वर्तमान राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भगवदगीता की उपयोगिता

Written by शुक्रवार, 01 दिसम्बर 2017 11:50

आज की स्थिति में भारत सहित समूची दुनिया में कई चुनौतियाँ सामने खड़ी हैं, चाहे वह इस्लामिक आतंकवाद हो, बेरोजगारी हो या आर्थिक गतिविधियाँ हों....

ऐसे समय पर सहज ही भगवान कृष्ण द्वारा सनातन धर्म को दिया गया सर्वोत्तम उपहार अर्थात भगवद गीता का स्मरण हो आता है. देखा जाए तो हिंदुओं ने गीता में दिए गए उपदेशों पर सही ढंग से अमल नहीं किया है. इसे केवल एक पवित्र ग्रन्थ मानकर इसकी पूजा की, कसमें खाईं. प्रश्न यह भी है कि गीता वर्तमान राष्ट्रीय या वैश्विक परिवेश में कहाँ फिट होती है? एवं यदि फिट भी होती है, तो कौन सी गीता, प्रवचन वाली, भावनामृत वाली, मृतप्राय शरीर के कानों में आखिरी शब्द वाली, भाष्य वाली, या फिर कोई और गीता भी है?

एक बात और, क्या सन्दर्भ एवं मूल को जाने अथवा स्वीकारे बिना किसी भी बात के वास्तविक अर्थ को जाना जा सकता है? क्या गीता का वास्तविक ज्ञान हम महाभारत को भुलाकर प्राप्त कर सकते हैं? यदि गीता की उपयोगिता राष्ट्रीय संकट एवं युद्धकाल में नहीं थी तो भगवान् श्रीकृष्ण को गीता कुरुक्षेत्र में कहने की आवश्यकता ही नहीं थी, यह ज्ञान तो भगवान् अर्जुन के कानों में कभी भी ऊंडेल सकते थे आखिर अर्जुन उनका सखा, भाई, बहनोई इत्यादि रिश्तों से जुड़ा होने के साथ साथ परम प्रिय शिष्य भी था. तो फिर राष्ट्रीय संकट काल अथवा युद्ध काल के अतिरक्त यदि गीता की कोई उपयोगिता है भी तो वह मात्र मूल सन्देश को अन्य दिशा में ढालकर उससे प्रेरणा लेने तक ही सीमित है. वास्तविक गीता तो हारे हुए, मानसिक रूप से दिग्भ्रमित, मोह ग्रस्त धर्मराजों एवं उनके भाइयों को युद्ध एवं विजय का मार्ग ही दिखलाती है, यही गीता यह भी बताती है कि, हैं तो सब तुम्हारे भाई, बंधु-बांधव लेकिन ये सभी भाई एवं बंधु-बांधव तुम्हारे एवं तुम्हारे राष्ट्र के शत्रु हैं, यानि गीता तथाकथित भाइयों में मित्र एवं शत्रु की पहचान करने का मार्ग भी हमें बताती है, गीता हमें यह भी बताती है कि जिन पूज्यजनों को आज तक हम राष्ट्रीय प्रतिमान मानकर पूजते आये हैं वे वास्तव में राष्ट्र के निर्माण के प्रस्तर खंड नहीं वरन इस राष्ट्र की जड़ों को गलाने वाली दीमकों के संरक्षक एवं पोषक हैं एवं ऐसे प्रतिमानों का ढहाया जाना इस राष्ट्र की रक्षा हेतु परम आवश्यक है| गीता हमें यह भी बताती है कि जिन लौह स्तंभों को हमने राष्ट्र की रक्षा एवं निर्माण का आधार माना, उन्ही लौह स्तंभों ने अपनी चोटों से राष्ट्र रुपी चट्टान के टुकडे करने में कोई गुरेज नहीं किया.

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गीता की उपयोगिता सर्वाधिक है क्योकि जिस युद्ध से तुम बचना चाहते हो, वह युद्ध तुम्हारी इच्छा से नहीं लड़ा जाना है, वह युद्ध तो तुमपर लाद दिया जा रहा है. कृष्ण ने भी लाख प्रयास किसे थे, यही सोचकर कि युद्ध नहीं हो, लेकिन क्या व्यास जी या भीष्म पितामह, कृपाचार्य, विदुर आदि चाहकर भी युद्ध रोक पाए, नहीं. उन्हें फिर भी लड़ना पड़ा, एवं लड़े भी तो अन्याय के साथ खड़े होकर, उसका पक्ष लेकर, इसलिए लड़ना तो तुम्हे पड़ेगा ही, साथ ही साथ जिन्हें तुम तुम्हारे आदर्श मानते आये हो वे भी तुम्हारे विरुद्ध युद्ध करेंगे, अब या तो हार जाओ, या समझौता कर राष्ट्र का विभाजन स्वीकर कर लो, जीत भी गए तो शत्रु को क्षमा करने वाला युद्ध लड़ के देख लो, या फिर एक आखिरी युद्ध एवं शत्रु का सर्वस्व विनाश एवं सम्पूर्ण जीत. जब महाभारत होना तय ही है तो क्यों नहीं तैयारियां भी पूर्ण कर ली जाएँ. ऐसी ही तैयारियों के लिए गीता को एवं महाभारत को जान लेने की आवश्यकता है.

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हमें ध्यान रहे कि हृदय, मस्तिष्क और हाथ तीनों के बीच उचित तालमेल अर्थात श्रद्धा पर बुद्धि का, बुद्धि पर विश्वास का पहरा जरूरी है तथा श्रद्धा और बुद्धि का शस्त्र से जुड़ाव आवश्यक है, एक बार श्रद्धा एवं बुद्धि यदि शस्त्र से जुड़ गयी तो तुम्हे विश्वविजयी बनने से रोकना किसी के बूते की बात नहीं है, म्यांमार के लामा असिन विराथू ने यही तो किया, गीता के ज्ञान का सही सदुपयोग... क्योंकि श्रद्धाविहीन, तर्कशून्य, विवेकशून्य शत्रु प्रेम की भाषा नहीं समझता, वह उसे तुम्हारी कमजोरी समझता है इसलिए कितना भी भाईचारा दिखाओ, युद्ध तो तुम्हे करना ही पड़ेगा, यह तो तय है.

कसमें खाई जाती हैं भारतवर्ष को मिटा देने की, और वास्तव में कतरा-दर-कतरा मिटाया जा रहा है भारतवर्ष और भारतीयता को. एक विचार है भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के विनाश का एवं इसके लिए तैयारी है हजार वर्षों तक की, पूरी तैयारी हो चुकी है, मंच सजे हुए हैं, धीरे धीरे हमें एवं हमारी संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है. धर्म परिवर्तन, कुशिक्षा, हमारे आस्था केन्द्रों को अश्लील एवं अवैज्ञानिक रूप से प्रस्तुत करना, सांकृतिक विरासत एवं साहित्य को नष्ट करना एवं हमारे नौजवानों में अपनी संस्कृति, भाषा, जीवनशैली के प्रति घृणा भरना. इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पुनः लिखना एवं सम्पादित अंश ही पढाना. झूठे राष्ट्रीय प्रतिमान घोषित कर हमें हमारी जड़ों से काटना, यह सब वृहत स्तर पर चल रहा है. हम इतने आत्मकेंद्रित हो चुके हैं कि हमारे आसपास से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं एवं इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि अर्थसंचय एवम अर्जन के अलावा हमारा राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता से कोई सरोकार ही नहीं बचा है.

भगवान श्री कृष्ण ने तो गीता पूरे विश्व के मानसिक रूप से हारे हुओं के लिए अर्जुन को समझा दी, अब या तो कृष्ण की प्रतीक्षा कर लो या फिर कृष्ण ने जो अर्जुन से करवाया वही तुम भी कर लो, क्योंकि गीता तो तुम्हारे पास ही है, उसे तो कृष्ण वापस लेकर नहीं गए, गीता तो सार्वभौमिक है,सार्वकालिक है, जिसमें राष्ट्रहित, लोकहित के रास्ते अकर्म, सुकर्म, विकर्म कुछ भी करते हुए पूर्णता पाई जा सकती है. तो फिर एक मात्र लक्ष्य, एक मात्र विचार, पूरा शक्ति संचय एवं शत्रु का सम्पूर्ण नाश एवं पूर्ण विजय यही लक्ष्य निश्चित कर लो और चल पड़ो विजय के मार्ग पर, कृष्ण तुम्हारे साथ है एवं विजय निश्चित है

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