भले ही उसके कारण अलग-अलग हों (जो हम आगे देखेंगे), परन्तु कुल मिलाकर पाँच राज्यों (जिसमें गोवा और मणिपुर जैसे बेहद छोटे राज्य भी थे) के विधानसभा चुनाव के परिणामों को लेकर इतनी उत्सुकता पहले कभी नहीं देखी गई थी. मैं राज्यवार एक-एक करके इन चुनावों का विश्लेषण करूँगा, लेकिन सबसे पहले एक बात कहना आवश्यक है कि 2014 से चली आ रही “मोदी सुनामी” अभी भी बरकरार है, इसमें अब किसी को शक नहीं रह गया है. जिस तरह उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट करके साफ़ कह दिया है कि विपक्ष को 2019 भूलकर 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए, वह एकदम जमीनी सत्य है. उत्तरप्रदेश चुनावों के इन परिणामों से यह स्पष्ट हो गया है कि कम से कम अगले पाँच-दस वर्षों तक नरेंद्र मोदी की बादशाहत को चुनौती देने वाला केवल भाजपा ही नहीं, विपक्ष में भी कोई नहीं है. यूपी की यह जीत, केवल और केवल मोदी के “करिश्मे” की जीत रही.
ऐसा कहा जाता है कि, जीत के नशे में हार को नहीं भूलना चाहिए, और भोजन में मीठा हमेशा सबसे अंत में खाना चाहिए. इसी को ध्यान में रखते हुए अपने इस चुनावी विश्लेषण में मैं उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की ऐतिहासिक (बल्कि भूकम्पकारी) जीत को सबसे अंत में विश्लेषित करूँगा. पहले हम यह देखेंगे कि आखिर पंजाब, गोवा और मणिपुर में क्या हुआ? शुरू करते हैं पंजाब से...
पंजाब में पिछले दस वर्षों से अकाली-भाजपा का गठबंधन था. स्वाभाविक है कि एक “एंटी-इनकम्बेंसी” (सत्ता-विरोधी) वोट इस अंतराल में धीरे-धीरे खड़ा हो ही जाता है, लेकिन उस एंटी-इनकम्बेंसी को सही तरीके से भाँपना और समय रहते उसका इलाज करना एक राजनैतिक दिमाग का काम होता है. पिछले दस वर्षों में जिस तरह से बादल परिवार ने पंजाब में भ्रष्टाचार और लूट मचाई, तथा भाजपा ने उसका मूक समर्थन किया उसके कारण पंजाब की जनता में नाराज़गी तो थी ही, लेकिन पंजाब की असल समस्या अर्थात “ड्रग पैडलिंग”, नशाखोरी, बढ़ते जल प्रदूषण के कारण रफ़्तार से बढ़ते कैंसर रोगी, खालिस्तान समर्थकों की बढ़ती सक्रियता और सबसे ऊपर केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा लगातार बादल परिवार की रक्षा करना और इन समस्याओं से आँखें मूंदे रखना रहा. पंजाब की जनता लगातार आवाज़ उठाती रही कि राज्य में ये समस्याएँ हैं, परन्तु बादल परिवार के अंगूठे के नीचे दबी भाजपा ने ना तो सरकार पर कि दबाव बनाया, ना ही उसमें सुधार करने के कोई कदम उठाए. स्वाभाविक सी बात है कि भाजपा का राज्य में कोई विशेष कैडर नहीं है और उसे अकाली दल की मेहरबानी पर निर्भर रहना पड़ता था, लेकिन यह कोई बहाना नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी के तेजतर्रार नेता नवजोत सिंह सिद्धू पिछले तीन साल से लगातार यह कहते आ रहे थे कि भाजपा को अकाली दल की परछाईं से बाहर आना चाहिए, खुद के पैरों पर खड़ा होने की कोशिश करनी चाहिए, परन्तु न जाने क्यों भाजपा जैसी बड़ी पार्टी, अकाली दल से अलग होने की हिम्मत नहीं जुटा पाई और नतीजा यह हुआ कि बादल परिवार के काले कारनामों का बोझ तथा स्थानीय भाजपा की चुप्पी ने पूरा खेल बिगाड़ दिया. यहाँ तक कि चुनाव से कुछ समय पहले तक नवजोत सिद्धू कहते आ रहे थे, चेताते आ रहे थे कि अकाली दल से अलग हो जाओ चाहे भाजपा को जीरो सीटें ही क्यों न मिलें, लेकिन भविष्य में एक कैडर और ढांचा खड़ा हो जाएगा. सूत्रों के अनुसार चुनाव में हार चुके, लेकिन फिर भी केंद्र में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अरुण जेटली लगातार सिद्धू के इस आईडिया के खिलाफ रहे, और हर बार वीटो किया. जबकि नवजोत सिद्धू का अपना एक जनाधार है, एक स्टाईल है. सिद्धू भले ही मुख्यमंत्री पद के लिए उतने गंभीर उम्मीदवार नहीं माने जाते हों, लेकिन उनकी जीतने की क्षमता तथा वाकचातुर्य से कोई इनकार नहीं कर सकता. अंत में हुआ यह कि लगातार तीन साल तक सिद्धू को “वादों का झूला झुलाने” के बाद मक्खी की तरह अलग कर दिया गया, वे पार्टी से निकले और कांग्रेस से जा मिले. नतीजा हमने देख लिया. यदि आज से तीन वर्ष पहले भाजपा अकाली दल से अलग हो जाती, अपना नया-नकोर कैडर खड़ा करती, सिद्धू को कमान सौंपती तो जितनी बुरी गत आज हुई है (केवल तीन सीटें), यदि उतनी भी हुई होती तो कम से कम एक सम्मानित हार होती. अकाली दल का पुछल्ला बनकर दस वर्ष बिताने के बावजूद भाजपा को क्या मिला??
पंजाब के चुनावों में सबसे आश्चर्यजनक फैक्टर रहा “आम आदमी पार्टी” के रूप में. जैसा कि अरविन्द केजरीवाल दावा करते रहे कि उनकी पंजाब में सौ सीटें आएँगी (शायद कुछ सीटें उन्होंने कनाडा की भी जोड़ ली होंगी), और जिस प्रकार मनीष सिसोदिया सहित पूरी दिल्ली की कैबिनेट ने पंजाब में डेरा डाल दिया था, उसे देखते हुए राजनैतिक विश्लेषक उन्हें थोडा सशंकित निगाह से जरूर देखने लगे थे कि कहीं ऐसा न हो कि दिल्ली की तरह पंजाब में भी आम आदमी पार्टी कोई चमत्कार दोहरा दे. लेकिन ईश्वर की कृपा से ऐसा नहीं हुआ, और राष्ट्रवाद के समर्थकों ने राहत की साँस इस मायने में ली कि कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से जीत गई. ईश्वर की कृपा और राहत की साँस शब्दों का उपयोग मैंने इसलिए किया, क्योंकि सूत्रों के अनुसार सभी को यह खबर हो चुकी थी कि आम आदमी पार्टी को कनाडा, फिनलैंड और ऑस्ट्रेलिया से खालिस्तान समर्थकों द्वारा बड़ी मात्रा में फंडिंग की गई है. यहाँ तक कि विश्वस्त लोगों ने यह भी बताया है कि ग्यारह मार्च को खालिस्तानियों द्वारा कनाडा में कई पब पहले से बुक कर लिए गए थे ताकि जीत का जश्न मनाया जा सके. भाजपा के कट्टर समर्थक भी यही दुआ कर रहे थे कि यदि अकाली दल हारता है तो हारे, लेकिन आम आदमी पार्टी किसी भी सूरत में सत्ता में नहीं आनी चाहिए. पंजाब के वे काले दिन कोई नहीं चाहता... ईश्वर ने सुन ली और आम आदमी पार्टी को भाजपा के साथ ही पाँच वर्ष के लिए वनवास पर भेज दिया. केजरीवाल के हवाई दावे और मोदी के प्रति घृणास्पद बयानों तथा ऊलजलूल नक्सली राजनीति को पंजाब की जनता ने नकार दिया. “अंत भला तो सब भला” की तर्ज पर कहा जा सकता है कि पंजाब में अब भाजपा को “नई घोडी, नया दाम” खेलते हुए जीरो से शुरुआत करनी चाहिए. अब उसे अपने दम-गुर्दे पर, बलबूते पर अगले पाँच वर्ष में इतनी मजबूती हासिल कर लेनी चाहिए कि 2022 के विधानसभा चुनावों में कम से कम बीस सीटों का लक्ष्य रखा जाए. पार्टी की दुर्गति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस बार भाजपा को केवल 5.4% वोट मिला है. अकाली दल के परिवारवाद और उसकी छाया से मुक्ति पाना भाजपा के लिए बहुत जरूरी है, आजीवन अकालियों का नौकर बनकर नहीं रहा जा सकता. पंजाब की जनता ने नशामुक्ति और खालिस्तानी अलगाव भावना के विरोध में वोट दिया है, और हमें इसका स्वागत करना चाहिए.
गोवा :-
अब हम आते हैं गोवा के चुनाव विश्लेषण पर. “घर का भेदी लंका ढाए” की कहावत संभवतः हजारों वर्ष पुरानी है और यदि फिर भी कोई इससे सीखना न चाहे, अपने अहंकार और मस्ती में चूर रहे तो इसका खामियाज़ा भुगतना ही पड़ता है. पाठकों को याद होगा कुछ माह पहले मैंने गोवा में RSS को खड़ा करने वाले सुभाष वेलिंगकर पर एक लेख लिखा था (इस लेख को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है), उस लेख में जो आशंकाएँ ज़ाहिर की थीं आज वह सिद्ध हुईं. प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर पूरे गोवा के राष्ट्रवादियों में एक बेहद सम्मानित नाम माना जाता है. मनोहर पर्रीकर तथा अपनी सीट तक नहीं बचा सकने वाले मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पार्सेकर जैसे गोवा के कई बड़े नेता हैं, जिन्होंने सुभाष वेलिंगकर की उँगली पकड़कर राजनीति में कदम रखा. आज भी वेलिंगकर जहां खड़े हो जाएँ, वहीं पर RSS की शाखा शुरू हो जाती है, क्योंकि वेलिंगकर ने कभी भी खुद को आगे प्रोजेक्ट नहीं किया, बल्कि पर्रीकर जैसे हीरों को तराशा है. परन्तु “राजनीति” कब क्या खेल कर दे, किसे कौन सा दिन दिखा दे नहीं कहा जा सकता. एक समय पर वेलिंगकर के शिष्य रहे दोनों दिग्गज, पर्रीकर और पारसेकर का अहंकार और वोट की राजनीति के लिए राष्ट्रवाद को पीछे कर देना गोवा में भाजपा की सरकार को लगभग बाहर का रास्ता दिखा देगा यह उन्होंने भी नहीं सोचा होगा. वास्तव में उन्होंने वेलिंगकर को बहुत हलके में लिया. ईसाई वोटों की लालच में अंगरेजी माध्यमों के स्कूलों को अनुदान देने और एक-एक करके बंद होते जा रहे हिन्दू स्कूलों की अनदेखी करना इतना भारी पड़ेगा इसका अनुमान किसी को नहीं था. नागपुर में बैठे RSS के नेतृत्व ने “केवल संतुलन” बनाने की कोशिश की, लेकिन अंततः भाजपा के दबाव में वेलिंगकर को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
गोवा में प्राप्त परिणामों के अनुसार भाजपा को वोट तो सर्वाधिक अर्थात 32.5% मिला है, और कांग्रेस को 28% मिला... लेकिन फिर भी भाजपा की 13 सीटें आईं और कांग्रेस की 17 सीटें. यह कैसे हुआ?? क्योंकि अधिकाँश सीटों पर वेलिंगकर के समर्थकों ने खुलकर भाजपा के खिलाफ वोट दिया, कोई भीतरघात नहीं एकदम खुल्लमखुल्ला. गोवा की राजनीति में एक नई पार्टी उभरकर आई है गोवा फारवर्ड पार्टी, यह पार्टी अनुसूचित जातियों के लिए विधानसभा सीटों में आरक्षण के मुद्दे पर पिछले कुछ वर्षों से आन्दोलन चला रही है, और लक्ष्मीकांत पारसेकर तथा मनोहर पर्रीकर अपने इस घमंड में बने रहे कि ये छोटी सी पार्टी हमारा क्या बिगाड़ लेगी और उसे भी सिद्धू की तरह “वादों का झूला” झुलाते रहे. इधर प्रोफ़ेसर वेलिंगकर ने भी अपनी एक राजनैतिक पार्टी खड़ी की और महाराष्ट्रवादी गोमान्तक पार्टी से गठबंधन कर लिया. वेलिंगकर की पार्टी ने कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था, लेकिन उनका उद्देश्य जीतना नहीं, बल्कि गोवा भाजपा का अहंकार तोड़ना था और वह उद्देश्य प्राप्त किया गया. MAG को केवल तीन सीटें मिलीं, लेकिन उसने कम से कम बारह सीटों पर भाजपा के इतने वोट काटे जहां कांग्रेस जीत गई (यहाँ भी संतोष की बात यह रही कि इन वोटों के कटने के बावजूद केजरीवाल जैसे व्यक्ति को शून्य सीटें ही मिलीं). लेकिन वेलिंगकर से भी बड़ा झटका दिया गोवा फारवर्ड पार्टी (GFP) ने. इस नईनवेली पार्टी ने बाकायदा रणनीति बनाकर गैर-भाजपाई वोट को बाँटने नहीं दिया. खुद की महत्त्वाकांक्षा को परे रखते हुए केवल चार उम्मीदवार खड़े किए और उसमें से भी तीन जीत गए. इस खेल को गोवा के भाजपा नेता कतई नहीं समझ पाए, वे मनोहर पर्रीकर की स्वच्छ छवि और नरेंद्र मोदी के भरोसे बैठे रहे. परिणाम यह हुआ कि अब गोवा पुनः उसी “दलबदलू”, “आयाराम-गयाराम” राजनीति के दौर में पहुँच गया है, जहां से भाजपा ने ही उसे पाँच वर्ष पहले निकाला था. अब अगले पाँच वर्ष में यदि गोवा फिर से तीन मुख्यमंत्री देख ले तो आप आश्चर्य मत कीजिएगा. अलबत्ता इस हार से यदि भाजपा नेतृत्व सबक सीखे तो वह ये हो सकता है कि या तो राष्ट्रवादियों से कोई वादा मत करो, और यदि करो तो वोट बैंक के लालच में उसे तोड़ो मत, वादा निभाओ भी. अपने जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना अच्छी बात नहीं है, आज गोवा का नंबर था, कल कोई और भी राज्य हो सकता है.
मुझे लगता है कि पंजाब और गोवा का पोस्टमार्टम करते-करते ही, यह लेख काफी लम्बा हो चुका है, आपके धैर्य की अधिक परीक्षा नहीं लेते हुए इस पहले “कड़वे” भाग को यहीं समाप्त करता हूँ... अगले भाग के शुरुआत में हम मणिपुर का विश्लेषण करेंगे और उसके बाद सबसे अंत में “मिठाई”, यानी उत्तराखण्ड और उत्तरप्रदेश की अभूतपूर्व जीत का विश्लेषण होगा... तो साथ बने रहिये मित्रों... desicnn आपकी सेवा में दूसरा भाग लेकर जल्द हाजिर होगा.