इतिहास के कई झूठे सिद्धांतों को अब भी किताबों में पढ़ाया जा रहा है। उसी में से एक है – आर्य आक्रमण सिद्धांत। (Aryan Invasion Theory) इस सिध्धांत को भ्रम फैलाने के लिए ही अंग्रेजो ने औपनिवेशिक काल में फैलाया था। उसका सीधा सा उद्देश्य था की इस देश पर हिंदु के जितना ही मुसलमान और अंग्रेज का अधिकार है। आर्य आक्रमण सिद्धांत एक बहुत ही चालाकी से अभ्यासक्रम में डाला गया सफेद झूठ है। इस सिद्धांत का गलत उपयोग आज भी कथित दलित पार्टियां और साम्यवादी दल करते है। साथ ही में उच्च वर्ण के हिंदुओ को बाहर से आया हुआ कह कर गरियाते रहते है। उनकी दृष्टि से विध्वंसक मुग़ल और आर्य दोनों ही बाहर से आए है। ऐसे में इस नकली थ्योरी को बाबासाहब के चश्मे से देखना जरूरी हो जाता है।

बाबासाहब आंबेडकर ने महात्मा ज्योतिबा फुले (Jyotiba Fule) को अपना गुरु माना था, उन्होंने प्रतिपादित किया था की आर्य बाहर से आए, और यहां के अछूतो को यानि की अनार्यो को अपना बंदी बनाया। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जो की हिंदु संस्कृति के श्रेष्ठ अध्येता थे उन्होंने भी यही माना था की आर्यो का मूल वतन उत्तर ध्रुव के पास में ही है। साथ ही में अछूतो के उद्धार के लिए आंदोलन के पुरोधा गोपालबाबा बलंगजी ने भी कहा था की अछूत यहां के मूलनिवासी थे और आर्य बाहर से आए एवं यहां के अछूत को उन्होंने गुलाम बनाया, दक्षिण भारत में पेरियार का भी मत यही था।

 

Babasaheb

लेकिन बाबासाहब आंबेडकर ने कोई पूर्वानुमान लगाने की बजाय इसका अभ्यास करना उचित समझा। उन्होंने वेदों का अभ्यास कर के एक पुस्तक लिखी जो कि काफी लोकप्रिय भी है- “Who were Shudras?” (शूद्र कौन थे?) उस पुस्तक में वह यूरोपियन और औपनिवेशक इतिहासकारो द्वारा प्रचलित झूठ का तर्कबद्ध रूप से खंडन करते है। सारांश के रूप में मैं कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ। ये सभी तर्क बाबासाहब आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत किए गए थे.... 

झूठ: आर्यवंश के लोगो ने वेद का निर्माण किया। यह वंश मूल रूप से बहार से आया था और उन्हों ने भारत पर आक्रमण किया।

तर्क: आर्य शब्द वेदो में ३३ बार प्रयुक्त हुआ है। वह कहते है की आर्य शब्द गुणवाचक है , जिसका अर्थ श्रेष्ठ होता है। यह शब्द वंशवाचक नहीं है। आर्यवंशीय लोगो ने दस्युओं को बंदी बनाया और भारत पर आक्रमण किया इसका वेदो में कोई प्रमाण नहीं है।

झूठ: आर्य का वर्ण गोरा था, दस्यु का वर्ण काला था। भारत के मूलनिवासी दस्यु थे।
तर्क: वेदो में इसका कोई प्रमाण नहीं है की आर्य और दस्यु के बीच वांशिक भेद था। वेदो में जब भी कहीं यह शब्द आते है तो उसका संबंध वंश से न होकर पूजा-पद्धति से है।

झूठ (लोकमान्य तिलक की धारणा):- जैसा की शुरुआत में ही लिखा की लोकमान्य तिलक आर्य को उत्तर ध्रुव का यानि की एंटार्कटिक का मानते है।
तर्क: बाबासाहब कहते है की, ‘अश्व’ यानि की घोड़े की आर्य के जीवन में बहुत ही महत्वता थी। जबकि एंटार्कटिक में तो घोडा है ही नहीं। इससे यह धारणा भी निराधार हो जाती है।

झूठ: आर्यों ने दास और दस्यु को गुलाम बनाया, उन्हें ‘शूद्र’ नाम दिया गया।
तर्क:- वेद की दृष्टि से आर्य के साथ दास और दस्यु की भिड़ंत स्थानीय थी।

इसके अलावा भी बाबासाहब आंबेडकर इस पुस्तक के प्रकरण नंबर ४ में शूद्र विरुद्ध आर्य में आर्य आक्रमण सिद्धांत का बहुत ही आलोचनात्मक ढंग में खंडन करते है। नृवंशशास्त्र और इतिहास में रूचि रखने वालो को यह प्रकरण अवश्य ही पढ़ना चाहिए. बाबासाहब आंबेडकर के अलावा स्वातंत्र्यवीर वीर विनायक दामोदर सावरकर अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ और राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर भी अपनी पुस्तक ‘वी, आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ में आर्य के आक्रमण सिद्धांत का विवेचनात्मक खंडन करते है। वह कहते है कि सभी जातियां भारत में जन्मी थी, उनका बाहर से आने का कोई प्रमाण नहीं है और सभी हिंदु आर्य है।

संदर्भ :
Who were Shudras By Dr. Ambedkar
‘कहीं से हम आए थे नहीं’ – डॉ. विजय कायत (पांचजन्य विशेषांक, अप्रैल २०१५)
‘सब से पहले मेरा देश’- भि. रा. इदाते (पांचजन्य विशेषांक, अप्रैल २०१५ 

===================

साभार :- India Facts

सिद्धगिरि मठ, कनेरी (Siddhagiri Math Kaneri) में पिछले 25-30 वर्षों से जैविक खेती (Organic Farming) की जा रही है। वर्ष 2014 से हमने छोटे-छोटे किसानों को समृद्ध स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनाने के लिए एक प्रयोग प्रारंभ किया।

अधिकाँश मित्रों ने महाराज फ़तेह बहादुर शाही (Fateh Bahadur Shahi) के बारे में अधिक पढ़ा-सुना नहीं होगा. महाराज फतेहबहादुर शाही वर्तमान उत्तरप्रदेश और बिहार के बड़े इलाके एवं सीमावर्ती क्षेत्र के शासक रहे हैं.

बहुत कम लोग जानते होंगे कि साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने "जेहाद" नाम की एक कहानी भी लिखी थी. जिसे हमारे शेखुलर प्रकाशकों ने पुस्तकों से लगभग गायब ही कर दिया.100 वर्ष पहले लिखी गई मुंशी प्रेमचंद की कहानी प्रस्तुत है। कहानी का नाम है "जेहाद".

वैदिक व्यवस्था को आधार मानकर राज्य व्यवस्था एवं राष्ट्र निर्माण के सर्वोत्कृष्ट अनुभव हमें गीता करवाती है, भगवन श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन एवं उनके भाइयों को जो उपदेश युद्ध के मैदान में दिए गए वह सभी उपदेश वेदों की आज्ञा ही तो है, किन्तु अज्ञानवश हम उन वेदाज्ञाओं को भूलकर गीता में न जाने कौन सा ज्ञान खोजने लग जाते है कि चाहे राष्ट्र, समाज, संस्कृति पूर्ण नष्ट हो जाये परन्तु फिर भी हम यही सोचते रहते है की कोई चमत्कार हो जायेगा.

यदि हम विश्व के सभी समाजों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि हिंदू समाज दुनिया का सबसे अधिक समरस, संगठित और सभ्य समाज है। परंतु दुर्भाग्यवश आज इसे सर्वाधिक भेदभावपूर्ण, बिखरा हुआ और संकीर्ण समाज के रूप में चित्रित किया जाता है।

बात सन 2005 की है, मुझे पांच छः साल बेसब्र प्रतीक्षा के बाद लैंडलाइन फोन का कनेक्शन मिला था तब तक उत्तराखंड के पहाड़ में मोबाइल फोन नहीं थे, इंटरनेट डाटा तो पूरे देश में दूर की बात थी हम पहाड़ में ब्रॉडबैंड ईमेल आदि भी नहीं जानते थे.

जैसा कि सभी जानते हैं, तिरुपति स्थित तिरुमाला मंदिर (Tirupati Devasthanam) भारत के प्रमुख धनी मंदिरों में से एक है, जहाँ प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का दान और चढ़ावा आता है. लेकिन अधिकाँश लोग इस बात से अनजान हैं कि देश के सभी प्रमुख मंदिरों पर सरकारों का आधिपत्य है. मंदिरों में जारी सरकारी लूट (Temple Loot) के बारे में इसी पोर्टल पर चार भागों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की गई थी (यहाँ, यहाँ, यहाँ और यहाँ क्लिक करके अवश्य पढ़ें), परन्तु मंदिरों की अकूत संपत्ति, प्रबंधन और व्यवस्थाओं पर सरकारों के इस नियंत्रण (HRCE Act) के कारण हिन्दू मंदिरों में भ्रष्टाचार, अनियमितताएँ तो बढ़ी ही हैं, लेकिन साथ ही सनातन परम्पराओं, पूजा-अर्चना एवं विभिन्न कर्मकांडों में भी सरकार का हस्तक्षेप बढ़ रहा है. 

तिरुमला तिरुपति देवस्थानम बोर्ड (TTD) में भी पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न प्रकार की बातें सुनाई देती रहीं, लेकिन चूँकि अधिकाँश हिन्दू सुप्त अवस्था में रहते हैं और सरकारों पर हिन्दू मामलों को लेकर कोई दबाव नहीं बनाते इसलिए तिरुपति देवस्थानम के कई मामले यूँ ही दबा दिए गए. आंधप्रदेश में चर्च की असीमित गतिविधियाँ काँग्रेसी मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल में उफान पर थीं और अब हालत ये हो गई है कि कई बार तिरुपति मंदिर के अंदर भी चर्च के गुर्गे अपनी किताबें लेकर ईसा मसीह का प्रचार करते पाए जाने लगे हैं.

 

PRIEST8

ऐसे ही कई मुद्दों को लेकर हाल ही में तिरुपति देवस्थानम के प्रमुख पुजारी श्री एवी रामन्ना दीक्षितुलू ने बाकायदा एक प्रेस कांफ्रेंस करके मंदिर प्रशासन पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं. दीक्षितुलू ने साफ़-साफ़ आरोप लगाया है कि मंदिर में आने वाली ज्वेलरी और बेशकीमती रत्नों का वर्षों से कोई पुख्ता ऑडिट नहीं हुआ है और उसमें बड़ी मात्रा में हेराफेरी किए जाने की आशंका है. दीक्षितुलू के अनुसार 1996 तक मंदिर के पुजारी ही भगवान की समस्त ज्वेलरी, मुकुट इत्यादि के व्यवस्थापक हुआ करते थे. हमने सभी प्रकार के दान का अप-टू-डेट हिसाब-किताब रखा हुआ था. दुर्भाग्य से 1996 में आंध्रप्रदेश सरकार ने इस मंदिर का अधिग्रहण कर लिया और पिछले बाईस वर्षों में ज्वेलरी को एक बार भी नहीं गिना गया. 1996 के बाद दान में मिले गहनों एवं स्वर्ण आभूषणों की गिनती जरूर हुई है, परन्तु जो प्राचीन आभूषण थे, उनका कोई ऑडिट नहीं हुआ है. दीक्षितुलू की माँग है कि मंदिर के खजाने का CCTV कैमरा लगाकर सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में “सार्वजनिक ऑडिट” होना चाहिए, तथा एक-एक आभूषण का “डिजिटल रिकॉर्ड” होना चाहिए, परन्तु सरकार इस दिशा में कतई गंभीर नहीं है. TTD प्रशासन ने इसके बाद श्रीरामन्ना को प्रमुख पुजारी के पद से बर्खास्त कर दिया है. 

मुख्य पुजारी ने मंदिर संपत्ति की सम्पूर्ण जाँच सीबीआई से करवाने की भी मांग की है, ताकि मंदिर में हिंदुओं की संपत्ति से आए हुए दान के रुपयों को कहाँ-कहाँ और कैसे खर्च किया गया, इसकी पूरी जानकारी जनता के सामने आए. उदाहरण के लिए तेलुगूदेसम पार्टी के एक विधायक ने अनंतपुर के गुदीमाला गाँव में भव्य मंदिर बनाने के लिए दस करोड़ रूपए की माँग TTD बोर्ड के सामने रखी है जिसे मंजूरी दे दी गई, जबकि ऐसा कोई प्रावधान मंदिर नियमावली में नहीं है. इसी प्रकार तिरुपति मंदिर के ट्रस्टी बोर्ड और उसके द्वारा की जाने वाली नियुक्तियों में भी भारी अनियमितताएँ देखी गई हैं. हाल ही में एक अखबार की स्टिंग रिपोर्ट में यह सामने आया है कि तिरुपति मंदिर में नकली हिन्दू नामों का सहारा लेकर धर्मान्तरित ईसाई भी स्टाफ की भर्ती में शामिल हो चुके हैं. ज़ाहिर है कि ऐसे कर्मचारियों को हिन्दू धार्मिक आस्थाओं से क्या लेना-देना? इसी प्रकार कुछ वर्ष पहले जम्मू स्थित वैष्णो देवी ट्रस्ट बोर्ड द्वारा जब माता के मंदिर में चढाए गए गहनों की विस्तृत जाँच की गई तो उसमें से कई गहने नकली पाए गए, परन्तु उस समय इसका आरोप भक्तों पर ही मढ़ा गया था कि उन्होंने ही नकली गहने चढाए होंगे... इस प्रकार लीपापोती करके मामला रफा-दफा कर दिया गया था.

श्रीरामुलू दीक्षितुलू के अनुसार मंदिर प्रशासन केवल पैसा कमाने में लगा हुआ है. VIP दर्शन के नाम पर लाखों रूपए की लूट पिछले दरवाजे से जारी है, जिसके कारण पुराने अर्चक एवं पुजारी तो आहत हैं ही, कई बार मंदिर की परम्पराओं एवं धार्मिक आस्थाओं पर भी आघात कर दिया जाता है और प्रशासन चुपचाप देखता रहता है, क्योंकि वह उस VIP से पैसा ले चुका होता है. मुख्य पुजारी ने 45 पुजारियों के हस्ताक्षर से युक्त अपनी समस्त शिकायतें प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और आंधप्रदेश के राज्यपाल को विस्तार से लिखकर भेज दी हैं, कि जिस प्रकार केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर का ऑडिट किया गया था, वैसा ही ऑडिट तिरुपति मंदिर का भी होना चाहिए, VIP दर्शन बन्द होने चाहिए तथा प्रशासन के निरंतर बढ़ते हस्तक्षेप के कारण धार्मिक भावनाओं के आहत होने को रोका जाए.

वास्तव में अब समय आ गया है कि केन्द्र और राज्य सरकारें, हिंदुओं के दान के पैसों की यह लूट बन्द करें, तथा HRCE क़ानून में आमूलचूल परिवर्तन करके मंदिरों का प्रशासन, प्रबंधन, व्यवस्थापन एवं समस्त धार्मिक-आर्थिक व्यवहार के लिए एक केन्द्रीय समिति का गठन किया जाए, जिसमें IAS अधिकारियों एवं नेताओं का कोई हस्तक्षेप न हो. मंदिरों का पैसा केवल और केवल गरीब हिंदुओं की भलाई, स्कूल, अस्पताल एवं हिन्दू मंदिरों की देखभाल में ही खर्च होना चाहिए. बहरहाल, अब मामला रोचक हो गया है क्योंकि "हिंदुत्व" के लगभग एकमात्र सबल योद्धा अर्थात डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी इस मुद्दे को लेकर हाईकोर्ट चले गए हैं और उन्होंने मंदिर के मामले में आंधप्रदेश सरकार के हस्तक्षेप को रोकने तथा श्रीरामन्ना की बहाली हेतु अर्जी लगा दी है. 

भारत में सचेत हिन्दू (Hindu Awareness) आज भी बहुत कम हैं। अर्थात जिन्हें देश-दुनिया की ठोस जानकारी के साथ हिन्दुओं की तुलनात्मक स्थिति मालूम है। तदनुरूप जो अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं। इनकी संख्या संभवतः देश में एक प्रतिशत भी नहीं है। इनमें लेखक, पत्रकार, विद्वान और हर कार्यक्षेत्र के लोग हैं। यद्यपि यहाँ "ओपिनियन मेकर" वर्ग में प्रभावी हिस्सा वामपंथियों, इस्लाम-परस्तों और जाने-अनजाने देशघातियों, हिन्दू-विरोधियों का ही है। सो, संख्यात्मक दृष्टि से सचेत हिन्दू यहाँ नगण्य हैं। देश के प्रभावी बुद्धिजीवी उन्हें संघ-भाजपा से जोड़कर देखते हैं। यह कुछ सच भी है, क्योंकि चुनावों में ये प्रायः भाजपा समर्थक होते हैं। किन्तु यही सचेत हिन्दुओं की कठिनाई भी रही है। उनकी समझ भाजपा की देन नहीं, बल्कि स्वतंत्र चिन्तन का परिणाम है। इसीलिए उन्हें एक ओर से लांछन, तो दूसरी ओर से ताना सुनना पड़ता है, सहयोग कहीं से नहीं मिलता। लम्बे समय से प्रभावशाली सेक्यूलर-वामपंथी बुद्धिजीवियों ने उन्हें "सांप्रदायिक", "मुस्लिम-विरोधी", "संघी-भाजपाई" तत्व कहकर विचार-विमर्श में अछूत-सा बनाए रखा है। जबकि भाजपा के अनुयायी उन पर अंध-समर्थक बनने का दबाव देते रहे हैं। इस प्रकार, स्वतंत्र सोच-विचार के कारण सचेत हिन्दू (Hindu Nationalistic Academia) पर दोतरफा चोट होती है। अर्थात् ठीक उस कारण जिस के लिए उसका महत्व होना चाहिए था! इस प्रकार, ऐसे हिन्दुओं को दूसरे हिन्दू ही ब्लैकमेल करते हैं। आईये जानते हैं कि वे लोग कौन हैं?

-- वे ऐसे लोग हैं जो विशेष प्रसंगों पर चिन्ता दिखा कर हिन्दू-रक्षक होने का संकेत करके राजनीतिक, चुनावी, आर्थिक सहयोग, आदि लेते हैं। फिर उन पर तब तक मुँह नहीं खोलते जब तक कि फिर चुनाव न आ जाए।

-- जो दिवंगत और वर्तमान हिन्दू विद्वानों, कर्मयोगियों की उपेक्षा करते हैं। जो पार्टी-प्रचारकों से विद्वानों को सीख दिलाने की जिद रखते हैं, सीधे और छल-पूर्वक, दोनों प्रकार से। जो राष्ट्रीय, सामाजिक, धर्म चिन्ताओं को दलीय घेरे के अंदर रखकर सोच-विचार की जबर्दस्ती थोपते हैं। जिस का अर्थ होता है कि कमरे के अंदर आप जो चाहे बोलें, बाहर दल व नेता की जयकार करें...

-- जो शिक्षा, संस्कृति को बड़ा हल्का काम मानते हैं। जिस से इन क्षेत्रों में काम करने वाले सच्चे, गंभीर, परिश्रमी लोग (जो वैसे ही ढूँढने पर कम ही मिलते हैं) सदैव बेहद उपेक्षित रहते हैं।

-- जो अपने सामान्य नेताओं तक को ऋषि, मनीषी, संत, आदि प्रचारित करने में राजकोष का बेहिसाब धन नष्ट करते हैं। इस कारण सच्चे ज्ञानियों, उन की शिक्षाओं को नई पीढ़ी कम जानती है, फलतः सांस्कृतिक गिरावट बढ़ती जाती है।

-- जो राष्ट्रीय, शासकीय, नीतिगत जिम्मेदारियाँ देने में योग्यता नहीं, बल्कि निजी वफादारी और चाटुकारिता को महत्व देते हैं। समाज हित से ऊपर निजी या दलीय हित को प्रश्रय देते हैं।

-- जो अपने शुभचिन्तकों, सहयोगियों से भी दोहरी बातें करते हैं।

-- जो राष्ट्रीय नीति-निर्माण पर कभी सच्चा विचार-विमर्श नहीं, बल्कि पार्टी-प्रोपेगंडा करते हैं। इस प्रकार समय, सत्ता और संसाधन की नियमित बर्बादी करते हैं।

-- जो अपनी और अपने दल की छवि बनाने के लिए अतिरंजना, मिथ्या और अनर्गल बोलते रहते हैं, पर इसे जरूरत बताकर अपने असहज सदस्यों को चुप करते हैं।

-- जो शिवाजी, दयानन्द, विवेकानन्द, श्रद्धानन्द, श्रीअरविन्द, टैगोर, अज्ञेय, जैसे मनीषियों पर श्रद्धा रखते हैं, किन्तु उन की किसी सीख की परवाह नहीं रखते, बल्कि उलटा करते हैं। इस से होती राष्ट्रीय हानि की जिन्हें कोई समझ नहीं है.

-- जो देश, समाज और धर्म-रक्षा के लिए स्वतंत्र रूप से काम करने वालों को बाधा देते, झूठी बदनामी तक करते हैं... ताकि तत्संबंधी कुछ भी करने, जैसे चाहे करने, या न करने का उन का एकाधिकार बना रहे।

-- जो समाज के जाने-माने घोर शत्रुओं पर चोट के बजाए अपने प्रतिद्वंदी हिन्दू नेताओं या मामूली दलों, आदि को निपटाने के लिए पूरी बुद्धि, समय और संसाधन लगाते हैं। इस तरह वास्तविक शत्रुओं को मजबूत होने के लिए पूरा अवकाश देते हैं..

-- जो सत्ता में आने पर विशिष्ट ज्ञानयोगियों, हिन्दू-हितैषियों, हिन्दू-सेवकों को सम्मान देने के बदले उन पक्के विरोधियों व मतलबियों को मान देते हैं, जो स्वार्थवश इन की ओर निहारते हैं। फलतः हिन्दुओं में सच्चे योद्धाओं, ज्ञानियों की वृद्धि कुंठित होती है। आखिर जिन लोगों का सार्वजनिक महत्व दिखे, वैसा ही बनने की प्रेरणा फैलती है। सो समाज में ज्ञानियों, समाज-सेवकों, योद्धाओं के बदले चाटुकारों, अनुचरों, प्रचारकर्मियों की वृद्धि होती है।

-- जो दशकों तक सत्ता में रह कर भी हिन्दुओं को सामाजिक सबल बनाने के लिए कुछ नहीं करते, बल्कि उन्हें अपने दल, नेता पर निर्भर रहने को विवश करते हैं। इस बहाने से कि ‘हानिकर लोग’ सत्ता में न आएं तथा ‘और बुरा’ न हो। इस प्रकार, जो हिन्दुओं को सामाजिक रूप से असहाय बनाए रखते हैं।

-- जो हिन्दुओं को सबल बनाने के बजाए कोई बुरा अतीत या संभावना दिखाकर डराते हैं, कि यदि उन्हें समर्थन न दिया, तो दुष्ट, दानव सत्तासीन हो कर हिन्दुओं को और सताएंगे... अथवा, ‘यदि हम ने कुछ न भी किया, न कर सके, वगैरह, तो दूसरों को समर्थन देकर अपनी हानि करोगे।

यह सब हिन्दुओ को ब्लैकमेल करना नहीं, तो क्या है?

इन सब को जैसे भी उचित ठहराएं, यह वह चेतना या कर्म नहीं है जिस की सीख समकालीन महान हिन्दू मनीषियों ने भी दी थी। यह राष्ट्रवाद भी नहीं, बल्कि अंध-पार्टीवाद है। कम्युनिस्टों की नकल है। केवल कम्युनिस्ट ही हमेशा पार्टी को पहली टेक बनाते थे। वही टेक इन्होंने भी अपना ली। इस के बाद कम्युनिस्टों की तरह ही निरंतर प्रपंच जरूरी हो जाता है। एक झूठ छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने जैसा। अतः, स्वामी विवेकानन्द ऊपरी आदर्श हैं, केवल फोटो दिखाने और हिन्दुओं को भ्रमित करने के लिए। इसीलिए विवेकानन्द की किसी सीख पर नहीं चला जाता। वास्तविक आदर्श जैसे-तैसे चुनाव जीतने के गुर सोचने वाले पार्टी-पुरुष हैं। इसलिए, हिन्दुओं की असहायता वस्तुतः तनिक भी नहीं घटी है। चाहे भाजपा ताकतवर लगे, पर हिन्दू-शत्रु जरा भी कमजोर नहीं पड़े। उन की गतिविधियाँ उसी उद्धटता से जारी हैं। तमाम हिन्दू-विरोधी वैसे ही कटिबद्ध अपना काम कर रहे हैं। अतः भाजपा की सत्ता होना अपने आप में कोई उपलब्धि नहीं है। क्योंकि इन में वह योग्यता, तैयारी, कर्मनिष्ठा बिलकुल नहीं, जो हिन्दू-शत्रुओं में है। भाजपा सत्ता लेकर भी असल मुद्दों पर बगलें झाँकती है, जबकि हिन्दू-शत्रु सत्ता के बिना भी मौके का इस्तेमाल जानते हैं। जिस मनोयोग से भाजपा ने सत्ता का प्रयोग प्रतिद्वंदी पार्टियों को निपटाने में किया, उस का दशांश भी हिन्दू-विरोध रोकने और सच्ची शिक्षा के प्रसार के लिए नहीं किया। ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का फूहड़ नारा उन की अयोग्यता का स्व-घोषित प्रमाण है।

इस प्रकार, सचेत हिन्दुओं की विडंबना विचित्र है। वे भाजपा समर्थक हैं, पर उन्हें ही ब्लैकमेल किया जाता है कि भाजपा का अंध-समर्थन करें। जबकि हिन्दू-विरोधियों को छुट्टा छोड़ दिया गया, बल्कि उन का आदर किया जाता है! यह ठीक गाँधीजी की तरह हिन्दुओं को "फॉर-ग्रांटेड" लेना हुआ। उस के अनिष्टकारी परिणामों से सीख लेने के बजाए सारी बुद्धि पार्टी-प्रचार में लगाई जाती है। इस बीच हिन्दू या राष्ट्रीय हितों पर चौतरफा घात चलता रहता है। क्योंकि हिन्दुओं के शत्रु किसी पार्टी के बंधक नहीं हैं। वे अधिक सचेत, साफ नजर और चतुर हैं। वहाँ लल्लुओं, मतलबियों को पद, संसाधन और महत्व नहीं दिया जाता। इसीलिए वे हर पार्टी से काम लेना, उन का इस्तेमाल करना जानते हैं। उन के लिए पथ नहीं, लक्ष्य महत्वपूर्ण है। अतः पार्टी-भक्ति को देश-भक्ति समझना बहुत बड़ी भूल है। जुमलेबाजी को नीति, महान मार्गदर्शकों को भुलाकर पार्टी नेताओं को मनीषी या जादूगर समझना, उन्हीं पर भरोसा, उन्हीं का प्रचार, आदि घातक है। सदैव लक्ष्य का ध्यान रखना चाहिए, पथ का नहीं... यह हिन्दुओं के शत्रुओं से भी सीखना चाहिए। 

बड़ा ही विचित्र सा शीर्षक है यह, क्या श्री भगवद्गीता की पुनरुत्पादन क्षमता पर कोई लेख भी लिखा जा सकता है? गीता (Bhagvadgita and Krishna) क्या कोई बीज है? जिसे बोने से कुछ उत्पन्न हो सकेगा? गीता तो ज्ञान की पुस्तक है, उपदेश है एवं इसका पठन, पाठन एवं जीवन में इसके उपदेशों को उतारना ही गीता की क्षमता है एवं हमारे देश में हजारों वर्षों से साधू संत एवं विद्वान् इस विषय पर भांति भांति के लेखन कर चुके हैं एवं कई विद्वानों ने गीता रहस्य, प्रस्थान त्रयी पर भाष्य, श्री कृष्ण भावनामृत आदि आदि द्वारा गीता के रहस्यों को उद्घाटित किया है, फिर यह उलटबांसी किसी वामपंथी या अज्ञानी के ही दिमाग की उपज हो सकती है.