कही गई है, अपने आप में एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण विधा भी है. अपना फोल्लोविंग बढाकर पक्ष विचार से अधिकाधिक लोग जोड़ सकते हैं. सेना में हर कोई जनरल नहीं होता, पर हर किसी का योगदान अपनी जगह पर बहुत महत्त्व रखता है, और बिना १००% योगदान के मुहीम फेल हो सकती है. वो कहावत तो आप ने पढ़ी ही होगी . नाल से गिरी कील वापस न ठोंकने पर घोडा गिरा, इसीलिए घुड़सवार गिरा.... कील ही सही, लेकिन यह जान लें की यह कील दुश्मन के coffin में ठोंकी जा रही है, अगर मजबूत न रही तो coffin तोड़कर Dracula बाहर आएगा जरूर...
.
6. और जो प्रभावी लेखक हैं अगर वक्ता नहीं है तो कोई बात नहीं, आदमी पढ़ना नहीं छोडनेवाला... आप की भी बहुत भारी जरुरत है भाई, बस आप भी अपनी क्षमता की एक बार जांच कर लें और अपने niche में अपनी तलवार – मतलब कलम – को और धारदार बनाए – वार उसका भी खाली नहीं जाता और न जाए...
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जीत भार्गव जी, मुद्दा आप ने १००% सही उठाया है लेकिन उत्तर इतना सहज और सरल नहीं है. वैसे इस विषय पर बहुत दिनों से लिखने की मंशा थी, आज आप ने प्रेरित ही कर दिया. लीजिये :
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अच्छे वक्ता जो अच्छे तर्क भी दे सकें, और विषय की गहरी जानकारी भी रखते हों, आसानी से नहीं मिलते. मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो लिखते बेहद तार्किक और मार्मिक भी हैं, लेकिन लेखन और वक्तृत्व में फर्क होता है, डिलीवरी का अंदाज, आवाज, बॉडी लैंग्वेज इत्यादि बहुतही मायने रखते हैं जो हर किसी में उपलब्ध नहीं होते. अंदाज, आवाज और बॉडी लैंग्वेज तो खैर, सीखे और विक्सित भी किये जा सकते हैं लेकिन मूल बुद्धिमत्ता भी आवश्यक है. अनपढ़ गंवार के हाथों में F16 जैसा फाइटर विमान भी क्या काम का?
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एक्टर और ओरेटर में यही तो फर्क होता है. अक्सर जो देखने मिलते हैं उन्हें वक्ता न कहकर ‘बकता’ कहना ही सही होगा.
ज्ञान के साथ साथ वक्ते के वाणी मैं ओज और अपनी बात मैं कॉन्फिडेंस होना अत्यावश्यक है, तभी उसकी बात सुननेवाले के दिल को छू पाएगी. यह सब कुछ नैसर्गिक देन नहीं होता. कुछ अंश तक होता है, बाकी लगन, मेहनत और प्रशिक्षण अत्यावश्यक है. हीरा तराशने के बाद ही निखरता है .
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टीवी डिबेट एक और ही विधा है, केवल वक्तृत्व से काम नहीं चलता. भारतीय दर्शन परंपरा मैं वाद विवाद पद्धति पर ज्ञान उपलब्ध है; जरूरत है उसके अभ्यास की. इसको टीवी डिबेट के तांत्रिक अंगों से align करना आवश्यक है कि विपक्ष से कैसे फुटेज खाया जा सके, आवाज कैसी लगानी चाहिए, बॉडी लैंग्वेज कैसी होनी चाहिए, मुख मुद्रा (एक्सप्रेशन) कैसे हों, आवाज के चढ़ उतार इत्यादि.
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पश्चिमी देशों की और अपने यहाँ वामपंथियों की इस विषय में गहरी सोच है, यह विषय का महत्त्व समझते हैं. पश्चिमी देशों में यह तो बाकायदा एक व्यवसाय है और ऐसे प्रोफेशनल्स की सेवाएं लेना वहां के राजनेता अनिवार्य मानते हैं. मोदीजी ने भी ऐसे मीडिया कंसल्टेंट्स की सेवाएं लेने की बात सुनी है, लेकिन अधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं कर सकता. वैसे, डिबेट के स्तर का नेता या प्रवक्ता और मंच पर जनसमुदाय को सम्बंधित करनेवाला वक्ता उन दोनों में अंतर रहता है, लेकिन वो विषय विस्तार इस पोस्ट के दायरे से बाहर है. अमेरिका में प्रेसिडेंट पद के लिए शीर्ष के दो प्रत्याशियों को डिबेट करनी पड़ती है, अपने यहाँ वो प्रणाली नहीं है.
अपने यहाँ वामपंथी लोग कॉलेज स्तर से ही विद्यार्थियों को अपने जाल में फंसाते हैं और उनका कोचिंग करना शुरू होता है. एक सुनियोजित पद्धति से उनकी जमात बनाई जाती है जो उनकी सामाजिक सेना भी है. यहाँ http://on.fb.me/1mFlPkB और यहाँhttp://on.fb.me/1CFIwMO पढ़ें.
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इसमें अब हिन्दुत्ववादी संघटनों को करने जैसे तात्कालिक उपाय क्या होंगे जो बिना प्रचुर धन खर्चे हो सके? हाँ, समय अवश्य लगेगा, लेकिन बच्चा शादी के दूसरे दिन तो पैदा नहीं हो सकता भाई ! Full term delivery ही सही होगी. तो प्रस्तुत है :
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1. संघ की हर "शाखा" में विषय चुन कर वक्तृत्व को उत्तेजन दें. अभ्यासी, होनहार लोगों / मेधावी बच्चों का चयन करें. विविध विषयों का चयन हो, और वक्ता के आकलन शक्ति, delivery इत्यादि उपरनिर्दिष्ट शक्तियों का अभ्यास किया जाए, बिना पक्षपात के.
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2. इनमे से छंटे वक्ताओं की तालुका, जिला, शहर और राज्य स्तर पर परीक्षा हो. किसमें कौनसी / कितनी भाषा में किस हद तक धाराप्रवाह और तार्किक वक्तृत्व की क्षमता है यह जांचा जाए. कौनसा वक्ता मंच का है और कौन सा टीवी डिबेट का, किसे प्रचार टीम में जोड़ा जाए, किसे थिंक टैंक में समाया जाए ये काफी उपलब्धियां इस उपक्रम से हो सकती हैं. इसी परीक्षा का विस्तार राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जाए ये भी अत्यावश्यक है, सारी मेहनत इसी के लिए ही तो है.
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3. उनमें जो कॉलेज के छात्र हों उन्हें अपने सहाध्यायिओं को प्रभावित कर के इस धारा में जोड़ने का प्रयास करना चाहिए. कॉलेज में भी वक्तृत्व स्पर्धा में अवश्य भाग लें, इस से लोकप्रियता भी बढ़ेगी, एक neutral या hostile क्राउड का भी अनुभव होगा, stage-fright जाती रहेगी.
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4. अभी जो लोग लिख रहे हैं, विडिओ पर भाषण देने का भी अभ्यास करें. आजकल विडियो बिलकुल मुफ्त की चीज हो गई है मोबाइल के चलते. कम से कम ढाई मिनट और ज्यादा से ज्यादा दस मिनट तक भाषण कर के देख सकते हैं कहाँ तक प्रभावशाली हैं और कहाँ तक लोगों को पकड़ में रख सकते हैं. आपस में स्काइप पर विडिओ कॉन्फ़्रेंसिंग कर के डिबेट कर के भी देख सकते हैं कि किस लायक है नेशनल टीवी पर जाने के लिए ?
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5. उपरोक्त जो विडिओ टॉक की बात कही गई है, अपने आप में एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण विधा भी है. अपना फोल्लोविंग बढाकर पक्ष विचार से अधिकाधिक लोग जोड़ सकते हैं. सेना में हर कोई जनरल नहीं होता, पर हर किसी का योगदान अपनी जगह पर बहुत महत्त्व रखता है, और बिना १००% योगदान के मुहीम फेल हो सकती है. वो कहावत तो आप ने पढ़ी ही होगी . नाल से गिरी कील वापस न ठोंकने पर घोडा गिरा, इसीलिए घुड़सवार गिरा.... कील ही सही, लेकिन यह जान लें की यह कील दुश्मन के coffin में ठोंकी जा रही है, अगर मजबूत न रही तो coffin तोड़कर Dracula बाहर आएगा जरूर...
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6. और जो प्रभावी लेखक हैं अगर वक्ता नहीं है तो कोई बात नहीं, आदमी पढ़ना नहीं छोडनेवाला... आप की भी बहुत भारी जरुरत है भाई, बस आप भी अपनी क्षमता की एक बार जांच कर लें और अपने niche में अपनी तलवार – मतलब कलम – को और धारदार बनाए – वार उसका भी खाली नहीं जाता और न जाए...
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शुक्रवार, 27 फरवरी 2015 20:55
A Boost for RSS Ghar Vapsi
"घर वापसी" पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर...
हिन्दू धर्म के लिए खुशखबरी तथा...हिन्दू धर्म द्रोहियों, चर्च-वेटिकन के गुर्गों और गाँव-गाँव में सेवा के नाम पर "धंधा" करने वाले फादरों के लिए बुरी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट के निर्णय को धता बताते हुए यह निर्णय सुनाया है कि यदि कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म में वापसी करता है तो उसका दलित स्टेटस बरकरार रहेगा और उसे आरक्षण की सुविधा मिलती रहेगी...
मामला केरल का है, जहाँ एक व्यक्ति ने हिन्दू धर्म में "घर-वापसी" की. उसे उसकी मूल दलित जाति का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया गया. जब वह आरक्षण लेने पहुँचा तो वेटिकन के "दोगलों" ने हंगामा खड़ा करते हुए केरल हाईकोर्ट में याचिका लगा दी कि वह ईसाई बन चुका था, इसलिए उसे अब आरक्षण नहीं दिया जा सकता. अब सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे दी है कि हिन्दू धर्म में लौटने के बाद भी वह दलित माना जाएगा और उसे आरक्षण मिलेगा.
ऊपर मैंने चर्च के सफ़ेद शांतिदूतों को "दोगला" इसलिए कहा, क्योंकि इन्हीं लोगों की माँग थी कि जो दलित ईसाई धर्म में जाए उसे भी "दलित ईसाई" श्रेणी में आरक्षण मिलना चाहिए. लेकिन जब वही व्यक्ति उनके चंगुल से निकलकर हिन्दू धर्म में वापस आया तो उसे आरक्षण के नाम पर रुदालियाँ गाने लगे. ठीक ऐसी ही दोगली कोलकाता निवासी एक महिला भी थी जिसे "सेवा"(?) उसी स्थिति में करनी थी, जब सरकार कठोर धर्मांतरण विरोधी क़ानून न बनाए. इस प्रस्तावित क़ानून के विरोध में मोरारजी देसाई को चिठ्ठी भी लिख मारी.
========================
पाखण्ड, धूर्तता, चालाकी, झूठ, फुसलाना आदि के सहारे हिंदुओं को बरगलाने वालों को तगड़ा झटका लगा है... अब गरीब दलितों के सामने अच्छा विकल्प है कि पहले वे चर्च से "मोटा माल" लेकर ईसाई बन जाएँ फिर कुछ वर्ष बाद हिन्दू धर्म में "घर वापसी" कर लें और मजे से आरक्षण लें... "आम के आम, गुठलियों के दाम'.." wink emoticon wink emoticon
मामला केरल का है, जहाँ एक व्यक्ति ने हिन्दू धर्म में "घर-वापसी" की. उसे उसकी मूल दलित जाति का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया गया. जब वह आरक्षण लेने पहुँचा तो वेटिकन के "दोगलों" ने हंगामा खड़ा करते हुए केरल हाईकोर्ट में याचिका लगा दी कि वह ईसाई बन चुका था, इसलिए उसे अब आरक्षण नहीं दिया जा सकता. अब सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे दी है कि हिन्दू धर्म में लौटने के बाद भी वह दलित माना जाएगा और उसे आरक्षण मिलेगा.
ऊपर मैंने चर्च के सफ़ेद शांतिदूतों को "दोगला" इसलिए कहा, क्योंकि इन्हीं लोगों की माँग थी कि जो दलित ईसाई धर्म में जाए उसे भी "दलित ईसाई" श्रेणी में आरक्षण मिलना चाहिए. लेकिन जब वही व्यक्ति उनके चंगुल से निकलकर हिन्दू धर्म में वापस आया तो उसे आरक्षण के नाम पर रुदालियाँ गाने लगे. ठीक ऐसी ही दोगली कोलकाता निवासी एक महिला भी थी जिसे "सेवा"(?) उसी स्थिति में करनी थी, जब सरकार कठोर धर्मांतरण विरोधी क़ानून न बनाए. इस प्रस्तावित क़ानून के विरोध में मोरारजी देसाई को चिठ्ठी भी लिख मारी.
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पाखण्ड, धूर्तता, चालाकी, झूठ, फुसलाना आदि के सहारे हिंदुओं को बरगलाने वालों को तगड़ा झटका लगा है... अब गरीब दलितों के सामने अच्छा विकल्प है कि पहले वे चर्च से "मोटा माल" लेकर ईसाई बन जाएँ फिर कुछ वर्ष बाद हिन्दू धर्म में "घर वापसी" कर लें और मजे से आरक्षण लें... "आम के आम, गुठलियों के दाम'.." wink emoticon wink emoticon
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गुरुवार, 05 मार्च 2015 12:06
Open Invitation for Guest Blogging on My blog
अतिथि ब्लॉगर बनें...
नमस्कार मित्रों...
जैसा कि आप जानते ही हैं कि व्यस्तता के कारण मेरा ब्लॉग लेखन लगभग बन्द सा ही है. मुश्किल से महीने में दो-तीन लेख लिख पाता हूँ, कभीकभार फेसबुक की छोटी-छोटी पोस्ट को ब्लॉग पर पोस्ट कर देता हूँ ताकि ब्लॉग "जीवित" रहे...| विगत एक माह में मैंने Anand Rajadhyaksha जी, Anand Kumar जी तथा भाई Gaurav Sharma जी की चुनिंदा बेहद उम्दा फेसबुक पोस्ट्स को (उनकी अनुमति से) अपने ब्लॉग पर कॉपी-पेस्ट किया.
आश्चर्यजनक रूप से इसके बाद मुझे ई-मेल पर बहुत ही उत्साहवर्धक फीड-बैक मिला है. बहुत से पुराने मित्रों, ऐसे मित्रों जो फेसबुक पर नहीं हैं, तथा वे लोग जो विस्तृत एवं गंभीर लेख पढ़ने के इच्छुक हैं उन सभी ने लिखा है कि हम भी लिखना चाहते हैं, और "हिन्दी में" कुछ अच्छा पढ़ना चाहते हैं.. क्या आप अपने ब्लॉग पर उसे स्थान देंगे?? आज होली के अवसर पर मैं अपने सभी मित्रों से आव्हान एवं अनुरोध करता हूँ कि "यदि वे चाहें तो" अपने लेख मुझे भेज सकते हैं. उनके नाम, उनकी फेसबुक लिंक आदि के साथ पूर्ण क्रेडिट देते हुए मैं उसे अपने ब्लॉग पर स्थान दे सकता हूँ.
इसके दो-तीन लाभ हैं :- १) जिन मित्रों का अभी तक खुद का ब्लॉग नहीं है, लेकिन फेसबुक पर भी वे लंबी-लंबी पोस्ट्स लिखते हैं, उन्हें मेरे ब्लॉग पर एक स्थायी ठिकाना मिल सकता है (फेसबुक पोस्ट की आयु अधिक नहीं होती). २) मेरे ब्लॉग की "साँसें" भी चलती रहेंगी... ३) जो लोग फेसबुक पर नहीं हैं, वे भी यहाँ की उम्दा पोस्ट्स से वंचित नहीं रहेंगे...
इसके अलावा ऐसा भी होता है कि अक्सर कई लोग जोश-जोश में अपना ब्लॉग तो बना लेते हैं, लेकिन नियमित लिख नहीं पाते, उन्हें भी मेरे ब्लॉग के रूप में एक प्लेटफार्म मिलेगा, जहाँ उन्हें अधिक पाठक मिल सकते हैं...
ज़ाहिर है कि भले ही ब्लॉग मेरा हो, लेखक के रूप में उनका नाम, आभार एवं कोई लिंक (यदि हो तो) दी ही जाएगी, एवं मेरी फेसबुक वाल से उस लेख को प्रचारित किया जाएगा ताकि अधिकाधिक लोगों तक वह पहुँचे...
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जो भी इच्छुक मित्र हों वे अपने लेख ujjaincyber@gmail.com पर अपने लेख भेज सकते हैं.
(इसमें एक बिंदु और जोड़ना चाहूँगा, कि कई मित्र मुझे कुछ सूचनाएँ भेजते हैं, शासकीय सेवा में होने के कारण वे अपना नाम ज़ाहिर नहीं करते, मैं भी उनकी गोपनीयता का पूरा सम्मान करता आया हूँ. यदि वे भी अपने विभाग से संबंधित कोई विस्फोटक लेख भेजना चाहें तो भेज सकते हैं, ज़ाहिर है कि सुरक्षा की खातिर, उस लेख में उनका नाम नहीं दिया जाएगा).
सभी मित्रों को होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ... ऐसे पावन अवसर पर इस नई पहल पर आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा...
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रविवार, 08 मार्च 2015 14:20
Ban on Beef - The Other Side of Coin
गौहत्या प्रतिबन्ध : धर्म, राजनीती और वोट बैंक से अलग दृष्टिकोण...
(कुछ दिन पहले गौहत्या बंदी के पक्ष में श्री आनंद कुमार जी का लेख ब्लॉग पर लिया था. आज इस समस्या का दूसरा पक्ष भी प्रस्तुत है. बेहद तर्कसंगत पद्धति से जमीनी हकीकत को एक गौपालक के नज़रिए से समझाया गया है. आशा करता हूँ कि सभी मित्र पूरे लेख को ध्यान से पढ़ेंगे, गौहत्या बंदी जैसे मुद्दे को सिर्फ भावनात्मक नज़रिए की बजाय व्यावहारिक एवं वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में समझने का प्रयास करेंगे, ताकि एक समुचित चर्चा हो, दोनों पहलुओं का विस्तृत अध्ययन हो और सरकार तथा गौपालक मिलकर इसका समाधान खोजें). पेश है गौहत्या बंदी कानून का दूसरा पहलू... अपनी राय अवश्य दें एवं शेयर करके सम्बन्धित नेताओं-अधिकारियों तक पहुँचाने की कोशिश करेंगे)... अनाद्य प्रकाश त्रिपाठी जी (https://www.facebook.com/AnadyaPrakashTripathi) का यह लेख निश्चित ही विचारणीय है...
(१) आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा भी एक गंभीर प्रश्न है
(२) सीमा पर (बंगाल और पाकिस्तान) पशु तस्करी बहुत बढ़ जाएगी
(३) अप्रत्यक्ष रूप से हम बंगाल और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में मदद के जिम्मेदार होंगे
(४) जो जॉब और आमदनी अभी भारतीयों और भारत सरकार को हो रही है उसको खुले हस्त से हम बंगाल और पाकिस्तान को दे देंगे
(५)पशु तस्करी के माध्यम से पुलिस और कस्टम के अधिकारियों को भ्रस्टाचार करने का खुला न्योता
(६) अब तक इतने कत्लखानो के सञ्चालन के बाद भी बाद भी गायों और शहरों की सडको पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) द्वारा फैलाई जाने वाली गन्दगी और झुण्ड द्वारा किया जाने वाला अतिक्रमण.
(७) और हाँ, एक बात तो बताना भूल गया, जो लोग मांसभक्षी है, जब उनके मुँह से माँस छिन जायेगा तो वो सब्जी खाएंगे, अब सब्जियों की पैदावार बढ़ने के लिए अलग से जमीनें तो पैदा होने वाली नहीं है, सो "डिमांड एंड सप्लाई" के साधारण अर्थशास्त्र से सब्जियों के दाम दोगुने होने की पूर्ण संभावना है, जो हर भारतबासी चाहे उसका संप्रदाय जो भी हो के जेब पर भरी पड़ने वाला है.
राजनीती में वोट बैंक के लिए नब्य भारत के सृजन में लोगो को अपने पैर पे कुल्हाड़ी मारते हुए देख और उससे होने वाले जख्म के दर्द से अनजान लोगो को उल्लास मानते हुए देख के मन में पीड़ा हो रही है। धर्म अपनी जगह है आस्था अपनी जगह है. लेकिन धर्म के नाम पर अपने भविष्य को बिगड़ना किसी भी लिहाज़ से समझदारी भरा कदम नहीं हो सकता है।
फेसबुक पे संदीप बसला जी दूध के अर्थशास्त्र को भारतीय बिजली कंपनियो के अर्थ शास्त्र से तुलना करते हुए बहुत अच्छे से इस समस्या के आर्थिक पहलू को उजागर करते है. संदीप जे कहते है :
"दूध का अर्थ शास्त्र को ऐसे समझो: नाकारा बिजली अधिकारी, नेताओं का तुष्टिकरण, पुलिस की कमी, और बेईमान जनता की वजह से अब आप जो बिजली के पैसे चुका रहे हो उसमे उस चोरी हुई बिजली का मूल्य भी शामिल है जबकि वो बिजली आपने उपभोग नहीं की उसका दंड भुगत रहे हम सब दूसरों पर खर्च हुई बिजली के मूल्य का - यही है बिजली का अर्थ शास्त्र.
ठीक इसी तरह से अब जब दूध देने वाले पशु तो दूध उतना ही देंगे पर दूध ना देने वाले पशु को भी चारा तो चाहिए ही उसकी लागत कहाँ से आएगी ? जो दूध बेचा जा रहा उसी से. तो जो दूध 40 rs लीटर है वो 100 rs मिलेगा. और रहने के लिए जगह ? सच्चाई ये है कि रहने के लिए जिन्दा लोगों के लिए नहीं है, पशुधन कहाँ रहेगा ? सिर्फ भावनाओं से काम नहीं चलता। देश पर बहुत भारी पड़ेगा ये फैसला।" अगर भावनाओ से ऊपर उठकर विचार करें तो इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है, कि इस निर्णय से लोगो को लाभ तो कुछ भी नहीं होगा लेकिन हर ब्यक्ति को इसकी कीमत जरूर चुकानी पड़ेगी.
कहने का तात्पर्य ये है की जब तक किसी भी योजना का व्यावहारिक लाभ और सामाजिक समरसता सुनिश्चित नहीं किया जायेगा तब तक वह सिर्फ विद्वानों के लिए वादविवाद का विषय भर रहेगा. फेसबुक पर नितिन त्रिपाठी जी कहते है कि "सोशल मीडिया पर चाहे जो कोई जो कुछ कहे, कटु सत्य है कोई किसान बैल या बछड़े को नहीं पालता, सरकार गौशाला के लिए ऋण दे यह भी समाधान नहीं क्योंकि गौशाला के नाम पर तो सबसे ज्यादा फ्रॉड होता है| वित्तीय फ्रॉड की चर्चा किये बगैर केवल कार्य पद्धति में ही जाऊं तो मैंने लगभग सौ गौशालाएं देखीं और ज्यादातर में बैल या बछड़े नहीं दिखाई दिए. इतना ही नहीं गाय भी केवल वही ही दिखाई दीं जो दुध देती हैं. बात बिल्कुल साफ़ है, कोई भी मॉडल जब तक वित्तीय तरीके से लाभ दायक नहीं होगा तब तक उसे कोई भी किसान या व्यवसाई नहीं अपनाएगा. कृषि मेले में गौ मूत्र का खेती में उपयोग आदि की खूब चर्चा की जाती है| पर इन सबका प्रैक्टिकल इम्प्लीमेंटेशन दिखाई नहीं देता असल जिंदगी में बैल आधारित खेती भी असंभव है प्रैक्टिकली आधुनिक युग में, अगर सम्भव भी है तो प्रैक्टिकल में कहीं दिखती नहीं. इन सब परिस्थितियों में मुझे नहीं लगता की किसान या व्यवसाई को मजबूर किया जाना चाहिए बैल पालन हेतु.
नितिन जी का ये तथ्य हमे सोचने पे मज़बूर कर रहा है की क्या समर्थ और उन्नत भारत की कल्पना के साथ हम सही दिशा में चल रहे है या भावनाओ में बह कर राजनीतिक लाभ के लिए पिचले ६५ साल से जो कोंग्रेस कराती आई है, हम भी वही कर रहे है. देश के विकास और जन कल्याण की योजनाओं को टाक पर रख कर कांग्रेस एक समुदाय विशेष को लाभ पहुचाने का काम कर रही थी. नयी सरकार दुसरे समुदाय की भावनाओ से खेल रही है, महाराष्ट्र सरकार के इस निर्णय से मुझे किसी भी समुदाय या ऐसा कहें कि भारत के किसी भी ब्यक्ति को कोई लाभ होते हुए नहीं दिख रहा है. हाँ दूरगामी दुष्परिणाम सब को भोगना होगा.
जब किसानी पारम्परिक तौर तरीको से की जाती थी तब गौ पालन इतना खर्चीला नहीं होता था आप के ज्ञानवर्धन के लिए कुछ तथ्य : आज कम्बाइन हार्वेस्टर जमाना है, जब ये नहीं था, तब गेहूँ और धान की कटाई हाथो से होती थी. फसल से गेहू और धान निकलने के बाद जो बाई-प्रोडक्ट बचता था वो भूसा होता था, मुफ्त में मिल जाता था गेहू और धान की मड़ाई के साथ साथ.. अब कम्बाइन हार्वेस्ट से गेहूँ और धान की बालियां ऊपर ऊपर चुन लिया जाता है, कोई भूसा नहीं मिलता है, शेष खेत में आग लगा के उसे पुनः जुताई योग्य बनाया जाता है. अब भूसा चाहिए वो भूसा वाला हार्वेस्टर ले के उसी खेत की पुनः मड़ाई करे, प्रोसेस कॉस्ट दोगुना, और भूसा का खर्च ६-१० रुपये प्रति किलो।
एक गाय (दूध दे या न दे ) प्रति दिन ५-८ किलो भूसा खायेगी, मतलब ८० रुपये रोज, महीने के २४००। बाकि दाना पानी अलग से. इस खिलाने-पिलाने के दौरान लगाने वाला मानव संसाधन का महत्व हीं नहीं है. अब आप खुद अंदाज़ा लगाओ की एक दूध न देने वाली गाय को पालने का खर्च कितना है ? गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करने वाला किसान जो अपना पेट पालने में असमर्थ है वो इनका क्या करेगा ? और हाँ... डेरी इंडस्ट्री वालो से कोई उम्मीद ही ना रखो, आत्मा काँप उठेगी आप की अगर एक बार भारत के किसी डेयरी में जा के देख लो, कि दूध न देने वाली गाय का ये लोग कैसे पालन पोषण करते है? और मर जाने पर क्या करते है? किसी ने सुझाव दिया कि राजीव दीक्षित जी ने बताया है की गाय दूध ने देते हुए भी लाखो का फायदा करा सकती है!!!!!! बताया गया है कि ८० लाख तक की आमदनी हो सकती है. मैंने कहा जी भैया ४०० क्विंटल गोबर हर महीने उत्पादन होता है मेरे यहाँ... पूरा का पूरा गाँव वाले फ्री में उठा के ले जाते है, जरा पता तो बता दीजिये उस इंडस्ट्री का, जो इस गोबर का व्यावसायिक उपयोग कर सके? हवा में बातें बनाना अलग बात है और धरातल पर कर्तब्य करना और बात. हाँ जिस दिन ऐसे इंडस्ट्री भारत के कोने-कोने में होगी, चाहे कोई कानून हो या न हो, कत्लखानो को गायें नहीं मिलेंगी कटाने के लिए, वो वैसे ही बंद हो जाएँगी।
किसी ने सुझाव दिया, आप गोबर गैस प्लांट क्यों नहीं लगा लेते? आइये आपको गोबर गैस प्लांट की व्यावहारिक हकीकत से रूबरू करते है. गोबर गैस प्लांट एलपीजी सिलेंडर जैसा नहीं होता। पहले गोबर गैस प्लांट के निर्माण के लिए लगभग २ लाख की पूंजी चाहिए। फिर उसमे गोबर डालना और हर १५ दिन बाद उसमे से सड़ चुके गोबर को बाहर निकालने के लिए पर्याप्त मानव संसाधन जुटाना मुस्किल है, भारत में कोई भी ऐसे काम को करने के लिए तैयार नहीं है, अगर कोई मिल भी गया तो काम १५-२० हज़ार रुपए महीने से काम ना लेगा। अब आते है गैस पर, गोबर गैस का व्यावसायिक उपयोग न के बराबर है, घरेलू उपयोग खाना बनाना और प्रकाश की व्यवस्था तक ही सीमित है. खाना बनाने के लिए एलपीजी ५०० प्रति सिलिंडर में मिलेगी, महीने भर के लिए पूर्ण है. प्रकाश के लिए LED लाइट कही ज्यादा सुभिधाजनक सस्ता और उपयोगी है. अब आप सोच के बताइये कि गोबर गैस सयंत्र बना कर, उसमे इतना निवेश कर के मै कितनी बुद्धिमानी का परिचय दूंगा ? जब तक गैस के बारे व्यावसायिक उपयोग के लिए हर गाँव में प्लांट नहीं लगेंगे, और जब तक इस गैस को बॉटलिंग कर के एलपीजी के बराबर का व्यावहारिक दर्ज़ा नहीं मिलता, ये सारी बातें बस कोरी कल्पना मात्र रह जाएँगी।
इस क़ानून का सबसे निर्मम पक्ष ये है कि गाँव में जब लोग बछड़ो और दूध न देने वाली गयो को बहार जा के छोड़ देते है तो वो गाये किसानो की फसल बर्बाद कराती है. किसान अपनी फसल रक्षा के लिए बड़े पैमाने पर कीटनाशको का इस्तेमाल करते हैं, ये कीटनाशक खाकर गायें तड़प तड़प कर मरती है. शहरों की स्थिति और भी खतरनाक है, लोग गायों को खाना पानी भी नहीं देते. सुबह दूध दुहने के बाद गाय के बच्चे को बांध लेते है और गाय को सड़को पर छोड़ आते हैं. प्लास्टिक कचरा और विषैले पदार्थो को खा कर वह गाय शाम के पुनः दूध देने आ जाती है, बाद में इसका जो दुष्परिणाम होता है वह यह कि इन गायों को कैंसर और Gastrointestine की बीमारियाँ हो जाती है और ये गाएँ तिल-तिल कर मरने के लिए मज़बूर हो जाती है.
समाधान यही है कि हम अपनी भावनाओ में बहने से बाहर निकलें हिन्दू धर्म में हर जीव को समान सत्ता माना गया है, मुर्गिया और बकरिया कटे तो कटे, और गाय कटे तो वो हमारी माता। दोनों के जीवात्मा में फर्क क्या है? कोई है हिन्दू तत्व दर्शन की व्याख्या के साथ इस रहस्य को समझने या समझाने वाला? हिन्दू धर्म तो ये भी कहता है जीव कभी नहीं मरता, उसका तो बस चोला बदल जाता है. फिर ये स्यापा रोना क्यों? ईश्वर ने सृष्टि बनाई तो पालक विष्णु और संहारक महेश (शंकर) दोनों को बनाया। सृष्टि को संतुलित बनाये रखने में पालक और संहारक दोनों का योगदान है, ऐसा तो नहीं की हम विष्णु को माने और शंकर की पूजा छोड़ दे. हर कोई गाय को अपनी माता मानना चाहता है, लेकिन कोई नहीं चाहता की एक बिना दूध देने वाले गाय को पालने की जिम्मेदारी उसके ऊपर डाल दी जाये। पैसा लगता है ना गाय के पोषण में और दूध भी नहीं मिलेगा। फिर इस स्वार्थ के रिश्ते को माता कह के बदनाम क्यों किया जा रहा है।
आप जिस धर्म को मानते हो, उस धर्म के भगवान के खातिर इस मुद्दे में धर्म को मत घुसेडिये, गाय को पालना हो पालिए, खाना हो खाइए, आप की अंतरआत्मा आप को जो भी करने को कहे करिए लेकिन बीच में धर्म को मत लाईये. कभी भारत कृषि प्रधान देश होता था गोवंश भारतीय अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग था. समाज धर्म के आधार पर चलता था, इसी लिए गाय को भी उच्च धार्मिक दर्जा प्राप्त था, आज समाज बदल रहा है, अर्थव्यवस्था का संचालन स्रोत बदल रहा है. हम एक ऐसे समय से गुजर रहे है जो संक्रांति काल है, हम अपने सोच में अभी इतने परिपक्व नहीं हो पाए है की धर्म और अर्थ के सोच को समानांतर बिना एक दुसरे को बाधित किये सोच सके. ऐसे परिस्थिति में एक बैकल्पिक रास्ते की जरूरत है जहाँ धर्म और अर्थ को निर्बाध गति से बिना किसी की भावनाओ को ठेस पहुचाये गति प्रदान कर सके. अर्थ या धर्म दोनों में किसी की भी अति किसी अवस्था में समाज के लिए आदर्श परिस्थिति नहीं उत्पन्न कर सकती. ये एक गंभीर विषय है, अर्थ को प्रधान मान के या धर्मान्ध हो अगर हम कोई निर्णय लेते है तो आने वाला भविष्य उसके दुष्परिणाम को भोगेगा, और जीवन भर हमे कोसेगा कि सही समय में हम ने सही फैसला नहीं लिया. इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए हमे सभी पहलुओं और वैकल्पिक रास्तो पर विचार करना चाहिए.
मेरा मानना है कि जो भी गौ पालक है उनको एनिमल हसबेंडरी की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये, उनके सामने आने वाली हर समस्या के निदान के लिए आर्थिक और सामाजिक माहौल मुहैया कराया जाये, अपनी माता (गाय ) के पालन पोषण में उनको खुद सक्षम बनाने पर बल दिया जाये. फेसबुक पर ही स्वाति गुप्ता जी कहती हैं कि "विदेशों मे काउ-फार्मिंग (गोपालन) होती है, जिसमें दो तीन लोग मिलकर दो हज़ार गाएँ मैनेज करते है । इन गायों का खाना भी अच्छा होता है और दूध भी अच्छा देती है । इधर उधर भी नहीं फिरती". सोचने वाली बात ये है कि हम वो टेक्नोलॉजी भारत में क्यों नहीं ला रहे है? गौपालकों को गौशाला के नाम पर सब्सिडी के वकालत करने वाले लोग इस दिशा में क्यों नहीं सोचते कि ये सब्सिडी काउ फार्मिंग (गोपालन) टेक्नोलोजी में लगे और हम उन्नत तरीके से गौपालन करे.
अगर वास्तविक रूप से इस समस्या के समाधान के लिए अगर किसी चीज के जरूरत है तो वो यह है कि उन्नत टेक्नोलॉजी और सरकारी सामाजिक सहयोग से एक इण्डस्ट्रियल विकास की, जिससे गैस, पावर, मिल्क प्रोडक्ट और बहुत से चीजों का व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है। जब तक ये व्यवस्था गाँव गाँव में नहीं कर दी जाती तब तक समस्या जस की तस बनी रहेगी. पहले गौ आधारित इण्डस्ट्रियल विकास करना होगा, फिर एक-एक गोपालक को कच्चा मॉल सप्लाई के लिए इस चेन से जोड़ना होगा
इस मुद्दे पे अतुल दुबे जी कहते है के "भाई लोग जो गाय दूध नहीं देती उनकी रक्षा हो सकती है, जिसके लिए आप को दान देने की भी जरूरत नहीं / गौ मूत्र और गोबर से बहुत सारे समान ( मंजन से मच्छर मार अगरबत्ती तक) बनते है अगर हम ईस्तेमाल करे तो गौ रक्षा हो सकती है. बस जरूरत है लोगो तक इसकी अच्छाई पहुँचाई जाए". मै अतुल जी के इस सोच से काफी हद तक सहमत हूँ, पर मुख्य समस्या वही है जो चूहों के एक मीटिंग में चूहों के सरदार के सामने थी, बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? आप गोपालक से ये उम्मीद नहीं कर सकते की गोबर और मूत्र का व्यावसायिक उपयोग के लिए संसाधन पूंजी निवेश और बने सामानों की मार्केटिंग खुद करे. ये अन्याय होगा. हाँ एक और सच्चाई यह है कि मै अब तक अपने संपर्क में किसी को नहीं जानता जो मंजन में गोमूत्र और गोबर से बना प्रोडक्ट प्रयोग करते हो, और मच्छर मार में आलआउट और मार्टिन छोड़ कर कुछ दूसरा प्रयोग करते हो. बात कड़वी हो सकती है लेकिन सच्चाई से हम मुह नहीं मोड़ सकते. व्यापारी को जब तक शुद्ध मुनाफा नहीं होगा, वो ऐसी कोई भी इंडस्ट्री लगाने वाला नहीं. तो बात वहीं आ कर रुक जाती है, ऐसी योजना का विकास कैसे किया जा सके, कि गौसेवक गाय के मूत्र और गोबर को उन कंपनियों तक पंहुचा सके जो इसका व्यावसायिक उपयोग कर सके... और साथ में इतनी कमाई भी पा सके कि उनकी लागत मूल्य निकल सके? बिना दूध देने वाले एक गाय को पालने में लगने वाला मासिक खर्च ४-५ हज़ार पड़ता है, वास्तविक धरातल पर रहते हुए अगर बात करें तो क्या हम ऐसे इंडस्ट्री का विकास कर सकते हैं, जो गाय का गोबर और मूत्र के बदले गोपालक को प्रति माह ५-६ हज़ार रूपये दे सकती है ? वर्त्तमान में तो ये असंभव ही प्रतीत हो रहा है.
साथ में जो लोग बीफ (गौ मांस) के उद्योग से जुड़े हैं, उनको भी स्लाटर हाउस की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये और उनको इस उद्योग से अधिकतम मुनाफा कैसे बनाये इस बात की सीख दी जाये. इस मामले में राजकीय हस्तक्षेप करने की बजाय पालक और संहारक को अपना संतुलन बनाने के लिए स्वंत्रता प्रदान की जाये। क्योंकी पालक है, तो ही संहारक है, संहारक अपने उद्योग के फायदे के लिए पालक को ज्यादा गोबंश उत्पादन के लिए प्रेरित करे, इसी प्रकार पालक स्वय निश्चित करे की उसके हित में क्या है, ये समन्वय ही सृष्टि को अब तक चला रहा था और इसमें हस्तक्षेप सृष्टि श्रृंखला में परिवर्तन लाएगा जिसके दुष्परिणाम भयानक हो सकते है.
जैसा कि सब जानते है की मदिरा-गुटखा-बीड़ी-सिगरेट खतरनाक और नुकसानदेह है, सिवाय नुकसान के इन से कोई फायदा नहीं है, फिर भी सरकार इनके फैक्ट्री को बंद नहीं कराती है, बस जागरूकता अभियान चलती है. क्यों? ऐसे ही कत्लखाने बंद करना समस्या उपाय नहीं है, समुचित और सही उपाय तो तब होगा जब इन कत्लखाने के मालिको को कोई गौवंश बेचने वाला ही नहीं मिलेगा, जब गोपालकों को गौवंश का सही और फायदेमंद उपयोग (बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि ) करने का टेक्नोलॉजी किफायती मूल्य पर उपलब्ध होगा तो वो इन्हे बेचेंगे क्यों? हमारा दुर्भाग्य ये है कि हमारी सरकारे मूल समस्या का इलाज ना कर के बस भावनाओ के साथ खेलना जानती है. वोट बैंक का सवाल है न. अगर आज बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि टेक्नोलॉजी और इंस्ट्रूमेंट गौ-पालकों को मिल जाये, तो मै दावे साथ कह सकता हूँ कि ये कत्लखाने अपने-आप बंद हो जायेंगे. आज जो समस्या गौपालकों के सामने है, कल को इन स्लाटर हाउस मालिको के सामने भी वही समस्या होगी। उम्मीद करता हूँ कि सरकार जनभावनाओं से खेलने के जगह गौपालकों के लिए कुछ ठोस बंदोबस्त करने की दिशा में कदम उठायेगी...
(कुछ दिन पहले गौहत्या बंदी के पक्ष में श्री आनंद कुमार जी का लेख ब्लॉग पर लिया था. आज इस समस्या का दूसरा पक्ष भी प्रस्तुत है. बेहद तर्कसंगत पद्धति से जमीनी हकीकत को एक गौपालक के नज़रिए से समझाया गया है. आशा करता हूँ कि सभी मित्र पूरे लेख को ध्यान से पढ़ेंगे, गौहत्या बंदी जैसे मुद्दे को सिर्फ भावनात्मक नज़रिए की बजाय व्यावहारिक एवं वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में समझने का प्रयास करेंगे, ताकि एक समुचित चर्चा हो, दोनों पहलुओं का विस्तृत अध्ययन हो और सरकार तथा गौपालक मिलकर इसका समाधान खोजें). पेश है गौहत्या बंदी कानून का दूसरा पहलू... अपनी राय अवश्य दें एवं शेयर करके सम्बन्धित नेताओं-अधिकारियों तक पहुँचाने की कोशिश करेंगे)... अनाद्य प्रकाश त्रिपाठी जी (https://www.facebook.com/AnadyaPrakashTripathi) का यह लेख निश्चित ही विचारणीय है...
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गाँव के जितने किसानो के गायों को बछड़ा होता है वो दूध दुहने के बाद बछड़े को गाँव के बाहर छोड़ देते हैं. उत्तर प्रदेश देवरिया जिला गाँव सिरजम में मेरे गाँव के बाहर के दो एकड़ खेत में मटर बोया गया था, इन लावारिस बछड़ो ने पूरा सत्यानाश कर दिया, भाई इसका क्या हल है, मुझ जैसे सैकड़ो किसानो को इन लावारिस बछड़ो के आतंक से मुक्ति दिलाने का कोई तो मार्गदर्शन करे? महाराष्ट्र में गौहत्या बंद होने पर जश्न मनाने वालो में से है कोई बताने वाला, मेरे इस समस्या का हल.......
प्रथम बार जब मैंने फेसबुक पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा उठाया, तो मुझे जबाब दिया गया की गौशालो से संपर्क करो। मै अपनी सोच पुनः आप लोगो के साथ शेयर करना चाहूँगा. "वाह भैया, दुनिया अपने बछड़े मेरे खेतो में छोड़ जाये और मैं गौशाला- खोजता फिरूं?" इतना उत्तम तरीका सुझाने के लिए धन्यवाद, मास्टर डिग्री धारक मेरे दिमाग में भूसा भरा था जो इतना भी नहीं समझ सकता की आवारा बछड़ो को गौशाला में भेजो, अरे भाई साहब अब यह राय दे दिए हो तो उत्तर प्रदेश में स्थित कुछ गौशालाओं के नाम पता भी बता दीजिये, ये भी बता दीजिये के उनके पास अभी और कितने बिना दूध देने वाले बछड़ो के रखने की कैपिसिटी है. हाँ, साथ में ये भी बता देते की बछड़ो को मेरे गाँव से गौशाला भेजने का लेबर चार्ज और ट्रांसपोर्टेशन चार्ज का बंदोबस्त कौन सा गौशाला दे रहा है। वास्तव में ये संवाद हमारी मूर्खता को परिलक्षित कर रहा है कि आज भी हम उचित और ब्यवहारिक मुद्दो नजरअंदाज करते हुए भावनाओ और वोट बैंक के लिए कैसे काम करते है, हँसी आती है उन लोगो द्वारा गाय पालने के फायदे सुन कर जिनको गाय के गोबर की गंध से ही उलटी आने लगती है.
सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले के कई दूरगामी परिणाम सामने आएँगे...
गाँव के जितने किसानो के गायों को बछड़ा होता है वो दूध दुहने के बाद बछड़े को गाँव के बाहर छोड़ देते हैं. उत्तर प्रदेश देवरिया जिला गाँव सिरजम में मेरे गाँव के बाहर के दो एकड़ खेत में मटर बोया गया था, इन लावारिस बछड़ो ने पूरा सत्यानाश कर दिया, भाई इसका क्या हल है, मुझ जैसे सैकड़ो किसानो को इन लावारिस बछड़ो के आतंक से मुक्ति दिलाने का कोई तो मार्गदर्शन करे? महाराष्ट्र में गौहत्या बंद होने पर जश्न मनाने वालो में से है कोई बताने वाला, मेरे इस समस्या का हल.......
प्रथम बार जब मैंने फेसबुक पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा उठाया, तो मुझे जबाब दिया गया की गौशालो से संपर्क करो। मै अपनी सोच पुनः आप लोगो के साथ शेयर करना चाहूँगा. "वाह भैया, दुनिया अपने बछड़े मेरे खेतो में छोड़ जाये और मैं गौशाला- खोजता फिरूं?" इतना उत्तम तरीका सुझाने के लिए धन्यवाद, मास्टर डिग्री धारक मेरे दिमाग में भूसा भरा था जो इतना भी नहीं समझ सकता की आवारा बछड़ो को गौशाला में भेजो, अरे भाई साहब अब यह राय दे दिए हो तो उत्तर प्रदेश में स्थित कुछ गौशालाओं के नाम पता भी बता दीजिये, ये भी बता दीजिये के उनके पास अभी और कितने बिना दूध देने वाले बछड़ो के रखने की कैपिसिटी है. हाँ, साथ में ये भी बता देते की बछड़ो को मेरे गाँव से गौशाला भेजने का लेबर चार्ज और ट्रांसपोर्टेशन चार्ज का बंदोबस्त कौन सा गौशाला दे रहा है। वास्तव में ये संवाद हमारी मूर्खता को परिलक्षित कर रहा है कि आज भी हम उचित और ब्यवहारिक मुद्दो नजरअंदाज करते हुए भावनाओ और वोट बैंक के लिए कैसे काम करते है, हँसी आती है उन लोगो द्वारा गाय पालने के फायदे सुन कर जिनको गाय के गोबर की गंध से ही उलटी आने लगती है.
सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले के कई दूरगामी परिणाम सामने आएँगे...
(१) आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा भी एक गंभीर प्रश्न है
(२) सीमा पर (बंगाल और पाकिस्तान) पशु तस्करी बहुत बढ़ जाएगी
(३) अप्रत्यक्ष रूप से हम बंगाल और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में मदद के जिम्मेदार होंगे
(४) जो जॉब और आमदनी अभी भारतीयों और भारत सरकार को हो रही है उसको खुले हस्त से हम बंगाल और पाकिस्तान को दे देंगे
(५)पशु तस्करी के माध्यम से पुलिस और कस्टम के अधिकारियों को भ्रस्टाचार करने का खुला न्योता
(६) अब तक इतने कत्लखानो के सञ्चालन के बाद भी बाद भी गायों और शहरों की सडको पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) द्वारा फैलाई जाने वाली गन्दगी और झुण्ड द्वारा किया जाने वाला अतिक्रमण.
(७) और हाँ, एक बात तो बताना भूल गया, जो लोग मांसभक्षी है, जब उनके मुँह से माँस छिन जायेगा तो वो सब्जी खाएंगे, अब सब्जियों की पैदावार बढ़ने के लिए अलग से जमीनें तो पैदा होने वाली नहीं है, सो "डिमांड एंड सप्लाई" के साधारण अर्थशास्त्र से सब्जियों के दाम दोगुने होने की पूर्ण संभावना है, जो हर भारतबासी चाहे उसका संप्रदाय जो भी हो के जेब पर भरी पड़ने वाला है.
राजनीती में वोट बैंक के लिए नब्य भारत के सृजन में लोगो को अपने पैर पे कुल्हाड़ी मारते हुए देख और उससे होने वाले जख्म के दर्द से अनजान लोगो को उल्लास मानते हुए देख के मन में पीड़ा हो रही है। धर्म अपनी जगह है आस्था अपनी जगह है. लेकिन धर्म के नाम पर अपने भविष्य को बिगड़ना किसी भी लिहाज़ से समझदारी भरा कदम नहीं हो सकता है।
फेसबुक पे संदीप बसला जी दूध के अर्थशास्त्र को भारतीय बिजली कंपनियो के अर्थ शास्त्र से तुलना करते हुए बहुत अच्छे से इस समस्या के आर्थिक पहलू को उजागर करते है. संदीप जे कहते है :
"दूध का अर्थ शास्त्र को ऐसे समझो: नाकारा बिजली अधिकारी, नेताओं का तुष्टिकरण, पुलिस की कमी, और बेईमान जनता की वजह से अब आप जो बिजली के पैसे चुका रहे हो उसमे उस चोरी हुई बिजली का मूल्य भी शामिल है जबकि वो बिजली आपने उपभोग नहीं की उसका दंड भुगत रहे हम सब दूसरों पर खर्च हुई बिजली के मूल्य का - यही है बिजली का अर्थ शास्त्र.
ठीक इसी तरह से अब जब दूध देने वाले पशु तो दूध उतना ही देंगे पर दूध ना देने वाले पशु को भी चारा तो चाहिए ही उसकी लागत कहाँ से आएगी ? जो दूध बेचा जा रहा उसी से. तो जो दूध 40 rs लीटर है वो 100 rs मिलेगा. और रहने के लिए जगह ? सच्चाई ये है कि रहने के लिए जिन्दा लोगों के लिए नहीं है, पशुधन कहाँ रहेगा ? सिर्फ भावनाओं से काम नहीं चलता। देश पर बहुत भारी पड़ेगा ये फैसला।" अगर भावनाओ से ऊपर उठकर विचार करें तो इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है, कि इस निर्णय से लोगो को लाभ तो कुछ भी नहीं होगा लेकिन हर ब्यक्ति को इसकी कीमत जरूर चुकानी पड़ेगी.
कहने का तात्पर्य ये है की जब तक किसी भी योजना का व्यावहारिक लाभ और सामाजिक समरसता सुनिश्चित नहीं किया जायेगा तब तक वह सिर्फ विद्वानों के लिए वादविवाद का विषय भर रहेगा. फेसबुक पर नितिन त्रिपाठी जी कहते है कि "सोशल मीडिया पर चाहे जो कोई जो कुछ कहे, कटु सत्य है कोई किसान बैल या बछड़े को नहीं पालता, सरकार गौशाला के लिए ऋण दे यह भी समाधान नहीं क्योंकि गौशाला के नाम पर तो सबसे ज्यादा फ्रॉड होता है| वित्तीय फ्रॉड की चर्चा किये बगैर केवल कार्य पद्धति में ही जाऊं तो मैंने लगभग सौ गौशालाएं देखीं और ज्यादातर में बैल या बछड़े नहीं दिखाई दिए. इतना ही नहीं गाय भी केवल वही ही दिखाई दीं जो दुध देती हैं. बात बिल्कुल साफ़ है, कोई भी मॉडल जब तक वित्तीय तरीके से लाभ दायक नहीं होगा तब तक उसे कोई भी किसान या व्यवसाई नहीं अपनाएगा. कृषि मेले में गौ मूत्र का खेती में उपयोग आदि की खूब चर्चा की जाती है| पर इन सबका प्रैक्टिकल इम्प्लीमेंटेशन दिखाई नहीं देता असल जिंदगी में बैल आधारित खेती भी असंभव है प्रैक्टिकली आधुनिक युग में, अगर सम्भव भी है तो प्रैक्टिकल में कहीं दिखती नहीं. इन सब परिस्थितियों में मुझे नहीं लगता की किसान या व्यवसाई को मजबूर किया जाना चाहिए बैल पालन हेतु.
नितिन जी का ये तथ्य हमे सोचने पे मज़बूर कर रहा है की क्या समर्थ और उन्नत भारत की कल्पना के साथ हम सही दिशा में चल रहे है या भावनाओ में बह कर राजनीतिक लाभ के लिए पिचले ६५ साल से जो कोंग्रेस कराती आई है, हम भी वही कर रहे है. देश के विकास और जन कल्याण की योजनाओं को टाक पर रख कर कांग्रेस एक समुदाय विशेष को लाभ पहुचाने का काम कर रही थी. नयी सरकार दुसरे समुदाय की भावनाओ से खेल रही है, महाराष्ट्र सरकार के इस निर्णय से मुझे किसी भी समुदाय या ऐसा कहें कि भारत के किसी भी ब्यक्ति को कोई लाभ होते हुए नहीं दिख रहा है. हाँ दूरगामी दुष्परिणाम सब को भोगना होगा.
जब किसानी पारम्परिक तौर तरीको से की जाती थी तब गौ पालन इतना खर्चीला नहीं होता था आप के ज्ञानवर्धन के लिए कुछ तथ्य : आज कम्बाइन हार्वेस्टर जमाना है, जब ये नहीं था, तब गेहूँ और धान की कटाई हाथो से होती थी. फसल से गेहू और धान निकलने के बाद जो बाई-प्रोडक्ट बचता था वो भूसा होता था, मुफ्त में मिल जाता था गेहू और धान की मड़ाई के साथ साथ.. अब कम्बाइन हार्वेस्ट से गेहूँ और धान की बालियां ऊपर ऊपर चुन लिया जाता है, कोई भूसा नहीं मिलता है, शेष खेत में आग लगा के उसे पुनः जुताई योग्य बनाया जाता है. अब भूसा चाहिए वो भूसा वाला हार्वेस्टर ले के उसी खेत की पुनः मड़ाई करे, प्रोसेस कॉस्ट दोगुना, और भूसा का खर्च ६-१० रुपये प्रति किलो।
एक गाय (दूध दे या न दे ) प्रति दिन ५-८ किलो भूसा खायेगी, मतलब ८० रुपये रोज, महीने के २४००। बाकि दाना पानी अलग से. इस खिलाने-पिलाने के दौरान लगाने वाला मानव संसाधन का महत्व हीं नहीं है. अब आप खुद अंदाज़ा लगाओ की एक दूध न देने वाली गाय को पालने का खर्च कितना है ? गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करने वाला किसान जो अपना पेट पालने में असमर्थ है वो इनका क्या करेगा ? और हाँ... डेरी इंडस्ट्री वालो से कोई उम्मीद ही ना रखो, आत्मा काँप उठेगी आप की अगर एक बार भारत के किसी डेयरी में जा के देख लो, कि दूध न देने वाली गाय का ये लोग कैसे पालन पोषण करते है? और मर जाने पर क्या करते है? किसी ने सुझाव दिया कि राजीव दीक्षित जी ने बताया है की गाय दूध ने देते हुए भी लाखो का फायदा करा सकती है!!!!!! बताया गया है कि ८० लाख तक की आमदनी हो सकती है. मैंने कहा जी भैया ४०० क्विंटल गोबर हर महीने उत्पादन होता है मेरे यहाँ... पूरा का पूरा गाँव वाले फ्री में उठा के ले जाते है, जरा पता तो बता दीजिये उस इंडस्ट्री का, जो इस गोबर का व्यावसायिक उपयोग कर सके? हवा में बातें बनाना अलग बात है और धरातल पर कर्तब्य करना और बात. हाँ जिस दिन ऐसे इंडस्ट्री भारत के कोने-कोने में होगी, चाहे कोई कानून हो या न हो, कत्लखानो को गायें नहीं मिलेंगी कटाने के लिए, वो वैसे ही बंद हो जाएँगी।
किसी ने सुझाव दिया, आप गोबर गैस प्लांट क्यों नहीं लगा लेते? आइये आपको गोबर गैस प्लांट की व्यावहारिक हकीकत से रूबरू करते है. गोबर गैस प्लांट एलपीजी सिलेंडर जैसा नहीं होता। पहले गोबर गैस प्लांट के निर्माण के लिए लगभग २ लाख की पूंजी चाहिए। फिर उसमे गोबर डालना और हर १५ दिन बाद उसमे से सड़ चुके गोबर को बाहर निकालने के लिए पर्याप्त मानव संसाधन जुटाना मुस्किल है, भारत में कोई भी ऐसे काम को करने के लिए तैयार नहीं है, अगर कोई मिल भी गया तो काम १५-२० हज़ार रुपए महीने से काम ना लेगा। अब आते है गैस पर, गोबर गैस का व्यावसायिक उपयोग न के बराबर है, घरेलू उपयोग खाना बनाना और प्रकाश की व्यवस्था तक ही सीमित है. खाना बनाने के लिए एलपीजी ५०० प्रति सिलिंडर में मिलेगी, महीने भर के लिए पूर्ण है. प्रकाश के लिए LED लाइट कही ज्यादा सुभिधाजनक सस्ता और उपयोगी है. अब आप सोच के बताइये कि गोबर गैस सयंत्र बना कर, उसमे इतना निवेश कर के मै कितनी बुद्धिमानी का परिचय दूंगा ? जब तक गैस के बारे व्यावसायिक उपयोग के लिए हर गाँव में प्लांट नहीं लगेंगे, और जब तक इस गैस को बॉटलिंग कर के एलपीजी के बराबर का व्यावहारिक दर्ज़ा नहीं मिलता, ये सारी बातें बस कोरी कल्पना मात्र रह जाएँगी।
इस क़ानून का सबसे निर्मम पक्ष ये है कि गाँव में जब लोग बछड़ो और दूध न देने वाली गयो को बहार जा के छोड़ देते है तो वो गाये किसानो की फसल बर्बाद कराती है. किसान अपनी फसल रक्षा के लिए बड़े पैमाने पर कीटनाशको का इस्तेमाल करते हैं, ये कीटनाशक खाकर गायें तड़प तड़प कर मरती है. शहरों की स्थिति और भी खतरनाक है, लोग गायों को खाना पानी भी नहीं देते. सुबह दूध दुहने के बाद गाय के बच्चे को बांध लेते है और गाय को सड़को पर छोड़ आते हैं. प्लास्टिक कचरा और विषैले पदार्थो को खा कर वह गाय शाम के पुनः दूध देने आ जाती है, बाद में इसका जो दुष्परिणाम होता है वह यह कि इन गायों को कैंसर और Gastrointestine की बीमारियाँ हो जाती है और ये गाएँ तिल-तिल कर मरने के लिए मज़बूर हो जाती है.
समाधान यही है कि हम अपनी भावनाओ में बहने से बाहर निकलें हिन्दू धर्म में हर जीव को समान सत्ता माना गया है, मुर्गिया और बकरिया कटे तो कटे, और गाय कटे तो वो हमारी माता। दोनों के जीवात्मा में फर्क क्या है? कोई है हिन्दू तत्व दर्शन की व्याख्या के साथ इस रहस्य को समझने या समझाने वाला? हिन्दू धर्म तो ये भी कहता है जीव कभी नहीं मरता, उसका तो बस चोला बदल जाता है. फिर ये स्यापा रोना क्यों? ईश्वर ने सृष्टि बनाई तो पालक विष्णु और संहारक महेश (शंकर) दोनों को बनाया। सृष्टि को संतुलित बनाये रखने में पालक और संहारक दोनों का योगदान है, ऐसा तो नहीं की हम विष्णु को माने और शंकर की पूजा छोड़ दे. हर कोई गाय को अपनी माता मानना चाहता है, लेकिन कोई नहीं चाहता की एक बिना दूध देने वाले गाय को पालने की जिम्मेदारी उसके ऊपर डाल दी जाये। पैसा लगता है ना गाय के पोषण में और दूध भी नहीं मिलेगा। फिर इस स्वार्थ के रिश्ते को माता कह के बदनाम क्यों किया जा रहा है।
आप जिस धर्म को मानते हो, उस धर्म के भगवान के खातिर इस मुद्दे में धर्म को मत घुसेडिये, गाय को पालना हो पालिए, खाना हो खाइए, आप की अंतरआत्मा आप को जो भी करने को कहे करिए लेकिन बीच में धर्म को मत लाईये. कभी भारत कृषि प्रधान देश होता था गोवंश भारतीय अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग था. समाज धर्म के आधार पर चलता था, इसी लिए गाय को भी उच्च धार्मिक दर्जा प्राप्त था, आज समाज बदल रहा है, अर्थव्यवस्था का संचालन स्रोत बदल रहा है. हम एक ऐसे समय से गुजर रहे है जो संक्रांति काल है, हम अपने सोच में अभी इतने परिपक्व नहीं हो पाए है की धर्म और अर्थ के सोच को समानांतर बिना एक दुसरे को बाधित किये सोच सके. ऐसे परिस्थिति में एक बैकल्पिक रास्ते की जरूरत है जहाँ धर्म और अर्थ को निर्बाध गति से बिना किसी की भावनाओ को ठेस पहुचाये गति प्रदान कर सके. अर्थ या धर्म दोनों में किसी की भी अति किसी अवस्था में समाज के लिए आदर्श परिस्थिति नहीं उत्पन्न कर सकती. ये एक गंभीर विषय है, अर्थ को प्रधान मान के या धर्मान्ध हो अगर हम कोई निर्णय लेते है तो आने वाला भविष्य उसके दुष्परिणाम को भोगेगा, और जीवन भर हमे कोसेगा कि सही समय में हम ने सही फैसला नहीं लिया. इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए हमे सभी पहलुओं और वैकल्पिक रास्तो पर विचार करना चाहिए.
मेरा मानना है कि जो भी गौ पालक है उनको एनिमल हसबेंडरी की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये, उनके सामने आने वाली हर समस्या के निदान के लिए आर्थिक और सामाजिक माहौल मुहैया कराया जाये, अपनी माता (गाय ) के पालन पोषण में उनको खुद सक्षम बनाने पर बल दिया जाये. फेसबुक पर ही स्वाति गुप्ता जी कहती हैं कि "विदेशों मे काउ-फार्मिंग (गोपालन) होती है, जिसमें दो तीन लोग मिलकर दो हज़ार गाएँ मैनेज करते है । इन गायों का खाना भी अच्छा होता है और दूध भी अच्छा देती है । इधर उधर भी नहीं फिरती". सोचने वाली बात ये है कि हम वो टेक्नोलॉजी भारत में क्यों नहीं ला रहे है? गौपालकों को गौशाला के नाम पर सब्सिडी के वकालत करने वाले लोग इस दिशा में क्यों नहीं सोचते कि ये सब्सिडी काउ फार्मिंग (गोपालन) टेक्नोलोजी में लगे और हम उन्नत तरीके से गौपालन करे.
अगर वास्तविक रूप से इस समस्या के समाधान के लिए अगर किसी चीज के जरूरत है तो वो यह है कि उन्नत टेक्नोलॉजी और सरकारी सामाजिक सहयोग से एक इण्डस्ट्रियल विकास की, जिससे गैस, पावर, मिल्क प्रोडक्ट और बहुत से चीजों का व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है। जब तक ये व्यवस्था गाँव गाँव में नहीं कर दी जाती तब तक समस्या जस की तस बनी रहेगी. पहले गौ आधारित इण्डस्ट्रियल विकास करना होगा, फिर एक-एक गोपालक को कच्चा मॉल सप्लाई के लिए इस चेन से जोड़ना होगा
इस मुद्दे पे अतुल दुबे जी कहते है के "भाई लोग जो गाय दूध नहीं देती उनकी रक्षा हो सकती है, जिसके लिए आप को दान देने की भी जरूरत नहीं / गौ मूत्र और गोबर से बहुत सारे समान ( मंजन से मच्छर मार अगरबत्ती तक) बनते है अगर हम ईस्तेमाल करे तो गौ रक्षा हो सकती है. बस जरूरत है लोगो तक इसकी अच्छाई पहुँचाई जाए". मै अतुल जी के इस सोच से काफी हद तक सहमत हूँ, पर मुख्य समस्या वही है जो चूहों के एक मीटिंग में चूहों के सरदार के सामने थी, बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? आप गोपालक से ये उम्मीद नहीं कर सकते की गोबर और मूत्र का व्यावसायिक उपयोग के लिए संसाधन पूंजी निवेश और बने सामानों की मार्केटिंग खुद करे. ये अन्याय होगा. हाँ एक और सच्चाई यह है कि मै अब तक अपने संपर्क में किसी को नहीं जानता जो मंजन में गोमूत्र और गोबर से बना प्रोडक्ट प्रयोग करते हो, और मच्छर मार में आलआउट और मार्टिन छोड़ कर कुछ दूसरा प्रयोग करते हो. बात कड़वी हो सकती है लेकिन सच्चाई से हम मुह नहीं मोड़ सकते. व्यापारी को जब तक शुद्ध मुनाफा नहीं होगा, वो ऐसी कोई भी इंडस्ट्री लगाने वाला नहीं. तो बात वहीं आ कर रुक जाती है, ऐसी योजना का विकास कैसे किया जा सके, कि गौसेवक गाय के मूत्र और गोबर को उन कंपनियों तक पंहुचा सके जो इसका व्यावसायिक उपयोग कर सके... और साथ में इतनी कमाई भी पा सके कि उनकी लागत मूल्य निकल सके? बिना दूध देने वाले एक गाय को पालने में लगने वाला मासिक खर्च ४-५ हज़ार पड़ता है, वास्तविक धरातल पर रहते हुए अगर बात करें तो क्या हम ऐसे इंडस्ट्री का विकास कर सकते हैं, जो गाय का गोबर और मूत्र के बदले गोपालक को प्रति माह ५-६ हज़ार रूपये दे सकती है ? वर्त्तमान में तो ये असंभव ही प्रतीत हो रहा है.
साथ में जो लोग बीफ (गौ मांस) के उद्योग से जुड़े हैं, उनको भी स्लाटर हाउस की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये और उनको इस उद्योग से अधिकतम मुनाफा कैसे बनाये इस बात की सीख दी जाये. इस मामले में राजकीय हस्तक्षेप करने की बजाय पालक और संहारक को अपना संतुलन बनाने के लिए स्वंत्रता प्रदान की जाये। क्योंकी पालक है, तो ही संहारक है, संहारक अपने उद्योग के फायदे के लिए पालक को ज्यादा गोबंश उत्पादन के लिए प्रेरित करे, इसी प्रकार पालक स्वय निश्चित करे की उसके हित में क्या है, ये समन्वय ही सृष्टि को अब तक चला रहा था और इसमें हस्तक्षेप सृष्टि श्रृंखला में परिवर्तन लाएगा जिसके दुष्परिणाम भयानक हो सकते है.
जैसा कि सब जानते है की मदिरा-गुटखा-बीड़ी-सिगरेट खतरनाक और नुकसानदेह है, सिवाय नुकसान के इन से कोई फायदा नहीं है, फिर भी सरकार इनके फैक्ट्री को बंद नहीं कराती है, बस जागरूकता अभियान चलती है. क्यों? ऐसे ही कत्लखाने बंद करना समस्या उपाय नहीं है, समुचित और सही उपाय तो तब होगा जब इन कत्लखाने के मालिको को कोई गौवंश बेचने वाला ही नहीं मिलेगा, जब गोपालकों को गौवंश का सही और फायदेमंद उपयोग (बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि ) करने का टेक्नोलॉजी किफायती मूल्य पर उपलब्ध होगा तो वो इन्हे बेचेंगे क्यों? हमारा दुर्भाग्य ये है कि हमारी सरकारे मूल समस्या का इलाज ना कर के बस भावनाओ के साथ खेलना जानती है. वोट बैंक का सवाल है न. अगर आज बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि टेक्नोलॉजी और इंस्ट्रूमेंट गौ-पालकों को मिल जाये, तो मै दावे साथ कह सकता हूँ कि ये कत्लखाने अपने-आप बंद हो जायेंगे. आज जो समस्या गौपालकों के सामने है, कल को इन स्लाटर हाउस मालिको के सामने भी वही समस्या होगी। उम्मीद करता हूँ कि सरकार जनभावनाओं से खेलने के जगह गौपालकों के लिए कुछ ठोस बंदोबस्त करने की दिशा में कदम उठायेगी...
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सोमवार, 07 मार्च 2016 14:03
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