Prime Minister Mayawati Dalit Movement
गत दिनों लोकसभा में जो “घमासान” और राजनैतिक नौटंकी हुई उसका नतीजा लगभग यही अपेक्षित ही था। अन्तर सिर्फ़ यह आया कि सपा-बसपा सांसदों के बीच मारपीट की आशंका गलत साबित हुई, लेकिन भाजपा ने जो “तथाकथित सनसनीखेज”(???) खुलासा किया, वह जरूर एक नया ड्रामा था, लेकिन तेजी से गिरते और “खिरते” लोकतन्त्र में वह कोई बड़ी बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि जनता को अब भविष्य में शीघ्र ही लोकसभा में चाकू-तलवार चलते देखने को मिल सकते हैं। इसलिये हैरान-परेशान होना बन्द कीजिये और लोकसभा में जो भी हो उसे “निरपेक्ष” भाव से देखिये, ठीक उसी तरह से जैसे आप-हम सड़क पर चलते किसी झगड़े को देखते हैं। बहरहाल… इस सारी उठापटक, जोड़तोड़, “मैनेजमैंट” आदि के बाद (यानी धूल का गुबार बैठ जाने के बाद) जो दृश्य उभरकर सामने आया है, उसके अनुसार इस तमाशे में लगभग सभी पार्टियों और नेताओं को नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन एक “वीरांगना” ऐसी है जिसे बेहद फ़ायदा हुआ है, और भविष्य की फ़सल के लिये उसने अभी से बीज बो दिये हैं। जी हाँ… मैं बात कर रहा हूँ बसपा सुप्रीमो मायावती की।
22 जुलाई के विश्वासमत से महज चार दिन पहले तक किसी ने सोचा नहीं था कि राजनैतिक समीकरण इतने उलझ जायेंगे और उसमें हमें इतने पेंच देखने को मिलेंगे। 17 तारीख तक मामला लगभग काफ़ी कुछ वामपंथी-भाजपा तथा अन्य के विपक्षी वोट के मुकाबले कांग्रेस-राजद आदि यूपीए के वोट जैसा था। इसी दिन वामपंथियों ने एक नया “कार्ड” खेला (जो कि बहुत देर से उठाया गया कदम था)। उन्होंने मायावती को सारे फ़ोकस के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया और उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार प्रदर्शित किया। वामपंथी इसे अपना “मास्टर कार्ड” मान रहे थे, जबकि यह “ब्लाइंड शो” की तरह की चाल थी, जिसे जुआरी तब खेलता है, जब उसे हार-जीत की परवाह नहीं होती। लेकिन मायावती को इस सबसे कोई मतलब नहीं था, उन्हें तो बैठे-बिठाये एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल गया, जहाँ से वे अपना भविष्य संवारने के सपने को और रंगीन और बड़ा बना सकती थीं और उन्होंने वह किया भी। जैसे ही 18 तारीख को मायावती ने दिल्ली में डेरा डाला, उन्होंने अपनी चालें तेजी और आत्मविश्वास से चलना शुरु कीं। सपा छोड़कर बसपा में आ चुके शातिर अपराधी अतीक अहमद को दिल्ली लाया गया, अजीत सिंह को 8-10 विधानसभा सीटें देने के वादा करके अपनी तरफ़ मिलाया, देवेगौड़ा से मुलाकात करके उन्हें पता नहीं क्या लालीपॉप दिया, वे भी UNPA के कुनबे में शामिल हो गये। लगे हाथों मायावती ने विदेश नीति पर एक-दो बयान भी ठोंक डाले कि यदि समझौता हुआ तो “अमेरिका ईरान पर हमला कर देगा…”, “भारत की सम्प्रभुता खतरे में पड़ जायेगी…” आदि-आदि। इन बयानों का असल मकसद था अपनी छवि को राष्ट्रीय बनाना और मुसलमानों को सपा के खिलाफ़ भड़काना, जिसमें वे काफ़ी हद तक कामयाब भी रहीं।

मायावती के इन तेज कदमों से राजनीतिक समीकरण भी तेजी से बदले, कांग्रेस-भाजपा में हड़बड़ाहट फ़ैल गई। दोनों पार्टियाँ नई रणनीति सोचने लगीं, दोनों को यह चिन्ता सताने लगी कि कहीं वाकई सरकार गिर गई तो क्या होगा? जबकि मायावती की सारी हलचलें असल में खुद के बचाव के लिये थी, उन्हें मालूम है कि अगले 6-8 महीने अमरसिंह उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे और उन्हें सीबीआई के शिकंजे में फ़ँसाने की पूरी कोशिश की जायेगी। भाजपा को भी यह मालूम था कि कहीं वाकई सरकार गिर गई और वाम-UNPA ने सच में ही मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिये आगे कर दिया तो भाजपा के लिये “एक तरफ़ कुँआ और दूसरी तरफ़ खाई” वाली स्थिति बन जाती। वह न तो मायावती का विरोध कर सकती थी, न समर्थन। एक बार समर्थन तो सस्ता भी पड़ता, क्योंकि पहले भी भाजपा-बसपा मिलकर काम कर चुके हैं, लेकिन विरोध करना बहुत महंगा पड़ता, भाजपा के माथे “दलित महिला को रोकने” का आरोप मढ़ा जाता। इस स्थिति से बचने के लिये और अपनी साख बचाने के लिये भाजपा को लोकसभा में नोट लहराने का कारनामा करना पड़ा। क्या यह मात्र संयोग है कि लोकसभा में एक करोड़ रुपये दिखाने वाले तीनों सांसद दलित हैं और उनकी सीटें अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित हैं? भाजपा को 22 जुलाई के दिन प्रमोद महाजन बहुत याद आये होंगे, यदि वे होते तो दृश्य कुछ और भी हो सकता था।
बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, बात हो रही है मायावती की। 18 जुलाई से 22 जुलाई के बीच मायावती ने बहुत कुछ “कमा” लिया, उन्होंने अपने “वोट-बैंक” को स्पष्ट संदेश दे दिया कि यदि वे लोग गंभीरता से सोचें तो मायावती देश की पहली दलित (वह भी महिला) प्रधानमंत्री बन सकती हैं। मायावती ने नये-नये दोस्त भी बना लिये हैं जो आगे चलकर उनके राष्ट्रीय नेता बनने के काम आयेंगे। “सीबीआई मुझे फ़ँसा रही है…” का राग वे पहले ही अलाप चुकी हैं तो यदि सच में ऐसा कुछ हुआ तो उनका वोट बैंक उन पर पूरा भरोसा करेगा।
जारी रहेगा भाग-2 में…
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22 जुलाई के विश्वासमत से महज चार दिन पहले तक किसी ने सोचा नहीं था कि राजनैतिक समीकरण इतने उलझ जायेंगे और उसमें हमें इतने पेंच देखने को मिलेंगे। 17 तारीख तक मामला लगभग काफ़ी कुछ वामपंथी-भाजपा तथा अन्य के विपक्षी वोट के मुकाबले कांग्रेस-राजद आदि यूपीए के वोट जैसा था। इसी दिन वामपंथियों ने एक नया “कार्ड” खेला (जो कि बहुत देर से उठाया गया कदम था)। उन्होंने मायावती को सारे फ़ोकस के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया और उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार प्रदर्शित किया। वामपंथी इसे अपना “मास्टर कार्ड” मान रहे थे, जबकि यह “ब्लाइंड शो” की तरह की चाल थी, जिसे जुआरी तब खेलता है, जब उसे हार-जीत की परवाह नहीं होती। लेकिन मायावती को इस सबसे कोई मतलब नहीं था, उन्हें तो बैठे-बिठाये एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल गया, जहाँ से वे अपना भविष्य संवारने के सपने को और रंगीन और बड़ा बना सकती थीं और उन्होंने वह किया भी। जैसे ही 18 तारीख को मायावती ने दिल्ली में डेरा डाला, उन्होंने अपनी चालें तेजी और आत्मविश्वास से चलना शुरु कीं। सपा छोड़कर बसपा में आ चुके शातिर अपराधी अतीक अहमद को दिल्ली लाया गया, अजीत सिंह को 8-10 विधानसभा सीटें देने के वादा करके अपनी तरफ़ मिलाया, देवेगौड़ा से मुलाकात करके उन्हें पता नहीं क्या लालीपॉप दिया, वे भी UNPA के कुनबे में शामिल हो गये। लगे हाथों मायावती ने विदेश नीति पर एक-दो बयान भी ठोंक डाले कि यदि समझौता हुआ तो “अमेरिका ईरान पर हमला कर देगा…”, “भारत की सम्प्रभुता खतरे में पड़ जायेगी…” आदि-आदि। इन बयानों का असल मकसद था अपनी छवि को राष्ट्रीय बनाना और मुसलमानों को सपा के खिलाफ़ भड़काना, जिसमें वे काफ़ी हद तक कामयाब भी रहीं।

मायावती के इन तेज कदमों से राजनीतिक समीकरण भी तेजी से बदले, कांग्रेस-भाजपा में हड़बड़ाहट फ़ैल गई। दोनों पार्टियाँ नई रणनीति सोचने लगीं, दोनों को यह चिन्ता सताने लगी कि कहीं वाकई सरकार गिर गई तो क्या होगा? जबकि मायावती की सारी हलचलें असल में खुद के बचाव के लिये थी, उन्हें मालूम है कि अगले 6-8 महीने अमरसिंह उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे और उन्हें सीबीआई के शिकंजे में फ़ँसाने की पूरी कोशिश की जायेगी। भाजपा को भी यह मालूम था कि कहीं वाकई सरकार गिर गई और वाम-UNPA ने सच में ही मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिये आगे कर दिया तो भाजपा के लिये “एक तरफ़ कुँआ और दूसरी तरफ़ खाई” वाली स्थिति बन जाती। वह न तो मायावती का विरोध कर सकती थी, न समर्थन। एक बार समर्थन तो सस्ता भी पड़ता, क्योंकि पहले भी भाजपा-बसपा मिलकर काम कर चुके हैं, लेकिन विरोध करना बहुत महंगा पड़ता, भाजपा के माथे “दलित महिला को रोकने” का आरोप मढ़ा जाता। इस स्थिति से बचने के लिये और अपनी साख बचाने के लिये भाजपा को लोकसभा में नोट लहराने का कारनामा करना पड़ा। क्या यह मात्र संयोग है कि लोकसभा में एक करोड़ रुपये दिखाने वाले तीनों सांसद दलित हैं और उनकी सीटें अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित हैं? भाजपा को 22 जुलाई के दिन प्रमोद महाजन बहुत याद आये होंगे, यदि वे होते तो दृश्य कुछ और भी हो सकता था।
बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, बात हो रही है मायावती की। 18 जुलाई से 22 जुलाई के बीच मायावती ने बहुत कुछ “कमा” लिया, उन्होंने अपने “वोट-बैंक” को स्पष्ट संदेश दे दिया कि यदि वे लोग गंभीरता से सोचें तो मायावती देश की पहली दलित (वह भी महिला) प्रधानमंत्री बन सकती हैं। मायावती ने नये-नये दोस्त भी बना लिये हैं जो आगे चलकर उनके राष्ट्रीय नेता बनने के काम आयेंगे। “सीबीआई मुझे फ़ँसा रही है…” का राग वे पहले ही अलाप चुकी हैं तो यदि सच में ऐसा कुछ हुआ तो उनका वोट बैंक उन पर पूरा भरोसा करेगा।
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