Super User

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I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai. 


I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

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Indian Nationalism, Brad Hogg and Bastard

जैसा कि हमेशा होता आया है, नेता संकट खड़े करते है, देश का अपमान करवाते हैं, लेकिन जनता अपने संघर्षों से देश को सही राह पर लाने और उसका गौरव वापस पाने की जद्दोजहद में जुटी रहती है, ठीक उसी प्रकार पर्थ में भारतीय टीम ने सब कुछ भुलाकर जोरदार संघर्ष किया और ऑस्ट्रेलिया को नाकों चने चबवा कर जीत हासिल की। तारीफ़ करना होगी अनिल कुंबले के नेतृत्व की और युवाओं के जोश की जिसने यह अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की। पता नहीं हमारे नेता इस नई सदी के जोश और आत्मविश्वास से भरे भारतीय युवा की ताकत को क्यों नहीं पहचानते और जब-तब देश को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं।

“बास्टर्ड” शब्द का अर्थ शब्दकोष के अनुसार “अवैध संतान” या “हरामी” होता है। सिडनी टेस्ट के बाद में जो “तात्कालिक” राष्ट्रवाद बासी कढ़ी की तरह पैदा हुआ था, उसका झाग अब बैठ गया है, और हम वापस अपने “गाँधीवाद” और “पूंजीवाद” की ओर लौट आये हैं। ऐसा हमेशा ही होता है, हमारा “राष्ट्रवाद” क्षणिक होता है, या तो मीडिया द्वारा पैदा किया गया नकली राष्ट्रवाद (जैसा कि ताजमहल वोटिंग के मामले में हुआ था) या फ़िर कारगिल युद्ध के समय चन्दा माँगने जैसा… पाठक सोच रहे होंगे कि इस बात का “बास्टर्ड” शब्द से क्या लेना-देना? दरअसल सिडनी टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी ब्रेड हॉग ने गांगुली, कुम्बले और धोनी को “बास्टर्ड्स” कहा था, और हरभजन ने तथाकथित रूप से सायमंड्स को “मंकी” कहा था। दोनों टीमों ने इस मामले में एक दूसरे की शिकायत की थी। हरभजन का मामला आईसीसी की धाराओं के मुताबिक 3.3 स्तर का और हॉग के अपशब्द 3.0 स्तर के माने गये। नियमों के अनुसार दोनों खिलाड़ियों को सजा के तौर पर कम से कम तीन टेस्ट से बाहर किया जा सकता है। ऐसे में विश्व के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड के रीढ़विहीन रवैये और शर्मनाक समर्पण के कारण आज की स्थिति यह है कि कुंबले ने अज्ञात(??) दबाव के कारण ब्रेड हॉग पर लगाये गये आरोपों को न सिर्फ़ वापस ले लिया बल्कि उन्हें “माफ़”(?) भी कर दिया है, बेईमान और अक्खड़ रिकी पोंटिंग ने सिर्फ़ शाब्दिक तौर पर कहा कि “उनसे सिडनी में एक-दो गलतियाँ हुई हैं…”, गिलक्रिस्ट ने भी खुलेआम कहा कि “ऐसा खेल” तो हमारी संस्कृति है और हम इसे जारी रखेंगे, अम्पायरों को भी मीडिया के दबाव के कारण सिर्फ़ आगामी दो मैचों से हटाया गया, लेकिन सबसे मुख्य बात यानी हरभजन पर नस्लभेदी टिप्पणी वाले मामले में ऑस्ट्रेलिया ने अपने आरोप वापस नहीं लिये, यानी हरभजन मामले की सुनवाई होगी और हो सकता है कि उन्हें कुछ सजा भी हो जाये।
“एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल आगे करने…” की जो गाँधीवादी घुट्टी हमारे खून में रच-बस गई है, उसने कई मौकों पर देश के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया है। नेताओं को देश की “ताकत” का अन्दाजा तो है, लेकिन उस ताकत का उपयोग वे अपने निजी स्वार्थ पूरे करने में लगाते हैं, देश के स्वाभिमान की बजाय।
आजादी के समय पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपये देने हों, 1962 में चीन से पीठ में छुरा खाना हो, एहसानफ़रामोश बांग्लादेश का जब-तब आँखें दिखाना हो या कंधार-कारगिल में मुशर्रफ़ का षडयंत्र हो…… “एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल आगे करने…” की जो गाँधीवादी घुट्टी हमारे खून में रच-बस गई है, उसने कई मौकों पर देश के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में भी हमारे नेता यह बात समझने को तैयार नहीं हैं कि देश की पचास प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या “युवा” है, जो अपने हुनर और शिक्षा के बल पर समूचे विश्व में डंका बजा रहे हैं, जबकि “कब्र में पैर लटकाये” हुए चन्द नेता अपने स्वार्थ की खातिर देश को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। अब वे 1974 के दिन नहीं रहे जब इंग्लैंड दौरे पर एक क्रिकेटर सुधीर नाईक पर एक जोड़ी मोजे चुराने का आरोप लगाया गया था, और हमारे “अंग्रेजों के मानसिक गुलाम” क्रिकेट बोर्ड ने आरोप को मान भी लिया और उस बेचारे को देश लौटने का आदेश दे दिया था… अब 2007 का समय है लेकिन नेता आज भी नहीं बदले। इन्हें देश की “ताकत” का अन्दाजा तो है, लेकिन उस ताकत का उपयोग वे अपने निजी स्वार्थ पूरे करने में लगाते हैं, देश के स्वाभिमान की बजाय।

सिडनी के इस मामले में कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय पेंच भी जुड़ गये थे। बीसीसीआई की सनातन राजनीति में गहरे धँसे डालमिया ने तत्काल पवार पर मामले को ढील देने का आरोप जड़ दिया, दूसरी तरफ़ लालू हुँकार भरते रहे कि “यदि मैं बीसीसीआई अध्यक्ष होता तो अब तक टीम वापस बुला लेता…” (क्योंकि उन्हें अगला अध्यक्ष बनना है और अपने बेटे को भारत की टीम में लाना है)। अब पवार अपने विरोधियों की बात कैसे मानते, भले ही मुद्दा राष्ट्रप्रेम से जुड़ा हो। उन्होंने नया “गणित” लगाया और भारत सरकार पर दबाव बनाया कि यदि इस मुद्दे को ज्यादा तूल दिया गया तो दोनों देशों के आपसी सम्बन्ध बिगड़ सकते हैं जिससे कि हमें ऑस्ट्रेलिया से यूरेनियम मिलने में दिक्कत होगी। बात में “वजन” था, विदेश सचिव स्तर का प्रतिनिधिमंडल ऑस्ट्रेलिया में यूरेनियम की भीख माँगने पहुँचा हुआ ही था। बस फ़िर क्या था… कुंबले को बुलाकर दबाव बनाया गया कि ब्रेड हॉग के खिलाफ़ मामला वापस ले लो, बात को यहीं रफ़ा-दफ़ा करो (दूसरे अर्थों में, मान लो कि हम “बास्टर्ड” हैं)। जबकि असल में पवार साहब को अपनी आईसीसी की कुर्सी खतरे में दिखाई दे रही थी। ये और बात है कि इतना सब करने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने यूरेनियम के नाम पर हमें “ठेंगा” दिखा ही दिया है। रही बात बकनर के कारण वेस्टईंडीज के नाराज होने की, तो भविष्य में उसे एक “बड़ा टुकड़ा” देकर राजी कर लिया जायेगा। अब निश्चित ही अन्दर ही अन्दर हरभजन पर दबाव बनाया जा रहा होगा कि मामले की सुनवाई हो जाने दो, मैच रेफ़री (मांडवाली करने गये बिचौलिये) रंजन मदुगले को “सेट” कर लिया जायेगा कि तीन की बजाय सिर्फ़ एक टेस्ट का ही प्रतिबन्ध लगाया जायेगा, जिसे हरभजन सिंह और हमारी क्रिकेट टीम सहर्ष स्वीकार कर लेगी, नेता लोग कुछ “गाँधीवादी” बयान (“बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले” या फ़िर “खेल भावना के सम्मान” टाईप का) देंगे। भारतीय जनता (और मीडिया भी) जिसकी याददाश्त बहुत कमजोर होती है, इसे वक्त के साथ भुला देंगे, और फ़िर से हमारे खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में गालियाँ खाने को तैयार… (सम्बन्धित लेख “शरद पवार जी अब तो मर्दानगी दिखाओ…)

इस सारे मामले में “पैसे” ने भी अपना खासा रोल निभाया है, दौरा निरस्त कर टीम के वापस लौटने की सूरत में भारत पर आठ करोड़ (क्या यह BCCI के लिये बड़ी रकम है?) का जुर्माना हो जाता, आगामी वन-डे ट्राई-सीरिज पर भी खतरा मंडराने लगता, जिससे प्रति खिलाड़ी कम से कम पाँच करोड़ तथा बोर्ड को कम से कम 400 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ सकता था… ऐसे में आसान रास्ता यही था कि राष्ट्रवाद को भाड़ में झोंको, “बास्टर्ड” सुनकर भी मुस्करा दो, यहाँ तक कि अपने आपको “नस्लभेदी” भी मान लो… खैर, ऑस्ट्रेलिया की घटना के कारण भारत में हुए मीडिया प्रायोजित “देशभक्ति” नाटक का फ़िलहाल अन्त हो गया लगता है। जैसा कि भारत में हरेक मुद्दे का अन्त होता है मतलब शर्मनाक, खुद को महाशक्ति कहने वाले देश के पिलपिले साबित होने जैसा, ठीक वैसा ही अंत (फ़िलहाल) इस मामले का हुआ है। साथ ही कुछ बातें भी साफ़ हो गई हैं… जैसे –

(1) किसी भारतीय को “बास्टर्ड” (हरामी) कहा जा सकता है, लेकिन अंग्रेज को “मंकी” (बन्दर) नहीं कहा जा सकता…
(2) आठ करोड़ का जुर्माना ज्यादा बड़ा है देश की टीम के स्वाभिमान से…
(3) यूरेनियम की भीख माँगना ज्यादा जरूरी है, राष्ट्र के सम्मान की रक्षा की बजाय…
(4) भले ही हम “नस्लवादी” साबित कर दिये जायें, लेकिन “माफ़” करने की महान गाँधीवादी परम्परा नहीं टूटनी चाहिये…


लेकिन भारतीय युवाओं ने साबित कर दिया है कि जैसे हम “मुँहजोर” हो गये हैं वैसे ही मैदान में भी दमखम दिखा सकते हैं, बशर्ते कि देश और बीसीसीआई का नेतृत्व उनका खुलकर साथ दे, और गाली के बदले गाली, गोली के बदले गोली (प्रतिभा ताई सुन रही हैं ना… अफ़जल वाली फ़ाईल अभी भी आपकी टेबल पर पड़ी है) वाली नीति अपनाये…

और अब अन्त में एक गुप्त बात… असल में हरभजन ने सायमंड्स को “माँ की……” कहा था, लेकिन दर्शकों के शोर में सायमंड्स ने उसे “मंकी……” सुन लिया, इसलिये आईसीसी से अनुरोध है कि इसे भाषा सम्बन्धी समस्या माना जाये, न कि नस्लभेदी प्रकरण…

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विगत लगभग 15-20 वर्षों से यह देखने में आया है कि हमारे समाज के कथित “एलीट” वर्ग और साथ ही बहुत से तथाकथित “बुद्धिजीवी” भी “वास्तुशास्त्र” नामक आँधी की चपेट में हैं। लगातार मीडिया, टीवी और चिकनी पत्रिकाओं द्वारा लोगों को समझाया जा रहा है कि “वास्तुशास्त्र” स्थापत्य और वास्तु का एक बहुत प्राचीन “विज्ञान”(?) है, जो सदियों पहले भारत में ही उदय हुआ था, और जो बीच के कई दशकों तक गायब रहा, अब अचानक 80 के दशक के बाद इस “विज्ञान” की धमाकेदार पुनर्वापसी हुई है। बताया जाता है कि इससे लोगों का भला होगा, उनके मन में शांति आयेगी, घर में सुख-समृद्धि आयेगी… आदि-आदि। जबकि असल में जिन दशकों में यह कथित विज्ञान “वास्तुशास्त्र” गायब हो गया था, उसी कालखंड में मनुष्य ने विज्ञान के सहारे विभिन्न खोजें करके जीवन को आसान, सुखमय बनाया है और तरक्की की। वास्तुशास्त्र के गायब रहने के दौर में ही विज्ञान ने सामाजिक जीवन को भी काफ़ी सरल बनाया, बच्चों के टीके विकसित करके उन्हें अकाल मृत्यु से बचाया, बीमारियों के इलाज खोजे गये… कहने का मतलब यह कि जब वास्तुशास्त्र नामक विज्ञान नहीं था तब भी दुनिया अपनी गति से ही चल रही थी, लेकिन 80 के दशक से “वास्तु” नामक जो धारा चली, उसमें कई पढ़े-लिखे भी बह गये, बगैर सोचे-समझे, बगैर कोई तर्क, वाद-विवाद किये।


“यह शास्त्र हमारे पुराणों में वर्णित है और पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है”, यह घोषवाक्य ज्योतिष के समर्थन में भी लगातार कहा जाता है, वास्तु के समर्थन में भी, क्योंकि इस घोषवाक्य के बिना पढ़े-लिखे वर्ग का समर्थन, उससे हासिल बाजार और तगड़े नोट हासिल करना मुश्किल है। इस लेख में कोशिश की गई है कि वास्तुशास्त्र के विज्ञान होने सम्बन्धी दावों की पड़ताल की जाये। जैसा कि ज्योतिष सम्बन्धी लेखमाला (देखें ब्लॉग का साइड बार) में भी लिखा जा चुका है कि विज्ञान की परिभाषा ऑक्सफ़ोर्ड के एक शब्दकोष के अनुसार – “ज्ञान की एक शाखा, विशेषकर वह जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हो, एक संगठित संस्था द्वारा एकत्रित प्रयोग आधारित जानकारी पर आधारित सूचनाओं का भंडार”। विज्ञान की इस परिभाषा को “वास्तुशास्त्र” पर लागू करके देखते हैं कि इनमें से कोई भी सिद्धांत इस कथित शास्त्र पर लागू होता है या नहीं? विज्ञान में जब कोई प्रयोग होता है तो उसके विभिन्न चरण होते हैं, निरीक्षण या अवलोकन, खोज, प्रयोग, निष्कर्ष और अन्तिम निष्कर्ष। इसी तरीके से किसी भी ज्ञान को पुख्ता तौर पर साबित किया जा सकता है। किसी भी शास्त्र को “वैज्ञानिक” बताने या उसे ऐसा प्रचारित करने के लिये जाहिर है कि उसे विज्ञान की कसौटी पर कसा जाना ही होगा, क्योंकि ऐसा तो हो नहीं सकता कि एक तरफ़ तो किसी बात को विज्ञान कहा जाये और उसी बात को विज्ञान की सीमाओं से परे बताया जाये??

वास्तुशास्त्र को मानना अथवा न मानना एक व्यक्तिगत मामला हो सकता है ठीक ज्योतिष की तरह, लेकिन जब इसे विज्ञान कहा जाता है तब इसका स्वरूप व्यक्तिगत नहीं रह जाता, ठीक ज्योतिष की तरह ही। आज की तारीख में विज्ञान की उपलब्धियों से कोई भी इंकार नहीं कर सकता, इसलिये वास्तुशास्त्र विज्ञान है या नहीं यह परखने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये।

सृष्टि के प्रारम्भ से ही प्रत्येक जीव अपने-अपने रहने के लिये भिन्न-भिन्न तरीके और अलग-अलग प्रकार के निवास की व्यवस्था रखता रहा। चिड़ियों ने घोंसला बनाया, जानवरों ने गुफ़ायें चुनीं, चींटियों ने बिल बनाये, आदि। इस प्रकार हरेक ने अपना “घर” बनाया और सदियों तक इसमें कोई विशेष बदलाव नहीं किये। मानव चूँकि सबसे ज्यादा बुद्धिसहित और चतुर प्राणी रहा इसलिये उसने अपनी जरूरतों और वक्त के मुताबिक अपने “घर” निर्माण में प्रगति और बदलाव किये। “वास्तुशास्त्र” अर्थात “गृहनिर्माण विज्ञान”, अक्सर कहा जाता है कि वास्तुविज्ञान एक “नैसर्गिक-प्राकृतिक विज्ञान” है, वास्तुशास्त्र मुख्य तौर पर पाँच मूलभूत तत्वों धरती, आकाश, हवा, अग्नि और जल, को ध्यान में रखकर बनाया गया है, लेकिन सिर्फ़ इसी से तो यह “वैज्ञानिक” सिद्ध नहीं हो जाता? वास्तु समर्थक अक्सर तर्क देते हैं कि इसका उदगम वैदिक काल में हुआ, और इसके सन्दर्भ ॠग्वेद में भी मिलते हैं। वास्तु समर्थक ॠषि भृगु द्वारा रचे गये संस्कृत श्लोकों को इसका आधार बताते हैं, वे कहते हैं कि वैदिक काल में चौड़ी सड़कें, हवाई जहाज, बड़ी भव्य अट्टालिकायें आदि हुआ करती थीं, और पश्चिम में आज जो भी शोध हो रहे हैं, सभी खोजें आविष्कार आदि चरक संहिता, सुश्रृत संहिता और वेदों में पहले से ही हैं, लेकिन उस वैदिक काल में साइकल जैसी मामूली चीज थी या नहीं इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता? प्राचीन ज्ञान की एक शाखा आयुर्वेद आज तक बची हुई है सिर्फ़ सतत प्रयोगों, समयानुकूल बदलावों और उसके जनउपयोगों के कारण। ठीक यही बात यदि वास्तुशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र भी करते तो आज की तारीख में इन पर इतना अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था, लेकिन वास्तुशास्त्र को एक प्राचीन ज्ञान या साहित्य मानकर उसे “जैसा का तैसा” सच मान लिया गया। वास्तुशास्त्र को जनसामान्य में लोकप्रिय बनाने के लिये और शिक्षित वर्ग को भी उसमें शामिल करने के लिये विज्ञान की कुछ मूलभूत बातों को इसमें शामिल किया गया, जैसे हवा की दिशा और गति, सूर्य की दिशा, आठों दिशायें, गुरुत्वाकर्षण आदि, इन्हीं सब बातों से यह तय किया जाता है कि कोई घर, वास्तु या कार्य पवित्र है या नहीं, धन-सम्पत्ति आयेगी या नहीं, खुशी और सुख का माहौल रहेगा या नहीं, सफ़लता मिलेगी या नहीं… आदि-आदि। लेकिन हकीकत में विज्ञान की कसौटी पर इसे नहीं कसा गया, न ही इसके परिणामों पर कोई विवाद, बहस या चर्चा की गई। अधिकतर तर्कों को भगवान, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों के आधार पर खारिज कर दिया गया।

वास्तुशास्त्र में गृह निर्माण के समय “दिशाओं” पर सर्वाधिक महत्व और जोर दिया जाता है, ताकि वातावरण और भूगोल के हिसाब से प्रकृति का अधिक से अधिक लाभ लिया जा सके। प्राचीन वास्तुशास्त्र “मायामत” में पृथ्वी के चुम्बकीय प्रभाव और उसकी शक्ति को लेकर कहीं नहीं कहा गया है कि इससे किसी व्यक्ति की तरक्की रुक सकती है या इस प्रभाव के कारण उसकी समृद्धि पर कोई असर पड़ता है। लेकिन आधुनिक(?) वास्तुशास्त्र हमें बताता है कि यदि तूने यह नहीं किया तो तेरे बच्चे की मौत हो जायेगी, तूने वह नहीं किया तो तुझे धंधे में भारी नुकसान हो सकता है, आदि। “मायामत” वास्तुशास्त्र का प्रादुर्भाव दक्षिण में स्थित केरल में हुआ, जबकि “विश्वकर्मा प्रकाश” का उत्तर में। इन दोनों शास्त्रों को विज्ञान की कसौटी पर कसा जाये तो एकदम विरोधाभासी नतीजे मिलेंगे। भिन्न-भिन्न शास्त्र(?) दिशाओं के हिसाब से अलग-अलग जातियों और धर्मों पर भी प्रभाव बताते मिल जायेंगे, देवताओं के भी स्थान और घर निश्चित कर दिये गये हैं। जबकि विज्ञान इस प्रकार का भेदभाव किसी के साथ नहीं करता, न ही जाति, न धर्म, न देवताओं के स्थान आदि को लेकर। यदि कोई बात वैज्ञानिक है तो उसका प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर सर्वव्यापी और देशों की सीमाओं से परे होना चाहिये, यह पहली बात ही वास्तुविज्ञान(?) पर लागू नहीं होती। अगले भाग में कुछ वास्तु के बारे में और थोड़ा फ़ेंग-शुई के ढकोसले के बारे में…

तब तक इस बात पर विचार कीजिये कि, यदि भारत सरकार विदर्भ के किसानों को अरबों रुपये का पैकेज देने की बजाय उनके झोंपड़ों को “वास्तुशास्त्र”(?) के हिसाब से डिजाईन करवा देती, तो न वे आत्महत्या करते, न ही उनका जीवन इतना दुष्कर होता…

एक बात और, एक प्रसिद्ध फ़ैक्ट्री में श्रमिक समस्या हल करने के लिये “वास्तुशास्त्र” का सहारा लिया गया, वास्तुविद जो कि ज्योतिषी भी था (यानी डबल-डोज) ने बताया कि फ़ैक्ट्री की खुशहाली के लिये पश्चिमी दिशा में स्थित आठ पेड़ों को काटा जाना जरूरी है, पेड़ काटने के बाद बीमार फ़ैक्ट्री बन्द हो गई, पेड़ भी कटे और मजदूरों की नौकरी भी गई… फ़िलहाल इतना ही, बाकी अगले भाग में…

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(गतांक से आगे…)
आदिकाल से मनुष्य ने आसपास के माहौल और प्रकृति के निरीक्षण से कई निष्कर्ष निकाले, उन्हें लिपिबद्ध किया, उन्हें ग्रंथों का रूप दिया ताकि आने वाली पीढ़ी को उनके अनुभवों का लाभ मिल सके। उदाहरण के लिये “मायामत” जिसका निर्माण केरल में हुआ। केरल जो कि दक्षिण और पश्चिम में समुद्र से घिरा हुआ है, सो मायामत के लेखक (या लेखकों) ने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रगति बाकी की दो दिशाओं में ही है अर्थात उत्तर और पूर्व। जबकि दूसरी ओर उत्तर भारत के “विश्वकर्मा” ने उत्तर और पूर्व में हिमालय को देखते हुए विस्तार या तरक्की की अवधारणा दक्षिण और पश्चिम में तय की। यदि इस दृष्टि से देखा जाये तो पुरातन वास्तुशास्त्र को एक प्राथमिक विज्ञान कहा जा सकता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, इसमें आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आने की बजाय यह और ज्यादा पोंगापंथी और ढकोसलेबाज बनता गया। विज्ञान की शब्दावली का भी वास्तु वालों ने बखूबी इस्तेमाल किया है, वास्तुविद वी.गणपति स्थापति कहते हैं कि वास्तुशास्त्र विज्ञान के तीन सिद्धांतों पर काम करता है- VRF यानी Vibration, Rhythm and Form, वे आगे कहते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक आयताकार ब्लॉक या क्यूब के समान है, इसलिये जो भी ध्वनि या कम्पन इस धरा पर उत्पन्न होते हैं वह ब्रह्मांड में टकराकर एक परावलय (Sphere) बनाते हैं, और यही मानव और इस सृष्टि का मूल सिद्धांत है, (क्या बात है, जो बात आज तक कोई नहीं जान पाया कि ब्रह्मांड कैसा है? वे यह पहले से जानते हैं)। पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी तक इस छद्म विज्ञान की चपेट में आ चुके हैं, एल एंड टी, जी टीवी, विक्रम इस्पात जैसी विख्यात कम्पनियाँ भी अपने परिसर वास्तु के हिसाब से बनवाने लगी हैं… लेकिन इनमें से सभी सफ़ल नहीं हैं, न हो सकती हैं (कम से कम वास्तु के बल पर तो बिलकुल नहीं)… स्वस्थ जीवन के लिये धूप और हवा आवश्यक है और इसीलिये पूर्व दिशा में खुलने वाला मकान ज्यादा धूप के लिये और खिड़कियाँ हवा के लिये जरूरी हैं, भला इसमें शुभ-अशुभ का क्या लेना-देना?

वास्तुशास्त्र का मूल आधार है आठों दिशायें। ये दिशायें प्रकृति ने पैदा नहीं की हैं, ये इन्सान ने बनाई हैं। अब भला कोई दिशा शुभ और कोई अशुभ कैसे हो सकती है? धरती अपने अक्ष पर सतत पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती रहती है, तो जब मनुष्य धरती पर खड़े होकर तारों, सूर्य को देखता है तो उसे लगता है कि ये सभी पूर्व से पश्चिम की ओर जा रहे हैं। एक उदाहरण – जब हम किसी विशाल गोल झूले पर बैठते हैं और झूला तेजी से चलने लगता है तो हमें लगता है कि दुनिया गोल घूम रही है, जबकि कुछ भी नहीं बदला होता है, सिर्फ़ हमारी स्वयं की स्थिति के अलावा। इसी प्रकार जब सूर्य पूर्व की ओर से पश्चिम की ओर जाता दिखाई देता है, तो इसमें कौन सी शुभ-अशुभ, या लाभकारी-हानिकारक स्थिति बन गई? सबसे मजेदार स्थिति तो आर्कटिक और अंटार्कटिक स्थित जगह की है, जहाँ की सूर्य लगभग छः महीने तक रात में भी दिखाई देता है, अब भला वास्तुशास्त्री अंटार्कटिका में वास्तु के सिद्धांत कैसे लागू करेंगे, यह जानने का विषय है। यह भी जानना बेहद दिलचस्प होगा कि बर्फ़ीले प्रदेशों में रहने वालों के गोलाकार मकान “इग्लू” को वास्तुविद कैसे बनायेंगे?

भगवान बुद्ध ने कहा है – कोई बात प्राचीन है इसलिये उस पर आँख मूंदकर भरोसा मत करो, उस बात पर भी सिर्फ़ इसलिये भरोसा मत करो कि तुम्हारी प्रजाति या समुदाय उस पर विश्वास करता है, किसी ऐसी बात का भरोसा भी मत करो जो तुम्हें बचपन से बताई-सिखाई गई है, जैसे भूत-प्रेत, जादू-टोने आदि, पहले खुद उस बात पर विचार करो, अपना दिमाग और तर्कबुद्धि लगाओ, उसके बाद भी यदि वह तुम्हें वह बात लाभकारी लगे, और समाज के उपयोगार्थ हो तभी उस पर विश्वास करो और उसके बाद लोगों से उस बात पर विश्वास करने को कहो…

प्रख्यात मराठी वैज्ञानिक जयन्त नारलीकर ने अपनी पुस्तक “आकाशाशी जड़ले नाते” मे एक अनुभव का उल्लेख किया है, जिसमें सूर्य पश्चिम से उगता हुआ दिखाई दिया। दरअसल एक बार 14 दिसम्बर सन 1963 को जब वे एक हवाई जहाज से जा रहे थे, तब कुछ क्षणों के लिये जहाज की पूर्व से पश्चिम की गति पृथ्वी की पश्चिम से पूर्व घूर्णन गति से ज्यादा हुई होगी, उस वक्त सूर्य पश्चिम से उगता दिखाई दिया। इस उदाहरण का उल्लेख इसलिये जरूरी है कि वास्तुशास्त्र में जो शुभ-अशुभ दिशायें बताई जाती हैं, असल में ऐसा कुछ है नहीं। “दिशायें” सिर्फ़ मानव द्वारा तैयार की गई एक अवधारणा मात्र है, और वह पवित्र या अपवित्र नहीं हो सकती। नारलीकर कहते हैं कि विश्व की एक बड़ी आबादी पृथ्वी के ध्रुवीय इलाकों जैसे रूस का उत्तरी भाग, कनाडा आदि में रहती है, जहाँ ग्रह, तारे, सूर्य छः-छः महीने तक दिखाई नहीं देते, भला ज्योतिषी और वास्तुविद ऐसे में वहाँ क्या करेंगे, कैसे तो कुंडली बनायेंगे, और कैसे वास्तु के नियम लागू करेंगे? लेकिन फ़िर भी उन लोगों का जीवन तो अबाध चल ही रहा है।

- वास्तु समर्थकों से अनुरोध है कि कालाहांडी (उड़ीसा) में रहने वाले लोगों के मकान वास्तुदोष से मुक्त करें, ताकि वहाँ कम से कम लोगों को दिन में एक बार का भोजन तो मिले… या फ़िर मुम्बई में स्थित एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी “धारावी” में हर घर में एक “लॉफ़िंग बुद्धा” रखा जाये, ताकि उन्हें नारकीय जीवन से मुक्ति मिले और सिर्फ़ “बुद्धा” ही नहीं वे भी मुस्करा सकें…

(तीसरे भाग में फ़ेंग शुई के “धंधे” के बारे में…)

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कमाल है, फ़ेंग शुई के बारे में नहीं जानते? सामने वाले का मतलब यह होता है कि “तुम्हारा जीवन तो व्यर्थ हो गया”। वैश्वीकरण की आँधी में सिर्फ़ वस्तुओं का आयात-निर्यात नहीं हुआ है, बल्कि उनसे जुड़ी संस्कृति, कल्पनायें और तकनीक भी आयात हुई है, वरना जब तक उस वस्तु का “विशिष्ट उपयोग” पता नहीं चलेगा “ग्राहक” उसे खरीदेगा कैसे? ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाने वाली पवनघंटियाँ, हँसते बुद्ध (नहीं “बुद्धा”) की मूर्ति, चीनी में कुछ लिखे हुए सिक्कों की माला, मछलीघर आदि को जब तक महिमामंडित नहीं किया जाता तब तक उसका बाजार तैयार कैसे होता…इसलिये वास्तुशास्त्र का “तोड़” या कहें कि “रिप्लेसमेंट”, या कहें कि “भरपाई” के तौर पर मीडिया में फ़ेंगशुई को उछाला गया, व्याख्यान दिये जाने लगे, सकारात्मक-नकारात्मक ऊर्जा आदि के बारे में “सेमिनार” आयोजित होने लगे…

फ़ेंगशुई क्या है?
जिनके घरों में ऊपर उल्लेखित वस्तुयें शोभायमान हैं असल में उन्हें भी नहीं पता कि फ़ेंगशुई क्या बला है? साधारण आदमी से पूछें तो कोई बतायेगा कि फ़ेंग शुई एक चीनी व्यक्ति का नाम है, कोई कहेगा कि फ़ेंगशुई एक धर्म है, एक पंथ है… आदि-आदि। जबकि असल में फ़ेंगशुई चीन का वास्तुशास्त्र है। फ़ेंग-शुई मतलब हवा और पानी। फ़ेंगशुई पाँच हजार साल पुरानी विद्या है ऐसा बताया जाता है। यह भी बताया जाता है कि फ़ेंगशुई “ऊर्जा” के संतुलन का विज्ञान है। मतलब जो कार्य भारतीय वास्तुशास्त्र बने-बनाये में तोड़-फ़ोड़ करके सिद्ध करता है, वह कार्य फ़ेंगशुई कुछ वस्तुएं इधर-उधर रखकर सिद्ध कर देता है, तात्पर्य यह कि जैसे कोई पदार्थ तीखा हो जाये तो हम उसमें नींबू मिलाकर उसका तीखापन कम करते हैं, उसी प्रकार फ़ेंगशुई “ऊर्जा” को संतुलित करता है।

वास्तुशास्त्र यानी इंडियन फ़ेंगशुई
अधिकतर तर्क यही होता है कि हमारा वास्तुशास्त्र भी अतिप्राचीन है, इस बात को कहने का अन्दाज यही होता है कि “मतलब एकदम असली है”, लगभग “स्कॉच” की तरह, जितनी पुरानी, उतनी अच्छी। लेकिन सवाल उठता है कि यदि हमारा वास्तुशास्त्र इतना ही प्राचीन है तो अचानक पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में इसका चलन कैसे बढ़ गया? असल में मार्केटिंग मैनेजमेंट गुरुओं ने (जो अपनी मार्केटिंग और बाजार नियंत्रण की ताकत के चलते गंजे को कंघी भी बेच सकते हैं), ग्राहक की संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था आदि का अध्ययन करके अचूक मन पर वार करने वाला अस्त्र चलाया और लोग इसमें फ़ँसते चले गये। ये बात दोहराने की या किसी को बताने की जरूरत नहीं होती कि घर का पूर्वाभिमुख होना जरूरी है ताकि सूर्य प्रकाश भरपूर मिले, लेकिन एक बार जब किसी व्यक्ति के मन में शुभ-अशुभ, यश-अपयश, स्वास्थ्य आदि बातों का सम्बन्ध वास्तु से जोड़ दिया जाये तो फ़िर “धंधा” करने में आसानी होती है। ग्राहक सोचने लगता है कि “वास्तु में उपयुक्त बदलाव करने से यदि मेरी समस्याओं का हल होता है, तो क्या बुराई है, करके देखने में क्या हर्जा है?” यही मानसिकता तो वास्तुशास्त्र की सफ़लता(?) का असली राज है।

कुछ वर्षों पहले दारू पीने वाले को चाहे वह कितना ही प्रतिभाशाली हो, सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती थी, लेकिन अब यदि कोई दारू नहीं पीता तो उसे ही हेय दृष्टि से देखने का रिवाज है, दारू को भी प्रतिष्ठा, ग्लैमर मिल गया है (courtesy Vijay Malya)। ठीक यही वास्तुशास्त्र के साथ हुआ है। उच्चशिक्षित और नवधनाढ्य वर्ग यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि कोई उसे वास्तुशास्त्र के कारण अंधविश्वासी और पिछड़ा कहे, इसलिये इस पर वैज्ञानिकता, आधुनिकता, सौन्दर्य, प्राचीनता, आध्यात्म, संस्कृति आदि का मुलम्मा चढ़ाया जाता है। अचानक बहुत सारा पैसा आ जाने वाले नवधनाढ्य वर्ग को वास्तुशास्त्र सिर्फ़ संकटों से डराने के लिये काम में लिया जाता तो यह उतना सफ़ल नहीं होता, लेकिन जब इसमें ग्लैमर भी जोड़ दिया, तो वह अदृश्य का “डर” भी “एन्जॉय” करता है। “वास्तु” में बदलाव करने के बावजूद यदि अपेक्षित “रिजल्ट” नहीं मिलता तो भी “पूर्वजन्म”, “पाप-पुण्य”, “कर्मों का लेख” आदि पतली गलियाँ मौजूद हैं जो लुटे हुए व्यक्ति के मन पर मरहम लगा देती हैं।

(शेष अन्तिम भाग-4 में…)

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Vastushastra Feng-Shui Science & Business
(भाग-3 से आगे जारी… समापन किस्त)

फ़ेंगशुई की लोकप्रियता के कारण-

किसी भी धार्मिक विधि-विधान को पूरी शास्त्रीय पद्धति और सम्पूर्ण सामग्री के साथ किया जाना आवश्यक होता है, लेकिन स्वाभाविक ही इसमें कई व्यावहारिक कठिनाईयाँ आती हैं, जैसे यदि गाँव में कोई पंडित कथा करने जाये और पूजाविधि के लिये किसान से रेशमी वस्त्र, इत्र, चन्दन, बादाम आदि मांगने लगे तो वह बेचारा कहाँ से लायेगा, या फ़िर पूजा के दौरान किसान की पत्नी से संस्कृत के कठिन शब्द “स्मृतिश्रृति”, “फ़लप्राप्त्यर्थम”, “आत्मना” आदि बोलने को कहे तो कैसे चलेगा? इसलिये इस प्रकार की धार्मिक विधियों के लिये भी “तोड़” निकाले गये, सुपारी को मूर्ति मान लिया गया, कोई भी धुला हुआ कपड़ा, धोती मान लिया गया, मिठाई के प्रसाद की बजाय गुड़ ही मान लिया गया…आदि। जाहिर है कि जब शातिर लोग कानून में “पतली गली” ढूँढ निकालते हैं तो धर्म में भी यह तो होना ही था। कालान्तर में यही “तोड़” या टोटके मूल विधि से ज्यादा कारगर माने जाने लगे। वास्तुशास्त्र के हिसाब से यदि बदलाव के लिये घरों में तोड़फ़ोड़ रोकना हो तो इस प्रकार की फ़ेंग-शुई वाली “पतली गलियाँ” बड़े काम की होती हैं।

दक्षिणाभिमुख मकान है, कोई बात नहीं फ़ेंगशुई में दक्षिण दिशा शुभ मानी जाती है, वास्तु की “काट” के तौर पर यह हाजिर है। आग्नेय दिशा भारतीय वास्तु के मुताबिक अग्नि की दिशा मानी जाती है, लेकिन फ़ेंगशुई के मुताबिक यह दिशा सम्पत्ति की होती है और “लकड़ी” उसका प्रतिनिधित्व करती है। कुछ-कुछ टोटके दोनों “शास्त्रों” में समान हैं जैसे, दरवाजे पर घोड़े की नाल लटकाना, टूटा शीशा न वापरना आदि। शादी में कोई अड़चन है, चीनी बतखों की जोड़ी, डबल हैप्पीनेस सिम्बॉल, फ़ीनिक्स पक्षियों की जोड़ी घर में रखो… सन्तानोत्पत्ति में कोई समस्या है तो गोद में बच्चा खिलाने वाला “लॉफ़िंग बुद्धा” रखो… ऐसे कई टोटके प्रचलित हैं। हाँ, ये बात जरूर है कि इनके लिये 200 रुपये से लेकर 500 रुपये तक की कीमत चुकानी पड़ती है (कभी-कभी ज्यादा भी, क्योंकि धंधेबाज, माथा देखकर तिलक लगाता है, ज्यादा बड़ा माथा उतना बड़ा तिलक)

वास्तु के अनुसार कोई बदलाव करना हो तो मूल निर्माण में फ़ेरबदल भी करना पड़ सकता है, लेकिन उसके निवारण के लिये फ़ेंगशुई हाजिर है, अच्छी-बुरी तमाम ऊर्जाओं का संतुलन इसके द्वारा किया जायेगा। मुसीबत में फ़ँसा व्यक्ति “मरता क्या न करता” की तर्ज पर फ़ेंगशुई के टोटके आजमाता चला जाता है और उसकी जेब ढीली होती जाती है। जो होना है वह तो होकर ही रहेगा, ये उपाय करके देखने में क्या हर्ज है…की मानसिकता तब तक ग्राहक की बन चुकी होती है। ज्योतिष की तरह वास्तु भी “गाजर की पुंगी” होती है, बजी तो ठीक नहीं तो खा लेंगे।

आजकल के “फ़ास्ट” युग में व्यक्ति जल्दी बोर हो जाता है, उसे विविधता, नवीनता चाहिये होती है, ग्लैमर सतत बना रहना चाहिये यह बात मार्केटिंग गुरु अच्छी तरह जानते हैं। इसीलिये जब टेस्ट मैच नीरस होने लगे, वन-डे आये और अब वन-डे के लिये भी समय नहीं बचा तो 20-20 क्रिकेट आ गया। भारतीय वास्तुशास्त्र लोगों को खर्चीला और बोर करने लगा था, उन्हें कोई “शॉर्टकट” चाहिये था, जिसकी पूर्ति के लिये फ़ेंगशुई हाजिर हुआ। ज्योतिषियों ने भी मौका साधा और वास्तुशास्त्र में फ़ेरबदल करके उसे “वास्तुज्योतिष” का एक नया नाम दे दिया। एक ही बात सभी के लिये शुभ या अशुभ कैसे हो सकती है, यदि किसी व्यक्ति की पत्रिका में “वास्तुसुख” ही नहीं है तो वह कितना भी शास्त्रोक्त विधि से मकान बनाये उसे शांति नहीं मिलेगी, यह घोषवाक्य नयेनवेले वास्तुज्योतिषियों ने बनाया। इसीलिये आजकल देखने में आया है कि जिस प्रकार स्टेशनरी के साथ कटलरी, किराने के साथ हार्डवेयर, एसटीडी के साथ झेरॉक्स, खेती के साथ मुर्गीपालन होता है ना… उसी प्रकार ज्योतिषी साथ-साथ वास्तु विशेषज्ञ भी होता ही है।

शिकागो में फ़ेंगशुई का प्रशिक्षण देने की एक संस्था है, जिसकी एक सेमिनार की फ़ीस 300 से 900 डॉलर तक होती है, उसमें “नकली” वास्तु और फ़ेंगशुई विशेषज्ञों से बचने की सलाह दी जाती है… कुल मिलाकर सारा खेल “माँग और आपूर्ति” के सिद्धांत पर टिका होता है। दुर्भाग्य यह है कि देश की अधिसंख्य जनता अंधविश्वासों की चपेट में है। जिस पढ़े-लिखे वर्ग से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज से कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करेगा, वही रोजाना नकली टीवी चैनलों पर आ रहे नाग-नागिन, भूत-प्रेत-चुड़ैल, पुनर्जन्म, बाबा, ओझा, झाड़-फ़ूँक के “चमत्कारों” को न सिर्फ़ गौर से देखता है, बल्कि उन पर विश्वास भी कर बैठता है।

जबकि जरूरत इस बात की है कि देश की राजधानी में एक गोलाकार इमारत में बैठे 525 गधों की अक्ल को ठिकाने लाने के लिये ही सही, तमाम वास्तुशास्त्री मिलकर एक बड़ा सा “लॉफ़िंग बुद्धा” (Laughing Buddha) वहाँ लगायें, वैसे भी 100 करोड़ से ज्यादा जनता “वीपिंग बुद्धू” (Weeping Buddhu) बनकर रह ही गई है…।


सादर सन्दर्भ : प्रकाश घाटपांडे, महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, पुणे एवं साधना ट्रस्ट प्रकाशन

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Raj Thakre, UP Bihari Migration & Mumbai

“नीम का पत्ता कड़वा है, राज ठाकरे भड़वा है” (सपा की एक सभा में यह कहा गया और इसी के बाद यह सारा नाटक शुरु हुआ) यह नारा मीडिया को दिखाई नहीं दिया, लेकिन अमरसिंह को “मेंढक” कहना और अमिताभ पर शाब्दिक हमला दिखाई दे गया (मीडिया हमेशा इन दोनों शख्सों को हाथोंहाथ लेता रहा है)। अबू आजमी जैसे संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्ति द्वारा “मराठी लोगों के खिलाफ़ जेहाद छेड़ा जायेगा, जरूरत पड़ी तो मुजफ़्फ़रपुर से बीस हजार लाठी वाले आदमी लाकर रातोंरात मराठी और यह समस्या खत्म कर दूँगा” एक सभा में दिया गया यह वक्तव्य भी मीडिया को नहीं दिखा। (इसी के जवाब में राज ठाकरे ने तलवार की भाषा की थी), लेकिन मीडिया को दिखाई दिया बड़े-बड़े अक्षरों में “अमिताभ के बंगले पर हमला…” जबकि हकीकत में उस रात अमिताभ के बंगले पर एक कुत्ता भी टांग ऊँची करने नहीं गया था। लेकिन बगैर किसी जिम्मेदारी के बात का बतंगड़ बनाना मीडिया का शगल हो गया है। अमिताभ यदि उत्तरप्रदेश की बात करें तो वह “मातृप्रेम,” “मिट्टी का लाल”, लेकिन यदि राज ठाकरे महाराष्ट्र की बात करें तो वह सांप्रदायिक और संकीर्ण… है ना मजेदार!!! मैं मध्यप्रदेश में रहता हूँ और मुझे मुम्बई से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मीडिया, सपा और फ़िर बिहारियों के एक गुट ने इस मामले को जैसा रंग देने की कोशिश की है, वह निंदनीय है। समस्या को बढ़ाने, उसे च्यूइंगम की तरह चबाने और फ़िर वक्त निकल जाने पर थूक देने में मीडिया का कोई सानी नहीं है।


सबसे पहले आते हैं इस बात पर कि “राज ठाकरे ने यह बात क्यों कही?” इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जबसे (अर्थात गत बीस वर्षों से) दूसरे प्रदेशों के लोग मुम्बई में आने लगे और वहाँ की जनसंख्या बेकाबू होने लगी तभी से महानगर की सारी मूलभूत जरूरतें (सड़क, पानी, बिजली आदि) प्रभावित होने लगीं, जमीनों के भाव अनाप-शनाप बढ़े जिस पर धनपतियों ने कब्जा कर लिया। यह समस्या तो नागरिक प्रशासन की असफ़लता थी, लेकिन जब मराठी लोगों की नौकरी पर आ पड़ी (आमतौर पर मराठी व्यक्ति शांतिप्रिय और नौकरीपेशा ही होता है) तब उसकी नींद खुली। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वक्त के मुताबिक खुद को जल्दी से न ढाल पाने की बहुत बड़ी कीमत चुकाई स्थानीय मराठी लोगों ने, उत्तरप्रदेश और बिहार से जनसैलाब मुम्बई आता रहा और यहीं का होकर रह गया। तब सबसे पहला सवाल उठता है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से लोग पलायन क्यों करते हैं? इन प्रदेशों से पलायन अधिक संख्या में क्यों होता है दूसरे राज्यों की अपेक्षा? मोटे तौर पर साफ़-साफ़ सभी को दिखाई देता है कि इन राज्यों में अशिक्षा, रोजगार उद्योग की कमी और बढ़ते अपराध मुख्य समस्या है, जिसके कारण आम सीधा-सादा बिहारी यहाँ से पलायन करता है और दूसरे राज्यों में पनाह लेता है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से आये हुए लोग बेहद मेहनती और कर्मठ होते हैं (हालांकि यह बात लगभग सभी प्रवासी लोगों के लिये कही जा सकती है, चाहे वह केरल से अरब देशों में जाने वाले हों या महाराष्ट्र से सिलिकॉन वैली में जाने वाले)। ये लोग कम से कम संसाधनों और अभावों में भी मुम्बई में जीवन-यापन करते हैं, लेकिन वे इस बात को जानते हैं कि यदि वे वापस बिहार चले गये तो जो दो रोटी यहाँ मुम्बई में मिल रही है, वहाँ वह भी नहीं मिलेगी। इस सब में दोष किसका है? जाहिर है गत पच्चीस वर्षों में जिन्होंने इस देश और इन दोनो प्रदेशों पर राज्य किया? यानी कांग्रेस को छोड़कर लगभग सभी पार्टियाँ। सवाल उठता है कि मुलायम, मायावती, लालू जैसे संकीर्ण सोच वाले नेताओं को उप्र-बिहार के लोगों ने जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया? क्यों नहीं इन लोगों से जवाब-तलब हुए कि तुम्हारी घटिया नीतियों और लचर प्रशासन की वजह से हमें मुंबई क्यों पलायन करना पड़ता है? क्यों नहीं इन नेताओं का विकल्प तलाशा गया? क्या इसके लिये राज ठाकरे जिम्मेदार हैं? आज उत्तरप्रदेश और बिहार पिछड़े हैं, गरीब हैं, वहाँ विकास नहीं हो रहा तो इसमें किसकी गलती है? क्या कभी यह सोचने की और जिम्मेदारी तय करने की बात की गई? उलटा हो यह रहा है कि इन्हीं अकर्मण्य नेताओं के सम्मेलन मुम्बई में आयोजित हो रहे हैं, उन्हीं की चरण वन्दना की जा रही है जिनके कारण पहले उप्र-बिहार और अब मुम्बई की आज यह हालत हो रही है। उत्तरप्रदेश का स्थापना दिवस मुम्बई में मनाने का तो कोई औचित्य ही समझ में नहीं आता? क्या महाराष्ट्र का स्थापना दिवस कभी लखनऊ में मनाया गया है? लेकिन अमरसिंह जैसे धूर्त और संदिग्ध उद्योगपति कुछ भी कर सकते हैं और फ़िर भी मीडिया के लाड़ले (?) बने रह सकते हैं। मुम्बई की एक और बात मराठियों के खिलाफ़ जाती है, वह है भाषा अवरोध न होना। मुम्बई में मराठी जाने बिना कोई भी दूसरे प्रांत का व्यक्ति कितने भी समय रह सकता है, यह स्थिति दक्षिण के शहरों में नहीं है, वहाँ जाने वाले को मजबूरन वहाँ की भाषा, संस्कृति से तालमेल बिठाना पड़ता है।

कुल मिलाकर सारी बात, घटती नौकरियों पर आ टिकती है, महाराष्ट्र के रेल्वे भर्ती बोर्ड का विज्ञापन बिहार के अखबारों में छपवाने की क्या तुक है? एक तो वैसे ही पिछले साठ सालों में से चालीस साल बिहार के ही नेता रेलमंत्री रहे हैं, रेलें बिहारियों की बपौती बन कर रह गई हैं (जैसे अमिताभ सपा की बपौती हैं) मनचाहे फ़्लैग स्टेशन बनवा देना, आरक्षित सीटों पर दादागिरी से बैठ जाना आदि वहाँ मामूली(?) बात समझी जाती है, हालांकि यह बहस का एक अलग विषय है, लेकिन फ़िर भी यह उल्लेखनीय है कि बिहार में प्राकृतिक संसाधन भरपूर हैं, रेल तो उनके “घर” की ही बात है, लोग भी कर्मठ और मेहनती हैं, फ़िर क्यों इतनी गरीबी है और पलायन की नौबत आती है, समझ नहीं आता? और इतने स्वाभिमानी लोगों के होते हुए बिहार पर राज कौन कर रहा है, शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, तस्लीमुद्दीन, आनन्द मोहन आदि, ऐसा क्यों? एक समय था जब दक्षिण भारत से भी पलायन करके लोग मुम्बई आते थे, लेकिन उधर विकास की ऐसी धारा बही कि अब लोग दक्षिण में बसने को जा रहे हैं, ऐसा बिहार में क्यों नहीं हो सकता?

समस्या को दूसरी तरीके से समझने की कोशिश कीजिये… यहाँ से भारतीय लोग विदेशों में नौकरी करने जाते हैं, वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं, हमारी नौकरियाँ छीनने आये हैं ऐसा मानते हैं। यहाँ से गये हुए भारतीय बरसों वहाँ रहने के बावजूद भारत में पैसा भेजते हैं, वहाँ रहकर मंदिर बनवाते हैं, हिन्दी कार्यक्रम आयोजित करते हैं, स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, जब भी उन पर कोई समस्या आती है वे भारत के नेताओं का मुँह ताकने लगते हैं, जबकि इन्हीं नेताओं के निकम्मेपन और घटिया राजनीति की वजह से लोगों को भारत में उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी नहीं मिल सकी थी, यहाँ तक कि जब भारत की क्रिकेट टीम वहाँ खेलने जाती है तो वे जिस देश के नागरिक हैं उस टीम का समर्थन न करके भारत का समर्थन करते हैं, वे लोग वहाँ के जनजीवन में घुलमिल नहीं पाते, वहाँ की संस्कृति को अपनाते नहीं हैं, क्या आपको यह व्यवहार अजीब नहीं लगता? ऐसे में स्थानीय लोग उनके खिलाफ़ हो जाते हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा? हमारे सामने फ़िजी, मलेशिया, जर्मनी आदि कई उदाहरण हैं, जब भी कोई समुदाय अपनी रोजी-रोटी पर कोई संकट आते देखता है तो वह गोलबन्द होने लगता है, यह एक सामान्य मानव स्वभाव है। फ़िर से रह-रहकर सवाल उठता है कि उप्र-बिहार से पलायन होना ही क्यों चाहिये? इतने बड़े-बड़े आंदोलनों का अगुआ रहा बिहार इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करके बिहार को खुशहाल क्यों नहीं बना सकता?

खैर… राज ठाकरे ने हमेशा की तरह “आग” उगली है और कई लोगों को इसमें झुलसाने की कोशिश की है। हालांकि इसे विशुद्ध राजनीति के तौर पर देखा जा रहा है और जैसा कि तमाम यूपी-बिहार वालों ने अपने लेखों और ब्लॉग के जरिये सामूहिक एकपक्षीय हमला बोला है उसे देखते हुए दूसरा पक्ष सामने रखना आवश्यक था। यह लेख राज ठाकरे की तारीफ़ न समझा जाये, बल्कि यह समस्या का दूसरा पहलू (बल्कि मुख्य पहलू कहना उचित होगा) देखने की कोशिश है।


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Mahakaleshwar Temple Ujjain

जून 2007 में लिखी हुई मेरी पोस्ट “महाकालेश्वर मन्दिर में धर्म के नाम पर…” (पूरा मामला समझने के लिये अवश्य पढ़ें) में इस प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग के ऑडिट के बारे में लिखा था। उस वक्त भी कई सनसनीखेज मामले सामने आये थे, और जैसी की आशंका व्यक्त की जा रही थी, आज तक उस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई। बहरहाल, ताजा मामला एक और बड़ी चोरी को सामने लेकर आया है।

असल में महाकालेश्वर मन्दिर के शिखरों को सोने के पत्तरों से मढ़वाया जा रहा है। इस कार्य में लगभग 16 किलो सोना लगेगा (जिसकी कीमत जाहिर है कि लाखों में ही होगी)। अब ये क्यों किया जा रहा है, यह तो महाकालेश्वर ही जानें, हो सकता है कि इतना खर्चा और कर देने से उज्जैन में सुख-शांति स्थापित हो जाये, या उजड़े हुए काम-धंधे फ़िर से संवर जायें। इस प्रकार के काम महाकालेश्वर में सतत चलते रहते हैं, पहले टाइल्स लगवाईं, फ़िर उखड़वाकर दूसरी नई लगवाईं, रेलिंग लगवाई, फ़िर उस पर पॉलिश करवाई, एक दरवाजा बनवाया, फ़िर तुड़वाया आदि-आदि (जाहिर है काम नहीं होंगे तो खाने नहीं मिलेगा, और जो 200 रुपये लेकर पैसे वालों को विशेष दर्शन करवाये जाते हैं उस कमाई की वाट भी तो लगानी है)।

खैर… शिखरों पर इस सोने के पत्तर को चढ़ाने के लिये चेन्नई से विशेष कारीगर बुलवाये गये हैं। कुछ समय पहले इन सोने के पत्तरों को शिखर पर मढ़ने के लिये तांबे के ब्रैकेटनुमा हुक बनवाये गये थे, जिनसे ये सोने के पत्तर उसमें फ़ँसाकर फ़िट किये जा सकें। अब जब सोने का काम करने वाले कारीगरों ने अपना काम शुरु किया तो पता चला कि तांबे के जो ब्रैकेट बनाये गये थे, वे तो गायब हैं ही, वरन उस काम के लिये जो तांबे की पट्टियाँ दान में मिली थीं वे भी गायब हो चुकी हैं। तांबे के आज के भावों को देखते हुए कुल मिलाकर यह घोटाला लाखों रुपये में जाता है। अभी पिछली अनियमितताओं की जाँच(?) चल ही रही है, और यह नया घोटाला सामने आ गया है। सोचिये कि यदि सभी बड़े मठ-मन्दिरों, मस्जिदों, चर्चों और गुरुद्वारों की ईमानदारी(?) से जाँच करवा ली जाये तो क्या खौफ़नाक नजारा होगा। हालांकि आम आदमी को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिये, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले ही कहा है यह “चोरों को पड़ गये मोर” वाला मामला है, क्योंकि आज की तारीख में मन्दिरों में बढती दानदाताओं की भीड़ का नब्बे प्रतिशत हिस्सा उन लोगों का है जो भ्रष्ट, अनैतिक और गलत रास्तों से पैसा कमाते हैं और फ़िर अपनी अन्तरात्मा(?) पर पडे बोझ को कम करने के लिये भगवान को भी रिश्वत देते हैं...

अन्त में एक मजेदार किस्सा- हमारे पास ही में स्थित एक मन्दिर में कल रात ठंड का फ़ायदा उठाकर चोरों ने दानपेटी का ताला चटका कर लगभग पाँच हजार रुपये उड़ा दिये। सुबह धर्मालुओं(?) की एक मीटिंग हुई जिसमें गलती से मुझ जैसे पापी (जो साल भर में तीन बार रक्तदान के अलावा मन्दिरों में फ़ूटी कौड़ी भी दान नहीं करता) को भी बुला लिया गया। जब मैंने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, “पैसा जहाँ से आया था वहीं चला गया”, तो कई लोगों की त्यौरियाँ चढ़ गईं, तब मैंने स्पष्ट किया कि भाई लोगों, चोर जो पैसा ले गये हैं, वह खर्च तो करेंगे ही, कोई भी सामान खरीदेंगे उसमें अम्बानी बन्धुओं में से किसी की जेब में तो पैसा जाना ही है, यदि सामान नहीं खरीदेंगे तो दारू पियेंगे तब पैसा विजय माल्या की जेब में जायेगा…दिक्कत क्या है, उसी पैसे का कुछ हिस्सा घूम-फ़िर कर वापस मन्दिरों में पहुँच जायेगा… इसी को तो कहते हैं “मनी सर्कुलेशन”…

कुछ समय पहले इन्दौर में भी विश्वशांति के लिये(?) करोड़ों रुपये खर्च करके एक कोटिचण्डी महायज्ञ आयोजित किया गया था, विश्व में तो छोड़िये, इन्दौर में भी शांति स्थापित नहीं हो सकी है अब तक… और कुछ समय पहले एक महान प्रवचनकार के शिष्यों और आयोजकों के बीच चन्दा / चढ़ावा राशि के बँटवारे को लेकर चाकू चल गये थे, धर्म की जय हो, जय हो…अधर्म का नाश हो, नाश हो…

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Sonia Gandhi Only Wins Never Loses

आखिरकार लम्बी उहापोह के बाद पेट्रोल-डीजल के भाव बढ़ाये गये। सुनते-सुनते कान पक गये थे कि अब भाव बढ़ेंगे, फ़िर कहा जाता कि नहीं बढ़ेंगे, फ़िर मंत्रिमंडल विचार कर रहा है, फ़िर कैबिनेट की समिति के सामने मामला रखा गया आदि-आदि। इस सारे खेल-तमाशे में कांग्रेस के चारण-भाट-चमचों-भांडों ने इसमें भी अपनी महारानी के गुणगान करने और उनकी छवि चमकाने में कसर बाकी नहीं रखी। जब पेट्रोल के भाव बढ़े तो “बबुआ” प्रधानमंत्री को आगे कर दिया जाता है वामपंथियों का गुस्सा झेलने के लिये, लेकिन जब भाव नहीं बढ़ाये जाते तो वह सोनिया की गरीब समर्थक (?) नीतियों के कारण, यदि पेट्रोल के भाव अब तक नहीं बढ़े थे तो सिर्फ़ इसलिये कि सोनिया ने इसकी इजाजत नहीं दी थी, इसे कहते हैं छवि चमकाने की चमचागिरी। ये तो उनका हम पर अहसान भी है कि पहले वे पेट्रोल का भाव चार रुपये बढ़ातीं और फ़िर जनभावना(?) की कद्र करते हुए एक रुपया कम कर देतीं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, अब वामपंथी तोपों के आगे मनमोहन सिंह को खड़ा कर दिया गया है।

महारानी कभी पत्रकार वार्ता नहीं आयोजित करतीं, सिर्फ़ अपने महल (10 जनपथ) से एक बयान जारी करती हैं, जिसे पत्रकारों पर अहसान माना जाना चाहिये। महारानी जी कभी किसी पत्रकार को व्यक्तिगत इंटरव्यू भी नहीं देतीं, यदि देती भी हैं तो ऐसे, जैसे “टुकड़ा” डाला जाता है, लेकिन मजे की बात तो यह है कि फ़िर भी वे मीडिया की प्रिय बनी हुई हैं, ऐसा क्यों? यह एक रहस्य है। जरा याद कीजिये हाल ही में सम्पन्न गुजरात चुनावों को… किसी भी चुनाव में दो मुख्य पार्टियाँ होती हैं और गुजरात में कांग्रेस-भाजपा का मुकाबला नहीं था, असली और सीधा मुकाबला था मोदी और सोनिया का। सोनिया गाँधी ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, उनके लाड़ले ने कथित “रोड शो” किये, साम्प्रदायिकता का कार्ड खेला, लेकिन सब कुछ बेकार। गुजरात में कांग्रेस ने जमकर जूते खा लिये।

यहाँ तक तो चलो ठीक है कोई हारे, कोई जीते, लेकिन अब आगे देखिये, हमारे बिके हुए और धर्मनिरपेक्ष(?) मीडिया ने जीत का विश्लेषण इस बात से करना शुरु किया कि गुजरात चुनावों में मोदी जीते, कि केशुभाई हारे, राजनाथ सिंह का कद छोटा हुआ कि मोदी का कद बड़ा हुआ, आडवाणी जीते या वाजपेयी आदि-आदि बकवास, यानी महारानी सीधे “पिक्चर” से ही गायब। जब भी कोई टीम हारती है तो कप्तान आगे आकर जिम्मेदारी लेता है और प्रेस का सामना करता है, लेकिन गुजरात चुनाव के नतीजों के बाद सात रेसकोर्स पर सन्नाटा छा गया था, राहुल बाबा अपने दोस्तों के साथ अदृश्य हो गये थे, कांग्रेस कार्यालय पर कौवे उड़ रहे थे, सोनिया-राहुल कोई भी उस दिन कांग्रेस कार्यालय नहीं गया, पत्रकारों को यहाँ-वहाँ भगाया जा रहा था।

एक-दो दिन के बाद कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी को एक “बलि का बकरा” मिला, वह थे गुजरात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हरिप्रसाद सोलंकी!! बेचारे सोलंकी ने मिमियाते हुए प्रेस से कहा कि वे गुजरात की हार की जिम्मेदारी लेते हैं, साथ ही एक ज्ञान की बात भी उन्होंने बताई कि चूँकि गुजरात में भाजपा की सीटें पिछले चुनाव से कम हुई हैं इसलिये यह जीत भाजपा की नही, मोदी की है। जबकि सोनिया गाँधी ने जिन 13 विधानसभा क्षेत्रों में विशाल(?) आमसभायें की थीं उनमें से 8में कांग्रेस हार गई, लेकिन भला कोई फ़ड़तूस सा पत्रकार भी महारानी से इस सम्बन्ध में सवाल-जवाब कर सकता है? नहीं। अब यदि एक मिनट के लिये मान लें कि कांग्रेस गुजरात में जीत जाती तो क्या होता, अरे साहब मत पूछिये, सोनिया की वो जयजयकार होती कि आसमान छोटा पड़ जाता, उस हो-हल्ले में हरिप्रसाद सोलंकी नाम के जीव को सोनिया के पास तो क्या मंच पर भी जगह नहीं मिलती। धर्मनिरपेक्षता (?) की जीत का ऐसा डंका बजाया जाता कि आपकी कनपटी सुन्न हो जाती।

सोनिया हरेक योजना के मुख्य पृष्ठ पर होती हैं, हरेक कार्यक्रम वही शुरु करती हैं, चीन, जर्मनी के शासनाध्यक्षों से वही मिलती हैं, लेकिन भाजपा मनमोहन को “बबुआ प्रधानमंत्री” कहे तो उन्हें बुरा लगता है… तो एक बात आप सब लोग कान खोलकर, आँखे फ़ाड़कर स्वीकार कर लीजिये, कि इस देश में जो भी अच्छा काम हो रहा है, चाहे वह ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना हो या सूचना का अधिकार सभी सोनिया की मेहरबानी से मिल रहा है, और जो महंगाई और आतंकवाद बढ़ रहा है उसके जिम्मेदार मनमोहन सिंह और शिवराज पाटिल (नाम सुना हुआ सा लगता है ना) नाम के गृहमन्त्री हैं, जाहिर है कि महारानी को सिर्फ़ जीतने की आदत है, हारने की नहीं… चारण-भाट-भांड-चमचे-ढोल-मंजीरे जिन्दाबाद !!!


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बुधवार, 20 फरवरी 2008 20:34

Nathuram Godse - Mahatma Gandhi - Asthi Kalash


नाथूराम गोड़से का अस्थि-कलश विसर्जन अभी बाकी है…


गत 30 जनवरी को महात्मा गाँधी के अन्तिम ज्ञात (?) अस्थि कलश का विसर्जन किया गया। यह “अंतिम ज्ञात” शब्द कई लोगों को आश्चर्यजनक लगेगा, क्योंकि मानद राष्ट्रपिता के कितने अस्थि-कलश थे या हैं, यह अभी तक सरकार को नहीं पता। कहा जाता है कि एक और अस्थि-कलश बाकी है, जो कनाडा में पाया जाता है। बहरहाल, अस्थि-कलश का विसर्जन बड़े ही समारोहपूर्वक कर दिया गया, लेकिन इस सारे तामझाम के दौरान एक बात और याद आई कि पूना में नाथूराम गोड़से का अस्थि-कलश अभी भी रखा हुआ है, उनकी अन्तिम इच्छा पूरी होने के इन्तजार में।

फ़ाँसी दिये जाने से कुछ ही मिनट पहले नाथूराम गोड़से ने अपने भाई दत्तात्रय को हिदायत देते हुए कहा था, कि “मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”। नाथूराम गोड़से और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी राख उनके परिवार वालों को नहीं सौंपी गई थी। जेल अधिकारियों ने अस्थियों और राख से भरा मटका रेल्वे पुल के उपर से घग्गर नदी में फ़ेंक दिया था। दोपहर बाद में उन्हीं जेल कर्मचारियों में से किसी ने बाजार में जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह खबर एक स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई। इन्द्रसेन उस वक्त “द ट्रिब्यून” के कर्मचारी भी थे। शर्मा ने तत्काल दो महासभाईयों को साथ लिया और दुकानदार द्वारा बताई जगह पर पहुँचे। उन दिनों नदी में उस जगह सिर्फ़ छ्ह इंच गहरा ही पानी था, उन्होंने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर स्थानीय कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर ओमप्रकाश कोहल को सौंप दिया, जिन्होंने आगे उसे डॉ एलवी परांजपे को नाशिक ले जाकर सुपुर्द किया। उसके पश्चात वह अस्थि-कलश 1965 में नाथूराम गोड़से के छोटे भाई गोपाल गोड़से तक पहुँचा दिया गया, जब वे जेल से रिहा हुए। फ़िलहाल यह कलश पूना में उनके निवास पर उनकी अन्तिम इच्छा के मुताबिक सुरक्षित रखा हुआ है।

15 नवम्बर 1950 से आज तक प्रत्येक 15 नवम्बर को गोड़से का “शहीद दिवस” मनाया जाता है। सबसे पहले गोड़से और आपटे की तस्वीरों को अखंड भारत की तस्वीर के साथ रखकर फ़ूलमाला पहनाई जाती है। उसके पश्चात जितने वर्ष उनकी मृत्यु को हुए हैं उतने दीपक जलाये जाते हैं और आरती होती है। अन्त में उपस्थित सभी लोग यह सौगन्ध खाते हैं कि वे गोड़से के “अखंड हिन्दुस्तान” के सपने के लिये काम करते रहेंगे। गोपाल गोड़से अक्सर कहा करते थे कि यहूदियों को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे, हर वर्ष वे कसम खाते थे कि “अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा…”

हालांकि यह एक छोटा सा कार्यक्रम होता है, और उपस्थितों की संख्या भी कम ही होती है, लेकिन गत कुछ वर्षों से गोड़से की विचारधारा के समर्थन में भारत में लोगों की संख्या बढ़ी है, जैसे-जैसे लोग नाथूराम और गाँधी के बारे में विस्तार से जानते हैं, उनमें गोड़से धीरे-धीरे एक “आइकॉन” बन रहे हैं। वीर सावरकर जो कि गोड़से और आपटे के राजनैतिक गुरु थे, के भतीजे विक्रम सावरकर कहते हैं, कि उस समय भी हम हिन्दू महासभा के आदर्शों को मानते थे, और “हमारा यह स्पष्ट मानना है कि गाँधी का वध किया जाना आवश्यक था…”, समाज का एक हिस्सा भी अब मानने लगा है कि नाथूराम का वह कृत्य एक हद तक सही था। हमारे साथ लोगों की सहानुभूति है, लेकिन अब भी लोग खुलकर सामने आने से डरते हैं…।

डर की वजह भी स्वाभाविक है, गाँधी की हत्या के बाद कांग्रेस के लोगों ने पूना में ब्राह्मणों पर भारी अत्याचार किये थे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने संगठित होकर लूट और दंगों को अंजाम दिया था, उस वक्त पूना पहली बार एक सप्ताह तक कर्फ़्यू के साये में रहा। बाद में कई लोगों को आरएसएस और हिन्दू महासभा का सदस्य होने के शक में जेलों में ठूंस दिया गया था (कांग्रेस की यह “महान” परम्परा इंदिरा हत्या के बाद दिल्ली में सिखों के साथ किये गये व्यवहार में भी दिखाई देती है)। गोपाल गोड़से की पत्नी श्रीमती सिन्धु गोड़से कहती हैं, “वे दिन बहुत बुरे और मुश्किल भरे थे, हमारा मकान लूट लिया गया, हमें अपमानित किया गया और कांग्रेसियों ने सभी ब्राह्मणों के साथ बहुत बुरा सलूक किया… शायद यही उनका गांधीवाद हो…”। सिन्धु जी से बाद में कई लोगों ने अपना नाम बदल लेने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने दृढ़ता से इन्कार कर दिया। “मैं गोड़से परिवार में ब्याही गई थी, अब मृत्यु पर्यन्त यही मेरा उपनाम होगा, मैं आज भी गर्व से कहती हूँ कि मैं नाथूराम की भाभी हूँ…”।

चम्पूताई आपटे की उम्र सिर्फ़ 14 वर्ष थी, जब उनका विवाह एक स्मार्ट और आकर्षक युवक “नाना” आपटे से हुआ था, 31 वर्ष की उम्र में वे विधवा हो गईं, और एक वर्ष पश्चात ही उनका एकमात्र पुत्र भी चल बसा। आज वे अपने पुश्तैनी मकान में रहती हैं, पति की याद के तौर पर उनके पास आपटे का एक फ़ोटो है और मंगलसूत्र जो वे सतत पहने रहती हैं, क्योंकि नाना आपटे ने जाते वक्त कहा था कि “कभी विधवा की तरह मत रहना…”, वह राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानतीं, उन्हें सिर्फ़ इतना ही मालूम है गाँधी की हत्या में शरीक होने के कारण उनके पति को मुम्बई में हिरासत में लिया गया था। वे कहती हैं कि “किस बात का गुस्सा या निराशा? मैं अपना जीवन गर्व से जी रही हूँ, मेरे पति ने देश के लिये बलिदान दिया था।

12 जनवरी 1948 को जैसे ही अखबारों के टेलीप्रिंटरों पर यह समाचार आने लगा कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिये सरकार पर दबाव बनाने हेतु गाँधी अनशन पर बैठने वाले हैं, उसी वक्त गोड़से और आपटे ने यह तय कर लिया था कि अब गाँधी का वध करना ही है… इसके पहले नोआखाली में हिन्दुओं के नरसंहार के कारण वे पहले से ही क्षुब्ध और आक्रोशित थे। ये दोनों, दिगम्बर बड़गे (जिसे पिस्तौल चलाना आता था), मदनलाल पाहवा (जो पंजाब का एक शरणार्थी था) और विष्णु करकरे (जो अहमदनगर में एक होटल व्यवसायी था), के सम्पर्क में आये।

पहले इन्होंने गांधी वध के लिये 20 जनवरी का दिन तय किया था, गोड़से ने अपनी इंश्योरेंस पॉलिसी में बदलाव किये, एक बार बिरला हाऊस जाकर उन्होंने माहौल का जायजा लिया, पिस्तौल को एक जंगल में चलाकर देख लिया, लेकिन उनके दुर्भाग्य से उस दिन बम तो बराबर फ़ूटा, लेकिन पिस्तौल न चल सकी। मदनलाल पाहवा पकड़े गये (और यदि दिल्ली पुलिस और मुम्बई पुलिस में बराबर तालमेल और खुफ़िया सूचनाओं का लेनदेन होता तो उसी दिन इनके षडयन्त्र का भंडाफ़ोड़ हो गया होता)। बाकी लोग भागकर वापस मुम्बई आ गये, लेकिन जब तय कर ही लिया था कि यह काम होना ही है, तो तत्काल दूसरी ईटालियन मेड 9 एमएम बेरेटा पिस्तौल की व्यवस्था 27 जनवरी को ग्वालियर से की गई। दिल्ली वापस आने के बाद वे लोग रेल्वे के रिटायरिंग रूम में रुके। शाम को आपटे और करकरे ने चांदनी चौक में फ़िल्म देखी और अपना फ़ोटो खिंचवाया, बिरला मन्दिर के पीछे स्थित रिज पर उन्होंने एक बार फ़िर पिस्तौल को चलाकर देखा, वह बेहतरीन काम कर रही थी।

गाँधी वध के पश्चात उस समय समूची भीड़ में एक ही स्थिर दिमाग वाला व्यक्ति था, नाथूराम गोड़से। गिरफ़्तार होने के पश्चात गोड़से ने डॉक्टर से उसे एक सामान्य व्यवहार वाला और शांत दिमाग होने का सर्टिफ़िकेट माँगा, जो उसे मिला भी। बाद में जब अदालत में गोड़से की पूरी गवाही सुनी जा रही थी, पुरुषों के बाजू फ़ड़क रहे थे, और स्त्रियों की आँखों में आँसू थे।

बहरहाल, पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने और टुकड़े-टुकड़े करके भारत में मिलाने हेतु कई समूह चुपचाप काम कर रहे हैं, उनका मानना है कि इसके लिये साम-दाम-दण्ड-भेद हरेक नीति अपनानी चाहिये। जिस तरह सिर्फ़ साठ वर्षों में एक रणनीति के तहत कांग्रेस, जिसका पूरे देश में कभी एक समय राज्य था, आज सिमट कर कुछ ही राज्यों में रह गई है, उसी प्रकार पाकिस्तान भी एक न एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जायेगा और उसे अन्ततः भारत में मिलना होगा, और तब गोड़से का अस्थि विसर्जन किया जायेगा।
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डिस्क्लेमर : यह लेख सिर्फ़ जानकारी के लिये है, फ़ोकटिया बुद्धिजीवी बहस में उलझने का मेरा कोई इरादा नहीं है और मेरे पास समय भी नहीं है। डिस्क्लेमर देना इसलिये जरूरी था कि बाल की खाल निकालने में माहिर कथित बुद्धिजीवी इस लेख का गलत मतलब निकाले बिना नहीं रहेंगे।

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Mumbai Dibbawalas, Tirupur, Namakkal, IIM

कुछ समय पहले एक प्रतिष्ठित आईआईएम के निदेशक बड़े गर्व से टीवी पर बता रहे थे कि उनके यहाँ से 60 छात्रों का चयन बड़ी-बड़ी कम्पनियों में हो गया है (जाहिर है कि मल्टीनेशनल में ही)…एक छात्र को तो वार्षिक साठ लाख का पैकेज मिला है और दूसरे को अस्सी लाख वार्षिक का…। लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि इतना वेतन लेने वाले ये मैनेजर आखिर करेंगे क्या? मल्टीनेशनल कम्पनियों के लिये शोषण के नये-नये रास्ते खोजने का ही… जो कम्पनी इन्हें पाँच लाख रुपये महीना वेतन दे रही है, जाहिर है कि वह इनके “दिमाग”(?) के उपयोग से पचास लाख रुपये महीना कमाने की जुगाड़ में होगी, अर्थात ये साठ मेधावी छात्र आज्ञाकारी नौकर मात्र हैं, जो मालिक के लिये कुत्ते की तरह दिन-रात जुटे रहेंगे।

इन साठ छात्रों का चयन भारत के बेहतरीन मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट में तब हुआ जब वे लाखों के बीच से चुने गये, इनके प्रशिक्षण और रहन-सहन पर इस गरीब देश का करोड़ों रुपया लगा। लेकिन क्या सिर्फ़ इन्हें बहुराष्ट्रीय (या अम्बानी, टाटा, बिरला) कम्पनियों के काम से सन्तुष्ट हो जाना चाहिये? क्या ये मेधावी लोग कभी मालिक नहीं बनेंगे? क्या इनके दिमाग का उपयोग भारत के फ़ायदे के लिये नहीं होगा? इनमें से कितने होंगे जो कुछ सैकड़ों लोगों को ही रोजी-रोटी देने में कामयाब होंगे? यदि भारत के बेहतरीन दिमाग दूसरों की नौकरी करेंगे, तो नौकरी के अवसर कौन उत्पन्न करेगा? दुर्भाग्य की बात यह है कि मैनेजमेंट संस्थानों से निकलने वाले अधिकतर युवा “रिस्क” लेने से घबराते हैं, वे उद्यमशील (Entrepreneur) बनने की कोशिश नहीं करते।

अब तस्वीर का दूसरा पक्ष देखिये। रिलायंस, अम्बानी, टाटा, बिरला, मित्तल का नाम तो सभी जानते हैं, लेकिन कितने लोग तिरुपुर या नमक्कल के बारे में जानते हैं? तिरुपुर, तमिलनाडु के सुदूर में स्थित एक कस्बा है, जहाँ लगभग 4000 छोटे-बड़े सिलाई केन्द्र और अंडरवियर/बनियान बनाने के कुटीर उद्योग हैं। उनमें से लगभग 1000 इकाईयाँ इनका निर्यात भी करती हैं। पिछले साल अकेले तिरुपुर का निर्यात 6000 करोड़ रुपये का था, जो कि सन 1985 में सिर्फ़ 85 करोड़ था। इन छोटी-छोटी इकाईयों और कारखानों की एक एसोसियेशन भी है तिरुपुर एक्सपोर्टर एसोसियेशन। लेकिन सबसे खास बात तो यह है कि दस में से नौ कामगार खुद अपनी इकाई के मालिक हैं, वे लोग पहले कभी किसी सिलाई केन्द्र में काम करते थे, धीरे-धीरे खुद के पैरों पर खड़ा होना सीखा, बैंक से लोन लिये और अपनी खुद की इकाई शुरु की। तिरुपुर कस्बा अपने आप में एक पाठशाला है कि कैसे लोगों को उद्यमशील बनाया जाता है, कैसे उनमें प्रेरणा जगाई जाती है, कैसे उन्हें काम सिखाया जाता है। इनमें से अधिकतर लोग कभी किसी यूनिवर्सिटी या मैनेजमेंट संस्थान में नहीं गये, इनके पास कोई औपचारिक डिग्री नहीं है, लेकिन ये खुद अपना काम तो कर ही रहे हैं दो-चार लोगों को काम दे भी रहे हैं जो आगे चलकर खुद मालिक बन जायेंगे।

जाहिर सी बात है कि अधिकतर कामगार/मालिक अंग्रेजी नहीं जानते, लेकिन फ़िर भी वैश्विक चुनौतियों का वे बखूबी सामना कर रहे हैं, रेट्स के मामले में भी और ग्राहक की पसन्द के मामले में भी। पश्चिमी देशों के मौसम और डिजाइन के अनुकूल अंडर-गारमेण्ट्स ये लोग बेहद प्रतिस्पर्धी कीमतों पर निर्यात करते हैं। इन्हीं में से एक पल्लानिस्वामी साफ़ कहते हैं कि “जब वे बारहवीं कक्षा में फ़ेल हो गये तब वे इस बिजनेस की ओर मुड़े…”। आज की तारीख में वे एक बड़े कारखाने के मालिक हैं, उनका 20 करोड़ का निर्यात होता है और 1200 लोगों को उन्होंने रोजगार दिया हुआ है। वे मानते हैं कि यदि वे पढ़ाई करते रहते तो आज यहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे। और ऐसे लोगों की तिरुपुर में भरमार है, जिनसे लक्स, लिरिल, रूपा आदि जैसे ब्राण्ड कपड़े खरीदते हैं, अपनी सील और पैकिंग लगाते हैं और भारी मुनाफ़े के साथ हमे-आपको बेचते हैं, लेकिन सवाल उठता है कि आईआईएम और उनके छात्रों ने देश में ऐसे कितने तिरुपुर बनाये हैं?

मुम्बई के डिब्बेवालों की तारीफ़ में प्रिंस चार्ल्स पहले ही बहुत कुछ कह चुके हैं, उनकी कार्यप्रणाली, उनकी कार्यक्षमता, उनकी समयबद्धता वाकई अद्भुत है। मजे की बात तो यह है कि उनमें से कई तो नितांत अनपढ़ हैं, लेकिन मुम्बई के सुदूर उपनगरों से ठेठ नरीमन पाइंट के कारपोरेट दफ़्तरों तक और वापस डिब्बों को उनके घर तक पहुँचाने में उनका कोई जवाब नहीं है। अब कई मैनेजमेंट संस्थान इन पर शोध कर रहे हैं, लालू भी इनके मुरीद बन चुके हैं, लेकिन इनका जीवन आज भी वैसा ही है। इनकी संस्था ने हजारों को रोजगार दिलवाया हुआ है, खाना बनाने वालों, छोटे किराना दुकानदारों, गरीब बच्चों, जिन्हें कोई बड़ा उद्योगपति अपने दफ़्तर में घुसने भी नहीं देता। आईआईएम के ही एक छात्र ने चेन्नई में अपना खुद का केटरिंग व्यवसाय शुरु किया, शुरु में सिर्फ़ वह इडली बनाकर सप्लाई करते थे, आज उनके पास कर्मचारियों की फ़ौज है और वे टिफ़िन व्यवसाय में जम चुके हैं, लेकिन उनकी प्रेरणा स्रोत थीं उनकी माँ, जिन्होंने बेहद गरीबी के बावजूद अपने मेधावी बेटे को आईआईएम में पढ़ने भेजा, लेकिन सवाल यही है कि ऐसा कदम कितने लोग उठाते हैं?

एक और उदाहरण है नमक्कल का। जाहिर है कि इसका नाम भी कईयों ने नहीं सुना होगा। नमक्कल के 3000 परिवारों के पास 18000 ट्र्क हैं। भारत के 70% टैंकर व्यवसाय का हिस्सा नमक्कल का होता है। चकरा गये ना !! तिरुपुर की ही तरह यहाँ भी अधिक पढ़े-लिखे लोग नहीं हैं, ना ही यहाँ विश्वविद्यालय हैं, न ही मैनेजमेंट संस्थान। लगभग सभी टैंकर मालिक कभी न कभी क्लीनर थे, किसी को अंग्रेजी नहीं आती, लेकिन ट्रक के मामले में वे उस्ताद हैं, पहले क्लीनर, फ़िर हेल्पर, फ़िर ड्रायवर और फ़िर एक टैंकर के मालिक, यही सभी की पायदाने हैं, और अब नमक्कल ट्रकों की बॉडी-बिल्डिंग (ढांचा तैयार करने) का एक बड़ा केन्द्र बनता जा रहा है। एक समय यह इलाका सूखे से लगातार जूझता रहता था, लेकिन यहाँ के मेहनती लोगों ने पलायन करने की बजाय यह रास्ता अपनाया।

पहले उन्होंने हाइवे पर आती-जाती गाड़ियों पर कपड़ा मारने, तेल-हवा भरने का काम किया, फ़िर सीखते-सीखते वे खुद मालिक बन गये। आज हरेक ट्रक पर कम से कम तीन लोगों को रोजगार मिलता है। एक-दो को देखकर दस-बीस लोगों को प्रेरणा मिलती है और वह भी काम पर लग जाता है, ठीक तिरुपुर की तरह। यह एक प्रकार का सामुदायिक विकास है, सहकारिता के साथ, इसमें प्रतिस्पर्धा और आपसी जलन की भावना तो है, लेकिन वह उतनी तीव्र नहीं क्योंकि हरेक के पास छोटा ही सही रोजगार तो है। और यह सब खड़ा किया है समाज के अन्दरूनी हालातों के साथ लोगों की लड़ने की जिद ने, न कि किसी आईआईएम ने। यही नहीं, ऐसे उदाहरण हमें समूचे भारत में देखने को मिल जाते हैं, चाहे वह कोयम्बटूर का वस्त्रोद्योग हो, सिवाकासी का पटाखा उद्योग, लुधियाना का कपड़ा, पटियाला का साइकिल उद्योग हो (यहाँ पर मैंने “अमूल” का उदाहरण नहीं दिया, वह भी सिर्फ़ और सिर्फ़ कुरियन साहब की मेहनत और सफ़ल ग्रामीण सहकारिता का नतीजा है)।

मोटी तनख्वाहें लेकर संतुष्ट हो जाने और फ़िर जीवन भर किसी अंग्रेज की गुलामी करने वालों से तो ये लोग काफ़ी बेहतर लगते हैं, कम से कम उनमें स्वाभिमान तो है। लेकिन जब मीडिया भी अनिल-मुकेश-मित्तल आदि के गुणगान करता रहता है, वे लोग भी पेट्रोल से लेकर जूते और सब्जी तक बेचने को उतर आते हैं, “सेज” के नाम पर जमीने हथियाते हैं, तो युवाओं के सामने क्या आदर्श पेश होता है? आखिर इतनी पूंजी का ये लोग क्या करेंगे? एक ही जगह इतनी ज्यादा पूंजी का एकत्रीकरण क्यों? क्या नीता अम्बानी को जन्मदिन पर 300 करोड़ का हवाई जहाज गिफ़्ट में देना कोई उपलब्धि है? लेकिन हो यह रहा है कि कॉलेज, संस्थान से निकले युवक की आँखों पर इन्हीं लोगों के नामों का पट्टा चढ़ा होता है, वह कुछ नया सोच ही नहीं पाता, नया करने की हिम्मत जुटा ही नहीं पाता, उसकी उद्यमशीलता पहले ही खत्म हो चुकी होती है। इसमें अपनी तरफ़ से टेका लगाते हैं, मैनेजमेंट संस्थान और उनके पढ़े-लिखे आधुनिक नौकर। जबकि इन लोगों को तिरुपुर, नमक्कल जाकर सीखना चाहिये कि स्वाभिमानी जीवन, लाखों की तनख्वाह से बढ़कर होता है…। जो प्रतिभाशाली, दिमागदार युवा दूसरे के लिये काम कर सकते हैं, क्या वे दो-चार का समूह बनाकर खुद की इंडस्ट्री नहीं खोल सकते? जरूर कर सकते हैं, जरूरत है सिर्फ़ मानसिकता बदलने की…

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