२०१४ में भाजपा को अकेले अपने दम पर ही चुनाव लड़ना चाहिए
कहावत है कि “यदि किसी पार्टी
में जनता का मूड भाँपने का गुर नहीं है और निर्णयों को लेकर उसकी टाइमिंग गलत हो
जाए, तो उसका राजनैतिक जीवन मटियामेट होते देर नहीं लगती...” कितने लोगों को यह
याद है कि देश का प्रमुख विपक्ष कहलाने वाली भाजपा ने “अपने मुद्दों”, “अपनी
रणनीति” और “अपने दमखम” पर अकेले लोकसभा का चुनाव कब लड़ा था?? जी हाँ... 1989 से लेकर 1996 (बल्कि 1998) तक
आठ-नौ साल भाजपा ने अपने बूते, अपने चुने हुए राष्ट्रवादी मुद्दों और अपने जमीनी
कैडर की ताकत के बल पर उस कालखंड में हुए सभी लोकसभा चुनाव लड़े थे. सभी लोगों को
यह भी निश्चित रूप से याद होगा कि वही कालखंड “भाजपा” के लिए स्वर्णिम कालखंड भी
था, पार्टी की साख भी जनता (और उसके अपने कार्यकर्ताओं) के बीच बेहतरीन और
साफ़-सुथरी थी. साथ ही उस दौरान लगातार पार्टी की ताकत दो सीटों से बढते-बढते १८४
तक भी पहुँची थी. देश की जनता के सामने पार्टी की नीतियां और नेतृत्व स्पष्ट थे.
उसके बाद आया 1998... जब काँग्रेस से सत्ता छीनने की जल्दबाजी और बुद्धिजीवियों द्वारा
सफलतापूर्वक “गठबंधन सरकारों का युग आ गया है” टाइप का मिथक, भाजपा के गले उतारने
के बाद भाजपा ने अपने मूल मुद्दे, अपनी पहचान, अपनी आक्रामकता, अपना आत्मसम्मान...
सभी कुछ क्षेत्रीय दलों के दरवाजे पर गिरवी रखते हुए गठबंधन की सरकार बनाई... किसी
तरह जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, ममता बैनर्जी जैसे लोगों का ब्लैकमेल सहते हुए पाँच
साल तक घसीटी और २००४ में विदा हो गई. वो दिन है और आज का दिन है... भाजपा लगातार
नीचे की ओर फिसलती ही जा रही है. पार्टी को गठबंधन धर्म निभाने और “भानुमति के
कुनबेनुमा” सरकार चलाने की सबसे पहली कीमत तो यह चुकानी पड़ी कि राम मंदिर निर्माण,
समान नागरिक संहिता और धारा ३७० जैसे प्रखर राष्ट्रवादी मुद्दों को ताक पर रखना
पड़ा... जिस आडवानी ने पार्टी को दो सीटों से १८० तक पहुंचाया था, उन्हीं को
दरकिनार करते हुए एक “समझौतावादी” प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी को चुनना पड़ा.
तभी से भाजपा का जमीनी कार्यकर्ता जो हताश-निराश हुआ, वह आज तक उबर नहीं पाया है. पिछले लगभग दस वर्ष में देश ने सभी मोर्चों पर
अत्यधिक दुर्दशा, लूट और अत्याचार सहन किया है, लेकिन आज भी प्रमुख विपक्ष के रूप
में भाजपा से जैसी आक्रामक सक्रियता की उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हो पा रही थी.
पिछले एक वर्ष के दौरान, अर्थात जब से नरेंद्र मोदी एक तरह से राष्ट्रीय परिदृश्य
पर छाने लगे हैं, ना सिर्फ कार्यकर्ताओं में उत्साह जाग रहा है, बल्कि पार्टी की
१९८९ वाली आक्रामकता भी धीरे-धीरे सामने आने लगी है.
यूपीए-१ और यूपीए-२ ने जिस
तरह देश में भ्रष्टाचार के उच्च कीर्तिमान स्थापित किए हैं, उसे देखते हुए भारत की
जनता अब एक सशक्त व्यक्तित्व और सशक्त पार्टी को सत्ता सौंपने का मन बना रही है.
गठबंधन धर्म के लेक्चर पिलाने वाले बुद्धिजीवियों तथा टीवी पर ग्राफ देखकर
भविष्यवाणियाँ करने वाले राजनैतिक पंडितों को छोड़ दें, तो देश के बड़े भाग में आज
जिस तरह से निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग के दिलों में काँग्रेस के प्रति
नफरत का एक “अंडर-करंट” बह रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि भाजपा द्वारा २०१४ का
लोकसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ने का दाँव खेलने का समय आ गया है.
सबसे पहले हम भाजपा की ताकत को तौलते हैं. दिल्ली, हरियाणा, उत्तरांचल, हिमाचल, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भाजपा अकेले दम पर काँग्रेस के साथ सीधे टक्कर में है. यहाँ लगभग सौ-सवा सौ सीटें हैं (पंजाब में अकाली दल को ना तो भाजपा और ना ही नरेंद्र मोदी से कोई समस्या है). उत्तरप्रदेश-बिहार की “जाति आधारित राजनीति” में पिछले बीस साल से चतुष्कोणीय मुकाबला हो रहा है, यहाँ भाजपा को किसी से ना तो गठबंधन करने की जरूरत है और ना ही सीटों का रणनीतिक बँटवारा करने की. इन दोनों राज्यों को मिलाकर लगभग सवा सौ सीटें हैं. और नीचे चलें, तो बालासाहेब ठाकरे के निधन के पश्चात एक “वैक्यूम” निर्मित हुआ है, इसलिए महाराष्ट्र में भाजपा को शिवसेना की धमकियों में आने की बजाय किसी सशक्त और ईमानदार प्रांतीय नेता को आगे करते हुए अकेले लड़ने का दाँव खेलना चाहिए.
दक्षिण के चार राज्यों में से कर्नाटक में येद्दियुरप्पा ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि कोई नेता पूरे लगन और जोश से जमीनी कार्य करता रहे, तो उसे एवं पार्टी को समय आने पर उसका फल मिलता ही है. एक तरह से कर्नाटक को हम भाजपा के लिए मेहनत और फल का एक “रोल माडल” के रूप में ले सकते हैं. अब बचे आंधप्रदेश, तमिलनाडु और केरल – तीनों ही राज्यों में भाजपा की स्थिति फिलहाल सिर्फ “वोट कटवा” के रूप में है, इसलिए इन तीनों ही राज्यों में रणनीतिक आधार पर सीट-दर-सीट काँग्रेस को हराने के लिए चाहे जिसका कंधा उपयोग करना पड़े, वह करना चाहिए. सभी क्षेत्रीय दलों से समान दूरी होनी चाहिए| खुले में तो यह घोषणा होनी चाहिए कि भाजपा अकेले चुनाव लड़ रही है, लेकिन जिस तरह से कई राज्यों में मुस्लिम वर्ग भाजपा को हराने के लिए अंदर ही अंदर “रणनीतिक मतदान” करता है, उसी तरह भाजपा के कट्टर वोटर और संघ का कैडर मिलकर दक्षिण के इन तीनों राज्यों में किसी सीट पर द्रमुक, कहीं पर जयललिता तो कहीं वामपंथी उम्मीदवार का समर्थन कर सकते हैं, लक्ष्य सिर्फ एक ही होना चाहिए कि भले ही क्षेत्रीय दल जीत जाएँ, लेकिन काँग्रेस का उम्मीदवार ना जीतने पाए, और यह काम संघ-भाजपा के इतने बड़े संगठन द्वारा आज के संचार युग में बखूबी किया जा सकता है.
अब चलते हैं पूर्व की ओर, पश्चिम बंगाल में भाजपा की उपस्थिति सशक्त तो नहीं कही जा सकती, लेकिन वहाँ भी भाजपा को काँग्रेस-वाम-ममता तीनों से समान दूरी बनाते हुए हिन्दू वोटरों को गोलबंद करने की कोशिश करनी चाहिए. जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों में वामपंथियों और अब ममता बनर्जी के शासनकाल में बंगाल का तेजी से इस्लामीकरण हुआ है, उसे वहाँ की जनता को समझाने की जरूरत है, और बंगाल का मतदाता बांग्लादेशी घुसपैठियों, दंगाईयों और उपरोक्त तीनों पार्टियों के कुशासन से त्रस्त हो चुका है. यदि बंगाल में भाजपा किसी “मेहनती येद्दियुरप्पा” का निर्माण कर सके, तो आने वाले कुछ वर्षों में अच्छे परिणाम मिल सकते हैं. फिलहाल २०१४ में काँग्रेस-वाम-ममता के त्रिकोण के बीच बंगाल में भाजपा का अकेले चुनाव लड़ना ही सही विकल्प होगा, नतीजा चाहे जो भी हो. उत्तर-पूर्व के राज्यों में सिर्फ असम ही ऐसा है, जहाँ भाजपा की उपस्थिति है इसलिए पूरा जोर वहाँ लगाना चाहिए. असम गण परिषद एक तरह से भाजपा का “स्वाभाविक साथी” है, इसलिए उसके साथ सीटों का तालमेल किया जाना चाहिए.
कुल मिलाकर स्थिति यह उभरती
है कि यदि भाजपा हिम्मत जुटाकर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला कर ले, तो – लगभग १५०
सीटों पर भाजपा व काँग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होगा... लगभग २०० सीटों पर
त्रिकोणीय अथवा चतुष्कोणीय मुकाबला होगा... जबकि दक्षिण-पूर्व की लगभग १५०-१७०
सीटें ऐसी होंगी, जहाँ भाजपा के पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं (इन सीटों पर
भाजपा चाहे तो गठबंधन करते हुए, अपने वोटरों को सम्बन्धित पार्टी के पाले में
शिफ्ट कर सकती है). लेकिन समूचे उत्तर-पश्चिम भारत की ३५० सीटों पर तो भाजपा को
अकेले ही चुनाव लड़ना चाहिए, बिना किसी दबाव के, बिना किसी गठबंधन के, बिना किसी
क्षेत्रीय दल से तालमेल के.
यह तो हुआ सीटों और राज्यों का आकलन, अब इसी आधार पर चुनावी रणनीति पर भी बात की जाए... जैसा कि स्पष्ट है १५० सीटों पर भाजपा का काँग्रेस से सीधा मुकाबला है, इन सीटों में से अधिकांशतः उत्तर-मध्य भारत और गुजरात में हैं. यहाँ पर भाजपा का कैडर भी मजबूत है और नरेंद्र मोदी के बारे में मतदाताओं के मन में सकारात्मक हलचल बन चुकी है. सबसे महत्वपूर्ण हैं उत्तरप्रदेश और बिहार. उत्तरप्रदेश की जातिगत राजनीति का “तोड़” भी नरेंद्र मोदी ही हैं. जैसा कि सभी जानते हैं, नरेंद्र मोदी घांची समुदाय अर्थात अति-पिछड़ा वर्ग से आते हैं, इसलिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से उत्तरप्रदेश के जातिवादी नेता भाजपा पर “ब्राह्मणवादी” पार्टी होने का आरोप लगा ही नहीं सकेंगे. कुछ माह पहले मैंने अपने लेख में नरेंद्र मोदी को लखनऊ से चुनाव लड़वाने की सलाह दी थी, इस पर अमल होना चाहिए. लखनऊ से मोदी के चुनाव में खड़े होते ही, उत्तरप्रदेश की राजनैतिक तस्वीर में भूकंप आ जाएगा. मुसलमानों के वोटों को लुभाने के लिए सपा-बसपा और काँग्रेस के बीच जैसा घिनौना खेल और बयानबाजी होगी, उसके कारण भाजपा को हिंदुओं-पिछडों को काँग्रेस के खिलाफ एक करने में अधिक परेशानी नहीं होगी. इसके अलावा रोज़गार के सिलसिले में उत्तरप्रदेश से गुजरात गए हुए परिवारों का भी प्रचार में उपयोग किया जा सकता है, ये परिवार स्वयं ही गुजरात की वास्तविक स्थिति और बिजली-पानी-सड़क की तुलना उत्तरप्रदेश से करेंगे व मोदी की राह आसान बनती जाएगी. साम्प्रदायिक आधार पर नरेन्द्र मोदी का विरोध करके काँग्रेस-सपा-बसपा अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे, यह बात गुजरात में साबित हो चुकी है, और अब तो पढ़ा-लिखा मुसलमान भी इतना बेवकूफ नहीं रहा कि वह धर्म के आधार पर वोटिंग करे. पढ़े-लिखे समझदार मुसलमान चाहे संख्या में बहुत ही कम हों, लेकिन वे साफ़-साफ़ देख रहे हैं कि बंगाल व उत्तरप्रदेश के मुकाबले गुजरात के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में काफी अंतर है. मुसलमान भी समझ रहे हैं कि काँग्रेस और सपा ने अभी तक उनका “उपयोग” ही किया है. इसलिए यदि मोदी को लेकर काँग्रेस तीव्र साम्प्रदायिक विभाजन करवाने की चाल चलती है, तो ऐसे चंद समझदार मुसलमान भी भाजपा के पाले में ही आएँगे.
कमोबेश यही स्थिति बिहार में भी सामने आएगी. नीतीश भले ही अभी मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए मोदी के खिलाफ ख़म ठोंक रहे हों, लेकिन लोकसभा के चुनावों में जब काँग्रेस-लालू-पासवान मिलकर नीतीश की पोल खोलना आरम्भ करेंगे तब फायदा भाजपा का ही होगा. यहाँ भी मोदी के पिछड़ा वर्ग से होने के कारण “जातिगत” कार्ड भोथरे हो जाएंगे. असल में जिस तरह से पिछले कुछ माह में नरेंद्र मोदी ने विभिन्न मंचों का उपयोग करते हुए अपनी लोकप्रियता को जबरदस्त तरीके से बढ़ा लिया है, उसके कारण लगभग सभी राजनैतिक दलों के रीढ़ की हड्डी में ठंडी लहर दौड़ गई है. स्वाभाविक है कि अब आने वाले कुछ माह नरेंद्र मोदी पर चहुँओर से आक्रमण जारी रहेगा. लेकिन नरेंद्र मोदी जिस तरह से लोकप्रियता की पायदान चढ़ते जा रहे हैं, लगता नहीं कि नीतीश कुमार जैसे अवसरवादी क्षत्रप उन्हें रोक पाएंगे.
लगभग ३५० सीटों पर इतनी साफ़ तस्वीर सामने होने के बावजूद, भाजपा को क्षेत्रीय दलों के सामने दबने की क्या जरूरत है? नरेंद्र मोदी के नाम पर बिदक रहे शिवसेना और जद(यू) यदि गठबंधन से बाहर निकल भी जाएँ तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? इन्हें मिलाकर बना हुआ NDA नाम का “बिजूका” तो चुनाव परिणामों के बाद भी तैयार किया जा सकता है. उल्लिखित ३५० सीटों पर प्रखर राष्ट्रवादी विचारधारा, आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त आवाज़ तथा नरेंद्र मोदी की विकासवादी छवि को सामने रखते हुए भाजपा अकेले चुनाव लड़े तो यूपीए-२ के कुकर्मों की वजह से बुरी से बुरी परिस्थिति में भी कम से कम १८० से २०० सीटों पर जीतने का अनुमान है.
यदि भाजपा अकेले लड़कर, कड़ी मेहनत और नरेंद्र मोदी की छवि और काम के सहारे २०० सीटें ले आती है, तो क्या परिदृश्य बनेगा यह समझाने की जरूरत नहीं है. एक बार भाजपा की २०० सीटें आ जाएँ तो शिवसेना, जयललिता और अकाली दल तो साथ आ ही जाएंगे. साथ ही भाजपा “अपनी शर्तों पर” (यानी १९९८ की गलतियाँ ना दोहराते हुए) चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक इत्यादि से समर्थन ले सकती है. जिस प्रकार यूपीए का गठबंधन भी चुनावों के बाद ही “आपसी हितों” और “स्वार्थ” की खातिर बना था, वैसे ही भाजपा भी २०० सीटें लाकर राम मंदिर निर्माण, धारा ३७० और समान नागरिक क़ानून जैसे “राष्ट्रवादी हितों” की खातिर क्षेत्रीय दलों से चुनाव बाद लेन-देन कर सकती है, इसमें समस्या क्या है? लेकिन चुनावों से पहले ही भाजपा जैसी बड़ी पार्टी को उसके वर्तमान सहयोगी आँखें दिखाने लग जाएँ, चुनाव की घोषणा से पहले ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हेतु अपनी शर्तें थोपने लग जाएँ तो यह भाजपा के लिए ही शर्म की बात है...
इस विश्लेषण का तात्पर्य यह है कि अब भाजपा को तमाम संकोच-शर्म झाड़कर उठ खड़े होना चाहिए, नरेन्द्र मोदी जैसा व्यक्तित्व उसके पास है, भाजपा स्पष्ट रूप से कहे कि नरेन्द्र मोदी हमारे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. NDA के जो-जो सहयोगी साथ में चुनाव लड़ना चाहते हैं वे साथ आएं, जो अलग होकर चुनाव लड़ना चाहते हैं वे अपनी राह खुद चुनें...| बाकी का सारा गठबंधन चुनाव परिणाम आने के बाद सभी की सीटों के संख्या के आधार पर किया जाएगा और उस समय भी यदि भाजपा २००-२१० सीटें ले आती है, तो सभी क्षेत्रीय दलों के लिए “हमारी शर्तों पर” दरवाजे खुले रहेंगे... स्वाभाविक है कि यदि भाजपा की सीटें कम आती हैं, तो उसे इन दलों की शर्तों के अनुसार गठबंधन करना होगा. परन्तु जैसा कि मैंने कहा, यह काम चुनाव बाद भी किया जा सकता है, जो ३५० सीटें ऊपर गिनाई गई हैं, सिर्फ उन्हीं पर फोकस करते हुए भाजपा को अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम उठाना चाहिए, देश की जनता भी अब “गठबंधन सरकारों” की नौटंकी से ऊब चुकी है. जब तक भाजपा धूल झाड़कर, हिम्मत जुटाकर राष्ट्रवादी मुद्दों के साथ स्पष्टता से नहीं खड़ी होगी, उसे जद(यू) जैसे बीस सीटों वाले दल भी अपने अंगूठे के नीचे रखने का प्रयास करते रहेंगे. जब एक बार पार्टी को बैसाखियों की आदत पड़ जाती है, तो फिर वह कभी भी अपने पैरों पर नहीं खड़ी हो सकती... नीतीश-शिवसेना जैसी बैसाखियाँ तो चुनाव परिणामों के बाद भी लगाई जा सकती हैं, नरेंद्र मोदी की विराट छवि के बावजूद, अभी इनसे दबने की क्या जरूरत है?? यदि "अपने अकेले दम" लड़ते हुए पर २०० सीटें आ गईं तो क्षेत्रीय दलों के लिए मोदी अपने-आप सेकुलर बन जाएंगे... और यदि २०० से कम सीटें आती हैं तो फिर पटनायक-नीतीश-जयललिता-मायावती-ममता (यहाँ तक कि पवार भी) सभी के लिए अपने दरवाजे खोल दो... उसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन फिलहाल चुनाव अकेले लड़ो...
लाख टके का सवाल यही है कि
क्या भाजपा-संघ का नेतृत्व (यानी आडवाणी-सुषमा-जेटली की तिकड़ी) अकेले चुनाव लड़ने
संबंधी “बाजी” खेलने की हिम्मत जुटा पाएगा???
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