Anna Hazare, Janlokpal Bill and Indian Parliament

Written by रविवार, 28 अगस्त 2011 19:58

आज़ादी की दूसरी लड़ाई(?) खत्म हुई, क्या दूसरी समस्याओं को देख लें?…   


चलिये… अन्ततः “आज़ादी की दूसरी लड़ाई”(?) बगैर किसी ठोस नतीजे के समाप्त हो गई। जिस प्रकार से यह “दूसरी आज़ादी” हमें मिली है, यदि इन्हीं शर्तों पर मिलनी थी तो काफ़ी पहले ही मिल जानी थी, परन्तु इसके लिए मीडिया और आम जनता को 13 दिन का इन्तज़ार करवाया गया। परदे के पीछे जो भी “डीलिंग” हुई हो (यह तो बाद में पता चलेगा) परन्तु फ़िलहाल जनता के सामने जो “दूसरी आज़ादी” परोसी गई है, उसमें युद्धरत दो पक्ष थे, पहला सिविल सोसायटी और दूसरा केन्द्र की यूपीए सरकार, दोनों पक्ष संतुष्ट हैं।

पहला पक्ष यानी सिविल सोसायटी जिसमें एक से बढ़कर एक युवा लोग थे, परन्तु उन्होंने अनशन करवाने के लिए 74 वर्षीय (अनशन एक्सपर्ट) एक सीधे-सरल बूढ़े को चुना ताकि सहानुभूति तेजी से बटोरी जा सके (इसमें वे कामयाब भी रहे)। वहीं दूसरे पक्ष यानी सरकार ने शुरुआती गलतियों (जैसे अण्णा को गिरफ़्तार करने और उन पर “प्रवक्ता रूपी सरकारी अल्सेशियनों” को छोड़ने) के बाद, बड़ी सफ़ाई से इस आंदोलन को पहले “थकाया” और फ़िर पूरी संसद को अण्णा के सामने खड़ा कर दिया।

 जब तक सत्ता प्रतिष्ठान अपने-अपने मोहरों को सही इस्तेमाल करके अपने राजनैतिक विरोधियों को खत्म करने अथवा अपनी छवि चमकाने के लिए उनका सीमित और सही उपयोग करता है तब तो स्थितियाँ उसके नियन्त्रण में होती हैं, लेकिन यही मोहरे जब “प्राणवान” हो जाएं तो मुश्किल भी खड़ी करते हैं…। ठीक यही कुछ “सिविल सोसायटी” और “मीडिया प्रायोजित” इस आंदोलन में हुआ। हालांकि सिविल सोसायटी को बाबा रामदेव की “राजनैतिक काट” के रूप में सरकार ने ही (भिंडरावाले की तरह) पाल-पोसकर बड़ा किया था, परन्तु जैसी की मुझे पहले से ही आशंका थी सिविल सोसायटी अपनी सीमाओं को लाँघते हुए सरकार पर ही अपनी शर्तें थोपने लगी और संसद को झुकाने-दबाने की मुद्रा में आ गई…। इसके बाद तो सरकार भी “अपनी वाली” पर आ गई एवं उसने सिविल सोसायटी को “थका-थकाकर” खत्म करने की योजना बनाई।

लगभग यही कुछ मीडिया के मामले में भी हुआ, शुरु में मीडिया को निर्देश थे कि “अण्णा की हुंकार” को खूब बढ़ा-चढ़ाकर जनता के सामने पेश किया जाए, मीडिया ने वैसा ही किया। फ़िर जब युवा वर्ग और आम जनता इस “आज़ादी की दूसरी लड़ाई” में भावनात्मक रूप से शामिल होने लगी तो मीडिया भी अपनी “धंधेबाजी” पर उतर आया। मीडिया को मालूम था कि TRP और विज्ञापन बटोरने का ऐसा “शानदार ईवेण्ट” दोबारा शायद जल्दी ना मिले। इसलिए इस आंदोलन को “ओवर-हाइप” किया गया और TRP के खेल में रामलीला मैदान पर “ओबी वैन मेला” लगाया गया। उधर सरकार परदे के पीछे इस जुगाड़ में लगी रही कि सिविल सोसायटी किसी तरह मान जाए, परन्तु वैसा हो न सका। रही-सही कसर भीड़ में शामिल “राष्ट्रवादी तत्वों” ने लगातार वन्देमातरम के नारे लगा-लगाकर पूरी कर दी जिसके कारण कुछ "सेकुलर नाराज़गी" के स्वर भी उभरे… अर्थात “समझौता” या "राजनैतिक स्टण्ट" रचने की जो साजिश थी, वह वन्देमातरम के नारों, RSS के खुले समर्थन की वजह से दबाव में आ गई। 
 
समय बीतता जा रहा था, धीरे-धीरे बातें सरकार और टीम अण्णा के हाथों से बाहर जाने लगी थीं। सरकार को भी अपना चेहरा बचाना था और टीम अण्णा भी “जिस ऊँचे पेड़” पर चढ़ गई थी, वहाँ से उसे भी स-सम्मान उतरना ही था। मीडिया भी आखिर एक ही “इवेण्ट” को कब तक चबाता, वह भी थक गया था। आखिरकार अन्तिम रास्ता संसद से होकर ही निकला, “टीम संसद” ने “टीम अण्णा” को इतनी सफ़ाई से पटकनी दी कि “उफ़्फ़” करना तो दूर, टीम अण्णा “लोकतन्त्र की जीत” के नारे लगाते-लगाते ठण्डी पड़ गई। आईये पहले हम बिन्दुवार देख लें कि टीम अण्णा द्वारा विज्ञापित आखिर यह “जीत”(?) कितनी बड़ी और किस प्रकार की है, फ़िर आगे बात करेंगे –
 
  पहली मांग थी : सरकार अपना कमजोर बिल वापस ले
- सरकार ने बिल तो वापस नहीं ही लिया, उलटा चार नये बिल और मढ़ दिये स्थायी समिति के माथे…

दूसरी मांग थी :  सरकार लोकपाल बिल के दायरे में प्रधान मंत्री को लाये
- सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया। प्रधानमंत्री ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कह दिया कि “मैं तो चाहता हूँ कि प्रधानमंत्री दायरे में आएं, लेकिन मेरे कुछ मंत्री नहीं चाहते…” (ये मंत्री इसलिए ऐसा नहीं चाहते क्योंकि जब कल को “पवित्र परिवार” के सदस्य प्रधानमंत्री बनें और कोई “उल्टा-सीधा” व्यक्ति लोकपाल बन गया तो उन पर कोई “आँच” न आने पाए)। फ़िलहाल टीम अन्ना को थमाए गये लॉलीपॉप में (यानी समझौते के पत्र  में) इसका कोई जिक्र तक नहीं है।

तीसरी मांग थी : लोकपाल के दायरे में सांसद भी हों
- “लॉलीपॉप” में सरकार ने इस सम्बन्ध में भी कोई बात नहीं कही है।

चौथी मांग थी : तीस अगस्त तक बिल संसद में पास हो (क्योंकि 1 सितम्बर से रामलीला मैदान दूसरे आंदोलन के लिए बुक है)
- तीस अगस्त तो छोड़िये, सरकार ने जनलोकपाल बिल पास करने के लिए कोई समय सीमा तक नहीं बताई है कि वह बिल कब तक पास करवाएगी।

पाँचवीं मांग थी : लोकपाल की नियुक्ति कमेटी में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम हो
- देश को थमाए गये “झुनझुने” में सरकार ने इस बारे में कोई वादा नहीं किया है।

छठवीं मांग (जो अन्त में जोड़ी गई) :- जनलोकपाल बिल पर संसद में चर्चा, नियम 184 (वोटिंग) के तहत कराई जाए
- चर्चा 184 के तहत नहीं हुई, ना तो वोटिंग हुई

उपरोक्त के अतिरिक्त तीन अन्य वह मांगें जिनका जिक्र सरकार ने “टीम अन्ना” को आज दिए गए समझौते के पत्र में किया है वह हैं –

(1) सिटिज़न चार्टर लागू करना, (2) निचले तबके के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाना, (3) राज्यों में लोकायुक्तों कि नियुक्ति करना

प्रणब मुखर्जी द्वारा संसद में स्पष्ट कहा गया है कि इन तीनों मांगों के सन्दर्भ में सदन के सदस्यों की भावनाओं से अवगत कराते हुए लोकपाल बिल में संविधान की सीमाओं के अंदर इन तीन मांगों को शामिल करने पर विचार हेतु  आप (यानी लोकसभा अध्यक्ष) इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजें। अब आप बताएं कि  कौन जीता..? लोकतन्त्र की कैसी जीत हुई...? और टीम अण्णा या टीम संसद में से किसकी जीत हुई...?

सारे झमेले के बाद अब जबकि जनता की भावनाएं उफ़ान पर हैं तो जनता के विश्वास को “लोकतन्त्र की विजय”, “टीम अण्णा और जनता के संघर्ष” के शातिर नारों की आड़ में छुपाया जा रहा है.... जबकि आंदोलन की हकीकत और सफ़लता ये है कि –

1) टीम अण्णा NGOs को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने में सफ़ल हुई है, अब इस पर कोई बात नहीं कर रहा।

2) शीला दीक्षित पर जो फ़न्दा लोकसभा में कसने जा रहा था, वह न सिर्फ़ ढीला पड़ गया, बल्कि उनके सुपुत्र ने सरकार और टीम अण्णा के बीच “मध्यस्थ” बनकर अपनी इमेज चमका ली। उधर अग्निवेश, जिसे इंडिया टीवी ने एक्सपोज़ कर दिया, उसे भी दलाली और जासूसी के "उचित भाव" के अनुसार माल मिला ही होगा।

3) अण्णा की जो “लार्जर दैन लाइफ़” इमेज बना दी गई है उसे भविष्य में किसी खास दुश्मन के खिलाफ़ “उपयोग” किया जा सकता है।

4) बाबा रामदेव के आंदोलन को ठण्डा कर दिया गया है, अब आप कालेधन को वापस लाने की बात भूल जाईये। (टीम अण्णा ने तो आंदोलन समाप्ति पर "आदर्श राजनेता" विलासराव देशमुख तक को धन्यवाद ज्ञापित कर दिया, जबकि इस आंदोलन के मुख्य सूत्रधार बाबा रामदेव का नाम तक नहीं लिया)
  
बहरहाल अब अन्त में एक जोक सुनिये – मनमोहन सिंह ने ओबामा से कहा कि अगले वर्ष हम अपने चन्द्रयान में 100 भारतीयों को चाँद पर भेजने वाले हैं। ओबामा ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है? चन्द्रयान मे तो ज्यादा से ज्यादा 2-4 व्यक्ति ही आ सकते हैं। तब मनमोहन सिंह ने कहा कि चाहे हमें रॉकेट की छत पर बैठाकर भी भेजना पड़े तब भी भेजेंगे। ओबामा ने कहा कि ऐसी भी क्या जिद है, तब मनमोहन सिंह ने कहा कि – उस चन्द्रयान में 25 दलित, 25 OBC, 20 आदिवासी, 10 अल्पसंख्यक, 5 विकलांग और 15 सवर्ण अंतरिक्ष यात्री भेजना हमारी मजबूरी है…। जी हाँ, सही समझे आप, “जनलोकपाल” का भी यही होना है…

लालू यादव, शरद यादव के लोकसभा में दिये गये भाषणों और संसद के बाहर विभिन्न दलित संगठनों द्वारा जनलोकपाल के विरोध में “बहुजन लोकपाल बिल” पेश करने के बाद मुझे पूरा विश्वास हो चला है कि अव्वल तो जनलोकपाल बनेगा नहीं और यदि बन भी गया तो संसद से बाहर आते-आते उसका “चूँ-चूँ का मुरब्बा” बन चुका होगा… ज़ाहिर है कि सरकार भी यही चाहेगी कि, जैसे अभी 5 तरह के लोकपाल बिल संसद की स्थायी समिति को भेजे गये हैं ऐसे ही और 15 बिल भी आ जाएं, ताकि “विचार करने का भरपूर समय” लिया जा सके।

फ़िर भी “भीषण सकारात्मक सोच” रखते हुए, चलो मान भी लिया जाए कि एक बेहद मजबूत लोकपाल बन गया, तब उच्चतम न्यायालय के रिटायर्ड जज केजी बालाकृष्णन और बूटा सिंह जैसे महानुभावों का क्या कीजियेगा, जिन्होंने अपने भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए “मैं दलित हूँ, इसलिये मुझे फ़ँसाया जा रहा है…” की रट लगाई…। या फ़िर मोहम्मद अज़हरुद्दीन जैसों का क्या कीजिएगा जो सट्टेबाजी के आरोपों पर कहते पाये गये हैं कि “मैं मुस्लिम हूँ, इसलिए मुझे फ़ँसाया जा रहा है…”। तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य की “नीयत” नहीं बदलती, तब तक जनलोकपाल का “बाप” भी कुछ नहीं कर सकता। जहाँ तक “नीयत” का सवाल है, भारत के मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग को तकलीफ़ सिर्फ़ रिश्वत “देने” में है, रिश्वत “लेने” में कभी कोई समस्या नहीं रही…। 

खैर, फ़िलहाल देश के सामने “साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम बिल”, “2G घोटाले में चिदम्बरम की भूमिका”, महंगाई, नक्सलवाद, अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी, कश्मीर जैसे कई-कई गम्भीर मुद्दे पड़े हैं (पिछले 15 दिनों से देश में एक ही समस्या थी), हमें अब उन पर भी फ़ोकस करना है।

देश का युवा वर्ग और “भेड़चाली जनता”, मीडिया द्वारा आयोजित “आंदोलन में भाग लेने जैसी भावना” की “रोमाण्टिक खुमारी” में है, इसलिए उनके दिमाग पर अधिक हथौड़े नहीं चलाऊँगा… उन्हें “झुनझुना” हिलाने दीजिये… 

वन्देमातरम।
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