
Super User
I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai.
I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles.
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सोमवार, 12 नवम्बर 2007 20:27
फ़लज्योतिष परखने के लिये कुछ प्रयोग (करके देखें)
Experiments for Astrology Try yourself
अपने पिछले ब्लॉग में जब मैंने अपनी कुंडली का उदाहरण दिया था उस वक्त सदा की तरह Anonymous (बेनामी) महोदय ने सदाबहार उत्तर दिया था कि आपकी जन्म कुंडली ही गलत होगी तो कोई भी ज्योतिषी कैसे सही भविष्यकथन करेगा। उससे एक सवाल दिमाग में कौंधा कि यदि इसका उलटा प्रश्न ज्योतिषी महोदय से किया जाये कि यदि जन्म समय सही हो और उसी अनुरूप कुंडली बनी हो तो क्या भविष्यकथन सही होगा? क्या उत्तर मिलेगा? उत्तर भी हमें पहले ही मालूम है- “मूलतः जन्म समय को लेकर ज्योतिषियों में विवाद हैं”....
तर्कबुद्धि से देखा जाये तो जिस समय गर्भधारणा होती है उसे ही जन्म समय माना जाना चाहिये, लेकिन वह समय तो कोई भी नहीं बता सकता। बच्चा जब बाहर आकर रोता है या कहें पहला श्वास लेता है उसे ही आमतौर पर जन्म समय माना जाता है। पहले बालक का सिर दिखने, बच्चा पूरी तरह से बाहर आने, नाल कटने आदि अनेक बातों पर जन्म समय निर्धारित की जाती थी। इससे एक बात तो साफ़ है कि “जन्म का अचूक समय बता पाना लगभग असम्भव है”। अचूक जन्मसमय पर ही कुंडली की सार्थकता सिद्ध होती है। उसी अचूक कुंडली पर भविष्यकथन आधारित होता है, मतलब यदि भविष्यकथन सही नहीं निकला तो “आपकी जन्म कुंडली गलत होगी”, यह तर्क तत्काल आगे कर दिया जाता है। अब ज्योतिषी महोदय ही अज्ञानियों को बतायें कि वे किस जन्म समय के आधार पर बनी कुंडली को अचूक जन्म कुंडली मानेंगे?
जब हम किसी से “कितने बजे हैं” पूछते हैं तो वह कभी भी ऐसा नहीं कहता कि 3 बजकर 58 मिनट और 50 सेकंड हुए हैं, सीधे “चार बजे हैं” कहा जाता है। डिजिटल घड़ी में भी 03.59 के बाद अगले मिनट पर 04.00 दर्शाता है, वैसे देखा जाये तो एक ही मिनट बढ़ा, लेकिन तीन की जगह चार का अंक आ गया होता है। ठीक यही कुंडली के समय भी होता है, इस प्रकार के “बॉर्डर” पर आये हुए समय में नर्स या डॉक्टर समय का एक मोटा अन्दाज बताते हैं, क्या उससे एकदम सही कुंडली बनाना सम्भव है? जबकि 5-10 मिनट के अन्तर पर कुंडली के प्रथम स्थान राशि का आँकड़ा बदल सकता है। सामन्यतया ज्योतिषी जो कुंडली देखते हैं उसे “गुटका” कुंडली कहना चाहिये, क्योंकि उसमें पाँच-दस मिनटों का हेर-फ़ेर की सम्भावना होती है। हालांकि ज्योतिषी ऐसा आभास देते हैं मानो उन पाँच मिनटों के अन्तराल से भारी उलटफ़ेर हो जायेगा, क्योंकि यदि ऐसा वे नहीं करेंगे तो “आपकी कुंडली गलत बनी हुई है” वाला तर्क कभी नहीं दे पायेंगे। और यदि उनके बताये अनुसार जन्म समय की कुंडली बनाई जाये तब भी वे यह दावे से नहीं कह सकते कि जातक के भविष्यकथन की अस्सी प्रतिशत बातें भी सही निकलेंगी (बीस प्रतिशत का Standard Error हम मान लेते हैं)। तात्पर्य यह कि जन्म समय की अचूकता पर कुंडली अध्ययन और भविष्य निर्भर नहीं होता।
गत्यात्मक ज्योतिष की संगीता जी ने ज्योतिष की वैज्ञानिकता को जाँचने के लिये एक उदाहरण दिया है, वह तो ठीक है ही, एक दो सुझाव हमारी तरफ़ से भी हैं। वैसे देखा जाये तो डॉ.अब्राहम कोवूर वाले मॉडल में दिये गये प्रयोग भी बेहतरीन हैं, जिससे ज्योतिषियों के भविष्य और फ़लित सम्बन्धी कथनों की जाँच हो सकती है। जिन व्यक्तियों को ज्योतिष पर पूरा विश्वास है और वे ऐसा मानते हैं कि फ़लज्योतिष में कुछ तथ्य हैं उनके लिये एक आसान सी जाँच पद्धति इस प्रकार है-
1. आपके आज तक के जीवन में घटित हुई चुनिंदा प्रमुख (अच्छी और बुरी) घटनायें और उनके निश्चित समय एक कागज पर नोट कर लें (जाहिर है कि ये प्रमुख घटनायें आपके जन्म के समय भविष्य के गर्भ में थीं, लेकिन अब तो आप उन घटनाओं से गुजर चुके)। फ़िर आप उस जन्म कुंडली को किसी जाने-माने ज्योतिषी को दिखायें, जिन पर आपकी पूरी श्रद्धा है। आप ध्यान से देखें कि जन्मकुंडली के अध्ययन से उन घटनाओं के बारे में (जो आपके कागज पर पहले से ही नोट हैं) ज्योतिषी महोदय क्या बताते हैं। उनका काम और आसान करने के लिये थोड़ी देर के बाद कुछेक घटनाओं के स्वरूप के बारे में उन्हें बता दीजिये, फ़िर देखिये कि क्या वे उनके घटित वर्ष या समय सही बता पाते हैं?
2. इसी प्रकार कुछ ज्योतिषी ऊँची हाँकते हैं कि वे मृत्यु का सही समय बता सकते हैं, उनके पास एकाध-दो मृत व्यक्तियों की कुंडली ले जायें और देखें कि वे उनके भविष्य(?) बारे में क्या बताते हैं, फ़िर काम और आसान करने के लिये उन्हें बता दें कुंडली वाले की तो मृत्यु हो चुकी है, सिर्फ़ उसका वर्ष/समय उन्हें बताना है।
3. एक और प्रयोग किया जा सकता है- दो ग्रुप तैयार करें पहले “अ” ग्रुप में 15 कुंडलियाँ लें जिनमें विभिन्न व्यवसाय जैसे डॉक्टर, शिक्षक, किराने वाला, सिपाही, कलाकार, इंजीनियर, वकील, राजनीतिज्ञ आदि की कुंडलियाँ हों और दूसरा ग्रुप जिसमें 30 कुंडलियाँ हों जिनमें से 15 कुंडलियाँ पहले वाले ग्रुप की ही रहें और बाकी की 15 दूसरी Randomly चुनी हुई हों। अपना डाटा तैयार करें और अब ज्योतिषियों से पहले का सम्बन्धित डाटा इकठ्ठा करें, उनकी आपस में तुलना करवायें। यदि दूसरे ग्रुप की कुंडलियाँ और पहले ग्रुप की कुंडलियाँ व्यवसाय के अनुसार या व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार अस्सी प्रतिशत भी मिल जायें तो वाकई यह अद्भुत होगा। लेकिन यदि इस सारी कवायद के बावजूद यह न पता चल सके कि कुंडली स्त्री की है या पुरुष की? जीवित की है या मृत की? विवाहित की है या अविवाहित की? इस व्यवसाय वाले की है या उस व्यवसाय वाले की? तात्पर्य यह कि जब इस शास्त्र का वश वर्तमान पर ही न चल रहा हो तो कैसे वह भविष्य की घटनाओं का कथन कर सकते हैं, यह मेरी अतिसामान्य तर्कबुद्धि में नहीं आता।
ये सारे प्रयोग कई-कई ज्योतिषियों के साथ करें ताकि प्रयोगों की सफ़लता या असफ़लता का प्रतिशत बढ़ जाये। पूरी सम्भावना है कि ऐसे प्रयोगों के नाम पर अधिकतर ज्योतिषी भाग खड़े होंगे। इससे क्या सिद्ध होता है यह मैं पाठकों की तर्कबुद्धि पर ही छोड़ता हूँ।
(विशेष नोट – Anonymous [बेनामी] टिप्पणियों पर ध्यान देना तो दूर, उन्हें हटा भी दिया जायेगा)
Astrology, Astronomy, Challenges, Stars, Grah, Nakshatra, Janam Kundli, Janam Paatrika, Myths, Experiments, Science, प्रयोग, विज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्योतिष को चुनौती, ग्रह, नक्षत्र, कुंडली, जन्म पत्रिका, Astrology Logics,
Astronomical Calculations,
अपने पिछले ब्लॉग में जब मैंने अपनी कुंडली का उदाहरण दिया था उस वक्त सदा की तरह Anonymous (बेनामी) महोदय ने सदाबहार उत्तर दिया था कि आपकी जन्म कुंडली ही गलत होगी तो कोई भी ज्योतिषी कैसे सही भविष्यकथन करेगा। उससे एक सवाल दिमाग में कौंधा कि यदि इसका उलटा प्रश्न ज्योतिषी महोदय से किया जाये कि यदि जन्म समय सही हो और उसी अनुरूप कुंडली बनी हो तो क्या भविष्यकथन सही होगा? क्या उत्तर मिलेगा? उत्तर भी हमें पहले ही मालूम है- “मूलतः जन्म समय को लेकर ज्योतिषियों में विवाद हैं”....
तर्कबुद्धि से देखा जाये तो जिस समय गर्भधारणा होती है उसे ही जन्म समय माना जाना चाहिये, लेकिन वह समय तो कोई भी नहीं बता सकता। बच्चा जब बाहर आकर रोता है या कहें पहला श्वास लेता है उसे ही आमतौर पर जन्म समय माना जाता है। पहले बालक का सिर दिखने, बच्चा पूरी तरह से बाहर आने, नाल कटने आदि अनेक बातों पर जन्म समय निर्धारित की जाती थी। इससे एक बात तो साफ़ है कि “जन्म का अचूक समय बता पाना लगभग असम्भव है”। अचूक जन्मसमय पर ही कुंडली की सार्थकता सिद्ध होती है। उसी अचूक कुंडली पर भविष्यकथन आधारित होता है, मतलब यदि भविष्यकथन सही नहीं निकला तो “आपकी जन्म कुंडली गलत होगी”, यह तर्क तत्काल आगे कर दिया जाता है। अब ज्योतिषी महोदय ही अज्ञानियों को बतायें कि वे किस जन्म समय के आधार पर बनी कुंडली को अचूक जन्म कुंडली मानेंगे?
जब हम किसी से “कितने बजे हैं” पूछते हैं तो वह कभी भी ऐसा नहीं कहता कि 3 बजकर 58 मिनट और 50 सेकंड हुए हैं, सीधे “चार बजे हैं” कहा जाता है। डिजिटल घड़ी में भी 03.59 के बाद अगले मिनट पर 04.00 दर्शाता है, वैसे देखा जाये तो एक ही मिनट बढ़ा, लेकिन तीन की जगह चार का अंक आ गया होता है। ठीक यही कुंडली के समय भी होता है, इस प्रकार के “बॉर्डर” पर आये हुए समय में नर्स या डॉक्टर समय का एक मोटा अन्दाज बताते हैं, क्या उससे एकदम सही कुंडली बनाना सम्भव है? जबकि 5-10 मिनट के अन्तर पर कुंडली के प्रथम स्थान राशि का आँकड़ा बदल सकता है। सामन्यतया ज्योतिषी जो कुंडली देखते हैं उसे “गुटका” कुंडली कहना चाहिये, क्योंकि उसमें पाँच-दस मिनटों का हेर-फ़ेर की सम्भावना होती है। हालांकि ज्योतिषी ऐसा आभास देते हैं मानो उन पाँच मिनटों के अन्तराल से भारी उलटफ़ेर हो जायेगा, क्योंकि यदि ऐसा वे नहीं करेंगे तो “आपकी कुंडली गलत बनी हुई है” वाला तर्क कभी नहीं दे पायेंगे। और यदि उनके बताये अनुसार जन्म समय की कुंडली बनाई जाये तब भी वे यह दावे से नहीं कह सकते कि जातक के भविष्यकथन की अस्सी प्रतिशत बातें भी सही निकलेंगी (बीस प्रतिशत का Standard Error हम मान लेते हैं)। तात्पर्य यह कि जन्म समय की अचूकता पर कुंडली अध्ययन और भविष्य निर्भर नहीं होता।
गत्यात्मक ज्योतिष की संगीता जी ने ज्योतिष की वैज्ञानिकता को जाँचने के लिये एक उदाहरण दिया है, वह तो ठीक है ही, एक दो सुझाव हमारी तरफ़ से भी हैं। वैसे देखा जाये तो डॉ.अब्राहम कोवूर वाले मॉडल में दिये गये प्रयोग भी बेहतरीन हैं, जिससे ज्योतिषियों के भविष्य और फ़लित सम्बन्धी कथनों की जाँच हो सकती है। जिन व्यक्तियों को ज्योतिष पर पूरा विश्वास है और वे ऐसा मानते हैं कि फ़लज्योतिष में कुछ तथ्य हैं उनके लिये एक आसान सी जाँच पद्धति इस प्रकार है-
1. आपके आज तक के जीवन में घटित हुई चुनिंदा प्रमुख (अच्छी और बुरी) घटनायें और उनके निश्चित समय एक कागज पर नोट कर लें (जाहिर है कि ये प्रमुख घटनायें आपके जन्म के समय भविष्य के गर्भ में थीं, लेकिन अब तो आप उन घटनाओं से गुजर चुके)। फ़िर आप उस जन्म कुंडली को किसी जाने-माने ज्योतिषी को दिखायें, जिन पर आपकी पूरी श्रद्धा है। आप ध्यान से देखें कि जन्मकुंडली के अध्ययन से उन घटनाओं के बारे में (जो आपके कागज पर पहले से ही नोट हैं) ज्योतिषी महोदय क्या बताते हैं। उनका काम और आसान करने के लिये थोड़ी देर के बाद कुछेक घटनाओं के स्वरूप के बारे में उन्हें बता दीजिये, फ़िर देखिये कि क्या वे उनके घटित वर्ष या समय सही बता पाते हैं?
2. इसी प्रकार कुछ ज्योतिषी ऊँची हाँकते हैं कि वे मृत्यु का सही समय बता सकते हैं, उनके पास एकाध-दो मृत व्यक्तियों की कुंडली ले जायें और देखें कि वे उनके भविष्य(?) बारे में क्या बताते हैं, फ़िर काम और आसान करने के लिये उन्हें बता दें कुंडली वाले की तो मृत्यु हो चुकी है, सिर्फ़ उसका वर्ष/समय उन्हें बताना है।
3. एक और प्रयोग किया जा सकता है- दो ग्रुप तैयार करें पहले “अ” ग्रुप में 15 कुंडलियाँ लें जिनमें विभिन्न व्यवसाय जैसे डॉक्टर, शिक्षक, किराने वाला, सिपाही, कलाकार, इंजीनियर, वकील, राजनीतिज्ञ आदि की कुंडलियाँ हों और दूसरा ग्रुप जिसमें 30 कुंडलियाँ हों जिनमें से 15 कुंडलियाँ पहले वाले ग्रुप की ही रहें और बाकी की 15 दूसरी Randomly चुनी हुई हों। अपना डाटा तैयार करें और अब ज्योतिषियों से पहले का सम्बन्धित डाटा इकठ्ठा करें, उनकी आपस में तुलना करवायें। यदि दूसरे ग्रुप की कुंडलियाँ और पहले ग्रुप की कुंडलियाँ व्यवसाय के अनुसार या व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार अस्सी प्रतिशत भी मिल जायें तो वाकई यह अद्भुत होगा। लेकिन यदि इस सारी कवायद के बावजूद यह न पता चल सके कि कुंडली स्त्री की है या पुरुष की? जीवित की है या मृत की? विवाहित की है या अविवाहित की? इस व्यवसाय वाले की है या उस व्यवसाय वाले की? तात्पर्य यह कि जब इस शास्त्र का वश वर्तमान पर ही न चल रहा हो तो कैसे वह भविष्य की घटनाओं का कथन कर सकते हैं, यह मेरी अतिसामान्य तर्कबुद्धि में नहीं आता।
ये सारे प्रयोग कई-कई ज्योतिषियों के साथ करें ताकि प्रयोगों की सफ़लता या असफ़लता का प्रतिशत बढ़ जाये। पूरी सम्भावना है कि ऐसे प्रयोगों के नाम पर अधिकतर ज्योतिषी भाग खड़े होंगे। इससे क्या सिद्ध होता है यह मैं पाठकों की तर्कबुद्धि पर ही छोड़ता हूँ।
(विशेष नोट – Anonymous [बेनामी] टिप्पणियों पर ध्यान देना तो दूर, उन्हें हटा भी दिया जायेगा)
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गुरुवार, 15 नवम्बर 2007 13:15
ज्योतिष : अखबार और पत्रिकायें
Astrology, Newspaper, Magazines
यदि ज्योतिष कोई शास्त्र या विज्ञान नहीं है तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं और अखबार क्यों राशि-भविष्य आदि छापते हैं?
यह प्रश्न कई बार हमसे लोगों ने किया है, उसके जवाब के लिये पहले एक मजेदार कथा सुनें- इंग्लैंड के एक स्कूल में मैडम ने बच्चों से पूछा कि अब तक पृथ्वी पर सबसे महान विभूति कौन सी हुई है, यदि यह सवाल कोई बच्चा बता दे तो मैं उसे दस डालर दूँगी। कई बच्चों ने कई प्रकार के जवाब दिये, जैसे आइंस्टीन, गैलिलीयो, सेंट थॉमस, सेंट पीटर, मदर टेरेसा आदि, लेकिन मैडम ने सभी को नकार दिया। फ़िर एक गुजराती बच्चा बोला- मैडम मेरा जवाब है “ईसा मसीह”। मैडम ने खुश होकर कहा- वेलडन बच्चे एकदम सही जवाब, ये लो दस डालर। मुझे खुशी है कि तुमने एक भारतीय होकर भी राम और कृष्ण का नाम नहीं लिया और जीसस का नाम लिया।
गुजराती बच्चा बोला- मेरा दिमाग भी जवाब में कृष्ण ही कहता है, लेकिन धंधा तो धंधा है।
ठीक इसी प्रकार अखबारों और पत्रिकाओं के लिये भी ज्योतिष सम्बन्धी समाचार, भविष्यवाणियाँ, विज्ञापन, तस्वीरें आदि लगातार छापना उनकी व्यवसायगत मजबूरी है। भारत की जनसंख्या यदि एक अरब बीस करोड़ भी मान लें, तो औसतन बारह राशियों के हिसाब से एक राशि के दस करोड़ लोग तो होंगे। अब रोजाना भविष्यवाणी में कुछ भी ऊटपटाँग लिखा भी जाये तो जाहिर सी बात है कि लाखों व्यक्तियों पर वह कथन सही ही बैठेगा (Law of Probability), किसी का प्रमोशन होता है, किसी की दुर्घटना होती है, किसी का विवाह तय होता है, कोई यात्रा करता है, किसी को धंधे में नफ़ा-नुकसान होता है, इसमें कोई नई या वैज्ञानिक बात नहीं है।
अखबारों या पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली भविष्यवाणियाँ राशि आधारित होती हैं, जाहिर है कि वे पूरी तरह से अवैज्ञानिक और सिर्फ़ अनुमान भर हैं, क्योंकि उसमें लग्नराशि, ग्रहयोग या कुंडली स्थान बल आदि पर विचार नहीं किया जाता। यहाँ तक कि अग्रगामी और आधुनिक कहे जाने वाले कई अखबार भी ये भविष्यवाणियाँ आदि छापते रहते हैं, क्योंकि ये धंधे का सवाल है, यदि अखबार मालिक तर्कबुद्धि से विचार करने लगें तो उन्हें लाखों रुपये रोजाना का नुकसान हो सकता है। “सिर्फ़ सिद्धांतवाद से काम नहीं चलता, धंधा-पानी और कमाई ज्यादा महत्वपूर्ण है”।
न्यूयॉर्क टाइम्स और अन्य पाश्चात्य अखबार भी इस प्रकार की राशियाँ आदि छापते रहते हैं। सिगरेट के पैकेट पर छपी चेतावनी को नजरअंदाज करके भी करोड़ों लोग लगातार धूम्रपान करते ही रहते हैं, यदि उसी प्रकार सभी ज्योतिषी यदि कुंडलियों पर यह छापने लगें कि “कुंडली के आधार पर भविष्य पर विश्वास करना मूर्खता है”, तब भी उनकी कमाई में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। लोकसत्ता के सम्पादक श्री माधव गड़करी ने खुद एक बार यह स्वीकार किया था कि अखबार में छपने वाला राशि भविष्य उन्होंने कई बार उलट-पुलट कर वही-वही वाक्य अलग-अलग बार दोहरा कर छाप दिये। लोग उन भविष्यवाणियों को पढ़ते हैं एक आनंद लेने के तौर पर। यदि उसमें व्यक्ति के पक्ष का कुछ लिखा हो तो वह खुश हो जाता है, विपक्ष का कुछ लिखा हो तब भी वह उसे खास महत्व नहीं देता। इसलिये सिर्फ़ अखबारों में या यत्र-तत्र ज्योतिष के बारे में लिखा जाता है यह कहकर ज्योतिष को विज्ञान या महान शास्त्र नहीं कहा जा सकता।
ज्योतिष के एक पक्ष का तो मैं भी समर्थन कर सकता हूँ, वह पक्ष है “इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव”। एक अच्छा ज्योतिषी एक अच्छा मनोवैज्ञानिक होता है, बल्कि होना भी चाहिये। भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है यह कोई नहीं बता सकता चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो। लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी और निरन्तर संघर्षों से एक सामान्य आदमी घबरा जाता है, कई बार निराश-हताश हो जाता है (दुःख, परेशानियाँ, कष्ट लगभग 95 प्रतिशत लोगों के जीवन में होते ही हैं) तब उस वक्त वह आसान रास्ते के तौर पर ज्योतिषी के पास जाता है। ज्योतिषी उसे उसके भविष्य के बारे में कुछ (बल्कि अधिकतर) अच्छा बताकर उसे दिलासा देते हैं, “अगले एक वर्ष तक तुम पर शनि-मंगल का साया है”, या फ़िर “आप मेहनत तो बहुत करते हैं लेकिन राहु-केतु आपको सफ़ल होने से रोक रहे हैं” आदि कहकर उसे मनोवैज्ञानिक धैर्य देने की कोशिश करते हैं और उसमें सफ़ल भी होते हैं, क्योंकि आमतौर पर ज्योतिषी से मिलने के बाद व्यक्ति में एक स्थैर्य का भाव आ जाता है “कि अपनी किस्मत ही खराब है इसलिये यह हो रहा है, लेकिन महाराज ने कहा है कि अगले एक-दो साल में स्थिति बदलेगी”, फ़िर वह लगातार संघर्ष करता जाता है, अपनी तरफ़ से कुछ न कुछ उपाय करता ही है, कभी वह सफ़ल हो जाता है तो क्रेडिट ज्योतिषी को देता है, और पुनः असफ़ल हो जाता है तो ज्योतिषी को कभी दोष नहीं देता, अपनी किस्मत को देता है। यह मानव स्वभाव है, कि कष्टों में जहाँ से उसे मानसिक आधार मिले उसे वह अपना मान लेता है। उसके दुःख के सामने उसकी सामान्य तर्कबुद्धि भी काम करना बन्द कर देती है और फ़िर वह छोटी-छोटी बातों के लिये भी ज्योतिषी के चक्कर लगाने लगता है।
इस विस्तृत और विवादित लेखमाला को फ़िलहाल स्थगित करते हुए इतना ही कहना चाहूँगा कि –
(१) मेरा यह दावा कभी नहीं रहा कि मैं ज्योतिष को सम्पूर्ण रूप से जानता हूँ।
(२) एक आम आदमी की सामान्य तर्कबुद्धि में जो शंकायें आती हैं या आ सकती हैं, यह उन्हें उठाने की एक कोशिश भर थी।
(३) कई ज्योतिषी भी मानते हैं कि ज्योतिष कोई सम्पूर्ण शास्त्र नहीं है, लेकिन वे इस पर विवाद, चर्चा, प्रयोग आदि करने से भी बचना चाहते हैं।
(४) शत-प्रतिशत भविष्यवाणी यदि कोई कर दे तो वह ‘ब्रह्मा” ही न हो जाये, लेकिन किसी शास्त्र या विज्ञान या सिद्धान्त को साबित करने के लिये कम से कम अस्सी प्रतिशत सम्भावनायें तो खरी उतरनी ही चाहिये, यही हमारा आग्रह है कि प्रयोगों के जरिये कम से कम अस्सी प्रतिशत सफ़लता हासिल की जाये, फ़िर जो इसे नहीं मानते हैं वे भी इसका लोहा मानेंगे और ज्योतिष समर्थकों के पास एक “डाक्यूमेंट्री प्रूफ़” भी होगा। इसे एक विकसित विज्ञान बनाने के लिये सतत प्रयोग करना ही एकमात्र उपाय है। इसके लिये ज्योतिष विद्वान और वैज्ञानिक साथ में एकत्रित हों, पूर्वाग्रह छोड़कर नवीन प्रयोग करें, और इसे आम जनता तक आसान और तर्कपूर्ण भाषा में पहुँचायें, तब इस पर चढ़ा हुआ रहस्यमयी आवरण भी हटेगा।
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यदि ज्योतिष कोई शास्त्र या विज्ञान नहीं है तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं और अखबार क्यों राशि-भविष्य आदि छापते हैं?
यह प्रश्न कई बार हमसे लोगों ने किया है, उसके जवाब के लिये पहले एक मजेदार कथा सुनें- इंग्लैंड के एक स्कूल में मैडम ने बच्चों से पूछा कि अब तक पृथ्वी पर सबसे महान विभूति कौन सी हुई है, यदि यह सवाल कोई बच्चा बता दे तो मैं उसे दस डालर दूँगी। कई बच्चों ने कई प्रकार के जवाब दिये, जैसे आइंस्टीन, गैलिलीयो, सेंट थॉमस, सेंट पीटर, मदर टेरेसा आदि, लेकिन मैडम ने सभी को नकार दिया। फ़िर एक गुजराती बच्चा बोला- मैडम मेरा जवाब है “ईसा मसीह”। मैडम ने खुश होकर कहा- वेलडन बच्चे एकदम सही जवाब, ये लो दस डालर। मुझे खुशी है कि तुमने एक भारतीय होकर भी राम और कृष्ण का नाम नहीं लिया और जीसस का नाम लिया।
गुजराती बच्चा बोला- मेरा दिमाग भी जवाब में कृष्ण ही कहता है, लेकिन धंधा तो धंधा है।
ठीक इसी प्रकार अखबारों और पत्रिकाओं के लिये भी ज्योतिष सम्बन्धी समाचार, भविष्यवाणियाँ, विज्ञापन, तस्वीरें आदि लगातार छापना उनकी व्यवसायगत मजबूरी है। भारत की जनसंख्या यदि एक अरब बीस करोड़ भी मान लें, तो औसतन बारह राशियों के हिसाब से एक राशि के दस करोड़ लोग तो होंगे। अब रोजाना भविष्यवाणी में कुछ भी ऊटपटाँग लिखा भी जाये तो जाहिर सी बात है कि लाखों व्यक्तियों पर वह कथन सही ही बैठेगा (Law of Probability), किसी का प्रमोशन होता है, किसी की दुर्घटना होती है, किसी का विवाह तय होता है, कोई यात्रा करता है, किसी को धंधे में नफ़ा-नुकसान होता है, इसमें कोई नई या वैज्ञानिक बात नहीं है।
अखबारों या पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली भविष्यवाणियाँ राशि आधारित होती हैं, जाहिर है कि वे पूरी तरह से अवैज्ञानिक और सिर्फ़ अनुमान भर हैं, क्योंकि उसमें लग्नराशि, ग्रहयोग या कुंडली स्थान बल आदि पर विचार नहीं किया जाता। यहाँ तक कि अग्रगामी और आधुनिक कहे जाने वाले कई अखबार भी ये भविष्यवाणियाँ आदि छापते रहते हैं, क्योंकि ये धंधे का सवाल है, यदि अखबार मालिक तर्कबुद्धि से विचार करने लगें तो उन्हें लाखों रुपये रोजाना का नुकसान हो सकता है। “सिर्फ़ सिद्धांतवाद से काम नहीं चलता, धंधा-पानी और कमाई ज्यादा महत्वपूर्ण है”।
न्यूयॉर्क टाइम्स और अन्य पाश्चात्य अखबार भी इस प्रकार की राशियाँ आदि छापते रहते हैं। सिगरेट के पैकेट पर छपी चेतावनी को नजरअंदाज करके भी करोड़ों लोग लगातार धूम्रपान करते ही रहते हैं, यदि उसी प्रकार सभी ज्योतिषी यदि कुंडलियों पर यह छापने लगें कि “कुंडली के आधार पर भविष्य पर विश्वास करना मूर्खता है”, तब भी उनकी कमाई में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। लोकसत्ता के सम्पादक श्री माधव गड़करी ने खुद एक बार यह स्वीकार किया था कि अखबार में छपने वाला राशि भविष्य उन्होंने कई बार उलट-पुलट कर वही-वही वाक्य अलग-अलग बार दोहरा कर छाप दिये। लोग उन भविष्यवाणियों को पढ़ते हैं एक आनंद लेने के तौर पर। यदि उसमें व्यक्ति के पक्ष का कुछ लिखा हो तो वह खुश हो जाता है, विपक्ष का कुछ लिखा हो तब भी वह उसे खास महत्व नहीं देता। इसलिये सिर्फ़ अखबारों में या यत्र-तत्र ज्योतिष के बारे में लिखा जाता है यह कहकर ज्योतिष को विज्ञान या महान शास्त्र नहीं कहा जा सकता।
ज्योतिष के एक पक्ष का तो मैं भी समर्थन कर सकता हूँ, वह पक्ष है “इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव”। एक अच्छा ज्योतिषी एक अच्छा मनोवैज्ञानिक होता है, बल्कि होना भी चाहिये। भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है यह कोई नहीं बता सकता चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो। लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी और निरन्तर संघर्षों से एक सामान्य आदमी घबरा जाता है, कई बार निराश-हताश हो जाता है (दुःख, परेशानियाँ, कष्ट लगभग 95 प्रतिशत लोगों के जीवन में होते ही हैं) तब उस वक्त वह आसान रास्ते के तौर पर ज्योतिषी के पास जाता है। ज्योतिषी उसे उसके भविष्य के बारे में कुछ (बल्कि अधिकतर) अच्छा बताकर उसे दिलासा देते हैं, “अगले एक वर्ष तक तुम पर शनि-मंगल का साया है”, या फ़िर “आप मेहनत तो बहुत करते हैं लेकिन राहु-केतु आपको सफ़ल होने से रोक रहे हैं” आदि कहकर उसे मनोवैज्ञानिक धैर्य देने की कोशिश करते हैं और उसमें सफ़ल भी होते हैं, क्योंकि आमतौर पर ज्योतिषी से मिलने के बाद व्यक्ति में एक स्थैर्य का भाव आ जाता है “कि अपनी किस्मत ही खराब है इसलिये यह हो रहा है, लेकिन महाराज ने कहा है कि अगले एक-दो साल में स्थिति बदलेगी”, फ़िर वह लगातार संघर्ष करता जाता है, अपनी तरफ़ से कुछ न कुछ उपाय करता ही है, कभी वह सफ़ल हो जाता है तो क्रेडिट ज्योतिषी को देता है, और पुनः असफ़ल हो जाता है तो ज्योतिषी को कभी दोष नहीं देता, अपनी किस्मत को देता है। यह मानव स्वभाव है, कि कष्टों में जहाँ से उसे मानसिक आधार मिले उसे वह अपना मान लेता है। उसके दुःख के सामने उसकी सामान्य तर्कबुद्धि भी काम करना बन्द कर देती है और फ़िर वह छोटी-छोटी बातों के लिये भी ज्योतिषी के चक्कर लगाने लगता है।
इस विस्तृत और विवादित लेखमाला को फ़िलहाल स्थगित करते हुए इतना ही कहना चाहूँगा कि –
(१) मेरा यह दावा कभी नहीं रहा कि मैं ज्योतिष को सम्पूर्ण रूप से जानता हूँ।
(२) एक आम आदमी की सामान्य तर्कबुद्धि में जो शंकायें आती हैं या आ सकती हैं, यह उन्हें उठाने की एक कोशिश भर थी।
(३) कई ज्योतिषी भी मानते हैं कि ज्योतिष कोई सम्पूर्ण शास्त्र नहीं है, लेकिन वे इस पर विवाद, चर्चा, प्रयोग आदि करने से भी बचना चाहते हैं।
(४) शत-प्रतिशत भविष्यवाणी यदि कोई कर दे तो वह ‘ब्रह्मा” ही न हो जाये, लेकिन किसी शास्त्र या विज्ञान या सिद्धान्त को साबित करने के लिये कम से कम अस्सी प्रतिशत सम्भावनायें तो खरी उतरनी ही चाहिये, यही हमारा आग्रह है कि प्रयोगों के जरिये कम से कम अस्सी प्रतिशत सफ़लता हासिल की जाये, फ़िर जो इसे नहीं मानते हैं वे भी इसका लोहा मानेंगे और ज्योतिष समर्थकों के पास एक “डाक्यूमेंट्री प्रूफ़” भी होगा। इसे एक विकसित विज्ञान बनाने के लिये सतत प्रयोग करना ही एकमात्र उपाय है। इसके लिये ज्योतिष विद्वान और वैज्ञानिक साथ में एकत्रित हों, पूर्वाग्रह छोड़कर नवीन प्रयोग करें, और इसे आम जनता तक आसान और तर्कपूर्ण भाषा में पहुँचायें, तब इस पर चढ़ा हुआ रहस्यमयी आवरण भी हटेगा।
Astrology, Astronomy, Newspaper, Magazines, Advertisement, Challenges, Stars, Grah, Nakshatra, Janam Kundli, Janam Paatrika, Myths, Experiments, Science, प्रयोग, विज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्योतिष को चुनौती, ग्रह, नक्षत्र, कुंडली, जन्म पत्रिका, समाचार पत्र, अखबार, पत्रिकाएं, विज्ञापन, Astrology Logics,
Astronomical Calculations,

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शनिवार, 24 नवम्बर 2007 18:49
क्या ज्योतिषी उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में आते हैं?
Astrology Consumer Protection Act
जब मैंने ज्योतिष शास्त्र को विज्ञान बताने और ज्योतिषियों को परखने हेतु कुछ प्रयोगों पर पिछले कुछ लेख लिखे थे उस समय टिप्पणियों में तथा व्यक्तिगत ई-मेल में मुझे ज्योतिष समर्थकों के जो जवाब मिले थे उनमें से अधिकतर में ज्योतिष और चिकित्सा विज्ञान (मेडिकल साइंस) की तुलना करने की कोशिश की गई, मुझे लगातार यह बताया गया कि कोई भी विज्ञान पूरा नहीं होता, न ही डॉक्टरों द्वारा दी जाने वाली दवाईयाँ सुरक्षित होती हैं। इस तर्क के आधार पर समर्थकों का कहना था कि डॉक्टर भी गलती करते हैं, वे भी मरीज पर शोध करते रहते हैं, उनमें भी एकमत नहीं होता... आदि-आदि। वैसे तो इन दो बातों की तुलना करना ही सिरे से गलत है, क्योंकि चिकित्सा विज्ञान में लगातार शोध होते रहते हैं, तर्क-वितर्क होते हैं, बड़े-बड़े विद्वान भी गलत साबित होते हैं, वे अपनी गलती सुधार भी करते हैं, किसी मरीज को चार डॉक्टरों का एक पैनल देखेगा तो उनमें आपस में एकमत जल्दी से हो जायेगा, लेकिन ज्योतिष के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है। यहाँ तो प्रश्न करते ही सामने वाले को नास्तिक, बेवकूफ़, नालायक, विधर्मी आदि साबित करने की होड़ लग जायेगी।
उसी समय से मेरे दिमाग में एक प्रश्न लगातार घूम रहा है कि “क्या ज्योतिषी भी उपभोक्ता संरक्षण कानून के अन्तर्गत आते हैं?” क्योंकि जब ज्योतिष समर्थक लगातार उसे विज्ञान कहते हैं और मेडिकल साइंस से तुलना करते हैं तब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जिस प्रकार डॉक्टर और अस्पताल उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में आते हैं, उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है, उनकी डिग्री छीनी जा सकती है, क्या ऐसा ज्योतिषी के साथ किया जा सकता है? इस सम्बन्ध में कानूनी स्थिति की जानकारी चाहूँगा। ज्योतिष नामक “व्यवसाय” करने के लिये किसी को कोई डिग्री नहीं लेनी होती, किसी ज्योतिष महाविद्यालय (?) में पढ़ाई करने की आवश्यकता नहीं होती। अब मैं विद्वानों से जानना चाहता हूँ कि क्या भविष्यकथन गलत साबित होने पर किसी ज्योतिषी पर मुकदमा दायर किया जा सकता है? यदि हाँ, तो अगला प्रश्न उठता है कि कितने ज्योतिषी अपने यजमान को दक्षिणा की “रसीद” देते हैं, जिसके बल पर केस उपभोक्ता अदालत में टिके? दक्षिणा के अलावा ज्योतिषी छाता, जूते, छड़ी, कपड़ा, गाय, जमीन, आदि दान करने को कहते हैं क्या उसकी रसीद देते हैं? और यदि उसका उत्तर है “नहीं” तो फ़िर दूसरा प्रश्न खड़ा होता है कि – जब कोई व्यक्ति परिस्थितियों से परेशान हो जाता है तभी वह ज्योतिषी की शरण में जाता है। ऐसा माना जाता है कि ज्योतिषी उस बेचारे को मानसिक आधार देता है, और उसे समझा देता है कि आपका बुरा वक्त बस जाने ही वाला है, लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान ज्योतिषी उसकी जेब भी काफ़ी हल्की कर देता है। ऐसे में पहले से ही पीड़ित व्यक्ति चुपचाप यह आर्थिक फ़टका भी सहन कर लेता है। लगभग इन्हीं परिस्थितियों में वह डॉक्टर के पास जाता है और यदि उस चिकित्सक से दवा देने में या उपचार में या “डायग्नोस” में गलती हो जाये तो उसे उपभोक्ता कानून के जरिये कोर्ट में घसीटने से बाज नहीं आता। फ़िर ज्योतिषी को भला क्यों छोड़ना चाहिये, क्या वे आसमान से उतरे हुए फ़रिश्ते हैं? या ज्योतिष किसी दैवीय कृपा से प्राप्त हुई कोई विद्या है, जिस पर प्रश्न उठाया ही नहीं जा सकता? सीधी सी बात तो यह है कि जहाँ दो व्यक्तियों या संस्था में पैसे का लेन-देन होता है, स्वतः ही वहाँ “उपभोक्ता” और “सेवा” का नियम लागू हो जाना चाहिये। यदि भविष्यकथन गलत हो जाये तो ज्योतिषी की गलती, लेकिन यदि तुक्के में भविष्यकथन सही बैठ जाये तो ज्योतिष विज्ञान महान है, ऐसी बात ज्योतिषियों ने ही फ़ैलाई है। यदि यजमान पर कोई संकट नहीं आया तो “मैंने फ़लाँ उपाय बताया था, इसलिये विघ्न टल गया” और यदि फ़िर भी संकट आ ही गया तो “मैंने तो पहले ही कहा था, कि तुम्हारे ग्रह खराब चल रहे हैं”....। वर्तमान के तनावग्रस्त और आपाधापी भरे अनिश्चित जीवन में व्यक्ति को मानसिक आधार चाहिये होता है, जिसके जीवन में जितनी अधिक अनिश्चितता होगी वह उतना ही ज्योतिष, वास्तु आदि बातों पर यकीन करेगा, जिसका साक्षात उदाहरण हैं फ़िल्म स्टार (जिनकी किस्मत हर शुक्रवार को बदलती रहती है) और राजनेता जिसे अगले पाँच साल की चिंता पहले दिन से ही खाये जाती है, या फ़िर कोई सट्टेबाज व्यवसायी जो रोज-ब-रोज बड़े-बड़े दाँव लगाता है, ये सारे लोग सुख में भी ज्योतिषियों के चक्कर काटते नजर आते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समस्या के हल का आसान रास्ता खोजता है, मन्दिर जाना, व्रत करना, ज्योतिषियों को कुंडली दिखाना जैसे सैकडों उपाय वह करता है, लेकिन तर्कबुद्धि, व्यावहारिक उपाय या वैज्ञानिक सोच से वह बचता है। फ़िर बात आती है विश्वास और श्रद्धा पर, लेकिन यही विश्वास और श्रद्धा जब खंडित होती है, और बार-बार होती है, तब भी उस व्यक्ति की आँखें नहीं खुलतीं बल्कि उसका अंधविश्वास बढ़ता ही जाता है, और ज्योतिषियों की चांदी कटती रहती है। जिनके यहाँ पैसे की नदियाँ बह रही हैं, और ज्योतिष, न्युमरोलॉजी, वास्तु आदि जिनके लिये एक चोंचला और दिखावा मात्र है, उन्हें तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन एक सामान्य निम्न-मध्यमवर्गीय व्यक्ति जब ज्योतिषी के हाथों ठगा जाता है, तब क्या किया जा सकता है। इसलिये एक बार अन्त में पुनः मैं अपने प्रश्न दोहराना चाहूँगा और जनता की राय लेना चाहूँगा कि –
(१) क्या ज्योतिषी भी “उपभोक्ता संरक्षण कानून” के अन्तर्गत आते हैं?
(२) यदि हाँ, तो वह उपभोक्ता किस प्रकार से कानूनी मदद ले सकता है? क्या वह धोखाधड़ी का केस लगा सकता है?
(३) और यदि नहीं, तो क्यों नहीं? जब डॉक्टर, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, टेलीफ़ोन, बिजली, अन्य कम्पनियाँ, आदि सभी जो पैसे लेकर सेवा देते हैं इसके दायरे में आते हैं तो ज्योतिषी क्यों नहीं?
नोट : ज्योतिष समर्थक भी मुझ अज्ञानी को ज्ञान बाँटने की कृपा करें...
पुनश्च – बेनामी टिप्पणियों से भी बचें...
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जब मैंने ज्योतिष शास्त्र को विज्ञान बताने और ज्योतिषियों को परखने हेतु कुछ प्रयोगों पर पिछले कुछ लेख लिखे थे उस समय टिप्पणियों में तथा व्यक्तिगत ई-मेल में मुझे ज्योतिष समर्थकों के जो जवाब मिले थे उनमें से अधिकतर में ज्योतिष और चिकित्सा विज्ञान (मेडिकल साइंस) की तुलना करने की कोशिश की गई, मुझे लगातार यह बताया गया कि कोई भी विज्ञान पूरा नहीं होता, न ही डॉक्टरों द्वारा दी जाने वाली दवाईयाँ सुरक्षित होती हैं। इस तर्क के आधार पर समर्थकों का कहना था कि डॉक्टर भी गलती करते हैं, वे भी मरीज पर शोध करते रहते हैं, उनमें भी एकमत नहीं होता... आदि-आदि। वैसे तो इन दो बातों की तुलना करना ही सिरे से गलत है, क्योंकि चिकित्सा विज्ञान में लगातार शोध होते रहते हैं, तर्क-वितर्क होते हैं, बड़े-बड़े विद्वान भी गलत साबित होते हैं, वे अपनी गलती सुधार भी करते हैं, किसी मरीज को चार डॉक्टरों का एक पैनल देखेगा तो उनमें आपस में एकमत जल्दी से हो जायेगा, लेकिन ज्योतिष के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है। यहाँ तो प्रश्न करते ही सामने वाले को नास्तिक, बेवकूफ़, नालायक, विधर्मी आदि साबित करने की होड़ लग जायेगी।
उसी समय से मेरे दिमाग में एक प्रश्न लगातार घूम रहा है कि “क्या ज्योतिषी भी उपभोक्ता संरक्षण कानून के अन्तर्गत आते हैं?” क्योंकि जब ज्योतिष समर्थक लगातार उसे विज्ञान कहते हैं और मेडिकल साइंस से तुलना करते हैं तब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जिस प्रकार डॉक्टर और अस्पताल उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में आते हैं, उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है, उनकी डिग्री छीनी जा सकती है, क्या ऐसा ज्योतिषी के साथ किया जा सकता है? इस सम्बन्ध में कानूनी स्थिति की जानकारी चाहूँगा। ज्योतिष नामक “व्यवसाय” करने के लिये किसी को कोई डिग्री नहीं लेनी होती, किसी ज्योतिष महाविद्यालय (?) में पढ़ाई करने की आवश्यकता नहीं होती। अब मैं विद्वानों से जानना चाहता हूँ कि क्या भविष्यकथन गलत साबित होने पर किसी ज्योतिषी पर मुकदमा दायर किया जा सकता है? यदि हाँ, तो अगला प्रश्न उठता है कि कितने ज्योतिषी अपने यजमान को दक्षिणा की “रसीद” देते हैं, जिसके बल पर केस उपभोक्ता अदालत में टिके? दक्षिणा के अलावा ज्योतिषी छाता, जूते, छड़ी, कपड़ा, गाय, जमीन, आदि दान करने को कहते हैं क्या उसकी रसीद देते हैं? और यदि उसका उत्तर है “नहीं” तो फ़िर दूसरा प्रश्न खड़ा होता है कि – जब कोई व्यक्ति परिस्थितियों से परेशान हो जाता है तभी वह ज्योतिषी की शरण में जाता है। ऐसा माना जाता है कि ज्योतिषी उस बेचारे को मानसिक आधार देता है, और उसे समझा देता है कि आपका बुरा वक्त बस जाने ही वाला है, लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान ज्योतिषी उसकी जेब भी काफ़ी हल्की कर देता है। ऐसे में पहले से ही पीड़ित व्यक्ति चुपचाप यह आर्थिक फ़टका भी सहन कर लेता है। लगभग इन्हीं परिस्थितियों में वह डॉक्टर के पास जाता है और यदि उस चिकित्सक से दवा देने में या उपचार में या “डायग्नोस” में गलती हो जाये तो उसे उपभोक्ता कानून के जरिये कोर्ट में घसीटने से बाज नहीं आता। फ़िर ज्योतिषी को भला क्यों छोड़ना चाहिये, क्या वे आसमान से उतरे हुए फ़रिश्ते हैं? या ज्योतिष किसी दैवीय कृपा से प्राप्त हुई कोई विद्या है, जिस पर प्रश्न उठाया ही नहीं जा सकता? सीधी सी बात तो यह है कि जहाँ दो व्यक्तियों या संस्था में पैसे का लेन-देन होता है, स्वतः ही वहाँ “उपभोक्ता” और “सेवा” का नियम लागू हो जाना चाहिये। यदि भविष्यकथन गलत हो जाये तो ज्योतिषी की गलती, लेकिन यदि तुक्के में भविष्यकथन सही बैठ जाये तो ज्योतिष विज्ञान महान है, ऐसी बात ज्योतिषियों ने ही फ़ैलाई है। यदि यजमान पर कोई संकट नहीं आया तो “मैंने फ़लाँ उपाय बताया था, इसलिये विघ्न टल गया” और यदि फ़िर भी संकट आ ही गया तो “मैंने तो पहले ही कहा था, कि तुम्हारे ग्रह खराब चल रहे हैं”....। वर्तमान के तनावग्रस्त और आपाधापी भरे अनिश्चित जीवन में व्यक्ति को मानसिक आधार चाहिये होता है, जिसके जीवन में जितनी अधिक अनिश्चितता होगी वह उतना ही ज्योतिष, वास्तु आदि बातों पर यकीन करेगा, जिसका साक्षात उदाहरण हैं फ़िल्म स्टार (जिनकी किस्मत हर शुक्रवार को बदलती रहती है) और राजनेता जिसे अगले पाँच साल की चिंता पहले दिन से ही खाये जाती है, या फ़िर कोई सट्टेबाज व्यवसायी जो रोज-ब-रोज बड़े-बड़े दाँव लगाता है, ये सारे लोग सुख में भी ज्योतिषियों के चक्कर काटते नजर आते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समस्या के हल का आसान रास्ता खोजता है, मन्दिर जाना, व्रत करना, ज्योतिषियों को कुंडली दिखाना जैसे सैकडों उपाय वह करता है, लेकिन तर्कबुद्धि, व्यावहारिक उपाय या वैज्ञानिक सोच से वह बचता है। फ़िर बात आती है विश्वास और श्रद्धा पर, लेकिन यही विश्वास और श्रद्धा जब खंडित होती है, और बार-बार होती है, तब भी उस व्यक्ति की आँखें नहीं खुलतीं बल्कि उसका अंधविश्वास बढ़ता ही जाता है, और ज्योतिषियों की चांदी कटती रहती है। जिनके यहाँ पैसे की नदियाँ बह रही हैं, और ज्योतिष, न्युमरोलॉजी, वास्तु आदि जिनके लिये एक चोंचला और दिखावा मात्र है, उन्हें तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन एक सामान्य निम्न-मध्यमवर्गीय व्यक्ति जब ज्योतिषी के हाथों ठगा जाता है, तब क्या किया जा सकता है। इसलिये एक बार अन्त में पुनः मैं अपने प्रश्न दोहराना चाहूँगा और जनता की राय लेना चाहूँगा कि –
(१) क्या ज्योतिषी भी “उपभोक्ता संरक्षण कानून” के अन्तर्गत आते हैं?
(२) यदि हाँ, तो वह उपभोक्ता किस प्रकार से कानूनी मदद ले सकता है? क्या वह धोखाधड़ी का केस लगा सकता है?
(३) और यदि नहीं, तो क्यों नहीं? जब डॉक्टर, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, टेलीफ़ोन, बिजली, अन्य कम्पनियाँ, आदि सभी जो पैसे लेकर सेवा देते हैं इसके दायरे में आते हैं तो ज्योतिषी क्यों नहीं?
नोट : ज्योतिष समर्थक भी मुझ अज्ञानी को ज्ञान बाँटने की कृपा करें...
पुनश्च – बेनामी टिप्पणियों से भी बचें...
Astrology, Astronomy, Consumer Protection Act, Consumer, Service Industry, Newspaper, Magazines, Advertisement, Challenges, Stars, Grah, Nakshatra, Janam Kundli, Janam Paatrika, Myths, Experiments, Science, उपभोक्ता संरक्षण कानून, सेवा उद्योग, प्रयोग, विज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्योतिष को चुनौती, ग्रह, नक्षत्र, कुंडली, जन्म पत्रिका, समाचार पत्र, अखबार, पत्रिकाएं, विज्ञापन, Astrology Logics,
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सोमवार, 03 दिसम्बर 2007 16:18
मलेशिया संकट : हिन्दुओं के लिये सबक
Malaysia Crisis and Indians
वही पुरानी कहानी एक बार फ़िर दोहराई गई, एक “तथाकथित” सेकुलर देश ने, एक दूसरे तथाकथित “महाशक्ति” को दुरदुराये हुए कुत्ते की तरह हड़का दिया। करुणानिधि ने तो अपना “वोट-बैंक” पक्का कर लिया, लेकिन हमारी सेकुलर(?) सरकार की जैसी घिग्घी बँधना थी, ठीक वैसी ही बँधी, क्योंकि मलेशिया भले ही कहने को सेकुलर हो, उसकी रगों में खून तो “वही” दौड़ रहा है, और हम ठहरे “स्वघोषित महाशक्ति”, सो किसी को नाराज भी नहीं कर सकते। और मानो गलती से कभी दहाड़ लगा भी दी, तो सुनेगा कौन हमारी? एक अहसानफ़रामोश पड़ोसी तक तो हमें जब-तब गरियाता-लतियाता रहता है। अपने आदमी देश के कोने-कोने में भेज कर डकैतियाँ डलवा रहा है, हमारे यहाँ की चिल्लर गायब करवा रहा है, ये हैं कि “वार्ता” का ढोंग कर रहे हैं।
खैर, मलेशिया पर वापस लौटते हैं... इस समस्या से उत्पन्न तीन पहलू तुरन्त नजर आते हैं- पहला है, क्यों भारतवंशियों पर ही लगातार समूचे संसार में हमले बढ़ते जा रहे हैं? कारण (मेरी नजर से) – शायद वहाँ के स्थानीय लोग भारतीयों की तरक्की से जलते होंगे, या फ़िर खुद भारत से गये हुए लोग वहाँ के समाज में घुल-मिल नहीं पाते होंगे, जिससे संवादहीनता की स्थिति बनती है। इससे एक सवाल सहज ही उत्पन्न होता है कि किसी दूसरे देश में गये भारतीयों को जब वहाँ की नागरिकता मिल गई हो, तब उन लोगों का भारत की तरफ़ मदद को ताकना क्या उचित है? ब्रिटेन या कनाडा जहाँ कहीं भारतीयों को उस देश की नागरिकता मिल गई, तो फ़िर क्यों वे हर बार भारत-भारत भजते रहते हैं, क्या यह देशद्रोह नहीं है? ठीक वैसे ही जैसे विभाजन के समय पाकिस्तान बनने पर जो मुसलमान भारत में ही रह गये यदि वे पाकिस्तान का झंडा उठाये घूमते हैं तब उन्हें देशद्रोही ही करार दिया जाता है। भले ही उनके कई रिश्तेदार पाकिस्तान में हों, लेकिन जब वे स्वयं भारत के नागरिक हैं तो उन्हें पाकिस्तान की ओर क्यों ताकना चाहिये? क्यों हर बात में पाक का गुणगान करना चाहिये? और मुसलमानों का केस तो इस केस से अलग इसलिये है क्योंकि विभाजन तो एक मानवनिर्मित त्रासदी थी, लेकिन जब कोई भारतीय अपनी स्वेच्छा से देश छोड़कर जाता है और दूसरे देश की नागरिकता ले लेता है, तब उसे वहीं के समाज में घुल-मिल जाना चाहिये, उसी देश का गुणगान करना चाहिये, उसी देश के भले के बारे सोचना चाहिये, इसलिये यदि पीड़ित तमिल मलेशिया के नागरिक हैं, तो उन्हें वहाँ के कानून के हिसाब से चलना चाहिये (मलेशिया कोई भारत थोड़े ही है कि अबू सलेम को लाने में करोड़ों खर्चा कर दिया, अब उसे संभालने में कर रहे हैं, ताकि वह सांसद बनकर और करोड़ों चरता फ़िरे)। और जो भारतीय मलेशिया के नागरिक नहीं बने हैं, उन्हें तो शिकायत करनी ही नहीं चाहिये, सीधे वापस आ जाना चाहिये (वैसे भी वह एक मुस्लिम देश है, वहाँ कोई सुनवाई तो होगी नहीं, जैसे अभी कुछ समय पहले मलयालियों के साथ अरब देशों में हुआ था)। रही बात मार खाने की, पिटने की, तो भैया जब हिन्दुस्तान में ही हिन्दू पिटता रहता है, तो बाहर उसकी क्या औकात है? चाहे फ़िजी हो, चाहे जर्मनी, चाहे अरब हो या फ़्रांस, हिन्दू कुटने के लिये ही पैदा हुआ है (दूसरा गाल सतत आगे जो करता रहा है)।
दूसरा पक्ष है सरकार- चाहे वह कथित हिन्दू समर्थक भाजपा की ही सरकार क्यों ना हो, विदेशों में हमारी सरकारों की एक नहीं चलती, कोई इनकी “चिंताओं” पर कान नहीं देता, और दे भी क्यों? हमने किया क्या है आज तक ईमानदारी से जनसंख्या बढ़ाने, जन्म से लेकर मृत्यु तक भ्रष्टाचार करने और जाति-धर्म के नाम पर लड़ने के अलावा। हाँ एक बात हमने जरूर की है...जमाने भर से हथियार पूरे पैसे एडवांस देकर खरीदे हैं और उन्हें कभी उपयोग नहीं किया। “भारतवंशी-भारतवंशी” नाम की बंसी जरूर हम यदा-कदा बजाते रहते हैं, बेशर्मी से ये भी कभी नहीं सोचते कि ना तो सुनीता विलियम्स, न तो बॉबी जिन्दल, ना स्वराज पॉल, ना ही वीएस नायपॉल कोई भी भारत का नागरिक नहीं है, ना इन्हें भारत से कोई खास लगाव है।
तीसरा पक्ष है, भारतीयों की हीनभावना से ग्रस्त मानसिकता। हमारे दिमाग में यह भर दिया गया है कि हमारा कोई गौरवशाली इतिहास था ही नहीं, शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान वगैरह भगौड़े थे, सिर्फ़ अकबर ने या फ़िर डलहौजी साहब ने ही कुछ किया है, वरना हम तो साँपों से ही खेल रहे होते अब तक! आत्मसम्मान नाम की चीज एक खास मानसिकता के लोगों ने षडयन्त्रपूर्वक समाप्त कर दी। जहाँ किसी ने “गर्व” की बात की, तड़ से उसे सांप्रदायिक ठहरा दो।
तो भाईयों और बहनों, चादर तानकर सो जाईये, जैसे रामभरोसे देश चल रहा है वैसे ही आगे भी चलता रहेगा, करना ही है तो पहले अपने देशवासियों की फ़िक्र करो, फ़िर उनके बारे में सोचना जो दूसरे देशों के नागरिक हैं।
प्राप्त सबक :
(१) किसी भी दूसरे देश में खासकर जब वह मुस्लिम बहुल हो, भारतीयों को किसी भी प्रकार की हमदर्दी की अपेक्षा नहीं रखना चाहिये। (लोकतंत्र और निरपेक्ष न्याय प्रणाली मुस्लिम देशों के लिये अभी भी अजूबा हैं)
(२) जिस देश के नागरिक बन चुके हो उसी देश का गुणगान करो (कहावत- जिसकी खाओ, उसकी बजाओ)
(३) यदि विपरीत परिस्थिति हो भी जाये तो “भारत सरकार” नाम की लुंजपुंज संस्था से किसी मदद की उम्मीद मत करो।
(४) इसराइलियों की तरह आत्मसम्मान से जीने की कोशिश करना चाहिये।
Malaysia, India, Tamils, Karunanidhi, Indian Government, Malaysia India Conflict, Ethnic Voilence, Civil Rights Issue, मलेशिया भारत, तमिल, करुणानिधि, भारत सरकार, नागरिक अधिकार मुद्दा,
वही पुरानी कहानी एक बार फ़िर दोहराई गई, एक “तथाकथित” सेकुलर देश ने, एक दूसरे तथाकथित “महाशक्ति” को दुरदुराये हुए कुत्ते की तरह हड़का दिया। करुणानिधि ने तो अपना “वोट-बैंक” पक्का कर लिया, लेकिन हमारी सेकुलर(?) सरकार की जैसी घिग्घी बँधना थी, ठीक वैसी ही बँधी, क्योंकि मलेशिया भले ही कहने को सेकुलर हो, उसकी रगों में खून तो “वही” दौड़ रहा है, और हम ठहरे “स्वघोषित महाशक्ति”, सो किसी को नाराज भी नहीं कर सकते। और मानो गलती से कभी दहाड़ लगा भी दी, तो सुनेगा कौन हमारी? एक अहसानफ़रामोश पड़ोसी तक तो हमें जब-तब गरियाता-लतियाता रहता है। अपने आदमी देश के कोने-कोने में भेज कर डकैतियाँ डलवा रहा है, हमारे यहाँ की चिल्लर गायब करवा रहा है, ये हैं कि “वार्ता” का ढोंग कर रहे हैं।
खैर, मलेशिया पर वापस लौटते हैं... इस समस्या से उत्पन्न तीन पहलू तुरन्त नजर आते हैं- पहला है, क्यों भारतवंशियों पर ही लगातार समूचे संसार में हमले बढ़ते जा रहे हैं? कारण (मेरी नजर से) – शायद वहाँ के स्थानीय लोग भारतीयों की तरक्की से जलते होंगे, या फ़िर खुद भारत से गये हुए लोग वहाँ के समाज में घुल-मिल नहीं पाते होंगे, जिससे संवादहीनता की स्थिति बनती है। इससे एक सवाल सहज ही उत्पन्न होता है कि किसी दूसरे देश में गये भारतीयों को जब वहाँ की नागरिकता मिल गई हो, तब उन लोगों का भारत की तरफ़ मदद को ताकना क्या उचित है? ब्रिटेन या कनाडा जहाँ कहीं भारतीयों को उस देश की नागरिकता मिल गई, तो फ़िर क्यों वे हर बार भारत-भारत भजते रहते हैं, क्या यह देशद्रोह नहीं है? ठीक वैसे ही जैसे विभाजन के समय पाकिस्तान बनने पर जो मुसलमान भारत में ही रह गये यदि वे पाकिस्तान का झंडा उठाये घूमते हैं तब उन्हें देशद्रोही ही करार दिया जाता है। भले ही उनके कई रिश्तेदार पाकिस्तान में हों, लेकिन जब वे स्वयं भारत के नागरिक हैं तो उन्हें पाकिस्तान की ओर क्यों ताकना चाहिये? क्यों हर बात में पाक का गुणगान करना चाहिये? और मुसलमानों का केस तो इस केस से अलग इसलिये है क्योंकि विभाजन तो एक मानवनिर्मित त्रासदी थी, लेकिन जब कोई भारतीय अपनी स्वेच्छा से देश छोड़कर जाता है और दूसरे देश की नागरिकता ले लेता है, तब उसे वहीं के समाज में घुल-मिल जाना चाहिये, उसी देश का गुणगान करना चाहिये, उसी देश के भले के बारे सोचना चाहिये, इसलिये यदि पीड़ित तमिल मलेशिया के नागरिक हैं, तो उन्हें वहाँ के कानून के हिसाब से चलना चाहिये (मलेशिया कोई भारत थोड़े ही है कि अबू सलेम को लाने में करोड़ों खर्चा कर दिया, अब उसे संभालने में कर रहे हैं, ताकि वह सांसद बनकर और करोड़ों चरता फ़िरे)। और जो भारतीय मलेशिया के नागरिक नहीं बने हैं, उन्हें तो शिकायत करनी ही नहीं चाहिये, सीधे वापस आ जाना चाहिये (वैसे भी वह एक मुस्लिम देश है, वहाँ कोई सुनवाई तो होगी नहीं, जैसे अभी कुछ समय पहले मलयालियों के साथ अरब देशों में हुआ था)। रही बात मार खाने की, पिटने की, तो भैया जब हिन्दुस्तान में ही हिन्दू पिटता रहता है, तो बाहर उसकी क्या औकात है? चाहे फ़िजी हो, चाहे जर्मनी, चाहे अरब हो या फ़्रांस, हिन्दू कुटने के लिये ही पैदा हुआ है (दूसरा गाल सतत आगे जो करता रहा है)।
दूसरा पक्ष है सरकार- चाहे वह कथित हिन्दू समर्थक भाजपा की ही सरकार क्यों ना हो, विदेशों में हमारी सरकारों की एक नहीं चलती, कोई इनकी “चिंताओं” पर कान नहीं देता, और दे भी क्यों? हमने किया क्या है आज तक ईमानदारी से जनसंख्या बढ़ाने, जन्म से लेकर मृत्यु तक भ्रष्टाचार करने और जाति-धर्म के नाम पर लड़ने के अलावा। हाँ एक बात हमने जरूर की है...जमाने भर से हथियार पूरे पैसे एडवांस देकर खरीदे हैं और उन्हें कभी उपयोग नहीं किया। “भारतवंशी-भारतवंशी” नाम की बंसी जरूर हम यदा-कदा बजाते रहते हैं, बेशर्मी से ये भी कभी नहीं सोचते कि ना तो सुनीता विलियम्स, न तो बॉबी जिन्दल, ना स्वराज पॉल, ना ही वीएस नायपॉल कोई भी भारत का नागरिक नहीं है, ना इन्हें भारत से कोई खास लगाव है।
तीसरा पक्ष है, भारतीयों की हीनभावना से ग्रस्त मानसिकता। हमारे दिमाग में यह भर दिया गया है कि हमारा कोई गौरवशाली इतिहास था ही नहीं, शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान वगैरह भगौड़े थे, सिर्फ़ अकबर ने या फ़िर डलहौजी साहब ने ही कुछ किया है, वरना हम तो साँपों से ही खेल रहे होते अब तक! आत्मसम्मान नाम की चीज एक खास मानसिकता के लोगों ने षडयन्त्रपूर्वक समाप्त कर दी। जहाँ किसी ने “गर्व” की बात की, तड़ से उसे सांप्रदायिक ठहरा दो।
तो भाईयों और बहनों, चादर तानकर सो जाईये, जैसे रामभरोसे देश चल रहा है वैसे ही आगे भी चलता रहेगा, करना ही है तो पहले अपने देशवासियों की फ़िक्र करो, फ़िर उनके बारे में सोचना जो दूसरे देशों के नागरिक हैं।
प्राप्त सबक :
(१) किसी भी दूसरे देश में खासकर जब वह मुस्लिम बहुल हो, भारतीयों को किसी भी प्रकार की हमदर्दी की अपेक्षा नहीं रखना चाहिये। (लोकतंत्र और निरपेक्ष न्याय प्रणाली मुस्लिम देशों के लिये अभी भी अजूबा हैं)
(२) जिस देश के नागरिक बन चुके हो उसी देश का गुणगान करो (कहावत- जिसकी खाओ, उसकी बजाओ)
(३) यदि विपरीत परिस्थिति हो भी जाये तो “भारत सरकार” नाम की लुंजपुंज संस्था से किसी मदद की उम्मीद मत करो।
(४) इसराइलियों की तरह आत्मसम्मान से जीने की कोशिश करना चाहिये।
Malaysia, India, Tamils, Karunanidhi, Indian Government, Malaysia India Conflict, Ethnic Voilence, Civil Rights Issue, मलेशिया भारत, तमिल, करुणानिधि, भारत सरकार, नागरिक अधिकार मुद्दा,

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सोमवार, 10 दिसम्बर 2007 13:36
मैं किसी को वोट नहीं देना चाहता (धारा 49-O)
Negative Voting Indian Elections
क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान की एक धारा 49-O में एक प्रावधान है जिसके अनुसार किसी भी चुनाव में मतदाता पोलिंग बूथ पर जाये, अपनी पहचान और मतदाता क्रमांक साबित करे, अपनी उंगली पर स्याही लगवाये, और फ़िर चुनाव अधिकारी से यह कहे कि मैं किसी को वोट नहीं करना चाहता। सवाल उठता है कि हमें ऐसा क्यों करना चाहिये? मान लीजिये कि आपके वार्ड चुनावों में लगभग सारे प्रत्याशी या तो गुंडे-बदमाश हैं (90% तो होते ही हैं), या फ़िर कोई निकम्मा उम्मीदवार पुनः मैदान में है और आप चाहते हैं कि सभी तो नालायक हैं, मैं क्यों वोट दूँ? उस वक्त यह धारा काम आयेगी... मान लीजिये कि आपके वार्ड से कोई प्रत्याशी 123 वोटों से जीतता है, लेकिन यदि उसी वार्ड में 124 वोट “मुझे किसी को वोट नहीं देना” वाली धारा 49-O के निकलते हैं तो न सिर्फ़ उस प्रत्याशी का चुनाव रद्द हो जायेगा, बल्कि जब पुनः चुनाव होंगे उस वक्त पिछले सारे प्रत्याशियों को चुनाव में भाग लेने का मौका नहीं मिलेगा, इस प्रकार अपने-आप सभी उम्मीदवार खारिज हो जायेंगे। यह धारा “Conduct of Election Rules” सन् १९६१ में उल्लिखित है। इस धारा को हमारे नेताओं ने जानबूझकर प्रचारित नहीं किया, लेकिन आश्चर्यजनक यह भी है कि चुनाव आयोग और शेषन जैसे अधिकारियों ने भी जनता को इस बारे में जागरूक करने का प्रयास नहीं किया। पड़ताल करने पर पता चला कि इस धारा के उपयोग और इलेक्ट्रानिक मशीनों में “निगेटिव” (इनमें से कोई नहीं) वाला बटन लगाने सम्बन्धी याचिका उच्चतम न्यायालय में लम्बित है, और उस पर निर्णय आना बाकी है। इस सम्बन्ध में पत्रकार एस.दोराईराज ने अप्रैल २००६ में एक लेख लिखा था|

“किसी भी प्रत्याशी को वोट नहीं” के प्रावधान वाली भारतीय संविधान की धारा 49-O के बारे में जब मैंने गत दिनों मित्रों को ई-मेल किया था, तो अधिकतर की सलाह थी कि इसे मैं ब्लॉग पर डालूँ, फ़िर मैंने इस सम्बन्ध में कुछ जाँच-पड़ताल की तो पाया कि वाकई इस प्रकार की धारा हमारे चुनाव संविधान में उपलब्ध है। गत वर्ष तमिलनाडु विधानसभा के दौरान वहाँ के मुख्य चुनाव अधिकारी नरेश गुप्ता ने स्वीकार किया था कि इस प्रकार के प्रावधान होने की जानकारी एक “एनजीओ” ने माँगी थी, कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में भी “नकारात्मक वोटिंग” नामक एक बटन होना चाहिये। “पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज” नामक संस्था ने यह याचिका उच्चतम न्यायालय में लगाई है। यदि मित्रों को इस याचिका की वर्तमान स्थिति के बारे में पता हो तो उसे अपने-अपने ब्लॉग पर डालें, और नहीं तो कम से कम इस धारा के बारे में जनता को अवगत कराते रहें, कभी-न-कभी तो लोग इस बारे में समझने लगेंगे, और कुछ नहीं तो पार्टियों और उम्मीदवारों में एक भय की लहर तो दौड़ेगी। और भले ही यह जानकारी कुछ लोगों को पहले से ही हो, लेकिन मेरी तरह कई लोग और भी होंगे जिन तक यह जानकारी पहुँचना आवश्यक है, इसलिये इसे ब्लॉग पर डाल रहा हूँ....
49O Election Commission,
Elections in India, Politicians and 49-O, Indian Constitution, 49-O Rule, Negative Voting, Do not want to vote, Electronic Voting Machine, Conduct of Election, Indian Elections, 49-O चुनाव आयोग, भारतीय संविधान, नकारात्मक वोटिंग, धारा 49 O, भारतीय चुनाव, ई.वी.एम.,
क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान की एक धारा 49-O में एक प्रावधान है जिसके अनुसार किसी भी चुनाव में मतदाता पोलिंग बूथ पर जाये, अपनी पहचान और मतदाता क्रमांक साबित करे, अपनी उंगली पर स्याही लगवाये, और फ़िर चुनाव अधिकारी से यह कहे कि मैं किसी को वोट नहीं करना चाहता। सवाल उठता है कि हमें ऐसा क्यों करना चाहिये? मान लीजिये कि आपके वार्ड चुनावों में लगभग सारे प्रत्याशी या तो गुंडे-बदमाश हैं (90% तो होते ही हैं), या फ़िर कोई निकम्मा उम्मीदवार पुनः मैदान में है और आप चाहते हैं कि सभी तो नालायक हैं, मैं क्यों वोट दूँ? उस वक्त यह धारा काम आयेगी... मान लीजिये कि आपके वार्ड से कोई प्रत्याशी 123 वोटों से जीतता है, लेकिन यदि उसी वार्ड में 124 वोट “मुझे किसी को वोट नहीं देना” वाली धारा 49-O के निकलते हैं तो न सिर्फ़ उस प्रत्याशी का चुनाव रद्द हो जायेगा, बल्कि जब पुनः चुनाव होंगे उस वक्त पिछले सारे प्रत्याशियों को चुनाव में भाग लेने का मौका नहीं मिलेगा, इस प्रकार अपने-आप सभी उम्मीदवार खारिज हो जायेंगे। यह धारा “Conduct of Election Rules” सन् १९६१ में उल्लिखित है। इस धारा को हमारे नेताओं ने जानबूझकर प्रचारित नहीं किया, लेकिन आश्चर्यजनक यह भी है कि चुनाव आयोग और शेषन जैसे अधिकारियों ने भी जनता को इस बारे में जागरूक करने का प्रयास नहीं किया। पड़ताल करने पर पता चला कि इस धारा के उपयोग और इलेक्ट्रानिक मशीनों में “निगेटिव” (इनमें से कोई नहीं) वाला बटन लगाने सम्बन्धी याचिका उच्चतम न्यायालय में लम्बित है, और उस पर निर्णय आना बाकी है। इस सम्बन्ध में पत्रकार एस.दोराईराज ने अप्रैल २००६ में एक लेख लिखा था|

“किसी भी प्रत्याशी को वोट नहीं” के प्रावधान वाली भारतीय संविधान की धारा 49-O के बारे में जब मैंने गत दिनों मित्रों को ई-मेल किया था, तो अधिकतर की सलाह थी कि इसे मैं ब्लॉग पर डालूँ, फ़िर मैंने इस सम्बन्ध में कुछ जाँच-पड़ताल की तो पाया कि वाकई इस प्रकार की धारा हमारे चुनाव संविधान में उपलब्ध है। गत वर्ष तमिलनाडु विधानसभा के दौरान वहाँ के मुख्य चुनाव अधिकारी नरेश गुप्ता ने स्वीकार किया था कि इस प्रकार के प्रावधान होने की जानकारी एक “एनजीओ” ने माँगी थी, कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में भी “नकारात्मक वोटिंग” नामक एक बटन होना चाहिये। “पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज” नामक संस्था ने यह याचिका उच्चतम न्यायालय में लगाई है। यदि मित्रों को इस याचिका की वर्तमान स्थिति के बारे में पता हो तो उसे अपने-अपने ब्लॉग पर डालें, और नहीं तो कम से कम इस धारा के बारे में जनता को अवगत कराते रहें, कभी-न-कभी तो लोग इस बारे में समझने लगेंगे, और कुछ नहीं तो पार्टियों और उम्मीदवारों में एक भय की लहर तो दौड़ेगी। और भले ही यह जानकारी कुछ लोगों को पहले से ही हो, लेकिन मेरी तरह कई लोग और भी होंगे जिन तक यह जानकारी पहुँचना आवश्यक है, इसलिये इसे ब्लॉग पर डाल रहा हूँ....
49O Election Commission,
Elections in India, Politicians and 49-O, Indian Constitution, 49-O Rule, Negative Voting, Do not want to vote, Electronic Voting Machine, Conduct of Election, Indian Elections, 49-O चुनाव आयोग, भारतीय संविधान, नकारात्मक वोटिंग, धारा 49 O, भारतीय चुनाव, ई.वी.एम.,

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शुक्रवार, 14 दिसम्बर 2007 19:04
हे वामपंथियों और सेकुलरों बधाई हो...
Congrats Secularist Communists
१३ दिसम्बर को संसद पर हमले के छः बरस बीत गये। एक “परम्परा” की तरह हमारे प्रधानमंत्री (सचमुच?), लौहपुरुष (?) आडवाणी, एक गृहमंत्री नामक मोम के पुतले और “मम्मी के दुलारे” राहुल गाँधी ने शहीदों को याद करते हुए पुष्प अर्पित किये। उसी सभा के दौरान एक शहीद नानकचन्द की विधवा ने विलाप करते हुए कथित नेताओं को खरी-खरी सुनाते हुए बताया कि छः साल से उसे कोई सरकारी मदद नहीं मिली है। उसे एक पेट्रोल पंप आबंटित हुआ था, लेकिन उसे आज तक जमीन नहीं मिली (शायद सरकार “SEZ” के लिये जमीन हथियाने में व्यस्त होगी), और उस विधवा को शिकायत करने के कारण धकिया कर बाहर कर दिया गया।

(चित्र में नेताओं को आपबीती सुनाते हुए शहीद की विधवा)
दूसरी तरफ़ हमारे मानवाधिकार वाले भी खुश हो रहे होंगे कि चलो छः साल बीत गये आज तक हम अफ़जल को फ़ाँसी से बचाने में कामयाब रहे हैं। वामपंथियों और सेकुलरों का तो क्या कहना, उन्हें तो गुजरात में वोटों की फ़सल लहलहाती दिख रही होगी। क्या कहें ऐसे नेताओं को! जो अपनी ही जान बचाने वालों के परिजनों से ऐसा बर्ताव करते हों, इन नेताओं को तो रीढ़विहीन (Spineless) कहना भी इनका सम्मान ही होगा, इन्हें “हिजड़ा” कहना भी उचित नहीं है क्योंकि हिजड़ों को भी कभी-कभी गुस्सा आता है और वे भी अपना आत्मसम्मान बरकरार रखते ही हैं, लेकिन हमारे नेताओं ने तो अपना आत्मसम्मान पता नहीं किस रिश्वत के तले दबा कर रख दिया है।
सरकार को चिंता है कि हिन्दू देवियों की नग्न तस्वीरें बनाने वाला एमएफ़ हुसैन कैसे भारत लौटे, तसलीमा नसरीन के पेट में दर्द ना हो, दलाई लामा की तबियत ठीक रहे, या फ़िर तेलगी, सलेम, शहाबुद्दीन को कोई तकलीफ़ तो नहीं है, अफ़जल गुरु को चिकन बराबर मिल रहा है या नहीं... आदि-आदि... है ना परोपकारी सरकारें.. लेकिन खुद की जान की बाजी लगा कर इन घृणित लोगों की जान बचाने वालों का कोई खयाल नहीं... इसीलिये मेरा भारत महान है! क्या अभी भी यकीन नहीं हुआ? अच्छा चलो बताओ, कि ऐसा कौन सा देश है जिसके शांतिप्रिय नागरिक अपने ही देश में शरणार्थी हों... जी हाँ सही पहचाना... भारत ही है। कश्मीरी पंडितों को दिल्ली के बदबूदार तम्बुओं में बसाकर सरकारों ने एक पावन काम किया हुआ है और दुनिया को बता दिया है कि देखो हम कितने “सेकुलर” हैं। कांग्रेस की एक सफ़लता तो निश्चित है, कि उसने “सेकुलर” शब्द को लगभग एक गाली बनाकर रख दिया है। अभी भी विश्वास नहीं आया... लीजिये एक और सुनिये... समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक पाकिस्तानी नागरिक को दस-दस लाख रुपये दिये गये, मालेगाँव बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक मुसलमान को पाँच-पाँच लाख रुपये दिये गये, और हाल ही में अमरावती में दंगों में लगभग 75 करोड़ के नुकसान के लिये 137 हिन्दुओं को दिये गये कुल 20 लाख। ऐसे बनता है महान राष्ट्र।
लेकिन एक बात तो तय है कि जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करती वह मुर्दा कौम तो है ही, जल्द ही नेस्तनाबूद भी हो जाएगी, भले ही वह सॉफ़्टवेयर शक्ति हो या कथित “महान संस्कृति” का पुरातन देश....
Secularism, Communist and Secularism, Afzal Guru, Attack on Indian Parliament, Prime Minister Manmohan Singh, Human Rights in India, M.F. Hussain and Tasleema Nasrin, Gujrat and Kashmir, धर्मनिरपेक्षता, वामपंथी और धर्मनिरपेक्षता, भारतीय संसद पर हमला, भारत में मानवाधिकार,एमएफ़ हुसैन और तसलीमा नसरीन, गुजरात और कश्मीर,
१३ दिसम्बर को संसद पर हमले के छः बरस बीत गये। एक “परम्परा” की तरह हमारे प्रधानमंत्री (सचमुच?), लौहपुरुष (?) आडवाणी, एक गृहमंत्री नामक मोम के पुतले और “मम्मी के दुलारे” राहुल गाँधी ने शहीदों को याद करते हुए पुष्प अर्पित किये। उसी सभा के दौरान एक शहीद नानकचन्द की विधवा ने विलाप करते हुए कथित नेताओं को खरी-खरी सुनाते हुए बताया कि छः साल से उसे कोई सरकारी मदद नहीं मिली है। उसे एक पेट्रोल पंप आबंटित हुआ था, लेकिन उसे आज तक जमीन नहीं मिली (शायद सरकार “SEZ” के लिये जमीन हथियाने में व्यस्त होगी), और उस विधवा को शिकायत करने के कारण धकिया कर बाहर कर दिया गया।

(चित्र में नेताओं को आपबीती सुनाते हुए शहीद की विधवा)
दूसरी तरफ़ हमारे मानवाधिकार वाले भी खुश हो रहे होंगे कि चलो छः साल बीत गये आज तक हम अफ़जल को फ़ाँसी से बचाने में कामयाब रहे हैं। वामपंथियों और सेकुलरों का तो क्या कहना, उन्हें तो गुजरात में वोटों की फ़सल लहलहाती दिख रही होगी। क्या कहें ऐसे नेताओं को! जो अपनी ही जान बचाने वालों के परिजनों से ऐसा बर्ताव करते हों, इन नेताओं को तो रीढ़विहीन (Spineless) कहना भी इनका सम्मान ही होगा, इन्हें “हिजड़ा” कहना भी उचित नहीं है क्योंकि हिजड़ों को भी कभी-कभी गुस्सा आता है और वे भी अपना आत्मसम्मान बरकरार रखते ही हैं, लेकिन हमारे नेताओं ने तो अपना आत्मसम्मान पता नहीं किस रिश्वत के तले दबा कर रख दिया है।
सरकार को चिंता है कि हिन्दू देवियों की नग्न तस्वीरें बनाने वाला एमएफ़ हुसैन कैसे भारत लौटे, तसलीमा नसरीन के पेट में दर्द ना हो, दलाई लामा की तबियत ठीक रहे, या फ़िर तेलगी, सलेम, शहाबुद्दीन को कोई तकलीफ़ तो नहीं है, अफ़जल गुरु को चिकन बराबर मिल रहा है या नहीं... आदि-आदि... है ना परोपकारी सरकारें.. लेकिन खुद की जान की बाजी लगा कर इन घृणित लोगों की जान बचाने वालों का कोई खयाल नहीं... इसीलिये मेरा भारत महान है! क्या अभी भी यकीन नहीं हुआ? अच्छा चलो बताओ, कि ऐसा कौन सा देश है जिसके शांतिप्रिय नागरिक अपने ही देश में शरणार्थी हों... जी हाँ सही पहचाना... भारत ही है। कश्मीरी पंडितों को दिल्ली के बदबूदार तम्बुओं में बसाकर सरकारों ने एक पावन काम किया हुआ है और दुनिया को बता दिया है कि देखो हम कितने “सेकुलर” हैं। कांग्रेस की एक सफ़लता तो निश्चित है, कि उसने “सेकुलर” शब्द को लगभग एक गाली बनाकर रख दिया है। अभी भी विश्वास नहीं आया... लीजिये एक और सुनिये... समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक पाकिस्तानी नागरिक को दस-दस लाख रुपये दिये गये, मालेगाँव बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक मुसलमान को पाँच-पाँच लाख रुपये दिये गये, और हाल ही में अमरावती में दंगों में लगभग 75 करोड़ के नुकसान के लिये 137 हिन्दुओं को दिये गये कुल 20 लाख। ऐसे बनता है महान राष्ट्र।
लेकिन एक बात तो तय है कि जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करती वह मुर्दा कौम तो है ही, जल्द ही नेस्तनाबूद भी हो जाएगी, भले ही वह सॉफ़्टवेयर शक्ति हो या कथित “महान संस्कृति” का पुरातन देश....
Secularism, Communist and Secularism, Afzal Guru, Attack on Indian Parliament, Prime Minister Manmohan Singh, Human Rights in India, M.F. Hussain and Tasleema Nasrin, Gujrat and Kashmir, धर्मनिरपेक्षता, वामपंथी और धर्मनिरपेक्षता, भारतीय संसद पर हमला, भारत में मानवाधिकार,एमएफ़ हुसैन और तसलीमा नसरीन, गुजरात और कश्मीर,

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रविवार, 16 दिसम्बर 2007 18:42
मध्यप्रदेश में उच्च शिक्षा और अर्जुन सिंह
Higher Education in MP & Arjun Singh
प्रसिद्ध उपन्यास “राग दरबारी” में पंडित श्रीलाल शुक्ल लिख गये हैं कि “भारत में शिक्षा व्यवस्था, चौराहे पर पड़ी हुई उस कुतिया के समान है, जिसे हर आता-जाता और ऐरा-गैरा लतियाता रहता है”। भारत में उच्च शिक्षा के क्या हालात हैं यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार की अराजकता, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और बन्दरबाँट है, वह लगभग सरेआम जब-तब उजागर होती ही रहती है। लेकिन यह किस्सा है “ओबीसी के मसीहा”, “मध्यप्रदेश के वरिष्ठतम”, प्रशासनिक चुस्ती(?) के लिये पहचाने जाने वाले, मप्र में झुग्गीवासियों को पट्टे देने वाले, शिक्षा जगत में “जनरल प्रमोशन” नाम का नायाब “आइडिया” लाने वाले.... (अब क्या नाम भी बताना पड़ेगा...?) अर्थात कई बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये अर्जुनसिंह के गृहराज्य यानी हमारे मध्यप्रदेश का।
यूँ तो मध्यप्रदेश का नाम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कोई खास सम्मान के साथ नहीं लिया जाता, लेकिन कुछ संस्थान भोपाल, ग्वालियर और इन्दौर में हैं जो सतत अच्छे क्रियाकलाप और शानदार शैक्षणिक रिकॉर्ड के लिये जाने जाते हैं, वरना अधिकतर नामी-गिरामी शिक्षा संस्थान, आईआईटी और आईआईएम तो अन्य राज्यों में हैं। यहाँ तक कि कोचिंग को एक इंडस्ट्री का रूप देने वाला कोटा भी राजस्थान में है।
बहरहाल बात हो रही है मध्यप्रदेश की, यहाँ की राजधानी भोपाल में एक राष्ट्रीय स्तर का तकनीकी शिक्षा संस्थान है मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (MANIT)। इस संस्थान में देश के श्रेष्ठ छात्रों को प्रवेश AIEEE की परीक्षा देने के बाद ही मिलता है। इस संस्थान के बारे में पिछले दो-तीन वर्षों से कई शिकायतें मिल रही थीं, कुछ मीडिया में आती रहीं, कुछ पर छात्रों के पालकों ने कार्रवाई के लिये लिखा। आखिर दबाव के आगे झुकते हुए माननीय अर्जुन सिंह ने मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा एक जाँच करवाई, दुर्भाग्य से जिसके जाँचकर्ता थे मप्र के ही एक वरिष्ट रिटायर्ड आईएएस डॉ.एम.एन.बुच। “दुर्भाग्य” इसलिये कहा, क्योंकि इन ईमानदार अधिकारी ने संस्थान की जाँच के बाद जो रिपोर्ट पेश की उसमें उन्होंने सब कुछ सच-सच उजागर कर दिया, और अब श्री अर्जुन सिंह के समक्ष इस खलबली मचाने वाली रिपोर्ट पर कुछ कार्रवाई करने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। जरा एक नजर डालिये रिपोर्ट के कुछ खास बिन्दुओं पर, जिससे आपको पता चलेगा कि “जब बागड़ ही खेत खाने लगे, तो खेत का क्या हाल होता है”, या फ़िर ऐसे कहूँ कि यदि “चोर को ही खजाने की चाबी सौंप दी जाये तो क्या होता है”....
(१) नियुक्तियाँ – इस सम्मानित(?) संस्था में मौजूदा डीन और प्रभारी निदेशक डॉ. आशुतोष शर्मा की पदोन्नति नियमों के विपरीत है, वे प्रोफ़ेसर के रूप में पदोन्नत होने की न्य़ूनतम योग्यता भी नहीं रखते और इसीलिये उनकी नियुक्ति अवैध है। आशुतोष शर्मा के भाई अभय शर्मा को १४ जुलाई २००५ को सिविल इंजीनियरिंग विभाग में असि.प्रोफ़ेसर बनाया गया, बताया गया कि उन्हें “उद्योग” का अनुभव है, जबकि प्रदेश के लोक निर्माण विभाग को उद्योग नहीं माना जा सकता, न ही यह पीएचडी के समकक्ष है। बुच साहब ने लिखा है कि पिछले दो साल में (अर्थात जब से यूपीए सरकार आई और अर्जुन सिंह HRD मंत्री बने) इस संस्थान में हुई नियुक्तियों में 49 फ़ैकल्टी सदस्य आपस में रिश्तेदार हैं। इनकी नियुक्ति के लिये जिम्मेदार निदेशक, फ़ैकल्टी मेम्बर और चेयरमैन पर कार्रवाई होना चाहिये और जिनकी मिलीभगत से यह सब हुआ उन्हें गिरफ़्तार किया जाना चाहिये। अब कम से कम भारत में तो यह सम्भव ही नहीं है कि किसी केन्द्रीय शिक्षा संस्थान में एक पत्ता भी मंत्रीजी की मर्जी के बिना हिल जाये।
(२) ठेके – वर्ष 2006 में संस्थान में कुल साढ़े सात करोड़ के काम हुए जिसमें से साढ़े छः करोड़ के काम एक ही कम्पनी एसएस कंस्ट्रक्शन को दिये गये, जिसकी जाँच(?) जारी है।
असल में “डीम्ड यूनिवर्सिटी” बनाकर इसका कबाड़ा कर दिया गया है। अब यहाँ कोई बाहरी नियंत्रण नहीं है, पढ़ाना, परीक्षा लेना, पास करना, नियुक्तियाँ करना, सब कुछ स्थानीय स्तर पर ही होता है। इन सबका लाभ एक खास “गिरोह” उठा रहा है, जिसके खास राजनैतिक संपर्क हैं। जो भी नया निदेशक नियुक्त होता है, उसके खिलाफ़ खबरें छपवाना, उसे दबाव में लाना और फ़िर अपना सिक्का चलाना इस गिरोह के काम हैं। संस्थान के अंदरूनी हालात बदतर हो चुके हैं। डायरेक्टर कोई भी आदेश निकाले, कोई भी उसे नहीं मानता। संस्थान से सम्बन्धित कानूनी मामलों की लगभग 70 फ़ाईलें गायब हो चुकी हैं। शिक्षा प्रेमियों, प्राध्यापकों, विद्यार्थियों और पालकों ने जब-जब भी कोई शिकायत की वे सीधे कचरे के डिब्बे में जा पहुँची। तीन साल पहले अर्जुनसिंह ने देश के सारे एनआईटी निदेशकों को बिना सोचे-समझे बदल दिया (उनका मानना था कि सभी निदेशक मुरलीमनोहर जोशी के करीबी हैं और भाजपा के हैं)। इस क्रम में देश के एक बड़े वैज्ञानिक डीडी भवालकर के स्थान पर एक पूर्व विधायक को संस्थान का अध्यक्ष बना दिया गया, इसी से पता चलता है कि मानव संसाधन मंत्रालय की क्या इच्छा(!) थी। इसी प्रकार डॉ.पी.के.चांदे भी कोई आरएसएस के सदस्य नहीं है, बल्कि मप्र के तकनीकी शिक्षा जगत का एक जाना-माना नाम है, लेकिन उन्हें भी हटा दिया गया। चांदे साहब एक पुस्तक लिखने वाले हैं जिसमें सन 2003 से 2005 के बीच जिस शिक्षा माफ़िया का उन्होंने “अनुभव” किया उसकी जानकारी देंगे। भवालकर कहते हैं कि इतने बड़े तकनीकी संस्थान के रहते मप्र में उच्च शिक्षा का स्तर बहुत आगे जाना चाहिये था, लेकिन यह राजनीति में कुछ ऐसा उलझा कि अपना स्तर ही खो बैठा है।
यह रिपोर्ट गत जून में मंत्रालय में भेजी गई थी, और शायद आज तक इस पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, कारण खोजने की जरूरत नहीं है। मैनिट मप्र की नाक है, पूरे देश में ऐसे मात्र 20 संस्थान हैं लेकिन उसमें भोपाल का यह संस्थान शायद अन्तिम क्रम पर है। मप्र वालों को उम्मीद थी कि कम से कम अर्जुन सिंह के रहते इसका नाम त्रिची या वारंगल जैसे नामी तकनीकी शिक्षण संस्थाओं के साथ लिया जायेगा, लेकिन किसी ने सही कहा है कि राजनेता आजीवन राजनेता ही रहता है, चाहे वह किसी भी उम्र का हो।
Higher Education in MP, Higher Education and Arjun Singh, MANIT Bhopal, Technical Education MANIT, M.N.Butch, Corruption in Higher Education, Probe on MANIT Bhopal, D D Bhawalkar, P K Chande,
प्रसिद्ध उपन्यास “राग दरबारी” में पंडित श्रीलाल शुक्ल लिख गये हैं कि “भारत में शिक्षा व्यवस्था, चौराहे पर पड़ी हुई उस कुतिया के समान है, जिसे हर आता-जाता और ऐरा-गैरा लतियाता रहता है”। भारत में उच्च शिक्षा के क्या हालात हैं यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार की अराजकता, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और बन्दरबाँट है, वह लगभग सरेआम जब-तब उजागर होती ही रहती है। लेकिन यह किस्सा है “ओबीसी के मसीहा”, “मध्यप्रदेश के वरिष्ठतम”, प्रशासनिक चुस्ती(?) के लिये पहचाने जाने वाले, मप्र में झुग्गीवासियों को पट्टे देने वाले, शिक्षा जगत में “जनरल प्रमोशन” नाम का नायाब “आइडिया” लाने वाले.... (अब क्या नाम भी बताना पड़ेगा...?) अर्थात कई बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये अर्जुनसिंह के गृहराज्य यानी हमारे मध्यप्रदेश का।
यूँ तो मध्यप्रदेश का नाम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कोई खास सम्मान के साथ नहीं लिया जाता, लेकिन कुछ संस्थान भोपाल, ग्वालियर और इन्दौर में हैं जो सतत अच्छे क्रियाकलाप और शानदार शैक्षणिक रिकॉर्ड के लिये जाने जाते हैं, वरना अधिकतर नामी-गिरामी शिक्षा संस्थान, आईआईटी और आईआईएम तो अन्य राज्यों में हैं। यहाँ तक कि कोचिंग को एक इंडस्ट्री का रूप देने वाला कोटा भी राजस्थान में है।
बहरहाल बात हो रही है मध्यप्रदेश की, यहाँ की राजधानी भोपाल में एक राष्ट्रीय स्तर का तकनीकी शिक्षा संस्थान है मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (MANIT)। इस संस्थान में देश के श्रेष्ठ छात्रों को प्रवेश AIEEE की परीक्षा देने के बाद ही मिलता है। इस संस्थान के बारे में पिछले दो-तीन वर्षों से कई शिकायतें मिल रही थीं, कुछ मीडिया में आती रहीं, कुछ पर छात्रों के पालकों ने कार्रवाई के लिये लिखा। आखिर दबाव के आगे झुकते हुए माननीय अर्जुन सिंह ने मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा एक जाँच करवाई, दुर्भाग्य से जिसके जाँचकर्ता थे मप्र के ही एक वरिष्ट रिटायर्ड आईएएस डॉ.एम.एन.बुच। “दुर्भाग्य” इसलिये कहा, क्योंकि इन ईमानदार अधिकारी ने संस्थान की जाँच के बाद जो रिपोर्ट पेश की उसमें उन्होंने सब कुछ सच-सच उजागर कर दिया, और अब श्री अर्जुन सिंह के समक्ष इस खलबली मचाने वाली रिपोर्ट पर कुछ कार्रवाई करने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। जरा एक नजर डालिये रिपोर्ट के कुछ खास बिन्दुओं पर, जिससे आपको पता चलेगा कि “जब बागड़ ही खेत खाने लगे, तो खेत का क्या हाल होता है”, या फ़िर ऐसे कहूँ कि यदि “चोर को ही खजाने की चाबी सौंप दी जाये तो क्या होता है”....
(१) नियुक्तियाँ – इस सम्मानित(?) संस्था में मौजूदा डीन और प्रभारी निदेशक डॉ. आशुतोष शर्मा की पदोन्नति नियमों के विपरीत है, वे प्रोफ़ेसर के रूप में पदोन्नत होने की न्य़ूनतम योग्यता भी नहीं रखते और इसीलिये उनकी नियुक्ति अवैध है। आशुतोष शर्मा के भाई अभय शर्मा को १४ जुलाई २००५ को सिविल इंजीनियरिंग विभाग में असि.प्रोफ़ेसर बनाया गया, बताया गया कि उन्हें “उद्योग” का अनुभव है, जबकि प्रदेश के लोक निर्माण विभाग को उद्योग नहीं माना जा सकता, न ही यह पीएचडी के समकक्ष है। बुच साहब ने लिखा है कि पिछले दो साल में (अर्थात जब से यूपीए सरकार आई और अर्जुन सिंह HRD मंत्री बने) इस संस्थान में हुई नियुक्तियों में 49 फ़ैकल्टी सदस्य आपस में रिश्तेदार हैं। इनकी नियुक्ति के लिये जिम्मेदार निदेशक, फ़ैकल्टी मेम्बर और चेयरमैन पर कार्रवाई होना चाहिये और जिनकी मिलीभगत से यह सब हुआ उन्हें गिरफ़्तार किया जाना चाहिये। अब कम से कम भारत में तो यह सम्भव ही नहीं है कि किसी केन्द्रीय शिक्षा संस्थान में एक पत्ता भी मंत्रीजी की मर्जी के बिना हिल जाये।
(२) ठेके – वर्ष 2006 में संस्थान में कुल साढ़े सात करोड़ के काम हुए जिसमें से साढ़े छः करोड़ के काम एक ही कम्पनी एसएस कंस्ट्रक्शन को दिये गये, जिसकी जाँच(?) जारी है।
असल में “डीम्ड यूनिवर्सिटी” बनाकर इसका कबाड़ा कर दिया गया है। अब यहाँ कोई बाहरी नियंत्रण नहीं है, पढ़ाना, परीक्षा लेना, पास करना, नियुक्तियाँ करना, सब कुछ स्थानीय स्तर पर ही होता है। इन सबका लाभ एक खास “गिरोह” उठा रहा है, जिसके खास राजनैतिक संपर्क हैं। जो भी नया निदेशक नियुक्त होता है, उसके खिलाफ़ खबरें छपवाना, उसे दबाव में लाना और फ़िर अपना सिक्का चलाना इस गिरोह के काम हैं। संस्थान के अंदरूनी हालात बदतर हो चुके हैं। डायरेक्टर कोई भी आदेश निकाले, कोई भी उसे नहीं मानता। संस्थान से सम्बन्धित कानूनी मामलों की लगभग 70 फ़ाईलें गायब हो चुकी हैं। शिक्षा प्रेमियों, प्राध्यापकों, विद्यार्थियों और पालकों ने जब-जब भी कोई शिकायत की वे सीधे कचरे के डिब्बे में जा पहुँची। तीन साल पहले अर्जुनसिंह ने देश के सारे एनआईटी निदेशकों को बिना सोचे-समझे बदल दिया (उनका मानना था कि सभी निदेशक मुरलीमनोहर जोशी के करीबी हैं और भाजपा के हैं)। इस क्रम में देश के एक बड़े वैज्ञानिक डीडी भवालकर के स्थान पर एक पूर्व विधायक को संस्थान का अध्यक्ष बना दिया गया, इसी से पता चलता है कि मानव संसाधन मंत्रालय की क्या इच्छा(!) थी। इसी प्रकार डॉ.पी.के.चांदे भी कोई आरएसएस के सदस्य नहीं है, बल्कि मप्र के तकनीकी शिक्षा जगत का एक जाना-माना नाम है, लेकिन उन्हें भी हटा दिया गया। चांदे साहब एक पुस्तक लिखने वाले हैं जिसमें सन 2003 से 2005 के बीच जिस शिक्षा माफ़िया का उन्होंने “अनुभव” किया उसकी जानकारी देंगे। भवालकर कहते हैं कि इतने बड़े तकनीकी संस्थान के रहते मप्र में उच्च शिक्षा का स्तर बहुत आगे जाना चाहिये था, लेकिन यह राजनीति में कुछ ऐसा उलझा कि अपना स्तर ही खो बैठा है।
यह रिपोर्ट गत जून में मंत्रालय में भेजी गई थी, और शायद आज तक इस पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, कारण खोजने की जरूरत नहीं है। मैनिट मप्र की नाक है, पूरे देश में ऐसे मात्र 20 संस्थान हैं लेकिन उसमें भोपाल का यह संस्थान शायद अन्तिम क्रम पर है। मप्र वालों को उम्मीद थी कि कम से कम अर्जुन सिंह के रहते इसका नाम त्रिची या वारंगल जैसे नामी तकनीकी शिक्षण संस्थाओं के साथ लिया जायेगा, लेकिन किसी ने सही कहा है कि राजनेता आजीवन राजनेता ही रहता है, चाहे वह किसी भी उम्र का हो।
Higher Education in MP, Higher Education and Arjun Singh, MANIT Bhopal, Technical Education MANIT, M.N.Butch, Corruption in Higher Education, Probe on MANIT Bhopal, D D Bhawalkar, P K Chande,

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शुक्रवार, 21 दिसम्बर 2007 13:36
आज लाईट नहीं गई, “धर्मनिरपेक्षता की जय”
Secularism BJP and Power Cut
शीर्षक पढ़कर पाठक चौंके होंगे कि लाईट जाने और धर्मनिरपेक्षता का क्या सम्बन्ध है? दरअसल हमारे उज्जैन में रोजाना सुबह 8.00 बजे से 10.00 बजे तक घोषित रूप से बिजली कटौती होती है (अघोषित तो अघोषित होती है भाई), तो आज मैंने घरवालों से शर्त लगाई थी कि आज बिजली कटौती नहीं होगी और मैं शर्त जीत गया। अब सोचिये कि लाईट क्यों नहीं गई? अरे भाई, आज “ईद” थी ना!!! अब आप सोच रहे होंगे कि भला इससे “धर्मनिरपेक्षता” का क्या सम्बन्ध है, तो सुनिये...हिन्दुओं के सबसे बड़े पर्व दीपावली के दिन भी सुबह नियमित समय पर कटौती हुई, सिखों के सबसे बड़े त्यौहार गुरुनानक जयन्ती के दिन भी लाईट गई थी, लेकिन चूँकि भाजपा को भी कांग्रेस की तरह धर्मनिरपेक्ष “दिखाई देने” का शौक चर्राया है, इसलिये आज सुबह ईद के उपलक्ष्य में लाईट नहीं गई (और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा)... अब मैं इन्तजार कर रहा हूँ कि क्रिसमस के दिन क्या होता है, यदि भाजपा को “थोड़ा कम” धर्मनिरपेक्ष होना होगा तो उस दिन लाईट जायेगी, और यदि “पूरा धर्मनिरपेक्ष” बनना होगा तो क्रिसमस के दिन भी लाईट नहीं जायेगी। भले ही पूरे प्रदेश में बिजली की कमी हो, लेकिन ईद और क्रिसमस के दिन दोगुना पैसा देकर भी बिजली खरीदी जायेगी (पैसा नेताओं की जेब से थोड़े ही जा रहा है)..... यहाँ तक कि आज तो नल भी दोनों टाईम आयेंगे ताकि कटे हुए लाखों बकरों के खून को आसानी से बहाया जा सके.... इसे कहते हैं असली धर्मनिरपेक्षता!!!
मप्र में हाल के दो उपचुनावों में भाजपा द्वारा जूते खा लेने के बाद उसे अगले वर्ष होने वाले चुनावों के लिये “धर्मनिरपेक्ष” दिखना जरूरी है, यह अन्तर है बाकी भाजपा में और गुजरात के मोदी में। मोदी “हिप्पोक्रेट” नहीं हैं, वे जो हैं वही दिखते भी हैं और इसीलिये उनका हिन्दू वोट बैंक(?) सुरक्षित है, जबकि भाजपा के बाकी नेता साफ़-साफ़ यह जान लेने के बावजूद कि मुसलमानों का वोट उन्हें कभी नहीं मिलेगा, इस तरह के करतबों से बाज नहीं आ रहे। “कन्धार विमान अपहरण” के शर्मनाक हादसे (जब पूरी दुनिया में हमने यह साबित कर दिया था कि हम नपुंसक हैं) के बाद स्वर्गीय कमलेश्वर जी को मैंने दो पत्र लिखे थे, (जिसका जवाब भी उन्होंने दिया था)। उन पत्रों में मैंने उनसे कहा था कि कन्धार मामले को भाजपा ने जैसे “सुलझाया”(?) है, उससे भाजपा के कट्टर समर्थक भी उससे दूर हो गये हैं, और अगले आम चुनावों में “इंडिया शाइनिंग” कितना भी कर ले, उन्हें हारना तय है और वही हुआ भी। कंधार प्रकरण ने भाजपा को देश-विदेश में अपनी छवि चमकाने का शानदार मौका दिया था और उसने वीपी सिंह (रूबिया सईद अपहरण कांड) और नरसिंहराव (हजरत बल दरगाह चिकन कांड) का रास्ता अपनाकर उसे गँवा दिया। भाजपा को अपने “कैडर” यानी संघ की विचारधारा के अनुसार काम करना चाहिये, लेकिन जब भी वह कहीं भी सत्ता में आती है, पार्टी और सरकार पर धनपतियों और नकली संघियों का कब्जा हो जाता है, दरी बिछाने से लेकर मतदाता पर्ची तैयार करने वाले आम कार्यकर्ता को भुला दिया जाता है। यही गलती पहले कांग्रेस करती थी, और इसीलिये अब वह नेताओं की पार्टी हो गई है, वहाँ कोई कार्यकर्ता नहीं बचा है। भाजपा अब भी इसी दुविधा में है कि उसे हिन्दूवादी होना चाहिये या धर्मनिरपेक्षता का कांग्रेसी ढोंग करना चाहिये.... और जब तक वह इस दुविधा में रहेगी जूते खाती रहेगी...यानी धर्मनिरपेक्ष(?) लोगों को खुश होना चाहिये। और बाकी लोगों को पैसा कमाने से थोड़ी फ़ुरसत मिल जाये तो अपने आसपास निगाह दौडा कर देख लीजिये, कितनी गुमटियाँ, कितनी झुग्गियाँ और अचानक "उग" आई हुई दरगाहें आपको दिखाई देती हैं.... जिन पर सिर्फ़ सरकार और प्रशासन की निगाह नहीं पड़ती...
Secularism and BJP, Secularism and Congress, Eid, Diwali and Gurunanak Jayanti, Kandhar, Hazrat Bal, Rubia Saeed, Narendra Modi, Hinduism and Secularism, Downfall of BJP, भाजपा और धर्मनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता और कांग्रेस, ईद, दिवाली, गुरुनानक जयन्ती, हजरतबल दरगाह, कन्धार हवाई अपहरण, आतंकवाद
शीर्षक पढ़कर पाठक चौंके होंगे कि लाईट जाने और धर्मनिरपेक्षता का क्या सम्बन्ध है? दरअसल हमारे उज्जैन में रोजाना सुबह 8.00 बजे से 10.00 बजे तक घोषित रूप से बिजली कटौती होती है (अघोषित तो अघोषित होती है भाई), तो आज मैंने घरवालों से शर्त लगाई थी कि आज बिजली कटौती नहीं होगी और मैं शर्त जीत गया। अब सोचिये कि लाईट क्यों नहीं गई? अरे भाई, आज “ईद” थी ना!!! अब आप सोच रहे होंगे कि भला इससे “धर्मनिरपेक्षता” का क्या सम्बन्ध है, तो सुनिये...हिन्दुओं के सबसे बड़े पर्व दीपावली के दिन भी सुबह नियमित समय पर कटौती हुई, सिखों के सबसे बड़े त्यौहार गुरुनानक जयन्ती के दिन भी लाईट गई थी, लेकिन चूँकि भाजपा को भी कांग्रेस की तरह धर्मनिरपेक्ष “दिखाई देने” का शौक चर्राया है, इसलिये आज सुबह ईद के उपलक्ष्य में लाईट नहीं गई (और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा)... अब मैं इन्तजार कर रहा हूँ कि क्रिसमस के दिन क्या होता है, यदि भाजपा को “थोड़ा कम” धर्मनिरपेक्ष होना होगा तो उस दिन लाईट जायेगी, और यदि “पूरा धर्मनिरपेक्ष” बनना होगा तो क्रिसमस के दिन भी लाईट नहीं जायेगी। भले ही पूरे प्रदेश में बिजली की कमी हो, लेकिन ईद और क्रिसमस के दिन दोगुना पैसा देकर भी बिजली खरीदी जायेगी (पैसा नेताओं की जेब से थोड़े ही जा रहा है)..... यहाँ तक कि आज तो नल भी दोनों टाईम आयेंगे ताकि कटे हुए लाखों बकरों के खून को आसानी से बहाया जा सके.... इसे कहते हैं असली धर्मनिरपेक्षता!!!
मप्र में हाल के दो उपचुनावों में भाजपा द्वारा जूते खा लेने के बाद उसे अगले वर्ष होने वाले चुनावों के लिये “धर्मनिरपेक्ष” दिखना जरूरी है, यह अन्तर है बाकी भाजपा में और गुजरात के मोदी में। मोदी “हिप्पोक्रेट” नहीं हैं, वे जो हैं वही दिखते भी हैं और इसीलिये उनका हिन्दू वोट बैंक(?) सुरक्षित है, जबकि भाजपा के बाकी नेता साफ़-साफ़ यह जान लेने के बावजूद कि मुसलमानों का वोट उन्हें कभी नहीं मिलेगा, इस तरह के करतबों से बाज नहीं आ रहे। “कन्धार विमान अपहरण” के शर्मनाक हादसे (जब पूरी दुनिया में हमने यह साबित कर दिया था कि हम नपुंसक हैं) के बाद स्वर्गीय कमलेश्वर जी को मैंने दो पत्र लिखे थे, (जिसका जवाब भी उन्होंने दिया था)। उन पत्रों में मैंने उनसे कहा था कि कन्धार मामले को भाजपा ने जैसे “सुलझाया”(?) है, उससे भाजपा के कट्टर समर्थक भी उससे दूर हो गये हैं, और अगले आम चुनावों में “इंडिया शाइनिंग” कितना भी कर ले, उन्हें हारना तय है और वही हुआ भी। कंधार प्रकरण ने भाजपा को देश-विदेश में अपनी छवि चमकाने का शानदार मौका दिया था और उसने वीपी सिंह (रूबिया सईद अपहरण कांड) और नरसिंहराव (हजरत बल दरगाह चिकन कांड) का रास्ता अपनाकर उसे गँवा दिया। भाजपा को अपने “कैडर” यानी संघ की विचारधारा के अनुसार काम करना चाहिये, लेकिन जब भी वह कहीं भी सत्ता में आती है, पार्टी और सरकार पर धनपतियों और नकली संघियों का कब्जा हो जाता है, दरी बिछाने से लेकर मतदाता पर्ची तैयार करने वाले आम कार्यकर्ता को भुला दिया जाता है। यही गलती पहले कांग्रेस करती थी, और इसीलिये अब वह नेताओं की पार्टी हो गई है, वहाँ कोई कार्यकर्ता नहीं बचा है। भाजपा अब भी इसी दुविधा में है कि उसे हिन्दूवादी होना चाहिये या धर्मनिरपेक्षता का कांग्रेसी ढोंग करना चाहिये.... और जब तक वह इस दुविधा में रहेगी जूते खाती रहेगी...यानी धर्मनिरपेक्ष(?) लोगों को खुश होना चाहिये। और बाकी लोगों को पैसा कमाने से थोड़ी फ़ुरसत मिल जाये तो अपने आसपास निगाह दौडा कर देख लीजिये, कितनी गुमटियाँ, कितनी झुग्गियाँ और अचानक "उग" आई हुई दरगाहें आपको दिखाई देती हैं.... जिन पर सिर्फ़ सरकार और प्रशासन की निगाह नहीं पड़ती...
Secularism and BJP, Secularism and Congress, Eid, Diwali and Gurunanak Jayanti, Kandhar, Hazrat Bal, Rubia Saeed, Narendra Modi, Hinduism and Secularism, Downfall of BJP, भाजपा और धर्मनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता और कांग्रेस, ईद, दिवाली, गुरुनानक जयन्ती, हजरतबल दरगाह, कन्धार हवाई अपहरण, आतंकवाद

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रविवार, 23 दिसम्बर 2007 11:05
सोनियाजी ऐसी भी क्या दुश्मनी!!!
Sonia Gandhi Amitabh Bachchan Rivalry
आमतौर पर एक सामाजिक मान्यता है कि भले ही आप किसी परिवार में मांगलिक अवसरों पर उपस्थित न हो सकें तो चलेगा, लेकिन उस परिवार की गमी में अवश्य शामिल होना चाहिये, चाहे उस परिवार से आपका कितना ही मनमुटाव क्यों ना हो... अमिताभ बच्चन की माँ अर्थात तेजी बच्चन के अन्तिम संस्कार में गाँधी परिवार का एक भी सदस्य मौजूद नहीं था, जबकि भैरोंसिंह शेखावत अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद इसमें शामिल हुए।
उल्लेखनीय है कि तेजी बच्चन एक संभ्रांत सिख परिवार की बेटी थीं, जिन्होंने अपने परिवार के भारी विरोध के बावजूद उस जमाने में एक कायस्थ से प्रेम विवाह किया। हालांकि उनके दबंग व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिये यही एक तथ्य काफ़ी है, लेकिन इसके भी परे उन्होंने अपने बच्चों अमिताभ और अजिताभ को बेहतर संस्कार दिये और उन्हें एक मृदुभाषी और संस्कारित व्यक्ति बनाया।
तेजी बच्चन के स्व.इन्दिरा गाँधी से व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे और उन्होंने हमेशा राजीव गाँधी को अपने पुत्र के समान माना और स्नेह दिया। जब सोनिया माइनो से राजीव का विवाह तय हुआ उस समय सोनिया को भारतीय संस्कारों और परम्पराओं की जानकारी देने के लिये इंदिरा गाँधी ने तेजी से ही अनुरोध किया था, और एक तरह से तात्कालिक रूप से सोनिया का कन्या पक्ष बच्चन परिवार ही था, और चूँकि भारतीय पद्धति से विवाह (देखें लिंक दिखावे के लिये ही सही) हो रहा था इसलिये “कन्यादान” जैसी रस्म भी बच्चन परिवार ने ही निभाई थी। दो परिवारों के बीच इतने “प्रगाढ़” सम्बन्ध होने के बावजूद ऐसा क्या हो गया कि अब सोनिया एक महत्वपूर्ण शोक के अवसर पर नदारद रहीं। क्या राजनीति और अहं की परछाईयाँ इतनी लम्बी होती हैं कि व्यक्ति अपने सामान्य नैतिक व्यवहार तक भूल जाता है? क्या बच्चन परिवार ने गाँधी परिवार का इतना बुरा कर दिया है कि इस मौके पर भी कम से कम राहुल गाँधी को उपस्थित रहने का निर्देश भी सोनिया नहीं दे सकीं? अब तक तो बच्चन परिवार की ओर से शालीन बर्ताव के कारण यह पता नहीं चल सका है कि इन दोनों परिवारों में मनमुटाव की ऐसी स्थिति क्यों और कैसे बनी (अब तक तो यही देखने में आया है कि अमिताभ के खिलाफ़ आयकर विभाग को सतत काम पर लगाया गया, जया बच्चन की राज्यसभा सदस्यता “दोहरे लाभ पद” वाले मामले में कुर्बान करनी पड़ी) लेकिन एक बार बीच में राहुल के मुँह से निकल गया था कि “बच्चन परिवार ने हमारे साथ विश्वासघात किया है”... हो सकता है कि ऐसी कोई बात हो भी, लेकिन भारतीय संस्कृति में और इतने बड़े सार्वजनिक पद पर रहने के कारण सोनिया का यह फ़र्ज बनता था कि अपने “दुश्मन” के यहाँ इस अवसर पर उपस्थित रहतीं, या परिवार के किसी सदस्य को भेजतीं, और नहीं तो कम से कम एक बयान जारी करके अखबारों में ही संवेदना प्रकट कर देतीं, लेकिन शायद “इटली” के संस्कार भारतीय बहू(?) पर भारी पड़ गये.... ऐसी भी क्या दुश्मनी!!!!!
Gandhi Family and Bachchan family, Sonia Gandhi and Amitabh Bachchan, Rivalry in Politics, Ethics of Social Life, Teji Bachchan, Harivanshrai Bachchan, Amitabh and Rajiv Gandhi, गाँधी परिवार और बच्चन परिवार, सोनिया गाँधी और अमिताभ बच्चन, राजनैतिक दुश्मनी, तेजी बच्चन, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, हरिवंशराय बच्चन, सार्वजनिक जीवन में नैतिकता,
आमतौर पर एक सामाजिक मान्यता है कि भले ही आप किसी परिवार में मांगलिक अवसरों पर उपस्थित न हो सकें तो चलेगा, लेकिन उस परिवार की गमी में अवश्य शामिल होना चाहिये, चाहे उस परिवार से आपका कितना ही मनमुटाव क्यों ना हो... अमिताभ बच्चन की माँ अर्थात तेजी बच्चन के अन्तिम संस्कार में गाँधी परिवार का एक भी सदस्य मौजूद नहीं था, जबकि भैरोंसिंह शेखावत अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद इसमें शामिल हुए।
उल्लेखनीय है कि तेजी बच्चन एक संभ्रांत सिख परिवार की बेटी थीं, जिन्होंने अपने परिवार के भारी विरोध के बावजूद उस जमाने में एक कायस्थ से प्रेम विवाह किया। हालांकि उनके दबंग व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिये यही एक तथ्य काफ़ी है, लेकिन इसके भी परे उन्होंने अपने बच्चों अमिताभ और अजिताभ को बेहतर संस्कार दिये और उन्हें एक मृदुभाषी और संस्कारित व्यक्ति बनाया।
तेजी बच्चन के स्व.इन्दिरा गाँधी से व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे और उन्होंने हमेशा राजीव गाँधी को अपने पुत्र के समान माना और स्नेह दिया। जब सोनिया माइनो से राजीव का विवाह तय हुआ उस समय सोनिया को भारतीय संस्कारों और परम्पराओं की जानकारी देने के लिये इंदिरा गाँधी ने तेजी से ही अनुरोध किया था, और एक तरह से तात्कालिक रूप से सोनिया का कन्या पक्ष बच्चन परिवार ही था, और चूँकि भारतीय पद्धति से विवाह (देखें लिंक दिखावे के लिये ही सही) हो रहा था इसलिये “कन्यादान” जैसी रस्म भी बच्चन परिवार ने ही निभाई थी। दो परिवारों के बीच इतने “प्रगाढ़” सम्बन्ध होने के बावजूद ऐसा क्या हो गया कि अब सोनिया एक महत्वपूर्ण शोक के अवसर पर नदारद रहीं। क्या राजनीति और अहं की परछाईयाँ इतनी लम्बी होती हैं कि व्यक्ति अपने सामान्य नैतिक व्यवहार तक भूल जाता है? क्या बच्चन परिवार ने गाँधी परिवार का इतना बुरा कर दिया है कि इस मौके पर भी कम से कम राहुल गाँधी को उपस्थित रहने का निर्देश भी सोनिया नहीं दे सकीं? अब तक तो बच्चन परिवार की ओर से शालीन बर्ताव के कारण यह पता नहीं चल सका है कि इन दोनों परिवारों में मनमुटाव की ऐसी स्थिति क्यों और कैसे बनी (अब तक तो यही देखने में आया है कि अमिताभ के खिलाफ़ आयकर विभाग को सतत काम पर लगाया गया, जया बच्चन की राज्यसभा सदस्यता “दोहरे लाभ पद” वाले मामले में कुर्बान करनी पड़ी) लेकिन एक बार बीच में राहुल के मुँह से निकल गया था कि “बच्चन परिवार ने हमारे साथ विश्वासघात किया है”... हो सकता है कि ऐसी कोई बात हो भी, लेकिन भारतीय संस्कृति में और इतने बड़े सार्वजनिक पद पर रहने के कारण सोनिया का यह फ़र्ज बनता था कि अपने “दुश्मन” के यहाँ इस अवसर पर उपस्थित रहतीं, या परिवार के किसी सदस्य को भेजतीं, और नहीं तो कम से कम एक बयान जारी करके अखबारों में ही संवेदना प्रकट कर देतीं, लेकिन शायद “इटली” के संस्कार भारतीय बहू(?) पर भारी पड़ गये.... ऐसी भी क्या दुश्मनी!!!!!
Gandhi Family and Bachchan family, Sonia Gandhi and Amitabh Bachchan, Rivalry in Politics, Ethics of Social Life, Teji Bachchan, Harivanshrai Bachchan, Amitabh and Rajiv Gandhi, गाँधी परिवार और बच्चन परिवार, सोनिया गाँधी और अमिताभ बच्चन, राजनैतिक दुश्मनी, तेजी बच्चन, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, हरिवंशराय बच्चन, सार्वजनिक जीवन में नैतिकता,

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रविवार, 23 दिसम्बर 2007 17:42
कांग्रेस से ज्यादा घिनौनी पार्टी कोई और है?
Double Standards of Congress
जरा इनके बयानों का विरोधाभास देखिये....
हजारों सिखों का कत्लेआम – एक गलती
कश्मीर में हिन्दुओं का नरसंहार – एक राजनैतिक समस्या
गुजरात में कुछ हजार लोगों द्वारा मुसलमानों की हत्या – एक विध्वंस
बंगाल में गरीब प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी – गलतफ़हमी
गुजरात में “परजानिया” पर प्रतिबन्ध – साम्प्रदायिक
“दा विंची कोड” और “जो बोले सो निहाल” पर प्रतिबन्ध – धर्मनिरपेक्षता
कारगिल हमला – भाजपा सरकार की भूल
चीन का 1962 का हमला – नेहरू को एक धोखा
जातिगत आधार पर स्कूल-कालेजों में आरक्षण – सेक्यूलर
अल्पसंख्यक संस्थाओं में भी आरक्षण की भाजपा की मांग – साम्प्रदायिक
सोहराबुद्दीन की फ़र्जी मुठभेड़ – भाजपा का सांप्रदायिक चेहरा
ख्वाजा यूनुस का महाराष्ट्र में फ़र्जी मुठभेड़ – पुलिसिया अत्याचार
गोधरा के बाद के गुजरात दंगे - मोदी का शर्मनाक कांड
मेरठ, मलियाना, मुम्बई, मालेगाँव आदि-आदि-आदि दंगे - एक प्रशासनिक विफ़लता
हिन्दुओं और हिन्दुत्व के बारे बातें करना – सांप्रदायिक
इस्लाम और मुसलमानों के बारे में बातें करना – सेक्यूलर
संसद पर हमला – भाजपा सरकार की कमजोरी
अफ़जल गुरु को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद फ़ाँसी न देना – मानवीयता
भाजपा के इस्लाम के बारे में सवाल – सांप्रदायिकता
कांग्रेस के “राम” के बारे में सवाल – नौकरशाही की गलती
यदि कांग्रेस लोकसभा चुनाव जीती – सोनिया को जनता ने स्वीकारा
मोदी गुजरात में चुनाव जीते – फ़ासिस्टों की जीत
सोनिया मोदी को कहती हैं “मौत का सौदागर” – सेक्यूलरिज्म को बढ़ावा
जब मोदी अफ़जल गुरु के बारे में बोले – मुस्लिम विरोधी
क्या इससे बड़ी दोमुँही, शर्मनाक, घटिया और जनविरोधी पार्टी कोई और हो सकती है?
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जरा इनके बयानों का विरोधाभास देखिये....
हजारों सिखों का कत्लेआम – एक गलती
कश्मीर में हिन्दुओं का नरसंहार – एक राजनैतिक समस्या
गुजरात में कुछ हजार लोगों द्वारा मुसलमानों की हत्या – एक विध्वंस
बंगाल में गरीब प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी – गलतफ़हमी
गुजरात में “परजानिया” पर प्रतिबन्ध – साम्प्रदायिक
“दा विंची कोड” और “जो बोले सो निहाल” पर प्रतिबन्ध – धर्मनिरपेक्षता
कारगिल हमला – भाजपा सरकार की भूल
चीन का 1962 का हमला – नेहरू को एक धोखा
जातिगत आधार पर स्कूल-कालेजों में आरक्षण – सेक्यूलर
अल्पसंख्यक संस्थाओं में भी आरक्षण की भाजपा की मांग – साम्प्रदायिक
सोहराबुद्दीन की फ़र्जी मुठभेड़ – भाजपा का सांप्रदायिक चेहरा
ख्वाजा यूनुस का महाराष्ट्र में फ़र्जी मुठभेड़ – पुलिसिया अत्याचार
गोधरा के बाद के गुजरात दंगे - मोदी का शर्मनाक कांड
मेरठ, मलियाना, मुम्बई, मालेगाँव आदि-आदि-आदि दंगे - एक प्रशासनिक विफ़लता
हिन्दुओं और हिन्दुत्व के बारे बातें करना – सांप्रदायिक
इस्लाम और मुसलमानों के बारे में बातें करना – सेक्यूलर
संसद पर हमला – भाजपा सरकार की कमजोरी
अफ़जल गुरु को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद फ़ाँसी न देना – मानवीयता
भाजपा के इस्लाम के बारे में सवाल – सांप्रदायिकता
कांग्रेस के “राम” के बारे में सवाल – नौकरशाही की गलती
यदि कांग्रेस लोकसभा चुनाव जीती – सोनिया को जनता ने स्वीकारा
मोदी गुजरात में चुनाव जीते – फ़ासिस्टों की जीत
सोनिया मोदी को कहती हैं “मौत का सौदागर” – सेक्यूलरिज्म को बढ़ावा
जब मोदी अफ़जल गुरु के बारे में बोले – मुस्लिम विरोधी
क्या इससे बड़ी दोमुँही, शर्मनाक, घटिया और जनविरोधी पार्टी कोई और हो सकती है?
Secularism and Congress, Secularism in Gujrat, Sonia Gandhi and Narendra Modi, Afzal Guru, Attack on Parliament, Soharabuddin Encounter, Reservation in Minority Schools, BJP and Secularism, Hindutva, कांग्रेस, भाजपा, गुजरात चुनाव, सोनिया गाँधी और नरेन्द्र मोदी, संसद पर हमला और अफ़जल गुरु, हिन्दुत्व, आरक्षण,

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