प्रशासनिक मशीनरी, सेवानिवृत्ति पश्चात नियुक्ति एवं सेकुलरिज़्म… (दो मामले)...... Administration, Retirement and Secularism in India

Written by गुरुवार, 12 मई 2011 13:26
पहला मामला :- 23 अप्रैल 2011 को केरल के सर्वाधिक देखे जाने वाले मलयालम चैनल पर लगातार दिन भर एक “ब्रेकिंग न्यूज़” चल रही थी… वह “ब्रेकिंग” और महत्वपूर्ण न्यूज़ क्या थी? एक आईपीएस अफ़सर शिबी मैथ्यूज़ ने समय पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर केरल राज्य के मानवाधिकार आयोग (Kerala Human Rights Commission) का अध्यक्ष पदभार संभाला। क्या वाकई यह ब्रेकिंग न्यूज़ है? बिलकुल नहीं, परन्तु अगले दिन के अखबारों में जो चित्र प्रकाशित हुए उससे इस कथित महत्वपूर्ण खबर के पीछे का राज़ सामने आ गया। राज्य के एक “सरकारी समारोह” में श्री शिबी मैथ्यूज़ द्वारा मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद के शपथ ग्रहण समारोह में प्रमुख चर्चों के कम से कम 25 बिशप और आर्चबिशप परम्परागत परिधान में मौजूद थे। ऐसा लग रहा था मानो कार्यक्रम किसी चर्च में हो रहा हो एवं मानवाधिकार आयोग जैसा महत्वपूर्ण पद न होते हुए किसी ईसाई पादरी के नामांकन एवं पदग्रहण का समारोह हो। क्या यह उचित है? ऐसा प्रश्न पूछना भी बेवकूफ़ी है, क्योंकि “सेकुलरिज़्म” के लिये हर बात जायज़ होती है।



सवाल है कि सरकार द्वारा अपनी मनमर्जी से, बिना किसी अखबार में विज्ञापन दिये, “चमचागिरी” की एकमात्र क्वालिफ़िकेशन लिये हुए किसी ईसाई अधिकारी की मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति को “ब्रेकिंग न्यूज़” कहा जा सकता है? परन्तु विगत 8-10 वर्षों में इलेक्ट्रानिक एवं प्रिण्ट मीडिया में जितनी गिरावट आई है उसे देखते हुए इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वामपंथियों द्वारा केरल में ईसाई और मुस्लिम वोटों के लिये “कसी हुई तार पर कसरत” की जा रही है, सन्तुलन साधा जा रहा है। यह “तथाकथित ब्रेकिंग न्यूज़” भी एक तरह से “चर्च का शक्ति प्रदर्शन” ही था। राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर पहुँचने के लिये किसी “योग्यता” की दरकार नहीं होती, यह इससे भी सिद्ध होता है कि जिस पुलिस विभाग में मानवाधिकार का सबसे ज्यादा उल्लंघन होता है उसी विभाग के मुखिया को उससे वरिष्ठ अन्य अधिकारियों को नज़र-अंदाज़ करते हुए इस महत्वपूर्ण पद पर बैठाना ही अपने-आप में “कदाचरण” है। केरल सरकार के इस कदम से दो मकसद सधते हैं, पहला तो यह कि वह अफ़सर सदा “पार्टी कैडर” का ॠणी हो जाता है तथा उससे चाहे जैसा काम लिया जा सकता है, और दूसरा यह कि प्रोफ़ेसर के हाथ काटे जाने के बाद (Hand Chopping of Professor by Muslims) जो चर्च, विभिन्न कट्टर मुस्लिम संगठनों के सामने “दुम पिछवाड़े में दबाए” बैठा था, उसके ज़ख्मों पर मरहम भी लगता है।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी स्वीकार कर चुके हैं कि अधिकतर देशों में आतंकवाद एवं अस्थिरता के पीछे प्रमुख कारण “धर्मान्तरण” (Conversion in Tribal Areas of India) ही है। कंधमाल, डांग एवं कर्नाटक-तमिलनाडु के भीतरी इलाकों में मिशनरी द्वारा किये जा रहे आक्रामक धर्मान्तरण की वजह से फ़ैली अशांति इस बात का सबूत भी हैं, ऐसी स्थिति में एक पुलिस अफ़सर को रिटायरमेण्ट लेते ही मानवाधिकार आयोग जैसे पद पर नियुक्त करना, सरकारी कार्यक्रम में आर्चबिशपों की भीड़ एकत्रित करना वामपंथियों की बदनीयती सिद्ध करता है। मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद का शपथ ग्रहण हमेशा से एक सादे समारोह में किया जाता है, जहाँ चुनिंदा लोग ही मौजूद होते हैं, यह एक बहुत ही साधारण सी प्रक्रिया है, कोई प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण नहीं। इसलिये इस बार शपथ ग्रहण समारोह को इतना भव्य बनाने और हजारों रुपये फ़ूंकने की कोई तुक नहीं बनती थी, परन्तु यदि ऐसा नहीं किया जाता तो “चर्च” अपना “दबदबा” कैसे प्रदर्शित करता? वहीं दूसरी तरफ़ सरेआम बेनकाब होने के बावजूद, वामपंथ भी “धर्म एक अफ़ीम है” जैसा फ़ालतू एवं खोखला नारा पता नहीं कब तक छाती से चिपकाए रखेगा?

इस सम्बन्ध में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगी गई है कि राज्यपाल के दफ़्तर से इस सरकारी कार्यक्रम में आमंत्रित किये जाने वाले अतिथियों की सूची सार्वजनिक की जाए, एवं आर्चबिशपों के अलावा किन-किन धर्मावलंबियों के प्रमुख धर्मगुरुओं को इस “वामपंथी सेकुलर पाखण्ड” में शामिल होने के लिए बुलाया गया था।
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दूसरा मामला :- यह मामला भी “तथाकथित सेकुलरिज़्म” से ही जुड़ा है, वामपंथियों एवं सेकुलरों के “प्रिय टारगेट”, नरेन्द्र मोदी से सम्बन्धित। गुजरात दंगों के नौ साल बाद अचानक एक आईपीएस अफ़सर संजीव भट्ट को “आत्मज्ञान” की प्राप्ति होती है एवं वह सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा (Sanjeev Bhatt Affidavit) दायर करके यह उचरते हैं कि दंगों के वक्त हुई बैठक में नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि “मुसलमानों को सबक सिखाना बहुत जरूरी है…”। यानी रिटायरमेण्ट करीब आते ही उन्हें अचानक नौ साल पुरानी एक बैठक के “मिनट्स” याद आ गये और तड़ से सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये। मीडिया भी इसी के इन्तज़ार में बैठा था, संजीव भट्ट से सम्बन्धित इस खबर को उसने 3 दिनों तक “चबाया”, मानो हलफ़नामा दायर करना यानी दोषी साबित हो जाना… यदि कोई फ़र्जी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर करके कहे कि हसन अली ने उसके सामने सोनिया गाँधी को 10 अरब रुपये देने का वादा किया था, तो क्या उसे मान लिया जाएगा? लेकिन हमारा बिका हुआ “सेकुलर भाण्ड मीडिया” एकदम निकम्मे किस्म का है, यहाँ “बुरका दत्त” जैसे सैकड़ों दल्ले भरे पड़े हैं जो चन्द पैसों के लिये किसी के भी खिलाफ़, या पक्ष में खबर चला सकते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि एक हलफ़नामा दायर करने के एवज़ में केन्द्र की कांग्रेस सरकार संजीव भट्ट पर अब आजीवन मेहरबान रहेगी…। संजीव भट्ट के इस झूठे एफ़िडेविट की कीमत, उनके किसी लगुए-भगुए के NGO को “आर्थिक मदद”, किसी बड़े केन्द्रीय प्रोजेक्ट में C EO की कुर्सी… या किसी राज्य के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष पद से लेकर राज्यपाल की कुर्सी तक भी हो सकती है… यानी जैसा सौदा पट जाए

अब समय आ गया है कि भ्रष्टाचार विरोधी अपनी मुहिम में बाबा रामदेव इस बिन्दु को भी अपने आंदोलन में जोड़ें, कि संविधान में प्रावधान बनाया जाए कि कोई भी वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम दस वर्ष तक किसी भी निजी क्षेत्र की कम्पनी में कोई कार्यकारी अथवा सलाहकार का पद स्वीकार नहीं कर सके, साथ ही किसी भी सरकारी पद, NGO अथवा सार्वजनिक उपक्रम से लेकर किसी भी पद पर नहीं लाया जाए। 30 साल की नौकरी में जनता को चूना लगाने के बावजूद “भूखे” बैठे, IAS-IPS अधिकारियों को रिटायरमेंट के बाद सीधे घर बैठाया जाए, क्योंकि सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले मोटे-मोटे पदों (सतर्कता आयोग, चुनाव आयोग, सूचना अधिकार आयोग, प्रशासनिक आयोग, बैंकों के डायरेक्टर, संघ लोकसेवा आयोग इत्यादि) के लालच में ही ये अधिकारी नीतियों को तोड़ने-मरोड़ने, नेताओं की चमचागिरी और मक्खनबाजी करने, भ्रष्टाचार-कदाचार को बढ़ाने में लगे रहते हैं… इस "भ्रष्ट दुष्प्रवृत्ति" का सबसे अधिक फ़ायदा कांग्रेस ने उठाया है और अपने मनपसन्द “सेकुलर”(?) अधिकारी यहाँ-वहाँ भरकर रखे हैं।
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संजीव भट्ट वाले मामले में एक पेंच और भी है… भारत के “हिन्दू विरोधी मीडिया” के किसी भी “तेज” और “सेकुलर” चैनल के मूर्ख संवाददाताओं ने यह नहीं बताया कि संजीव भट्ट के “पुराने कारनामे” क्या-क्या हैं, तथा संजीव भट्ट ने अपना हलफ़नामा उसी नोटरी से क्यों बनवाया, जिस नोटरी से तीस्ता सीतलवाड ढेरों फ़र्जी हलफ़नामे बनवाती रही है? (False Affidavits by Teesta Setalwad)  जी हाँ… “विशेष योग-संयोग” देखिये कि सादिक हुसैन शेख नामक जिस नोटरी से तीस्ता ने गुजरात दंगों के फ़र्जी हलफ़नामे बनवाए, उसी नोटरी से संजीव भट्ट साहब ने भी अपना हलफ़नामा बनवाया, है ना कमाल की बात? एक कमाल और भी है, कि नोटरियों की नियुक्ति सरकार की तरफ़ से होती है जिसमें वे एक निश्चित शुल्क लेकर किसी भी दस्तावेज का “नोटिफ़िकेशन” करते हैं, लेकिन सादिक हुसैन शेख साहब को सन 2006 से लगातार तीस्ता सीतलवाड के NGO की तरफ़ से 7500/- रुपये की “मासिक तनख्वाह” भी दी जाती थी…। सादिक शेख को हर महीने “सिटीजन फ़ॉर पीस एण्ड जस्टिस” (CJP) की तरफ़ से IDBI Bank खार (मुंबई) शाखा के अकाउण्ट नम्बर 01410000105705 से पैसा मिलता था, जो कि शायद फ़र्जी नोटरी करने का शुल्क होगा, क्योंकि तीस्ता ने तो गवाहों से कोरे कागजों पर दस्तखत करवा लिये थे। ऐसे “चतुर-सुजान, अनुभवी, लेकिन दागी” नोटरी से एफ़िडेविट बनवाने की सलाह संजीव भट्ट को ज़ाहिर है तीस्ता ने ही दी होगी और “वरदहस्त आशीर्वाद” का संकेत दिल्ली से मिला होगा…

लेकिन जैसा कि पहले ही कहा गया है, यदि वामपंथी सरकारें चर्च को खुश करें, पापुलर फ़्रण्ट को तेल लगाएं, ईसाई प्रोफ़ेसर के हाथ काटने वालों पर मेहरबान रहें… तो वह भी “सेकुलरिज़्म” है। इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट में झूठे हलफ़नामे पेश करके सतत न्यायिक लताड़ खाने वाले भी “सेकुलरिज़्म” का ही उदाहरण पेश कर रहे हैं…। परन्तु जब रिटायर होते ही “मलाईदार” पद सामने हाजिर हो, तो “सेकुलरिज़्म” को और मजबूत करने के लिये “कुछ भी” किया जा सकता है…। “साम्प्रदायिक” तो सिर्फ़ वही व्यक्ति या संस्था होती है, जो हिन्दू या हिन्दुत्व की बात करे… समझ गए ना!!!
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I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

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