इस्लामिस्ट को कम्युनिस्ट क्यों अच्छा लगता है

Written by शुक्रवार, 03 फरवरी 2017 12:42

शत्रु का शत्रु मित्र होता है इस सिद्धांत से अक्सर "वामी-इलहामी" कंधे से कंधा मिलाकर भारत के राष्ट्रवादीयों को निपटाने में तत्पर दिखाई देते हैं. वामियों को इलहमियों में कोई फासिस्ट प्रवृत्ति नजर नहीं आती, भगवे के अंधे को हरा अच्छा दिखाता होगा शायद.

आपिए वामियों की ही पैदाइश होती है सो उनसे अलग अपेक्षा नहीं रखी जा सकती. लड़ाई से पहले कई गतिविधियाँ होती है. उसमें एक है शत्रु भूमि पर अपने लिए कुछ अनुकूल मानसिकता तैयार करना, ताकि जब युद्ध की घोषणा हो तो सैनिकों को शत्रुभूमि में प्रतिकार कम मिले. इस के लिए कुछ अग्रिम दस्ते भेजे जाते हैं जो शत्रु के लोगों में घुल मिल जाते हैं, या फिर स्थानिक लोग होते हैं जिनको अपनी तरफ मोड़ा जाता है. ये लोग प्रस्थापित सत्ता के प्रति असंतोष पैदा कर देते हैं ताकि जब युद्ध शुरू हो तब स्थानिक कम से कम प्रस्थापित सत्ता से सहकार्य तो न करें. इस से भी अधिक अपेक्षाएं होती हैं लेकिन यह तो न्यूनतम है ही.

सत्ता की नींव कुरेद कुरेद कर खोखली करने में कम्युनिस्टों को महारत हासिल होती है. उनका एक ही नारा होता है – अमीरों की तिजोरियों में जो बंद है, उस धन पर हक गरीबों का है. आओ उन तिजोरियों के ताले तोड़ो, उस धन को निकालकर गरीबों में बांटो. बांटने के बाद नया कहाँ से लाये उसका उत्तर वे देते नहीं. रशिया और चाइना में कम्युनिज्म क्यों फेल हुआ उसका भी उत्तर उनके पास नहीं. खैर, मूल विषय से भटके नहीं, देखते हैं कि इस्लामिस्टों को कम्युनिस्ट क्यों अच्छे लगते हैं.

-- सामाजिक विषमता को टार्गेट कर के कम्युनिस्ट अपने विषैले प्रचार से प्रस्थापित सत्ता के विरोध में जनमत तैयार करते हैं.

-- चूंकि कम्युनिस्ट खुद को धर्महीन कहलाते हैं, उन्हें विधर्मी कहकर उनका मुकाबला नहीं किया जा सकता.

-- उनकी एक विशेषता है कि वे शत्रु का बारीकी से अभ्यास करते हैं, धर्म की त्रुटियाँ या प्रचलित कुरीतियाँ इत्यादि के बारे में सामान्य आदमी से ज्यादा जानते हैं.

-- वाद में काट देते हैं. इनका धर्म न होने से श्रद्धा के परिप्रेक्ष्य से इन पर पलटवार नहीं किया जा सकता.

-- इस तरह वे जनसमुदाय को एकत्र रखनेवाली ताक़त जो कि धर्म है, उसकी दृढ़ जडें काटने के प्रयास करते हैं.

-- समाज को एकजुट नहीं रहने देते, बैर भाव में बिखरे खंड खंड हो जाये, यही इनकी कोशिश होती हैं.

इस बिखरे हुए समाज पर इस्लाम का खूंखार और सुगठित आक्रमण हो, तो फिर प्रतिकार क्षीण पड़ जाता है. अगर यही इस्लाम सीधे धर्म पर आक्रमण करे तो धर्म के अनुयायी संगठित हों, लेकिन उन्हें बिखराने का काम यही कम्युनिस्ट कर चुके होते हैं. चुन चुन कर इन बिखरे हुओं को समाप्त करना प्रमाण में आसान होता है. कम्युनिस्टों के वैचारिक सामर्थ्य को इस्लाम पहचानता है, इसलिए किसी इस्लामिक राज्य में उन्हें रहने नहीं दिया जाता. जहाँ इस्लामी फंडामेंटालिस्टों ने सत्ता पायी, वहां पहले कम्युनिस्ट का इस्तेमाल किया, और सत्ता में आते ही सब से पहले इनका सफाया. कम्युनिस्ट उनके लिए काम के उल्लू होते हैं, गुलिस्ताँ उजाड़ने के लिए भेजे हुए. वैसे यह मुहावरा "काम के उल्लू" (Useful fools) लेनिन का है, जो रशिया में कम्युनिस्ट क्रांति का जनक माने जाते हैं. एक और एक जानने लायक बात यह है कि, कम्युनिस्ट भारतीय राष्ट्रवाद के किसी भी शत्रु से सहकार्य करेंगे. कसाई - ईसाई, दोनों जायज है, बस उनका भारतीय राष्ट्रवाद के शत्रु होना पर्याप्त है. भारतीयों को अब सोचना है. वक़्त ज्यादा नहीं है. 

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