
Super User
I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai.
I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles.
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सोमवार, 24 दिसम्बर 2007 20:06
मदर टेरेसा : एक गढ़ी गई संत और संदिग्ध मानवता सेविका ?
Mother Teresa Crafted Saint
एग्नेस गोंक्झा बोज़ाझियू अर्थात मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, मेसेडोनिया में हुआ था और बारह वर्ष की आयु में उन्हें अहसास हुआ कि “उन्हें ईश्वर बुला रहा है”। 24 मई 1931 को वे कलकत्ता आईं और फ़िर यहीं की होकर रह गईं। उनके बारे में इस प्रकार की सारी बातें लगभग सभी लोग जानते हैं, लेकिन कुछ ऐसे तथ्य, आँकड़े और लेख हैं जिनसे इस शख्सियत पर सन्देह के बादल गहरे होते जाते हैं। उन पर हमेशा वेटिकन की मदद और मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की मदद से “धर्म परिवर्तन” का आरोप तो लगता ही रहा है, लेकिन बात कुछ और भी है, जो उन्हें “दया की मूर्ति”, “मानवता की सेविका”, “बेसहारा और गरीबों की मसीहा”... आदि वाली “लार्जर दैन लाईफ़” छवि पर ग्रहण लगाती हैं, और मजे की बात यह है कि इनमें से अधिकतर आरोप (या कहें कि खुलासे) पश्चिम की प्रेस या ईसाई पत्रकारों आदि ने ही किये हैं, ना कि किसी हिन्दू संगठन ने, जिससे संदेह और भी गहरा हो जाता है (क्योंकि हिन्दू संगठन जो भी बोलते या लिखते हैं उसे तत्काल सांप्रदायिक ठहरा दिये जाने का “रिवाज” है)। बहरहाल, आईये देखें कि क्यों इस प्रकार के “संत” या “चमत्कार” आदि की बातें बेमानी होती हैं (अब ये पढ़ते वक्त यदि आपको हिन्दुओं के बड़े-बड़े और नामी-गिरामी बाबाओं, संतों और प्रवचनकारों की याद आ जाये तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी) –
यह बात तो सभी जानते हैं कि धर्म कोई सा भी हो, धार्मिक गुरु/गुरुआनियाँ/बाबा/सन्त आदि कोई भी हो बगैर “चन्दे” के वे अपना कामकाज(?) नहीं फ़ैला सकते हैं। उनकी मिशनरियाँ, उनके आश्रम, बड़े-बड़े पांडाल, भव्य मन्दिर, मस्जिद और चर्च आदि इसी विशालकाय चन्दे की रकम से बनते हैं। जाहिर है कि जहाँ से अकूत पैसा आता है वह कोई पवित्र या धर्मात्मा व्यक्ति नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जिस जगह ये अकूत पैसा जाता है, वहाँ भी ऐसे ही लोग बसते हैं। आम आदमी को बरगलाने के लिये पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई, धर्म आदि की घुट्टी लगातार पिलाई जाती है, क्योंकि जिस अंतरात्मा के बल पर व्यक्ति का सारा व्यवहार चलता है, उसे दरकिनार कर दिया जाता है। पैसा (यानी चन्दा) कहीं से भी आये, किसी भी प्रकार के व्यक्ति से आये, उसका काम-धंधा कुछ भी हो, इससे लेने वाले “महान”(?) लोगों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उन्हें इस बात की चिंता कभी नहीं होती कि उनके तथाकथित प्रवचन सुनकर क्या आज तक किसी भी भ्रष्टाचारी या अनैतिक व्यक्ति ने अपना गुनाह कबूल किया है? क्या किसी पापी ने आज तक यह कहा है कि “मेरी यह कमाई मेरे तमाम काले कारनामों की है, और मैं यह सारा पैसा त्यागकर आज से सन्यास लेता हूँ और मुझे मेरे पापों की सजा के तौर पर कड़े परिश्रम वाली जेल में रख दिया जाये..”। वह कभी ऐसा कहेगा भी नहीं, क्योंकि इन्हीं संतों और महात्माओं ने उसे कह रखा है कि जब तुम अपनी कमाई का कुछ प्रतिशत “नेक” कामों के लिये दान कर दोगे तो तुम्हारे पापों का खाता हल्का हो जायेगा। यानी, बेटा..तू आराम से कालाबाजारी कर, चैन से गरीबों का शोषण कर, जम कर भ्रष्टाचार कर, लेकिन उसमें से कुछ हिस्सा हमारे आश्रम को दान कर... है ना मजेदार धर्म...
बहरहाल बात हो रही थी मदर टेरेसा की, मदर टेरेसा की मृत्यु के समय सुसान शील्ड्स को न्यूयॉर्क बैंक में पचास मिलियन डालर की रकम जमा मिली, सुसान शील्ड्स वही हैं जिन्होंने मदर टेरेसा के साथ सहायक के रूप में नौ साल तक काम किया, सुसान ही चैरिटी में आये हुए दान और चेकों का हिसाब-किताब रखती थीं। जो लाखों रुपया गरीबों और दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था, वह न्यूयॉर्क के बैंक में यूँ ही फ़ालतू पड़ा था? मदर टेरेसा को समूचे विश्व से, कई ज्ञात और अज्ञात स्रोतों से बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दान के तौर पर मिलती थीं।
अमेरिका के एक बड़े प्रकाशक रॉबर्ट मैक्सवैल, जिन्होंने कर्मचारियों की भविष्यनिधि फ़ण्ड्स में 450 मिलियन पाउंड का घोटाला किया, ने मदर टेरेसा को 1.25 मिलियन डालर का चन्दा दिया। मदर टेरेसा मैक्सवैल के भूतकाल को जानती थीं। हैती के तानाशाह जीन क्लाऊड डुवालिये ने मदर टेरेसा को सम्मानित करने बुलाया। मदर टेरेसा कोलकाता से हैती सम्मान लेने गईं, और जिस व्यक्ति ने हैती का भविष्य बिगाड़ कर रख दिया, गरीबों पर जमकर अत्याचार किये और देश को लूटा, टेरेसा ने उसकी “गरीबों को प्यार करने वाला” कहकर तारीफ़ों के पुल बाँधे।
मदर टेरेसा को चार्ल्स कीटिंग से 1.25 मिलियन डालर का चन्दा मिला, ये कीटिंग महाशय वही हैं जिन्होंने “कीटिंग सेविंग्स एन्ड लोन्स” नामक कम्पनी 1980 में बनाई थी और आम जनता और मध्यमवर्ग को लाखों डालर का चूना लगाने के बाद उसे जेल हुई थी। अदालत में सुनवाई के दौरान मदर टेरेसा ने जज से कीटिंग को “माफ़”(?) करने की अपील की थी, उस वक्त जज ने उनसे कहा कि जो पैसा कीटिंग ने गबन किया है क्या वे उसे जनता को लौटा सकती हैं? ताकि निम्न-मध्यमवर्ग के हजारों लोगों को कुछ राहत मिल सके, लेकिन तब वे चुप्पी साध गईं।
ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका Lancet के सम्पादक डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण “अनल्जेसिक दवाईयाँ” तक वहाँ उपलब्ध नहीं थीं और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे...”(?)
बांग्लादेश युद्ध के दौरान लगभग साढ़े चार लाख महिलायें बेघरबार हुईं और भागकर कोलकाता आईं, उनमें से अधिकतर के साथ बलात्कार हुआ था। मदर टेरेसा ने उन महिलाओं के गर्भपात का विरोध किया था, और कहा था कि “गर्भपात कैथोलिक परम्पराओं के खिलाफ़ है और इन औरतों की प्रेग्नेन्सी एक “पवित्र आशीर्वाद” है...”। उन्होंने हमेशा गर्भपात और गर्भनिरोधकों का विरोध किया। जब उनसे सवाल किया जाता था कि “क्या ज्यादा बच्चे पैदा होना और गरीबी में कोई सम्बन्ध नहीं है?” तब उनका उत्तर हमेशा गोलमोल ही होता था कि “ईश्वर सभी के लिये कुछ न कुछ देता है, जब वह पशु-पक्षियों को भोजन उपलब्ध करवाता है तो आने वाले बच्चे का खयाल भी वह रखेगा इसलिये गर्भपात और गर्भनिरोधक एक अपराध है” (क्या अजीब थ्योरी है...बच्चे पैदा करते जाओं उन्हें “ईश्वर” पाल लेगा... शायद इसी थ्योरी का पालन करते हुए ज्यादा बच्चों का बाप कहता है कि “ये तो भगवान की देन हैं..”, लेकिन वह मूर्ख नहीं जानता कि यह “भगवान की देन” धरती पर बोझ है और सिकुड़ते संसाधनों में हक मारने वाला एक और मुँह...) यहाँ देखें
मदर टेरेसा ने इन्दिरा गाँधी की आपातकाल लगाने के लिये तारीफ़ की थी और कहा कि “आपातकाल लगाने से लोग खुश हो गये हैं और बेरोजगारी की समस्या हल हो गई है”। गाँधी परिवार ने उन्हें “भारत रत्न” का सम्मान देकर उनका “ऋण” उतारा। भोपाल गैस त्रासदी भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, जिसमें सरकारी तौर पर 4000 से अधिक लोग मारे गये और लाखों लोग अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए। उस वक्त मदर टेरेसा ताबड़तोड़ कलकत्ता से भोपाल आईं, किसलिये? क्या प्रभावितों की मदद करने? जी नहीं, बल्कि यह अनुरोध करने कि यूनियन कार्बाईड के मैनेजमेंट को माफ़ कर दिया जाना चाहिये। और अन्ततः वही हुआ भी, वारेन एंडरसन ने अपनी बाकी की जिन्दगी अमेरिका में आराम से बिताई, भारत सरकार हमेशा की तरह किसी को सजा दिलवा पाना तो दूर, ठीक से मुकदमा तक नहीं कायम कर पाई। प्रश्न उठता है कि आखिर मदर टेरेसा थीं क्या?
एक और जर्मन पत्रकार वाल्टर व्युलेन्वेबर ने अपनी पत्रिका “स्टर्न” में लिखा है कि अकेले जर्मनी से लगभग तीन मिलियन डालर का चन्दा मदर की मिशनरी को जाता है, और जिस देश में टैक्स चोरी के आरोप में स्टेफ़ी ग्राफ़ के पिता तक को जेल हो जाती है, वहाँ से आये हुए पैसे का आज तक कोई ऑडिट नहीं हुआ कि पैसा कहाँ से आता है, कहाँ जाता है, कैसे खर्च किया जाता है... आदि।
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी, बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की परी)। इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है, जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम हैं...” जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान मिले। (हिचेन्स का लेख) और हिचेन्स का इंटरव्यू
संतत्व गढ़ना –
मदर टेरेसा जब कभी बीमार हुईं, उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भरती किया गया, उन्हें हमेशा महंगा से महंगा इलाज उपलब्ध करवाया गया, हालांकि ये अच्छी बात है, इसका स्वागत किया जाना चाहिये, लेकिन साथ ही यह नहीं भूलना चाहिये कि यही उपचार यदि वे अनाथ और गरीब बच्चों (जिनके नाम पर उन्हें लाखों डालर का चन्दा मिलता रहा) को भी दिलवातीं तो कोई बात होती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ...एक बार कैंसर से कराहते एक मरीज से उन्होंने कहा कि “तुम्हारा दर्द ठीक वैसा ही है जैसा ईसा मसीह को सूली पर हुआ था, शायद महान मसीह तुम्हें चूम रहे हैं”,,, तब मरीज ने कहा कि “प्रार्थना कीजिये कि जल्दी से ईसा मुझे चूमना बन्द करें...”। टेरेसा की मृत्यु के पश्चात पोप जॉन पॉल को उन्हें “सन्त” घोषित करने की बेहद जल्दबाजी हो गई थी, संत घोषित करने के लिये जो पाँच वर्ष का समय (चमत्कार और पवित्र असर के लिये) दरकार होता है, पोप ने उसमें भी ढील दे दी, ऐसा क्यों हुआ पता नहीं।
मोनिका बेसरा की कहानी –
पश्चिम बंगाल की एक क्रिश्चियन आदिवासी महिला जिसका नाम मोनिका बेसरा है, उसे टीबी और पेट में ट्यूमर हो गया था। बेलूरघाट के सरकारी अस्पताल के डॉ. रंजन मुस्ताफ़ उसका इलाज कर रहे थे। उनके इलाज से मोनिका को काफ़ी फ़ायदा हो रहा था और एक बीमारी लगभग ठीक हो गई थी। मोनिका के पति मि. सीको ने इस बात को स्वीकार किया था। वे बेहद गरीब हैं और उनके पाँच बच्चे थे, कैथोलिक ननों ने उनसे सम्पर्क किया, बच्चों की उत्तम शिक्षा-दीक्षा का आश्वासन दिया, उस परिवार को थोड़ी सी जमीन भी दी और ताबड़तोड़ मोनिका का “ब्रेनवॉश” किया गया, जिससे मदर टेरेसा के “चमत्कार” की कहानी दुनिया को बताई जा सके और उन्हें संत घोषित करने में आसानी हो। अचानक एक दिन मोनिका बेसरा ने अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उसका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया। जब एक चैरिटी संस्था ने उस अस्पताल का दौरा कर हकीकत जानना चाही, तो पाया गया कि मोनिका बेसरा से सम्बन्धित सारा रिकॉर्ड गायब हो चुका है (“टाईम” पत्रिका ने इस बात का उल्लेख किया है)।
“संत” घोषित करने की प्रक्रिया में पहली पायदान होती है जो कहलाती है “बीथिफ़िकेशन”, जो कि 19 अक्टूबर 2003 को हो चुका। “संत” घोषित करने की यह परम्परा कैथोलिकों में बहुत पुरानी है, लेकिन आखिर इसी के द्वारा तो वे लोगों का धर्म में विश्वास(?) बरकरार रखते हैं और सबसे बड़ी बात है कि वेटिकन को इतने बड़े खटराग के लिये सतत “धन” की उगाही भी तो जारी रखना होता है....
(मदर टेरेसा की जो “छवि” है, उसे धूमिल करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, इसीलिये इसमें सन्दर्भ सिर्फ़ वही लिये गये हैं जो पश्चिमी लेखकों ने लिखे हैं, क्योंकि भारतीय लेखकों की आलोचना का उल्लेख करने भर से “सांप्रदायिक” घोषित किये जाने का “फ़ैशन” है... इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाना नहीं है, जो कुछ पहले बोला, लिखा जा चुका है उसे ही संकलित किया गया है, मदर टेरेसा द्वारा किया गया सेवाकार्य अपनी जगह है, लेकिन सच यही है कि कोई भी धर्म हो इस प्रकार की “हरकतें” होती रही हैं, होती रहेंगी, जब तक कि आम जनता अपने कर्मों पर विश्वास करने की बजाय बाबाओं, संतों, माताओं, देवियों आदि के चक्करों में पड़ी रहेगी, इसीलिये यह दूसरा पक्ष प्रस्तुत किया गया है)
सन्दर्भ – महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति साहित्य (डॉ. इन्नैय्या नरिसेत्ति)
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एग्नेस गोंक्झा बोज़ाझियू अर्थात मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, मेसेडोनिया में हुआ था और बारह वर्ष की आयु में उन्हें अहसास हुआ कि “उन्हें ईश्वर बुला रहा है”। 24 मई 1931 को वे कलकत्ता आईं और फ़िर यहीं की होकर रह गईं। उनके बारे में इस प्रकार की सारी बातें लगभग सभी लोग जानते हैं, लेकिन कुछ ऐसे तथ्य, आँकड़े और लेख हैं जिनसे इस शख्सियत पर सन्देह के बादल गहरे होते जाते हैं। उन पर हमेशा वेटिकन की मदद और मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की मदद से “धर्म परिवर्तन” का आरोप तो लगता ही रहा है, लेकिन बात कुछ और भी है, जो उन्हें “दया की मूर्ति”, “मानवता की सेविका”, “बेसहारा और गरीबों की मसीहा”... आदि वाली “लार्जर दैन लाईफ़” छवि पर ग्रहण लगाती हैं, और मजे की बात यह है कि इनमें से अधिकतर आरोप (या कहें कि खुलासे) पश्चिम की प्रेस या ईसाई पत्रकारों आदि ने ही किये हैं, ना कि किसी हिन्दू संगठन ने, जिससे संदेह और भी गहरा हो जाता है (क्योंकि हिन्दू संगठन जो भी बोलते या लिखते हैं उसे तत्काल सांप्रदायिक ठहरा दिये जाने का “रिवाज” है)। बहरहाल, आईये देखें कि क्यों इस प्रकार के “संत” या “चमत्कार” आदि की बातें बेमानी होती हैं (अब ये पढ़ते वक्त यदि आपको हिन्दुओं के बड़े-बड़े और नामी-गिरामी बाबाओं, संतों और प्रवचनकारों की याद आ जाये तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी) –
यह बात तो सभी जानते हैं कि धर्म कोई सा भी हो, धार्मिक गुरु/गुरुआनियाँ/बाबा/सन्त आदि कोई भी हो बगैर “चन्दे” के वे अपना कामकाज(?) नहीं फ़ैला सकते हैं। उनकी मिशनरियाँ, उनके आश्रम, बड़े-बड़े पांडाल, भव्य मन्दिर, मस्जिद और चर्च आदि इसी विशालकाय चन्दे की रकम से बनते हैं। जाहिर है कि जहाँ से अकूत पैसा आता है वह कोई पवित्र या धर्मात्मा व्यक्ति नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जिस जगह ये अकूत पैसा जाता है, वहाँ भी ऐसे ही लोग बसते हैं। आम आदमी को बरगलाने के लिये पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई, धर्म आदि की घुट्टी लगातार पिलाई जाती है, क्योंकि जिस अंतरात्मा के बल पर व्यक्ति का सारा व्यवहार चलता है, उसे दरकिनार कर दिया जाता है। पैसा (यानी चन्दा) कहीं से भी आये, किसी भी प्रकार के व्यक्ति से आये, उसका काम-धंधा कुछ भी हो, इससे लेने वाले “महान”(?) लोगों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उन्हें इस बात की चिंता कभी नहीं होती कि उनके तथाकथित प्रवचन सुनकर क्या आज तक किसी भी भ्रष्टाचारी या अनैतिक व्यक्ति ने अपना गुनाह कबूल किया है? क्या किसी पापी ने आज तक यह कहा है कि “मेरी यह कमाई मेरे तमाम काले कारनामों की है, और मैं यह सारा पैसा त्यागकर आज से सन्यास लेता हूँ और मुझे मेरे पापों की सजा के तौर पर कड़े परिश्रम वाली जेल में रख दिया जाये..”। वह कभी ऐसा कहेगा भी नहीं, क्योंकि इन्हीं संतों और महात्माओं ने उसे कह रखा है कि जब तुम अपनी कमाई का कुछ प्रतिशत “नेक” कामों के लिये दान कर दोगे तो तुम्हारे पापों का खाता हल्का हो जायेगा। यानी, बेटा..तू आराम से कालाबाजारी कर, चैन से गरीबों का शोषण कर, जम कर भ्रष्टाचार कर, लेकिन उसमें से कुछ हिस्सा हमारे आश्रम को दान कर... है ना मजेदार धर्म...
बहरहाल बात हो रही थी मदर टेरेसा की, मदर टेरेसा की मृत्यु के समय सुसान शील्ड्स को न्यूयॉर्क बैंक में पचास मिलियन डालर की रकम जमा मिली, सुसान शील्ड्स वही हैं जिन्होंने मदर टेरेसा के साथ सहायक के रूप में नौ साल तक काम किया, सुसान ही चैरिटी में आये हुए दान और चेकों का हिसाब-किताब रखती थीं। जो लाखों रुपया गरीबों और दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था, वह न्यूयॉर्क के बैंक में यूँ ही फ़ालतू पड़ा था? मदर टेरेसा को समूचे विश्व से, कई ज्ञात और अज्ञात स्रोतों से बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दान के तौर पर मिलती थीं।
अमेरिका के एक बड़े प्रकाशक रॉबर्ट मैक्सवैल, जिन्होंने कर्मचारियों की भविष्यनिधि फ़ण्ड्स में 450 मिलियन पाउंड का घोटाला किया, ने मदर टेरेसा को 1.25 मिलियन डालर का चन्दा दिया। मदर टेरेसा मैक्सवैल के भूतकाल को जानती थीं। हैती के तानाशाह जीन क्लाऊड डुवालिये ने मदर टेरेसा को सम्मानित करने बुलाया। मदर टेरेसा कोलकाता से हैती सम्मान लेने गईं, और जिस व्यक्ति ने हैती का भविष्य बिगाड़ कर रख दिया, गरीबों पर जमकर अत्याचार किये और देश को लूटा, टेरेसा ने उसकी “गरीबों को प्यार करने वाला” कहकर तारीफ़ों के पुल बाँधे।
मदर टेरेसा को चार्ल्स कीटिंग से 1.25 मिलियन डालर का चन्दा मिला, ये कीटिंग महाशय वही हैं जिन्होंने “कीटिंग सेविंग्स एन्ड लोन्स” नामक कम्पनी 1980 में बनाई थी और आम जनता और मध्यमवर्ग को लाखों डालर का चूना लगाने के बाद उसे जेल हुई थी। अदालत में सुनवाई के दौरान मदर टेरेसा ने जज से कीटिंग को “माफ़”(?) करने की अपील की थी, उस वक्त जज ने उनसे कहा कि जो पैसा कीटिंग ने गबन किया है क्या वे उसे जनता को लौटा सकती हैं? ताकि निम्न-मध्यमवर्ग के हजारों लोगों को कुछ राहत मिल सके, लेकिन तब वे चुप्पी साध गईं।
ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका Lancet के सम्पादक डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण “अनल्जेसिक दवाईयाँ” तक वहाँ उपलब्ध नहीं थीं और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे...”(?)
बांग्लादेश युद्ध के दौरान लगभग साढ़े चार लाख महिलायें बेघरबार हुईं और भागकर कोलकाता आईं, उनमें से अधिकतर के साथ बलात्कार हुआ था। मदर टेरेसा ने उन महिलाओं के गर्भपात का विरोध किया था, और कहा था कि “गर्भपात कैथोलिक परम्पराओं के खिलाफ़ है और इन औरतों की प्रेग्नेन्सी एक “पवित्र आशीर्वाद” है...”। उन्होंने हमेशा गर्भपात और गर्भनिरोधकों का विरोध किया। जब उनसे सवाल किया जाता था कि “क्या ज्यादा बच्चे पैदा होना और गरीबी में कोई सम्बन्ध नहीं है?” तब उनका उत्तर हमेशा गोलमोल ही होता था कि “ईश्वर सभी के लिये कुछ न कुछ देता है, जब वह पशु-पक्षियों को भोजन उपलब्ध करवाता है तो आने वाले बच्चे का खयाल भी वह रखेगा इसलिये गर्भपात और गर्भनिरोधक एक अपराध है” (क्या अजीब थ्योरी है...बच्चे पैदा करते जाओं उन्हें “ईश्वर” पाल लेगा... शायद इसी थ्योरी का पालन करते हुए ज्यादा बच्चों का बाप कहता है कि “ये तो भगवान की देन हैं..”, लेकिन वह मूर्ख नहीं जानता कि यह “भगवान की देन” धरती पर बोझ है और सिकुड़ते संसाधनों में हक मारने वाला एक और मुँह...) यहाँ देखें
मदर टेरेसा ने इन्दिरा गाँधी की आपातकाल लगाने के लिये तारीफ़ की थी और कहा कि “आपातकाल लगाने से लोग खुश हो गये हैं और बेरोजगारी की समस्या हल हो गई है”। गाँधी परिवार ने उन्हें “भारत रत्न” का सम्मान देकर उनका “ऋण” उतारा। भोपाल गैस त्रासदी भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, जिसमें सरकारी तौर पर 4000 से अधिक लोग मारे गये और लाखों लोग अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए। उस वक्त मदर टेरेसा ताबड़तोड़ कलकत्ता से भोपाल आईं, किसलिये? क्या प्रभावितों की मदद करने? जी नहीं, बल्कि यह अनुरोध करने कि यूनियन कार्बाईड के मैनेजमेंट को माफ़ कर दिया जाना चाहिये। और अन्ततः वही हुआ भी, वारेन एंडरसन ने अपनी बाकी की जिन्दगी अमेरिका में आराम से बिताई, भारत सरकार हमेशा की तरह किसी को सजा दिलवा पाना तो दूर, ठीक से मुकदमा तक नहीं कायम कर पाई। प्रश्न उठता है कि आखिर मदर टेरेसा थीं क्या?
एक और जर्मन पत्रकार वाल्टर व्युलेन्वेबर ने अपनी पत्रिका “स्टर्न” में लिखा है कि अकेले जर्मनी से लगभग तीन मिलियन डालर का चन्दा मदर की मिशनरी को जाता है, और जिस देश में टैक्स चोरी के आरोप में स्टेफ़ी ग्राफ़ के पिता तक को जेल हो जाती है, वहाँ से आये हुए पैसे का आज तक कोई ऑडिट नहीं हुआ कि पैसा कहाँ से आता है, कहाँ जाता है, कैसे खर्च किया जाता है... आदि।
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी, बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की परी)। इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है, जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम हैं...” जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान मिले। (हिचेन्स का लेख) और हिचेन्स का इंटरव्यू
संतत्व गढ़ना –
मदर टेरेसा जब कभी बीमार हुईं, उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भरती किया गया, उन्हें हमेशा महंगा से महंगा इलाज उपलब्ध करवाया गया, हालांकि ये अच्छी बात है, इसका स्वागत किया जाना चाहिये, लेकिन साथ ही यह नहीं भूलना चाहिये कि यही उपचार यदि वे अनाथ और गरीब बच्चों (जिनके नाम पर उन्हें लाखों डालर का चन्दा मिलता रहा) को भी दिलवातीं तो कोई बात होती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ...एक बार कैंसर से कराहते एक मरीज से उन्होंने कहा कि “तुम्हारा दर्द ठीक वैसा ही है जैसा ईसा मसीह को सूली पर हुआ था, शायद महान मसीह तुम्हें चूम रहे हैं”,,, तब मरीज ने कहा कि “प्रार्थना कीजिये कि जल्दी से ईसा मुझे चूमना बन्द करें...”। टेरेसा की मृत्यु के पश्चात पोप जॉन पॉल को उन्हें “सन्त” घोषित करने की बेहद जल्दबाजी हो गई थी, संत घोषित करने के लिये जो पाँच वर्ष का समय (चमत्कार और पवित्र असर के लिये) दरकार होता है, पोप ने उसमें भी ढील दे दी, ऐसा क्यों हुआ पता नहीं।
मोनिका बेसरा की कहानी –
पश्चिम बंगाल की एक क्रिश्चियन आदिवासी महिला जिसका नाम मोनिका बेसरा है, उसे टीबी और पेट में ट्यूमर हो गया था। बेलूरघाट के सरकारी अस्पताल के डॉ. रंजन मुस्ताफ़ उसका इलाज कर रहे थे। उनके इलाज से मोनिका को काफ़ी फ़ायदा हो रहा था और एक बीमारी लगभग ठीक हो गई थी। मोनिका के पति मि. सीको ने इस बात को स्वीकार किया था। वे बेहद गरीब हैं और उनके पाँच बच्चे थे, कैथोलिक ननों ने उनसे सम्पर्क किया, बच्चों की उत्तम शिक्षा-दीक्षा का आश्वासन दिया, उस परिवार को थोड़ी सी जमीन भी दी और ताबड़तोड़ मोनिका का “ब्रेनवॉश” किया गया, जिससे मदर टेरेसा के “चमत्कार” की कहानी दुनिया को बताई जा सके और उन्हें संत घोषित करने में आसानी हो। अचानक एक दिन मोनिका बेसरा ने अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उसका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया। जब एक चैरिटी संस्था ने उस अस्पताल का दौरा कर हकीकत जानना चाही, तो पाया गया कि मोनिका बेसरा से सम्बन्धित सारा रिकॉर्ड गायब हो चुका है (“टाईम” पत्रिका ने इस बात का उल्लेख किया है)।
“संत” घोषित करने की प्रक्रिया में पहली पायदान होती है जो कहलाती है “बीथिफ़िकेशन”, जो कि 19 अक्टूबर 2003 को हो चुका। “संत” घोषित करने की यह परम्परा कैथोलिकों में बहुत पुरानी है, लेकिन आखिर इसी के द्वारा तो वे लोगों का धर्म में विश्वास(?) बरकरार रखते हैं और सबसे बड़ी बात है कि वेटिकन को इतने बड़े खटराग के लिये सतत “धन” की उगाही भी तो जारी रखना होता है....
(मदर टेरेसा की जो “छवि” है, उसे धूमिल करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, इसीलिये इसमें सन्दर्भ सिर्फ़ वही लिये गये हैं जो पश्चिमी लेखकों ने लिखे हैं, क्योंकि भारतीय लेखकों की आलोचना का उल्लेख करने भर से “सांप्रदायिक” घोषित किये जाने का “फ़ैशन” है... इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाना नहीं है, जो कुछ पहले बोला, लिखा जा चुका है उसे ही संकलित किया गया है, मदर टेरेसा द्वारा किया गया सेवाकार्य अपनी जगह है, लेकिन सच यही है कि कोई भी धर्म हो इस प्रकार की “हरकतें” होती रही हैं, होती रहेंगी, जब तक कि आम जनता अपने कर्मों पर विश्वास करने की बजाय बाबाओं, संतों, माताओं, देवियों आदि के चक्करों में पड़ी रहेगी, इसीलिये यह दूसरा पक्ष प्रस्तुत किया गया है)
सन्दर्भ – महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति साहित्य (डॉ. इन्नैय्या नरिसेत्ति)
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रविवार, 30 दिसम्बर 2007 13:45
फ़ुन्दीबाई सरपंच : बदलते भारत की महिला....
Panchayati Raj Illiteracy and Society
भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है झाबुआ, उसके ग्राम सारंगी की सरपंच हैं श्रीमती फ़ुन्दीबाई। पूर्णतः अशिक्षित, “श्रीमती” लगाने भर से असहज हो जाने वाली, एकदम भोली-भाली, सीधी-सादी आदिवासी महिला सरपंच। आप सोच रहे होंगे कि भला यह कैसे “बदलते भारत की महिला” हो सकती हैं... लेकिन वे हैं... आरक्षण के कारण अजजा महिला सीट घोषित हुई सारंगी ग्राम से फ़ुन्दीबाई सरपंच बनीं। आजादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद रेल की पटरी न देख पाने वाले झाबुआ के अन्दरूनी ग्रामों की हालत आज भी कुछ खास बदली नहीं है। यहाँ के आदिवासियों ने आज तक अफ़सरों और नेताओं को बड़ी-बड़ी जीपों और “चीलगाड़ी” (हेलीकॉप्टर) मे सिर्फ़ दौरे करते देखा है, आदिवासी आज भी गरीब का गरीब है, जबकि झाबुआ और आदिवासियों के नाम पर पिछले पचास वर्षों में जितना पैसा आया, उतने में कम से कम चार मुम्बई और बसाई जा सकती हैं। ऐसे भ्रष्ट माहौल में जब कोई सरपंच बनता है, तो समझो उसकी “लॉटरी” लग जाती है।
फ़ुन्दीबाई एक प्रतिबद्ध महिला सरपंच, साहसी और दबंग, जो अपने इलाके में “स्कूल वाली बाई” के नाम से मशहूर हो गई हैं
लेकिन फ़ुन्दीबाई कोई साधारण महिला नहीं हैं, सरपंच बनते ही सबसे पहले उन्होंने अपनी पंचायत में लड़कियों की ऐसी सूची बनाई जो स्कूल नहीं जा रही, फ़िर खुद उनके घर जा-जाकर उनके माता-पिता को लड़कियों को स्कूल जाने को तैयार किया। समय जरूर लगा, लगता ही है, लेकिन आज ग्राम सारंगी में बालिकाओं ने हायरसेकंडरी में कदम रख दिया है और इस साल लगभग 22 लड़कियों को शासन की तरफ़ से स्कूल जाने के लिये साइकल दिलवा दी गई है। पंचायत के सभी स्कूलों में फ़ुन्दीबाई स्वयं सुबह से भ्रमण करती हैं, जहाँ भी गंदगी या कचरा दिखाई देता है, उसे अपने हाथों से साफ़ करती हैं। लड़कियों को पढ़ाने के बारे में उनका अलग ही “फ़लसफ़ा” है, वे कहती हैं “वगर भणेली सोरी, लाकड़ा नी लोगई बणी जावे” मतलब.. “बगैर पढ़ी-लिखी लड़की काठ की पुतली बनी रह जाती है”। उनका सोचना है कि एक लड़की के पढ़ने से तीन घर सुधर जाते हैं, एक तो उसका मायका, दूसरा उसका ससुराल और तीसरा उसकी होने वाली लड़की का घर..। उच्च जाति के दबदबे वाले समाज में वह साहस और दबंगता से अपनी बात रखती हैं और नतीजा यह कि आसपास के इलाके में वे “स्कूल वाली बाई” के नाम से मशहूर हैं। वे खुद अशिक्षित हैं इसलिये इसकी हानियों से वे अच्छी तरह परिचित थीं, इसलिये उनके एजेंडे में सबसे पहला काम था शिक्षा और खासकर बालिका शिक्षा। वे अपनी तीन लड़कियों को तो पढ़ा ही रही हैं खुद भी प्रारंभिक अक्षर-ज्ञान लेने में लगी हैं। उनका अगला लक्ष्य है ग्राम में स्थित सभी पेड़-पौधों और आसपास के वृक्षों की रक्षा करना और उनकी वृद्धि करना। उनके सरपंच कार्यकाल के तीन वर्ष पूरे हो चुके हैं, अब यदि उन्हें अगला कार्यकाल मिला तो निश्चित ही वे यह भी कर दिखायेंगी।
भारत में पंचायती राज लागू हुए कई वर्ष हो गये। अखबारों, दृश्य-मीडिया आदि में अधिकतर पंचायतों के बारे में, पंचायती राज के बारे में नकारात्मक खबरें ही आती हैं। “फ़लाँ सरपंच अनपढ़ है, फ़लाँ सरपंच ने ऐसा किया, वैसा किया, यहाँ-वहाँ पैसा खा लिया, पैसे का दुरुपयोग किया, अपने रिश्तेदारों और अपने घर के पास निर्माण कार्य करवा लिये.... आदि-आदि। माना कि इनमें से अधिकतर सही भी होती हैं, क्योंकि वाकई में पंचायती राज ने भ्रष्टाचार को साहबों की टेबल से उठाकर गाँव-गाँव में पहुँचा दिया है। लेकिन सवाल उठता है कि मीडिया इस प्रकार की सकारात्मक खबरें क्यों नहीं देता? या सिर्फ़ नकारात्मक खबरों से ही टीआरपी बढ़ती है? या पैसा कमाने के लिये मीडिया ने अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दिया है?
जीवन को जीना और जीवन को ढोना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आजकल का पढ़ा-लिखा युवा या मध्यमवर्गीय आदमी “जैसा है वैसा चलने दो” वाला भाव अपनाये रहता है, उसे कहते हैं जीवन को ढोना, जबकि फ़ुन्दीबाई की सृजनशीलता ही जीवन को जीना कहलाता है। कोई जरूरी नहीं कि उच्च शिक्षा, या भरपूर कमाई या कोई बड़ी महान कृति ही सब कुछ है। समाज में बड़े बदलाव लाने के लिये हमेशा छोटे बदलावों से ही शुरुआत होती है, जरूरत है सिर्फ़ समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी के अहसास की, उच्च शिक्षा तो उसमें मददगार हो सकती है....नितांत जरूरत नहीं।
Panchayati Raj, Panchayat, Sarpanch, Panchayati Raj in M.P., Fundibai Sarpanch, Jhabua District of M.P., Tribal area Jhabua, Illiteracy in Rural Areas, Social Work through panchayat, Schools in Jhabua, Primary Education in Rural India, पंचायती राज, झाबुआ सरपंच, मध्यप्रदेश में पंचायती राज, आदिवासी, अशिक्षा और पंचायत, समाज कार्य, ग्रामीण भारत में प्राथमिक शिक्षा,
भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है झाबुआ, उसके ग्राम सारंगी की सरपंच हैं श्रीमती फ़ुन्दीबाई। पूर्णतः अशिक्षित, “श्रीमती” लगाने भर से असहज हो जाने वाली, एकदम भोली-भाली, सीधी-सादी आदिवासी महिला सरपंच। आप सोच रहे होंगे कि भला यह कैसे “बदलते भारत की महिला” हो सकती हैं... लेकिन वे हैं... आरक्षण के कारण अजजा महिला सीट घोषित हुई सारंगी ग्राम से फ़ुन्दीबाई सरपंच बनीं। आजादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद रेल की पटरी न देख पाने वाले झाबुआ के अन्दरूनी ग्रामों की हालत आज भी कुछ खास बदली नहीं है। यहाँ के आदिवासियों ने आज तक अफ़सरों और नेताओं को बड़ी-बड़ी जीपों और “चीलगाड़ी” (हेलीकॉप्टर) मे सिर्फ़ दौरे करते देखा है, आदिवासी आज भी गरीब का गरीब है, जबकि झाबुआ और आदिवासियों के नाम पर पिछले पचास वर्षों में जितना पैसा आया, उतने में कम से कम चार मुम्बई और बसाई जा सकती हैं। ऐसे भ्रष्ट माहौल में जब कोई सरपंच बनता है, तो समझो उसकी “लॉटरी” लग जाती है।
फ़ुन्दीबाई एक प्रतिबद्ध महिला सरपंच, साहसी और दबंग, जो अपने इलाके में “स्कूल वाली बाई” के नाम से मशहूर हो गई हैं
लेकिन फ़ुन्दीबाई कोई साधारण महिला नहीं हैं, सरपंच बनते ही सबसे पहले उन्होंने अपनी पंचायत में लड़कियों की ऐसी सूची बनाई जो स्कूल नहीं जा रही, फ़िर खुद उनके घर जा-जाकर उनके माता-पिता को लड़कियों को स्कूल जाने को तैयार किया। समय जरूर लगा, लगता ही है, लेकिन आज ग्राम सारंगी में बालिकाओं ने हायरसेकंडरी में कदम रख दिया है और इस साल लगभग 22 लड़कियों को शासन की तरफ़ से स्कूल जाने के लिये साइकल दिलवा दी गई है। पंचायत के सभी स्कूलों में फ़ुन्दीबाई स्वयं सुबह से भ्रमण करती हैं, जहाँ भी गंदगी या कचरा दिखाई देता है, उसे अपने हाथों से साफ़ करती हैं। लड़कियों को पढ़ाने के बारे में उनका अलग ही “फ़लसफ़ा” है, वे कहती हैं “वगर भणेली सोरी, लाकड़ा नी लोगई बणी जावे” मतलब.. “बगैर पढ़ी-लिखी लड़की काठ की पुतली बनी रह जाती है”। उनका सोचना है कि एक लड़की के पढ़ने से तीन घर सुधर जाते हैं, एक तो उसका मायका, दूसरा उसका ससुराल और तीसरा उसकी होने वाली लड़की का घर..। उच्च जाति के दबदबे वाले समाज में वह साहस और दबंगता से अपनी बात रखती हैं और नतीजा यह कि आसपास के इलाके में वे “स्कूल वाली बाई” के नाम से मशहूर हैं। वे खुद अशिक्षित हैं इसलिये इसकी हानियों से वे अच्छी तरह परिचित थीं, इसलिये उनके एजेंडे में सबसे पहला काम था शिक्षा और खासकर बालिका शिक्षा। वे अपनी तीन लड़कियों को तो पढ़ा ही रही हैं खुद भी प्रारंभिक अक्षर-ज्ञान लेने में लगी हैं। उनका अगला लक्ष्य है ग्राम में स्थित सभी पेड़-पौधों और आसपास के वृक्षों की रक्षा करना और उनकी वृद्धि करना। उनके सरपंच कार्यकाल के तीन वर्ष पूरे हो चुके हैं, अब यदि उन्हें अगला कार्यकाल मिला तो निश्चित ही वे यह भी कर दिखायेंगी।
भारत में पंचायती राज लागू हुए कई वर्ष हो गये। अखबारों, दृश्य-मीडिया आदि में अधिकतर पंचायतों के बारे में, पंचायती राज के बारे में नकारात्मक खबरें ही आती हैं। “फ़लाँ सरपंच अनपढ़ है, फ़लाँ सरपंच ने ऐसा किया, वैसा किया, यहाँ-वहाँ पैसा खा लिया, पैसे का दुरुपयोग किया, अपने रिश्तेदारों और अपने घर के पास निर्माण कार्य करवा लिये.... आदि-आदि। माना कि इनमें से अधिकतर सही भी होती हैं, क्योंकि वाकई में पंचायती राज ने भ्रष्टाचार को साहबों की टेबल से उठाकर गाँव-गाँव में पहुँचा दिया है। लेकिन सवाल उठता है कि मीडिया इस प्रकार की सकारात्मक खबरें क्यों नहीं देता? या सिर्फ़ नकारात्मक खबरों से ही टीआरपी बढ़ती है? या पैसा कमाने के लिये मीडिया ने अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दिया है?
जीवन को जीना और जीवन को ढोना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आजकल का पढ़ा-लिखा युवा या मध्यमवर्गीय आदमी “जैसा है वैसा चलने दो” वाला भाव अपनाये रहता है, उसे कहते हैं जीवन को ढोना, जबकि फ़ुन्दीबाई की सृजनशीलता ही जीवन को जीना कहलाता है। कोई जरूरी नहीं कि उच्च शिक्षा, या भरपूर कमाई या कोई बड़ी महान कृति ही सब कुछ है। समाज में बड़े बदलाव लाने के लिये हमेशा छोटे बदलावों से ही शुरुआत होती है, जरूरत है सिर्फ़ समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी के अहसास की, उच्च शिक्षा तो उसमें मददगार हो सकती है....नितांत जरूरत नहीं।
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मंगलवार, 01 जनवरी 2008 13:37
अंबुमणि रामदास के धूम्रपान विरोधी हास्यास्पद निर्णय
Anti Smoking Decisions Ambumani Ramdas
धूम्रपान को रोकने या उसे निरुत्साहित करने के लिये अम्बुमणि रामदास साहब एक से एक नायाब आईडिया लाते रहते हैं, ये बात और है कि उन आईडिया का उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता हासिल करना होता है न कि गम्भीरता से सिगरेट-बीड़ी के प्रयोग को रोकने की। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने संसद के पिछले एक और विधेयक पारित किया है जिसमें सिगरेट कम्पनियों को सिगरेट के पैकेट पर कैन्सरग्रस्त मरीजों की तस्वीरें और “खतरा है” के निशान वाली मानव खोपड़ी का चित्र छापना जरूरी कर दिया गया है। सिगरेट के पैकेट पर गले, दाँत आदि के कैन्सर के भयानक चित्र भी छापने का प्रस्ताव है। इसके पहले भी रामदास जी फ़िल्मों में धूम्रपान के दृश्य न दिखाने का संकल्प व्यक्त कर चुके हैं (ये और बात है कि आज तक इसका पालन करवा नहीं पाये हैं, ना ही यह सम्भव है, क्योंकि टीवी सीरियलों आदि में धूम्रपान चित्रण को वे कैसे नियंत्रित करेंगे?)। एक और हास्यास्पद निर्णय माननीय स्वास्थ्य मंत्री ने जो लिया है, वह यह है कि घर पर सिगरेट पीते समय पुरुष अपनी पत्नियों की इजाजत लें.... क्या बेतुका निर्णय और सुझाव है।
अब सवाल उठता है कि क्या वाकई इस प्रकार के “टोटकों” से धूम्रपान करने वाले पर कोई फ़र्क पड़ता है? या फ़िर इस प्रकार के निर्णय मात्र “चार दिन की चाँदनी” बनकर रह जाते हैं। धूम्रपान का विरोध होना चाहिये, सिगरेट कंपनियों पर कुछ प्रतिबन्ध होना चाहिये, इसका सभी समर्थन करते हैं, लेकिन जब धूम्रपान रोकने के उपायों की बात आती है, तब साफ़-साफ़ किसी “होमवर्क” की कमी का अहसास होता है। साफ़ जाहिर होता है कि विधेयक बगैर सोचे-समझे, बिना किसी तैयारी के और सामाजिक संरचना या इन्सान के व्यवहार का अध्ययन किये बिना लाये जाते हैं और अन्ततः विवादास्पद या हास्यास्पद बन जाते हैं।
भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक की परिस्थितियाँ बहुत-बहुत अलग-अलग हैं, शहरी और ग्रामीण जनता का स्वभाव अलग-अलग है, आर्थिक-सामाजिक स्थितियाँ भी जुदा हैं, ऐसे में दिल्ली में बैठकर सभी को एक ही चाबुक से हाँकना सही नहीं है। भले ही इन उपायों का मकसद धूम्रपान से लोगों को विमुख करना हो, लेकिन यह लक्ष्य साध्य हो पायेगा यह कहना मुश्किल है। क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि भारत में कितने प्रतिशत लोग सिगरेट का पूरा पैकेट खरीदते हैं? महंगी होती जा रही सिगरेट का पूरा पैकेट लेने वाले इक्का-दुक्का लोग ही होते हैं। और जो भी पूरा पैकेट खरीदते हैं उन्हें सिर्फ़ अपने ब्रांड से मतलब होता है, वे उस पर छपे चित्र की ओर झाँकेंगे तक नहीं... उस पैकेट पर क्या लिखा है यह पढ़ना तो और भी दूर की बात होती है। न उनके पास इस बात का समय होता है न ही “इंटरेस्ट”, ऐसे में सिगरेट के पैकेट पर 40 के फ़ोंट साईज में भी लिख दिया जाये “सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है” तो भी उस पर किसी की नजर नहीं पड़ेगी।
घर में धूम्रपान करते समय महिलाओं की अनुमति लेने वाला सुझाव तो निहायत मूर्खता भरा कदम है। भारत के कितने घरों में महिलाओं की बातें पुरुष ईमानदारी से मानते हैं? कृपया महिलायें इसे अन्यथा न लें, लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि घर में पुरुष, महिलाओं की कम ही सुनते हैं, बल्कि एक कदम आगे बढ़कर अपने बच्चे को सिगरेट लेने के लिये भेजने वाले “बाप” भी काफ़ी संख्या में हैं। ऐसे में यह निर्णय या सुझाव किस काम का है?
फ़िल्म या टीवी सीरियल में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबन्ध लगाने से तो समस्या का हल कतई होने वाला नहीं है। मुझे ऐसे सौ व्यक्ति भी दिखा दीजिये जो कहें कि “फ़िल्मों में धूम्रपान दिखाया जाना बन्द करने के बाद मैंने भी धूम्रपान बन्द कर दिया”, समर्थक तर्क देते हैं कि कम से कम बच्चे तो इससे नहीं सीखेंगे, लेकिन बच्चों को टीवी पर दिखाये जाने वाले सेक्स, हिंसा से बचाने का प्रबन्ध तो पहले कर लो यारों!! फ़िर सिगरेट-बीड़ी के पीछे पड़ना।
सिगरेट-बीड़ी पीने वाले लगभग पचास-साठ प्रतिशत लोगों को इसके दुष्परिणामों के बारे में पहले से ही पता होता है, कुछ तो भुगत भी रहे होते हैं फ़िर भी पीना नहीं छोड़ते, ऐसे में इस प्रकार के बेतुके निर्णयों की अपेक्षा अलग-अलग क्षेत्रों के नागरिकों की शैक्षणिक, व्यावसायिक, आर्थिक परिस्थिति का अध्ययन करके उस हिसाब से योजना बनानी चाहिये। सिर्फ़ वाहवाही लूटने के लिये ऊटपटांग निर्णय लेने से कुछ हासिल नहीं होगा।
Anti Smoking Measures, Smoking and A.Ramadaus, Cancer Pictures on Cigarette Packets, Cigarette, Cigarette Beedi Smoking, Smoking in Films, Smoking is Dangerous, Health cautions and Cigarette, Anti Smoking Bill in Parliament, अंबुमणि रामदास, सिगरेट विरोध, धूम्रपान विरोधी मुहिम, सिगरेट पैकेट पर कैंसर, फ़िल्मों में धूम्रपान,
धूम्रपान को रोकने या उसे निरुत्साहित करने के लिये अम्बुमणि रामदास साहब एक से एक नायाब आईडिया लाते रहते हैं, ये बात और है कि उन आईडिया का उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता हासिल करना होता है न कि गम्भीरता से सिगरेट-बीड़ी के प्रयोग को रोकने की। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने संसद के पिछले एक और विधेयक पारित किया है जिसमें सिगरेट कम्पनियों को सिगरेट के पैकेट पर कैन्सरग्रस्त मरीजों की तस्वीरें और “खतरा है” के निशान वाली मानव खोपड़ी का चित्र छापना जरूरी कर दिया गया है। सिगरेट के पैकेट पर गले, दाँत आदि के कैन्सर के भयानक चित्र भी छापने का प्रस्ताव है। इसके पहले भी रामदास जी फ़िल्मों में धूम्रपान के दृश्य न दिखाने का संकल्प व्यक्त कर चुके हैं (ये और बात है कि आज तक इसका पालन करवा नहीं पाये हैं, ना ही यह सम्भव है, क्योंकि टीवी सीरियलों आदि में धूम्रपान चित्रण को वे कैसे नियंत्रित करेंगे?)। एक और हास्यास्पद निर्णय माननीय स्वास्थ्य मंत्री ने जो लिया है, वह यह है कि घर पर सिगरेट पीते समय पुरुष अपनी पत्नियों की इजाजत लें.... क्या बेतुका निर्णय और सुझाव है।
अब सवाल उठता है कि क्या वाकई इस प्रकार के “टोटकों” से धूम्रपान करने वाले पर कोई फ़र्क पड़ता है? या फ़िर इस प्रकार के निर्णय मात्र “चार दिन की चाँदनी” बनकर रह जाते हैं। धूम्रपान का विरोध होना चाहिये, सिगरेट कंपनियों पर कुछ प्रतिबन्ध होना चाहिये, इसका सभी समर्थन करते हैं, लेकिन जब धूम्रपान रोकने के उपायों की बात आती है, तब साफ़-साफ़ किसी “होमवर्क” की कमी का अहसास होता है। साफ़ जाहिर होता है कि विधेयक बगैर सोचे-समझे, बिना किसी तैयारी के और सामाजिक संरचना या इन्सान के व्यवहार का अध्ययन किये बिना लाये जाते हैं और अन्ततः विवादास्पद या हास्यास्पद बन जाते हैं।
भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक की परिस्थितियाँ बहुत-बहुत अलग-अलग हैं, शहरी और ग्रामीण जनता का स्वभाव अलग-अलग है, आर्थिक-सामाजिक स्थितियाँ भी जुदा हैं, ऐसे में दिल्ली में बैठकर सभी को एक ही चाबुक से हाँकना सही नहीं है। भले ही इन उपायों का मकसद धूम्रपान से लोगों को विमुख करना हो, लेकिन यह लक्ष्य साध्य हो पायेगा यह कहना मुश्किल है। क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि भारत में कितने प्रतिशत लोग सिगरेट का पूरा पैकेट खरीदते हैं? महंगी होती जा रही सिगरेट का पूरा पैकेट लेने वाले इक्का-दुक्का लोग ही होते हैं। और जो भी पूरा पैकेट खरीदते हैं उन्हें सिर्फ़ अपने ब्रांड से मतलब होता है, वे उस पर छपे चित्र की ओर झाँकेंगे तक नहीं... उस पैकेट पर क्या लिखा है यह पढ़ना तो और भी दूर की बात होती है। न उनके पास इस बात का समय होता है न ही “इंटरेस्ट”, ऐसे में सिगरेट के पैकेट पर 40 के फ़ोंट साईज में भी लिख दिया जाये “सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है” तो भी उस पर किसी की नजर नहीं पड़ेगी।
घर में धूम्रपान करते समय महिलाओं की अनुमति लेने वाला सुझाव तो निहायत मूर्खता भरा कदम है। भारत के कितने घरों में महिलाओं की बातें पुरुष ईमानदारी से मानते हैं? कृपया महिलायें इसे अन्यथा न लें, लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि घर में पुरुष, महिलाओं की कम ही सुनते हैं, बल्कि एक कदम आगे बढ़कर अपने बच्चे को सिगरेट लेने के लिये भेजने वाले “बाप” भी काफ़ी संख्या में हैं। ऐसे में यह निर्णय या सुझाव किस काम का है?
फ़िल्म या टीवी सीरियल में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबन्ध लगाने से तो समस्या का हल कतई होने वाला नहीं है। मुझे ऐसे सौ व्यक्ति भी दिखा दीजिये जो कहें कि “फ़िल्मों में धूम्रपान दिखाया जाना बन्द करने के बाद मैंने भी धूम्रपान बन्द कर दिया”, समर्थक तर्क देते हैं कि कम से कम बच्चे तो इससे नहीं सीखेंगे, लेकिन बच्चों को टीवी पर दिखाये जाने वाले सेक्स, हिंसा से बचाने का प्रबन्ध तो पहले कर लो यारों!! फ़िर सिगरेट-बीड़ी के पीछे पड़ना।
सिगरेट-बीड़ी पीने वाले लगभग पचास-साठ प्रतिशत लोगों को इसके दुष्परिणामों के बारे में पहले से ही पता होता है, कुछ तो भुगत भी रहे होते हैं फ़िर भी पीना नहीं छोड़ते, ऐसे में इस प्रकार के बेतुके निर्णयों की अपेक्षा अलग-अलग क्षेत्रों के नागरिकों की शैक्षणिक, व्यावसायिक, आर्थिक परिस्थिति का अध्ययन करके उस हिसाब से योजना बनानी चाहिये। सिर्फ़ वाहवाही लूटने के लिये ऊटपटांग निर्णय लेने से कुछ हासिल नहीं होगा।
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शुक्रवार, 04 जनवरी 2008 10:58
निळू फ़ुले : मराठी फ़िल्मों के “प्राण”…
Marathi Film Industry Nilu Fule
हिन्दी फ़िल्मों में जो स्थान प्राण साहब का है, लगभग वही स्थान मराठी सिनेमा में निळू फ़ुले साहब का है। प्राण साहब अपने-आप में एक “लीजेण्ड” हैं, एक आँख छोटी करके, शब्दों को चबा-चबाकर बोलने और “विलेन” नामक पात्र को उस ऊँचाई पर पहुँचाना जहाँ “हीरो” भी छोटा दिखाई देने लगे, और जिस प्रकार से पूरी फ़िल्म पर वे हावी हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार निळू फ़ुले साहब का नाम मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। एक क्रूर, कपटी, धूर्त, धोखेबाज, शोषक जमींदार, चालाक मुनीम आदि की भारतीय फ़िल्मों के जाने-पहचाने रोल निळू फ़ुले जी ने बेहतरीन अन्दाज में प्रस्तुत किये हैं। मराठी फ़िल्मों में निळू फ़ुले का पहनावा अर्थात “टिपिकल” ग्रामीण मराठी “सफ़ेद टोपी, काली जैकेट, और धोती”, लेकिन चेहरे पर चिपकाई हुई धूर्त मुस्कराहट और संवाद-अदायगी का विशेष अन्दाज दर्शकों के दिलोदिमाग पर छा जाता है। उनकी आवाज भी कुछ विशेष प्रकार की है, जिसके कारण जब वे अपने खास स्टाइल में “च्या मा...यला” (माँ की गाली का शॉर्ट फ़ॉर्म) बोलते हैं तो महिलाओं के दिल में कँपकपी पैदा कर देते हैं।
(प्रस्तुत चित्र एक कलाकार द्वारा तैयार किया गया कैरीकैचरनुमा चित्र है, जबकि उनके अभिनय की झलक देखने के लिये लेख में नीचे एक वीडियो क्लिप दिया गया है)

मराठी फ़िल्मोद्योग के अधिकतर कलाकार चूँकि नाटकों की पृष्ठभूमि से आये हुए होते हैं, इसलिये निर्देशक को उनके साथ अपेक्षाकृत कम मेहनत करनी पड़ती है। (मराठी में नाट्य परम्परा कितनी महान, विस्तृत, समृद्ध और सतत चलायमान है यह हिन्दी पाठकों को अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है, फ़िर भी जो लोग नहीं जानते उनके लिये बता दूँ कि आज टीवी, फ़िल्मों और धारावाहिकों के जमाने में भी कई मराठी नाटक हाउसफ़ुल जाते हैं, किसी प्रसिद्ध मराठी नाटक के 2000-3000 शो हो जाना मामूली बात है प्रशान्त दामले जैसे कलाकार एक ही दिन में अलग-अलग नाटकों के चार शो भी कर डालते हैं, बगैर एक भी डायलॉग भूले…)
शुरुआत में निळू फ़ुले ने गाँव में एक आर्ट ग्रुप के साथ जुड़कर कई स्थानीय और ग्रामीण नाटकों में काम किया। कुछ वर्षों बाद उन्होंने नाटक को “प्रोफ़ेशन” के तौर पर अपनाया और एक लोकनाटक “कथा अक्लेच्या कांड्याची” में काम किया। यह नाटक बेहद प्रसिद्ध हुआ। इसके पहले भाग के 2000 शो हुए इसी नाटक के दूसरे भाग के दौरान निर्देशक अनन्तराव माने की निगाह उन पर पड़ी और उन्होंने निळू फ़ुले को मराठी फ़िल्मों में काम करने की सलाह दी फ़ुले की पहली फ़िल्म थी “एक गाव बारा भानगडी” (एक गाँव और बारह लफ़ड़े), यह फ़िल्म सुपरहिट रही, और फ़िर निळू फ़ुले ने पीछे मुड़कर नहीं देखा उसी वर्ष उन्हें लगातार सात हिट फ़िल्में भी मिलीं उनका कहना है कि “प्रत्येक कलाकार को अपने रोल के साथ हमेशा पूरा न्याय करने की कोशिश करना चाहिये, भले ही मैं अपने जीवन में एकदम सीधा-सादा हूँ, लेकिन परदे पर मुझे हमेशा बुरा आदमी ही बताया गया है, लेकिन यह तो काम है और मुझे खुशी है कि मैंने अपना काम इतनी बेहतरीन तरीके से किया है कि आज भी जब मैं समाजसेवा के लिये अन्दरूनी गाँवों में जाता हूँ तो ग्रामीणों के दिमाग में मेरी छवि इतनी गहरी है कि वहाँ की स्कूल शिक्षिकायें, नर्सें और आम गृहिणियाँ आज भी मुझसे दूरी बनाकर रखती हैं, वे लोग अब भी यह सोचते हैं कि जरूर यह कोई शोषण करने या बुरी नजर रखने वाला व्यक्ति है, लेकिन इसे मैं अपनी सफ़लता मानता हूँ…” हालांकि समय-समय पर मराठी में उन्होंने चरित्र भूमिकायें भी की हैं, क्या आपको फ़िल्म “प्रेम प्रतिज्ञा” याद है, जिसमें माधुरी दीक्षित के हाथठेला चलाने वाले दारूबाज पिता की भूमिका में निळू फ़ुले साहब थे
लगभग प्रत्येक मराठी अभिनेता की तरह उनकी पहली पसन्द आज भी नाटक ही हैं, उनका कहना है कि “जो मजा नाटकों में काम करने में आता है, वह फ़िल्मों में कहाँ…हर अभिनेता को नाटक करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है, क्योंकि आपके एक-एक संवाद पर तत्काल सामने से तारीफ़ या हूटिंग की सम्भावना होती है, और वहीं अच्छे अभिनेता की असली परीक्षा होती है…” निळू फ़ुले आज के आधुनिक मराठी नाटकों और युवा निर्देशकों से प्रभावित हैं, उनकी खुद के अभिनय की पसन्दीदा फ़िल्में हैं – सामना, सिंहासन, चोरीचा मामला, शापित, पुढ़चे पाऊल आदि, जबकि नाटकों में उन्हें “सूर्यास्त” और जाहिर है उनका पहला नाटक “कथा अकलेच्या कांड्याची” पसन्द हैं डॉ. श्रीराम लागू के साथ मराठी नाटकों में उनकी जोड़ी बेहतरीन जमती थी, जिनमें उल्लेखनीय हैं फ़िल्म “पिंजरा” और नाटक “सूर्यास्त”, जिसमें दर्शकों ने उन्हें बेहद पसन्द किया
यहाँ प्रस्तुत है एक फ़िल्म की छोटी सी क्लिप जिसमें पाठक उनके “खाँटी विलेन” के रूप के दर्शन कर पायेंगे… हिन्दी दर्शकों को शायद कुछ संवाद समझ में न आयें उनके लिये बताना उचित होगा कि प्रस्तुत दृश्य में निळू फ़ुले अपने पोते को छुड़वाने के लिये पुलिस थाने जाकर अपने खास अन्दाज में “पुलिस” को धमकाते हैं, कोई चिल्लाचोट नहीं, खामख्वाह के चेहरे बिगाड़ने का अभिनय नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आवाज और खास संवाद अदायगी से वह पूरा सीन लूट ले जाते हैं… सीन है मराठी फ़िल्म “सात च्या आत घरात” का और इसमें उनके अभिनय के जलवे देखने लायक हैं…
आप सोच रहे होंगे कि इतने सशक्त अभिनेता और बेहद सादगीपसन्द इन्सान आजकल आखिर क्या कर रहे हैं? मराठी फ़िल्मों में चालीस वर्ष गुजारने और लगभग 140 मराठी और 12 हिन्दी फ़िल्मों में काम करने के बाद निळू फ़ुले आजकल समाजसेवा के साथ सेवानिवृत्ति का जीवन जी रहे हैं। “अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति” के साथ गाँव-गाँव का दौरा करके वे ग्रामीणों को अँधविश्वास से दूर करने, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, झाड़-फ़ूँक आदि के बारे में शिक्षित और जागरूक करने के प्रयास में लगे रहते हैं अपने सहयोग और प्रभाव से उन्होंने एक कोष एकत्रित किया है, जिसके द्वारा संघर्षरत युवा नाटक कलाकारों की आर्थिक मदद भी वे करते हैं मराठी लोकनृत्य “तमाशा” और “लावणी” को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने, लोकप्रिय बनाने और उसे सरकार के स्तर पर हर तरह की मदद दिलवाने के लिये निळू फ़ुले हमेशा प्रयासरत रहते हैं बागवानी, पुस्तकें पढ़ना, अच्छी फ़िल्में देखना आदि शौक वे अब पूरे करते हैं अभिनय का यह तूफ़ानी चेहरा भले ही अब चकाचौंध से दूर हो गया हो, लेकिन उनकी स्टाईल का प्रभाव लोगों के दिलोदिमाग पर हमेशा रहेगा
उन्हें महाराष्ट्र सरकार की ओर से लगातार सन 1972, 1973 और 1974 में सर्वश्रेष्ठ कलाकार के रूप में सम्मानित किया गया था “साहित्य संगीत समिति” का राष्ट्रीय पुरस्कार भी राष्ट्रपति के हाथों ग्रहण कर चुके हैं और नाटक “सूर्यास्त” के लिये उन्हें “नाट्यदर्पण” का अवार्ड भी मिल चुका है ऐसे महान कलाकार, एक बेहद नम्र इन्सान, और समाजसेवी को मेरा सलाम…
Nilu Fule, Neelu Fule, Nilu Phule, Marathi Film Industry, Marathi Films, Marathi Drama, Villain, Hindi films villain, Pran, Social work by film stars, Living Legend in Marathi Films, Dr. Shriram Lagu, Pinjara, Simhasan, निळु फ़ुले, नीलू फ़ुले, मराठी फ़िल्में, मराठी नाटक, प्राण, मराठी खलनायक, हिन्दी फ़िल्म खलनायक, प्रसिद्ध विलेन, पिंजरा, सिंहासन, डॉ श्रीराम लागू
हिन्दी फ़िल्मों में जो स्थान प्राण साहब का है, लगभग वही स्थान मराठी सिनेमा में निळू फ़ुले साहब का है। प्राण साहब अपने-आप में एक “लीजेण्ड” हैं, एक आँख छोटी करके, शब्दों को चबा-चबाकर बोलने और “विलेन” नामक पात्र को उस ऊँचाई पर पहुँचाना जहाँ “हीरो” भी छोटा दिखाई देने लगे, और जिस प्रकार से पूरी फ़िल्म पर वे हावी हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार निळू फ़ुले साहब का नाम मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। एक क्रूर, कपटी, धूर्त, धोखेबाज, शोषक जमींदार, चालाक मुनीम आदि की भारतीय फ़िल्मों के जाने-पहचाने रोल निळू फ़ुले जी ने बेहतरीन अन्दाज में प्रस्तुत किये हैं। मराठी फ़िल्मों में निळू फ़ुले का पहनावा अर्थात “टिपिकल” ग्रामीण मराठी “सफ़ेद टोपी, काली जैकेट, और धोती”, लेकिन चेहरे पर चिपकाई हुई धूर्त मुस्कराहट और संवाद-अदायगी का विशेष अन्दाज दर्शकों के दिलोदिमाग पर छा जाता है। उनकी आवाज भी कुछ विशेष प्रकार की है, जिसके कारण जब वे अपने खास स्टाइल में “च्या मा...यला” (माँ की गाली का शॉर्ट फ़ॉर्म) बोलते हैं तो महिलाओं के दिल में कँपकपी पैदा कर देते हैं।
(प्रस्तुत चित्र एक कलाकार द्वारा तैयार किया गया कैरीकैचरनुमा चित्र है, जबकि उनके अभिनय की झलक देखने के लिये लेख में नीचे एक वीडियो क्लिप दिया गया है)

मराठी फ़िल्मोद्योग के अधिकतर कलाकार चूँकि नाटकों की पृष्ठभूमि से आये हुए होते हैं, इसलिये निर्देशक को उनके साथ अपेक्षाकृत कम मेहनत करनी पड़ती है। (मराठी में नाट्य परम्परा कितनी महान, विस्तृत, समृद्ध और सतत चलायमान है यह हिन्दी पाठकों को अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है, फ़िर भी जो लोग नहीं जानते उनके लिये बता दूँ कि आज टीवी, फ़िल्मों और धारावाहिकों के जमाने में भी कई मराठी नाटक हाउसफ़ुल जाते हैं, किसी प्रसिद्ध मराठी नाटक के 2000-3000 शो हो जाना मामूली बात है प्रशान्त दामले जैसे कलाकार एक ही दिन में अलग-अलग नाटकों के चार शो भी कर डालते हैं, बगैर एक भी डायलॉग भूले…)
शुरुआत में निळू फ़ुले ने गाँव में एक आर्ट ग्रुप के साथ जुड़कर कई स्थानीय और ग्रामीण नाटकों में काम किया। कुछ वर्षों बाद उन्होंने नाटक को “प्रोफ़ेशन” के तौर पर अपनाया और एक लोकनाटक “कथा अक्लेच्या कांड्याची” में काम किया। यह नाटक बेहद प्रसिद्ध हुआ। इसके पहले भाग के 2000 शो हुए इसी नाटक के दूसरे भाग के दौरान निर्देशक अनन्तराव माने की निगाह उन पर पड़ी और उन्होंने निळू फ़ुले को मराठी फ़िल्मों में काम करने की सलाह दी फ़ुले की पहली फ़िल्म थी “एक गाव बारा भानगडी” (एक गाँव और बारह लफ़ड़े), यह फ़िल्म सुपरहिट रही, और फ़िर निळू फ़ुले ने पीछे मुड़कर नहीं देखा उसी वर्ष उन्हें लगातार सात हिट फ़िल्में भी मिलीं उनका कहना है कि “प्रत्येक कलाकार को अपने रोल के साथ हमेशा पूरा न्याय करने की कोशिश करना चाहिये, भले ही मैं अपने जीवन में एकदम सीधा-सादा हूँ, लेकिन परदे पर मुझे हमेशा बुरा आदमी ही बताया गया है, लेकिन यह तो काम है और मुझे खुशी है कि मैंने अपना काम इतनी बेहतरीन तरीके से किया है कि आज भी जब मैं समाजसेवा के लिये अन्दरूनी गाँवों में जाता हूँ तो ग्रामीणों के दिमाग में मेरी छवि इतनी गहरी है कि वहाँ की स्कूल शिक्षिकायें, नर्सें और आम गृहिणियाँ आज भी मुझसे दूरी बनाकर रखती हैं, वे लोग अब भी यह सोचते हैं कि जरूर यह कोई शोषण करने या बुरी नजर रखने वाला व्यक्ति है, लेकिन इसे मैं अपनी सफ़लता मानता हूँ…” हालांकि समय-समय पर मराठी में उन्होंने चरित्र भूमिकायें भी की हैं, क्या आपको फ़िल्म “प्रेम प्रतिज्ञा” याद है, जिसमें माधुरी दीक्षित के हाथठेला चलाने वाले दारूबाज पिता की भूमिका में निळू फ़ुले साहब थे
लगभग प्रत्येक मराठी अभिनेता की तरह उनकी पहली पसन्द आज भी नाटक ही हैं, उनका कहना है कि “जो मजा नाटकों में काम करने में आता है, वह फ़िल्मों में कहाँ…हर अभिनेता को नाटक करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है, क्योंकि आपके एक-एक संवाद पर तत्काल सामने से तारीफ़ या हूटिंग की सम्भावना होती है, और वहीं अच्छे अभिनेता की असली परीक्षा होती है…” निळू फ़ुले आज के आधुनिक मराठी नाटकों और युवा निर्देशकों से प्रभावित हैं, उनकी खुद के अभिनय की पसन्दीदा फ़िल्में हैं – सामना, सिंहासन, चोरीचा मामला, शापित, पुढ़चे पाऊल आदि, जबकि नाटकों में उन्हें “सूर्यास्त” और जाहिर है उनका पहला नाटक “कथा अकलेच्या कांड्याची” पसन्द हैं डॉ. श्रीराम लागू के साथ मराठी नाटकों में उनकी जोड़ी बेहतरीन जमती थी, जिनमें उल्लेखनीय हैं फ़िल्म “पिंजरा” और नाटक “सूर्यास्त”, जिसमें दर्शकों ने उन्हें बेहद पसन्द किया
यहाँ प्रस्तुत है एक फ़िल्म की छोटी सी क्लिप जिसमें पाठक उनके “खाँटी विलेन” के रूप के दर्शन कर पायेंगे… हिन्दी दर्शकों को शायद कुछ संवाद समझ में न आयें उनके लिये बताना उचित होगा कि प्रस्तुत दृश्य में निळू फ़ुले अपने पोते को छुड़वाने के लिये पुलिस थाने जाकर अपने खास अन्दाज में “पुलिस” को धमकाते हैं, कोई चिल्लाचोट नहीं, खामख्वाह के चेहरे बिगाड़ने का अभिनय नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आवाज और खास संवाद अदायगी से वह पूरा सीन लूट ले जाते हैं… सीन है मराठी फ़िल्म “सात च्या आत घरात” का और इसमें उनके अभिनय के जलवे देखने लायक हैं…
आप सोच रहे होंगे कि इतने सशक्त अभिनेता और बेहद सादगीपसन्द इन्सान आजकल आखिर क्या कर रहे हैं? मराठी फ़िल्मों में चालीस वर्ष गुजारने और लगभग 140 मराठी और 12 हिन्दी फ़िल्मों में काम करने के बाद निळू फ़ुले आजकल समाजसेवा के साथ सेवानिवृत्ति का जीवन जी रहे हैं। “अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति” के साथ गाँव-गाँव का दौरा करके वे ग्रामीणों को अँधविश्वास से दूर करने, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, झाड़-फ़ूँक आदि के बारे में शिक्षित और जागरूक करने के प्रयास में लगे रहते हैं अपने सहयोग और प्रभाव से उन्होंने एक कोष एकत्रित किया है, जिसके द्वारा संघर्षरत युवा नाटक कलाकारों की आर्थिक मदद भी वे करते हैं मराठी लोकनृत्य “तमाशा” और “लावणी” को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने, लोकप्रिय बनाने और उसे सरकार के स्तर पर हर तरह की मदद दिलवाने के लिये निळू फ़ुले हमेशा प्रयासरत रहते हैं बागवानी, पुस्तकें पढ़ना, अच्छी फ़िल्में देखना आदि शौक वे अब पूरे करते हैं अभिनय का यह तूफ़ानी चेहरा भले ही अब चकाचौंध से दूर हो गया हो, लेकिन उनकी स्टाईल का प्रभाव लोगों के दिलोदिमाग पर हमेशा रहेगा
उन्हें महाराष्ट्र सरकार की ओर से लगातार सन 1972, 1973 और 1974 में सर्वश्रेष्ठ कलाकार के रूप में सम्मानित किया गया था “साहित्य संगीत समिति” का राष्ट्रीय पुरस्कार भी राष्ट्रपति के हाथों ग्रहण कर चुके हैं और नाटक “सूर्यास्त” के लिये उन्हें “नाट्यदर्पण” का अवार्ड भी मिल चुका है ऐसे महान कलाकार, एक बेहद नम्र इन्सान, और समाजसेवी को मेरा सलाम…
Nilu Fule, Neelu Fule, Nilu Phule, Marathi Film Industry, Marathi Films, Marathi Drama, Villain, Hindi films villain, Pran, Social work by film stars, Living Legend in Marathi Films, Dr. Shriram Lagu, Pinjara, Simhasan, निळु फ़ुले, नीलू फ़ुले, मराठी फ़िल्में, मराठी नाटक, प्राण, मराठी खलनायक, हिन्दी फ़िल्म खलनायक, प्रसिद्ध विलेन, पिंजरा, सिंहासन, डॉ श्रीराम लागू
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शनिवार, 05 जनवरी 2008 19:05
देशभक्ति के लिये मदरसों को कांग्रेस की रिश्वत
Congress, Madarsa, Tricolour and Bribe
सोचा था कि उप्र, गुजरात, हिमाचल में जूते खाने के बाद कांग्रेस को अक्ल आ गई होगी, लेकिन नहीं… बरसों की गन्दी आदतें जल्दी नहीं बदलतीं 31 दिसम्बर के “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” और “रेडिफ़.कॉम” की इस खबर के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने फ़ैसला किया है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में अब से मदरसों में 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फ़हराने पर उन्हें विशेष अनुदान दिया जायेगा अब इस घृणित निर्णय के पीछे कांग्रेस की वही साठ साल पुरानी मानसिकता है या कुछ और कहना मुश्किल है, लेकिन इस निर्णय ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं…
(1) क्या तिरंगा फ़हराना धर्म आधारित है या देशभक्ति आधारित?
(2) क्या मदरसों में तिरंगा फ़हराने के लिये इस प्रकार की रिश्वत जायज है?
(3) 11 वीं पंचवर्षीय योजना से इस प्रकार का विशेष (?) अनुदान देना क्या ईमानदार आयकरदाताओं के साथ विश्वासघात नहीं है?
(4) क्या एक तरह से कांग्रेस यह स्वीकार नहीं कर चुकी, कि मदरसों में तिरंगा नहीं फ़हराया जाता? और वहाँ देशभक्त तैयार नहीं किये जा रहे? लेकिन इसके लिये दण्ड की बजाय पुरस्कार क्यों?
(5) क्या अब कांग्रेस इतनी गिर गई है कि देशभक्ति “खरीदने”(?) के लिये उसे “रिश्वत” का सहारा लेना पड़ रहा है?
इन सब प्रश्नों के मद्देनजर अब ज्यादा कुछ कहने को नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि लगता है कांग्रेस को 2008 के विभिन्न विधानसभाओं और फ़िर आने वाले लोकसभा चुनाव में भी “सबक” सिखाना ही पड़ेगा…इस फ़ैसले के पहले भी “बबुआ” प्रधानमंत्री, बजट में अल्पसंख्यकों के लिये 15% आरक्षित करने का संकल्प ले चुके हैं, यानी उस 15% से जो सड़क बनेगी उस पर सिर्फ़ अल्पसंख्यक ही चलेगा, या उस 15% से जो बाँध बनेगा उससे बाकी लोगों को पानी नहीं मिलेगा… पता नहीं ऐसे फ़ैसलों से कांग्रेस क्या साबित करना चाहती है, लेकिन यह बात पक्की है कि ऐसे नेहरू (जो केरल के मन्दिर में धोती बाँधने के आग्रह पर आगबबूला होते थे, लेकिन अजमेर में खुशी-खुशी टोपी पहनते थे) या फ़िर वह नेहरू जिन्होंने आजादी के वक्त एकमात्र रियासत “कश्मीर” को समझाने(?) का काम हाथ में लिया था और सरदार पटेल को बाकी चार सौ रियासतें संभालने को कहा था… इतिहास गवाह है कि नेहरू से एक रियासत तक ठीक से “हैण्डल” नहीं हो सकी, या शायद जानबूझकर नहीं की… उन्हीं नेहरु की संताने देश को बाँटने के अपने खेल में सतत लगी हुई हैं… यदि जनता अब भी नहीं जागी तो पहले असम सहित उत्तर-पूर्व फ़िर कश्मीर और आधा पश्चिम बंगाल भारत से अलग होते देर नहीं लगेगी… दिक्कत यह है कि जनता और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को “सेक्स” और “सेंसेक्स” से ही फ़ुर्सत नहीं है…
(आम तौर पर मैं बड़े-बड़े ब्लॉग लिखता हूँ, लेकिन इस मामले में गुस्से की अधिकता के कारण और ज्यादा नहीं लिखा जा रहा, यदि आपको भी गुस्सा आ रहा हो तो इस खबर को आगे अपने मित्रों में फ़ैलायें)
Madarasa, Madrsa and Congress, Minority appeasement and Congress, Tricolour of India, National Flag of India, 11th Panchvarshiya yojana, Special Grant to Minorities, Nehru, Sonia and Congress, Union Budget Allocation, Parliament Elections and Vote Politics, Gujarat, Himachal, UP, Taxpayers and Congress, Kerala, Kashmir, Ajmer, मदरसे और कांग्रेस, 11 वीं पंचवर्षीय योजना, अल्पसंख्यकों को विशेष अनुदान, संसद चुनाव, कांग्रेस और वोट राजनीति, तिरंगा, मदरसा, कांग्रेस, भारत का राष्ट्रीय ध्वज, नेहरू, सोनिया और कांग्रेस, केरल, कश्मीर, अजमेर
सोचा था कि उप्र, गुजरात, हिमाचल में जूते खाने के बाद कांग्रेस को अक्ल आ गई होगी, लेकिन नहीं… बरसों की गन्दी आदतें जल्दी नहीं बदलतीं 31 दिसम्बर के “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” और “रेडिफ़.कॉम” की इस खबर के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने फ़ैसला किया है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में अब से मदरसों में 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फ़हराने पर उन्हें विशेष अनुदान दिया जायेगा अब इस घृणित निर्णय के पीछे कांग्रेस की वही साठ साल पुरानी मानसिकता है या कुछ और कहना मुश्किल है, लेकिन इस निर्णय ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं…
(1) क्या तिरंगा फ़हराना धर्म आधारित है या देशभक्ति आधारित?
(2) क्या मदरसों में तिरंगा फ़हराने के लिये इस प्रकार की रिश्वत जायज है?
(3) 11 वीं पंचवर्षीय योजना से इस प्रकार का विशेष (?) अनुदान देना क्या ईमानदार आयकरदाताओं के साथ विश्वासघात नहीं है?
(4) क्या एक तरह से कांग्रेस यह स्वीकार नहीं कर चुकी, कि मदरसों में तिरंगा नहीं फ़हराया जाता? और वहाँ देशभक्त तैयार नहीं किये जा रहे? लेकिन इसके लिये दण्ड की बजाय पुरस्कार क्यों?
(5) क्या अब कांग्रेस इतनी गिर गई है कि देशभक्ति “खरीदने”(?) के लिये उसे “रिश्वत” का सहारा लेना पड़ रहा है?
इन सब प्रश्नों के मद्देनजर अब ज्यादा कुछ कहने को नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि लगता है कांग्रेस को 2008 के विभिन्न विधानसभाओं और फ़िर आने वाले लोकसभा चुनाव में भी “सबक” सिखाना ही पड़ेगा…इस फ़ैसले के पहले भी “बबुआ” प्रधानमंत्री, बजट में अल्पसंख्यकों के लिये 15% आरक्षित करने का संकल्प ले चुके हैं, यानी उस 15% से जो सड़क बनेगी उस पर सिर्फ़ अल्पसंख्यक ही चलेगा, या उस 15% से जो बाँध बनेगा उससे बाकी लोगों को पानी नहीं मिलेगा… पता नहीं ऐसे फ़ैसलों से कांग्रेस क्या साबित करना चाहती है, लेकिन यह बात पक्की है कि ऐसे नेहरू (जो केरल के मन्दिर में धोती बाँधने के आग्रह पर आगबबूला होते थे, लेकिन अजमेर में खुशी-खुशी टोपी पहनते थे) या फ़िर वह नेहरू जिन्होंने आजादी के वक्त एकमात्र रियासत “कश्मीर” को समझाने(?) का काम हाथ में लिया था और सरदार पटेल को बाकी चार सौ रियासतें संभालने को कहा था… इतिहास गवाह है कि नेहरू से एक रियासत तक ठीक से “हैण्डल” नहीं हो सकी, या शायद जानबूझकर नहीं की… उन्हीं नेहरु की संताने देश को बाँटने के अपने खेल में सतत लगी हुई हैं… यदि जनता अब भी नहीं जागी तो पहले असम सहित उत्तर-पूर्व फ़िर कश्मीर और आधा पश्चिम बंगाल भारत से अलग होते देर नहीं लगेगी… दिक्कत यह है कि जनता और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को “सेक्स” और “सेंसेक्स” से ही फ़ुर्सत नहीं है…
(आम तौर पर मैं बड़े-बड़े ब्लॉग लिखता हूँ, लेकिन इस मामले में गुस्से की अधिकता के कारण और ज्यादा नहीं लिखा जा रहा, यदि आपको भी गुस्सा आ रहा हो तो इस खबर को आगे अपने मित्रों में फ़ैलायें)
Madarasa, Madrsa and Congress, Minority appeasement and Congress, Tricolour of India, National Flag of India, 11th Panchvarshiya yojana, Special Grant to Minorities, Nehru, Sonia and Congress, Union Budget Allocation, Parliament Elections and Vote Politics, Gujarat, Himachal, UP, Taxpayers and Congress, Kerala, Kashmir, Ajmer, मदरसे और कांग्रेस, 11 वीं पंचवर्षीय योजना, अल्पसंख्यकों को विशेष अनुदान, संसद चुनाव, कांग्रेस और वोट राजनीति, तिरंगा, मदरसा, कांग्रेस, भारत का राष्ट्रीय ध्वज, नेहरू, सोनिया और कांग्रेस, केरल, कश्मीर, अजमेर
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रविवार, 06 जनवरी 2008 13:46
स्टीव बकनर पगला गये हैं और शरद पवार…???
Bucknor Umpiring Sharad Pawar Indian Cricket
जिस किसी ने सिडनी का टेस्ट मैच देखा होगा, वह साफ़-साफ़ महसूस कर सकता है कि भारत की टीम को हराने के लिये ऑस्ट्रेलिया 13 खिलाड़ियों के साथ खेल रहा था दोनों अम्पायर जिनमें से स्टीव बकनर तो खासतौर पर “भारत विरोधी” रहे हैं, ने मिलकर भारत को हरा ही दिया पहली पारी में चार गलत निर्णय देकर पहले बकनर ने ऑस्ट्रेलिया के बल्लेबाजों को ज्यादा रन बनाने दिये, और आखिरी पारी में दो गलत निर्णय देकर भारत को ऑल-आऊट करवा दिया सबसे शर्मनाक तो वह क्षण था जब गांगुली के आऊट होने के बारे में बकनर ने पोंटिंग से पूछ कर निर्णय लिया वैसे ही बेईमानी के लिये कुख्यात ऑस्ट्रेलियाई कप्तान क्या सही बताते? ठीक यही बात हरभजन के नस्लभेदी टिप्पणी वाले मामले में है, साफ़ दिखाई दे रहा है कि यह आरोप “भज्जी” को दबाव में लाने और फ़िर भारतीय टीम को तोड़ने के लिये लगाया गया है खेल में ‘फ़िक्सिंग’ होती है, होती रहेगी, लेकिन खुद अम्पायर ही मैच फ़िक्स करें यह पहली बार हुआ है शंका तो पहले से ही थी (देखें सायमंड्स सम्बन्धी यह लेख) कि इस दौरे पर ऐसा कुछ होगा ही, लेकिन भारत से बदला लेने के लिये ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी इस स्तर तक गिर जायेंगे, सोचा नहीं था…
इस सबमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि “महान भारत की महान की परम्परा”(??) के अनुसार भारत के कंट्रोल बोर्ड ने अम्पायरिंग की कोई शिकायत नहीं करने का फ़ैसला किया है नपुंसकता की भी कोई हद होती है, और यह कोई पहली बार भी नहीं हो रहा है… याद कीजिये पाकिस्तान में हुए उस मैच को जिसमें संजय मांजरेकर को अम्पायरों ने लगभग अन्धेरे में खेलने के लिये मजबूर कर दिया था, लेकिन हमेशा ऐसे मौकों पर भारतीय बोर्ड “मेमना” बन जाता है जरा श्रीलंका के अर्जुन रणतुंगा से तो सीख लेते, कैसे उसने मुरली का साथ दिया, जब लगातार अम्पायर उसे चकर घोषित कर रहे थे और ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी उस पर नस्लभेदी टिप्पणी कर रहे थे रणतुंगा समूची टीम के साथ मैदान छोड़कर बाहर आ गये थे और फ़िर आईसीसी की हिम्मत नहीं हुई कि जिस मैच में श्रीलंका खेल रहा हो उसमें डेरेल हेयर को अम्पायर रखे
लेकिन कोई भी बड़ा और कठोर निर्णय लेने के लिये जो “रीढ़ की हड्डी” लगती है वह भारतीय नेताओं में कभी भी नहीं थी, ये लोग आज भी गोरों के गुलाम की तरह व्यवहार करते हैं… शर्म करो शरद पवार… यदि अब भी टीम का दौरा जारी रहता है तो लानत है तुम पर…तुम्हारे चयनकर्ताओं पर जो अब ऑस्ट्रेलिया घूमने जा रहे हैं… और दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड के अरबों रुपये पर…
Steve Bucknor, Steve Bucknor and Bad Umpiring, Cheating in Cricket, Ricky Ponting and Austrialian Cricket, Indian Cricket Team, Australia Tour of India, Sunil Gavaskar, Sachin Tendulkar, Mark Benson, Cricket and Match Fixing, स्टीव बकनर, खराब अम्पायरिंग, ऑस्ट्रेलिया और भारत, भारत का ऑस्ट्रेलिया दौरा, क्रिकेट में मैच फ़िक्सिंग
जिस किसी ने सिडनी का टेस्ट मैच देखा होगा, वह साफ़-साफ़ महसूस कर सकता है कि भारत की टीम को हराने के लिये ऑस्ट्रेलिया 13 खिलाड़ियों के साथ खेल रहा था दोनों अम्पायर जिनमें से स्टीव बकनर तो खासतौर पर “भारत विरोधी” रहे हैं, ने मिलकर भारत को हरा ही दिया पहली पारी में चार गलत निर्णय देकर पहले बकनर ने ऑस्ट्रेलिया के बल्लेबाजों को ज्यादा रन बनाने दिये, और आखिरी पारी में दो गलत निर्णय देकर भारत को ऑल-आऊट करवा दिया सबसे शर्मनाक तो वह क्षण था जब गांगुली के आऊट होने के बारे में बकनर ने पोंटिंग से पूछ कर निर्णय लिया वैसे ही बेईमानी के लिये कुख्यात ऑस्ट्रेलियाई कप्तान क्या सही बताते? ठीक यही बात हरभजन के नस्लभेदी टिप्पणी वाले मामले में है, साफ़ दिखाई दे रहा है कि यह आरोप “भज्जी” को दबाव में लाने और फ़िर भारतीय टीम को तोड़ने के लिये लगाया गया है खेल में ‘फ़िक्सिंग’ होती है, होती रहेगी, लेकिन खुद अम्पायर ही मैच फ़िक्स करें यह पहली बार हुआ है शंका तो पहले से ही थी (देखें सायमंड्स सम्बन्धी यह लेख) कि इस दौरे पर ऐसा कुछ होगा ही, लेकिन भारत से बदला लेने के लिये ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी इस स्तर तक गिर जायेंगे, सोचा नहीं था…
इस सबमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि “महान भारत की महान की परम्परा”(??) के अनुसार भारत के कंट्रोल बोर्ड ने अम्पायरिंग की कोई शिकायत नहीं करने का फ़ैसला किया है नपुंसकता की भी कोई हद होती है, और यह कोई पहली बार भी नहीं हो रहा है… याद कीजिये पाकिस्तान में हुए उस मैच को जिसमें संजय मांजरेकर को अम्पायरों ने लगभग अन्धेरे में खेलने के लिये मजबूर कर दिया था, लेकिन हमेशा ऐसे मौकों पर भारतीय बोर्ड “मेमना” बन जाता है जरा श्रीलंका के अर्जुन रणतुंगा से तो सीख लेते, कैसे उसने मुरली का साथ दिया, जब लगातार अम्पायर उसे चकर घोषित कर रहे थे और ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी उस पर नस्लभेदी टिप्पणी कर रहे थे रणतुंगा समूची टीम के साथ मैदान छोड़कर बाहर आ गये थे और फ़िर आईसीसी की हिम्मत नहीं हुई कि जिस मैच में श्रीलंका खेल रहा हो उसमें डेरेल हेयर को अम्पायर रखे
लेकिन कोई भी बड़ा और कठोर निर्णय लेने के लिये जो “रीढ़ की हड्डी” लगती है वह भारतीय नेताओं में कभी भी नहीं थी, ये लोग आज भी गोरों के गुलाम की तरह व्यवहार करते हैं… शर्म करो शरद पवार… यदि अब भी टीम का दौरा जारी रहता है तो लानत है तुम पर…तुम्हारे चयनकर्ताओं पर जो अब ऑस्ट्रेलिया घूमने जा रहे हैं… और दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड के अरबों रुपये पर…
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सोमवार, 07 जनवरी 2008 16:21
शरद पवार जी कम से कम अब तो मर्दानगी दिखाओ…
Sharad Pawar, ICC, Cricket Australia
अम्पायरों की मिलीभगत से पहले तो भारत को सिडनी टेस्ट में हराया गया और फ़िर अब हरभजन को “नस्लभेदी”(??) टिप्पणियों के चलते तीन टेस्ट का प्रतिबन्ध लगा दिया गया है, यानी “जले पर नमक छिड़कना”…शरद पवार जी सुन रहे हैं, या हमेशा की तरह बीसीसीआई के नोटों की गड्डियाँ गिनने में लगे हुए हैं पवार साहब, ये वही बेईमान, धूर्त और गिरा हुआ पोंटिंग है जिसने आपको दक्षिण अफ़्रीका में मंच पर “बडी” कहकर बुलाया था, और मंच से धकिया दिया था विश्वास नहीं होता कि एक “मर्द मराठा” कैसे इस प्रकार के व्यवहार पर चुप बैठ सकता है हरभजन पर नस्लभेदी टिप्पणी का आरोप लगाकर उन्होंने पूरे भारत के सम्मान को ललकारा है, जो लोग खुद ही गाली-गलौज की परम्परा लिये विचरते रहते हैं, उन्होंने एक “प्लान” के तहत हरभजन को बाहर किया है, बदतमीज पोंटिंग को लगातार हरभजन ने आऊट किया इसलिये… आईसीसी का अध्यक्ष भी गोरा, हरभजन की सुनवाई करने वाला भी गोरा… शंका तो पहले से ही थी (देखें सायमंड्स सम्बन्धी यह लेख) कि इस दौरे पर ऐसा कुछ होगा ही, लेकिन भारत से बदला लेने के लिये ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी इस स्तर तक गिर जायेंगे, सोचा नहीं था…
अब तो बात देश के अपमान की आ गई है, यदि अब भी “बिना रीढ़” के बने रहे और गाँधीवादियों(??) के प्रवचन (यानी… “जो हुआ सो हुआ जाने दो…” “खेल भावना से खेलते रहो…” “हमें बल्ले से उनका जवाब देना होगा…” “भारत की महान संस्कृति की दुहाईयाँ…” आदि-आदि) सुनकर कहीं ढीले न पड़ जाना, वरना आगे भी उजड्ड ऑस्ट्रेलियाई हमें आँखें दिखाते रहेंगे सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब हमारा बोर्ड आईसीसी में सबसे अधिक अनुदान देता है, वेस्टईंडीज और बांग्लादेश जैसे भिखारी बोर्डों की मदद करता रहता है, तो हम किसी की क्यों सुनें और क्यों किसी से दबें…? कहा जा रहा है कि अम्पायरों को हटाकर मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाये… जबकि भारत के करोड़ों लोगों की भावनाओं को देखते हुए हमारी निम्न माँगें हैं… जरा कमर सीधी करके आईसीसी के सामने रखिये…
(1) सिडनी टेस्ट को “ड्रॉ” घोषित किया जाये
(2) “ब” से बकनर, “ब” से बेंसन यानी “ब” से बेईमानी… को हमेशा के लिये “ब” से बैन किया जाये
(3) हरभजन पर लगे आरोपों को सिरे से खारिज किया जाये
(4) अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण यह कि टीम को तत्काल वापस बुलाया जाये…
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? आईसीसी दौरा बीच में छोड़ने के लिये भारतीय बोर्ड पर जुर्माना कर देगा? क्या जुर्माना हम नहीं भर सकते, या जुर्माने की रकम खिलाड़ियों और देश के सम्मान से भी ज्यादा है? राष्ट्र के सम्मान के लिये बड़े कदम उठाने के मौके कभी-कभी ही मिलते हैं (जैसा कि कन्धार में मिला था और हमने गँवाया भी), आशंका इसलिये है कि पहले भी सोनिया गाँधी को विदेशी मूल का बताकर फ़िर भी आप उनके चरणों में पड़े हैं, कहीं ऐसी ही “पलटी” फ़िर न मार देना… अब देर न करिये साहब, टीम को वापस बुलाकर आप भी “हीरो” बन जायेंगे… अर्जुन रणतुंगा से कुछ तो सीखो… स्टीव वॉ ने अपने कॉलम में लिखा है कि “इस प्रकार का खेल तो ऑस्ट्रेलियाई संस्कृति है”, अब हमारी बारी है… हम भी दिखा दें कि भारत का युवा जाग रहा है, वह कुसंस्कारित गोरों से दबेगा नहीं, अरे जब हम अमेरिका के प्रतिबन्ध के आगे नहीं झुके तो आईसीसी क्या चीज है… तो पवार साहब बन रहे हैं न हीरो…? क्या कहा… मामला केन्द्र सरकार के पास भेज रहे हैं… फ़िर तो हो गया काम…
Steve Bucknor, Steve Bucknor and Bad Umpiring, Cheating in Cricket, Ricky Ponting and Austrialian Cricket, Indian Cricket Team, Australia Tour of India, Sunil Gavaskar, Sachin Tendulkar, Mark Benson, Cricket and Match Fixing, Sharad Pawar, Ban on Harbhajan Singh, , स्टीव बकनर, खराब अम्पायरिंग, ऑस्ट्रेलिया और भारत, भारत का ऑस्ट्रेलिया दौरा, क्रिकेट में मैच फ़िक्सिंग
अम्पायरों की मिलीभगत से पहले तो भारत को सिडनी टेस्ट में हराया गया और फ़िर अब हरभजन को “नस्लभेदी”(??) टिप्पणियों के चलते तीन टेस्ट का प्रतिबन्ध लगा दिया गया है, यानी “जले पर नमक छिड़कना”…शरद पवार जी सुन रहे हैं, या हमेशा की तरह बीसीसीआई के नोटों की गड्डियाँ गिनने में लगे हुए हैं पवार साहब, ये वही बेईमान, धूर्त और गिरा हुआ पोंटिंग है जिसने आपको दक्षिण अफ़्रीका में मंच पर “बडी” कहकर बुलाया था, और मंच से धकिया दिया था विश्वास नहीं होता कि एक “मर्द मराठा” कैसे इस प्रकार के व्यवहार पर चुप बैठ सकता है हरभजन पर नस्लभेदी टिप्पणी का आरोप लगाकर उन्होंने पूरे भारत के सम्मान को ललकारा है, जो लोग खुद ही गाली-गलौज की परम्परा लिये विचरते रहते हैं, उन्होंने एक “प्लान” के तहत हरभजन को बाहर किया है, बदतमीज पोंटिंग को लगातार हरभजन ने आऊट किया इसलिये… आईसीसी का अध्यक्ष भी गोरा, हरभजन की सुनवाई करने वाला भी गोरा… शंका तो पहले से ही थी (देखें सायमंड्स सम्बन्धी यह लेख) कि इस दौरे पर ऐसा कुछ होगा ही, लेकिन भारत से बदला लेने के लिये ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी इस स्तर तक गिर जायेंगे, सोचा नहीं था…
अब तो बात देश के अपमान की आ गई है, यदि अब भी “बिना रीढ़” के बने रहे और गाँधीवादियों(??) के प्रवचन (यानी… “जो हुआ सो हुआ जाने दो…” “खेल भावना से खेलते रहो…” “हमें बल्ले से उनका जवाब देना होगा…” “भारत की महान संस्कृति की दुहाईयाँ…” आदि-आदि) सुनकर कहीं ढीले न पड़ जाना, वरना आगे भी उजड्ड ऑस्ट्रेलियाई हमें आँखें दिखाते रहेंगे सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब हमारा बोर्ड आईसीसी में सबसे अधिक अनुदान देता है, वेस्टईंडीज और बांग्लादेश जैसे भिखारी बोर्डों की मदद करता रहता है, तो हम किसी की क्यों सुनें और क्यों किसी से दबें…? कहा जा रहा है कि अम्पायरों को हटाकर मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाये… जबकि भारत के करोड़ों लोगों की भावनाओं को देखते हुए हमारी निम्न माँगें हैं… जरा कमर सीधी करके आईसीसी के सामने रखिये…
(1) सिडनी टेस्ट को “ड्रॉ” घोषित किया जाये
(2) “ब” से बकनर, “ब” से बेंसन यानी “ब” से बेईमानी… को हमेशा के लिये “ब” से बैन किया जाये
(3) हरभजन पर लगे आरोपों को सिरे से खारिज किया जाये
(4) अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण यह कि टीम को तत्काल वापस बुलाया जाये…
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? आईसीसी दौरा बीच में छोड़ने के लिये भारतीय बोर्ड पर जुर्माना कर देगा? क्या जुर्माना हम नहीं भर सकते, या जुर्माने की रकम खिलाड़ियों और देश के सम्मान से भी ज्यादा है? राष्ट्र के सम्मान के लिये बड़े कदम उठाने के मौके कभी-कभी ही मिलते हैं (जैसा कि कन्धार में मिला था और हमने गँवाया भी), आशंका इसलिये है कि पहले भी सोनिया गाँधी को विदेशी मूल का बताकर फ़िर भी आप उनके चरणों में पड़े हैं, कहीं ऐसी ही “पलटी” फ़िर न मार देना… अब देर न करिये साहब, टीम को वापस बुलाकर आप भी “हीरो” बन जायेंगे… अर्जुन रणतुंगा से कुछ तो सीखो… स्टीव वॉ ने अपने कॉलम में लिखा है कि “इस प्रकार का खेल तो ऑस्ट्रेलियाई संस्कृति है”, अब हमारी बारी है… हम भी दिखा दें कि भारत का युवा जाग रहा है, वह कुसंस्कारित गोरों से दबेगा नहीं, अरे जब हम अमेरिका के प्रतिबन्ध के आगे नहीं झुके तो आईसीसी क्या चीज है… तो पवार साहब बन रहे हैं न हीरो…? क्या कहा… मामला केन्द्र सरकार के पास भेज रहे हैं… फ़िर तो हो गया काम…
Steve Bucknor, Steve Bucknor and Bad Umpiring, Cheating in Cricket, Ricky Ponting and Austrialian Cricket, Indian Cricket Team, Australia Tour of India, Sunil Gavaskar, Sachin Tendulkar, Mark Benson, Cricket and Match Fixing, Sharad Pawar, Ban on Harbhajan Singh, , स्टीव बकनर, खराब अम्पायरिंग, ऑस्ट्रेलिया और भारत, भारत का ऑस्ट्रेलिया दौरा, क्रिकेट में मैच फ़िक्सिंग
मंगलवार, 08 जनवरी 2008 17:18
लीपा-पोती और मामला रफ़ा-दफ़ा, शर्म करो बीसीसीआई…
BCCI, Sharad Pawar, Australia Cricket Board
एक बार फ़िर वही कहानी दोहराई गई, नेताओं ने हमेशा की तरह देश के आत्मसम्मान की जगह पैसे को तरजीह दी, कुर्सी को प्रमुखता दी| मैंने पिछले लेख में लिखा था कि “शरद पवार कम से कम अब तो मर्दानगी दिखाओ”…लेकिन नहीं समूचे देश के युवाओं ने जमकर विरोध प्रकट किया, मीडिया ने भी (अपने फ़ायदे के लिये ही सही) दिखावटी ही सही, देशभक्ति को दो दिन तक खूब भुनाया इतना सब होने के बावजूद नतीजा वही ढाक के तीन पात| शंका तो उसी समय हो गई थी जब NDTV ने कहा था कि “बीच का रास्ता निकालने की कोशिशें जारी हैं…”, तभी लगा था कि मामले को ठंडा करने के लिये और रफ़ा-दफ़ा करने के लिये परम्परागत भारतीय तरीका अपनाया जायेगा भारत की मूर्ख जनता के लिये यह तरीका एकदम कारगर है, मतलब एक समिति बना दो, जो अपनी रिपोर्ट देगी, फ़िर न्यायालय की दुहाई दो, फ़िर भी बात नहीं बने तो भारतीय संस्कृति और गांधीवाद की दुहाई दो… बस जनता का गुस्सा शान्त हो जायेगा, फ़िर ये लोग अपने “कारनामे” जारी रखने के लिये स्वतन्त्र !!!
आईसीसी के चुनाव होने ही वाले हैं, शरद पवार की निगाह उस कुर्सी पर लगी हुई है, दौरा रद्द करने से पवार के सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब हो जाते, क्योंकि जो लोग हमसे भीख लेते हैं (वेस्टइंडीज, बांग्लादेश आदि) उनका भी भरोसा नहीं था कि वे इस कदम का समर्थन करते, क्योंकि इन देशों के मानस पर भी तो अंग्रेजों की गुलामी हावी है, इसलिये टीम को वहीं अपमानजनक स्थिति में सिडनी में होटल में रुकने को कह दिया गया, ताकि “सौदेबाजी” का समय मिल जाये| दौरा रद्द करने की स्थिति में लगभग आठ करोड़ रुपये का हर्जाना ऑस्ट्रेलिया बोर्ड को देना पड़ता जो बोर्ड अपने चयनकर्ताओं के फ़ालतू दौरों और विभिन्न क्षेत्रीय बोर्डों में जमें चमचेनुमा नेताओं (जिन्हें क्रिकेट बैट कैसे पकड़ते हैं यह तक नहीं पता) के फ़ाइव स्टार होटलों मे रुकने पर करोड़ों रुपये खर्च कर सकता है, वह राष्ट्र के सम्मान के लिये आठ करोड़ रुपये देने में आगे-पीछे होता रहा फ़िर अगला डर था टीम के प्रायोजकों का, उन्हें जो नुकसान (?) होता उसकी भरपाई भी पवार, शुक्ला, बिन्द्रा एन्ड कम्पनी को अपनी जेब से करनी पड़ती? इन नेताओं को क्या मालूम कि वहाँ मैदान पर कितना पसीना बहाना पड़ता है, कैसी-कैसी गालियाँ सुननी पड़ती हैं, शरीर पर गेंदें झेलकर निशान पड़ जाते हैं, इन्हें तो अपने पिछवाड़े में गद्दीदार कुर्सी से मतलब होता है तारीफ़ करनी होगी अनिल कुम्बले की… जैसे तनावपूर्ण माहौल में उसने जैसा सन्तुलित बयान दिया उसने साबित कर दिया कि वे एक सफ़ल कूटनीतिज्ञ भी हैं|
इतना हो-हल्ला मचने के बावजूद बकनर को अभी सिर्फ़ अगले दो टेस्टों से हटाया गया है, हमेशा के लिये रिटायर नहीं किया गया है हरभजन पर जो घृणित आरोप लगे हैं, वे भी आज दिनांक तक नहीं हटे नहीं हैं| आईसीसी का एक और चमचा रंजन मदुगले (जो जाने कितने वर्षों से मैच रेफ़री बना हुआ है) अब बीच-बचाव मतलब मांडवाली (माफ़ करें यह एक मुम्बईया शब्द है) करने पहुँचाया गया है मतलब साफ़ है, बदतमीज और बेईमान पोंटिंग, क्लार्क, सायमंड्स, और घमंडी हेडन और ब्रेड हॉग बेदाग साफ़…(फ़िर से अगले मैच में गाली-गलौज करने को स्वतन्त्र), इन्हीं में से कुछ खिलाड़ी कुछ सालों बाद आईपीएल या आईसीएल में खेलकर हमारी जेबों से ही लाखों रुपये ले उड़ेंगे और हमारे क्रिकेट अधिकारी “क्रिकेट के महान खेल…”, “महान भारतीय संस्कृति” आदि की सनातन दुहाई देती रहेंगे|
सच कहा जाये तो इसीलिये इंजमाम-उल-हक और अर्जुन रणतुंगा को सलाम करने को जी चाहता है, जैसे ही उनके देश का अपमान होने की नौबत आई, उन्होंने मैदान छोड़ने में एक पल की देर नहीं की…| अब देखना है कि भारतीय खिलाड़ी “बगावत” करते हैं या “मैच फ़ीस” की लालच में आगे खेलते रहते हैं… इंतजार इस बात का है कि हरभजन के मामले में आईसीसी कौन सा “कूटनीतिक” पैंतरा बदलती है और यदि उसे दोषी करार दिया जाता है, तो खिलाड़ी और बीसीसीआई क्या करेंगे? इतिहास में तो सिडनी में हार दर्ज हो गई…कम से कम अब तो नया इतिहास लिखो…
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एक बार फ़िर वही कहानी दोहराई गई, नेताओं ने हमेशा की तरह देश के आत्मसम्मान की जगह पैसे को तरजीह दी, कुर्सी को प्रमुखता दी| मैंने पिछले लेख में लिखा था कि “शरद पवार कम से कम अब तो मर्दानगी दिखाओ”…लेकिन नहीं समूचे देश के युवाओं ने जमकर विरोध प्रकट किया, मीडिया ने भी (अपने फ़ायदे के लिये ही सही) दिखावटी ही सही, देशभक्ति को दो दिन तक खूब भुनाया इतना सब होने के बावजूद नतीजा वही ढाक के तीन पात| शंका तो उसी समय हो गई थी जब NDTV ने कहा था कि “बीच का रास्ता निकालने की कोशिशें जारी हैं…”, तभी लगा था कि मामले को ठंडा करने के लिये और रफ़ा-दफ़ा करने के लिये परम्परागत भारतीय तरीका अपनाया जायेगा भारत की मूर्ख जनता के लिये यह तरीका एकदम कारगर है, मतलब एक समिति बना दो, जो अपनी रिपोर्ट देगी, फ़िर न्यायालय की दुहाई दो, फ़िर भी बात नहीं बने तो भारतीय संस्कृति और गांधीवाद की दुहाई दो… बस जनता का गुस्सा शान्त हो जायेगा, फ़िर ये लोग अपने “कारनामे” जारी रखने के लिये स्वतन्त्र !!!
आईसीसी के चुनाव होने ही वाले हैं, शरद पवार की निगाह उस कुर्सी पर लगी हुई है, दौरा रद्द करने से पवार के सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब हो जाते, क्योंकि जो लोग हमसे भीख लेते हैं (वेस्टइंडीज, बांग्लादेश आदि) उनका भी भरोसा नहीं था कि वे इस कदम का समर्थन करते, क्योंकि इन देशों के मानस पर भी तो अंग्रेजों की गुलामी हावी है, इसलिये टीम को वहीं अपमानजनक स्थिति में सिडनी में होटल में रुकने को कह दिया गया, ताकि “सौदेबाजी” का समय मिल जाये| दौरा रद्द करने की स्थिति में लगभग आठ करोड़ रुपये का हर्जाना ऑस्ट्रेलिया बोर्ड को देना पड़ता जो बोर्ड अपने चयनकर्ताओं के फ़ालतू दौरों और विभिन्न क्षेत्रीय बोर्डों में जमें चमचेनुमा नेताओं (जिन्हें क्रिकेट बैट कैसे पकड़ते हैं यह तक नहीं पता) के फ़ाइव स्टार होटलों मे रुकने पर करोड़ों रुपये खर्च कर सकता है, वह राष्ट्र के सम्मान के लिये आठ करोड़ रुपये देने में आगे-पीछे होता रहा फ़िर अगला डर था टीम के प्रायोजकों का, उन्हें जो नुकसान (?) होता उसकी भरपाई भी पवार, शुक्ला, बिन्द्रा एन्ड कम्पनी को अपनी जेब से करनी पड़ती? इन नेताओं को क्या मालूम कि वहाँ मैदान पर कितना पसीना बहाना पड़ता है, कैसी-कैसी गालियाँ सुननी पड़ती हैं, शरीर पर गेंदें झेलकर निशान पड़ जाते हैं, इन्हें तो अपने पिछवाड़े में गद्दीदार कुर्सी से मतलब होता है तारीफ़ करनी होगी अनिल कुम्बले की… जैसे तनावपूर्ण माहौल में उसने जैसा सन्तुलित बयान दिया उसने साबित कर दिया कि वे एक सफ़ल कूटनीतिज्ञ भी हैं|
इतना हो-हल्ला मचने के बावजूद बकनर को अभी सिर्फ़ अगले दो टेस्टों से हटाया गया है, हमेशा के लिये रिटायर नहीं किया गया है हरभजन पर जो घृणित आरोप लगे हैं, वे भी आज दिनांक तक नहीं हटे नहीं हैं| आईसीसी का एक और चमचा रंजन मदुगले (जो जाने कितने वर्षों से मैच रेफ़री बना हुआ है) अब बीच-बचाव मतलब मांडवाली (माफ़ करें यह एक मुम्बईया शब्द है) करने पहुँचाया गया है मतलब साफ़ है, बदतमीज और बेईमान पोंटिंग, क्लार्क, सायमंड्स, और घमंडी हेडन और ब्रेड हॉग बेदाग साफ़…(फ़िर से अगले मैच में गाली-गलौज करने को स्वतन्त्र), इन्हीं में से कुछ खिलाड़ी कुछ सालों बाद आईपीएल या आईसीएल में खेलकर हमारी जेबों से ही लाखों रुपये ले उड़ेंगे और हमारे क्रिकेट अधिकारी “क्रिकेट के महान खेल…”, “महान भारतीय संस्कृति” आदि की सनातन दुहाई देती रहेंगे|
सच कहा जाये तो इसीलिये इंजमाम-उल-हक और अर्जुन रणतुंगा को सलाम करने को जी चाहता है, जैसे ही उनके देश का अपमान होने की नौबत आई, उन्होंने मैदान छोड़ने में एक पल की देर नहीं की…| अब देखना है कि भारतीय खिलाड़ी “बगावत” करते हैं या “मैच फ़ीस” की लालच में आगे खेलते रहते हैं… इंतजार इस बात का है कि हरभजन के मामले में आईसीसी कौन सा “कूटनीतिक” पैंतरा बदलती है और यदि उसे दोषी करार दिया जाता है, तो खिलाड़ी और बीसीसीआई क्या करेंगे? इतिहास में तो सिडनी में हार दर्ज हो गई…कम से कम अब तो नया इतिहास लिखो…
Steve Bucknor, Steve Bucknor and Bad Umpiring, Cheating in Cricket, Ricky Ponting and Austrialian Cricket, Indian Cricket Team, Australia Tour of India, Sunil Gavaskar, Sachin Tendulkar, Mark Benson, Cricket and Match Fixing, Sharad Pawar, Ban on Harbhajan Singh, , स्टीव बकनर, खराब अम्पायरिंग, ऑस्ट्रेलिया और भारत, भारत का ऑस्ट्रेलिया दौरा, क्रिकेट में मैच फ़िक्सिंग
रविवार, 13 जनवरी 2008 12:46
अंग्रेजी माध्यम स्कूल और धक्के खाते माता-पिता
English Medium Convent, Parents Children
मेरे शहर में कई स्कूल हैं (जैसे हर शहर में होते हैं), कई स्कूलों में से एक-दो कथित प्रतिष्ठित स्कूल(?) भी हैं (जैसे कि हर शहर में होते हैं), और उन एक-दो स्कूलों के नाम में “सेंट” या “पब्लिक” है (यह भी हर शहर में होता है)। जिस स्कूल के नाम में “सेंट” जुड़ा होता है, वह तत्काल प्रतिष्ठित होने की ओर अग्रसर हो जाता है। इसका सबसे पहला कारण तो यह है कि “सेंट” नामधारी स्कूलों में आने वाले माता-पिता भी “सेंट” लगाये होते हैं, दूसरा कारण है “सन्त” को “सेंट” बोलने पर साम्प्रदायिकता की उबकाई की बजाय धर्मनिरपेक्षता की डकार आती है, और भरे पेट वालों को भला-भला लगता है। रही बात “पब्लिक” नामधारी स्कूलों की…तो ऐसे स्कूल वही होते हैं, जहाँ आम पब्लिक घुसना तो दूर उस तरफ़ देखने में भी संकोच करती है।
ऐसे ही एक “सेंट”धारी स्कूल में कल एडमिशन फ़ॉर्म मिलने की तारीख थी, और जैसा कि “हर शहर में होता है” यहाँ भी रात 12 बजे से पालक अपने नौनिहाल का भविष्य सुधारने(?) के लिये लाइन में लग गये थे। खिड़की खुलने का समय था सुबह नौ बजे, कई “विशिष्ट” (वैसे तो लगभग सभी विशिष्ट ही थे) लोगों ने अपने-अपने नौकरों को लाईन में लगा रखा था। खिड़की खुलने पर एक भदेस दिखने वाले लेकिन अंग्रेजी बोलने वाले बाबू के दर्शन लोगों को हुए, जो लगभग झिड़कने के अन्दाज में उन “खास” लोगों से बात कर रहा था, “जन्म प्रमाणपत्र की फ़ोटोकॉपी लेकर आओ, फ़िर देखेंगे”, “यह बच्चे का ब्लैक-व्हाईट फ़ोटो नहीं चलेगा, कलर वाला लगाकर लाओ”, “फ़ॉर्म काले स्केच पेन से ही भरना”… आदि-आदि निर्देश (बल्कि आदेश कहना उचित होगा) वह लगे हाथों देता जा रहा था।
मुझ जैसे आम आदमी को जो यत्र-तत्र और रोज-ब-रोज धक्के खाता रहता है, यह देखकर बड़ा सुकून सा महसूस हुआ कि “चलो कोई तो है, जो इन रईसों को भी धक्के खिला सकता है, झिड़क सकता है, हड़का सकता है, लाईन में लगने पर मजबूर कर सकता है…”। स्कूल के बाहर खड़ी चमचमाती कारों को देखकर यह अहसास हो रहा था कि “सेंट” वाले स्कूल कितने “ताकतवर” हैं, जहाँ एडमिशन के लिये स्कूली शिक्षा मंत्री की सिफ़ारिश भी पूरी तरह काम नहीं कर रही थी। एक फ़ॉर्म की कीमत थी मात्र 200 रुपये, स्कूल वालों को कुल बच्चे लेने थे 100, लेकिन फ़ॉर्म बिके लगभग 1000, यानी दो लाख रुपये की “सूखी कमाई”, फ़िर इसके बाद दौर शुरु होगा “इंटरव्यू” का, जिसके लिये अभी से माता-पिता की नींदें उड़ चुकी हैं, यदि इंटरव्यू में पास हो गया (मतलब बगैर रसीद के भारी डोनेशन को लेकर सौदा पट जाये) तो फ़िर आजीवन स्कूल वालों की गालियाँ भी खाना है, क्योंकि यह मूर्खतापूर्ण मान्यता विकसित की गई है कि इन स्कूलों से "शासक" निकलते हैं, बाकी स्कूलों से "कामगार", जबकि यही वह स्कूल है, जहाँ हिन्दी में बातें करने पर दण्ड लगता है, बिन्दी लगा कर आने पर लड़कियों को सजा दी जाती है, और मेहंदी लगाकर आने पर कहर ही बरपा हो जाता है। लेकिन बच्चे के उज्जवल भविष्य(?) के लिये यह सब तो सहना ही होगा…
English Medium Schools, Education in English Medium, Convent Schools and Hindi, Secularism and Convent, Admission in English Medium Schools, Donations in Schools, इंग्लिश मीडियम स्कूल, अंग्रेजी शिक्षा माध्यम स्कूल, कॉन्वेंट स्कूल और हिन्दी, डोनेशन स्कूल और शिक्षा, धर्मनिरपेक्षता और कॉन्वेंट, स्कूल एडमिशन और अंग्रेजी,
मेरे शहर में कई स्कूल हैं (जैसे हर शहर में होते हैं), कई स्कूलों में से एक-दो कथित प्रतिष्ठित स्कूल(?) भी हैं (जैसे कि हर शहर में होते हैं), और उन एक-दो स्कूलों के नाम में “सेंट” या “पब्लिक” है (यह भी हर शहर में होता है)। जिस स्कूल के नाम में “सेंट” जुड़ा होता है, वह तत्काल प्रतिष्ठित होने की ओर अग्रसर हो जाता है। इसका सबसे पहला कारण तो यह है कि “सेंट” नामधारी स्कूलों में आने वाले माता-पिता भी “सेंट” लगाये होते हैं, दूसरा कारण है “सन्त” को “सेंट” बोलने पर साम्प्रदायिकता की उबकाई की बजाय धर्मनिरपेक्षता की डकार आती है, और भरे पेट वालों को भला-भला लगता है। रही बात “पब्लिक” नामधारी स्कूलों की…तो ऐसे स्कूल वही होते हैं, जहाँ आम पब्लिक घुसना तो दूर उस तरफ़ देखने में भी संकोच करती है।
ऐसे ही एक “सेंट”धारी स्कूल में कल एडमिशन फ़ॉर्म मिलने की तारीख थी, और जैसा कि “हर शहर में होता है” यहाँ भी रात 12 बजे से पालक अपने नौनिहाल का भविष्य सुधारने(?) के लिये लाइन में लग गये थे। खिड़की खुलने का समय था सुबह नौ बजे, कई “विशिष्ट” (वैसे तो लगभग सभी विशिष्ट ही थे) लोगों ने अपने-अपने नौकरों को लाईन में लगा रखा था। खिड़की खुलने पर एक भदेस दिखने वाले लेकिन अंग्रेजी बोलने वाले बाबू के दर्शन लोगों को हुए, जो लगभग झिड़कने के अन्दाज में उन “खास” लोगों से बात कर रहा था, “जन्म प्रमाणपत्र की फ़ोटोकॉपी लेकर आओ, फ़िर देखेंगे”, “यह बच्चे का ब्लैक-व्हाईट फ़ोटो नहीं चलेगा, कलर वाला लगाकर लाओ”, “फ़ॉर्म काले स्केच पेन से ही भरना”… आदि-आदि निर्देश (बल्कि आदेश कहना उचित होगा) वह लगे हाथों देता जा रहा था।
मुझ जैसे आम आदमी को जो यत्र-तत्र और रोज-ब-रोज धक्के खाता रहता है, यह देखकर बड़ा सुकून सा महसूस हुआ कि “चलो कोई तो है, जो इन रईसों को भी धक्के खिला सकता है, झिड़क सकता है, हड़का सकता है, लाईन में लगने पर मजबूर कर सकता है…”। स्कूल के बाहर खड़ी चमचमाती कारों को देखकर यह अहसास हो रहा था कि “सेंट” वाले स्कूल कितने “ताकतवर” हैं, जहाँ एडमिशन के लिये स्कूली शिक्षा मंत्री की सिफ़ारिश भी पूरी तरह काम नहीं कर रही थी। एक फ़ॉर्म की कीमत थी मात्र 200 रुपये, स्कूल वालों को कुल बच्चे लेने थे 100, लेकिन फ़ॉर्म बिके लगभग 1000, यानी दो लाख रुपये की “सूखी कमाई”, फ़िर इसके बाद दौर शुरु होगा “इंटरव्यू” का, जिसके लिये अभी से माता-पिता की नींदें उड़ चुकी हैं, यदि इंटरव्यू में पास हो गया (मतलब बगैर रसीद के भारी डोनेशन को लेकर सौदा पट जाये) तो फ़िर आजीवन स्कूल वालों की गालियाँ भी खाना है, क्योंकि यह मूर्खतापूर्ण मान्यता विकसित की गई है कि इन स्कूलों से "शासक" निकलते हैं, बाकी स्कूलों से "कामगार", जबकि यही वह स्कूल है, जहाँ हिन्दी में बातें करने पर दण्ड लगता है, बिन्दी लगा कर आने पर लड़कियों को सजा दी जाती है, और मेहंदी लगाकर आने पर कहर ही बरपा हो जाता है। लेकिन बच्चे के उज्जवल भविष्य(?) के लिये यह सब तो सहना ही होगा…
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सोमवार, 14 जनवरी 2008 17:30
एक बेहतरीन कलाकार के असाधारण चित्र…
Road Art Pictures Drawings Artist
सड़क पर बनाये जाने वाले चित्रों की श्रृंखला…यहाँ प्रस्तुत चित्र जूलियन बीवर नामक अंग्रेज चित्रकार ने बनाये हुए हैं, इन चित्रों की खासियत इनका 3-D दिखना है… सिर्फ़ रंगीन पेंसिलों, चॉक, वाटर कलर और पेस्ट कलर से ये चित्र बनाये हैं। यह कलाकार सड़कों पर, फ़ुटपाथ की टाइल्स पर चित्र बनाता है। जूलियन साहब फ़्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैंड आदि यूरोपीय देशों में अपने कला-कौशल के हाथ दिखा चुके हैं… आप खुद देखिये कि यह चित्र कितने उम्दा हैं और कितना असाधारण कलाकार है, और क्या गजब की उसकी दृष्टि है…
पहले चित्र में आपको कोकाकोला की बोतल की छाया तक दिखाई देगी…

इस चित्र में बहता हुआ पानी बिलकुल असली लगता है, आपको आश्चर्य होगा कि जो पानी का पाईप दिखाया गया है वह भी चित्र ही है…

रास्ते के बीच में छोटी सी झील और उसमें तैरती नाव (साथ में नाव की परछाँई भी)…

बीच सड़क पर एक गढ़ढा और उसमें बसा एक छोटा शहर…

फ़ुटपाथ के नीचे की बिलकुल असली लगने वाली पाईप लाइन, और एक फ़व्वारा भी…

सड़क की हटी हुई टाइल्स का हूबहू चित्र (यहाँ तक कि गुजरने वाले लोग भी समझते हैं कि शायद इस जगह सड़क नहीं है), है ना कमाल की चीज…

स्वयं चित्रकार ने अपने कलर बॉक्स का चित्र बनाया है…

एक असली और एक नकली (बीयर का कौन सा गिलास असली है?)

सड़क के बीच सोने की खान…

ये रहा स्वीमिंग पूल और उसमें एक हसीना…

और यह रहा इन चित्रों के 3-D होने का राज… यह चित्र स्वीमिंग पूल वाली हसीना का ही है, दूसरी तरफ़ से…

जैसे कि यह रहा पृथ्वी से "गरीबी हटाओ" के नारे के साथ कलाकार…

और वही चित्र साईड एंगल से (लगभग चालीस फ़ुट लम्बा) है ना असाधारण कलाकार?

और अन्त में "बच्चे को खाने जा रहा केकड़ा"… चित्र में सड़क की टाईल्स स्पष्ट दिखाई दे रही हैं…

ऐसे उम्दा कलाकार की कलाकारी को मेरा सलाम…
Road Artist, Art of Chalk, Water Colour, Leonardo da vinci, 3-D Graphics, Julian Beevar, England, France, Europe, जूलियन बीवर, सड़क पर चित्रकारी, चॉक, वाटर कलर, अंग्रेज कलाकार,
सड़क पर बनाये जाने वाले चित्रों की श्रृंखला…यहाँ प्रस्तुत चित्र जूलियन बीवर नामक अंग्रेज चित्रकार ने बनाये हुए हैं, इन चित्रों की खासियत इनका 3-D दिखना है… सिर्फ़ रंगीन पेंसिलों, चॉक, वाटर कलर और पेस्ट कलर से ये चित्र बनाये हैं। यह कलाकार सड़कों पर, फ़ुटपाथ की टाइल्स पर चित्र बनाता है। जूलियन साहब फ़्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैंड आदि यूरोपीय देशों में अपने कला-कौशल के हाथ दिखा चुके हैं… आप खुद देखिये कि यह चित्र कितने उम्दा हैं और कितना असाधारण कलाकार है, और क्या गजब की उसकी दृष्टि है…
पहले चित्र में आपको कोकाकोला की बोतल की छाया तक दिखाई देगी…
इस चित्र में बहता हुआ पानी बिलकुल असली लगता है, आपको आश्चर्य होगा कि जो पानी का पाईप दिखाया गया है वह भी चित्र ही है…
रास्ते के बीच में छोटी सी झील और उसमें तैरती नाव (साथ में नाव की परछाँई भी)…
बीच सड़क पर एक गढ़ढा और उसमें बसा एक छोटा शहर…
फ़ुटपाथ के नीचे की बिलकुल असली लगने वाली पाईप लाइन, और एक फ़व्वारा भी…
सड़क की हटी हुई टाइल्स का हूबहू चित्र (यहाँ तक कि गुजरने वाले लोग भी समझते हैं कि शायद इस जगह सड़क नहीं है), है ना कमाल की चीज…
स्वयं चित्रकार ने अपने कलर बॉक्स का चित्र बनाया है…
एक असली और एक नकली (बीयर का कौन सा गिलास असली है?)
सड़क के बीच सोने की खान…
ये रहा स्वीमिंग पूल और उसमें एक हसीना…
और यह रहा इन चित्रों के 3-D होने का राज… यह चित्र स्वीमिंग पूल वाली हसीना का ही है, दूसरी तरफ़ से…
जैसे कि यह रहा पृथ्वी से "गरीबी हटाओ" के नारे के साथ कलाकार…
और वही चित्र साईड एंगल से (लगभग चालीस फ़ुट लम्बा) है ना असाधारण कलाकार?
और अन्त में "बच्चे को खाने जा रहा केकड़ा"… चित्र में सड़क की टाईल्स स्पष्ट दिखाई दे रही हैं…
ऐसे उम्दा कलाकार की कलाकारी को मेरा सलाम…
Road Artist, Art of Chalk, Water Colour, Leonardo da vinci, 3-D Graphics, Julian Beevar, England, France, Europe, जूलियन बीवर, सड़क पर चित्रकारी, चॉक, वाटर कलर, अंग्रेज कलाकार,
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