फिल्मों में “क्लैप बोर्ड” क्या और क्यों होता है? – जानिए

Written by रविवार, 24 दिसम्बर 2017 08:12

बचपन से लेकर आज तक हमने सैकड़ों हिन्दी/अंगरेजी फ़िल्में देखी होंगी. कई बार फिल्मों में किसी शूटिंग के दृश्य में आपने यह जरूर देखा होगा कि निर्देशक द्वारा, हीरो को “एक्शन” (यानी काम शुरू) बोलने से पहले एक व्यक्ति हीरो के चेहरे के सामने एक लकड़ी का पटिया (What is clapper Board) लेकर खड़ा होता है, जिसमें ऊपर की तरफ एक पतली पट्टी अलग से फिट की हुई होती है.

इस लकड़ी के बोर्ड पर बहुत सारी चीज़ें लिखी हुई होती हैं. जिनकी तरफ आपका कभी ध्यान नहीं गया होगा. जब निर्देशक, हीरो को एक्शन बोलता है उसके बाद यह व्यक्ति हीरो के चेहरे के सामने लकड़ी के इस बोर्ड को पकड़कर जोर से कुछ बोलता है, और बोर्ड के ऊपर लगी हुई पतली पट्टी को उसी बोर्ड के ऊपर जोर से पटकता है और एक सेकण्ड में वह कैमरे की रेंज से बाहर निकल जाता है. उदाहरणार्थ गोविंदा अभिनीत फिल्म “स्वर्ग” के एक महत्त्वपूर्ण दृश्य में क्लैप बोर्ड का यह उपयोग स्पष्ट रूप से दिखाया गया है. इस पटिये पर “ठक” की आवाज़ और उस व्यक्ति के चिल्लाकर बोलने के पश्चात ही हीरो अपनी एक्टिंग शुरू करता है. इस लकड़ी के पटिये को ही “क्लैप बोर्ड” कहते हैं, और यह छोटा सा दिखाई देने वाला लकड़ी का पटिया, फिल्म निर्माण का एक बेहद महत्त्वपूर्ण अंग है. ये क्लैप बोर्ड किस काम आता है? (Film shooting and Clapper)

असल में जब कोई फिल्म बनाई जाती है, तो वह सैकड़ों-हजारों टुकड़ों और दृश्यों की शूटिंग को मिलाकर ही बनाई जाती है. फिल्म निर्माण कोई मंच पर खेला जाने वाला नाटक तो है नहीं कि वह “शुरू से अंत तक” ही मंचित किया जाएगा. फिल्मों में कई बार क्लाईमैक्स (अंतिम दृश्य) की शूटिंग पहले कर ली जाती है. इसी प्रकार निर्देशक की सुविधा, हीरो-हीरोईनों की तारीखें, उपलब्धता, मौसम इत्यादि को ध्यान में रखकर आउटडोर शूटिंग के कई हिस्से पहले ही देश-विदेश के विभिन्न भागों में शूट कर लिए जाते हैं. यदि निर्माता ने फिल्म के लिए किसी हवेली या होटल को किराए पर ले रखा है, तो उस हवेली में फिल्माए जाने वाले सभी दृश्य पहले शूटिंग किए जाते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि फिल्म की पटकथा के अनुसार विभिन्न दृश्य, विभिन्न लोकेशनों पर, विभिन्न समय और स्थान पर चित्रित किए जाते हैं. ऐसे में जब शूटिंग पूरी हो जाती है तब निर्देशक के पास लाखों फुट की फिल्म रीलें एकत्रित हो चुकी होती हैं (आजकल डिजिटल का ज़माना है, तो इसे हम लाखों दृश्य मान लेते हैं). अब फिल्म के इन सैकड़ों टुकड़ों को व्यवस्थित रूप से आगे-पीछे जमाकर पूरी फिल्म सटीक तरह बनाने की सबसे बड़ी चुनौती आती है. यहाँ पर इस क्लैप बोर्ड का फायदा शुरू होता है.

 

editing

लकड़ी के इस क्लैप बोर्ड पर फिल्म का नाम, दिनांक, समय, पटकथा के अनुसार दृश्य का नंबर इत्यादि जैसी महत्त्वपूर्ण जानकारी चाक अथवा खड़िया से लिखी जाती है. फिर अगले दृश्य के लिए पुनः उसे मिटाकर नए दृश्य का नंबर लिखा जाता है... इस प्रकार एक सीरीज चलती रहती है. यदि कोई दृश्य खराब शूटिंग हुआ है, अथवा पूरी तरह ठीक नहीं भी हुआ है तब भी क्लैप पर उस दृश्य के लिए 1, 2, 3, 4 नंबर लिखे जाते रहते हैं. इसका लाभ ये होता है कि जब पटकथा के सभी दृश्य फिल्मा लिए जाते हैं, तब अंत में निर्देशक अपनी सम्पादन की टेबल पर एक-एक करके पूरी फिल्म के हजारों टुकड़ों का केवल पहला दृश्य देखता है. इस दृश्य में उसे पता चल जाता है कि क्लैप बोर्ड पर लिखा हुआ दृश्य फिल्म में कहाँ पर आएगा, उसके अनुसार वह इन रीलों के टुकड़ों को क्रमवार ज़माने लग जाता है. इस क्लैप बोर्ड की वजह से निर्देशक को लाखों फुट की फिल्म के सैकड़ों-हजारों टुकड़ों को पूरा नहीं देखना पड़ता, वह केवल रील उठाकर प्रकाश की दिशा में रखकर पता कर लेता है कि यह टुकड़ा कहाँ जोड़ना है.

ये तो हुआ क्लैप बोर्ड का पहला महत्त्वपूर्ण कार्य, लेकिन क्लैप बोर्ड का एक और महत्त्वपूर्ण काम भी है और वह है साउंड, डायलोग तथा फिल्म में उसकी मैचिंग हेतु इसका उपयोग. जैसा कि सभी जानते हैं अशोक कुमार और देविका रानी वाले जमाने में फिल्मों की शूटिंग और डायलॉग की रिकॉर्डिंग एक साथ हुआ करती थी. यानी इधर दृश्य आरम्भ हुआ और उधर कैमरे में देविका रानी या सोहराब मोदी के अभिनय के साथ उनकी आवाज भी रिकॉर्ड होती चली जाती थी. इसी कारण स्टूडियो में शान्ति बनाए रखना जरूरी होता था. लेकिन पचास के दशक से ही “डबिंग” की सुविधा शुरू हो जाने से अभिनेताओं और निर्देशक का सिरदर्द काफी कम हो गया और फिल्म रीलों का नुकसान भी कम होने लगा. अब तो अभिनेता अपना दृश्य शूटिंग करके संवाद बोलकर निकल जाता है, चाहे उसमें खर्र-खर्र की आवाज़ आए या किसी टेबल सरकाने बर्तन गिरने की. इन सभी आवाजों को फिल्म पूरी होने के बाद “साउंड डबिंग” के समय हटा दिया जाता है. इस घड़ी में आकर क्लैप बोर्ड का दूसरा जरूरी कार्य आरम्भ होता है.

जैसा कि बताया, निर्देशक अपनी फिल्म सम्पादन टेबल पर लाता है और उसमें काट-छाँट करके क्लैप बोर्ड में लिखे नंबरों के अनुसार दृश्यों को क्रमवार जमाकर पूरी फिल्म तैयार कर लेता है. इसके बाद फिल्म में काम करने वाले सभी प्रमुख कलाकारों को फिर से डबिंग स्टूडियो में एक-एक करके बुलाया जाता है. इस समय तक निर्देशक टुकड़ों को आपस में जोड़कर जो फिल्म तैयार करता है उसमें क्लैप बोर्ड वाला दृश्य फिलहाल शामिल रहता है. अब शुरू होता है डायलॉग डबिंग का कार्य. जो व्यक्ति फिल्म के दृश्य और क्रमांक के बारे में जोर से चिल्लाकर बोलने के बाद क्लैप बोर्ड की ऊपरी पतली पट्टी गिराकर जोर से “ठक” की आवाज़ करता है, वह ध्वनि “मार्किंग” होती है, अर्थात एक निशानी होती है कि यहाँ से संवाद शुरू... अब डबिंग स्टूडियो में फिल्म के पहले दृश्य से शुरुआत की जाती है, और जहां-जहां डबिंग के लिए आए हुए हीरो (या हीरोइन) का दृश्य आता है वहाँ-वहाँ रोकी जाती है, ताकि संवादों की रिकॉडिंग की जा सके. क्लैप बोर्ड की “ठक” की आवाज आते ही हीरो अपना संवाद डबिंग करना शुरू करता है और निर्देशक के “कट” बोलने तक का संवाद पूरा रिकॉर्ड करवाता है. स्वाभाविक है कि इस काम में भी कई-कई बार दोहराना पड़ता है, क्योंकि जरूरी नहीं पहली ही बार में अभिनेता अपना संवाद एकदम सटीक समय पर और सटीक पद्धति से बोल ले. क्लैप बोर्ड यहाँ मददगार होता है. लकड़ी के पटिये पर “ठक” की आवाज़ वह चिन्ह होता है जहाँ से शुरू करना है, और यह फिल्म में मौजूद है, इसलिए गड़बड़ी की कोई आशंका नहीं रहती.

dubbing

आजकल डिजिटल ज़माना है तो लकड़ी के क्लैप बोर्ड की जरूरत नहीं रहती, डिजिटल स्लेट आने लगे हैं. लेकिन आज भी उन्हें “क्लैप” ही कहा जाता है. इसकी मदद से साउंड की, डायलॉग की आपस में सटीक मैचिंग बैठ जाती है. इस प्रकार सामान्यतः दो से तीन माह के भीतर पूरी फिल्म के संवादों, ध्वनियों एवं गीतों की डबिंग पूरी कर ली जाती है. सारा काम पूरा होने के बाद सबसे अंत में निर्देशक एक बार फिर समग्र फिल्म लेकर अपनी टेबल पर बैठता है, दृश्य-दर-दृश्य, संवाद-दर-संवाद पूरी फिल्म ध्यान दे देखता है. यदि उसे कहीं गड़बड़ी लगती है, तो वह कोई ख़ास दृश्य की शूटिंग भी दोबारा कर सकता है अथवा अभिनेता को बुलाकर दोबारा किसी दृश्य की डबिंग भी करवाता है. यह समस्त कार्य संपन्न होने के पश्चात ही इस पूरी फिल्म से क्लैप बोर्ड वाले दृश्य हटाए जाते हैं. इस प्रकार कड़ी मेहनत से सैकड़ों टुकड़ों में बंटी, दर्जनों स्थानों पर फिल्माई गयी, अलग-अलग समय पर, अलग-अलग अभिनेताओं द्वारा रिकॉर्ड किए गए संवादों वाली एक फिल्म हमारे सामने प्रदर्शन के लिए तैयार होती है. जिसे हम सवा दो घंटे के बाद दो मिनट में ही “बकवास फिल्म है यार” कहकर सैकड़ों लोगों की मेहनत पर पानी फेर देते हैं. 

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